Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध जब तक मनुष्य इस 'काम' के दुष्परिणाम को नहीं जान लेता, उससे विरक्ति होना कठिन है। प्रस्तुत दो सूत्रों में काम-विरक्ति के पांच पालम्बन बताये हैं, जिनमें से दो का वर्णन सूत्र 90 में है / जैसे . काम-विरक्ति का प्रथम पालम्बन बताया है-(१) जीवन की क्षणभंगुरता। आयुष्य प्रतिक्षण घटता जा रहा है, और इसको स्थिर रखना या बढ़ा लेना-किसी के वश का नहीं है। द्वितीय पालम्बन है-(२) कामी को होने वाले मानसिक परिताप, पीड़ा, शोक आदि को समझना। साधक को 'आयतचक्खू' कहकर उसकी दीर्घदृष्टि तथा सर्वांग-चिन्तनशीलताअनेकान्तदृष्टि होने की सूचना की है। अनेकान्तदृष्टि से वह विविध पक्षों पर गंभीरतापूर्वक विचारणा करने में सक्षम होता है। टीका के अनुसार 'इहलोक-परलोक के अपाय को देखने की क्षमता रखने वाला--आयतचक्षु है।'' ___काम-वासना से चित्त को मुक्त करने के तीन पालम्बन -- अाधार सूत्र 91 में इस प्रकार बताये गये हैं। 3. (1) लोक-दर्शन, 4. (2) अनुपरिवर्तन का बोध, 5. (3) संधि-दर्शन / क्रमशः इनका विवेचन इस प्रकार है 3. (1) लोक-दर्शन--- लोक को देखना / इस पर तीन दृष्टियों से विचार किया जा सकता है। (क) लोक का अधोभाग विषय-कषाय से प्रासक्त होकर शोक-पीड़ा आदि से दुखी होता है। यहाँ अधोभाग का अर्थ अधोभागवर्ती नैरयिक समझना चाहिए। लोक का ऊर्श्वभाग (देव) तथा मध्यभाग (मनुष्य एवं तिर्यंच) भी विषय-कषाय में आसक्त होकर शोक व पीड़ा से दुखी हैं। (ख) दीर्घदर्शी साधक ~ इस विषय पर भी चिन्तन करें-- अमुक भाव व वृत्तियाँ अधोगति की हेतु हैं, अमुक ऊर्ध्वगति की तथा अमुक तिर्यग् (मध्य-मनुष्य-तर्यंच) गति की (ग) लोक का अर्थ है-भोग्य वस्तु या विषय / शरीर भी भोग्य वस्तु या भोगायतन है। शरीर के तीन भाग कल्पित कर उन पर चिन्तन करना लोकदर्शन है / जैसे 1 अधोभाग–नाभि से नीचे का भाग, 2 ऊर्ध्वभाग-नाभि से ऊपर का भाग, ३तियंग भाग-ताभि-स्थान इन तीनों भागों पर चिन्तन करे ! यह अशुचि-भावना का एक सुन्दर माध्यम भी है / इससे शरीर को भंगुरता, असारता आदि की भावना दृढ़ हो जाती है। शरीर के प्रति ममत्वरहितता आती है। 1. प्राचा. टीका 103 2. प्राचारांग टीका पत्रांक-१०४ 3. देखें स्थांनांग सूत्र०, स्थान 4. उद्देशक 4 सूत्र 373 (चार गति के विभिन्न कारण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org