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तीर्थकर
महावार
जीवाजी विश्वविद्यालय,ग्वालियर
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तीर्थंकर महावीर
स्मृति ग्रन्थ
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a
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For Private & Personal use only
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ताथकर ५. स्मृतिग्रन्थ महावार
सम्पादक
रवीन्द्र मालव संयोजक, महावीर निर्वाण महोत्सव समिति सदस्य-महासभा, विद्यापरिषद सामाजिक विज्ञान संकाय
कला पक्ष विश्वमित्र वासवानी
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प्रकाशक
अजयकुमार भट्टाचार्य कुल सचिव,
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जीवाजी विश्वविद्यालय,ग्वालियर
मुद्रक
साधना प्रेस, ग्वालियर-१
onare Only
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क्रम
क्रम
आमुख प्रस्तुति प्राक्कथन
-हरस्वरूप -अजय कुमार भट्टाचार्य --गोबिन्द नारायण टण्डन - रवीन्द्र मालव -घनश्याम गौतम
पूर्वा
xxiii
कृतज्ञता ज्ञापन शुभ कामना सन्देश
प्रथम खण्ड
काव्यांजलि
(1-8)
-कुन्दकुन्दाचार्य -रविषेणाचार्य
मंगल सूत्र महावीर स्तवन (प्राकृत्) महावीर स्तवन (संस्कृत) वन्दना भगवान महावीर के चरणों में मनोयोग द्वारा सुनो वीर वाणी भाच पुष्पांजलि
- उपाध्याय अमर मुनि - कल्याण कुमार जैन "शशि" 7 -शान्तीलाल जैन "मधुकर" 8
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द्वितीय खण्ड
जिनवाणी
(9-22)
अन्तरात्मा-11, अपरिग्रह-11, अभयदान-11, अभोगी -11.अरहंत-11, अस्तेय (अचौर्य)-11, अहिंसा-12, आचार्य-13,आत्मतत्व 13, आत्मविजेता-13, आत्मश्रद्धा-13, आत्मशुद्धि-14, आत्मा-14, आत्मज्ञान-14, आचरण-15, आचार-15, आर्जव-15, उपभोग-15, कर्म-15, कषाय-15, केवलज्ञान-16, केवली-16, चरित्र-.16, जीव-16, तप-17, तीर्थ-17, द्रव्य-17, दुःख-17, धर्म-17, ध्यान-18, परमाणु-18 परमात्मा-18, परिग्रहण-18, पर्याय-18, प्रमाण-19, पुदगल-19, भय-19, भाषा-19, मार्दव-19, मोक्षमार्ग-19, लोभ-20, विनय-20, ब्रह्मचर्य-20, श्रमण-20, श्रमणधर्म-20, संत-20, संयम-21, समता-21, सत्य-21, सम्यकत्व-21, सम्यक दर्शन-21, सम्यक ज्ञान-22, सम्यक चारित्र-22, ज्ञान-22 ।
तृतीय खण्ड
भगवान महावीर, जीवन-दर्शन-देन
(23--76)
1. भगवान महावीर, जीवन और दर्शन 2. तीर्थकर महावीर और उनकी सामाजिक क्रान्ति 3. वर्तमान युग में महावीर के उपदेशों की सार्थकता 4.' भगवान महावीर और नारी मुक्ति 5. महावीर की वाणी का मंगलमय क्रान्तिकारी स्वरूप 6. महावीर का साम्यवाद 7. विश्वशान्ति के सन्दर्भ में तीर्थंकर महावीर का सन्देश 8. मानवधर्म के प्रणेता तीर्थंकर महावीर 9. भगवान महावीर का सर्वोद्य शासन 10. Message of Bhagavan Mahavira 11. Pearls
-पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री सिद्धान्ताचार्य 25 -चन्दनमल वैद - यशपाल जैन -पं. सुमतीवाई शहा -डा० महावीर शरण जैन -परिपूर्णानन्द वर्मा
यू० एन० वाच्छावत - सरदार सिंह चौरड़िया - सुमेरचन्द्र दिवाकर शास्त्री --T. K. TUKOL
चतुर्थ खण्ड-
जैन धर्म-दर्शन
(77-152)
83
1. तीर्थंकर महावीर का अनेकान्त एवम् स्याद्वाद दर्शन ___-आचार्य श्री तुलसीजी 2. वर्तमान युग में श्रमण
-उपाध्याय मुनि श्री विद्यानन्दजी 3. जैन योग में कुडलिनी
- मुनि श्री नथमलजी 4. परिग्रह का स्वरूप
-मुनि श्री चन्दनमलजी
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91.
iv
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93 99
5. जैन दर्शन में अनुमान परिभाषा 6. जैन संघ और सम्प्रदाय
भगवान महावीर का अपरिग्रह, एक दार्शनिक विवेचन 8. जैन कर्म सिद्धान्त 9. जैन दर्शन में मोक्ष का स्वरूप, एक तुलनात्मक अध्ययन
-डा.दरवारी लाल कोठिया -डा. भागचन्द्र जैन भास्कर -प्रो. श्रीचन्द्र जैन -श्यामलाल पाण्डवीय - डा. सागरमल जैन
.
135
141
पंचम खण्ड
जैन संस्कृति एवम् कला,
(153-214)
1. जैन पुरातत्व एवम् कला
-मधुसूदन नरहरि देशपाण्डे 155 2. जैन मूर्तिशास्त्र (मध्यप्रदेश की जैन मूर्तिकला के सन्दर्भ में) -प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी 168 3. जैन धर्म और संगीत
-गुलाबचन्द्र जैन
171 भारतीय शिल्पकला के विकास में जैन शिल्पकला का योगदान-डा. शिवकुमार नामदेव 181 5. जैन चित्रकला
-श्रीमती उषाकिरण जैन 193 6. Contribution of Mahavira To Indian Culture -Dr. Kailash Chandra Jain 200 7. Jaina Images And Their Predominant Styles : Dahala And South Kosala Region
-Dr. R. N. Misra 205
षष्टम् खण्ड
जैन साहित्य
(215-270)
217 224 231 237
1. जैन साहित्य
-अगरचन्द नाहटा 2. मध्यकालीन हिन्दी साहित्य में वर्णित सदगुरू-सत्संग की महत्ता-डा. श्रीमती पुष्पलता जैन 3. जैन साहित्य एवं संस्कृति के विकास में भट्टारकों का योगदान -डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल 4. जैन साहित्य के आद्य पुरुस्कर्ता
----डा. ज्योतिप्रसाद जैन प्राचीन जैन राम साहित्य में सीता
-डा. लक्ष्मीनारायण दुबे जैन आचार्यों का संस्कृत काव्य शास्त्र में योगदान
----डा. अमरनाथ पाण्डेय 7. राजस्थान के कवि- "ठकुरसी"
-पं. परमानन्द जैन शास्त्री 8. महापंडित टोडरमल
-डा. हुकुमचन्द्र भारिल्ल
241 249
256
265
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सप्तम खण्ड
वैज्ञानिक सन्दर्भो में जैन धर्म
(271-302)
1. परमाणु और लोक 2. जैन गणित विज्ञान की शोध दिशाएँ 3. शाकाहार : वैज्ञानिक एवं चिकित्साशास्त्रीय दृष्टिकोण
-प्रो. जी. आर. जैन -लक्ष्मीचन्द्र जैन ---डा. पदमचन्द्र जैन
273 281 291
अष्टम खण्ड -- ग्वालियर और जैन धर्म (विविध सन्दर्भ) (303-360) 1. गोपाचल का एक विस्मृत महाकवि, "रईधू"
---डा. राजाराम जैन 305 ग्वालियर एवं उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में स्थित : जैन सांस्कृतिक केन्द्र-डा. वी. वी. लाल 3:8 3. गोपाद्री देवपत्तने
-हरिहरनिवास द्विवेदी 325 4. ग्वालियर के सांस्कृतिक विकास में जैन धर्म
-रवीन्द्र मालव
337
नवम खण्ड
विविधा
(361-410)
363 375
1. समीक्षा एवं समालोचना
श्री 2500 वां भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव वर्ष में प्रकाशित जैन साहित्य 2. भगबान महावीर का पच्चीस सौं वा निर्वाण महोत्सव और ग्वालियर संभाग : एक रपट
भगवान महावीर महापरिनिर्वाण महोत्सव पर्व की स्थाई उपलब्धि : "श्री 2500 वां भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव स्मारक न्यास" जीवाजी विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित श्री 2500 वां, भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव,
व्याख्यान माला : एक रिपोर्ताज 5. लेखक परिचय 6. विज्ञापन
385
389
393
411
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1): 50
आमुख
भारत की गौरवशालिनी सांस्कृतिक संरचना की निर्मिति में सहस्राद्वियों की अविच्छिन्न परम्परा के तत्व सन्निहित हैं। संभवतः संसार के अन्य किसी भी देश का इतिहास हमारी तरह सांस्कृतिक सातत्य की विशिष्टता से अनुप्राणित नहीं है। यही कारण है कि आर्थिक भौतिक निर्धनताओं के संत्रास में भी भारत भूमि की अस्मिता अपराजित और गर्वोन्नत रहती चली आई है, और तमस् - प्रताड़ित मानवता ने सदैव ही उसकी ओर आस्था तथा विश्वास की प्रकाश किरणों के लिए आशा मरी दृष्टि से देखा है ।
vii
परस्परोपका
भारत का वैविध्य पूरित सांस्कृतिक व्यक्तित्व यों तो अनेक संश्लिष्ट तत्वों की पारस्परिक क्रिया-विक्रिया का परिणाम है, तथापि इसकी समग्र रचना को सुदूर अतीत में दो महापुरुषों ने सर्वाधिक प्रभावित किया, वह थे महावीर और गौतम बुद्ध, जिनके उदात्त चिन्तन के संस्पर्श भारतीय मनीषा पर इतने सुस्पष्ट और स्थायी थे कि शताब्दियों बाद, एकदम भिन्न और वैज्ञानिक - आधुनिक संसार में एकबार फिर व्यापक सर्वानुमति और स्वीकृति प्राप्त करने वाले महापुरुष महात्मा गांधी के व्यक्तित्व में उसी चिन्तन का परावर्तन परिलक्षित हुआ सांस्कृतिक सातत्य का यह अनुपम
उदाहरण था।
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तीर्थंकर महावीर के महानिर्वाण की पच्चीसवीं - प्रथम दृष्टिपात ही यह बता देता है कि इसकी सामग्री शती-पुति के अवसर भारत में ही नहीं संसार भर में कितनी गहन, शोधपूर्ण, बहुआयामी और स्थायी महत्व समारोहों का आयोजन संपन्न हुआ, उनके धमिक- की है, निस्संदेह इसका आयोजन, संकलन और प्रकाशन नैतिक मूल्यों के पुनगवलोकन का उपक्रम किया गया श्रम और धीरज का परीक्षाकाल रहा होगा। अत: इस और उनके द्वारा प्रदशित जीवन-पद्धति की समकालीन सफल परिणति के अवसर पर मैं इस समायोजन से संदभों में प्रासंगिकता एकबार फिर से केन्द्रीभूत चिन्तन सम्बद्ध समस्त सहयोगियों के प्रति साधुवाद संबोधन के का विषय बनी। वस्तुत: यह हम सबके लिए श्लाघा अवसर को नहीं छोड़ना चाहता । का ही विषय है कि जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर
मुझे विश्वास है कि प्रस्तुत स्मृतिग्रंथ जीवाजी का भी इस सबमें एक विनम्र योगदान रहा । मेर विश्वविद्यालय द्वारा तीर्थकर महावीर की स्मति में पूर्ववर्ती कुलपति श्री गोविन्द नारायण टन्डन के कार्य- ..
समर्पित एक ऐसी श्रद्धांजलि है, जो ज्ञानराशि के संचित काल में यह आयोजन संपन्न हए और उनके तथा उनके
कोष में अपना योगदान सार्थक करेगी और जिसे प्रबुद्ध सहयोगियों के परिश्रम, लगन तथा उत्साह के प्रमाण
जनों की सराहना मिलेगी। तीर्थ कर महावीर के के रूप में प्रस्तुत स्मति ग्रंथ इतने सुन्दर स्वरूप में आपके
चरणों में इस श्रद्धा सुमन को आप तक भेजते हए मुझे हाथों में सोंपने का दायित्व अनायास ही सद्भाग्यवश
इतना ही निवेदन करना है। मझे मिला है, जो मेरे लिए व्यक्तिगत प्रसन्नता और सुख का कारक है। स्मृति ग्रथ की विषय सूची पर
तीर्थकर महावीर निर्वाण दिवस वीर निर्वाण सम्वत् २५०४ दिनांक ११ नवम्बर, १९७७
हरस्वरूप
कुलपति जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर
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तीर्थकर महावीर की स्मृति में प्रकाशित इस रमृति-ग्रन्थ को पाठकों को प्रस्तुत करते हुए मुझे अत्याधिक हर्ष का अनुभव हो रहा है। जीवाजी विश्वविद्यालय के लिए यह परम सौभाग्य का विषय है कि वह अपने इस प्रकाशन को, एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित कर अपने कर्तव्य निर्वहन के क्षेत्र में एक और महत्वपूर्ण उपलब्धि को प्राप्त कर सका। ___ तीर्थकर महावीर के पच्चीस सौ वे महापरिनिर्वाण वर्ष के अवसर पर जब विश्वव्यापी स्तर पर विविध कार्यक्रमों का आयोजन हो रहा था, तब विश्वविद्यालय परिवार के कुछ प्रमुख सदस्यों के मन में भी इस अवसर पर कुछ रचनात्मक कार्य करने की कल्पना उजागर होने पर इसके क्रियान्वयन की समस्या उत्पन्न हुई। विकास की शैशवावस्था से गुजर रहे, प्रगति पथ पर गतिशील इस विश्वविद्यालय के समक्ष कुछ आर्थिक कठिनाइयाँ थीं। विश्वविद्यालय ने इस हेतु मध्यप्रदेश शासन द्वारा गठित महावीर निर्वाण समिति, मध्यप्रदेश के सम्मुख एक पांच दिवसीय व्याख्यानमाला के आयोजन का प्रस्ताव भेजकर आर्थिक सहायता की मांग की । यद्यपि विश्वविद्यालय की ओर से प्रस्ताव भेजने में कुछ विलम्ब हो गया था, तथापि विश्वविद्यालय महासभा के सदस्य श्री सरदारसिंहजी चौरड़िया तथा
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श्री रवीन्द्र मालव ने व्यक्तिगत रुचि लेकर प्रदेश समिति प्रस्तुत होने पर, उसने भी इसकी पुष्टि कर दी, तथा की बैठक के अवसर पर मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्य- व्याख्यानमाला के संयोजक श्री रवीन्द्र मालव को ही मन्त्री श्री प्रकाशचन्द्रजी सेठी तथा प्रदेश समिति के इस ग्रन्थ के सम्पादन का भार सौंपा गया। सदस्यों से, इस व्याख्यानमाला को सहयोग के लिए विशेष आग्रह किया, जिसे समिति ने उदारतापूर्वक
मुझे प्रसन्नता है कि जिस विश्वास के साथ उन्हें यह स्वीकार कर विश्वविद्यालय की कठिनाई हल कर दी।
कार्य सौंपा गया था, उससे भी अधिक निष्ठा के साथ
उन्होंने अपने जीवन का एक महत्वपूर्ण वर्ष इस ग्रन्थ प्रदेश समिति से प्राप्त आर्थिक सहायता से जीवाजी को समर्पित कर, जहाँ इसके लिए आचार्यों, राष्ट्रीय विश्वविद्यालय ने निर्वाण महोत्सव वर्ष के समापन ___ ख्यातिप्राप्त विद्वानों, शिक्षा मनीषियों तथा शोधार्थियों समारोह के अवसर पर दिनांक 6 नवम्बर से 10 से उच्चस्तरीय शोधपूर्ण लेख एवं निबन्ध एकत्रित कर नवम्बर 1975 तक एक पांच दिवसीय व्याख्यानमाला और उन्हें योजनावद्ध रूप से संकलित एवं सम्पादित आयोजित की, जिसमें विविध विषयों पर राष्ट्रीय ख्याति कर इस ग्रन्थ को सुन्दर स्वरूप प्रदान किया वहाँ प्राप्त विद्वानों एवं शिक्षा मनीषियों के व्याख्यान हुए। निरन्तर प्रयास कर आर्थिक साधन जुटाने और इसके
प्रकाशन को सुलभ बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया व्याख्यानमाला की समाप्ति के पश्चात संयोजक
है। इस ग्रन्थ के परिप्रेक्ष्य में उनका कठिन परिश्रम, श्री रवीन्द्र मालव, ने व्याख्यानमाला में हुए व्याख्यानों;
दृढ़ संकल्प और निश्चित उद्देश्य के प्रति कार्य करने तथा आयोजन के सिलसिले में प्राप्त ऐसे शोध पत्रों,
की असीम निष्ठा निहित है। जिनके रचियताओं के व्याख्यान विभिन्न सीमाओं तथा कठिनाइयों के कारण व्याख्यानमाला में आयोजित नहीं प्रबुद्ध पाठकों के हाथों में "तीर्थ कर महावीर किये जा सके थे, को संकलित कर, प्रकाशित करने की स्मृति-ग्रन्थ" के रूप में विभिन्न शीर्षकों से नौ विविध योजना निर्मित कर जब कूलपतिजी तथा अन्य अधि- खण्डों में विभाजित तथा चालीस शोधपत्रों एवं निबंधों कारियों के समक्ष प्रस्तुत की तो यह अत्यन्त दुष्कर तथा अन्य उपयोगी ज्ञानवर्द्धक सामग्री वाला यह संककार्य प्रतीत होता था । क्योंकि व्याख्यानमाला के लन तीर्थकर महावीर, उनके दर्शन और उनकी परम्परा पश्चात इस कोष में अत्यल्प राशि ही शेष थी, तथा जैन माहित्य एवं सस्कृति के अध्ययन, मनन तथा जिससे मुख्य व्याख्यानों को भी प्रकाशित करना संभव इन विषयों पर उपलब्ध विशाल ज्ञान भण्डार के कुछ नहीं था। परन्तु श्री मालव ने इस योजना को क्रिया- महत्वपूर्ण पक्षों पर प्रकाश डालने तथा विविध पक्षों पर न्वित करने हेतु संकल्पवद्ध रहकर कार्य करने तथा शोध-कार्य करने हेतु शोधार्थियों को आकषित करने के साधन जुटाने का विश्वास दिलाया तो कुलपतिजी ने महत्वपूर्ण उद्देश्यों में सफल हो सकेगा । ऐसा मुझे इस महत्वपूर्ण कार्य में विशेष रुचि लेकर इसे अपना विश्वास है। आशीर्वाद प्रदान कर दिया। योजना कार्य परिषद में
अजयकुमार भट्टाचार्य गांधी जयन्ती
कुल सचिव 2 अक्टूबर 1977
जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर
कुल सचिन
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प्राक्कथन
मानव सभ्यता के उदयकाल से ही भारत की पुण्यभूमि महान आदर्शों की प्रतिपालक रही है। सिन्धु घाटी की सभ्यता के प्रतीक, प्रतिमाएँ और अवशेष भारत की महान् आध्यात्मिक परम्पराओं के प्रत्यक्ष साक्षी हैं । वे इस बात के भी प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि भारतीय चिन्तन ने सदैव, भौतिक तत्वों पर आत्मिक तत्वों की श्रेष्ठता, पर बल दिया है तथा वह आध्यात्मिक पक्ष की ओर अधिक केन्द्रित रहा है।
यही कारण है कि आज से तीन सहस्त्राब्दि पूर्व जब मानव चिन्तन प्राकृतिक अध्ययन से हटकर मानवीय चिन्तन की ओर अग्रसर हुआ और विश्व क्षितिज पर यूनान में पीथागोरस, सुकरात और अफलातून; जूडिया में पैगम्बरों की परम्परा; चीन में लाओत्से और कन्फ्यूशस व ईरान में जरतुश्त का उदय हुआ; तब भारत में तीर्थंकर महावीर, महात्मा गौतम बुद्ध तथा उपनिषदों के रचयिता पावन ऋषियों का उदय हआ, जिन्होंने न
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केवल मानव-जगत में चितन के नये आयाम स्थापित किये, प्रत्येक व्यक्ति अपने पास आवश्यक सम्पत्ति या परिग्रह वरन् ऐसे मानवतावादी दर्शन को जन्म दिया जिससे रखने का परिमाण करे और शेष सम्पत्ति दूसरों के हित आनेवाली सभ्यता भी हजारों-हजारों वर्षों तक प्रेरणा में दे डाले। आवश्यकता और परिमाण से अधिक तथा दिग्दर्शन प्राप्त कर सके।
सम्पत्ति रखने को उन्होंने पाप निरूपित किया ।
मानव जाति के इन महापुरुषों में से एक जिस प्रकार बीज की निष्पत्ति 'पेड़ है, और पेड़ "महावीर", वैशाली के राजकुमार वर्द्धमान के रूप में की निष्पत्ति फल उसी प्रकार दर्शन की निष्पत्ति एक सम्पन्न राज परिवार में जन्मे । वे भौतिक ऐश्वर्य धर्म है और धर्म की निष्पत्ति मैतिकता पूर्ण की चरम सीमा को स्पर्श कर, उसके उपभोग में भी व्यवहार; इसी को बाहर से देखने पर नैतिकएक गम्भीर रिक्तता का अनुभव कर, उनसे मुक्त हो व्यवहार से धर्म और धर्म से दर्शन की निष्पत्ति प्रतीत क्रान्तिपुरुष के रूप में उभरे और धार्मिक जड़ता, अन्ध- होती है । इस परिप्रेक्ष्य में तीर्थ कर महावीर का दर्शन श्रद्धा, जाति एवं वर्गभेद तथा सामाजिक वैषम्य की अन्तर से बाहर की ओर अग्रसर होता है। उन्होंने सीमाओं को तोड़कर आत्म-विजेता बने। उन्होंने अपने सम्यक धर्म, दर्शन एवं चरित्र पर बल दिया। जिसका युग में सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, बौद्धिक, एवं दृष्टिकोण सम्यक है, वह व्रती होगा। ऐसा व्रती अहिंसक आध्यात्मिक सभी क्षेत्रों में नव-क्रान्ति का सूत्रपात रहेगा और अपने आश्रितों एवं कर्मकारों के प्रति सदकिया। वे सांसारिक युद्धों से विमुक्त रहकर, आत्मिक व्यवहार करेगा तथा उनकी आजीविका अर्जन में विघ्न संग्राम में विजयी हो 'जिन' अर्थात् विजेता कहलाए। नहीं डालेगा । वह सत्य व्रत का पालन करेगा और
विश्वासघात नहीं करेगा, छलपूर्ण व्यवहार, विलासिता, यही नहीं उन्होंने अपने व्यापक एवं सर्वाङ्गीण पूर्ण सामग्री से विमुक्त रहकर जीवन की मूलभूत दर्शन द्वारा भावी चिन्तन का मार्ग प्रशस्त कर सकने आवश्यकताओं की पूर्ति योग्य ही संग्रह कर नैतिकतायोग्य मौलिक एवं सुदृढ़ आधारों की स्थापना की। पूर्ण जीवन व्यतीत करेगा। उन्होंने जाति, वर्ण एवं यदि हम आज बीसवीं सदी में मानव चिन्तन को प्रभा- वर्गभेद का तीव्र विरोधकर उसे ईश्वर प्रदत्त व्यवस्था वित करनेवाली प्रमुखतम विचारधाराओं, समाजवाद कहनेवाली धारणाओं का खण्डन किया तथा इसे मनुष्यऔर गाँधीवाद के मूल में झांकें तो पाएंगे कि जिन जन्य काल्पनिक एवं भेदपूर्ण व्यवस्था कहा । यही नहीं, आधारों पर इन दो प्रमुख विचारधाराओं का विकास वरन उन्होंने तत्कालीन समाज में पूर्व प्रचलित सामाजिक हुआ, उनकी परिकल्पना तीर्थकर महावीर ने आज से दुर्व्यवस्थाओं के विरुद्ध जन-जागरण किया। ढाई हजार वर्ष पूर्व ही की थी।
इस प्रकार तीर्थ कर महावीर का दर्शन अहिंसक बीसवीं सदी के क्रान्तिकारी विचारक तथा वर्तमान परिवेश में समाजवादी व्यवस्था के उन सभी मूलाधारों समाजवादी विचारधारा के प्रेरक तथा उन्नायक कार्ल को सँजोये हुए है, जिन पर आज का समाजवादी दर्शन मार्क्स के दर्शन के मूलाधार वर्गसंघर्ष, तथा द्वन्द्वात्मक टिका है। मार्स ने जो बाद में कहा, उसे उन्होंने बहुत भौतिकवाद की परिकल्पना तीर्थकर महावीर के जीवन- पहले देखा । उन्होंने अपरिग्रहवाद की स्थापना कर दर्शन में स्पष्टतः परिलक्षित होती है। उन्होंने संग्रह वृत्ति श्रावक के परिग्रह की मर्यादा निश्चित की तथा अपरिका विरोधकर आवश्यकतानुसार संग्रह पर बल दिया ग्रह के रूप में किसी भी वस्तु के प्रति ममत्व को भी और अपरिग्रह दर्शन की स्थापना की। उन्होंने कहा कि त्यागने तथा श्वानुशासन का पालन कर मर्यादा के
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अनुरूप समान वितरण, आचार-विचार में समन्वय और उसने उनके मानवदर्शन का और व्यापक प्रचार कर, स्वेच्छिक अनुशासन पर बल दिया तथा श्रम भाव की विशेषकर अहिंसा दर्शन के उच्चतम शिखरों की प्रतिष्ठा की। स्वयं उनके जीवन में इन्द्र द्वारा अपनी स्थापना के माध्यम से मानव जाति की महान् सेवा की सेवाएं प्रस्तुत करने पर उन्होंने उसे अस्वीकार कर कहा है। उनकी परम्परा ने जहाँ, तीर्थ कर महावीर के कि मैं अपने श्रम, बल एवं पुरुषार्थ से ही सिद्धि प्राप्त उपदेशों का व्यापक प्रचार किया, वहाँ शैक्षणिक एवं करूंगा, किसी अन्य का सहयोग प्राप्त करके नहीं। साहित्यिक दृष्टि से उनके सिद्धान्तों की व्याख्या कर उन्होंने कहा कि श्रम कभी निष्फल नहीं जाता। यही तथा उन्हें लोकभाषाओं में लिपिबद्ध कर जैन वाङ्गमय कारण है कि तीर्थकर महावीर श्रमण कहलाए और को इतना अधिक सम्पन्न बना दिया कि ज्ञान की कोई उनकी परम्परा को श्रमण संस्कृति का नाम निरूपित भी विधा, इनसे अछूती न रही । प्रायः सभी प्रचलित किया गया ।
एवं लुप्त भारतीय भाषाओं में आज जो भी प्राचीन
साहित्य उपलब्ध है उसका एक बड़ा भाग जैन वाङगमय भारतीय दर्शन पर तो तीर्थ कर महावीर द्वारा न स्थापित मानदण्डों का तीव्र प्रभाव पड़ा, और उसमें अहिंसक प्रवृत्तियाँ तीव्रता से प्रतिष्ठित हई । बीसवीं
मानव सभ्यता के उदयकाल से ही मानवतावादी सदी में महात्मा गाँधी के रूप में जिन भारतीय विचारक
चिन्तन में संलग्न गौरवमयी भारतीय सभ्यता ने जहाँ ने अहिंसक स्वतन्त्रता संग्राम की सफलता से, अणु
अनेकों उच्च आदर्शों एवं मानदण्डों की स्थापना एवं आयुधों की कगार पर बैठी मानव सभ्यता को नया
उत्कृष्ट कला तथा साहित्य की रचना की वहाँ दुर्भाग्यमानवता वादी जीवन सन्देश दे सम्पूर्ण विश्व को चौंका वश इस दश म इतिहास
वश इस देश में इतिहास लिखने और प्राचीन स्मारकों, दिया, उनके मूल प्रेरणा स्रोतों में गाँधीजी के स्वयं के कलात्मक प्रतीकों एवं ग्रन्थों तथा पाण्डुलिपियों की अनुसार तीर्थंकर महावीर का मानवतावादी दर्शन सुरक्षा
सुरक्षा पर विशेष ध्यान नहीं दिया। इस देश की
प्राचीन सभ्यता की प्रतीक बहुत-सी पुरातत्विक सम्पदा प्रमुख था।
और प्राचीन साहित्य, सुरक्षा के अभाव में नष्ट हो गयी, सर्वाङ्गीण प्रतिभा के धनी वर्द्धमान महावीर ने बहुत कुछ विदेशी शासकों द्वारा नष्ट कर दी गयी, कठोर साधना के द्वारा जहाँ त्याग और तपस्या के अन्त तथा कुछ उनके साथ विदेश चली गई। में उच्चतम मानदण्डों की स्थापना की वहाँ उनके
प्रसन्नता की बात है कि स्वाधीनता प्राप्ति के मानवतावादी दर्शन ने मानव चिन्तन को एक नई दिशा उपरान्त इस दिशा में कुछ प्रयास प्रारम्भ हुए हैं । दी। अपने विचारों को जन-जन तक पहुँचाने के लिये ।।
पुरातत्विक सम्पदा की सुरक्षा और पुरातत्व तथा उन्होंने तत्कालीन समाज में, सुदुर क्षेत्रों की पदयात्रा साहित्यिक क्षेत्र में शोध-कार्य की दिशा में भी प्रयास कर लोकभाषा में अपने मानव धर्म का प्रचार किया प्रारम्भ हुए हैं, तथापि, इस देश की महान सभ्यता, विपुल और कठोर साधना के पश्चात् ज्ञान का जो विपुल पुरातत्विक सम्पदा तथा विशाल वाङ्गमय को दृष्टिगत भण्डार अजित किया था. उसे जन-सामान्य में बिखेर रखने का यह प्रयास अक्षण्य दी है. इसमें तीवता लाने दिया । हजारों-लाखों नर-नारी उनके मतानुसार दीक्षित प्राचीन ग्रन्थों के पुनर्मद्रण तथा उन पर शोध-कार्य को हो गए।
सम्पादित करने की नितान्त आवश्यकता है।
आज से पच्चीस सौ वर्षों पूर्व निर्वाण को प्राप्त जीवाजी विश्वविद्यालय ने अपने सीमित साधनों होने के पश्चात तीर्थ कर महावीर ने जो परम्परा छोड़ी के अनुरूप इस दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास किये हैं।
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इनकी एक कड़ी के रूप में मध्यप्रदेश शासन द्वारा गठित मुझे प्रसन्नता है कि विश्वविद्यालय की यह कल्पना महावीर निर्वाण महोत्सव समिति के आर्थिक सहयोग आज साकार हो रही है। ग्रन्थ के सम्पादन, सामग्री से इस विश्वविद्यालय द्वारा 6 से 10 नवम्बर 1975 संकलन एवं प्रस्तुतीकरण में बहत अध्ययन और चिन्तन तक भगवान महावीर के 2500 वें महापरिनिर्वाण के से काम लिया गया है, जिसका प्रमाण इसके प्रत्येक अवसर पर एक व्याख्यानमाला आयोजित कर एक लघु पृष्ठ पर मिलता है। सम्पादक ने ग्रन्थ को व्यापक तथा प्रयास किया था, जिसमें अनेकों राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त सर्वाङ्गीण स्वरूप प्रदान करने में कुशल बुद्धि का परिचय विद्वानों के व्याख्यान आयोजित किये गये।
दिया है। इस हेतु इस ग्रन्थ के सम्पादक और
जीवाजी विश्वविद्यालय की महासभा के सदस्य व्याख्यानमाला की सफलता से प्रभावित होकर श्री रवीन्द्र मालव बधाई के पात्र हैं, जिनकी तीव्र लगन जब समिति ने इस व्याख्यानमाला में हुए व्याख्यानों एवं कर्तव्यनिष्ठा तथा अथक परिश्रम एवं सहयोग से तथा पठित शोधपत्रों के प्रकाशन की योजना निर्मित की विश्वविद्यालय अपने इन प्रयासों को मूर्त रूप प्रदान कर तब यह कार्य काफी कठिन प्रतीत होता था, तथापि सका । विश्वविद्यालय के इस प्रयास को गतिशील बनाने विश्वविद्यालय ने इस प्रयास को आगे बढ़ाते हुए इन के मूल में उनका महत्वपूर्ण योगदान है । मुझे इस बात व्याख्यानों को प्रकाशित करने का निश्चय किया।साथ की भी प्रसन्नता है कि विश्वविद्यालय के विकास एवं ही यह भी निश्चय किया कि इसमें इन व्याख्यानों के प्रकाशन विभाग ने भी इस कार्य में पूर्ण रुचि लेकर अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण विषयों पर, जिन पर किन्हीं ग्रन्थ के प्रकाशन में सक्रिय सहयोग दिया। कारणों से व्याख्यान आयोजित नहीं हो सके थे, राष्ट्रीय जिस कल्पना को लेकर इस स्मृति-ग्रन्थ के प्रकाशन ख्यातिप्राप्त विद्वानों तथा प्रतिष्ठित लेखको आदि से का विचार निर्मित हआ था, यह ग्रन्थ उससे भी कहीं शोधपत्र एवं निबन्ध प्राप्त कर, उनको भी सम्मिलित कर
उत्तम स्वरूप में प्रकाशित हो रहा है यह अत्याधिक हर्ष एक ऐसे स्मृति-ग्रन्थ का प्रकाशन किया जावे जिसमें
__ का विषय है। मेरा विश्वास है कि इसमें प्रकाशित सामग्री विविध क्षेत्रों में तीर्थकर महावीर एवं जैन संस्कृति की से जैन दर्शन, साहित्य एवं संस्कृति के अनेकों अज्ञात तथ्य देन एव उपलब्धियों से सम्बन्धित महत्वपूर्ण विषयो पर उजागर होंगे, साथ-ही-साथ यह ग्रन्थ शोध छात्रों एवं शोधपत्रों का संकलन हो।
प्रबुद्ध पाठकों के लिये भी उपयोगी सिद्ध होगा।
गोविनद नारायण टण्डन
अनन्त चतुर्दशी वीर निर्वाण सं० 2503 26 सितम्बर 1977.
