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आत्म-कथा मिठाई वाला था । वह मुझे प्रतिदिनं मुबह एक पेड़ा दिया करता था । यह तो मुझे मालूम न था कि बाजार के दिन वह सात दिन के सात पैसे मेरे पिताजी से वसूल कर लेता था और गरीबी में भी पिताजी मेरा यह टेक्स चुकाते थे, मैं तो समझता था कि मुझे यह चाहता है इसलिये पेड़े खिलाताहै। बच्चों के समाज-शान के अनुसार प्रेम करने का भी ठेक्स होता है । खैर, दूसरा एक मुफ्त में मिठाई खिलाने वाला भी था । वह था पास के मन्दिर का लँगड़ा बावा । उसका छोटा सा मन्दिर मेरे घर के पास ही था । पूजा की घंटी बजते ही में मंदिर में दौड़ जाता था और मेरी बहिन भी खिसकते खिसकते पहुँच जाती थी। हम लोग आशाभरी निगाहों से आरती देखते । आरती और बताशों की रकाबी अभी भी आँखों में झूलती है पर ठाकुरजी की सूरत बिलकुल याद नहीं आती; यह भी पता नहीं कि वह राम का, कृष्ण का या हनुमान का किस का मंदिर था ? हाँ वह जैन मन्दिर नहीं था क्योंकि उसको घर के लोग अपना मंदिर नहीं कहते थे । खैर, इस प्रकार वहाँ मुझे दो बताशे मिलते थे । मिठाई खाने की यह आदत दमोह में भी वनी रही । दाल और शाक के साथ मैं रोटी खा ही नहीं सकता था । गुड़ भी नहीं खाता था । पेड़े इतने नहीं मिल सकते थे कि दोनों बार उन्हीं के साथ रोटी खाऊँ इसलिये एक नया तरीका यह निकाला था कि रोटी के ऊपर थोड़ी सी शक्कर डाल कर थोड़ा सा पानी डाल-लेता और पूरी रोटी शक्कर से चिपड़ कर पुंगी वनाकर खा लेता । यहाँ भी पिताजी एक पैसे का. एक पेड़ा प्रतिदिन सुबह ला देते परन्तु उसे रोटी खाने के समय तक सुरक्षित रखना मेरी शक्ति