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नव पदार्थ
४०. जीव अंसख्यात प्रदेशी द्रव्य है। वह सदा नित्य रहता है। वह मारने पर नहीं मरता, और न थोड़ा भी घटता-बढ़ता है।
४१. जीव द्रव्य असंख्यात प्रदेशी है। उसके प्रदेश सदा ज्यों-के-त्यों रहेंगे। तीनों ही काल में इसका एक प्रदेश भी न्यून नहीं हो सकता।
४२. खण्ड करने पर यह किंचित् भी खण्डित नहीं होता, यह सदा एक धार रहता है। ऐसा यह द्रव्य जीव अखण्ड पदार्थ है और इस सृष्टि में अक्षय बना रहता है।
४३. द्रव्य के अनेक भाव हैं। जैसे लक्षण, गुण और पर्याय। भाव, लक्षण, गुण और पर्याय ये चारों भाव-जीव हैं।
४४. ये चारों अच्छे और बुरे होते हैं। ये एक धार नहीं रहते। क्षायक भाव एक धार रहेगा, निष्पन्न होने पर फिर घटता नहीं।
४५. द्रव्य की अपेक्षा से जीव को शाश्वत जानो। ऐसा भगवान ने भगवती सूत्र के सातवें शतक के द्वितीय उद्देशक में कहा है। इसमें जरा भी शंका मत करो।
४६. भाव की अपेक्षा से जीव को अशाश्वत जानो। ऐसा भगवान ने भगवती सूत्र के सातवें शतक के द्वितीय उद्देशक में कहा है। इसमें जरा भी शंका मत करो।
४७. जीव के जितने पर्याय हैं, उन सबको भगवान ने अशाश्वत कहा है। इनको निश्चय ही भाव जीव समझो और भली-भांति पहचानो।
४८. जीव कर्मों का कर्ता है, इसलिए आश्रव कहलाता है। आश्रव भाव जीव है तथा जो कर्म जीव के लगते हैं, वे अजीव पुद्गल हैं।
४९. जीव कर्मों को रोकता है, इस गुण के कारण संवर कहलाता है। संवर गुण भाव जीव है तथा जो कर्म रुकते हैं वे अजीव पुद्गल हैं।