कुलपति
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पूर्वा
भारत की पावन भूमि पर आज से दो हजार पाँच सौ तिहत्तर वर्ष पूर्व जन्मे तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर, भारतीय जनमानस के ही नहीं, सम्पूर्ण मानब समाज के लिये, गौरव, प्रतिष्ठा और सम्मान के परमाधिकारी महामानव थे। उनके परमोदात्त चरित्र
और पवित्र उपदेशों ने भारतीय परम्परा को गौरवान्वित किया । उनकी तपोनिष्ठा (तप-तितीक्षा), आत्म विजय, व्यापक मैत्री भावना और निर्वाण प्राप्ति ने प्राणीमात्र को आलोकित किया ।
हिंसा, बलि, पाखंड, बैर घणा और विषमता के युग में जन्मे वर्द्धमान ने वैचारिक, सामाजिक एवं आर्थिक क्रान्ति के माध्यम से तत्कालीन मानव समाज को अहिंसा और सह-अस्तित्व पर आधारित नवीन जीवन-दर्शन प्रदान कर तत्कालीन समाज-व्यवस्था को झकझोर दिया। उनके उपदेशों ने युगप्रवाह को बदलकर नवीन युगप्रवर्तन किया जिसके कारण तत्कालीन समाज का एक बहुत बड़ा भाग उनके मानवता,
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भ्रातत्व, दया, प्रेम और आत्म-कल्याण के सन्देश से सर्वतोमुखी था। कैवल्य प्राप्ति होते ही वे अपने आप प्रभावित हआ, और एक नवीन समाज की रचना को एकान्त से हटाकर समाज में ले आए। वे बैठे सम्भव हुई।
नहीं, निरन्तर चलते ही गए। उन्होंने जो कुछ भी तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के ढाई हजार वर्ष
अजित किया सब में वाँट दिया। यही नहीं, उन्होंने
ग्रहण करनेवालों से भी दो टक बात कही, कि--"जो पश्चात्, आज भी जब हम उनके जीवन और दर्शन पर ।
कुछ भी मैं कहता हूँ, उसे ही प्रमाण रूप या आज्ञा से मान्य दृष्टिपात करते हैं, तो आज भी हमें उसमें आशा और
तब तक न करो, जब तक तुम्हें स्वयं आभास या ज्ञान न विश्वास की वैसी ही किरण परिलक्षित होती है, जो
हो जाय कि यह सत्य है।" उनका यह विशाल उनके समकालीन मानव समाज को उनसे प्राप्त हुई।
दृष्टिकोण उनके चिन्तन की व्यापकता और वैज्ञानिकता होगी । अणु आयुधों के कगार पर बैठी तथा पारस्परिक
को सिद्ध करता है। बैर और वैमनस्य से विचलित विश्व मानवता आज भी तीर्थकर महावीर के अहिंसा दर्शन से अहिंसा और ईश्वरवाद और अवतारवाद की पूर्वमान्य विश्वशान्ति पर आधारित मानवतावादी समाज की धारणाओं की लीक से हटकर उन्होंने आज्ञा प्रधान के रचना की सुमति प्राप्त कर सकती है । उनका दर्शन स्थान पर परीक्षा या विवेक प्रधान दर्शन प्रदान किया; आज भी मानवमात्र की हित-साधना में उतना ही और जातिवाद, वर्णभेद, विषमता, व धर्म, के नाम पर सक्षम है।
हिंसा का खण्डन किया तथा दलितों एवं पीड़ितों के तीर्थकर महावीर ने कहा था कि सच्ची वीरता प्रति उदारता का सन्देश दिया। आध्यात्मिक विकास अपने पर विजय प्राप्त करने में है, किसी अन्य पर के चरम शिखर पर पहुंचकर वर्तमान महावीर ने
मकान में नही विजयी वही होता है. आत्मविजय की सहायता से, तैरकर सांसारिक सागर जो आत्म विजय करता है। उन्होंने अपने जीवन में के पार करने, का सन्देश देकर "नवीन धर्म तीर्थ' अर्थात समाज दर्शन को एक नवीन दिशा ही नहीं दी, वरन
"तैराकर पार उतारनेवाले धर्म" की स्थापना की। इसी जो कुछ कहा उसकी सार्थकता भी सिद्ध की। एक कारण वर्द्धमान महावीर; तीर्थकर, अर्थात तीर्थ की क्षत्रिय राज परिवार में जन्मे वर्द्धमान ने अपने त्याग, स्थापना करने वाले कहलाए । तप और साधना के माध्यम से स्वयं पर विजय प्राप्त
नवीन मानवीय मूल्यों की स्थापना कर तीर्थकर की। राग-द्वेष को नष्ट कर वे आत्मविजेता बने और
महावीर ने धर्मतीर्थ की स्थापना के साथ-साथ "जिन" अर्थात स्वयं को जीतनेवाले कहलाए। उन्होंने
वैचारिक, सामाजिक एवं आर्थिक क्रान्ति को जन्म अपने आत्मज्ञान से जो कुछ अजित किया,
दिया और इनके मूलभूत सामाजिक मूल्य के रूप में वह सब में बराबर बाँट दिया। उनके पंचव्रत--
उन्होंने अहिंसा, अपरिग्रह, तथा अनेकान्त और स्याद्वाद अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह;
को ग्रहण किया। इनमें अहिंसा दर्शन तीर्थ कर महावीर समस्त मानव समाज के लिये उपयोगी हैं ।
के जीवन-दर्शन की आत्मा; अपरिग्रह हाथ-पैर; उन्होंने जो कुछ भी विचारा और अनुभव किया, अनेकान्त मस्तिष्क एवं नेत्रः तथा स्याद्वाद मुख हैं। उसकी सत्यता का स्वयं पर परीक्षण किया। परीक्षण में जो खरा उतरा उसे अर्जित किया। अहिंसा के बिना उनका दर्शन एक क्षण भी खड़ा समस्या उत्पन्न हई तो समस्या निदान हेतु प्रयोग नहीं रह सकता । अहिंसा मानव जाति को उनकी शाला के रूप में तप किया। उनका सम्पूर्ण जीवन अमूल्य देन है। जिस पर उन्होंने सब से अधिक बल
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दया । महावीर की अहिंसा जीवात्माओं की सत्ता और अर्थात--"मन वचन और काया, इनमें से किसी स्वाधीनता को स्वीकारती है। वस्तुतः यह बोध एक के द्वारा भी किसी प्रकार के जीवों की हिंसा न अप्रमत्त अथवा निरन्तर जागरुक अवस्था के ऊपर हो, ऐसा व्यवहार ही संयमी जीवन है, और ऐसे जीवन निर्भर करता है । जिस अंश में हृदय एवं मस्तिष्क की का निरन्तर धारण ही अहिंसा है।" इस प्रकार जागरुकता उत्पन्न होती है, उसी अनुपात में जीवात्माओं तीर्थकर महावीर ने मन, वचन और काय तीनों के की सत्ता और स्वाधीनता का बोध भी उत्पन्न होता द्वारा हिंसा, या उसकी कल्पना, सभी को हिंसा कहा । वे जाता है । इस पावन उन्नति का चरमोत्कर्ष ही अहिंसा स्वयं सदैव अहिंसा के इस कट्टरतम स्वरूप के पालक है। तीर्थ कर महावीर ने प्रत्येक क्षेत्र में इसकी महत्ता रहे। को मानते हुए “अहिंसा परमोधर्मः" का दर्शन दिया। उनकी अहिंसा सार्वभौमिक एवं सार्वलौकिक है, जिसकी
स्वयं तीर्थकर महावीर सारे जीवन मानवतासार्थकता इस यग में अहिंसा दर्शन के कदर अनयायी वादी समाज-रचना तथा विश्वशान्ति की खोज में लगे महात्मा गाँधी द्वारा सिद्ध की जा चकी है। महावीर रहे। उन्होंने इसके मूल में मुख्य कारक के रूप में की अहिंसा, हिंसा से विरत रहने का ही नाम नहीं है,
असमानता को पाया। असमानता से पीड़ित मानव वरन् उसमें, मन में भी हिंसक विचार न लाने का संकल्प
समाज से वर्द्धमान की आत्मा कुठित हो उठी । जीवन निहित है। महावीर ने वैचारिक हिंसा को भी जीव के आर्थिक पक्ष पर भी उनके पावन सन्देश मुखरित हिंसा के समान ही दूषित माना। उनकी अहिंसा में प्रेम,
हए। उन्होंने ममत्व को कम कर अनावश्यक संग्रह न और सह-अस्तित्व भी समाहित है। उनका "जिओ
करने का सन्देश दिया और कहा कि संसार में झठ, और जीने दो" का सन्देश इसकी पुष्टि करता है।
चोरी, अन्याय, हिंसा, छल, कपट आदि जो पाप होते
हैं, उनके मूल में व्यक्ति की परिग्रह बढ़ाने की भावना आचार्य उमास्वामी ने मोक्षशास्त्र में महावीर
है। अत: मूलभूत रूप से इन सारे पापों से मुक्ति का की उक्ति "परस्परोपग्रहो जीवानाम्" की चर्चा की है,
एक ही मार्ग है "अपरिग्रह"; अर्थात् - परिग्रह का त्याग। जिससे तात्पर्य है कि "समस्त जीवों का परस्पर उपकार
इस दृष्टि से अपरिग्रह-परिग्रह का नकारात्मक पक्ष है।
सांसारिक वस्तुओं एवं सम्बन्धों के प्रति आसक्ति से हो।" इसमें भ्रातृत्व का अभूतपूर्व सन्देश है, सम्भवतः इसी कारण पच्चीससौ वे निर्वाण महोत्सव हेतु
व्यक्ति (जीवात्मा) जितने अशों में मुक्त होता जाता निर्धारित प्रतीक के साथ ध्येय वाक्य के रूप में इसी
है, उतने अंश में ही अपरिग्रह भाव विकसित हो जाता उक्ति का चयन किया गया है। यह सन्देश सह अस्तित्व
है । यह विकास प्रारम्भिकी स्तर अणुव्रत से, उच्चतम
स्तर महाव्रत तक होता है । इसलिये उन्होंने साधुओं का सन्देश है । महावीर की अहिंसा और सह-अस्तित्व एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सह-अस्तित्व सामाजिक
को अपरिग्रह तथा श्रावकों को परिग्रह परिमाण व्रत के
पालन की शिक्षा दी। जैन धर्म का अपरिग्रह दर्शन जीवन की धुरी है तो अहिंसा मानव जीवन की। इस
जिसकी तीर्थंकर महावीर ने विस्तृत व्याख्या की है, प्रकार महावीर को अहिंसा अपने में अत्यन्त व्यापक
मानव जाति को उनकी अपूर्व और अनूठी देन है। अर्थ समेटे हुए है । इसी कारण कहा है
आज विश्व में जिस साम्यवादी और समाजवादी विचार
धारा की धूम मची है, उसमें क्रान्ति और कानून तेसि अच्छण जो एव, निच्च होय स्वयं सिया ।
के माध्यम से समाजवाद लाने की बात है । महावीर ने मणसा कायवक्केण, एवं हवह संजय ॥ आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व ही अनादि, जैन दर्शन की
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सर्वप्रथम, विस्तृत एवं सूक्ष्मतम व्याख्या कर मानवमात्र तीर्थंकर महावीर ने अपने जीवन-दर्शन के से, अपरिग्रह व्रत को ग्रहण कर, समाज की इकाई क्रियात्मक सत्र के रूप में "सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्राणि के माध्यम से समाजवादी समाज रचना की दिशा दी। मोक्षमार्गः" का विचार देकर रत्नत्रय धर्म की प्रतिपादना इस दृष्टि से वे उग्र समाजवादी विचारधारा के की। उन्होंने इस सूत्र के माध्यम से ईश्वरवाद एवं जनक थे। उनके द्वारा जीवन के आर्थिक पक्ष के सम्बन्ध अवतारवाद तथा कर्म और मोक्ष के सम्बन्ध में पूर्व में जो कुछ भी कहा गया, वह वर्तमान समाजवादी प्रचलित धारणाओं का दार्शनिक विवेचन कर, खण्डन विचारधारा से भी अधिक उग्र और प्रगतिशील था। किया। उन्होंने आदर्श दर्शन, आदर्श ज्ञान एवं आदर्श अन्तर केवल इतना ही है कि उनका यह दर्शन चरित्र को ही मोक्षप्राप्ति का मार्ग कहा । कर्मविज्ञान अहिंसात्मक आधार पर खड़ा है, जबकि समाजवाद की के सम्बन्ध में भी नवीन एवं वैज्ञानिक विचार देते हुए वर्तमान विचारधाराओं में अहिंसा को या तो कोई उन्होंने कहा कि कोई भी मनुष्य अपने कर्मों का स्वयं स्थान दिया ही नहीं गया, या दिया भी गया है, तो ही बन्ध है, अशुभ कर्मों के बन्ध से मुक्ति और शुभ अत्यन्त गौण । इस प्रकार तीर्थंकर महावीर का आर्थिक कर्मों के क्रियान्वयन के द्वारा ही वह कर्मबन्ध से दर्शन अहिंसक साम्यवाद का उन्नायक है।
छुटकारा पाकर अपना आत्म-कल्याण करते हुए मोक्ष
को प्राप्त हो सकता है। उन्होंने भाग्यवाद की धारणा तीर्थंकर महावीर सर्व धर्म समभाव में विश्वास
का खण्डन करते हुए कहा कि मनुष्य स्वयं ही अपने करते थे । इसकी पुष्टि उनके अनेकान्त दर्शन से होती
कर्मो का सचालक है। कोई अन्य शक्ति उसका न तो है, जिसका तात्पर्य; बोध में विभिन्न दृष्टियों के समन्वय
निर्धारण ही करती है, न उसके अशुभ कार्यों से उसे से है । दर्शन के इस वैचारिक पक्ष के साथ उन्होंने
मुक्ति दिला सकती है। मनुष्य स्वयं के कृत्यों से ही वाणी के द्वारा उन दृष्टिकोणों की समन्वित अभिव्यक्ति
अपनी आत्मा को शुद्ध बना सकता है। "शद्ध आत्मा के रूप में, स्याद्वाद दर्शन प्रतिपादित किया।
से परमात्मा" की उक्ति उनके इस दर्शन का मल इस प्रकार तीर्थ कर महावीर ने प्राणीमात्र के मन्त्र है। कल्याणार्थ एक सम्पूर्ण एवं सार्थक जीवन-दर्शन प्रदान किया जो सार्वभौमिक एवं सार्वलौकिक है। ती कर इस प्रकार आत्मविजेता तीर्थ कर महावीर जन-जन महावीर के दर्शन के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट के शिक्षक बन गए। उन्होंने पूर्व धारणाओं एवं करते हुए डा० राधाकृष्णन ने कहा है कि-"व्यक्ति परम्पराओं को तोड़, लोकभाषा में अपने उपदेश दिये । स्वातन्त्र्य तथा सामाजिक न्याय दोनों की मानव कल्याण इस सम्बन्ध में शूबिंग ने अपने विचार प्रकट करते हुए के लिये जरूरत है। हम किसी एक की तरफदारी या कहा है कि-"तीर्थकर महावीर शिक्षक के नाते बड़े
की अवहेलना कर सकते हैं, लेकिन जो जैनमत के ही सफल रहे और उनकी विवेचन शैली अवैयक्तिक अनुसार अनेकान्त, सप्तभंगी भय या स्याद्वाद का आचरण रही। अवैयक्तिक तथा कठोर रहना शायद उनके स्वभाव करता है, उसमें सांस्कृतिक आग्रह का अभाव होगा, उसमें की विशेषता थी।" उनकी सभाओं में राजा से रक सद्विवेक बुद्धि होगी तथा वह विरोधी दृष्टिकोण में भी तक, ब्राह्मण से शूद्र तक तथा धनिकों से दीनों तक समन्वय खोजने की कोशिश करेगा। ऐसे दृष्टिकोण को सभी वर्गों और वर्णों के, नर-नारी ही नहीं, पशु-पक्षी हमें अपनाना चाहिये। हम भगवान महावीर के चरित्र और अन्य जीव भी, उनके द्वारा मुखरित वाणी को से संयम, अहिंसा की साधना, परमत सहिष्णुता आदि ग्रहण करते थे। जो भी उनके सम्पर्क में आया, उनका कुछ शिक्षा सीख सकते हैं।"
हो गया।
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तीर्थकर जहां जिन कहलाते थे वहाँ इनके अनुयायी अपभ्रंश, संस्कृत तथा मध्ययुगीन और अनेक आधनिक जैन, और इनका दर्शन एवं संस्कृति जैन दर्शन एवं भारतीय भाषाओं में जैन धर्म का प्रचूर साहित्य जैन संस्कृति कहलाए । इस प्रकार जैन से तात्पर्य है उपलब्ध है । सम्भवत: ज्ञान का कोई ऐसा पक्ष नहीं कि जो जिन धर्म में अर्थात् स्वयं को विजय करने में है जो जन वाङ्गमय से अछूता हो । अनेक भाषाओं में विश्वास करे अर्थात आत्मविजेता बनने का प्रयास करे। तो यह इतना सम्पन्न है, कि यदि इसे पृथक् कर दिया सन 1897 में एक कन्वेन्शन लैक्चर में एनी बेसेण्ट ने जाय तो उसकी आत्मा ही नष्ट हो जाएगी। इस दृष्टि जैन धर्म का सार स्पष्ट कर कहा था कि-"जैन धर्म से जैन वाङ्गमय भारत का सम्पन्नतम वाङ्गमय है। का वातावरण एक वचन में ग्रहित किया जा सकता है। यह वचन हमें सूत्रकृतांग में मिलता है कि मानव इस प्रकार तीर्थकर महावीर के जीवन-दर्शन ने किसी जीव को दु:ख न पहुंचाकर निर्वाण की शान्ति जहां-मानवता को नया प्रकाश दिया वहां जैन वाङ्गमय प्राप्त करता है। यह एक वचन है जो जैन दर्शन ने साहित्य को प्रचुर मात्रा में ज्ञान का भण्डार प्रदान का सारा दर्शन साथ में लिये हुए है। शान्ति: मानव, किया । जैन संस्कृति और सभ्यता ने भी अहिंसा के मानव में शान्ति, मानव और पशुओं में शान्ति, सब व्यापक प्रचार और विश्वशान्ति एवं मानवता की दिशा जगह और सब वस्तओं में शान्ति; सब जीवों में पूर्ण में किये गए प्रयासों द्वारा मानव समाज की उतनी ही बन्धुता जैन धर्म का ऐसा ही आदर्श है और इस आदर्श सेवा की है। विश्व इतिहास में जैनों द्वारा साम्प्रदायिक को हर जैन, संसार में मूर्त स्वरूप में लाने की कोशिश विद्वेष फैलाने या धर्म के नाम पर किसी भी प्रकार के करता है।"
हिंसात्मक कृत्यों के सम्पादन का रंच मात्र भी उदाहरण,
आज तक, उपलब्ध नहीं है। इस दृष्टि से भी जैन तीर्थ कर महावीर का यह जीवन-दर्शन अपने संस्कृति गौरवशाली एवं अद्वितीय है। तथापि तीर्थ कर वैज्ञानिक स्वरूप और ताकिकता के कारण उस काल महावीर के निर्वाण के ढाई हजार वर्ष पश्चात् हम यदि के प्रमुख चिन्तकों और बुद्धिजीवियों के बहुत बड़े भाग सम्पूर्ण जैन संस्कृति का पुनर्मूल्यांकन करें तो पाएंगे कि को भी अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हआ। इस बीच जहां एक ओर जैन धर्मावलम्बियों ने जैन उनके पश्चात् तीर्थ करों के विचार एवं दर्शन को उनके संस्कृति एवं जैन वाङ्गमय का परिवर्द्धन, विकास एवं अनुयायी जैन धर्मावलम्बियों ने लिपिबद्ध किया, उसकी संरक्षण कर मानव जाति की बड़ी महत्वपूर्ण सेवा की विस्तृत व्याख्याएं कीं तथा उन पर टीकाएँ लिखी गई। है; वहां--दूसरी ओर इस बीच विभिन्न संस्कृतियों के उनकी स्मति को चिरस्थायी स्वरूप प्रदान करने के प्रभाव तथा समयानुकूल परिस्थितियों के कारण अपने लिये उनकी विशाल प्रतिमाओं का निर्माण एवं चित्रों को महावीर का अनुयायी कहनेव में भी उनके का अंकन प्रारम्भ हआ। शनैः-शनैः मन्दिर और मठ द्वारा प्रदशित जीवन-पद्धति का स्वरूप कुछ विकृत हो भी निर्मित होने लगे।
गया है । अपने वस्त्रों, आभूषणों और राजपाट आदि
सभी परिग्रहों का त्यागकर पूर्ण अपरिग्रह को प्राप्त जैन धर्म की अहिंसा ने जहां मानव हृदय को तीर्थ कर महावीर की मूल्यवान पत्थरों व धातुओं की मार्दव प्रदान किया, वहां जैन धर्म की प्रेरणा ने भारतीय प्रतिमाओं तथा मन्दिरों के निर्माण पर अधिक वल शिल्प को, पत्थर को मोम बना देने की अद्भुत क्षमता दिया जाने लगा है। तीर्थकर महावीर ने जहां अहिंसा दी-जैन स्थापत्य इसका स्पष्ट प्रमाण है। जैन वाङ्गमय के वैचारिक एवं आचारिक पक्ष पर बल देते हए प्राणी जैन शिल्प से भी अधिक सम्पन्न है । अर्द्धमागधी, मात्र के प्रति दया, भ्रातृत्व एवं प्रेम पर अधिक बल दिया
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थिा वहां वर्तमान में सामान्य जैन धर्मावलम्बियों स्वरूप को पूनः अधिकाधिक उजागर कर उसे जनके मध्य अहिंसा का तात्पर्य अब खानपान में जीवों सामान्य में प्रचलित किया जाकर मानव मात्र के की हिंसा न करने मात्र से समझा जाने लगा है। इस कल्याणार्थ एवं स्थायी विश्वशान्ति के प्रयोजनार्थ प्रकार उनके मध्य अहिंसा का स्वरूप रसोईघर तक ब्रह्मास्त्र के रूप में प्रयुक्त किया जावे। ही सिमटकर रह गया है। अपरिग्रह उनके मध्य मात्र दर्शनशास्त्र एवं व्याख्यानों का तत्व बनता जा
सम्भवत इस विचार ने देश के बुद्धिजीवियों के रहा है। परिग्रह, लोभ, क्रोध, माया, मोह. द्वेष व एक बड़े वर्ग को प्रभावित किया, और यही कारण है घणा पर आधारित कर्मों में संलग्न व्यक्ति भी खानपान कि तीर्थ कर महावीर के निर्वाण के पच्चीससौ वे वर्ष में हिंसा से विरत रहने के आधार मात्र पर अपने को को उपयुक्त अवसर मानकर इस दिशा में राष्ट्रीय एवं पूर्ण अहिंसक मानकर महावीर के कदर अनुयायी होने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक रूप से प्रयास स्वरूप का दम भरते हैं और यह अपेक्षा करते हैं कि इसके विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन एवं योजनाओं का पालन मात्र के समक्ष उनके अन्य सभी दोष क्षम्य हैं। प्रारम्भ किया गया। अनेकों प्राचीन एवं दुर्लभ ग्रन्थों
का प्रकाशन, जैन धर्म, दर्शन व संस्कृति के विभिन्न पक्षों ___यह भी दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जायगा कि आज से पर शोध कार्यों; संगोष्ठियों, व्याख्यान मालाओं का पच्चीस सौ वर्ष व तीर्थकर महावीर के जिस जीवन- प्रकाशन तथा इस दिशा में स्थायी रूप से तथा द्र तगति दर्शन ने ईश्वरवाद एवं अवतारवाद की धारणा के खण्डन । से कार्य, पच्चीस सौं वें निर्वाण महोत्सव वर्ष की और अपने वैज्ञानिक कर्म दर्शन के कारण, जन-सामान्य महत्वपूर्ण उपलब्धियां ही कही जावेंगी। में अत्याधिक लोकप्रियता प्राप्त की थी, वह अब जनेतर व्यक्तियों में अपने प्रसार के अभाव में पूर्वानुरूप जीवाजी विश्वविद्यालय द्वारा 6 नवम्बर 1975 से लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर पा रहा है । “मनुष्य जन्म 10 नवम्बर 1975 तक आयोजित पांच दिवसीय से नहीं कम से महान है" का दर्शन देने वाले तीर्थकर व्याख्यानमाला. इस वर्ष के विभिन्न कार्यक्रमों की श्रृंखला महावीर के अनुयायी, जन्म के आधार पर जैन लिखने में एक कडी ही कही जाएगी, जिसमें विभिन्न महत्वपर्ण और कहने में संलग्न हो गए हैं। जिन दोषों और विषयों पर देश के कुछ दुने हए विद्वानों के शोधपूर्ण करीतियों के विरुद्ध तीर्थकर महावीर ने सामाजिक व्याख्यान आयोजित हए । अन्य कई विषयों पर क्रान्ति की प्रतिपादना की, उनमें से बहुत-सों की व्याख्यान साधनों तथा समय के अभाव में उस समय कालिमा ने जैन दर्शन और संस्कृति के मूल स्वरूप के चाहकर भी आयोजित न हो सके परन्त इस सम्बन्ध में एक बडे भाग को, प्रभावित कर जैन धर्मावलम्बियों में विशिष्ट सामग्री किस प्रकार प्रकाश में लायी जाए और प्रचलित वर्तमान आचरण पद्धति एवं मान्यताओं को व्याख्यानमाला में हए व्याख्यानों को लिपिवद्ध कर दूषित कर संकुचित कर दिया है।
उनके प्रकाशन के द्वारा उन्हें किस प्रकार स्थायी स्वरूप
प्रदान किया जा सके, यह बिचार निरन्तर ही मन को आज यह नितान्त आवश्यक है कि पच्चीस सौ वर्ष कचोटता रहा। व्याख्यानमाला हेतु प्रदेश शासन से पर्व तीर्थकर महावीर ने मानवमात्र के कल्याणार्थ जो प्राप्त अनुदान का अल्पांश ही शेष था, और उसके दर्शन दिया तथा तत्कालीन समाज में प्रचलित ___ सदुपयोग की समस्या भी बनी हुई थी। परन्तु इस अत्यल्प दुर्व्यवस्थाओं एवं मान्यताओं के विरुद्ध संघर्ष कर जिस राशि से व्याख्यानमाला में हुए दस व्याख्यानों का सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात किया उसके वास्तविक प्रकाशन भी सम्भव न था। इन सब परिस्थितियों में
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जब विज्ञापनों से कुछ धनराशि प्राप्त कर, विभिन्न की समस्या उत्पन्न हो गयी, किन्तु साध्य की पवित्रता विषयों पर देश भर के मूर्धन्य विद्वानों तथा प्रतिष्ठित तथा उसे प्राप्ति के प्रति तीव्र निष्ठा के कारण साधन लेखकों से कुछ चुने हुए विषयों पर अप्रकाशित शोध- भी सुलभ होते गए । हां, इस सब के कारण ग्रन्थ का पत्रों एवं निबन्धों के एक संग्राह्य संग्रह प्रकाशित करने मुद्रण अवश्य, कई बार स्थगित करना पड़ा, जिस कारण का विचार जागृत हुआ, तो उसका क्रियान्वयन अनेकों सहयोगियों में अधीरता बढ़ने लगी और ऐसा अत्याधिक दुष्कर प्रतीत होता था, तथापि एक पवित्र अनुभव होने लगा कि सम्भवतः यह प्रकाशन पूर्ण न हो कार्य मानकर, प्रत्येक दशा में इस कल्पना को साकार सके । बनाने का निश्चय कर लिया और इस योजना की प्रारम्भिक रूपरेखा बनाकर दो सौ के लगभग पृष्ठ
मुझे प्रसन्नता है कि दो वर्ष पूर्व आयोजित
व्याख्यानमाला के प्रकाशन के रूप में संजोया विचार संख्या वाली एक स्मारिका प्रकाशित करने का विचार कुलपति जी के सम्मुख प्रस्तुत किया । विश्वविद्यालय
"महावीर स्मृति ग्रन्थ" के वृहद् रूप में परिणित हो, के अधिकारियों को आर्थिक साधनों के संग्रहण का कार्य
पूर्ण हो रहा है। इसके क्रियान्वयन में मुझे विभिन्न
सहयोगियों से प्राप्त प्रेरणा एवं आशीर्वाद के लिये मैं अत्यन्त दुष्कर प्रतीत हो रहा था, चूकि विश्वबिद्यालय
उनका कृतज्ञ हूँ । प्रमुखत: लेखकों का, जिन्होंने मेरे के लिये किसी भी मद से इसके लिये धन व्यय करना
निवेदन को स्वीकार कर ग्रन्थ हेतु नवीन एवं अप्रकाशित सम्भव नहीं था । परन्तु जब कुलपतिजी को यह
शोधपत्र अथवा निबन्ध प्रस्तुत कर इस ग्रन्थ की विश्वास दिलाया कि योजना के लिये सम्पूर्ण साधन
योजना को मूर्तरूप देने में सक्रिय सहयोग दिया। जन-सहयोग से जुटाए जाएंगे तो उन्होंने तत्काल स्वीकृति दे दी।
___ मैंने भरसक प्रयास किया है कि उपलब्ध साधनों
का अधिकतम दोहन कर ग्रन्थ को अधिकाधिक उपयोगी प्रकाशन के निश्चय के साथ ही देश के अनेक गणमान्य विद्वानों एवं लेखकों को इस हेतु शोधपत्र एवं निबन्ध
बनाया जा सके, उसे ऐसा स्वरूप प्रदान किया जा
सके जिससे बह दुर्लभ एवं लुप्त ज्ञान भण्डार के कुछ प्रस्तुत करने को निवेदन किया तो अधिकांश ने
महत्वपूर्ण पक्षों पर उपादेय एवं स्थायी महत्व की अत्याधिक समयाभाव के उपरान्त भी मेरे निरन्तर
संग्रहणीय तथा शोषपूर्ण सामग्री प्रस्तुत कर सके; साथ आग्रह को स्वीकार कर योजना को अपना आशीर्वाद
ही उन अथवा उन जैसे विषयों पर शोध-कार्य करने दे दिया। प्रकाशनार्थ प्राप्त सभी शोधपत्र और निवन्धों
हेतु शोधार्थियों को आकर्षित कर सके । के लिये पूर्व विचारित आकार अपर्याप्त था, परन्तु सभी रचनाएं अप्रकाशित, उच्चस्तरीय तथा महत्वपूर्ण ग्रन्थ अपने उद्देश्यों की पूर्ति में कितने अंशों में होने के कारण मैं उनमें से किसी के भी अप्रकाशित सफल हुआ है, इसका वास्तविक मूल्यांकन तो विज्ञ रहने का दुःसाहस, तथा सभी के सदुपयोग का लोभ पाठक एवं समीक्षक-समालोचक ही करेंगे । मैं तो संभरण भी नहीं कर सकता था । अतः योजना का यही कह सकता हूँ कि, मैंने अपने वर्तमान जीवन की विस्तार एवं परिवर्तन कर स्मारिका के स्थान पर महत्वपूर्ण साध मानकर पूर्ण निष्ठापूर्वक, उपलब्ध "महावीर स्मृति ग्रन्थ" के प्रकाशन का निश्चय कर, साधनों में, ग्रन्थ को अधिकाधिक उपयोगी एवं संग्रहणीय लिया; परन्तु इसके साथ ही और अधिक साधन जुटाने स्वरूप प्रदान करने का यथाशक्ति प्रयास किया है,
xxi.
