Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ हितोय अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 83.85 (किंतु उनका) यह कथन/धारणा, दुःख के लिए एवं मोह, मृत्यु, नरक तथा नरकतिर्यंच गति के लिए होता है। सतत मूढ रहने वाला मनुष्य धर्म को नहीं जान पाता। विवेचन-उक्त दोनों सूत्रों में क्रमश: मनुष्य की भोगेच्छा एवं कामेच्छा के कटुपरिणाम का दिग्दर्शन है। भोगेच्छा को ही अन्तर हृदय में सदा खटकने वाला काँटा बताया गया है और उस काँटे को उत्पन्न करने वाला प्रात्मा स्वयं ही है। वही उसे निकालने वाला भी है। किन्तु मोह से प्रावृतबुद्धि मनुष्य इस सत्य-तथ्य को पहचान नहीं पाता, इसीलिए वह संसार में दुःख पाता है। सूत्र 84 में मनुष्य की कामेच्छा का दुर्बलतम पक्ष उघाड़कर बता दिया है कि यह समूचा संसार काम से पीड़ित है, पराजित है / स्त्री काम का रूप है। इसलिए कामी पुरुष स्त्रियों से पराजित होते हैं और वे स्त्रियों को भोग-सामग्री मानने की निकृष्ट-भावना से ग्रस्त हो जाते हैं। 'आयतन' शब्द यहाँ पर भोग-सामग्री के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। मूल प्रागमों तथा टीका ग्रन्थों में 'पायतन' शब्द प्रसंगानुसार विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जैसे 'आयतन—गुणों का आश्रय / ' भवन, गृह, स्थान, आश्रय / देव, यक्ष आदि का स्थान, देव-कुल / ज्ञान-दर्शन-चारित्रधारी साधु, धार्मिक व ज्ञानी जनों के मिलने का स्थान / उपभोगास्पद वस्तु / नरक-तिर्यंच-गति-से तात्पर्य है, नरक से निकलकर फिर तिर्यंच गति में जाना। स्त्री को आयतन-भोग-सामग्री मानकर, उसके भोग में लिप्त हो जाना--प्रात्मा के लिए कितना घातक/अहितकर है, इसे जताने के लिए ही ये सब विशेषण हैं--यह दुःख का कारण है, मोह, मृत्यु, नरक व नरक-तिर्यंच गति में भव-भ्रमण का का कारण है / विषय : महामोह 85. उदाहु वीरे-अप्पमादो महामोहे, अलं कुसलस्स पमादेणं, संतिमरणं सपेहाए, भेउरधम्म सपेहाए / णालं पास / अलं ते एतेहि / एतं पास मुणि! महाभयं / णातिवातेज्ज कंचणं। 1. प्रश्नव्याकरण संवरद्वार; सूत्र 23 / 2. अभिधान राजेन्द्र भाग 2 पृ० 327 / 3. (क) प्रश्न प्राश्रव द्वार। (ख) दशाश्रुतस्कंध 1 / 10 / 4. प्रवचनसारोद्धारद्वार 148 माथा 949 / --आयतनं धार्मिकजनमोलनस्थानम् / 5. प्रोपनियुक्ति गाथा 782 / 6. प्रस्तुत सूत्र / 7. नरगाए --रकाय नरकगमनार्थ, पुनरपि नरगतिरिक्खा-ततोपि नरकादुद्धृत्य तिरश्च प्रभवति / ---याचा० शी टीका पत्रांक 115 / 8. अल तवेरहि-पाठान्तर है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org