Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 77 द्वितीय अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 99-100 जे अणण्णदंसी से अणण्णारामे, 'जे अणण्णारामे से अणण्णदंसो / 100. जो पुरुष वीतराग की आज्ञा का पालन नहीं करता वह संयम-धन (ज्ञानादि रत्नत्रय) से रहित-दुर्वसु है। वह धर्म का कथन-निरूपण करने में ग्लानि (लज्जा या भय) का अनुभव करता है, (क्योंकि) वह चारित्र की दृष्टि से तुच्छ-हीन जो है। वह वीर पुरुष (जो वीतराग की आज्ञा के अनुसार चलता है) सर्वत्र प्रशंसा प्राप्त करता है और लोक-संयोग (धन, परिवार आदि जंजाल) से दूर हट जाता है, मुक्त हो जाता है / यही न्याय्य (तीर्थंकरों का) मार्ग कहा जाता है। यहाँ (संसार में) मनुष्यों के जो दुःख (या दुःख के कारण) बताये हैं, कुशल पुरुष उस दुःख को परिज्ञा--विवेक (दुःख से मुक्त होने का मार्ग) बताते हैं। इस प्रकार कर्मो (कर्म तथा कर्म के कारण) को जानकर सर्व प्रकार से (निवत्ति करे। जो अनन्य (आत्मा) को देखता है, वह अनन्य (प्रात्मा) में रमण करता है। जो अनन्य में रमण करता है, वह अनन्य को देखता है। विवेचन-उक्त दो सूत्रों में बंध एवं मोक्ष का परिज्ञान दिया गया है। सूत्र 100 में बताया है, जो साधक वीतराग को आज्ञा की आराधना नहीं करता, अर्थात् आज्ञानुसार सम्यग् आचरण नहीं करता वह ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप धन से दरिद्र हो जाता है। जिन शासन में वीतराग की आज्ञा की आराधना ही संयम को आराधना मानी गई है / आणाए मामगं धम्मआदि वचनों में आज्ञा और धर्म का सह-अस्तित्व बताया गया है, जहाँ आज्ञा है, वहीं धर्म है, जहाँ धर्म है वहाँ आज्ञा है। आज्ञा-विपरीत आचरण का अर्थ है-संयम-विरुद्ध आचरण / संयम से हीन साधक धर्म की प्ररूपणा करने में, ग्लानि-अर्थात् लज्जा का अनुभव करने लगता है। क्योंकि अब वह स्वयं धर्म का पालन नहीं करता, तो उसका उपदेश करने का साहस कैसे करेगा? उसमें आत्मविश्वास की कमी हो जायेगी, तथा हीनता की भावना से स्वयं ही अाक्रांत हो जायेगा / अगर दुस्साहस करके धर्म की बातें करेगा तब भी उसकी वाणी में लज्जा, भय और असत्य की गंध छिपी रहेगी। अगले सूत्र में प्राज्ञा की आराधना करने वाले मुनि के विषय में बताया है वही सर्वत्र प्रशंसा प्राप्त करता है, जो वीतराग की प्राज्ञा का आराधक है। वह वास्तव में वीर (निर्भय) होता है, धर्म का उपदेश करने में कभी हिचकिचाता नहीं / उसकी वाणी में भी सत्य का प्रभाव व अोज गूजता है। लोगसंजोगं का तात्पर्य है-वह वीर साधक धर्माचरण करता हुआ संसार के संयोगों-वंधनों से मुक्त हो जाता है / संयोग दो प्रकार के हैं-(१) बाह्य संयोग-धन, भवन, पुत्र, परिवार आदि / 1 'अणण्णरामे' पाठान्तर है। 2. चूणि में पाठान्तर--से णियमा अणण्णदिट्ठी।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org