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तदुपरान्त भी सम्पादन की दृष्टि से यदि कोई त्रुटियां अपनी इस साध की पूर्ति के रूप में यह ग्रन्थ शेष रह गयी हों, तो उसके लिये मैं सहृदय पाठकों प्रस्तुत करते हुए मुझे जिस अतीव हर्ष का अनुभव हो एवं समीक्षकों से सविनय क्षमाप्रार्थी हैं।
रहा है, वह अनिर्वचनीय है ।
तीर्थंकर महावीर जयन्ती २ अप्रेल १९७७
रवीन्द्र मालव--सम्पादक
प्रेम शान्ती भवन फालके बाजार, ग्वालियर-४७४००१
संयोजक-"महावीर स्मृति ग्रन्थ" प्रकाशन समिति
जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर
xxii
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आभार
तीर्थकर महावीर के निर्वाण की पच्चीसवीं शती की पूर्ति के अवसर पर विश्वभर में आयोजित कार्यक्रमों की श्रखला में व जीवाजी विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित व्याख्यानमाला के क्रम में "तीर्थकर महावीर स्मति-ग्रन्थ" आपके हाथों में प्रस्तुत है । इस अवसर पर ग्रन्थ के प्रकाशन में विश्वविद्यालय को विभिन्न महानुभावों एवं संस्थानों से प्राप्त सहयोग के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना मैं अपना पुनीत कर्तव्य समझता हूँ।
सर्वप्रथम मैं ग्रन्थ की प्रकाशन समिति के संयोजक एवं ग्रन्थ के सम्पादक तथा विश्वविद्यालये महासभा के सदस्य श्री रवीन्द्र मालव के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना परम् कर्तव्य समझता हूँ। प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन में उनका दृढ़ निष्ठापूर्ण विश्वास एवं कड़ा परिश्रम निहित है । विश्वविद्यालय के इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रकाशन में उनसे प्राप्त सक्रिय एवं रचनात्मक सहयोग के लिये विश्वविद्यालय उनका आभारी है।
ग्रन्थ में प्रकाशित विभिन्न सामग्री के लेखकों के प्रति भी विश्वविद्यालय अत्याधिक कृतज्ञ है, जिन्होंने विश्वविद्यालय के निवेदन को स्वीकार कर अपने व्यस्त जीवन में से कुछ वहमूल्य समय निकालकर ग्रन्थ हेतु
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अप्रकाशित शोधपत्र एवं निबन्ध लिखने तथा भेजने की विश्वविद्यालय, जैन समाज के प्रमुख प्रतिनिधियों कृपा कर, कृतार्थ किया। उनके कारण ही यह ग्रन्थ सर्वश्री मानिकचन्द्र गंगवाल, निर्मल अपने वर्तमान स्वरूप को ग्रहण कर सका है।
मानिकचन्द जैन, मिश्रीलाल पाटनी, रामजीत जैन,
ज्ञानचन्द्र जैन, देवेन्द्र कुमार कोठारी, पदमचन्द्र जैन ग्रन्थ के प्रकाशन हेतु साधन जुटाने में
एवं रामचन्द्र जैन आदि महानुभावों का भी आभारी श्री सरदार सिंह जी चौरड़िया का महत्वपूर्ण योगदान
है जिन्होंने व्याख्यानमाला के आयोजन एव ग्रन्थ के है। उनके सहयोग से ही इस ग्रन्थ के प्रकाशनार्थ "श्री
प्रकाशन में उल्लेखनीय सहयोग प्रदान कर कृतार्थ 2500वां भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव स्मारक
किया। व्याख्यानमाला के आयोजन में वित्त अधिकारी न्यास" से एक हजार रुपयों का आर्थिक अनुदान भी
! श्री आर. के पितले, पुस्तकालयाध्यक्ष श्री पी. के. बैनर्जी, प्राप्त हो सका। विश्वविद्यालय समस्त विज्ञापनदाताओं
विकास विभाग के कार्यालय अधीक्षक श्री एल. एन. का भी आभारी है, जिन्होंने आ संस्थानों के विज्ञापन
शर्मा तथा लिपिक श्री आर. के. गुप्ता; कुलपति के उपलब्ध कराकर, ग्रन्थ प्रकाशनार्थ साधन संग्रहण में
सचिव श्री पी. सी. जैन, विश्वविद्यालय यंत्री श्री के. सहायता की।
एल. महाजन ने भी विविध दायित्वों का अत्यधिक
लगन्पूर्वक निर्वाह कर सइयोग प्रदान किया नदर्थ ये ग्रन्य की साज-सज्जा की दृष्टि से ग्रन्थ का कलेवर ।
सभी धन्यवाद के पात्र हैं। तथा वर्तमान स्वरूप सम्पादक श्री रवीन्द्र मालव, सदस्य महासभा एवं विद्या परिषद, प्रो. विश्वमित्र वासवाणी, विश्वविद्यालय की ओर से मैं उन सभी सहविभागाध्यक्ष, शासकीय ललित कला महाविद्यालय, योगियों का भी हार्दिक आभारी हूँ जिन्होंने इस प्रकाशन तथा मुद्रक-साधना प्रेस के सर्वश्री नारायणसिंह वर्मा को सुलभ बनाने में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग प्रदान एवं लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, तथा उनके सहयोगीयों किया। उन सभी के सदप्रयासों के कारण ही आज के अथक परिश्रम एवं लगन का ही परिणाम हैं। इस ग्रन्थ का प्रकाशन सम्भव हो सका है। मेरा विश्वविद्यालय के विकास विभाग में लिपिक श्री भास्कर किया
विश्वास है कि जिन आकांक्षाओं के साथ इस ग्रन्थ का विश्वनाथ जोशी ने ग्रन्थ के प्रकाशन सम्बन्धी कार्याल
प्रकाशन किया गया है, उनकी पूर्ति में यह पूर्ण सफल यीन दायित्व का कुशलतापूर्वक निर्वहन कर उल्लेखनीय होगा। सहयोग दिया है । इसके लिये मैं उन्हें साधुवाद देता है।
विश्व मैत्री दिबस (क्षमावाणी पर्व) बीर निर्वाण सं. 2503 दिनांक 28 सितम्बर 77
घनश्याम गौतम उप कुलसचिव (विकास एवं प्रशासन)
जीव जी विश्वविद्यालय, ग्वालियर
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भारत के उपराष्ट्रपति के सचिव
नई दिल्ली-110011
प्रिय महोदय,
उपराष्ट्रपति जी को यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आप जीवाजी विश्व विद्यालय, ग्वालियर की ओर से भगवान महावीर जी के २५०० वें निर्वाण महोत्सव के अवसर पर आयोजित पाँच दिवसीय व्याख्यानमाला में पठित शोषपत्रों एवं व्याख्यानों को स्थायी रूप प्रदान करने के लिए एक "स्मारिका" प्रकाशित करने जा रहे हैं । उपराष्ट्रपति जी आपके विश्वविद्यालय को इस "स्मारिका" की सफलता के लिए अपनी हार्दिक शुभ कामनाएँ भेजते हैं ।
आपका वि० फड़के
-संदेश
RAJ BHAVAN
im
PERSNES
प्रिय रवीन्द्र जी,
यह जानकर प्रसन्नता हुई कि जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर, श्रीभगवान महावीर के २५०० वें निर्वाण महोत्सव के उपलक्ष पर शोधपत्रों और व्याख्यानों के प्रकाशनार्थ "स्मारिका' के प्रकाशन का निश्चय किया गया है। आपके इस प्रयत्न के द्वारा सर्व-साधारण को भगवान महावीर के सद्उपदेशों को जानकारी सुलभ होगी।
__ मैं आपके सत्प्रयत्नों की सफलता चाहता हूँ, और इस सुअवसर पर शुभ कामना प्रकट करता हूँ।
आपका मोहनलाल सुखाड़िया
राज्यपाल
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राज भवन भोपाल-3
.. मुझे यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर द्वारा भगवान महावीर के २५०० वें निर्वाण महोत्सव के अवसर पर पांच दिवसीय व्याख्यानमाला का आयोजन किया गया था और उक्त अवसर पर पठित शोधपत्रों और व्याख्यानों का संकलन स्मारिका के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है । आशा है, यह प्रकाशन भगवान महावीर के आदर्शों और विचारों तथा जैन धर्म के अध्येताओं और शोधकर्ताओं के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।
शुभकामनाओं सहित।
सत्यनारायण सिंह
राज्यपाल मध्य प्रदेश
----संदेश
-
मन्त्री रसायन एवं उर्वरक भारत शासन
जीवाजी विश्वविद्यालय द्वारा तीर्थंकर महावीर के पच्चीस सौं वे निर्वाण महोत्सव वर्ष के अवसर पर आयोजित व्याख्यानमाला को स्थायी स्वरूप प्रदान करने के उद्देश्य से स्मारिका का प्रकाशन किया जा रहा है, यह जानकर प्रसन्नता हुई। . : यह जानकर और भी प्रसन्नता हुई कि इसमें व्याख्यानमाला में हुए व्याख्यानों के अतिरिक्त राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वानों के शोधपत्र तथा निबन्ध भी प्रकाशित किये जावेंगे । मेरा विश्वास है यह ग्रन्थ बुद्धिजीवी पाठकों को उच्चकोटि की सामग्री प्रदान करेगा। इस अवसर पर मैं हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ।
प्रकाश चन्द्र सेठी
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मुख्य मन्त्री भोपाल
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मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर द्वारा भगवान महावीर के २५०० वें निर्वाण महोत्सव के अवसर पर आयोजित व्याख्यानमाला में पठित शोधपत्रों एवं व्याख्यानों को स्मारिका के रूप में प्रकाशित करने का निश्चय किया गया है।
मैं आशा करता हूँ कि इस प्रकाशन से व्याख्यानमाला में व्यक्त विद्वानों के मतों एवं धारणाओं को स्थायित्व प्राप्त होगा और भविष्य में भी हम उनसे मार्गदर्शन लेते रहेंगे।
रमारिका के लिये शुभ कामनाएँ।
श्यामाचरण शुक्ल
-संदेश
उपमन्त्री शिक्षा तथा समाज कल्याण
भारत नई दिल्ली-1
TV
मुझे यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर के तत्वावधान में श्री २५००वें भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव के शुभ अवसर पर व्याख्यानमाला का आयोजन किया गया एवं उक्त पांच दिवसीय व्याख्यानमाला में श्रोतावृन्द को अनेक विद्वजनों के विचार सुनने का शुभ अवसर मिला । अहिंसा एवं सत्य के नये प्रतिमानों का आज के इस वातावरण में क्या महत्व है इस पर प्रबुद्धजनों के विचार-विमर्श से लोगों को सही मार्गदर्शन मिला होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
उक्त उच्च विचारों का स्मारिका हेतु प्रकाशन सदा के लिए स्थायी स्वरूप प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा।
मैं स्मारिका की सफलता की कामना करता हैं और समझता है कि आम जनता को जानकारी देने में लाभदायक सिद्ध होगी।
अरविन्द नेताम
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वित्त मन्त्री, राजस्थान
जयपुर
भुझे यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हो रही है कि जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर द्वारा २५००वां भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव के अवसर पर आयोजित पाँच दिवसीय व्याख्यानमाला में पठित शोधपत्रो एवम् व्याख्यानों को स्थायी स्वरूप प्रदान करने के लिए स्मारिका का प्रकाशन किया जा रहा है। महावीर भगवान के सिद्धान्तो की आज के युग में बड़ी आवश्यकता है । उपरोक्त आयोजन के अवसर पर प्रकट किए गए विचारो को स्मारिका में प्रकाशित कर समिति आनेवाली पीढ़ी की बड़ी मदद कर रही है । इस अवसर पर मैं अपनी शुभ कामनाएँ प्रेषित करता हूँ।
चन्दन मल वैद
-संदेश
बंसतराव उयके मन्त्री, शिक्षा मध्यप्रदेश
___ जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर ने भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव के सन्दर्भ में आयोजित व्याख्यानमाला के व्याख्यानों को स्मारिका के रूप में प्रकाशित करने का निश्चय किया है, यह जानकर मुझे प्रसन्नता हुई।
मैं आशा करता हूँ कि विद्वानो द्वारा दिए गए इन भाषणो से पाठको को भगवान महावीर के व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने में सहायता मिलेगी। मेरी शुभ कामनाएँ।
. वसंतराव उयके
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गुलाव चन्द्र तामोट
मन्त्री लोक निर्माण
भोपाल मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर ने भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव के अवसर पर आयोजित पाँच दिवसीय व्याख्यानमाला के अन्तर्गत पठित शोधपत्रों और व्याख्यानों को एक स्मारिका के रूप में प्रकाशित करने का निश्चय किया है। व्याख्यानमाला के अन्तर्गत विद्वानों द्वारा पठित इन भाषणों की अपनी उपादेयता है और मुझे विश्वास है कि स्मारिका में संकलित होने से इन्हें स्थायी स्वरूप प्राप्त हो सकेगा। इस सद्प्रयास के लिए मेरी शुभ कामनाएँ।।
गुलाब चन्द्र तामोट
---
----संदेश----
Achal Singh
87 North Avenue, New Delhi M.P.. मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि भगवान महावीर के निर्वाण महोत्सव पर आप एक महान ग्रन्थ प्रकाशित कर रहे हैं । इससे जैन दर्शन व साहित्य एवं इतिहास पर एक बहुमूल्य ग्रन्थ तैयार हो जावेगा। इससे देश व समाज की सेवा होगी। __आपके प्रयास की मैं सराहना करता हूँ। आपके शुभ कार्य के लिए मेरी शुभ कामनाएँ हैं।
आपका अचलसिंह
श्री रवीन्द्र मालव
जीवाजी विश्वविद्यालय की ओर से आपने व्याख्यानमाला आयोजित की और इसके उपलक्ष्य में एक “स्मृति ग्रन्थ" का प्रकाशन कर रहे हैं यह जानकर प्रसन्नता हुई। ___इस "स्मृति ग्रन्थ" द्वारा आप लोग भगवान महावीर के उपदेश को समाज में प्रचार करने में सफल हों, ऐसी मैं शुभ कामनाएँ प्रेषित करता हूँ । प्रणाम ।
कस्तूरभाई लालभाई
अध्यक्ष, भगवान महावीर २५०० वें निर्वाण महोत्सव महासमिति
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अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय
कुलपति
प्रिय महोदय,
मुझे यह जानकर विशेष आनन्द है कि जीवाजी विश्वविद्यालय द्वारा भगवान महावीर के २५०० वें निर्वाण महोत्सव के अवसर पर आयोजित व्याख्यानमाला से सम्बन्धित शोधपत्रों एवं व्याख्यानों को एक स्मारिका के माध्यम से महोत्सव समिति द्वारा स्थायी स्वरूप प्रदान किया जा रहा है ।
यह सही है कि सभी धर्मों की उत्पत्ति इस संसार में मानव कल्याण के लिए ही हुई है । परन्तु यह भी एक कटु सत्य ही है कि स्वार्थ में लिप्त हो जाने के कारण मनुष्य धर्म के मूल तत्वों को बार-बार भूलता रहा है । भ्रमित मानव समाज ने भले ही सदैव धर्म-वृक्ष के पल्लवों को सींचा हो, अथवा उसके आवरण को सजाया हो, परन्तु, धर्म की जड़ों को बहुधा सुखाया ही है । अवतारी पुरुषों ने अपने जीवन, कृतित्व और शिक्षा के माध्यम से बार-बार इस पृथ्वी पर आकर भ्रमित समाज को प्रकाश, दिशा और प्रेरणा दी है, तथा समाज की डूबती नौका को अपने सबल हाथों द्वारा डूबने से बचाया है ।
भगवान महावीर ने भारतीय समाज का धर्म के मूल तत्वों की ओर ध्यान आकर्षित किया, हिसामय समाज में परम धर्म अहिंसा की पुनर्स्थापना की, तथा दीन-दुखियों को राहत और सहारा दिया । मुझे विश्वास है कि यह ऋणी भारतीय समाज उनके जीवन और आदर्शों से सदैव शिक्षा और प्रेरणा ग्रहण करता रहेगा । विद्वान वक्ताओं और लेखकों के विचारों का स्मारिका के माध्यम से स्थायीकरण निःसन्देह रूप से अनेकों पाठकों को आगे आनेवाले वर्षों में लाभ पहुँचाता रहेगा ।
रीवा (म. प्र. )
मैं इस सद्प्रयास की हृदय से सराहना करता हूँ, तथा प्रकाशन की पूर्ण सफलता की कामना करता हूँ ।
नारायण सिंह
-संदेश
कुलपति
विश्वविद्यालय भवन,
इन्दौर
यह जानकर प्रसन्नता हुई कि जीवाजी विश्वविद्यालय भगवान महावीर के २५०० निर्वाण महोत्सव पर पठित शोधपत्रों को स्मारिका के रूप में प्रकाशित करने जा रहा है। मैं प्रयास की सफलता हेतु कामना करता हूँ ।
पु. ग. देव कुलपति
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Gulab Chand Jain
Vice-Chancellor
Indira Kala Sangit Vishwavidyalaya KHAIRA GARH (M. P.)
Pin. : 491881
मुझे यह जानकर अत्यंत ही प्रसन्नता हुई कि जीवाजी विश्वविद्यालय द्वारा, भगवान महावीर के २५०० वें निर्वाण महोत्सव पर आयोजित ५ दिवसीय व्याख्यानमाला में पठित शोधपत्रों तथा व्याख्यानों को स्थायी स्वरूप प्रदान करने की दृष्टि से एक "स्मारिका" प्रकाशित करने का निश्चय किया गया है ।
जीवाजी विश्वविद्यालय का यह निश्चय निःसन्देह अत्यंत ही प्रशंसनीय कार्य है क्योंकि स्मारिका के प्रकाशन के माध्यम से विद्वतजनों के शोधपत्रों से जन-समाज को बड़ा लाभ मिलेगा जो वास्तव में एक स्तुत्य कार्य होगा।
मैं निर्वाण महोत्सव समारोह की सफलता के लिये अपनी शुभ कामनाएँ प्रेषित करता हूँ।
गुलाबचन्द जैन
कुलपति
-संदेश
जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय जबलपुर, मध्यप्रदेश
कृषि नगर जवलपुर-४८२००४ (म. प्र.)
