Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ चतुर्थ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 134-139 125 एते य पए सबुज्झमाणे लोगं च आणाए अभिसमेच्चा पुढो पवेदितं / आघाति गाणी इह माणवाणं संसारपडिवण्णाणं संबुज्झमाणाणं विण्णाणपत्ताणं / अद्रा वि संता अदुवा पमत्ता। अहासच्चमिणं ति बेमि। णाऽणागमो मच्चमस्स अस्थि / इच्छापणीता वंकाणिकेया कालग्गहीता णिचये णिविट्ठा पुढो पुढो जाइं पकप्पंति / 135. इहमेगेसि तत्थ तत्थ संथवो भवति / अहोववातिए फासे पडिसंवेदयंति / चिट्ट करेहि कम्मेहि चिट्ट परिविचिट्ठति / अचिट्ट करेहि कम्मेहि णो चिट्ट परिविचिठ्ठति / एगे वदंति अदुवा विणाणी, गाणी वदंति अदुवा वि एगे। 136. आवंतो केआवंती लोयंसि समणा य माहणा य पुढो विवादं वदंति "से दिठं च णे, सुयं च णे, मयं च णे, विण्णायं च णे, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु सव्वतो सुपडिलेहियं च णे-सम्वे पाणा सव्वे जीवा सव्वे भूता सव्वे सत्ता, हंतब्वा, अज्जावेतवा, परिघेत्तवा, परितावेतवा, उहवेतव्वा / एत्थ वि जाणह णत्थेत्थ दोसो।" अणारियवयणमेयं / / 137. तत्थ जे ते आरिया ते एवं वयासी-"से दुद्दिठं च भे, दुस्सुयं च मे, दुम्मयं च भे, दुब्दिण्णायं च भे, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु सव्वतो दुष्पडिले हितं च भे, जं णं तुम्मे एवं आचक्खह, एवं भासह, एवं पण्णवेह, एवं परूवेह-सव्वे पाणा सम्वे भूता सम्वे जीवा सन्वे सत्ता हंतवा, अज्जावेतवा, परिघेत्तवा, परितावेयव्वा, उद्दवेतन्वा / एत्थ वि जाणह जत्थेत्थ दोसो।" अणारियवयणमेयं / 1. 'एते य पए संबुज्झमाणे....' पाठ में किसी-किसी प्रति में 'य' नहीं है। चूणि में इन पदों की व्याख्या इस प्रकार की गयी है-"एते य पवे संबुज्म, च सद्दा अण्णे य जीव-अजीव-बंध-संवर-मोक्खा। संमं संगतं वा पसत्यं वा बुज्झमाणे"-'च' शब्द से अन्य (तत्त्व) जीव, अजीव, बन्ध, संवर और मोक्ष पदों का ग्रहण कर लेना चाहिए / 'संबुज्नमाणे' का अर्थ है--सम्यक्, संगत या प्रशस्तरूप से समझने वाला"..." 2. भदंत नागार्जुन नाचना में इस प्रकार का पाठ उपलब्ध है-"आघाति धम्म खलु जे जीवाणं, संसार पडिवण्णाणं मशुस्सभवत्थागं आरंभविणयोण दुक्खुब्बेअसुहेसगाणं, धम्मसवणगवेसगाण (निक्खित्त. सतपाण) सुस्ससमाणाणं पडिपुच्छमाणाणं विण्णाणपत्ताणं / " इसका भावार्थ इस प्रकार है- ज्ञानी पुरुष उन जीवों को धर्मोपदेश देते हैं, जो संसार (चतुर्गति रूप) में स्थित हैं, मनुष्यभव में स्थित हैं, प्रारम्भ से विशेष प्रकार से हटे हुए हैं, दुःख से उद्विग्न होकर सुख की तलाश करते हैं, धर्म-श्रवण की तलाश में रहते हैं, शस्त्र-त्यामी हैं, धर्म सुनने को इच्छुक हैं, प्रति-प्रा करने के अभिलाषी हैं, जिन्हें विशिष्ट अनुभव युक्त ज्ञान प्राप्त है / 3. 'पुढो पुढो जाई पकप्पेति' के स्थान पर 'एत्य मोहे पुणो पुणो' पाठ मिलता है। इसका अर्थ है-इस विषय में पुनः पुनः मोह-मूद बनते हैं। 4. यहाँ पाठ में क्रम भंग हुम्रा लगता है / 'सव्वे पाणा, सम्वे भूता, सव्वे जीवा, सम्वे सत्ता'---यही क्रम ठीक लगता है। 5. 'आरिमा' के स्थान पर 'आयरिया पाठ भी है, उसका अर्थ है-प्राचार्य / . 'णस्थेत्य' के स्थान पर कई प्रतियों में 'नवित्थ' शब्द मिलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org