Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 112-117 जन्म और मृत्यु के समय जीव को जो दुःख होता है, उस दुःख से संमूढ़ बना हुआ व्यक्ति अपने पूर्व जन्म का स्मरण नहीं कर पाता। 'भूतेहि जाण पडिलेह सायं' का तात्पर्य यह है कि संसार के समस्त भूतों (प्राणियों) को जो कि 14 भेदों में विभक्त हैं, उन्हें जाने ; उन भूतों (प्राणियों) के साथ अपने सुख की तुलना और पर्यालोचन करे कि जैसे मुझे सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है; वैसे ही संसार के सभी प्राणियों को है / ऐसा समझ कर तू किसी का अप्रिय मत कर, दुःख न पहुँचा। ऐसा करने से त जन्म-मरणादि का दःख नहीं पाएगा। _ 'तम्हाऽतिविज परमं ति णच्चा'----इस सूत्र के अन्तर्गत कई पाठान्तर हैं / बहुत सी प्रतियों में 'तिविज्जो' पाठ मिलता है, वह यहाँ संगत भी लगता है, क्योंकि इससे पूर्व शास्त्रकार तीन बातों का सूक्ष्म एवं तात्त्विक दृष्टि से जानने-देखने का निर्देश कर चुके हैं / वे तीन बातें ये हैं-(१) पूर्वजन्म-श्रृखला और विकास की स्मृति, (2) प्राणिजगत् को भलीभाँति जानना और (3) अपने सुख-दुःख के साथ उनके सुख-दुःख की तुलना करके पर्यालोचन करना। इन्हीं तीनों बातों का ज्ञान प्राप्त करना त्रिविद्या है। त्रिविद्या जिसे उपलब्ध हो गयी है, वह विद्य कहलाता है। बौद्धदर्शन में भी त्रिविद्या का निरूपण इस प्रकार है--(१) पूर्वजन्मों को जानने का ज्ञान, (2) मृत्यु तथा जन्म को (इनके दुःखों को) जानने का ज्ञान, (3) चित्तमलों के क्षय का ज्ञान / इन तीन विद्याओं को प्राप्त कर लेने वाले को वहाँ 'तिविज्ज' (विद्य) कहा है।' दूसरा पाठान्तर है—'अतिविज्जे- इसका अर्थ वृत्तिकार ने यों किया है जिसकी विद्या जन्म, वृद्धि, सुख-दुःख के दर्शन से अतीव तत्त्व विश्लेषण करने वाली है, वह अतिविद्य अर्थात् उत्तम ज्ञानो है। इन दोनों संदर्भो में वाक्य का अर्थ होता है इसलिए वह वैविद्य या प्रतिविद्य (प्रति विद्वान्) परम को जानकर....."यहाँ अतिविद्य या त्रिविद्य परम का विशेषण है, इसलिए अर्थ होता है-अतीव तन्व ज्ञान से युक्त या तीन विद्याओं से सम्बन्धित परम को जानकर। 'परम' के अनेक अर्थ हो सकते हैं-निर्वाण, मोक्ष, सत्य (परमार्थ) / सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र भी परम के साधन होने से परम माने गये हैं। 'समत्तवंसी' जो समत्वदर्शी है, वह पाप नहीं करता, इसका तात्पर्य यह है कि पाप और विषमता के मूल कारण राग और द्वेष हैं / जो अपने भावों को राग-द्वष से कलुषितमिश्रित नहीं करता और न किसी प्राणी को राग-द्वेषयुक्त दृष्टि से देखता है, वह समत्वदर्शी 1. विद्य का उल्लेख जैसे बौद्ध साहित्य में मिलता है, वैसे वैदिक साहित्य में भी मिलता है। देखियेभगवद्गीता अ० 1 में 20 वा श्लोक ___"विद्या मां सोमपाः पूतपापा, गॉरिष्ट्वा स्वर्गति प्रार्ययन्ते / " पहां विद्या का अर्थ वैसा ही कुछ होना चाहिए जैसा कि जैनशास्त्र में पूर्वजन्म-दर्शन, विकास-दर्शन थिा प्राणिसमत्व-दर्शन, प्रात्मौपम्य-सुख-दुःख-दर्शन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org