आर. एल. कौशल
कुलपति
यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर द्वारा २५०० वां भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव के अवसर पर पठित शोधपत्रों एवं व्याख्यानों को स्थायी रूप प्रदान करने की दृष्टि से "स्मारिका" का प्रकाशन किया जा रहा है। शोधकर्ताओं एवं संकलनकर्ताओं के व्यावहारिक ज्ञान के उद्देश्य से यह एक उत्तम प्रयास है। बाशा है, यह स्मारिका धर्म में रुचि रखनेवाले सभी व्यक्तियों के लिये उपयोगी सिद्ध होगी।
स्मारिका प्रकाशन की सफलता हेतु मंगल शुभ कामनाएँ प्रेषित करता हूँ।
आर. एल. कौशल
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श्री रवीन्द्र जी
जीवाजी विश्वविद्यालय द्वारा “महावीर स्मति ग्रन्थ' का प्रकाशन, भगवान महावीर के जीवन और दर्शन के विविध पक्षों पर रचित, शोधपत्रों व लेखों के माध्यम से, भगवान के उपदेशों को जनसामान्य तक पहुँचाने, और बुद्धिजीवियों को चिन्तन हेतु दिशादर्शन के अपने उद्देश्यों में सफल हो, इस हेतु मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।
साहू शान्ती प्रसाद जैन
श्री रवीन्द्र जी मालव
भगवान महावीर के २५०० वें निर्वाण महोत्सव के अवसर पर जीवाजी विश्वविद्यालय "महावीर स्मति ग्रन्थ" प्रकाशित कर रहा है यह जानकर प्रसन्नता हुई । इस अवसर पर मैं हार्दिक शुभ कामनाएं प्रेषित करता हूँ।
लालचन्द्र हीराचन्द्र _-संदेश .... SHRIYANS PRASAD
"NIRMAL'' 3Rd Floor
Nariman Point
Bombay-400021 प्रिय श्री रवीन्द्र मालव
मुझे यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि अहिंसा के सन्देशवाहक, स्याद्वाद सिद्धान्त के प्रणेता भगवान महावीर के २५०० वें निर्वाण महोत्सव के उपलक्ष्य में "महावीर स्मति ग्रन्थ" का प्रकाशन किया जारहा है । यह भी हर्ष का विषय है कि आप इस ग्रन्थ में सामयिक विषयों पर राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वानों के लेख एवं शोधपत्रों की व्यापक सामग्री का संकलन करेंगे। वस्तुत: यह जीवाजी विश्वविद्यालय का प्रशंसनीय कार्य है ।
भगवान महावीर विश्व इतिहास के उन महान ज्योति स्तम्मों में से हैं, जिनके बताए 'हए सत्य, अहिंसा और अपरिग्रह के सन्मार्ग पर उन्मुख होकर शान्ति प्राप्त की जा सकती है। भगवान महावीर की सबसे बड़ी शिक्षा है, अपने को जानो, यानि “आत्मा को जानो"।
वर्तमान संदर्भ में, भगवान महावीर के सन्देश लोकोपयोगी हैं एवं जन-जन के जीवन में विशेष महत्व रखते हैं। इन सन्देशों के प्रचार-प्रसार द्वारा राष्ट्र की युवा पीढ़ी को अनुशासन, सदाचार तथा राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाये रखने की दिशा में अवश्य प्रेरणा मिलेगी।
ग्रन्थ के सुन्दर एवं सफल प्रकाशन के लिये मेरी अनेक मंगल कामनाएं।
आपका श्रेयांस प्रसाद जैन
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काव्यांजली
पशम रवा
Jain Educ
a
tional
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मंगल - सूत्र
णमो अरहताणं । णमो सिद्धाणं। नमो आयरियाणं।
मो उवज्झायाणं। णमो लोए सम्बमाहणं ॥१॥
महंतों को नमस्कार। मिद्धों को नमस्कार। आचार्यों को नमस्कार ।
उपाध्यायों को नमस्कार। लोकवी सर्वसाधुओं को नमस्कार ।
एसो पंचणमोक्कारो, सव्व पावप्पणासणो। मंगलाणं च सम्बेसि, पढम हवई मंगलं ॥२॥
यह पंच नमस्कार मंत्र, सब पापों को विनाश करनेवाला है।
और समस्त मंगलों में,
प्रथम मंगल है ॥
चत्तारि मंगलं अरहता मगलं । मिद्धा मंगलं । साहू मंगलं । केवलिपण्णत्तो धम्मो मगल ॥३॥
चार मंगल हैं। अर्हत मंगल हैं। सिद्ध मंगल हैं।
साधु मंगल हैं। के बलि-प्रणीत धर्म मंगल है।
चत्तारि लोगुत्तमा । अरहंता लोगुत्तमा । सिद्धा लोगुत्तमा । साहू लोगुत्तमा । केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगूत्तमो ॥४॥
चार लोकोत्तम हैं। अर्हत लोकोत्तम हैं। सिद्ध लोकोत्तम हैं।
साधु लोकोत्तम हैं। केवलि-प्रणीत धर्म लोकोत्तम है।
चत्तारि शरणं पच्चज्जामि । अरहंतो शरणं पव्वज्जामि । सिद्ध शरणं पव्वज्जामि । माहू शरणं पव्वज्जामि । केवलिपण्णत्तो धम्मो शरण पावज्जामि ॥५॥
वारों को शरण लेता हैं।
अहंतों को शरण लेता हैं मिद्धों की शरण लेता
माधुओं को शरण लेता हूँ। के बलिप्रणीत धर्म की शरण लेता है
The tee hee shch once
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महावीर स्तवन प्राकृतएस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोइ घाइ कम्ममलं । पणमामि वडढमाणं तित्थं-धम्मस्सकत्तारं। वीर विसाल णयणं रत्त प्पल कोमलस्समप्पायं । तिविहेण पणमिऊण सील गुणाणं णिसामेह । तिलोए सव्वजीवाणंहिदं धम्मोवदेसिणं । वडढमाणं महावीरं वंदित्ता सव्ववेदिणं ।। णमिऊण जिणवीरं अणंत वर णाणंदसण सहावं
-कुन्दकुन्दाचार्य • अनुवाद--- 1. सुर, असुर और मनुष्यों के इन्द्रों (राजाओं) से वन्दनीय, घातिया कर्म रूपी मल को धोकर नष्ट कर दिया जिन ने, और जो धर्म रूपी तीर्थ के कर्ता हैं, उन श्री वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार करता हूँ। . (बाह्य में) जिनके विशाल नेत्र हैं। और चरण लाल कमल जैसे कोमल हैं, (अन्तरंग में) जो केवल ज्ञान रूपी विशाल नेत्रों के धारक हैं, और जिनकी रागद्वेष रहित कोमल वाणी रागद्वेष को दूर करनेवाली है, शील गुणों की प्राप्त्यर्थ उन श्री वीर प्रभू को, मन-वच-काय से प्रणाम करता है।
तीन लोकों के समस्त जीवों का हित करनेवाले धर्मोपदेशक सर्वज्ञ वर्द्धमान महावीर की वन्दना करता हूँ।
___ अनन्त और उत्कृष्ट ज्ञान-दर्शन स्वभाव से युक्त महावीर जिनेन्द्र को नमस्कार हो । संस्कृतत्वया नाथ जगतसुप्तं महामोह निशागतम् । ज्ञान भास्कर विम्वेन बोधितं पूरुतेजसा ।।
नमस्ते वीतरागाय सर्वज्ञाय महात्मने । याताय दुर्गमं कुलं संसारोदन्वतः परम् ॥ : भवता सार्थवाहेन भव्य चेतन वाणिजाः । यास्यन्ति वितनुस्थानं दोष चारैरलुष्टिताः।।
प्रवर्तितस्त्वया पन्था विमलः सिद्धगामिनाम् । कर्मजालं च निर्दग्धं ज्वलित ध्यानवन्हिना। निर्बन्धूनामनाथानां दुःखाग्नि परिवर्तिनाम् । बन्धु थश्च जगतां जातोऽसि परमोदयः ।। कथं कुर्यात्तव स्तोत्रं यस्यान्तपरिवर्जिताः । उपमान निमुक्ता गुणः केवलिगोचराः॥ -रविषणाचार्यः अनुवाद
हे वीरनाथ ! महामहि रूपी निशा के मध्य सोये पड़े इस संसार को आपने अपने अमित तेजपूर्ण ज्ञान सूर्य द्वारा जगाया है।
हे भगवान ! आप वीतराग हो, सर्वज्ञ हो, महात्मा हो, और संसार रूपी सागर के दुर्गम अंतिम तट पर पहुंच गए हो, अतः आषको नमस्कार हो। आप ऐसे उत्तम सार्थवाह हो कि भव्य जीव रूपी अनेक व्यापारी आपके नेतृत्व में आपके साथ निर्वाणधाम को प्राप्त होंगे, और राह में दोष रूपी लुटेरे उन्हें नहीं लूट सकेंगे।
आपने मोक्षाभिलाषियों को निर्मल मोक्ष का मार्ग दिखाया है, और ध्यान रूपी अग्नि से कर्मों के समूह को भस्म कर दिया है।
जिनका कोई बन्धु नहीं है, जिनका कोई नाथ नहीं, उन दुःखरूपी अग्नि में जलते हुए संसारी जीवों के आप ही वन्धु हो, आप ही नाथ हो, और आप ही उन्हें परम अभ्युदय प्राप्त करानेवाले हो।
हे भगवन् ! हम आपके गुणों का स्तवन कैसे कर पावें, जवकि वे अनन्त हैं, उपमा रहित हैं, और केवल ज्ञानियों के विषय हैं।
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वन्दना
हत्थीसु एरावणमाह णाते, सीहो मिगाणं सतिलाण गंगा । पक्खीसु या गरुलं वेणुदेवे, णिव्वाणवादीणिह णायपुत्ते ॥ १ ॥
हाथियों में एरावत, पशुओं में सिंह, नदियों में गंगा पहियों में वेणदेव गरुण श्रेष्ठ हैं, वैसे ही निर्वाणवादियों में महावीर श्रेष्ठ हैं।
जोहेसु णाए जह वीससेणे, पुप्फेसु वा जह अरविंदमाहु । खत्तीण सेढे जह दंतवक्के, इसीण सेठे तह वदमाणे ॥ २ ॥
योद्धाओं में वासुदेव, पुष्पों में अरविन्द क्षत्रियों में दतवाक्य श्रेष्ठ है, वैसे ही ऋषियों में महावीर श्रेष्ठ हैं।
थणितं व सद्दाण अणुत्तरं ड, चंदे व ताराण महाणुभावे । । गधेसु वा चंदणमाहु सेठ्ठ, एवं मुणीणं अपडिण्ण माहु ॥ ३ ॥
- शब्दों में मेघ का गर्जन, ताराओं में चन्द्रमा, गंध वस्तुओं में चन्दन श्रेष्ठ है, वैसे ही मुनियों में महावीर श्रेष्ठ हैं।
जहा सयंभू उदहीण सेठे, णागेसु वा धरणिंदमाहु सेठं । खोओदए वा रस वेजयंते, तहोवहाण मुणि वेजयते ॥ ४ ॥
समुद्रों में स्वयम्भ, नागदेवों में धरणेन्द्र, रसों में इक्षु रस श्रेष्ठ है, वैसे ही तपस्वियों में महावीर श्रेष्ठ हैं ।
दाणाण सेट अभयप्पयाणं, सच्चेस या अणवण्जं वयंति । तवेसु वा उत्तम वंभचेरं, लोगुत्तमे समणे णायपुत्ते ॥ ५ ॥
दानों में अभयदान, सत्य में निरवद्य वचन तप में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है, वैसे ही श्रमणों में महावीर श्रेष्ठ हैं।
निव्वाणसेटा जह सव्वधम्मा, ण णायपुत्ता परमस्थि णाणी।
धर्मों में निर्वाणवादी धर्म श्रेष्ठ है वैसे हीलानियों में महावीर श्रेष्ठ है। उनसे अधिक कोई ज्ञानी नहीं है।
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भगवान महावीर के चरणों में
हे ज्योतिपुंज जयवीर ! सत्य का ज्ञाता दृष्टा तू । हे महाप्राण ! मूर्च्छित जनमन का जीवन सृष्टा तू ॥ हे जिन ! प्रभात तू सघन तमस् से घिरती संसृति का। हे निविकार ! परिशोधक मानवता की संस्कृति का ॥
तने अपने अन्तरतम का मोया देव जगाया । तूने नर से नारायण तक अपने को पहुंचाया ।। सीमित नरतन में असीम की ज्ञान चेतना जागी । जन्म-जन्म की धूमित कलुषित मोह चेतना जागी । तेरी वाणी जग कल्याणी, प्रखर सत्य की धारा । खण्ड-खण्ड हो गयी दम्भ की, अन्धाग्रह की कारा ।। 'सत्य एक है' उस पर, तेरे मेरे का क्या अंकन । विश्व समन्वय कर देता है, तेरा यह उद्बोधन ।। तू उन अन्धों की आँख, भटकते ठोकर खाते जो । तू उन अबलों की लाठी, प्रताड़ित अश्रु वहाते जो ॥ मानवता के महामन्त्र का जो दाता, तू गुरुवर है । अस्तंगत जो कभी न होगा, ऐसा तू दिनकर है ।। जाति-पंथ-भेदों मे ऊपर, तू सवका सब तेरे । देशकाल वह कौन तुझे, जो मीमाओं में घेरे ।। तू अनन्त है, अजर अमर है, तेरा जीवन दर्शन । अखिल विश्व का तव चरणों में हो निर्वाणगामी वन्दन ।
--उपाध्याय अमरमुनि
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महाशक्ति का स्रोत
तुममें भरा है तुम्हीं से तरंगित उदित
यह धरा है कहा, वीर ने आपको
जान जाओ सरल पंथ, वसु-कर्म की
निर्जरा है
मनोयोग द्वारा सुनो वीर वाणी
स्वयम् का अहम् यदि मनुज
जान जाये सफल विश्व उसको सहज ।
मान जाये मनोयोग द्वारा सुनें
वीर वाणी यही मान टिकेगा जगत
छान आये
कल्याणकुमार जैन "शशि"
स्वयम् में सिमट, आत्म को
यदि निहारा प्रदर्शित मिलेगा यहाँ
विश्व सारा कहा वीर ने, भटकनें
तब मिटेंगी चलें यदि इसी मार्ग पर
ज्ञान द्वारा
समझाना पड़ेगा
सदाचार क्या है
समझना पड़ेगा
अहंकार क्या है
अनेकान्त का भेद
विज्ञान जाने
तिरस्कार क्या है
पुरस्कार क्या है
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"भाव पुष्पांजलि"
कर दिया आलोक से जगमग ये सारा विश्व ही जब दीपकों की ज्योति से क्या आरती तेरी उतारू । चाहता हूँ में तुम्हारे चरण पथ में, है, प्रभू जी, हर चरण पर निज हृदय की भाव पुष्पांजलि सवारू ।
विश्व के हो देव प्रभु महिमा कहूँ कैसे तुम्हारी, जगत की उत्कृष्टता ना छू सकी सीमा तुम्हारी, क्रोध माया मान मत्सर लोभ, सब ही हैं पराजित,
काम जैसे वीर ने भी ध्वंस हो जय की तुम्हारी,
नादा कर अज्ञान का अधेर पाया ज्ञान अनुपम, जगमगाया विश्व, उसको दीप मैं कैसे उजारू । चाहता हूँ मैं तुम्हारे चरण पथ में, हे, प्रभू जी, हर चरण पर निज हृदय का भाव पुष्पांजलि सवारू ||१||
तोड़ कर दुःखदेय बंधन विश्व के तुमने प्रभुजी, कर्म आठों को किया चकचूर ज्यों रिपु क्रूर हैं वे, थे अनन्ते काल से जो मोह और ममता के बंधन,
काट दीने क्षणक में तुमने ज्यों कच्चे सूत हैं वे,
दुःख भरा जग छोड़ कर प्रभु जा रहे सुखगार को, तुम छोड़ कर जिसको चले कैसे वहाँ जीवन गुजारू । चाहता हूँ मैं तुम्हारे चरण पथ में है, प्रभूजी, हर चरण पर निज हृदय की भाव पुष्पांजलि सवारू ॥२॥
जा रहे हो तुम प्रभू, कैसे रहूँ मैं ? यह बताओ, देख कर यह दुःख भरा जग, हूक उठती है हृदय में,
किन्तु यह संतोष मुझको, जगत के उद्धार कर्त्ता !
ज्योति जो तुमने दिखाई, छा रही है अब हृदय में,
है अलौकिक और अनुपम ज्ञान का आलोक मन में, जगमगाती जा रही रत्नत्रयी निधि को सँभालू । चाहता हूँ में तुम्हारे चरण पथ में हे प्रभूजी, हर चरण पर निज हृदय की भाव पुष्पांजलि सँवारू ॥३॥
कामना कुछ है नहीं, बस प्रार्थना इतनी प्रभूजी, शक्ति का ऐसा उदय हो जाय अब मेरे हृदय में. चल सकू हर कदम व कदम संग तेरे चरण पथ के,
हो अमिट चिंतन निराकुल-शांति का मेरे हृदय में,
तोड़ जग के नेह बंधन चल पड़ू सुखधाम को, जहाँ पा चत्तष्ठय मैं अनन्तानन्त युग सुख को सँभालू । चाहता हूँ मैं तुम्हारे चरण पथ पर है, प्रभुजी, हर चरण पर निज हृदय की भाव पुष्पांजलि सवारू ॥४॥
[] शान्तीलाल जैन "मधुकर"
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जिनवाणी
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तितीरा रवा
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अन्तरात्मा
अक्खाणि बहिरप्पा, अंतरप्पा हु अप्पसंकपो । कम्मकलंक - विमुक्को, परमप्पा भण्णए देवो ॥
अपरिग्रहमुच्छा परिग्गहो वृत्ती
अभंतरबाहरिए सव्वे गंथे तुमं विवज्जेहि
वितेण ताणं न लभे पमत्ते
परिग्गहनिविट्ठाणं वेरं तेसिं पवड्ढई ||
सव्वत्थ अप्पवसिओ णिस्संगो णिव्भओ य सव्वत्थ
अभय दान
जं की रइ परिरक्खा, णिच्चं मरण - भयभीरु - जीवाणं । तं जाण अभयदाणं, सिंहामणि सव्वदाणाणं
11
अभोगी
भोगी भइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चई ।
अरहंत
ससरीरा अरहंता, केवलणाणेण मुणिय-सयलत्था । पाणसरीरा सिद्धा, सव्वुत्तम सुक्ख-संपत्ता 11
अस्तेय (अचौर्य) -
वज्जिज्जा तेनाहs - तक्करजोगं विरुद्धरज्जं च । कूडतुलकूडमाणं तप्पडित्वं च ववहारं ॥
इन्द्रिय समूह को आत्मा के रूप में स्वीकार करने वाला बहिरात्मा है । आत्म संकल्प - देह से भिन्न आत्मा को स्वीकार करनेवाला अन्तरात्मा है। कर्म कलंक से विमुक्त आत्मा परमात्मा है ।
मूर्च्छा-ममता भाव परिग्रह है ।
भीतर और बाहर की सम्पूर्ण ग्रन्थियों के उन्मोचन का नाम अपरिग्रह है ।
११
मनुष्य धन से अपनी रक्षा नहीं कर सकता ।
परिग्रह में फँसे हुए हैं, वे बैर को बढ़ाते हैं । परिग्रह से रहित व्यक्ति स्वाधीन और निर्भय रहता है ।
मृत्युभय से भयभीत जीवों की रक्षा करना ही अभयदान है । यह अभयदान सब दानों का शिरोमणि है ।
भोगी जन्ममरण के चक्र से नहीं छूटता । अभोगी मुक्त हो जाता है ।
केवलज्ञान से समस्त पदार्थों को जाननेवाले स- शरीरी जीव अर्हत हैं तथा सर्वोत्तम सुख (मोक्ष) को संप्राप्त ज्ञान- शरीरी जीव सिद्ध कहलाते हैं ।
अचर्यव्रती श्रावक को न चोरी का माल खरीदना चाहिये, न चोरी में प्रेरक बनना चाहिये । न ही राज्य विरुद्ध अर्थात् कर आदि की चोरी व नियम विरुद्ध कोई
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कार्य करना चाहिये । वस्तुओं में मिलावट आदि नहीं करना चाहिये । जाली सिक्के या नोट आदि नहीं चलाना चाहिये।
इच्छा, मुच्छा, तव्हा गेहि असंजमो, करवा। हत्य लहुत्तणं परहडं तेणिक्कं कूडया अदत्ते ।।
परधन की इच्छा, मूर्छा, तृष्णा, गुप्ति, असंयम, कांक्षा, हस्तलाघव । (हाथ की सफाई) परधन हरण, कूट-तोल-माप और बिना दी हुई वस्तु लेना यह सब कृत्य चोरी हैं।
चितमंतमचित्रं वा अप्पं वा जइ वा वह। दतसोहणमित्तंपि उग्गहं सि अजाइया ।।
चाहे कोई सचेतन वस्तु हो या अचेतन-जड़ । अल्पमोली वस्तु हो या बहुमोली। बिना उसके स्वामी की आज्ञा लिये बिना नहीं लेना चाहिये, और तो क्या, दाँत कुरेदने के लिये एक तिनका भी बिना आज्ञा के न लेवें।
अहिंसासव्वे पाणा पिआउया । सुहसाया दुक्खपडिकूला। अप्पियवहा, पियजीवणो । जीविडकामा । सवेसिं जीवियं पियं। नाइवाएज्ज कंचणं ।
सब प्राणियों को अपना जीवन प्यारा है। सुख सबको अच्छा लगता है और दुःख बुरा । वध सबको अप्रिय है और जीवन प्रिय ।
सब प्राणी जीना चाहते हैं। कुछ भी हो, सबको जीवन प्रिय है। अत: किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो।
एयं खु नाणिणो सारं जं न हिंसइ किंचण । अहिंसा समयं चेव एतावन्तं क्यिाणिया।
ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करे । अहिंसामूलक समता ही धर्म का सार है, बस इतनी बात सदैव ध्यान में रखनी चाहिये।
सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविडं न मरिज्जिउ । तम्हा पाणवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं ।।
सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं। इसलिये प्राणवध को भयानक जानकर निग्रन्थ उसका वर्जन करते हैं।
जहते न पिर्स दुक्खं, जाणिअ एमेव सव्वजीवाणं । संम्वायरमुवउत्तो, अत्तोवम्मेण कुणसु दयं ।।
जैसे तुम्हें दुःख प्रिय नहीं हैं, वैसे ही सब जीवों को दुःख प्रिय नहीं है-ऐसा जानकर, पूर्ण आदर और सावधानीपूर्वक, आत्मौपम्य की दृष्टि से सब पर दया करो।
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जीववहो अप्पवहो, जीवदय अप्पणो दया होई । ता सव्वजीवहिंसा, परिचत्ता अत्तकामेहिं ।।
जीव का वध अपना ही वध है। जीव की दया अपनी ही दया है। अतः आत्महितैषी (आत्मकाम) पुरुषों ने सभी तरह की जीवहिंसा का परित्याग किया
तुंग न मंदराओ, आगासाओ विसालयं नत्थि ।। जह तह जयंमि जाणसु, धम्ममहिंसा समं नस्थि ।
जैसे जगत में मेरु पर्वत से ऊँचा और आकाश से विशाल और कुछ नहीं है, वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है।
हिंसा पावं ति मदो, दयापहाणो जदो धम्मो ।
हिंसा पाप है, क्योंकि दया सब धर्मों में प्रधान
तुमंसि नाम स चेव ज हतव्वं ति मनसि ।
तू जिसे मारना चाहता है (जिसको कष्ट व पीड़ा पहुंचाना चाहता है) वह अन्य कोई तेरे समान ही चेतनावाला प्राणी है, ऐसा समझ । वास्तव में वह तु
आरंभजं दुक्खमिणं ।
संसार में जितने भी दुःख हैं, वे सब आरंभज-हिंसा से उत्पन्न होते हैं।
आचार्यजह दीवा दीवसयं, पइप्पए सो य दिपए दीवो । दोवसमा आयरिया, दिपति परं च दीवेंति ।।
जैसे एकदीप से सैकड़ों दीप जल उठते हैं, और वह स्वयं भी दीप्त रहता है, वैसे ही आचार्य दीपक के समान होते हैं। वे स्वयं भी प्रकाशवान रहते हैं, और दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं।
आत्मतत्वतच्चाण परम-तच्चं जीवं जाणेह णिच्छयदो।
सभी तत्वों में परम तत्व 'आत्म तत्व' को 'निश्चय' दृष्टि से जानो।
आत्म विजेताअप्पा बेच, दभेयम्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो । अप्पा दंतो सूही होई, अस्सि लोए परत्थ य ।।
स्वयं पर ही विजय प्राप्त करना चाहिये । अपने पर विजय प्राप्त करना ही कठिन है। आत्म विजेता ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है।
आत्म श्रद्धाअत्थि मे आया डववाइए। ये आयावादी, लोयावादी, कम्मावादी, किरियावादी।
यह मेरी आत्मा औपपातिक है, कर्मानुसार पुनजन्म ग्रहण करती है, आत्मा के पुनर्जन्म सम्बन्धी
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सिद्धान्त को स्वीकार करनेवाला ही वस्तुतः आत्म वादी, लोकवादी, कर्मवादी एवं क्रियावादी है।
जे अत्ताणं अब्भाइक्खति से लोगं अब्भाइक्खति ।
जो अपनी आत्मा का अपलाप (अविश्वास) करता है, वह लोक (अन्य जीव समूह) का भी अपलाप करता
पुण्यकर्म का मूल आत्मशुद्धि है ।
आत्म शुद्धिविसोहि-मूलाणि पुण्णाणि आत्मा अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुप्पठिओ ।।
आत्मा ही सुख-दुःख का कर्ता है और विकर्ता (भोक्ता) है। सत्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना शत्रु है।
जीव (आत्मा) शाश्वत भी है, अशाश्वत भी । द्रव्यदृष्टि (मूल चेतन स्वरूप) से शाश्वत है। भाव दृष्टि (मनुष्य-पशु आदि पर्याय) से अशाश्वत है।
जीवा सिय सासया सिय असासया, दव्वट्ठयाए सासया भावट्ठयाए असासया ।
जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया। जेण वियाणइ से आया तं पडुच्च पडिसंखाए ।
जो आत्मा है वह विज्ञाता है। जो विज्ञाता है, वह आत्मा है । जिससे जाना जाता है, वह आत्मा है। जानने की इस शक्ति से ही आत्मा की प्रतीति होती
अरसमरूवमगंधं, अव्वत्तं चेदणागुणमस । जाण अलिंगग्गहणं, जीवमणिहिट ठसंठाणं ।।
शुद्ध आत्मा वास्तव में अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, नेतन्य-गुणवाला, अशब्द, अलिङ्गग्राह्य (अनुमान का अविषय) और संस्थान रहित है।
आत्मज्ञान
जो अप्पाणं ना णदि, सो सत्यं जाणदे सव्वे ।
जो आत्मा को जानता है वह सब शास्त्रों का ज्ञाता है।
विसए विरत्तचित्तो जोई, जाणेइ अप्पाणं ।
विषयों से विरक्त चित्तवाला योगी आत्मा को जान लेता है।
तं झायह ससहावं संसरण जेण णासेइ ।
आत्मा के अपने (शुद्ध) स्वभाव को ध्याओ, ताकि जन्ममरण से छुटकारा मिल सके।
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उद्देसो पासगस्स नत्थि ।
आत्मज्ञानी को उपदेश की आवश्यकता नहीं।
आचरण
णाणे णाणुवदेसे अवट्टमाणो उ अण्णाणी
जो ज्ञान प्राप्त कर तदनुसार आचरण नहीं करता, वह ज्ञानी भी वास्तव में अज्ञानी है। ___ धर्माचरण में प्रवृत्त रहो और पापोचरण से दूर रहो।
धम्म आयरह सया पावे दूरेण परिहरह ।
आचार
सीलगुणवज्जिदाणं निरत्थयं माणसं जम्म
आचार (शील) हीन मनुष्य का जन्म निरर्थक है ।
आर्जव
जो चितेइ ण वक, ण कुणदि वकं ण जंपदे वंकं । ण य गोवदि णियदोसं, अज्जव-धम्मो हवे तस्स ॥
जो कुटिल विचार नहीं रखता, कुटिल कार्य नहीं करता, कुटिल वचन नहीं बोलता और अपने दोषों को नहीं छिपाता, उसके आर्जव-धर्म होता है।
उपभोग
कदप्पं कुक्कुइयं, मोहरियं सजुयाहिगरणं च । उवभोगपरीभोगा-इरेयगयं चित्थ वज्जइ ॥
अनर्थदण्ड-विरत श्रावक को कन्दर्प (हास्यपूर्ण अशिष्ट वचन प्रयोग), कौत्कुच्य' (शारीरिक कुचेष्टा), मौखर्य (व्यर्थ बकवास), हिंसा के अधिकरणों का संयोजन तथा उपभोग-परिभोग की मर्यादा का अतिरेक नहीं करना चाहिये।
कर्म
सुचिण्णा कम्मा सुचिण्ण फला भवति ।
अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता है। जहा कडं कम्म, तहासिभारे।
जैसा किया हुआ कर्म है, वैसा ही उसका भोग है। रागो य दोसो विय कम्मवीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयति । रोग और द्वष ये दोनों कर्म के बीज हैं । कर्म मोह कम्मं च जाइमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाइमरणं वयंति॥ से उत्पन्न होता है, ऐसा ज्ञानियों का कथन है । कर्म
जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण दुःख की परम्परा का कारण है।
कषायउबसमेण हणे कोहं, माणं मछवया जिणे । माय चज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ।।
क्रोध को क्षमा से, मान को मदुता से, माया को सरलता से और लोभ को संतोष से जीतना चाहिये ।
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चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचति मूलाइं पुणव्भवस्स।
ये चार कषाय (क्रोध-मान-माया-लोभ) जन्म-मरण रूपी लता के मूल को सींचते हैं। कषाय से जन्म-मरण की परम्परा बढ़ती है।
कसाया अग्गिणो वुत्ता सूय सील तवो जलं ।
कषाय अग्नि है, श्रु त (ज्ञान), शील (सदाचार) और तप उसे बुझाने वाले जल हैं।
केवल ज्ञान
संभिन्नं पासतो, लोगमलोगं च सव्वओ सव्वं । तं नस्थि जंन पासइ, भूयं भव्वं भविस्सं च ।।
केवल ज्ञान लोक और अलोक को सर्वतः परिपूर्ण रूप से जानता है। भूत, भविष्य और वर्तमान में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे केवलज्ञान नहीं जानता ।
केवली
केवलणाणदिवायर-किरणकलाव-प्पणासिअष्णाणो। णवकेवललधुग्गम-पावियपरमप्पववएसो।।। असहायणाणेदंसण-सहिओ विहु केवली ह जोएण । जत्तो त्ति सजोइजिणो, अणाइणिहणारिसे वृत्तो ॥
