Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ आचारांग सूत्र- प्रथम श्रुतस्कन्ध रखने वाला, उचित समय पर उचित कार्य करने वाला अप्रतिज्ञ है। वह राग और द्वेष-दोनों का छेदन कर नियम तथा अनाक्तिपूर्वक जीवन यात्रा करता है / विवेचन-चतुर्थ उद्देशक में भोग-निवत्ति का उपदेश दिया गया / भोगनिवत्त गहत्यागी पूर्ण अहिंसाचारी श्रमण के समक्ष जब शरीर-निर्वाह के लिए भोजन का प्रश्न उपस्थित होता है, तो वह क्या करे ? शरीर-धारण किये रखने हेतु आहार कहाँ से, किस विधि से प्राप्त करे ? ताकि उसकी ज्ञान-दर्शन-चारित्र-यात्रा सुखपूर्वक गतिमान रहे / इसी प्रश्न का समाधान प्रस्तुत उद्देशक में दिया गया है। सूत्र 87-88 में बताया है कि गृहस्थ स्वयं के तथा अपने सम्बन्धियों के लिए अनेक प्रकार का भोजन तैयार करते हैं / गृहत्यागी श्रमण उनके लिए बने हुए भोजन में से निर्दोष भोजन यथासमय यथाविधि प्राप्त कर लेवे। वह भोजन की संधि-समय को देखे / गृहस्थ के घर पर जिस समय भिक्षा प्राप्त हो सकती हो, उस अवसर को जाने / चणिकार ने सधि के दो अर्थ किये हैं-(१) संधि-भिक्षाकाल अथवा (2) ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप भाव संधि' (सु-अवसर) इसको जाने। भिक्षाकाल का ज्ञान रखना अनगार के लिए बहुत आवश्यक है। भगवान् महावीर के समय में भिक्षा का काल दिन का तृतीय पहर माना जाता था जब कि उसके उत्तरवर्ती काल में क्रमशः द्वितीय पहर भिक्षाकाल मान लिया गया। इसके अतिरिक्त जिस देश-काल में भिक्षा का जो उपयुक्त समय हो, वही भिक्षाकाल माना जाता है। पिंडैषणा अध्ययन, दशवकालिक (5) तथा पिंडनियुक्ति आदि ग्रन्थों में भिक्षाचरी का काल, विधि, दोष आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है। श्रमण के लिए यहाँ तीन विशेषण दिये गये हैं- (1) आर्य, (2) आर्यप्रज्ञ, और (3) आर्यदर्शी। ये तीनों विशेषण बहुत सार्थक है। आर्य का अर्थ है-श्रेष्ठ प्राचरण वाला' अथवा गुणी / प्राचार्य शीलांक के अनुसार जिसका अन्त:करण निर्मल हो वह प्रार्य है। जिसकी बुद्धि परमार्थ की ओर प्रवृत्त हो, वह आर्यप्रज्ञ है। जिसकी दृष्टि गुणों में सदा रमण करे वह अथवा न्याय मार्ग का द्रष्टा पार्यदर्शी है / सम्वामगंध-शब्द में ग्रामगंध शब्द अशुद्ध, अग्रहणीय पाहार का वाचक है। सामान्यतः 'आम' का अर्थ 'अपक्व' है / वैद्यक ग्रन्थों में अपक्व-कच्चा फल, अन्न आदि को आम शब्द से व्याख्यात किया है। पालिग्रन्थों में 'पाप' के अर्थ में 'आम' शब्द का प्रयोग हुप्रा है। जैन 1. संधि, जं भणितं भिक्खाकालो, "अहवा नाण-दसण-चरित्ताइ भाव संधी / ताई लभित्ता-- -प्राचारांग चणि 2. उत्तराध्ययन सूत्र-'तइयाए भिक्खायरियं--२६।१२ 3. नालन्दा विशाल शब्दसागर 'आर्य' शब्द / 4. गुणगुणवद्भिर्वा अर्यन्त इत्यार्याः-सर्वार्थ० 3.6 (जन लक्षणावली, भाग 1, पृ. 211) 5. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 118 / 6. देखें - पाचारांग; प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी कृत इसी सूत्र की टीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org