Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 107 87 अरति-रति-त्याग 107. जस्सिमे सदा य रूवा य गधा य रसा य फासा य अभिसमण्णागता भवंति' से आत जाणवं वेयवं धम्मवं बंभवं पण्णाणेहि परिजाणति लोगं, मुणी ति वच्चे धम्मविदु त्ति अंज आवट्टसोए संगमभिजाणति / सीतोसिणच्चागी से णिग्गंथे अरति रतिसहे फारुसियं णो वेदेति, जागर-वेरोवरते वोरे ! एवं दुक्खा पमोक्खसि / 107. जिस पुरुष ने शब्द , रूप, गन्ध, रस और स्पर्श को सम्यक्प्रकार से परिज्ञात कर लिया है, (जो उनमें राग-द्वेष न करता हो), वह प्रात्मवान्, ज्ञानवान्, वेदवान् (आचारांग आदि आगमों का ज्ञाता), धर्मवान् और ब्रह्मवान् होता है। जो पुरुष अपनी प्रज्ञा (विवेक) से लोक को जानता है, वह मुनि कहलाता है। वह धर्मवेत्ता और ऋजु (सरल) होता है। (बह आत्मवान् मुनि) संग (आसक्ति) को पावर्त-स्रोत (जन्म-मरणादि चक्र के स्रोत-उद्गम) के रूप में बहुत निकट से जान लेता है। __ वह निर्ग्रन्थ शीत और उष्ण (सुख और दुःख) का त्यागी (इनकी लालसा से) मुक्त होता है तथा वह अरति और रति को सहन करता है (उन्हें त्यागने में पीड़ा अनुभव नहीं करता) तथा स्पर्शजन्य सुख-दुःख का वेदन (प्रासक्तिपूर्वक अनुभव) नहीं करता। जागृत (सावधान) और वैर से उपरत वीर ! तु इस प्रकार (ज्ञान, अनासक्ति, सहिष्णुता, जागरूकता और समता-प्रयोग द्वारा) दुःखों-दु:खों के कारण कर्मों से मुक्ति पा जाएगा। विवेचन-इस सूत्र में पंचेन्द्रिय-विषयों के यथावस्थित स्वरूप के ज्ञाता तथा उनके त्यागी को ही मुनि, निर्ग्रन्थ एवं वीर बताया गया है / अभिसमन्वागत का अर्थ है-जो विषयों के इष्ट-अनिष्ट, मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूप कोस्वरूप को, उनके उपभोग के दुष्परिणामों को प्रागे-पीछे से, निकट और दूर से ज्ञ-परिज्ञा से भलीभाँति जानता है तथा प्रत्याख्यान-परिज्ञा से उनका त्याग करता है। आत्मवान् का अर्थ है-ज्ञानादिमान् अथवा शब्दादि विषयों का परित्याग करके प्रात्मा की रक्षा करने वाला। ज्ञानदान का अर्थ है जो जीवादि पदार्थों का यथावस्थित ज्ञान कर लेता है। वेदवान् का अर्थ है-जीवादि का स्वरूप जिनसे जाना जा सके, उन वेदों-आचारांग प्रादि प्रागमों का ज्ञाता। 1. यहाँ पाठान्तर में 'आयवी', 'नाणवी', 'वेयवो', 'धम्मवी', 'बंभवी', मिलता है जिसका अर्थ होता है —वह आत्मविद्, ज्ञानविद, प्राचारादिक आगमों का वेत्ता (वेदवित्), धर्म पित् और ब्रह्म (18 प्रकार के ब्रह्मचर्य) का वेत्ता होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org