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भावार्थ : अशुद्ध (मिथ्यादृष्टि) का अनादर करने पर और शुद्ध योग का अभ्यास प्राप्त न होने से सिर्फ एक निसर्गज (स्वाभाविक) सम्यक्त्व को छोड़कर दूसरे दर्शन आदि भी सिद्ध नहीं होंगे। क्योंकि वे दर्शन आदि भी अभ्यास से ही साध्य (प्राप्त) होते हैं ॥२०॥
शुद्धमार्गानुरागेणाशठानां या तु शुद्धता । गुणवत्परतंत्राणां सा न क्वापि विहन्यते ॥२१॥
भावार्थ : सर्वज्ञकथित शुद्ध मुक्तिमार्ग के प्रति अनुराग के कारण कपट-दम्भादि-रहित तथा ज्ञानी गुणवान वहश्रुत गुरु के अधीन होकर जो धर्मप्रिय मार्गानुसारी पुरुष प्रवृत्ति करते हैं, उस समय उनमें मिथ्यात्व कषायादि को मन्द करने के रूप में जो शुद्धता (निर्मलता) है, वह तो किसी भी दर्शन (मतपंथ) में नष्ट नहीं होती । तब फिर जिनमत में प्रवृत्त धर्मप्रिय जनों की शुद्धता नष्ट न हो, इसमें तो कहना ही क्या ? ॥२१॥ विषयात्मानुबन्धैर्हि त्रिधा शुद्धं यथोत्तरम् । ब्रुवते कर्म तत्राद्यं मुक्त्यर्थं पतनाद्यपि ॥२२॥
भावार्थ : विषय आत्मा और अनुबन्ध, इन तीनों को लेकर कर्म (क्रिया) तीन प्रकार के हैं और वे उत्तरोत्तर शुद्ध हैं । इन तीनों में प्रथम विषय - कर्म कहा गया है - मुक्ति के लिए पर्वतादि से गिरना ॥२२॥
अधिकार दूसरा
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