केवलज्ञान रूपी दिवाकर की किरणों के समूह से जिनका अज्ञान अन्धकार सर्वथा नष्ट हो जाता है, तथा नौ केवललब्धियों (सम्यकत्व, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य, दान, लाभ, भोग व उपभोग) के प्रकट होने से जिन्हें परमात्मा की संज्ञा प्राप्त हो जाती है, वे इन्द्रियादी की सहायता की अपेक्षा न रखने वाले ज्ञान-दर्शन से युक्त होने के कारण केवली और काय योग से युक्त होने के कारण सयोगी केवली (तथा घातिकर्मों के विजेता होने के कारण) जिन कहलाते हैं । ऐसा अनादिनिधन जिनागम में कहा गया है।
चारित्र
चरणं हवइ सधम्मो, धम्मो सो हवइ अप्पसमभावो ।
चारित्र धर्म है। यह धर्म आत्मा का साम्य भाव
एयं चयरित्तकरं चरितं होइ आहियं ।
कर्मों के चय-राशि को रिक्त (शून्य) करने के कारण इसे चारित्र कहा गया है ।
जीव
नाणं च दसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। वीरियं उवओगो य एवं जीवस्स लक्खणं ॥
ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग ये जीव के लक्षण हैं।
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तप
'भवकोडी-संचियं कम्म तवसा निजरिज्जई ।
जैसे तालाब का जल सूर्य-ताप से अथवा उलीचने से रिक्त हो जाता है, वैसे ही तप के द्वारा करोड़ों भवों के कर्म नष्ट हो जाते हैं।
छन्दं निरोहेण उवेइ मोक्खं ।
इच्छाओं का निरोध करना तप है और उससे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
तीर्थरयणत्तय-संजुत्तो, जीवो वि हवेइ उत्तमं तित्थं । संसार' तरइ जदो, रयणत्तय-दिव्व-णावाए ।
(वास्तव में) रत्नत्रय से सम्पन्न जीव ही उत्तम तीर्थ (तट) है, क्योंकि वह रत्नत्रय रूपी दिव्य नौका द्वारा संसार-सागर से पार करता है।
द्रव्य
गुणाणमासओ दव्वं, एगदम्वस्सिया गुणा । लक्खणं पज्जवाणं तु, उमओ अस्सिया भवे ।।
द्रव्य, गुणों का आश्रय या आधार है। जो एक द्रव्य के आश्रय रहते हैं, वे गुण हैं । पर्यायों का लक्षण द्रव्य या गुण दोनों के आश्रित रहना है।
धम्मो अधम्मो आगासं, कालो पुग्गल जन्तवो । एस लोगो त्ति पण्णतो, जिणेहि वरद सिहि ॥
परमदर्शी जिनवरों ने लोक को धर्म, अधर्म, आकाश काल, पुदगल और जीव इस प्रकार छह द्रव्यात्मक कहा है।
दुःखअण्णाणं परम दुक्खं ।
अज्ञान परम दुःख है।
धर्म
धम्मेण होदि पुज्जो। देवा वि तं नमस्सति, जस्स धमते सदा मणो चत्तारि धम्मदारा खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे । धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दस वहो धम्मो । रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खंण धम्मो ।
धर्म से प्राणी पूज्य होता है । देवता भी धर्मात्मा व्यक्ति को नमस्कार करते हैं। धर्म के चार द्वार हैंक्षमा, संतोष, सरलता और विनय ।
वस्तु का स्वभाव धर्म है। क्षमा आदि भावों की अपेक्षा से यह दस प्रकार का है। रत्नत्रय (सम्यक दर्शनसम्यक ज्ञान, सम्यक चारित्र) तथा जीवों की रक्षा करना धर्म है।
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उत्तमखममद्दवज्जव-सच्चसउच्चं च संजमं चेव । तवचागमकिंचण्हं, बम्ह इदि दसविहो धम्मो ।।
उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य तथा उत्तम ब्रह्मचर्य-ये दस धर्म हैं।
ध्यान
जं थिरमज्झवसाणं, तं झाणं जं चलंतयं चित्तं । तं होज्ज भावणा वा, अणुपेहा वा अहव चिंता ।।
स्थिर अध्यवसान अर्थात् मानसिक एकाग्रता ही ध्यान है। और जो चित्त की चंचलता है, उसके तीन रूप हैं-भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता।
परमाणुअंतादिमज्झहीणं, अपदेसं इदि एहिं णहु गेज्झं । जं दव्वं अविभत्तं, त परमाणं कहंति जिणा ।।
जो आदि मध्य और अन्त से रहित है, जो केवल एक प्रदेशी है जिसके दो आदि प्रदेश नहीं हैं और जिसे इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता, वह विभाग विहीन द्रव्य परमाणु है।
परमात्मा
जीवा हवंति तिविहा, वहिरप्पा तह य अंतरप्पा य । परमप्पा वि य दुविहा, अरहंता तह य सिद्धा य ।।
जीव आत्मा में तीन प्रकार का है:-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। परमात्मा के दो प्रकार हैं:--अहंत और सिद्ध ।
अक्खाणि वहिरप्पा, अंतरप्पा हु अप्पसंकप्पो । कम्मकलंक-विमुक्को, परमप्पा भण्णए देवो ।।
इन्द्रिय-समूह को आत्मा के रूप में स्वीकार करने वाला वहिरात्मा है । आत्मसंकल्प-देह से भिन्न आत्मा को स्वीकार करनेवाला अन्तरात्मा है। कर्म-कलंक से विभुक्त आत्मा परमात्मा है।
परिग्रहणन सो परिग्गहो वुत्तो, नाय पुसैण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा।।
ज्ञात पुत्र भगवान महावीर ने (वस्तुगत) परिग्रह को परिग्रह नहीं कहा है । उन महर्षि ने मूर्छा को ही परिग्रह कहां है।
पर्यायगुणाणमासओ दव्वं, एगदव्वस्सिया गुणा । लक्खणं पज्जवाणं तु, उभओ अस्सिया भवे ।।
द्रव्य, गुणों का आश्रय या आधार है । जो एक द्रव्य में आश्रय' रहते हैं, वे गुण हैं। पर्यायों का लक्षण द्रव्य या गुण दोनों के आश्रित रहना है।
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प्रमाण--
गेहणइ वत्थुसहावं, अविरुद्ध सम्मरूवं जं जाणं । भणियं खु तं पमाणं, पच्चक्खपरोक्खभेएहिं ।।
जो ज्ञान वस्तु-स्वभाव को-यथार्थ स्वरूप कोसम्यक रूप से जानता है, उसे प्रमाण कहते हैं। इसके दो भेद हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष।
पुदगल
सद्दडन्धयार उज्जोओ, पहा छायाऽऽतवे इवा। वष्ण रस गन्ध फासा पुग्गलाणं तु लक्खणं ।।
शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतष, वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श ये पुदगल के लक्षण हैं ।
भय
सम्मविट्ठी जीवा, णिस्संका होति णिब्भया तेण । सत्तभयविप्पमुक्का, जम्हा तम्हा दु णिस्संका ॥
सम्यग्दृष्टि जीव नि:शंक होते हैं और इसी कारण निर्भय भी होते हैं । वे सात प्रकार के भयों--इस लोक का भय, परलोक भय, अरक्षा मय, अगुप्ति भय, मृत्यु भय, वेदना भय और अकस्मात भय--से रहित होते हैं, इसीलिये नि:शंक होते हैं। (अर्थात् निःशंकता और निर्भयता दोनों एक साथ रहने वाले गुण हैं।)
भाषा
असच्चमोसं सच्चं च अणवज्जमकक्कस । समुप्पेहमसंदिद्ध गिर भासेज्ज पन्नवे ॥
बुद्धिमान को ऐसी भाषा बोलनी चाहिये जो व्यवहार में सत्य हो, तथा निश्चय में भी सत्य हो निरवद्य हो, अकर्कश-प्रिय हो, हितकारी हो तथा असंदिग्ध हो।
मार्दव
कुलरूवजादिवुद्धिसु, तवसुदसीलेसु गारवं किंचि । जो णवि कुव्वदि समणो, मद्दवधम्म हवे तस्स ॥
जो श्रमण कुल, रूप, जाति, ज्ञान, तप, श्रुत और शील का तनिक भी गर्व नहीं करता, उसके मार्दवधर्म होता है।
मोक्षमार्ग
धम्मादी सद्दहणं, सम्मत्तं णाणभगपुव्वगदं । चिटठा तवंसि चरिया, बवहारो मोक्खमग्गो त्ति ।।
छह धर्म (छह द्रव्य) तथा तत्वार्थ आदि का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। अंगों और पूर्वो का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है । तप में प्रयत्नशीलता सम्यकचारित्र है। यह व्यवहार मोक्ष मार्ग है।
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लोभ
कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणयनासणो । माया मित्ताणि नासेइ, लोहो सव्वविणासणो।
क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, मान विनय को नष्ट करता है माया मैत्री को नष्ट करती है, और लोभ सब कुछ नष्ट करता है।
उबसमेण हणे कोहं, माणं महवया जिणे। मायं चऽज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ॥
क्षमा से क्रोध का हनन करें, मार्दव से मन को जीतें, आर्जव से माया को और सन्तोष से लोभ को जीतें ।
विनय
बिणओ मोक्खद्दार, विणयादो संजमो तवो णाणं
विनय मोक्ष का द्वार है। विनय से संयम तप और ज्ञान प्राप्त होता है।
ब्रह्मचर्यसील मोक्खस्स सोपाणं।
ब्रह्मचर्य मोक्ष की सीढ़ी है।
श्रमण
समणो त्ति संजदो त्रि थ, रिसि मुणि साधु त्ति वीदरागो ति। श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अवणामाणि सुविहिदाणं, अणगार भदत द'तो ति ।। गार, भदन्त, दान्त-ये सब शास्त्र-विहित आचरण करने
वालों के नाम हैं।
श्रमण धर्मदसविहे समणधम्मे पण्णत्ते, तं जहा खंती, मुत्ती, अज्जवे, महवे, लाघवे, सच्चे, संजमे, तवे, चियाए, वंभचेखाऐ।
श्रमणधर्म दस प्रकार का है. यथा (1) क्षमा (2) निर्लोभता (3) सरलता (4) मृदुता (5) लघुता, (6) सत्य, (7) संयम, (8) तप, (9) त्याग, (10) ब्रह्मचर्य।
संतनिम्ममो निरहंकारी निस्संगो चत्तमारवो । समो य सम्वभूएस, तऐK थावरेसु यं॥
संत,ममता रहित, अहंकार से मुक्त, सब प्रकार की आसक्ति (संग) से दूर, गौरव (मद) का त्याग कर त्रस एवं स्थावर सभी प्राणियों के प्रति समदष्टि रखता
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संयम
वय-समिदि-कसायाणं, दंडाणं तह इंदियाण पंचण्डं। धारण-पालण-णिग्गह-चाय-जओ संजमो भणिओ ।।
व्रत धारण, समिति पालन, कषाय निग्रह, मनवचन-काया की प्रवृति रूप दण्डों का त्याग, पंचेन्द्रियजय-इन सबको संयम कहा जाता है।
समताचारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अपणो हु समो ।।
वास्तव में चरित्र ही धर्म है । इस धर्म को शमरूप कहा गया है। मोक्ष व क्षोभ से रहित आत्मा का निर्मल परिणाम ही शम या समतारूप है।
सत्य
अविस्सासो य भूयाण तम्हा मोसं विवज्जए।
झूठ बोलने वाला सभी लोगों का विश्वास खो बैठता है, इसलिये असत्य भाषण करना उचित नहीं।
सच्चं हि तवो सच्चम्मि संजमो तह य ऐसया वि गणा सच्चं णिवंधणं हि य गुणाणमुदधीव मच्छाणं ।।
सत्य ही तप है। सत्य में ही संयम और रोष सभी गुण समाहित हैं। जैसे समुद्र मछलियों का आश्रय स्थल है, बैसे ही सत्य सभी गुणों का आश्रय स्थल है।
असच्चमोसं सच्चं च अणवज्जमकक्कसं । समुप्पेहमसंदिद्ध गिर भासेज्ज पन्नव ।।
बुद्धिमान को ऐसी भाषा बोलनी चाहिये जो व्यवहार में सत्य हो, तथा निश्चय में भी सत्य हो, निबंध हो, अकर्कश प्रिय हो, हितकारी हो तथा असंदिग्ध हो।
सम्यकत्व
जीवादि सद्दहणं, सम्मत्तं जिणवरेहि पण्णत्तं । ववहारो णिच्छयदो, अप्पा णं हवइ सम्मत्तं ।।
व्यवहार लय से जीवादि तत्वों के श्रद्धान को जिन देव ने सम्यक्तब कहा है। निश्चय से तो अत्मा ही सम्यग्गर्शन है।
तहियाणं तु भावाणं सब्भावे उवएसण । भावेणं सद्दहंतस्स सम्मत्तं तं वियाहियं ।।
स्वयं ही अपने विवेक से अथवा किसी के उपदेश से सद्भुत तत्वों के अस्तित्व में आन्तरिक श्रद्धा, विश्वास करना सम्यक्त्व कहा गया है।
सम्यक दर्शन
जमोणं तं सम्म, जसम्मं तमहि होइ मोणं ति । निच्छयओ इयरस्स उ, सम्म सम्मत्तहेऊ वि ।।
निश्चय से जो मौन है वही सम्य ग्दर्शन है, और जो सम्यग्दर्शन है, वही मौन है। व्यवहार से जो निश्चय सम्यग्दर्शन के हेतु हैं, वे भी सम्यग्दर्शन हैं।
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सम्यक ज्ञान
अप्पा अप्पम्मि रओ, सम्माइट्ठी हवेइ फुड जीवो। जाणइ तं सण्णाणं, चरदिह चारित्तमग्गु त्ति ॥
आत्मा में लीन आत्मा ही सम्यग्दष्टि होता है । जो आत्मा को यथार्थ रूप से जानता है वही सम्यग्ज्ञान है, और उसमें स्थित रहना ही सम्यक् चारित्र है।
सम्यक चारित्र
णिच्छयणयस्य एवं, अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सूरदो। सो होदि ह सूचरित्तो, जोई सोलइ णिव्वाणं ॥
निश्चयनय के अभिप्रायानुसार आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिये तन्मय होना ही (निश्चय) सम्यक चारित्र है। ऐसे चारित्रशील योगी को ही निर्वाण की प्राप्ति होती है।
ज्ञान
जाणं णरस्स सारो णाणुज्जावस्स णत्थि पणिद्यादो।
ज्ञान मनुष्य का सार है ज्ञान के प्रकाश को कोई नष्ट नहीं कर सकता।
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भगवान महावीर जीवन-दर्शन-देन
तृतीय खण्ड
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भगवान महावीर जीवन और दर्शन -पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री सिद्धान्ताचार्य
भगवान महावीर, जिनके निर्वाण | सकती, इस विश्वास के आधार पर अपना तीर्थंकरत्व सुनिश्चित जान की पच्चीसवीं रजत शती की पूर्ति के | वह मदमत्त हो उठा। और उसने अपने कर्मानुसार अनेक गतियों में अवसर पर सर्वत्र महोत्सव मनाये | भ्रमण किया। प्राचीन जैन आगमों में भगवान महावीर के पूर्वजन्मों का गये हैं, जैन धर्म के अन्तिम तीर्थकर | इतिवृत्त विस्तार से वर्णित है। एक बार वह सिंह की पर्याय में एक थे। और प्रथम तीर्थंकर भगवान | मृग पर झपटते हैं। उधर से जाते हए मुनिराज की दृष्टि उन पर ऋषभदेव थे। भगवान ऋषभदेव के | पड़ती है। अपने ज्ञान से यह जानकर कि यह जीव भविष्य में तीर्थंकर पुत्र मरत चक्रवर्ती थे। उन्हीं के नाम | होनेवाला है, वे उसे सम्बोधते हैं और यहीं से उनके जीवन का उत्थान से यह देश भारतवर्ष कहलाया। प्रारम्भ होता है, और अन्त में वह वैशाली के राजा सिद्धार्थ की रानी
त्रिशला के गर्भ में अवतरित होकर महावीर के रूप में जन्म लेते हैं। जब भगवान ऋषभदेव को पूर्ण- और 28 वर्ष की युवावस्था में प्रबजित होकर 12 वर्ष तक कठोर ज्ञान की प्राप्ति हुई और उन्होंने अपने साधना के द्वारा पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके तीर्थंकर होते हैं और सर्वत्र उपदेश में कहा कि मेरे पश्चात् तेईस | विहार करके अपने धर्म का उपदेश करते हैं । अन्त में बिहार प्रान्त के तीर्थकर और होंगे तो किसी ने प्रश्न | ही पावानगर में उनका निर्वाण होता है । उसी के उपलक्ष में जैन शास्त्रों किया-क्या यहाँ उपस्थित जन समु- | में दीपावली का त्यौहार प्रवर्तित होने का उल्लेख मिलता है। यतः दाय में कोई ऐसा व्यक्ति है जो | भगवान महावीर का निर्वाण अमावस्या को ब्राह्म मुहर्त में हुआ था, अतः भविष्य में तीर्थकर होनेवाला है ? | अन्धकार दूर करने के लिये दीपक जलाये गये थे। वे भगवान के ज्ञानभगवान ने उत्तर दिया-भरत का | दीप के प्रतीक भी थे। पुत्र मरीचि अन्तिम तीर्थंकर होगा। यह बात मरीचि ने भी सुनी। और भगवान महावीर का यह जीवनदर्शन उनके दर्शन का भी परिचाभगवान की वाणी अन्यथा नहीं हो यक है। भगवान महावीर के दर्शन में अवतारवाद को स्थान नहीं है
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और प्रत्येक आत्मा को परमात्मा बन सकने की शक्ति सर्वथा असत का उत्पाद नहीं होता। फिर भी वस्तु में से सम्पन्न माना है। अपने ही दुष्कर्मों से जीव दुर्गति प्रति समय उत्पाद-विनाश हुआ करता है। का भागी होता है और अपने ही पुरुषार्थ से निर्वाण प्राप्त करता है। ईश्वरवादी दर्शन जीव को कम करने में अनेकान्तस्वतंत्र और उसका फल भोगने में परतंत्र मानते हैं। कहा है
__ जैनागम के अनुसार भगवान महावीर के मुख से
जो प्रथम वाक्य निस्टत हुआ, वह था- 'उप्पन्नेइ वा, अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख दु:खयोः । विगमेइवा, धुवेइ वा' अर्थात् प्रत्येक वस्तु उत्पन्न होती ईश्वर प्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ।।
है, नष्ट होती है और ध्रव होती है । इसे जैन दर्शन में
उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य कहते हैं। ये तीनों प्रत्येक वस्तु में अर्थात्--यह अज्ञानी जीव अपने सुख-दुःख का स्वामी प्रति समय सदा हुआ करते हैं। तभी वस्तु सत् होती नहीं है। ईश्वर की प्रेरणा से स्वर्ग अथवा नरक में है। अत: जैन दर्शन में सत का लक्षण ही उत्पाद-व्ययजाता है।
ध्रौव्य है। इसी से तत्वार्थ सत्र में कहा है-'उत्पाद
व्यय ध्रौव्य युक्त सत्। किन्तु भगवान महावीर के दर्शन में इस प्रकार के ईश्वर की कोई स्थिति नहीं है। इस दृष्टि से उनका उदाहरण के लिये- जब कुम्हार चाक धुमाकर दर्शन निरीश्वरवादी है। जैसे शराब पीने से नशा स्वयं मिट्टी का बरतन बनाता है तो प्रति समय मिट्टी की होता है और दूध पीने से स्वयं शरीर में पुष्टि आती पुरानी दशा नष्ट होकर नई दशा उत्पन्न होती है और है, उसमें ईश्वर का कोई हाथ नहीं है । उसी तरह मिट्टी रूप अवस्था ध्र व रहती है। पुरानी दशा के दुष्कर्म करने वाले मनुष्य की परिणति स्वयं ऐसी होती नष्ट होने और नई दशा के उत्पन्न होने में काल भेद है कि वह अपने कर्म से प्रेरित होकर नरक जाता है नहीं है, पूरानी दशा का विनाश ही नई दशा का और शुभकर्म करनेवाला स्वर्ग जाता है। जैन सिद्धान्त उत्पादन है। में कर्मसिद्धान्त अपना एक विशिष्ट स्वतंत्र स्थान रखता है। उसकी प्रक्रिया को समझ लेने पर फलदान की स्थिति विनाश के बिना उत्पाद नहीं, उत्पाद के बिना स्पष्ट हो जाती है। जगत का समस्त व्यापार बिना विनाश नहीं, और ध्रौव्य के बिना उत्पाद विनाश नहीं किसी नियन्ता के कार्यकारण भाव की परम्परा पर तथा उत्पादन विनाश के बिना धौव्य नहीं। अतः जो स्वयं चलता रहता है। जगत की प्रक्रिया ही ऐसी है। उत्पाद है वही विनाश है। जो विनाश है वही उत्पाद उसे न कोई बनानेवाला है और न कोई विनष्ट करने- है, जो उत्पाद विनाश है वही ध्रीव्य है और जो ध्रौव्य वाला है।
है वही उत्पाद विनाश है। जैसे घड़े की उत्पत्ति ही
मिट्टी की पिण्ड अवस्था का विनाश है क्योंकि भाव प्रत्येक वस्तु स्वतः स्वभाव से ही परिणमनशील भावान्तर के अभाव रूप से अवभासित होता है। जो है। किन्तु वह परिणमन ऐसा नहीं होता कि वस्तु का मिट्टी के पिण्ड का विनाश है वही घट का उत्पाद है सर्वथा विनाश हो जाये या एक तत्व बदलकर दूसरे क्योंकि अभाव भावान्तर के भावरूप से अवभासित होता तत्व रूप हो जाये। दर्शनशास्त्र का एक सामान्य है । तथा जो घट का उत्पाद और मिट्टी के पिण्ड का नियम है-सत् का सर्वथा विनाश नहीं होता और विनाश है वही मिट्टी की ध्र वता है क्योंकि अन्वय का
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प्रकाशन व्यतिरेक मुख से ही होता है। तथा जो मिट्टी पर्याय नहीं और पर्याय के बिना द्रव्य नहीं होता, जैसे की ध्र वता है वही घट का उत्पादन और मिट्टी के उत्पाद व्यय के बिना ध्रौव्य और ध्रौव्य के बिना उत्पाद पिण्ड का विनाश है क्योंकि व्यतिरेक अन्वय का अति- व्यय नहीं होते। उत्पाद व्यय पर्याय या परिणमन का क्रमण नहीं करता।
सूचक है ओर ध्रोव्य स्थिरता या द्रव्यरूपता का सूचक
यदि ऐसा न माना जाये तो उत्पाद भिन्न, विनाश भिन्न और ध्रौव्य भिन्न ठहरता है। ऐसी स्थिति में
द्रव्य स्वरूप से सत् है और पररूप से असत् है। केवल घट का उत्पाद कोई चाहे तो घट उत्पन्न नहीं न वह सर्वथा सत् ही है और न वह सर्वथा असत् ही हो सकता क्योंकि मिटटी के पिण्ड का विनाश हए बिना है। यदि प्रत्येक वस्तु को सर्वथा सत् माना जाय तो घट उत्पन्न नहीं होता । वही उसका कारण है। उसके सब वस्तुओं के सर्वथा सत् होने से उनमें जो भेद है बिना तो असत का उत्पाद मानना होगा और तब उसका लोप हो जायेगा और उसके लोप होने से सब आकाश के फूल जैसे असंभव वस्तुओं का भी उत्पाद
वस्तुएँ परस्पर में एक हो जायेंगी। उदाहरण के लिये होगा। तथा केवल विनाश चाहने पर मिट्टी के पिण्ड का
घट और पट ये दो वस्तु हैं। जब हम किसी से घट विनाश नहीं होगा क्योंकि आगामी पर्याय के उत्पाद के
लाने को कहते हैं तो वह घट ही लाता है पट नहीं लाता, बिना पूर्वपर्याय का विनाश नहीं होता। यदि ऐसा हो
और जब पट लाने को कहते हैं तो पट ही लाता है तो सत का विनाश मानना होगा।
घट नहीं लाता। इससे सिद्ध है घट घट ही है और पट
पट ही है । न घट पट है और न पट घट है । अतः घट पूर्वपर्याय से युक्त द्रव्य उपादान कारण होता है घट रूप से है और पट रूप से नहीं है। इसी को दार्शऔर उत्तरपर्याय से युक्त वही द्रव्य उपादेय कार्य होता निक भाषा में कहते हैं घट है और नहीं है। उसका है। आप्तमीमांसा में कहा है
विश्लेषण होता है घट घट रूप से है पट रूप से नहीं
है और पट पट रूप से है घट रूप से नहीं है। इसी 'कार्योपादः क्षयो हेतोनियमात् लक्षणात् पृथक्। प्रकार प्रत्येक वस्तु स्वरूप से है और पर रूप से नहीं उपादान का पूर्व आकार रूप से विनाश कार्य का है। अतः संसार में जो सत है वह किसी अपेक्षा असत उत्पाद है क्योंकि जो कार्य के उत्पाद का कारण है वही भी है। सर्वथा सत् या सर्वथा असत् कोई वस्तु नहीं है। पूर्व आकार के विनाश का कारण है । इस प्रकार पूर्व अतः एक ही समय में द्रव्य सत भी है और असत् भी पर्याय उत्तर पर्याय का कारण होती है और उत्तर पर्याय है। स्वरूप से सत है और पर रूप से असत है। पूर्व पर्याय का कार्य होती है। इस तरह वस्तु के पूर्व और उत्तर परिणाम को लेकर तीनों कालों के प्रत्येक इसी तरह एक ही समय में वस्तु नित्य भी है और समय में कार्यकारण भाव हुआ करता है । जो पर्याय अनित्य भी है। द्रव्य की अपेक्षा नित्य है क्योंकि द्रव्य अपनी पूर्व पर्याय का कार्य होती है वही पर्याय अपनी रूप का नाश नहीं होता और पर्थाय की अपेक्षा अनित्य उत्तर पर्याय का कारण होती है। इस तरह प्रत्येक है क्योंकि पर्याय विनाशशील है। विश्व के दार्शनिकों द्रव्य स्वयं ही अपना कारण और स्वयं ही अपना कार्य की भी दृष्टि में आकाश नित्य है और दीपक क्षणिक होता है । कार्यकारण की यह परम्परा प्रत्येक द्रव्य में है। किन्तु जैन दृष्टि से दीपक से लेकर आकाश द्रव्य सदा प्रवर्तित रहती है। उसका अन्त नहीं होता । अतः तक सम-स्वाभावी हैं । द्रव्य रूप से दीपक भी नित्य है वस्तु को द्रव्यपर्यायात्मक कहा है क्योंकि द्रव्य के बिना और पर्याय रूप से आकाश भी क्षणिक है।
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इसी तरह एक ही समय में वस्तु एक भी है और एक का पिता और पुत्र होना परस्पर विरुद्ध जैसा अनेक भी है। पर्याय की अपेक्षा अनेक है क्योंकि वस्तु लगता है किन्तु वह अपने पिता का पूत्र और अपने पत्र प्रति समय परिणमनशील है और द्रव्य रूप से वस्तु एक का पिता है, अत: एक का पिता होने से वह सब का है। तथा एक ही समय में वस्तुभेद रूप भी और अभेद पिता या पुत्र नहीं होता। और न इन बहुत सम्बन्धों रूप भी है। द्रव्य रूप से अभेद रूप है और गुणों तथा का पुरुष के एकत्व के साथ विरोध है। इसी तरह पर्यायों के भेद से भेद रूप है। इस तरह वस्तु परस्पर अस्तित्व-नास्तित्व आदि धर्म भी एक वस्तु में निर्विरोध में विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनेक धर्मात्मक होने से रहते हैं। अनेकान्तात्मक है। अन्त शब्द धर्मवाचक है। यों तो सभी दार्शनिक वस्तु में अनेक धर्म मानते है। केवल दूसरा दृष्टान्त दिया है अन्धों और हाथी का। कुछ एक ही धर्म वाली कोई वस्तु नहीं है। किन्त जन अन्ध एक ही हाथी के एक-एक अंग को स्पर्श द्वारा दर्शन अपेक्षा भेद या दृष्टि भेद से एक ही वस्तु में ऐसे
जानकर अपने जाने हुए हाथी के एक अंग को ही हाथी अनेक धर्म मानता है जो परस्पर में विरुद्ध जैसे प्रतीत
मानकर परस्पर में झगड़ते हैं। तब एक दृष्टि सम्पन्न होते हैं-जैसे सत्-असत्, एक-अनेक, नित्य-अनित्य,
व्यक्ति जिसने पूरा हाथी देखा है उन्हें समझाता है कि भेद-अभेद आदि। आचार्य समन्त भद्र ने अपने आप्त
तुमने हाथी का एक-एक अंग देखा है, वह असत्य नहीं मीमांसा प्रकरण में और आचार्य सिद्धसेन ने अपने
है । हाथी की सूड लट्ठ सरीखी होती है अतः हाथी सन्मति प्रकरण में इसकी व्यवस्थापना की है।
वैसा भी है। उसके पैर स्तम्भ जैसे होते हैं अतः हाथी
स्तम्भ जैसा भी है। इस तरह वह सबका समन्वय करके भकलंक देव ने अपनी अष्टशती में कहा है- पूर्ण हाथी उन्हें बतला देता है । इसी तरह वस्तु के सब
धर्मों का दर्शन अनेकान्त है और एक धर्म का दर्शन 'सदसन्नित्यानित्यादि सर्व थैकान्त प्रतिक्षेपल क्षणो
एकान्त है। यदि वह एकान्त अन्य धर्मों का निषेध न अनेकान्तः' । सर्वथा सत्, सर्वथा असत्, सर्वथा नित्य,
करके उनकी सापेक्षता स्वीकार करता है तब वह एकान्त सर्वथा अनित्य इत्यादि सर्वथा एकान्त का प्रतिक्षेप...
