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दमोह में आगमन [१३ तोभी कुछ अशान्ति नहीं मालूम होती और महीनों तो खाता भी नहीं हूं।
पिताजी मेरे लिये पिता कभी नहीं बने वे माता की तरह वात्सल्य-मूर्ति ही रहे । उनने अनुशासन कभी नहीं किया। इस लाड़प्यार के कारण मेरी प्रकृति उग्र और अभिमानी हो गई थी। वात बात में रिसा जाता था । अगर रोटी में पाँच मिनिट की देर हो
जाती तो मैं उठ खड़ा होता । कोई जरासी बात कह दे तो ___ गृह-त्याग की धमकी देकर भाग निकलता । पिताजी बहुतसी
बातों में कठोर और निर्भय थे पर इस विषय में बहुत कोमल थे । मैं उनकी आशाओं का केन्द्र था। मेरा मुँह देखकर ही उनने बत्तीस वर्ष की उम्र में विधुर होने पर भी शादी नहीं की । उनके इस प्रेम और तप का मूल्य में क्या समझता ? बालोचित निर्दयता से उन्हें सताया करता था । .
यद्यपि हम भाई बहिन में बहुत प्रेम था फिर भी हम दोनों एक बात में काफ़ी ईर्ष्या रखते थे। रात में सोते समय हम दोनों
ही इस बात की कोशिश करते कि पिताजी का मुँह हमारी तरफ़ .हो । पिताजी बीच में सोते थे, अब अगर वे अपना मुँह मेरी तरफ़ करते थे तो बहिन रोती चिल्लाती थी और बहिन की तरफ़ मुँह करते ते. मैं रोता चिल्लाता था। अन्त में उन्हें चित लेटना पड़ता । कहीं ये दूसरी तरफ करवट न लेलें इसलिये हम दोनों ही उनके . पेट पर पैर रख कर सोते। .. . . बाजार में जाते समय भी हम उनकी परे- शानी खूब बढ़ा देते । पिताजी अनाज की दूकान करते थे । इतनी पूँजी नहीं थी