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हैं, उसी प्रकार चौथे गुणस्थान में भी वैसी उच्च क्रिया न हो तो भी उस गुणस्थानक के योग्य अविरति-सम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थान में भी देव-गुरु की सेवा, धर्मश्रवण की इच्छा, विनय, वैयावृत्य, दान इत्यादि उचित क्रियाएँ होती हैं । इसलिए चौथे गुणस्थान में भी अध्यात्म मानें तो कोई आपत्ति नहीं। जिसके पास सोने के गहने न हों, उसके चाँदी के गहने भी गहने ही कहलाते हैं, वैसे ही जिसे बड़े प्रत्याख्यान की क्रिया प्राप्त न हुई हो, उसे प्राप्त शुश्रूषा आदि उचित क्रिया भी अध्यात्म ही कहलाएगी ॥१४॥ अपुनर्बन्धकस्यापि या क्रिया शमसंयुता । चित्रा दर्शनभेदेन धर्म-विघ्नक्षयाय सा ॥१५॥
भावार्थ : विविध दर्शनों (या धर्मपन्थों) के अनुसार अपुनर्बन्धक में भी जो शमयुक्त अनेकविध (विचित्र) क्रियाएँ दिखाई देती हैं, वे भी धर्मप्राप्ति में होने वाले विघ्न को नष्ट करने के लिए होती हैं ॥१५॥ अशुद्धाऽपि हि शुद्धायाः क्रियाहेतुः सदाशयात् । तानं रसानुवेधेन स्वर्णत्वमधिगच्छति ॥१६॥
भावार्थ : अशुद्ध क्रिया भी अच्छे आशय (परिणाम) से की जाय तो वह शुद्धक्रिया का कारण बन जाती है। जैसे तांबे को गलाकर उसमें पारे आदि के रस का अनुवेध करने से वह स्वर्णत्व (सोने के रूप) को प्राप्त हो जाता है ॥१६॥ अधिकार दूसरा
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