Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 108-109 'संग'-विषयों के प्रति राग-द्वेष रूप सम्बन्ध, लगाव या प्रासक्ति / शीतोष्ण-त्यागी का मतलब है--जो साधक शीत-परिषह और उष्ण-परिषह अथवा अनुकूल और प्रतिकूल परिषह को सहन करता हुआ उनमें निहित वैषयिक सुख और पीड़ाजनक दुःख की भावना का त्याग कर देता है / अर्थात् सुख-दुःख की अनुभूति से चंचल नहीं होता है। 'अरति-रतिसहे' का तात्पर्य है-जो संयम और तप में होनेवाली अप्रीति और अरुचि को समभावपूर्वक सहता है-उन पर विजय प्राप्त करता है, वह बाह्य एवं प्राभ्यन्तर ग्रन्थ (परिग्रह) से रहित निर्ग्रन्थ साधक है। 'फारतिय जो वेदेति' का भाव है, वह निर्ग्रन्थ साधक परिषहों और उपसर्गों को सहने में जो कठोरता-कर्कशता या पीड़ा उत्पन्न होती है, वह उस पीड़ा को पीड़ा रूप में वेदनअनुभव नहीं करता, क्योंकि वह मानता है कि मैं तो कर्मक्षय करने के लिए उद्यत हूँ। मेरे कर्मक्षय करने में ये परिषह, उपसर्गादि सहायक हैं। वास्तव में अहिंसादि धर्म का प्राचरण करते समय कई कष्ट पाते है, लेकिन अज्ञानीजन कष्ट का वेदन (Feeling) करता है, जबकि ज्ञानीजन कष्ट को तटस्थ भाव से जानता है परन्तु उसका वेदन नहीं करता। ____ 'जागर' और 'रोपरत' ये दोनों 'वीर' के विशेषण हैं। जो साधक जागत और वैर से उपरत है, वही वीर है- कर्मों को नष्ट करने में सक्षम है। वीर शब्द से उसे सम्बोधित किया गया है / 'जागर' शब्द का प्राशय है-असंयमरूप भावनिद्रा का त्याग करके जागने वाला। अप्रमत्तता 108. जरा-मच्चुवसोवणीते गरे सततं मूढे धम्म णाभिजाणति / पासिय 'आतुरे पाणे अप्पमत्तो परिव्यए। मंता एवं मतिमं पास, आरंभजं दुक्खमिणं ति णच्चा, मायी पमायो पुणरेति गम्भं / उवेहमाणो सद्द-रूवेसु अंज माराभिसंकी मरणा पमुच्चति / 109. अप्पमत्तो कामेहि, उवरतो पावकम्मेहि, वीरे आयगुत्ते खेयण्णे / जे पज्जवजातसत्थस्स खेतणे से असत्थस्स खेतण्णे / जे असत्थस्स खेतण्णे से पज्जवजातसत्थस्स खेतण्णे / 108. बुढ़ापे और मृत्यु के वश में पड़ा हुआ मनुष्य (शरीरादि के मोह से) सतत मूढ़ बना रहता है / वह धर्म को नहीं जान पाता / (सुप्त) मनुष्यों को शारीरिक-मानसिक दुःखों से आतुर देखकर साधक सतत अप्रमत्त (जागृत) होकर विचरण करे / हे मतिमान् ! तू मननपूर्वक इन (भावसुप्त आतुरों-दुखियों) को देख / 1. पाठान्तर है-आतुरिए पाले, आतुरपाणे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org