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आत्म-कथा कि दुकान के लिय कोई जगह भाड़ से ले लेते। हर दिन घर से सामान ले जा कर मैदान में दुकान लगाना पड़ा और शाम को वापिस लाना पड़ती एक तो सामान का बोझ दूसरे हम दोनों का गोदी में चढ़ने का हठ । उनकी परेशानी बढ़ जाती । एक तरफ़ वहिन को, दूसरी तरफ़ मुझे और सिर पर सामान, इस तरह व वाज़ार जाते। इस पर हम तो आनन्द मनाते थे पर आश्रय ता यह है कि हमारी इतनी शतानी भी वे आनंद से सहते थे।
ये तो नमूने हैं, ऐसे और भी संस्मरण हैं जो पिता जी के उपकारों की असाधारणता वत-सते हैं पर पाठकों के लिये तो जो कुछ कहा गया है वह भी अनावश्यक होने से बोझ है अब वह वोझ और क्यों बढ़ाया जाय ? संक्षिप्त बात यह है कि दमोह में आकर बुआ की कृपा से हम लोग ठिकाने पर पहुँच गये थे।
(३) प्रारम्भिक शिक्षण करीव पाँच वर्ष की उम्र होने पर मैं स्कूल भेजा गया, स्कूल की शिक्षण-पद्धति मेरे अनुकूल नहीं थी कदाचित् वह विकसित ही नहीं हुई थी। मेरी विचारकता उससे न बढ़ी । यद्यपि कक्षा में मैं नीची श्रेणी में नहीं रहा फिर भी पहिला नंबर कभी नहीं पाया ।
स्वभावतः मैं डरपोक था । शिशु-वर्ग में मैं मास्टर से इतना डरता था कि पेशाब लगने पर भी मैं छुट्टी न माँग सकता था और धोती में ही पेशाब कर लेता था । तब मास्टर मेरा तिरस्कार करक घर भगा देता था। मेरी बहिन भी मुझे चिढ़ाती थी । मैं चुपचाप