सम्यक् है और यदि वह अपने को ही सम्यक् मानता है लक्षणवाला अनेकान्त है अर्थात् सर्बथा एकान्त का
और अन्य एकान्तों को असत्य ठहराता है तो वह निषेधक है किन्तु अपेक्षा भेद से एकान्त को स्वीकार
एकान्त मिथ्या है। अनेकान्तवादी जैन दर्शन सम्यक करता है। यदि एकान्त को सर्वथा न माना जाये तो
एकान्तों को स्वीकार करता है किन्तु मिथ्या एकान्तों अनेकान्त भी नहीं बन सकता क्योंकि एकान्तों का समूह
का खण्डन करता है। ही तो अनेकान्त है । कहा है
एक अनेकात्मक होता है यह प्रायः अन्य दर्शनों ने 'एयंतो एयणओ होइ अणेयंत तस्स समूहो' नयचक्र १८०।
भी माना है। साख्य दर्शन में सत्व, रज और तम की
साम्यावस्था को प्रधान कहा है। सत्त्वगुण का स्वभाव एक दृष्टि को एकान्त कहते हैं और उसका समूह प्रसाद और लाधव है । रजोगुण का स्वभाव शोष और अनेकान्त है। अनेकान्त को समझाने के लिये शास्त्रकारों ताप है। तमोगुण का स्वभाव आवरण और सादन है। ने दो लौकिक दृष्टान्त दिये हैं। एक ही पुरुष में पिता, इस प्रकार इन भिन्न स्वभाववाले गुणों का न तो पुत्र, पौत्र, मानेज, भाई आदि अनेक सम्बन्ध होते हैं। परस्पर में विरोध है और न प्रधान रूप से विरोध है एक ही समय में वह पिता भी होता है और पुत्र भो। क्योंकि सांख्य दर्शन में कहा है कि इन गुणों से भिन्न
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कोई अलग प्रधान नहीं है किन्तु साम्य अवस्था को प्राप्त अनिश्चितता नहीं है क्योंकि प्रत्येक वस्तु स्वरूप से सत् वे ही गुण प्रधान नाम से कहे जाते हैं। अत: प्रधान के और पर रूप से असत् होती है यह निश्चित है। इसके अवयव रूप गुणों का और उनके समुदाय रूप प्रधान का बिना वस्तु व्यवस्था नहीं बनती । वस्तु का वस्तुत्व दो परस्पर में कोई विरोध नहीं है।
मुद्दों पर स्थापित है-स्वरूप का ग्रहण और पर रूपों
का त्याग । यदि इनमें से एक भी मुद्दे को अस्वीकार बैशेषिक दर्शन में सामान्य को अनुवृत्ति रूप और
किया जाय तो वस्तु का वस्तुत्व कायम नहीं रह सकता। विशेष को व्यावृत्ति रूप माना गया है। किन्तु पृथिवीत्व
यदि वस्तु का अपना कोई स्वरूप न हो तो बिना आदि को सामान्य विशेष रूप स्वीकार किया है। एक स्वरूप के वह वस्त नहीं हो सकती । इसी तरह स्वरूप ही पृथिवीत्व अपने भेदों में अनुगत होने से सामान्य रूप ।
की तरह यदि वह पर रूप को भी अपनाले तो भी उसकी और जलादि से व्यावत्ति कराने से विशेष रूप माना
अपनी स्थिति नहीं रहती। वह तो सर्वात्मक हो गया है, इसी से उसे सामान्य विशेष कहा गया है।
जायेगी।
विज्ञानाद्वैतवादी एक ही विज्ञान को ग्राह्याकार, स्याद्वादग्राहकाकार और संवेदनाकार इस प्रकार तीन आकार रूप स्वीकार करते हैं। तथा सभी दार्शनिक पूर्व इस प्रकार जब वस्तु परस्पर में विरुद्ध प्रतीत होनेअवस्था को कारण और उत्तर अवस्था को कार्य स्वी- वाले धर्मों का समूह है तो उसको जानना उतना कठिन कार करते हैं । अतः एक ही पदार्थ में अपनी पूर्व और नहीं है जितना उसे कहना कठिन है। क्योंकि एक उत्तर पर्याय की दृष्टि से कारण और कार्य का व्यवहार ज्ञान अनेक धर्मात्मक वस्तु को एक साथ जान सकता निर्विरोध होता है। उसी तरह सभी पदार्थ विभिन्न है किन्तु शब्द के द्वारा एक समय में वस्तु के एक ही अपेक्षाओं से अनेक धर्मवाले होते हैं। इसे ही अनेकान्त धम का कहा जा सका
धर्म को कहा जा सकता है। उस पर भी शब्द की कहते हैं।
प्रवत्ति वक्ता के अधीन है। वक्ता वस्तु के अनेक धर्मों
में से किसी एक धर्म को मुख्य करके बोलता है। जैसे इस अनेकान्तवाद का खण्डन बादरायण के सुत्र देवदत्त को उसका पिता पुत्र कहकर बुलाता है और 'नैकस्मिन्नसंभवात' (2/5/33) में मिलता है। इसकी पुत्र पिता कहकर पुकारता है। किन्तु देवदत्त न केवल व्याख्या में स्वामी शंकराचार्य ने अनेकान्तवाद पर जो पिता है और न केवल पुत्र है। वह तो दोनों है। किन्तु सबसे बड़ा दूषण दिया है वह है 'अनिश्चितता' । पिता की दृष्टि से देवदत्त का पुत्रत्व धर्म मुख्य है और उनका कहना है कि 'वस्तु है और नहीं भी है' ऐसा पुत्र की दृष्टि से पितत्व धर्म मुख्य है। शेष धर्म गौण कहना अनिश्चितता को बतलाता है। और अनिश्चितता है क्योंकि अनेक धर्मात्मक वस्तु के जिस धर्म की विवक्षा संशय को पैदा करती है । किन्तु ऊपर स्पष्ट किया गया होती है वह धर्म मुख्य और शेष धर्म गौण होते हैं। है कि वस्तु स्वरूप से सत् है और पर रूप से असत् है। अत: वस्तु के अनेक धर्मात्मक होने और शब्द में एक यह निश्चित है-इसमें अनिश्चितता को स्थान नहीं समय में उन सब धर्मों को कहने की शक्ति न होने से है। देवदत्त पिता भी है और पूत्र भी है, इसमें जैसे तथा वक्ता का अपनी-अपनी दृष्टि से वचन व्यवहार कोई अनिश्चितता नहीं है क्योंकि वह अपने पुत्र की करते देखकर, वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझने में अपेक्षा पिता और अपने पिता की अपेक्षा पुत्र है, उसी श्रोता को कोई धोखा न हो, इसलिये अनेकान्तवाद में से तरह वस्तु सत् भी है और असत् भी, इसमें कोई स्याद्वाद का आविष्कार हुआ।
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आचार्यों ने अनेकान्तात्मक अर्थ के कथन को किन्तु लोक में और शास्त्र में प्रत्येक पद और स्याद्वाद कहा है। 'स्याद्वाद' के अनुसार वक्ता वस्तु के प्रत्येक वाक्य के साथ स्यात् पद का प्रयोग तो नहीं जिस धर्म को कहता है उससे इतर शेष धर्मों का सूचक देखा जाता । तब उसके बिना अनेकान्त की प्रतिपत्ति 'स्यात्' शब्द समस्त वाक्यों के साथ प्रकट या अप्रकट कैसे हो सकती है ? इसके उत्तर में आचार्य विद्यानन्द रूप से सम्बद्ध रहता है जो बतलाता है कि वस्तु में ने कहा है-स्यात् पद का प्रयोग नहीं होने पर भी केवल वही धर्म नहीं है जो कहा जा रहा है किन्तु उसको जाननेवाले उसे समझ लेते हैं। उसके सिवाय अन्य भी धर्म है। 'स्यात्' शब्द का अर्थ 'कथञ्चित्' या किसी 'अपेक्षा से' है ।
___ कोई-कोई आधुनिक विद्वान शायद को स्यात् का
स्थानापन्न समझते हैं किन्तु यह ठीक नहीं है। 'शायद' आचार्य समन्तभद्र ने कहा है
शब्द तो सन्देह को व्यक्त करता है किन्तु 'स्यात्' शब्द
सन्देहपरक नहीं है। वह केवल इस बात का सूचक या स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात किंवत्तचिद्विधिः। द्योतक है कि वक्ता विवक्षावश वस्तु के जिस धर्म
को कहता है वस्तु में केवल वही एक धर्म नहीं है अन्य सप्तभंगनयापेक्षो हेयादेय विशेषकः ।।
भी प्रतिपक्षी धर्म हैं।
-आप्तमीमांसा-१०४।
उपयोग
अर्थात् 'कथञ्चित्' कथञ्चन आदि स्याद्वाद के यह स्याद्वाद या अपेक्षावाद न केवल दार्शनिक पर्याय हैं, स्याद्वाद को कहते हैं। यह स्याद्वाद अनेकान्त क्षेत्र में ही उपयोगी है किन्तु लोकव्यवहार भी उसके को विषय करके सात भंगो और नयों की अपेक्षा से बिना नहीं चलता । इसके लिये दो लौकिक दृष्टान्त स्वभाव और परभाव से सत् असत् आदि की व्यवस्था ऊपर दिये गये हैं। यह अनेकान्तवाद की देन है और का कथन करता है।
एक वस्तु को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखनेवाले विभिन्न
व्यक्तियों में सामन्जस्य स्थापित करना इसका काम है। अतः वाक्य के साथ प्रयुक्त 'स्यात्' शब्द प्रकृत प्रत्येक व्यक्ति अपने ही दृष्टिकोण को उचित और दूसरों के अर्थ के धर्मों को पूर्ण रूप से सूचित करता है । इस तरह दृष्टिकोण को गलत मानता है । यदि वह अपने दृष्टिकोण अकलंक देव के अभिप्राय से 'स्यात्' शब्द अनेकान्त का की तरह दूसरे दृष्टिकोणों को भी सहानुभूतिपूर्वक अपनाये सूचक है और उनके व्याख्याकार आचार्य विद्यानन्द के तो पारस्परिक विवाद समाप्त हो जाता है। यद्यपि अभिप्राय से अनेकान्त का द्योतक भी है क्योंकि निपात अनेकान्तवाद और स्याद्वाद दार्शनिक क्षेत्र की देन है योतक भी होते हैं। यदि केवल 'स्यात' शब्द का प्रयोग और इनका उपयोग भी दार्शनिक क्षेत्र के विवादों को किया जाये तो अनेकान्त सामान्य की ही प्रतिपत्ति सुलझाने में ही हुआ है । आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीहोती है, अतः उसके साथ जीव आदि पद का प्रयोग मांसा में दो विरोधी एकान्तवादों में दोष दिखाकर यह किया जाता है यथा 'स्यात् जीव' अर्थात् कथंचित बताने का सफल प्रयत्न किया है कि यदि इनका समन्वय
-au की अपेक्षा जीव है तथा पररूप की स्याद्वाद के द्वारा किया जाता है तो ये विरोधी वाटी अपेक्षा जीव नहीं है। स्यात् शब्द के बिना अनेकान्त अविरुद्ध हो जाते हैं । भावकान्त अभावैकान्त, नित्यकान्त अर्थ की प्रतिपत्ति नहीं हो सकती।
अनित्यकान्त, भेदैकान्त अभेदैकान्त, अद्वेतकान्त द्वत
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कान्त, आदि सभी विरोधी एकान्तबादों का जब है। अतः अहिंसा का ही एक नाम अनेकान्त और समन्वय संभव है तब कौनसी समस्या इसके द्वारा हल स्याद्वाद है यदि ऐसा कहा जाये तो कोई अत्युक्ति नहीं नहीं की जा सकती। किन्तु उसका प्रयोग करने की है। इसे हम सत्याग्रह भी कह सकते हैं क्योंकि अनेकान्ती आवश्यकता है। इसके लिये मूल में महावीर की सत्य के प्रति आग्रही होता है। जो सत्य है वह अनेअहिंसक भावना होना आवश्यक है। अहिंसक भावना कान्त रूप है और जो अनेकान्त रूप है वही सत्य है। की ही देन अनेकान्त और स्याद्वाद है । विचार के क्षेत्र अनेकान्त दृष्टि के बिनासत्य तक पहुँचना संभव नहीं में जो हिंसा का ताण्डव होता था उसे मिटाने के लिये है। अतः सत्य के खोजी को अनेकान्त दृष्टि से सम्पन्न ही अनेकान्त और स्याद्वाद का सर्जन हुआ। इनके बिना होना चाहिये तभी वह सत्य इष्टा हो सकता है। विचार के क्षेत्र में प्रवर्तित हिंसा का मिटना अशक्य
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वैशाली के राजकुमार वर्द्धमान एक ऐसे क्रान्ति- वर्ष तक कठोर साधना के उपरान्त केवलज्ञान को दृष्टा युग पुरुष थे जो कठोर साधना के परिणाम प्राप्त वर्द्धमान ने देश के कोने-कोने में भ्रमण कर जनस्वरूप केवलज्ञान को प्राप्त कर आत्मविजयी हो मत जाग्रत किया और तत्कालीन समाज में व्याप्त दोषमहावीर बने जिन परिस्थितियों ने वर्द्धमान को महावीर पूर्ण व्यवस्था के विरुद्ध अहिंसक क्रान्ति का सूत्रपात बनने को प्रेरित किया उनके मूल में मुख्यतः तत्कालीन कर ऐसी सामाजिक क्रान्ति को जन्म दिया जिसने सामाजिक परिस्थितियां ही थीं, जिनमें राजनीतिक सम्पूर्ण देश की सामाजिक परिस्थितियों को झकझोर अस्थिरता, हिसा, कलह, तथा शोषण पर आधारित कर जन-जन में आत्म विश्वास की लहर जगा दी। समाज व्यवस्था, ईश्वरवाद, पाखंडवाद, अन्ध विश्वास व बलि प्रथा पर आधारित धार्मिक व्यवस्था तथा भगवान महावीर ने तत्कालीन समाज में, धार्मिक इनकी प्रतिक्रिया स्वरूप दास प्रथा, भेदभाव पूर्ण वर्ण क्षेत्र में धर्म प्रमुखों द्वारा प्रचलित उन समस्त विचार
तीर्थंकर महावीर
और उनकी सामाजिक क्रान्ति
चन्दनमल वैद
व्यवस्था का प्राधान्य था जिसके कारण सामाजिक धाराओं और अन्ध विश्वासों को खण्डित किया जिसके एवम चारित्रिक मानदण्ड चरमरा रहे थे । राज्य शासक अनुसार धर्मगुरुओं ने ईश्वरवाद की धारणा प्रचलित वर्ग में तीब्र विद्वष के कारण हिंसामय वातावरण कर राजा को ईश्वर का अवतार, ब्राह्मण को ईश्वर का व्याप्त था, दासी को पशु तुल्य तथा नारी को भोग्य
प्रवक्ता तथा पराजित व्यक्ति को दास और विजेता को सामग्री समझा जाता था, जिसके कारण सम्पूर्ण देश
स्वामी माना जाता था। महावीर ने कहा कि राजा और सभ्यता पतन के गर्त में समाती जा रही थी।
देव या ईश्वरीय अवतार नहीं है, वह एक शक्ति सम्पन्न वर्तमान ने जब यह सब देखा तो उनका मन घृणा पुरुष मात्र है। ईश्वर या उसके अवतार जैसी किसी और ग्लानि से द्रवित हो उठा और वह राज परिवार चीज का कोई अस्तित्व नहीं है। विश्व में कोई दसरी छोड क्रान्तिपथ पर अग्रसर हो गए। निरन्तर बारह ऐसी शक्ति नहीं है जो व्यक्ति की गतिविधियों को
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शासित या निर्धारित करती हो अथवा संसार को चलाती उन्होंने नर के समान सम्मान एवम् स्थान प्रदान हो । मनुष्य स्वयं अपना स्वामी है, वह जो कुछ करता किया। है उसका परिणाम उसे स्वयं को ही जन्म जन्मान्तर में भोगना होगा। कोई दूसरी शक्ति उसे इससे मुक्त नहीं इस प्रकार भगवान महावीर ने साम्प्रदायिक भेदों करा सकती, इससे तो वह स्वयं के ही सदकर्मों से मुक्ति को समाप्त कर पाखंडवाद व वर्ण एवं वर्ग भेद की पा सकता है।
जौंजीरों को तोड़कर प्राणी मात्र के सहअस्तित्व व
लोककल्याण का; तथा मनुष्य की जन्मगत महानता के तीर्थंकर महावीर और उनसे पूर्व तीर्थकरों द्वारा
स्थान पर सदकार्यों से उनकी महानता व ईश्वर अवतारवाद की धारणा का खण्डन कर उन पर मान- सम्ब
म सम्बन्धी अवतार वादी विचार के स्थान पर शुद्ध आत्मा वीय मूल्यों की महत्ता, उनके धर्म का विशिष्ट गुण है। ही परमात्मा का विचार देकर मानव धर्म की स्थाअन्य संस्कृतियों में जहां विभिन्न महापुरुषों को धर्म पना कर मानवीयता को नई दिशा दी। गुरुओं ने ईश्वरवाद के चौखटे में जड़, मानव से अलग कर उन्हें ईश्वरीय अवतार के रूप में प्रतिष्ठित किया तीर्थकर महावीर ने अपने क्रान्तिकारी विचारों के और उनके व्यक्तित्व को विकृत कर अवतारवादी ढांचे कारण समाज व्यवस्था के सभी कारकों को आन्दोलित में जड़ दिया। वहां तीर्थकर महावीर के अनुयायीयों की कर नवीन स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने प्रत्येक मनुष्य यह महत्वपूर्ण उपलब्धि ही कही जायगी कि उन्होंने को पुरुषार्थ प्रदर्शित करने को प्रेरित किया तथा श्रम को अपने को इससे मुक्त रख महावीर को तीर्थकर या महा जीवन का आवश्यक अंग बताते हुए उसकी अनिवार्यता मानव के रूप में ही प्रतिष्ठित किया जिसके कारण सिद्ध कर तत्कालीन समाज में आर्थिक विषमता के मानवीय मूल्यों की स्थापना में जैन संस्कृति अग्रणी कारण उत्पन्न वर्ग भेद पर भी प्रहार किया जिसके मानी जाती है।
कारण तत्कालीन समाज दो वर्गों में बंट गया था, एक
कुलीन तथा शोषक वर्ग और दूसरा निम्न तथा शोषित सालीन भारत जलित वर्ग। तीर्थंकर महावीर स्वयं राजपूत्र होने के नाते वर्ण व्यवस्था तथा दास व्यवस्था पर भी प्रहार किया संग्रहवृत्ति से उत्पन्न दोषों तथा समस्याओं से परिचित जिसमें मनुष्य की जन्मगत महानता स्थापित होती थी।
थे । इस व्यवस्था के विकल्प में उन्होंने अपरिग्रह दर्शन उन्होंने कहा कि सभी मनुष्य एक से पैदा होते हैं, सभी
दे, मनुष्य को अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति को अपना विकास करने का समान अधिकार है । मनुष्य
हेतु परिग्रह ब्रत धारण करने की शिक्षा दी। की प्रतिष्ठा और स्थान जन्मगत विशेषताओं के आधार पर नहीं वरन उसके गुणों एवम् सदकर्मों पर आधारित इस प्रकार जहां तीर्थंकर महावीर नं सामाजिक हो, इसलिये उन्होंने जन जागृति का माध्यम अपनाया व्यवस्था में मूलभत परिवर्तन कर आदर्श उन्होंने अनेकों शूद्रों को दीक्षित किया तथा दासों को स्थापना पर बल दिया वहां सम्पूर्ण जीवन दर्शन प्रदान मुक्त कराकर उन्हें सम्मान जनक स्थान दिया। उनके कर आदर्श परिवार पर भी बल दिया था तथा ग्रहस्थ उपदेशों के समय सभी जाति, वर्ग और वर्ण के नर- एव साधु के लिये प्रथक-प्रथक आचार संहिता दी। नारी ही नहीं वरन सभी प्रकार के जीव साथ बैठकर उन्होंने इकाई के सुधार पर बल देते हुए प्रत्येक व्यक्ति उपदेश सुनते थे । अनेकों नारियों को दीक्षित कर को दशलक्षण धम तथा पंच महाव्रतों के पालन का
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उपदेश दे स्वयं अनुशासन वद्ध जीवन पद्धति के पालन असंतुलन तथा शोषकवृत्ति आज भी नवीन स्वरूपों में का उपदेश दिया। इसके लिये उनके सर्वाङ्गीण शिक्षा समाज के कोढ़ की तरह विद्यमान है, जिनके विरुद्ध पर बल दिया जिसके आधार पर धार्मिक सहिण्णुता की तीब्र किन्तु अहिंसक सामाजिक क्रान्ति की नितान्त स्थापना तथा आदर्श विश्व का निर्माण हो सकता हैं। आवश्यकता है। युग पुरुष महात्मा गांधी ने तीर्थंकर
महावीर के विचारों को नवीन परिवेषों में स्थापित कर तीर्थंकर महावीर के सिद्धान्त और उपदेश पूर्ण वर्तमान भारत में जिस सामाजिक क्रान्ति को जन्म दिया शास्वत एवं मौलिक होने से आज भी उतने ही उप- तथा स्वाधीनतोपरान्त हमारे नवीन संविधान, में योगी हैं। जिन-सामाजिक दुर्व्यबस्थाओं ने उन्हें तत्का- वर्णित निर्देशक सिद्धान्तों ने जिसे गति दी है. उनकी लीन समाज में सामाजिक क्रान्ति को प्रेरित किया था पति के लिये तथा आदर्श समाज की स्थापना के लिये उनमें से अनेक दोष परिवर्तित परिवेषों में वर्तमान आज तीर्थंकर महावीर के सिद्धान्तों के प्रचार व प्रसार समाज में भी व्याप्त होते जा रहे हैं । आर्थिक अस- की जितनी आवश्यकता है उतनी पहले कभी नहीं थी। मानता, अस्प्रश्यता एवं भेदभाव, विद्वेष, सामाजिक
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यशपाल जन
वर्तमान युग
महावीर के
की
सार्थकता
सन् 1969 में जब महात्मा गाँधी का जन्म शताब्दी समारोह देश-विदेश में मनाया गया था, कुछ व्यक्तियों ने खुले आम कहा था कि अब लोगों के सोचने का ढंग कुछ और हो गया है, समाज की मान्यताएँ बदल गई हैं, देश का मुंह दूसरी ओर हो गया है, ऐसी दशा में गाँधी जी के नाम और सिद्धान्तों का ढिंढोरा पीटने से लाभ क्या है ? उन लोगों की धारणा यह थी कि गाँधीजी के उसूल पुराने पड़ गये हैं, और आज युग के लिए उनकी कोई सार्थकता नहीं है । पाठक भूले नहीं होंगे कि इस संदर्भ में बहुत-सी गोष्ठियां आयोजित की गई, समाचार-पत्रों में लेख लिखे गये, काफी साहित्य का प्रकाशन किया गया और यह सिद्ध करने की भरपूर कोशिश की गई कि गाँधीजी के सिद्धान्त आज भी उपयोगी हैं और कि वे युग-युगान्तर तर्क संगत एवं उपयुक्त रहेंगे ।
में
उपदेशों
जिनके निधन को मुश्किल से 27 वर्ष हुए हैं, उन गाँधीजी के बारे में जब ऐसा कहा जा सकता है, तब भगवान महावीर के विषय में यही बातें कही जाऐं तो आश्चर्य क्या, जिनके निर्वाण को 2500 वर्ष हो गये । सच यह है कि हमारे देश में महापुरुषों के सिद्धांतों की मूल आत्मा को समझकर आत्मदर्शन करने का प्रयास बहुत कम हुआ है। यही कारण है कि महापुरुषों का निरन्तर गुणानुवाद करके भी हम उनके आत्म-शोधक तथा लोककल्याणकारी मार्ग का अनुसरण नहीं कर पाये ।
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भगवान महावीर के 2500 वें निर्वाण महोत्सव को 13 नवम्बर, 1974 से 15 नवम्बर 1975 तक देश विदेश में मनाने की योजना बड़ी भावना, उमंग और उत्साह से बनाई गई । राष्ट्रीय समिति बनी, जैन महासमिति का गठन हुआ, विभिन्न प्रान्तों में समितियों का निर्माण किया गया, छोटी-बड़ी अन्य संस्थाओं ने भी अपने-अपने क्षेत्र में, अपने-अपने साधनों के अनुसार इस महायज्ञ में अपना हविर्भाग अर्पित करने की चेष्टाएँ कीं । योजनाएं
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बनीं, उन्हें क्रियान्वित करने के लिए निजी एवं सामू- दिया । राजपुत्र ने अपने परिचारक से पूछा, "यह क्या हिक प्रयास भी हुए। कुछ योजनाएं पूरी हुई, कुछ है ? जाओ पता लगाकर आओ।" परिचारक गया, थोड़ी अधूरी रह गई, शायद भविष्य में पूरी हों। लेकिन देर में लौटकर उसने बताया, 'मालिक अपने दास को कुल मिलाकर मुझे ऐसा लगता है कि इतनी भावना पीट रहा है।" और साधना के बाद भी राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय
"क्यों ?" महावीर ने आकुल होकर पूछा। जीवन पर महावीर और उनके सिद्धान्तों का जो प्रभाव पड़ना चाहिए, वह पड़ा दिखाई नहीं देता।
"इसलिए कि वह खरीदा हुआ है।"
इसका मुख्य कारण यह है कि महावीर की भूमिका क्या हमारे शासन ने यह अधिकार दे रखा है कि के बाह्यरूप पर तो बल दिया गया, लेकिन उनके एक आदमी दूसरे की खरीद ले ?" आन्तरिक रूप को गहराई से समझने और पकड़ने की कोशिश नहीं की गई। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आज
“जी हो, खरीदने का ही नहीं, बल्कि दास को युग की धारा अत्यन्त उहम गति से भौतिकता की मारने तक का भी अधिकार शासन ने दे रखा है। ओर प्रवाहित हो रही है और उसकी दिशा को बदलना आसान नहीं है, फिर भी यदि महावीर के सिद्धान्तों के
__ महावीर का सम्वेदनशील हृदय इस घटना से
मर्माहत हो उठा । ऐसा शासन किस काम का, जो एक स्थूल प्रतिपादन के साथ-साथ उनकी भूमिका को समझ
व्यक्ति को दुसरे को खरीदने और मारने का अधिकार कर उसका वैयक्तिक एवं सामूहिक जीवन में प्रवेश कराने के लिए प्रयत्न किये गये होते तो आज स्थिति कुछ और ही होती।
हमारा इतिहास बताता है कि अरिष्टनेमि पशुओं - आइये, आज के बदले संदर्भो में हम महावीर के
का चीत्कार सुनकर अहिंसा के मार्ग के पथिक' बन गये उपदेशों की उपयोगिता को देखने और समझने का
थे, पार्श्वनाथ ने जलती लकड़ी में सांपों के एक जोड़े प्रयत्न करें।
को अर्द्धदग्ध देखकर जीवन की नई दिशा में मोड़ दिया था, बुद्ध संसार से रोग, जरा और मृत्यु की मुक्ति का
मार्ग खोजने के लिए गृह-त्याग कर साधना में लीन हो । पाठक जानते हैं कि महावीर राज-घराने में जन्मे
गये थे। महावीर के मन में भी इस घटना से राजथे। उनके चारों ओर विपुल सम्पदा थी, अपार वैभव
सत्ता के प्रति विद्रोह की भावना जागृत हुई और उनका था, अतुलित सत्ता थी; लेकिन धन-सम्पदा अथवा सत्ता
मन ऐसा जीवन जीने के लिए आतुर हो उठा, जिसमें के द्वारा उन्होंने समाज का भला करने की बात क्यों
न कोई किसी का स्वामी हो, न कोई किसी का दास नहीं सोची ?
हो, बल्कि जिसमें मानवीय मूल्यों की प्रधानता हो। इस प्रश्न का उत्तर उनके जीवन की एक घटना ।
धन-सम्पदा में बचपन से ही उन्हें रस नहीं था, इस देती है।
छोटी-सी घटना ने उन्हें सत्ता से भी विमुख कर दिया।
उनके हृदय में स्वतंत्रता की लौ प्रदीप्त हो उठी। - एक दिन महावीर कहीं जा रहे थे। अचानक मुनि नथमल जी 'श्रमण महावीर' में लिखते हैं, “वह लौ बस्ती के एक भवन से उन्हें किसी का क्रन्दन सुनायी इतनी उद्दम थी कि, ऐश्वर्य की हवा की प्रखर झांकी
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बुझ गई।"
भी उसे बुझा नहीं पा रही थी । कुमार घर की दीवारों भी नहीं देख सकता ।" इसलिए उन्होंने आव्हान • में बन्द रहकर भी मन की दीवारों का अतिक्रमण करने किया :
लगे। किसी वस्तु में बद्ध रहकर जीने का अर्थ उनकी दृष्टि में था स्वतन्त्रता का हनन । उन्होंने स्वतन्त्रता
वियाणिया दुक्ख विवड्ढणंगणं की साधना के तीन आयाम एक साथ खोल दिये, एक
ममतबंध च महब्भय । था अहिंसा, दूसरा सत्य और तीसरा ब्रह्मचर्य ।
सुहाव्हं धम्मधुरं जनुतरं, अहिंसा की साधना के लिए उन्होंने मैत्री का विकास
धारेज्ज निव्वाण गुणवहं महं।। किया । उनसे सूक्ष्म जीवों की हिंसा भी असंभव होगी। सत्य की साधना के लिए वे ध्यान और भावना का
"धन को दुख बढ़ानेवाला, ममत्व-बन्धन का कारण अभ्यास करने लगे। मैं अकेला हैं, इस भावना के द्वारा .
