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आत्म-कथा
मिठाई खिलाने के कारण मेरी बुआ मेरे पिताजी को बहुत फटकारती । कभी कभी फटकार कटु शब्दों के कारण सीमातीत और असह्य हो जाती थी । पर बाहरे सन्तान - प्रेम, मेरे पिताजी वह सब सह जाते और मुझे मिठाई खिलाते । परन्तु जब बात बहुत बढ़ गई तब पिताजी ने मुझे सिखा दिया कि तुम पैसा ले जाया करो और बाहर ही मिठाई खा लिया करो। मैं ऐसा ही करने लगा पर एक ही पेड़े में भरपेट मिठाई खाने का जो आविष्कार किया था वह व्यर्थ हो गया ।
मिठाई की मुझे इतनी आसक्ति थी कि मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था कि कोई आदमी ऐसा भी हो सकता है जिसे मिठाई से प्रेम न हो । एकबार एक लड़की ने कहा कि मेरे पिता मिठाई के लिये पैसा देते हैं पर मैं कभी मिठाई नहीं खाती। मैं उस समय झूठ बोलने और अविश्वास करने लायक बुद्धिमान नहीं हुआ था इस. लिये उस लड़की की बात पर अविश्वास तो न कर सका पर आश्चर्य से यह अवश्य सोचने लगा कि क्या इसके जीभ नहीं है या बिलकुल खराब हो गई है । उसकी समझदारी और संयमशीलता को मैं न समझ सका । मैंने उसे उसकी जड़ता ही समझा ।
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मिठाई खाने की इस आदतने मुझे बहुत नुकसान पहुँचाया । मैं लम्बे समय को बीमार हुआ । दाँत भी खराब हो गये परन्तु आदत न छूटी । वह छूटी तब । जब मैं सागर पाठशाला में पढ़ने चला गया । जिह्वा के ऊपर मिठाई के ये संस्कार आज भी बने हुए हैं । परन्तु मन में इतना संयम आ गया है कि वर्षों मिठाई न मिले