Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय अध्ययन : चतुर्य उद्देशक : सूत्र 125-131 115 उठे तो तुरन्त ही संभल कर उसका त्याग कर देना चाहिए, उसे शीघ्र ही मन से खदेड़ देना चाहिए, अन्यथा वह अड्डा जमा कर बैठ जाएगा, इसलिए यहाँ शास्त्रकार ने 'वंता' शब्द का प्रयोग किया है। वृत्तिकार ने कहा है-क्रोध, मान, माया और लोभ को वमन करने से ही पारमार्थिक (वास्तविक) श्रमण भाव होता है, अन्यथा नहीं। इस (कषाय-परित्याग) को सर्वज्ञ-सर्वदर्शी का दर्शन इसलिए बताया गया है कि कषाय का सर्वथा परित्याग किये बिना निरावरण एवं सकल पदार्थग्राही केवल (परम) ज्ञान-दर्शन की प्राप्ति नहीं होती और न ही कषाय-त्याग के बिना सिद्धि-सुख प्राप्त हो सकता है।' 'आयाणं सगडम्मि'-यह वाक्य इसी उद्देश्क में दो बार पाया है, परन्तु पहली बार दिए गये वाक्य में आयागं के बाद निसिखा' शब्द नहीं है, जबकि दूसरी बार प्रयुक्त इसी वाक्य में 'निसिद्धा' शब्द प्रयुक्त है। इसका रहस्य विचारणीय है। लगता है-लिपिकारों की भूल से 'निसिद्धा' शब्द छूट गया है। 'आदान' शब्द का अर्थ वृत्तिकार ने इस प्रकार किया है---'पात्म-प्रदेशों के साथ पाठ प्रकार के कर्म जिन कारणों से प्रादान-ग्रहण किये जाते हैं, चिपकाये जाते हैं, वे हिंसादि पांच आस्रव, अठारह पापस्थान या उनके निमित्त रूप कषाय-आदान हैं। इन कषायरूप पादानों का जो प्रवेश रोक देता है, वही साधक अनेक जन्मों में उपाजित स्वकृत कर्मों का भेदन करने वाला होता है / प्रात्म-जागृति या प्रात्मस्मृति के अभाव में ही कषाय को उत्पत्ति होती है / इसलिए यह भी एक प्रकार से प्रमाद है और जो प्रमादग्रस्त है, उसे कषाय या तज्जनित कर्मों के कारण सब ओर से भय है। प्रमत्त व्यक्ति द्रव्यत:-सभी आत्म-प्रदेशों से कर्म संचय करता है, क्षेत्रतः-छह दिशाओं में व्यवस्थित, कालत:-प्रतिक्षण, भावत:-हिंसादि तथा कषायों से कर्म संग्रह करता है। इसलिए प्रमत्त को इस लोक में भी भय है, परलोक में भी / जो आत्महित में जागृत है, उसे न तो संसार का भय रहता है, न ही कर्मों का / 'एग जाणइ०' इस वाक्य का तात्पर्य यह है कि जो विशिष्ट ज्ञानी एक परमाण प्रादि द्रव्य तथा उसके किसी एक भूत-भविष्यत् पर्याय अथवा स्व या पर पर्याय को पूर्ण रूप से जानता है, वह समस्त द्रव्यों एवं पर-पर्यायों को जान लेता है; क्योंकि समस्त वस्तूमों के ज्ञान के बिना अतीत-अनागत पर्यायों सहित एक द्रव्य का पूर्ण ज्ञान नहीं हो सकता। इसी प्रकार जो संसार की सभी वस्तुओं को जानता है, वह किसी एक वस्तु को भी उसके अतीत-अनागत पर्यायों सहित जानता है / एक द्रव्य का सिद्धान्त दृष्टि से वास्तविक लक्षण इस प्रकार बताया गया है 1. प्राचा. टीका पत्र 154 3. आचा० टीका पत्र 155 5. प्राचा. टीका पत्र 155 2. प्राचा० टीका पत्र 155 4. प्राचा० टीका पत्र 155 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org