और भयावह जानकर उस सुखावह, अनुपम और उन्होंने अनासक्ति को साधा और उसके द्वारा आत्मा की महान धर्मधुरा को धारणा करो, जो निर्वाण-गुणों को उपलब्धि का द्वार खोला । ब्रह्मचर्य की साधना के लिए
वहन करने वाली है। उन्होंने अस्वाद का अभ्यास किया। शरीर के ममत्व से मुक्ति पा ली, अब्रह्मचर्य की आग अपने-आप
हमारे दु:खों का मूल कारण मन की चंचलता है। सोते-जागते, उठते-बैठते, दिन-रात, मन दौड़ लगाता
रहता है। उसे जितना दो, उतना ही वह और मांगता वर्तमान युग में हम धन-सम्पत्ति और सत्ता की है। कभी सन्तुष्ट नहीं होता। उसकी चाह बढ़ती ही प्रभुता देखते हैं, लेकिन महाबीर ने उन्हें त्यागा. क्योंकि जाती है । इसलिए महावीर ने सबसे पहला कदम मन उन्होंने इस सचाई को भली प्रकार हृदयंगम कर लिया
को वश में करने के लिए उठाया। उन्होंने घर में कि सच्चा सूख ऐसा जीवन व्यतीत करने में है. जिसमें साधना की और समय आने पर सारी सम्पदा और छोटे-बड़े, ऊँच-नीच, धनी-निर्धन आदि का भेद-भाव न
वैभव को त्याग, राजसत्ता को तिलांजलि दी और मन हो और व्यक्ति आत्मिक सम्पदा का उत्तरोत्तर विकास
__ को नियंत्रित करके पूर्ण स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए करे।
कठोर साधना के मार्ग पर चल पड़े। वस्त्रों तक का
त्याग, एकान्त-बास, खान-पान की उपेक्षा, ध्यान में हमारी सारी मनोभूमिका आज इस प्रकार की तल्लीनता आदि-आदि उनके प्रयास उसी दिशा के थे। हो गयी है कि हम पदार्थ को सुख का साधन मान मन पर जैसे-जैसे नियंत्रण होता गया. वैसे-वैसे प्रकाश बैठे हैं और उसी की उपासना कर रहे हैं। हम यह से जगमगाते एक नूतन लोक में वह प्रविष्ट होते गये । भूल गये हैं कि जो नाशवान है वह स्थायी सुख कभी दे नहीं सकता। महावीर ने कहा था, “यदि धनधान्य सब जानते हैं कि मन की सबसे अधिक उछलकूद से परिपूर्ण यह सारा लोक भी किसी एक मनुष्य को दे उस समय होती है, जब कि वह किसी भी प्रकार के दिया जाए, तो भी उसे सन्तोष होने का नहीं।" मद से आक्रान्त होता है। बीते युग की स्मृतियाँ और
भविष्य की कल्पनाएँ मानवमन को सतत आलोड़ित ... "हाथ में दो रक होने पर भी जैसे उसके बुझ जाने करती रहती हैं । महाबीर ने उन स्मृतियों और कल्पपर सामने का मार्ग दिखाई नहीं देता, उसी तरह धन नाओं के दुष्चक्र से अपने मन को मुक्त करने का उपक्रम के असीम मोह में मूढ़ मनुष्य न्यायमार्ग को देखता हुआ किया और ज्यों-ज्यों उनसे उनका नाता टूटता गया,
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उनका मन निर्भीक होता गया। बारह बर्ष के उनके "रूप चक्षु का विषय है। आँखों के सामने आये साधनाकाल की कैसी-कैसी भयंकर घटनाएँ पढ़ने को हए रूप को न देखना शक्य नहीं। आँखों के सामने मिलती हैं। पढ़ कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मेरी आये हए रूप में राग-द्वेष का परित्याग करो। मान्यता है कि उन पर हाथी, नाग आदि के जो आक्र
“गन्ध नाक का विषय है। नाक के समीप आयी मण हुए, वे उनके अपने विकार ही थे । व्यक्ति विकार- दुई गन्ध को नमन
हुई गन्ध को न सूचना शक्य नहीं। नाक के समीप प्रस्त तभी होता है, जब उसका मन उसके नियंत्रण में
आई हुई गन्ध में राग-द्वेष का परित्याग करो। नहीं होता । महावीर के मन के नियत्रित होते ही उनके
"रस जिहा का विषय है। जिह्वा पर आये हए रस विकारों के लिए कोई स्थान न रहा । अत: यह स्वा- का आस्वाद न लेना शक्य नहीं। जिह्वा पर आये हुए भाविक ही था कि निराश्रय हो जाने पर विकारों ने
___ रस में रागद्वेष का परित्याग करो। कूपित होकर महावीर को भयंकर-से-भयंकर यातनाएँ
"स्पर्श शरीर का विषय है। स्पर्श का विषय पहुंचाई थीं । नाग आदि तो प्रतीक मात्र थे । महावीर
उपस्थित होने पर उसमें राग-द्वेष न करो।" को अपने विकारों से किस हद तक जूझना पड़ा होगा, देश-काल के अनुसार सन्दर्भ बदलते रहते हैं, उसकी सहज ही कल्पना नहीं की जा सकती।
युग नया परिवेश धारण करता है। लेकिन शाश्वत .. मनुष्य सामाजिक प्राणी है । वह समाज में रहता मूल्यों में कभी परिवर्तन नहीं होता । भगवान महावीर
और जीता है। किसी के साथ उसका राग होता है, ने जिन मूल्यों की प्रतिष्ठा की, वे शाश्वत हैं। उनका किसी के साथ दुष। जिन्हें वह प्रेम करता है, जो उसके आरम्भ वैयक्तिक जीवन से होता है। सत्य, अहिंसा, काम आते हैं, उनके साथ उसका राग होता है; जिनसे अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य आदि का समावेश जब तक व्यक्ति के
जीवन में नहीं होगा, वे समाज में प्रविष्ट हो ही नहीं प्रति वह द्वेष रखता है । लेकिन महावीर का मन जैसे सकते। इसीलिए कहा गया है कि वैयक्तिक साधना ही नियंत्रण में आया उनके लिए अपने और पराये का भेद समाज का अधिष्ठान बनती है। जाता रहा, सब उनके अपने हो गये, सबके साथ उनका भगवान महावीर के 2500 वें निर्वाण महोत्सव आत्मीयता का नाता जुड़ गया। वह वीतराग और को मनाने की योजना बनाते समय एक कमी यह रह वीत-द्वेष हो गये। उनके अन्तस में सबके प्रति प्रेम का गयी कि महावीर के सिद्धान्तों को समाज में स्थापित निर्मल-पावन स्रोत फूट उठा। सबके साथ समता-भाव करने पर जितना बल दिया गया, उतना व्यक्ति के स्थापित हो गया। उन्होंने कहा : ।
जीवन में उन्हें स्थापित करने पर नहीं दिया गया। "राग-द्वेष ऐसे दो पाप हैं, जो सारे पाप कर्मों को। यही कारण है कि पूरा वर्ष बीत जाने पर भी हमारे जन्म देते हैं।"
प्रयत्नों का प्रत्यक्षतया विशेष परिणाम सामने नहीं आ "राग द्वष को पैदा करने में शब्द, रूप, गन्ध, पाया । रस और स्पर्श ये पाँच वस्तुएँ विशेष सहायक होती
सन्दर्भ कितने ही बदलें लेकिन महावीर के सिद्धांत हैं।" महावीर ने उस सम्बन्ध में मानव की दुर्बलता को हिमालय की तरह अटल हैं, गंगा की तरह पावन हैं । ध्यान में रखकर मार्ग सुझाते हुए कहा ।
अतः हम स्मरण रखें कि भगवान महावीर को जब तक "शब्द श्रोतेन्द्रिय का विषय है। कान में पड़े हुए अपने आन्तरिक जीवन में प्रतिष्ठित नहीं करेंगे तब शब्दों को न सुनना शक्य नहीं। काम में पड़े हए शब्दों तक न हमारा मंगल हो सकता है, न समाज का, न में राग-द्वेष का परित्याग करो।
राष्ट्र का।
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मानव समाज के विकास में स्त्री व पुरुष दोनों को समान स्थान प्राप्त है। स्त्री और पुरुष दोनों होने से एक घटक को अधिक महत्व दिया जाता है तो समाज सर्वागीण उन्नती नहीं कर सकता। इसलिए समाज की निर्मिती ब मानव का विकास और सामाजिक प्रगति के लिए नारी पुरुष के साथ बराबर काम करती रही है।
प्राचीन काल में ऋषभनाथ तीर्थकर ने बोया था। उन्होंने गृहस्थावस्था में ब्राम्ही और सुन्दरी इन दोनों कन्याओं को अक्षरविद्या और अध्यात्मविद्या प्रदान की थी। इतना ही नहीं भ. वृषभनाथ से उन दोनों ने आयिकाब्रत की दीक्षा ली थी । चतुर्विध संघ के आर्यिका संघ गणिनी (प्रमुख) आर्यिका व्राम्ही ही थी। दीक्षा ग्रहण करने का अधिकार स्त्रियों को उस काल में प्राप्त होना यह आध्यात्मिक जगत में क्रान्ति ही थी। यह परम्परा आज भी अक्षुण्ण रूप में चली आ रही है।
अन्य किसी भी धर्म की अपेक्षा जैन धर्म में नारी को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसी धर्म ने पुराने मूल्यों को बदल कर उसके स्थान पर परिष्कृत मूल्यों की स्थापना की है। जैन धर्म की दृष्टी से नर और नारी दोनों समान है । भगवान महावीर ने प्रत्येक जीव की स्वतंत्रता स्वीकार की है। इसलिए ब्रत धारण करने का जितना अधिकार श्रावक को दिया गया है, उतना ही अधिकार श्राविका का बताया है। जैन शास्त्रों में नारी जाति को गृहस्थ जीवन में धम्मसहाया (धर्म सहायिका) धर्म-सहचारिणी, देव गुरुजनसंकाशा इत्यादि शब्दों में जगह जगह प्रशंसित किया है। नारी को समाज में सम्मानीय और आदरणीय माना गया है।
राजा अग्रसेन की कन्या राजुलमती नेमिनाथ के दीक्षा ग्रहण करते ही अयिका की दीक्षा ग्रहण कर आत्मकल्याण की और अग्रसर हई । वैशाली
भगवान् महावीर और नारी-मुक्ति
पद्मश्री पं. सुमतीबाई शहा
के चेटक राजा की कन्या चन्द्रासनी ने आजीवन ब्रह्मचर्य ब्रत स्वीकार कर भगवान महावीर से दीक्षा ली। सती चन्दनवाला ने वैवाहिक बंधन में न बंधकर भगवान महावीर से आयिका की दीक्षा ली और साध्वियों की प्रमुख
महिलाओं को सामाजिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में दिए हुए समान अधिकार का बीज जैन धर्म के अत्यन्त
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बनीं। इस प्रकार जब अन्य धर्म मनीषियों ने स्त्रीयों भगवान जिनेन्द्र का नाम स्मरण करते उसने इहलोक को पुरुषों का अनुवति माना उस समय भगवान महावीर की यात्रा समाप्त की। ने स्त्रियों की स्वतंत्रता और उनके समान अधिकार की घोषणा की। आज भी भारत में हजारों साध्वियाँ
विजय नगर की सरदार चंपा की कन्या रानी आयिका का कठिन ब्रत धारण कर आत्मकल्याण के
भैरवदेवी ने राज्य नष्ट होने के बाद अपना स्वतंत्र राज्य साथ-साथ महिलाओं में आत्मिक जागृती का कार्य कर स्थापित किया था और वहाँ मातृसत्ताक पद्धति से कई
बरसों तक राज्य चलाया था। नालजकोंड देशके अधि
कारी नागार्जन की मत्यु के बाद कदंबराज ने उनकी सामाजिक कार्य और जैन नारी :--जैन देवी वीरांगना जक्कमव के कंधो पर राज्यकार्य भार शास्त्रों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि महावीर के की जिम्मेदारी रखी । आलेशो में इसे 'युद्ध-शक्ति मुक्ता समय में और उसके पूर्व महिलाओं को आजन्म अवि- और 'जिनेंद्र शासन भक्ता' कहा गया है। अपने अंत बाहित रहकर समाजसेवा और आत्मकल्याण करने की काल तक उसने राज्य कार्य भार की जिम्मेदारी अनुज्ञा थी। आदिपुराण पर्व 18 श्लोक 76 के अनुसार संभाली। इस काल में पुरुषों के साथ ही कन्याओं पर भी विविध संस्कार किये जाते थे। राज्य परिवार से संबंधित गंग राजवंश की अनेक नारियों ने राज्यकार्य भार महिलाओं को विशेषाधिकार प्राप्त थे। कन्या पिता की ___ की जिम्मेदारी संभालकर अनेक जिन मंदिर व तालाब संपत्ति में से दान भी कर सकती थी। उदाहरण के बनाए। चम्पला रानी का नाम जिन मंदिर निर्मिती लिए सुलोचना ने अपनी कौमार्यावस्था में रत्नमयी जिन और जैन धर्म की प्रभावना के लिए अधिक प्रसिद्ध प्रतिमा की निर्मिती की थी और उन प्रतिमाओं है। उसी प्रकार श्रवण बेल गोल शिला लेख क्र. 496 को प्रतिष्ठा करने के लिए बड़े ढंग से प्रजीभिषेक से पता चलता है कि णिक्कमब्वे शुभचन्द्र देव की शिष्या विधि का भी आयोजन किया था।
थी। योग्यता और कुशलता से राज्यकार्यभार करने
के साथ ही धर्म प्रचार के लिए इन्होंने अनेक जैन ___कुछ जैन महिलाएं राज्य व्यवहार में पूर्ण निपुण प्रतिमाओं की स्थापना की थी। थी साथ में उन्होंने राज्य की रक्षा के लिए युद्ध में प्रत्यक्ष भाग लिया था। इसके लिए अनेक ऐतिहासिक जैन नारियों के द्वारा शिल्प व मंदिरों का निर्माण उदाहरण दिए जा सकते है। पंजिरि देश के प्रसिद्ध किया गया। इसका उल्लेख शिलालेखों में मिलता है। सविध राजा की कन्या अर्धांगिनी ने खारवेल राजा के कलिंगपति राजा खारवेल की रानी ने कुमारी पर्वत पर विरुद्ध किये गये आक्रमण में उसे सहयोग दिया था। जैन गुफाओं का निर्माण किया था। सोरे की राजा की इतना ही नहीं उसने इस युद्ध के लिए महिलाओं की पत्नी ने अपने पति का रोग हटाने के लिए एक मंदिर स्वतंत्र सेना भी खड़ी की थी। युद्ध में राजा खारवेल व तालाब का निर्माण किया था । यह मंदिर आज भी के विजय पाने पर खारवेल राजा के साथ उसका 'मुक्तकनेरे' नाम से प्रसिद्ध है। आहवमल्ल की राजा के विवाह हुआ था। गंग घराने के सरदार नाम की लड़की सेनापति मल्लम की कन्या 'अंतिमबब्वे' दानशर व
और राजा विखर लोक विद्याधर की पत्नी सामिमबने जैन धर्म पर श्रद्धा रखने वाली थी। उसने चाँदी और यत की सभी कलाओं में पारंगत थी। सामिमबने के सोने की अनेक जैन प्रतिमाओं का निर्माण कराया था। मर्मस्थल पर बाण लगने से उसे मूर्छा आ गई और उसने लाखों रुपयों का दान दिया था। उसे अनेक
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ग्रथों में 'दानचितामणी' पदवी से विभूषित किया गया परिस्थिती में जैन नारियों ने जो महत्वपूर्ण कार्य किए है। विष्णूवर्धन राजा की रानी शांतल देवी ने मन् उनका मूल्य बढ़ जाता है। उन्हें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र 1123 में श्रवणबेलगोल में भगवान जिनेन्द्र की में प्रगति करने के अवसर प्राप्त होना यह भगवान विशालकाय प्रतिमा स्थापित की थी। सन् 1131 में महावीर के द्वारा स्त्री मुक्ति की घोषणा के कारण ही सल्लेखना व्रत का पालन कर शरीर-त्याग किया था। संभव हो सका, यदि ऐसा कहा जाए तो अतिशयोक्ति
नहीं होगी। जिस युग में स्त्रियाँ वेद या धार्मिक साध्वी साहित्य क्षेत्र में कार्य :-अनेक जैन नारियो वेश धारण करके मुक्ति-मार्ग पर नहीं चल सकती ने लेखिका और कवियित्री के रूप में साहित्य जगत में थी। उसे सामान्य क्रान्ति ही कही जा सकती है। स्वप्रसिद्धि प्राप्त की है। सन 1566 में कवियित्री 'रणमति' नभ और
तन्त्रता और समानता प्राप्त करने के लिए सैकड़ों वर्ष ने 'यशोधर काव्य' नामका काव्य लिखा । आयिका स्त्रियों को संघर्ष करना पड़ा है। परन्तु जैन धर्म के रत्नमती की 'समकितरास' यह हिन्दी-गुजराती मिश्रित मनीषियों ने बहत पहने ही स्त्री-स्वातंत्र्य की घोषणा काव्य-रचना उपलब्ध है। महाकवियित्री रत्न ने अपनी
कर दी थी। यह जैन धर्म का स्त्री-पुरुष को अलग न
का अमरकृति अजितनाथ पुराण की रचना दान चितामणी मानने का दष्टिकोण अर्थात दोनों को प्रत्येक क्षेत्र में अतिमब्बे के सहकार्य से ही ई.स.993 में पूर्ण की थी। कार्य करने के अवसर प्रदान करना विशेष उल्लेखनीय श्वेताम्बर साहित्य में चारदत्त-चरित्र लिखने वाली पद्मश्री, कनकावती-आख्यान लिखने वाली हेमश्री महिलाएँ प्रसिद्ध है । अनुलक्ष्मी, अवन्ती, सुन्दरी, माधवी
इस प्रकार प्राचीन काल में जैन महिलाएं प्रत्येक आदि विदुषियाँ प्राकृत भाषा में लिखने वाली प्रसिद्ध
क्षेत्र में अग्रसर थी। परन्तु मध्य युग में विदेशी आक्रकवियित्रीयाँ है। उनकी रचनाएँ प्रेम, संगीत, आनंद,
मणों के कारण स्त्रियों को सुरक्षित रखने के नाम व्यथा, आशा-निराशा । जिनेन्द्र भक्ति आदि गणों से पर समाज ने स्त्रियों पर अनेक बन्धन लगाए । इसका युक्त है।
प्रभाव जैन महिलाओं पर भी पड़ा। परन्तु भगवान
महावीर को स्त्री-मुक्ति की घोषणा के कारणं ऐसी इसके अलावा नत्य, गायन, चित्रकला, शिल्पकला परिस्थितियों में भी अनेक जैन महिलाओं ने कार्य किए आदि क्षेत्रों में जैन महिलाओं ने असामान्य प्रगति की है। इसका उल्लेख ऊपर आ चूका है। फिर भी उनकी है । प्राचीन ऐतिहासिक काल में जैन नारी ने जीवन के स्वतन्त्रता और स्वविकास में बाधा अवश्य आई। सभी क्षेत्रों में अपना सहयोग दिया है। समाज उसे इसी कारण शिक्षा, धर्म-संस्कार तत्वज्ञान आदि में नारी सम्मान की दष्टी से देखता था। समाज ने नारी को बहुत पीछे रही। एक बार लगे हए बन्धन आजादी उसकी प्रगति के लिए सब सुविधाएँ दी थी। गृहस्थ मिलने पर भी टूट न सके । धर्म पालन करते हुए उसकी प्रगति अपने पुत्र-पुत्रियों को सुसंस्कारित करना, राजकार्य, समाजकार्य, धार्मिक आज फिर से सारे जगत में नारी जागृति की लहर कार्य में सक्रिय सहयोग देना वह अपना कर्तव्य समझती आई है। महिला-वर्ष का आयोजन इसी जाग्रतिका थीं।
परिचायक है। इसका प्रभाव जैन महिलाओं पर भी
पड़ा है । इस वैज्ञानिक युग में जैन महिलाओं ने अनेक इस प्रकार भगवान महावीर या उनके पूर्व की क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कार्य किए हैं। भारतीय ज्ञानपीठ के सामाजिक परिस्थिति यदि देखी जाएँ तो उस प्रतिकूल माध्यम से श्रीमती रमा जैन ने साहित्य और धार्मिक
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क्षेत्र में जो कार्य किए हैं उन्हें कौन भुला सकता है। सक्षिप्त में भगवान महावीर ने ढाई हजार वर्ष श्रीमती कंकूबाई के दातृत्व और नेतृत्व के कारण पहले जो नारी में मुक्ति की घोषणा की थी, वह आज अनेक शैक्षणिक संस्थाएँ और अस्पताल आज समाज फिर से नारी-समाज में गजित हो रही है। हमें उस की सेवा कर रहे हैं। श्रीमती कस्तूरबाई के द्वारा स्वर को सुनने की आवश्यकता है । अभी भी अशिक्षा, स्थापित कस्तुरबाई ट्रस्ट के द्वारा आज अनेक संस्थाएं अंधविश्वास, दहेज आदि कुप्रथाएँ नारी-विकास के मार्ग कार्यरत है। सोलापुर में क्षु. राजुलमतीबाई द्वारा में रुकावटें हैं इन्हें हटाना हमारा कर्तव्य है। उसी स्थापित 'श्राविका सस्था नगर' आज शैक्षणिक धार्मिक प्रकार नारी को भी अपने अतीत के खोए हए गौरव ब सामाजिक कार्य में अग्रसर है। चन्दाबाई के द्वारा और अधिकार को पाने के लिए प्रयत्नशील होना जैन बालाश्रम आरा की स्थापना जैन महिलादर्श का चाहिए । नारी-जागरण के लिए हर सुशिक्षित क्रान्तिसंपादन, अखिल भारतीय महिला परिषद की स्थापना कारी व प्रगतिशील विचार की नारी को आगे आना आदि महत्वपूर्ण कार्य किये गए है।
चाहिए। नारीयों ने अधिकारों की मांग तो करनी ही
चाहिए परन्तु पाश्चात्य जगत के प्रभाव से फैशन आदि साहित्य निर्माण में भी अनेक जैन महिलाएँ आज के रूप में जो नई कुरीतीयाँ स्त्रियों में आ रही हैं उन्हें महत्वपूर्ण स्थान बना रही है। उदाहरण के लिए साध्वी रोकना भी जरूरी है। नारी-क्रान्ति का अर्थ केवल चन्दनादर्शनाचार्य के द्वारा अनेक ग्रंथों का लेखन और बाह्य वेश-भूषा या उच्छखल विचारों की क्रान्ति नहीं संपादन किया गया है। सौ. सुरेखा शहा के उपन्यास है। प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के शब्दों में प्रसिद्ध मासिकों में प्रकाशित हो रहे है। श्रीमती 'महिला-मुक्ति' भारत के लिए मौज की बस्तु नहीं है । कलंत्रेअक्का, श्रीमती लेखवती जैन (हरियाणा विधान बल्कि एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। ताकि, राष्ट्र सभा अध्यक्षा) सौ. लीलावती मर्चन्ट, श्रीमती इंदुमती भौतिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक दृष्टि से अधिक सेठ, श्रीमती ओमप्रकाश जैन आदि महिलाएँ राजनैतिक संतोषजनक जीवन की ओर अग्रसर हो सके। क्षेत्र में अग्रसर रही है। इतना ही नहीं औद्योगिक क्षेत्र में भी वे कार्य कर रही है।
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महावीर की वाणी का मंगलमरा क्रांतिकारी स्वरूप
भगवान महावीर ने जिस धर्म एवं दशन का प्रचार प्रसार किया; जिस सत्य की सुस्पष्ट व्याख्या की, जिन दार्शनिक प्रतिपतिकाओं को सुव्यवस्थित ढ़ंग से अभिव्यक्त किया, उनके सूत्र यद्यपि भारतीय प्राक्-वैदिक युग से ही पोषित एवं विकसित होते आये हैं तथापि महावीर ने श्रमण-दर्शन की निग्रन्थ परम्परा में तेईसवें तीर्थ कर तथा ऐतिहासिक व्यक्तित्व पार्श्वनाथ के बा यम धर्म के स्थान पर "पंच महाव्रत" का उपदेश देकर तथा आत्मजय की साधना को अपने ही पुरुषार्थ
एवं चरित्र से सिद्ध करने की विचारणा को लोकोन्मुख बनाकर भारतीय मनीषा को नया मोड़ दिया । उन्होंने धर्म के उत्कृष्ट मंगलमय स्वरूप की व्याख्या ही नहीं की, "धम्मो मंगलमुविकटठं" कहकर धर्म को मंगलमय साधना का पर्याय बना दिया । उनका जीवन आध्या
डा० महावीर शरण जंन
त्मिक चिंतन मनन एवं संयमी जीवन का साक्षात्कार है; निष्कर्मदर्शी के निष्कर्म आत्मा को देखने का दर्पण है; आत्मा को आत्मसाधना से पहचानने का मापदण्ड है: तप द्वारा कर्मों का क्षय करके आत्म स्वभाव में रमण करने की प्रक्रिया है तथा सबसे बड़ी बात यह कि किसी के आगे झुककर अनुग्रह की वैशाखियों के द्वारा आगे बढ़ने की पद्धति नहीं प्रत्युत अपनी ही शक्ति एवं साधना के बल पर जीवात्मा के परमात्मा बनने की वैज्ञानिक प्रयोगशाला है ।
भगवान महावीर के युग में भौतिकवादी एव संशयमूलक जीवन दर्शन के मतानुयायी चिन्तकों ने समस्त धार्मिक मान्यताओं, चिर संचित आस्था एवं विश्वास के प्रति प्रश्नवाचक चिन्ह लगा दिया था। पूरणकस्सप मक्खल गोसाल, अजितकेसकम्बलि, पकुध
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कच्चायन, संजय बैलटि ठपुत्र आदि के विचारों को प्रति श्रद्धा एवं अनन्यभाव के साथ “अनुराग" एवं पढ़ने पर हमको आभास हो जाता है कि उस युग के "समपंण" कर संतोष पा लेता था। जनमानस को संशय, त्रास, अविश्वास, अनास्था, प्रश्ना
आज का व्यक्ति स्वतन्त्र होने के लिए अभिशापित कूलता आदि वृत्तियों ने किस सीमा तक आबद्ध कर
है। आज व्यक्ति परावलम्बी होकर नहीं, स्वतन्त्र लिया था। ये चिन्तक जीवन में नैतिक एवं आचार
निर्णयों के क्रियान्वयन के द्वारा विकास करना चाहता मूलक सिद्धान्तों की अवहेलना करने एवं उनका तिर
है। अन्धी आस्तिकता एवं भाग्यबाद के सहारे जीना स्कार करने पर बल दे रहे थे। मानवीय सौहार्द एवं
नहीं चाहता अपितु इसी जीवन में साधनों का भोग कर्मवाद के स्थान पर घोर भोगवादी, अक्रियावादी
करना चाहता है। समाज से अपनी सत्ता की स्वीकृति एवं उच्छेदवादी वृत्तियाँ पनप रही थी।
तथा अपने अस्तित्व के लिए साधनों की मांग करता है इन्हीं परिस्थितियों में भगवान महावीर ने प्राणी
तथा इसके अभाव में सम्पूर्ण व्यवस्था पर हथौड़ा मात्र के कल्याण के लिए, अपने ही प्रयत्नों द्वारा उच्च
चलाकर उसे नष्ट भ्रष्ट कर देना चाहता है । तम विकास कर सकने का आस्थापूर्ण मार्ग प्रशस्त कर
मानवीय समस्याओं के समाधान के लिए जब हम अनेकांतवादी जीवन दृष्टि पर आधारित, स्वाद्वाद्वादी
उद्यत होते हैं तो हमारा ध्यान धर्म को और जाता है। कथन प्रणाली द्वारा बहुधर्मी एवं बहुगुणी वस्तु को
इसका कारण यह है कि धर्म ही ऐसा तत्व है जो व्यक्ति प्रत्येक कोण, दृष्टि एव संभावनाओं द्वारा उनके बास्त
की असीम कामनाओं को सीमित करता है तथा उसकी विक रूप में जान पाने एवं पहचान पाने का मार्ग
दृष्टि को व्यापक बनाता है। इस परिप्रेक्ष्य में हमें यह बतलाकर सामाजिक जीवन के लिए अपरिग्रहवाद आदि
जान लेना चाहिए कि रूढ़िगत धर्म के प्रति आज का का संदेश दिया।
मानव किंचित भी विश्वास जुटाने में असमर्थ है। शास्त्रों
में यह बात कही गयी है कि केवल इसी कारण आज आज भी भौतिक विज्ञान की चरम उन्नति मानवीय
का मानव एवं विशेष रूप से बौद्धिक समुदाय एतं युवक चेतना को जिस स्तर पर ले गयी है वहाँ उसने हमारी
उसे मानने के लिए तैयार नहीं है। समस्त मान्यताओं के सामने प्रश्नवाचक चिन्ह लगा दिया है। समाज में परस्पर घणा एवं अविश्वास तथा आज वही धर्म एवं दर्शन हमारी समस्याओं का तथा व्यक्तिगत जीव में मानसिक तनाव एवं अशान्ति समाधान कर सकता है जो उन्मक्त दृष्टि से विचार के कारण विचित्र स्थिति उत्पन्न होती जा रही है। करने की प्रेरणा दे सके। भगवान महावीर ने मानवीय
एवं वैज्ञानिक सत्यान्वेषण में अनवरत प्रवृत्त श्रमण आज के और पहले के व्यक्ति और उसके चिन्तन परम्परा के धार्मिक सूत्रों के सहारे भटके हुए मानव में अन्तर भी है । सम्पूर्ण भौतिक साधनों एवं जीवन की को नवीन दिशा एवं ज्योति प्रदान की। बाहरी प्रदर्शन अनिवार्य बस्तुओं से वंचित होने पर भी पहले का व्यक्ति एवं दिखावे की प्रवृत्तियों पर प्रहार किया। निर्भय समाज से लड़ने की बात नहीं सोचता था; भाग्यवाद होकर घोषणा की कि प्रात: स्नानादि कर लेने से मोक्ष एवं नियतिवाद के सहारे जीवन को काट देता था। नहीं होता; जो प्रातः संध्या जल स्नान कर लेने से अपने वर्तमान जीवन की सारी मुसीबतों का कारण मुक्ति बतलाते हैं वे अज्ञानी हैं, बहुत से मुक्ति बतलाने विगत जीवन के कर्मों को मान लेता था। अथवा वाले भी अज्ञानी हैं। बलि देनेवालों के काले कारअपने भाग्य का विधाता परमात्मा" को मानकर उसके नामों को उजागर करते हुए उन्होंने घोषणा की कि
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जीवों को दुःख देना मोक्ष का मार्ग नहीं है। धर्मों के जगत की अवहेलना हुई थी । आज के वैज्ञानिक युग आपसी भेदों के विरुद्ध आवाज उठायी तथा धर्म को में बौद्धिकता का अतिरेक व्यक्ति के अर्न्तगत की व्यापक आरोपित सीमाओं के घेरे से बाहर लाकर खड़ा किया सीमाओं को संकीर्ण करने एवं उसके बहिर्जगत की तथा कहा कि धर्म के पवित्र अनुष्ठान से आत्मा का सीमाओं को प्रसारित करने में यत्नशील है। आज के शुद्धिकरण होता है । धर्म न कहीं गाँव में होता है ओर धार्मिक एवं दार्शनिक मनीषियों को वह मार्ग खोजना न कहीं जंगल में बल्कि वह तो अन्तरात्मा में होता है जो मानव की बहिर्मुखता का भी विकास कर सके । है। उन्होंने धर्म साधनों का निर्णय विवेक और सम्यग् पारलौकिक चिन्तन व्यक्ति के आत्म विकास में चाहे ज्ञान के आधार पर करने की बात कही । जीवात्मा कितना ही सहायक हो किन्तु उससे सामाजिक सम्बन्धों ही ब्रह्म है यह मह वीर का अत्यन्त क्रान्तिकारी विचार की सम्बद्धता, समरसता एवं समस्याओं के समाधान में था जिसके आधार पर वे यह प्रतिपादित कर सके कि अधिक सहायता नहीं मिलती है । आज के भौतिकबाह्य जगत की कल्पित शक्तियों के पूजन से नहीं अपितु बादी युग में केवल वैराग्य से काम चलनेवाला नहीं अन्तरात्मा के दर्शन एवं परिष्कार से ही कल्याण सम्भव है। आज हमें मानव की भौतिकवादी दृष्टि को सीमित है । उनका स्पष्ट मत था कि वेदों के पढ़ने मात्र से करना होगा; भोतिक स्वार्थपरक इच्छाओं को संयमित उद्वार सम्भव नहीं है। उन्होंने व्यक्ति को सचेत किया करना होगा, मन की कामनाओं में त्याग का रंग कि यदि हृदय में परमाणु मात्र भी राग द्वेष है तो मिलाना होगा। आज मानव को एक और जहाँ इस समस्त आगमों का निष्णात होते हुए भी आत्मा को प्रकार का दर्शन प्रभावित नहीं कर सकता कि केवल नहीं जान सकता । उन्होंने आत्मा द्वारा आत्मा को ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है वहाँ दूसरी और भौतिक जानने की बात कही।
तत्वों की ही सत्ता को सत्य माननेवाला दृष्टिकोण
जीवन के उन्नयन में सहायक नहीं हो सकता । आज इस प्रकार महावीर की वाणी ने व्यक्ति की दृष्टि
