Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 126 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध 138. वयं पुण एवमाचिक्खामो,' एवं भासामो, एवं पण्णवेमो, एवं परूवेमो—'सत्वे पाणा सन्वे भूता सब्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हतन्वा, ण अज्जावेतवा, ण परिघेत्तव्या, परियावेयव्वा, ण उहवेतव्वा / एत्थ वि जाणह पत्थेत्थ दोसो।' आरियवयणमेयं / 139. पुवं णिकाय समयं पत्तय पुच्छिस्सामो-3 हैं भो पावादुया ! कि भे सायं दुक्खं उता असायं ? समिता पडिवण्णे या वि एवं बूया-सव्वेसिं पाणाणं सर्वसि भूताणं सवेसि जीवाणं सर्वेसि सत्ताणं असायं अपरिणिवाणं महब्भयं दुक्खं तित्ति बेमि / // बोओ उद्देसओ सम्मत्तो। 134. जो आस्रव (कर्मबन्ध) के स्थान हैं, वे ही परिस्रव-कर्मनिर्जरा के स्थान बन जाते हैं, (इसीप्रकार) जो परिस्रव हैं, वे प्रास्रव हो जाते हैं, जो अनास्रब. व्रत विशेष हैं. वे भी (प्रशभ अध्यवसाय वाले के लिए) अपरिसव-कर्म के कारण है जाते हैं, (इसीप्रकार) जो अपरिस्रव-पाप के कारण हैं, वे भी (कदाचि') अनास्रव (कर्मबंध के कारण) नहीं होते हैं। इन पदों (भंगों-विकल्पों) को सम्यक् प्रकार से समझने वाला तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित लोक (जीव समूह) को प्राज्ञा (पागमवाणी) के अनुसार सम्यक् प्रकार से जानकर आस्रबों का सेवन न करे। ज्ञानी पुरुष, इस विषय में, संसार में स्थित, सम्यक् बोध पाने के लिए उत्सुक एवं विज्ञान-प्राप्त (हित की प्राप्ति और अहित से नित्ति के निश्चय पर पहुँचे हुए) मनुष्यों को उपदेश करते हैं / जो आर्त अथवा प्रमत्त (विषयासक्त) होते हैं, वे भी (कर्मों का क्षयोपशम होने पर अथवा शुभ अवसर मिलने पर) धर्म का आचरण कर सकते हैं। यह यथातथ्य-सत्य है, ऐसा मैं कहता हूँ। जीवों को मृत्यु के मुख में (कभी) जाना नहीं होगा, ऐसा सम्भव नहीं है। फिर भी कुछ लोग (विषय-सुखों की) इच्छा द्वारा प्रेरित और वक्रता (कुटिलता) के घर बने रहते हैं। वे मृत्यु की पकड़ में आ जाने पर भी (अथवा धर्माचरण का काल/अवसर हाथ में आ जाने पर भी भविष्य में करने की बात सोचकर) कर्म-संचय करने या धन-संग्रह में रचे-पचे रहते हैं। ऐसे लोग विभिन्न योनियों में बारम्बार जन्म ग्रहण करते रहते हैं। 135. इस लोक में कुछ लोगों को उन-उन (विभिन्न मतवादों) का सम्पर्क होता है, (वे उन मतान्तरों को असत्य धारणाओं से बंधक र कर्मास्रव करते हैं और 1 'माचिक्खामो' के स्थान पर कहीं-कहीं 'मातिक्खामो' पाठ मिलता है। कई प्रतियों में 'पत्त यं गत्तय'--यों दो बार यह शब्द अंकित है। 3. 'ह भी पाबादुया !' के स्थान पर किसी प्रति में है भो पावादिया तथा हं भो समणा माहणा कि पाठ है। 4. 'सायं दुक्खं उताहु असाय' के स्थान पर 'सातं दुबखं उदाहु अस्सात'-सा पाठ चूणि में मिलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org