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भावार्थ : जिनेश्वरदेव के व्यवहार से जीव की जो स्वरूप से शुद्ध क्रिया होती है, वह विशुद्धि करने वाली होती है, इसलिए क्रिया के प्रति अत्यादर करने से जीव को मार्गबीज (सम्यक्त्व) की प्राप्ति होती है ॥२६॥
गुर्वाज्ञापारतन्त्र्येण द्रव्यदीक्षाग्रहादपि । वीर्योल्लासक्रमात्प्राप्ता बहवः परमं पदम् ॥२७॥
भावार्थ : गुरु की आज्ञा के अधीन रहने से द्रव्यदीक्षा ग्रहण करने पर भी बहुत से भव्य जीवों ने वीर्योल्लास (शक्तिवृद्धि) के क्रम से परम (मोक्ष) पद प्राप्त किया है ॥२७॥ अध्यात्माभ्यासकालेऽपि क्रिया काप्येवमस्ति हि । शुभौघसंज्ञानुगतं ज्ञानमप्यस्ति किञ्चन ॥२८॥
भावार्थ : अध्यात्मप्राप्ति के निकटकाल में भी कुछ क्रियाएँ रहती हैं और शुभ औघ (सामान्य) संज्ञा के अनुकरण करने वाला कुछ ज्ञान भी रहता है ॥२८॥ अतो ज्ञानक्रियारूपमध्यात्मं व्यवतिष्ठते । एतत्प्रवर्धमानं स्यान्निर्दम्भाचारशालिनाम् ॥२९॥
भावार्थ : इसलिए अध्यात्म ज्ञान और क्रिया दोनों रूपों में रहता है । वह अध्यात्म निष्कपट आचार से सुशोभित साधकों में वृद्धिगत होता जाता है । हे शिष्य ! पहले तुमने जिस अध्यात्म के विषय में पूछा था, वह अध्यात्म अन्य
अधिकार दूसरा
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