भौतिकता और आध्यात्मिकता के समत्व की आवश्यकता को व्यापक बनाया; चितन के लिए सतत जागरूक
है। इसके लिए धर्म एवं दर्शन की वर्तमान सामाजिक भूमिका प्रदान की; आत्म साधना के निगढ़तम रहस्य
संदर्भो के अनुरूप एवं भावी मानवीय चेतना के निर्णाद्वारों को वैज्ञानिक ढ़ग से आत्म-बल के द्वारा खोलने
यक रूप में व्याख्या करनी है । इस संदर्भ में आध्याकी प्रक्रिया बतलायी तथा सहज भाव से सृष्टि के कणकण के प्रति राग-द्वेष की सीमाओं के परे करुणा एवं
त्मिक साधना के ऋषियों एवं मुनियों की धार्मिक अपनत्व की भावभूमि प्रदान की।
साधना एवं गृहस्थ सामाजिक व्यक्तियों की धार्मिक
साधना के अलग-अलग स्तरों को परिभाषित करना धर्म एवं दर्शन का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जो आवश्यक है। प्राणी मात्र को प्रभावित कर सके एवं उसे अपने ही प्रयत्नों के बल पर विकास करने का मार्ग दिखा सके।
धर्म एवं दर्शन का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जो ऐसा दर्शन नहीं होना चाहिए जो आदमी-आदमी के बीच वैज्ञानिक हो । वैज्ञानिकों की प्रतिपत्तिकाओं को खोजने दीवारें खड़ी करके चले धर्म को पारलौकिक एवं लौकिक का मार्ग एवं धार्मिक मनीषियों एवं दार्शनिक तत्वदोनों स्तरों पर मानव की समस्याओं के समाधान के चिन्तकों की खोज का मार्ग अलग-अलग हो सकता है, लिए तत्पर होना होगा। प्राचीन दर्शन ने केवल किन्तु उनके सिद्धान्तों एवं मूलभूत प्रत्ययों में विरोध अध्यात्म साधना पर बल दिया था और इस लौकिक नहीं होना चाहिए।
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आज के मनुष्य ने प्रजातंत्रात्मक शासन व्यवस्था एक द्रव्य तथा उसके गुणों एवं पर्यायों का अन्य द्रव्य को आदर्श माना है। हमारा धर्म भी प्रजातंत्रात्मक या उसके गुणों और पर्यायों के साथ किसी प्रकार का शासन पद्धति के अनुरूप होना चाहिए।
कोई सम्बन्ध नहीं है।
प्रजातंत्रात्मक शासन व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति इस दृष्टि से सब आत्मायें स्वतंत्र हैं: भिन्न-भिन्न को समान अधिकार प्राप्त होते हैं ! इस पद्धति के स्व- हैं, पर वे एक-सी अवश्य हैं। इस कारण उन्होंने कहा बता एवं समानता दो बहत बड़े जीवन-मूल्य हैं। इसके कि सब आत्मायें समान हैं, पर एक नहीं। समानान्तर दर्शन के धरातल पर भी हमें व्यक्ति मात्र
स्वतंत्रता एवं समानता दोनों की इस प्रकार की की समता एवं स्वतंत्रता का उद्घोष करना होगा।
परस्परावलम्बित व्याख्या अन्य किसी दर्शन में दुर्लभ है। आज ऐसे दर्शन की आवश्यकता है जो समाज के
महावीर ने उस मार्ग का प्रवर्तन किया जिससे सदस्यों में परस्पर सामाजिक सौहार्द एव बंधुत्व का गाना । साहाद एव बघुत्व का व्यक्ति-मात्र अपने ही बल पर उच्चतम विकास कर
भ वातावरण निर्मित कर सके । यदि यह न हो सका तो
सकता है। प्रत्येक आत्मा अपने बल पर परमात्मा बन किसी भी प्रकार की व्यवस्था एवं शासन पद्धति से ।
सकती है। उन्होंने प्रतिपादित किया कि जीव अपने ही समाज में शान्ति स्थापित नहीं हो पायेगी।
कारण से संसारी बना है और अपने ही कारण से इस दृष्टि से हमें यह विचार करना है कि भगवान
मुक्त होगा। व्यवहार से बंध और मोक्ष के हेतु अन्य महावीर ने ढाई हजार वर्ष पूर्व अनेकान्तवादी चिन्तन
पदार्थ को जानना चाहिए किन्तु निश्चय से यह जीव पर आधारित अपरिग्रहवाद एवं अहिंसावाद से संयुक्त
_स्वयं बंध का हेतु है और स्वयं मोक्ष का हेतु है। आत्मा जिस ज्योति को जगाया था उसका आलोक हमारे आज
अपने स्वयं के उपाजित कर्मों से ही वंधती है। आत्मा के अंधकार को दूर कर सकता है या नहीं।
का दुख स्वकृत है किन्तु व्यक्ति अपने ही प्रयास से
उच्चतम विकास भी कर सकता है क्योंकि आत्मा परिवर्तित युग के समयानुकल धर्म एवं दर्शन के सर्वकर्मों का नाश कर सिद्धलोक में सिद्धपद प्राप्त करने संदर्भ में जब हम जैन दर्शन एवं भगवान महावीर की की क्षमता रखती है। वाणी पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि जैन दर्शन
इसी कारण भगवान ने उद्घोष किया कि पुरुष समाज के प्रत्येक मानव के लिए समान अधिकार जुटाता है । सामाजिक समता एवं एकता की दृष्टि से स्वय हा अपना मित्र है 'पुरिसा! तुममेव तमं मित्तं ।'
उन्होंने जीव मात्र को आस्था एवं विश्वास का अमोघ श्रमण परम्परा का अप्रतिम महत्व है। इस परम्परा
' मंत्र दिया, कि बंधन से मुक्त होना तुम्हारे ही हाथ में मानव को मानव के रूप में देखा गया है; वर्ण, वादों,
में है। सम्प्रदायों आदि का लेबिल चिपकाकर मानव को बांटनेवाले दर्शन के रूप में नहीं । मानव महिमा का किन्तु इसके लिए आत्मार्थी साधक को जितेन्द्रिय जितना जोरदार समर्थन जैन दर्शन में हुआ है वह होना पड़ता है। समस्त प्रकार के परिग्रहों को छोडना अनपम है। भगवान महावीर ने आत्मा की स्वतंत्रता पड़ता है; रागद्वेष रहित होना पड़ता है। सत्य के की प्रजातंत्रात्मक उदघोषणा की। उन्होंने कहा कि साधक को बार-बार बाहरी प्रलोभन अभिभूत करते समस्त आत्मायें स्वतंत्र हैं। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। रहते हैं। साधना का पथ बार-बार विलासिता की उसके गुण और पर्याय भी स्वतंत्र हैं । विवक्षित किसी रंगीन चादर ओढ़ना चाहता है । धर्म की आड़ में अपने
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स्वार्थ की सिद्धि चाहनेवाले दलाल आध्यात्म के सत्य को भौतिकवादी व्यवस्थाओं से बार-बार डॅकने का प्रयास करते हैं । शताब्दी में एकाध व्यक्ति ही ऐसे होते जो धर्म के क्षेत्र में व्याप्त पाखण्ड कदाचार, अमानवीयता पर प्रहार कर वास्तविक सत्य का उद्घा टन करते हैं । उपनिषद्कार के युग में भी याज्ञिक धर्म की विकृतियाँ इतनी उजागर हो गई थीं कि उसे कहना पड़ा कि अमृत तत्व सोने के पात्र से हुआ है। मध्ययुगीन सतो ने भी धर्म के बाह्याडम्बरों पर चोट की । सन्त नामदेव ने 'पाखण्ड भगति राम नहीं रीझ' कहकर धर्म के तात्विक स्वरूप की ओर ध्यान आकृष्ट किया तो कबीर ने 'जो घर जारे आपना चले हमारे साथ' का आह्वान कर साधना पथ पर द्विधारहित संशयहीन मनःस्थिति से कामनाओं का सर्वथा त्याग कर आगे बढ़ने की बात कही । पंडित लोग पढ़ पढ़कर वेद बखानते हैं, किन्तु उसकी सार्थकता क्या है ? जीवन की चरितार्थता तो इसमें है कि आत्मविचार पूर्वक समदृष्टि की साधना की जावे और ऐसी साधना के बल पर ही दादूदयाल यह कहने में समर्थ हो सके कि काया अन्तर पाइया, सब देवन को देव ।" उपनिषदों में जिस 'तत्वमार्स' सिद्धान्त का उल्लेख हुआ है जैन दर्शन में उसी विचारणा की विकसित एव नवरूपायित अमि व्यक्ति है जहां प्राणी मात्र की स्वतंत्रता, समता एवं स्वावलम्बित स्थिति का दिग्दर्शन कराया गया है ।" संसार में अनन्त प्राणी हैं और उनमें से प्रत्येक में जीवात्मा विद्यमान है । कर्मबंध के फलस्वरूप जीवात्मायें जीवन की नाना दशाओं, नाना योनियों, नाना प्रकार के शरीरों एवं अवस्थाओं में परिलक्षित होती हैं किन्तु सभी में ज्ञानात्मक विकास के द्वारा उच्चतम विकास की समान शक्तियां निहित हैं।
जब सभी प्राणी अपनी मुक्ति चाहते हैं तथा स्वयं के प्रयत्नों से ही उस मार्ग तक पहुँच सकते हैं तथा कोई किसी के मार्ग में तत्वतः बाधक नहीं तब फिर किसी से संघर्ष का प्रश्न ही कहाँ उठता है ? शारीरिक
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एवं मानसिक विषमताओं का कारण कर्मों का भेद है। जीवन शरीर से भिन्न एवं चैतन्य का कारण है। जब सर्व कर्मों का क्षय होता है तो प्रत्येक जीव अनन्त ज्ञान, अनन्त श्रद्धा एवं अनन्त शक्ति से स्वतः सम्पन्न हो जाता है महावीर ने व्यक्ति के चरम पुरुषार्थ को ही नहीं जगाया; प्रज्ञा, विवेक एवं आचरण के बल पर अध्यात्म पथ का अनुवर्तन करनेवाले धार्मिक मानव को देवताओं का भी उपास्य बना विया । उन्होंने कहा कि अहिंसा, संयम एवं तप रूप धर्म की साधना करनेवाले साधक को देवता भी नमस्कार करते हैं।
इसके अतिरक्ति जैन दर्शन में अहिंसावाद पर आधारित क्षमा मंत्री, स्वसंयम तथा परप्राणियों को आत्म तुल्य देखने की भावना पर बहुत बल दिया गया है। आत्म स्वरूप को पहचानने में अपने को गलाना पड़ता है, ममत्व भाव को त्यागना पड़ता है और उस स्थिि में आत्मा को जानने का अर्थ 'सम्भाव' हो जाना होता है ।
आत्मानुसंधान प्रक्रिया में यदि व्यक्ति अपने को संसार की पूजा-प्रतिष्ठा का अधिकारी मान बैठता है तो साधना का दम्भ सारी तपस्या को निष्फल कर देता है उसे सदैव संपत सुव्रत, तपस्वी एवं आत्म- गवेषक रहना चाहिये। सतत् आत्मानुसधान ही साधना है। ऐसे साधक के मन में अपनी प्रशंसा सुनने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता क्योंकि वह सरकार तथा पूजाप्रतिष्ठा की इच्छा ही नहीं रखता, नमस्कार तथा वंदना कराने की भावना ही नहीं रखता 'स्व' को पूरी तरह से त्यागकर आत्म- गवेषक एक को जानकर सब को जान लेता है एक को जानने का अर्थ ही है सबको जानना तथा सबको जानना ही एक को जानना है । यह दर्शन साधना की परम्परा अविछिन्न रही और इसने 'इकाई' को परम परमार्थता, अनन्तता एवं सर्वव्यापकता के गुण प्रदान किये। जब शंकराचार्य 'अहं ब्रम्हास्मि' की बात करते हैं या कबीर "मैं सब हिन्ह
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महि औरनि मैं हैं सब" का स्वर गु जाते हैं तो जैन अपने को बाँधकर ही प्रेम का विस्तार होता है। दर्शन की इस विचारधारा के समीप पहुंच जाते हैं यह कर्मों का बंधन नहीं; संयम का सहज आचरण है। जहाँ जीव ही परमेश्वर हो जाता है। इतना अन्तर मन के कपाट खुल जाते हैं; जगत के समस्त जीवों में अवश्य है कि जहाँ शंकराचार्य एवं कबीर पिण्ड में अपनी आत्मातुल्यता दृष्टिगत होने लगती है; रागब्रह्माण्ड तथा ब्रह्माण्ड में पिण्ड की बात करते हैं वहाँ द्वष की सीमाओं से ऊपर उठकर व्यक्ति सम्यग् ज्ञान, जैन दर्शन में आत्मायें अनन्तानन्त हैं तथा परिणामी सम्यग् दर्शन एवं सम्यग् चारित्र्य से युगों-युगों के कर्मस्वरूप हैं किन्तु चेतना स्वरूप होने के कारण एक बंधन काट फेंकता है। इसी कारण भगवान ने कहा जीवात्मा अपने रूप में रहते हुए भी ज्ञान के अनन्त कि जो ज्ञानी आत्मा इस लोक में छोटे-बड़े सभी पयार्यों का ग्रहण कर सकती है।
प्राणियों को आत्मतुल्य देखते हैं, षटद्रव्यात्मक इस महान
लोक का सूक्ष्मता से निरीक्षण करते हैं तथा अप्रमत्तव्यक्ति की इच्छायें आकाश के समान अनन्त हैं।
भाव से संयम में रत रहते हैं-वे ही मोक्ष के अधिकारी आत्मार्थी साधक आम्यन्तर एवं वाह्य दोनों परिग्रहों
हैं। इसी कारण आचार्य समन्तभद्र ने भगवान महावीर को त्याग देता है। कामनाओं का अन्त करना ही दुख
के उपदेश को "सर्वोदय तीर्थ" कहा है। का अन्त है
आधुनिक बौद्धिक एवं ताकिक युग में दर्शन ऐसा उस स्थिति में साधक को वस्तु के प्रति ममत्व भाव
होना चाहिये जो आग्रह-रहित दृष्टि से सत्यान्वेषण की नहीं रह जाता। अपने शरीर से भी ममत्व छट
प्रेरणा दे सके। इस दृष्टि से जैन-दर्शन का अनेकान्तजाता है।
वाद व्यक्ति के अहंकार को झकझोरता है; उसकी उसी स्थिति में साधक की दृष्टि विस्तृत से विस्तृत- आत्यन्तिक दृष्टि के सामने प्रश्नवाचक चिन्ह लगाता है। तर होती है और उसे पता चलता है कि स्वरूपत. अनेकान्तवाद यह स्थापना करता है कि प्रत्येक पदार्थ में सभी आत्मायें एक हैं।
विविध गुण एवं धर्म होते हैं। सत्य का सम्पूर्ण
साक्षात्कार सामान्य व्यक्ति द्वारा एकदम सम्भव नहीं इसी कारण भगवान ने समस्त जीवों पर मैत्रीभाव
हो पाता। अपनी सीमित दृष्टि से देखने पर हमें वस्तू रखने एवं समस्त संसार को समभाव से देखने का
के एकांगी गुण-धर्म का ज्ञान होता है। विभिन्न कोणों निर्देश किया। 'श्रमण' की व्याख्या करते हुए उसकी
से देखने पर एक ही वस्तु हमें भिन्न प्रकार की लग सार्थकता समस्त प्राणियों के प्रति समदृष्टि रखने में
सकती है तथा एक स्थान से देखने पर भी विभिन्न बतलायी । समभाव की साधना व्यक्ति को श्रमण
दृष्टाओं की प्रतीतियाँ भिन्न हो सकती हैं। भारत में बनाती है।
जिस क्षण कोई व्यक्ति "सूर्योदय' देख रहा है, संसार भगवान ने कहा कि जाति की कोई विशेषता नहीं; में दूसरे स्थल से उसी क्षण किसी व्यक्ति को 'सूर्यास्त" जाति और कुल से त्राण नहीं होता; प्राणी माव आत्म- के दर्शन होते हैं। व्यक्ति एक ही होता है उससे तुल्य है। इस कारण प्राणियों के प्रति आत्मतुल्य भाव विभिन्न व्यक्तियों के अलग-अलग प्रकार के सम्बन्ध होते रखो; आत्मतूल्य समझो, सबके प्रति मैत्री भाव रखो, हैं। एक ही वस्तु में परस्पर दो विरुद्ध धर्मों का समस्त संसार को समभाव से देखो । समभाव के महत्व अस्तित्व सम्भव है । इसमें अनिश्चितता की मन:स्थिति का प्रतिपादन उन्होंने यह कहकर किया कि आर्य बनाने की बात नहीं है; वस्तु के सापेक्ष दृष्टि से महापुरुषों ने इसे ही धर्म कहा।
विरोधी गुणों को पहचान पाने की बात है। सार्वभौमिक
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दृष्टि से देखने पर जो तत्स्वरूप है, एक है, सत्य है, करके अपनी सीमा नहीं मान लेता प्रत्युत समस्त नित्य है, वही सीमित एवं व्यावहारिक दृष्टि से देखने सम्भावित स्थितियों की खोज करने के अनन्तर परम पर अतत्, अनेक, असत्य एवं अनित्य है।
एवं निरपेक्ष सत्य को उद्घाटित करने का प्रयास
करता है । पदार्थ को प्रत्येक कोण से देखने का प्रयास करना चाहिये। हम जो कह रहे हैं-केवल यही सत्य है
स्याद्वादी दर्शन में "स्यात" "निपात" "शायद", यह हमारा आग्रह है। हम जो कह रहे हैं -- यह भी “सम्भवतः", "कदाचित्" का अर्थवाहक न होकर समस्त अपनी दृष्टि से ठीक हो सकता है। हमें यह भी देखना सम्भावित सापेक्ष्य गुणों एवं धर्मों का बोध कराकर चाहिये कि विचार को व्यक्त करने का हमारे एवं दूसरे ध्र व एवं निश्चय तक पहुंच पाने का वाहक है; "ब्यवहार" व्यक्तियों के पास जो साधन है उसकी कितनी सीमाएं में वस्तु में अन्तविरोधी गुणों की प्रतीति कर लेने के हैं । काल की दृष्टि से भाषा के प्रत्येक अवयव में उपरान्त "निश्चय' द्वारा उसको उसके समग्र एवं परिवर्तन होता रहता है। क्षेत्र की दृष्टि से भाषा के अखण्ड रूप में देखने का दर्शन है। हाथी को उसके रूपों में अन्तर होता है। हम जिन शब्दों एवं वाक्यों भिन्न-भिन्न खण्डों से देखने पर जो विरोधी प्रतीतियाँ से संप्रेषण करना चाहते हैं उसकी भी कितनी सीमाएं होती हैं उसके अनन्तर उसको उसके समग्र रूप में हैं । "राधा गाने वाली है" इसका अर्थ दो श्रोता अलग- देखना है। इस प्रकार यह संदेह उत्पन्न करनेवाला अलग लगा सकते हैं। प्रत्येक शब्द भी "वस्तु" को दर्शन न होकर सन्देहों का परीक्षण करने के उपरान्त नहीं किसी वस्तु के भाव को बतलाता है जो वक्ता एवं उनका परिहार कर सकनेवाला दर्शन है। यह दर्शन श्रोता दोनों के सन्दर्भ में बुद्धिस्थ मात्र होता है। तो शोघ की वैज्ञानिक पद्धति है । “विवेच्य" को उसके "प्रत्येक व्यक्ति अपने घर जाता है" किन्तु प्रत्येक का प्रत्येक स्तरानुरूप विश्लेषित कर विवेचित करते हुए "घर" अलग होता है । संसार में एक ही प्रकार की वर्गबद्ध करने के अनन्तर संश्लिष्ट सत्य तक पहुँचने वस्तु के लिए कितने भिन्न शब्द हैं -- इसकी निश्चित की विधि है । विज्ञान केवल जड़ का अध्ययन करता है। संख्या नहीं बतलायी जा सकती । एक ही भाषा में एक स्याद्वाद ने प्रत्येक सत्य की खोज की पद्धति प्रदान की ही शब्द भिन्न अर्थों और अर्थ-छायाओं में प्रयुक्त होता है। इस प्रकार यदि हम प्रजातन्त्रात्मक युग में वैज्ञानिक है, इसी कारण अभिप्रेत अर्थ की प्रतीति न करा पाने ढंग से सत्य का साक्षात्कार करना चाहते हैं तो पर वक्ता को श्रोता से कहना पड़ता है कि मेरा यह अनेकान्त से दष्टि लेकर स्याद्वादी प्रणाली द्वारा ही वह अभिप्राय नहीं था अपितु मेरे कहने का मतलब यह कर सकते हैं। था-दूसरे के अभिप्राय को न समझ सकने के कारण
महान वैज्ञानिक आइन्स्टीन का सापेक्षवाद एवं इस विश्व में कितने संघर्ष होते हैं ? स्याद्वाद वस्तु के
जैन दर्शन का अनेकान्तवाद वैचारिक धरातल काफी विरोधी गुर्गों की प्रतीतियों द्वारा उसके अन्तिम सत्य
निकट है। आइन्स्टीन मानता है कि विविध सापेक्ष्य तक पहुंच सकने की क्षमता एव पद्धति प्रदान करता है।
स्थितियों में एक ही वस्तु में विविध विरोधी गुण पाये जब कोई व्यक्ति खोज के मार्ग में किसी वस्तु के
जाते हैं। "स्यात" अर्थ की दष्टि से "सापेक्ष्य" के सम्बन्ध में अपने "सन्धान" को अन्तिम मानकर बैठ
सबसे निकट है। जाना चाहता है, तब स्याद्वाद संभावनाओं एवं शक्यताओं का मार्ग प्रशस्त कर अनुसन्धान की प्रेरणा आइन्स्टीन के मतानुसार सत्य दो प्रकार के होते देता है। स्याद्वाद केवल सम्भावनाओं को ही व्यक्त हैं-(1) सापेक्ष्य सत्य, और (2) नित्य सत्य ।
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आइन्स्टीन के मतानुसार हम केवल सापेक्ष सत्य वैज्ञानिक एवं सामाजिक दोनों तरह की समस्याओं का को जानते हैं; नित्य सत्य का ज्ञान तो सर्व विश्वदष्टा । अहिंसात्मक समाधान है। यह दर्शन आज की प्रजाको ही हो सकता है।
तन्त्रात्मक शासन-व्यवस्था एवं वैज्ञानिक सापेक्षवादी
चिन्तन के भी अनुरूप है। इस सम्बन्ध में सर्वपल्ली जैनदर्शन एकत्व एवं नानात्व दोनों को सत्य मानता है। अस्तित्व की दृष्टि से सब द्रध्य एक हैं,
राधाकृष्णन का यह वाक्य कि "जैन-दर्शन सर्व
साधारण को पुरोहित के समान धार्मिक अधिकार प्रदान अत: एकत्व भी सत्य है; उपयोगिता की दृष्टि से द्रव्य
करता है" अत्यन्त संगत एवं सार्थक है । "अहिसा परमो अनेक हैं अतः नानात्व भी सत्य है।
धर्मः" को चिन्तन-केन्द्रक मानने पर ही ससार युद्ध एवं वस्तु के गुण-धर्म चाहे नय-विषयक हो चाहे हिंसा का वातावरण समाप्त हो सकता है। आदमी के प्रमाण-विषयक, वे सापेक्ष होते हैं । वस्तु को अखण्ड भीतर की अशान्ति, उद्वेग एवं मानसिक तनावों को भाव से जानना प्रमाण-ज्ञान है तथा वस्तु के एक अंश यदि दूर करना है और अन्तत: मानव के अस्तित्व को को मुख्य करके जानना नयज्ञान है।
वनाये रखना है तो भगवान् महावीर की वाणी को
युगीन समस्याओं एवं परिस्थितियों के संदर्भ में व्याख्याविज्ञान की जो अध्ययन-प्रविधि है, जैन-दर्शन में
यित करना होगा। यह ऐसी वाणी है जो मानव-मात्र ज्ञानी की वही स्थिति है। जो नय-ज्ञान का आश्रय
के लिए समान मानवीय मूल्यों की स्थापना करती है। लेता है वह ज्ञानी है। अनेकान्तात्मक वस्तु के एक-एक
सापेक्षवादी सामाजिक संरचनात्मक व्यवस्था का अंश को ग्रहण करके ज्ञानी ज्ञान प्राप्त करता चलता
चिन्तन प्रस्तुत करती है; पूर्वाग्रह-रहित उदार दृष्टि से है । एकान्त के आग्रह से मुक्त होने के लिए यही पद्धति
एक-दूसरे को समझने और स्वयं को तलाशने-जानने के ठीक है।
लिए अनेकान्तवादी जीवन दृष्टि प्रदान करती है। समाज इस प्रकार भगवान महावीर ने जिस जीवन-दर्शन के प्रत्येक सदस्य को समान अधिकार एवं स्व-प्रयत्न को प्रतिपादित किया है, वह आज के मानव की मनो- से विकास करने का साधन जुटाती है।
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महावीर
CT
साम्यवाद
परिपूर्णानन्द वर्मा
आजकल साम्यवाद की बड़ी चर्चा है और बहुत से लोग जानना चाहते हैं कि महावीर का मत इस विषय में क्या है। साम्यवाद के लिये "सोशलिज्म" शब्द सबसे पहले सन 1838 में फ्रांस के पियर लूरे ने गढ़ा था। इसका सक्रिय रूप बनाने में 18-19 वीं सदी में सेंट साइमन, टाम पेन, विलियन गोडविन और विलियन गौडविन ने भूमिका तैयार की थी। फ्रांस के फुटियर तथा इग्लैंड के रौबर्ट औवेन ने इसकी रूप रेखा तैयार की पर इसका वास्तविक रूप कार्लमाक्स तथा फ्रीडरिश एंजीला के सन् 1848 की विज्ञप्ति में प्रकट हुआ। इसी को, इसी साम्यवाद को "कम्यूनिज्म' कहते हैं। चूंकि कम्यूनिज्म में ईश्वर को कोई स्थान नहीं है इसीलिये कुछ लोगों का विचार है कि जैन साम्यवाद के अधिक निकट हैं। पर इसी विदेशी साम्यवाद के लिये जर्मन कवि हीनरिश हीन (1797-1856) ने लिखा था कि "यह भूख ईर्ष्या तथा मृत्यु का दूत है।" आज की स्थिति में यह बात सत्य से दूर नहीं है। एक अमेरिकन पादरी एफ. डी. हटिंगटन (1819-1904) ने लिखा था कि “साम्यवाद स्वतंत्रता तथा समानता के लिये अंधी भूख है।" एबनेजेर इलियट (1781-1849) नामक ब्रिटिश कवि ने इसे "अपना एक पैसा देकर आपका एक रुपया छीनने वाला" वाद कहा था। आजकल लोग क्या कहते हैं, यह हम देना नहीं चाहते। राजनीति पर हम नहीं लिख
महावीर का साम्यवाद इन सभी दोषों से मुक्त है। जब वे कहते हैं कि हर एक में प्राण हैं, जीव है, किसी को कष्ट न दो, सबको अपने समान समझो, "जीओ और जीने दो", "धन का संचय मत करो", "अपरिग्रह धारण करो", "धन देने के लिये है", सम्मृद्धि का अभिमान
छोड दो, दान करो, अपना धन बांट दो, मन बचन या कर्म से भी न किसी का कुछ अपहरण . करो, न कष्ट पहचाओ, तब साम्यवाद में और क्या बाकी रहा। दूसरे की सम्पत्ति छीनना
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अस्थायी साम्यवाद है। हिंसक साम्यवाद है। अपनी जिस धर्म में केवल अपने आपको जीतना सबसे सम्पत्ति दूसरों में बाँटकर उपयोग करना अहिंसक बड़ी विजय हो, वह वास्तविक साम्यवादी धर्म है। साम्यवाद है । महावीर कहते हैं :
आज के लौकिक साम्यवाद से न कहीं सुख है, न कहीं
शान्ति, केवल अशान्ति का एक हाहाकार मचा हुआ है। जहाँ लाहौ तहाँ लोहो लाहा लोहो पवडढई ।
वह साम्यवाद संघर्षवाद बन गया है। अहिंसा और दो मासकय कज्जं कोडीए वि न निठ्ठियं ।।
स्याबाद में श्रद्धा रखने वाला अपहरणकर्ता नहीं हो जैसे लाभ होता है. वैसे लोभ होता है, लाभ से । सकता । भगवत् गीता में वणित समत्व की भावना तथा लोभ बढ़ता है। दो माशे सोने से पूरा होने वाला काम भगवान महावीर का समभाव ही असली साम्यवाद करोड़ से भी पूरा नहीं हुआ।
महावीर ने कितना सुन्दर बचन कहा है :वे कहते हैं :
निम्ममो निरहंकारो निस्संगो चत्तगारवो। सुवण्ण रूप्पस्स तु पव्वया भवे,
समोयो सब भूएसु तसेसु थावरेसु य ॥ सिया हु कैलास सभा असंख्या ।
"ममत्व रहित, अहंकार रहित, निर्लेप गौरव को नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि,
त्यागने वाला, त्रस और स्थावर सभी जीवों में समभाव इच्छा उ आगास समा अणन्तिया रखने वाला मुनि होता है।"
युग का वरदान कदाचित् सोने और चाँदी के कैलाश पर्वत के समान
जैन धर्म के मनोयोग, बचनयोग तथा कामयोग के असंख्य पर्वत हो जाये तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ जातको कोई नहीं काट सकता. हठयोग की कोई भी भी नहीं होता, क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त
क्रिया बिना इन तीन के पूरी नहीं हो सकती। जीव में दो प्रकान के भोग होते हैं--अभिसंधिभोग--जिसमें वह
अपने से काम करता है जैसे चलना, उठना, काम करना, पुनः कहा है :
तथा दूसरा है अनुभिसंधि योग जो कार्य निद्रा. ध्यान, "धणेण किं धम्मधूराहिगारे।"
चिन्तन के समय होता रहता है। जीव का यही चैतधन से धर्म की गाढ़ी कब चलती है। न्यत्व है। जीव अजीव का संभोग, जीव पुद्गल तथा "न ए नित्तासए परम ।"
पर्याय के सिद्धान्त, पदार्थ द्वारा कर्म बंधन इनको दूसरों को त्रस्त मत करो।
वैज्ञानिक रूप से भी जिसने समझने की चेष्टा की, वह
इस "सत्य" की गरिमा को स्वीकार करेगा, चाहे वह महावीर के अनुसार :
किसी धर्म के सम्बन्ध में भी विवेचन करे। जैन दर्शन
ने दुष्कर्म का विचार उठाना भी पाप और बन्धन का सले कामी विसे कामा आसी विसोवमा ।
कारण बतलाया है। आज का न्याय शास्त्र "विचार कामे पत्थेमाणा अकामा जन्ति दो गई ।
या नीयत" पर बहुत जोर देता है । बौद्ध धर्म में "काम भोग शल्य हैं, विष हैं और आशी विष सर्प "गुप्त गुण" कहा गया है जिसमें कि मनुष्य बिना किसी के तुल्य है। काम-भोग की इच्छा करने वाले, उनका की जानकारी के सद्विचार रखता है और उसका पालन सेवन न करते हुए भी दुर्गति को प्राप्त करते हैं।" करता है।
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जैन धर्म के सदाचार में सद्विचार परम "महावीर के उपदेश एक उस विजयी आत्मा के आवश्यक है। महावीर ने पर्याय की, द्रव्य की पुद्गल विजय गान के समान हैं जिसने इसी संसार में छुटकारा की जो व्याख्या की है तथा जीव-अजीव, जीव तथा स्वतंत्रता तथा मुक्ति प्राप्त कर ली है--उनके आदेश पदार्थ की जिस मिलीजुली सत्ता का विवेचन किया है, हर एक के लिये अनिवार्य नहीं हैं। जो बिना उनको स्वीउसी को दूसरे शब्दों में तपस्वी अरविन्द घोष ने भी कार किये भी अनुभव से ज्ञान प्राप्त किये बिना ही उस स्वीकार किया है।
मार्ग पर चलने लगते हैं, वे भी अपनी आत्मा की एक
स्वरिता नष्ट होने से और उसके गन्दला होने के भय जैन धर्म की प्राचीनता के बारे में अब कोई विवाद से वच जाते हैं।" भी नहीं रहा। जैकोबी के अनुसार पार्श्व ऐतिहासिक
डा. फैलिक्स वाल्वो लिखते हैं :-- सत्य हैं । लेखक कीथ के अनुसार पार्श्व का जन्म ईसापूर्व 740 में हुआ था। जैन महापुराण (उत्तर
__ "बिना किसी शंका या सन्देह के, निश्चय पूर्वक पुराण, पर्व 74, पृष्ठ 462) के अनुसार पाश्वे महावीर महावीर अपने ही उदाहरण से यह दिखला देते हैं कि के पूर्व 23वें तीर्थकर थे । पार्श्व के शिष्य श्री कुमार मानव के मस्तिष्क को किस प्रकार संयम में लाया जा ने महावीर के पिता को जैन धर्म की दीक्षा दी थी ।
सकता है और उस पर ऐसा अनुशासन हो सकता है डा. बाथम ने पार्श्व द्वारा जैन धर्म के प्रचार का वर्णन
कि एक ही जीवन में उच्चतम बौद्धिक तथा आध्यात्मिक किया है। डा. ग्लसेनेप ने अपने ग्रंथ में लिखा है कि
सीमा पर पहुंच जाय।" बौद्ध धर्म के बहुत पहले से जैन धर्म भारत में प्रचलित था।
उत्तर पुराण (74/2) के अनुसार इनके वाल्य
काल में ही वर्धमान का दर्शन कर उनके तेज को देखकर महावीर ने पुरानी श्रमण परम्परा को और जाग
संजय तथा विजय नामक दो तपस्वियों ने उनका नाम रूक और परिपक्व किया है। डा. अलफ्रेड पार्कर के "सन्मति" रखा था। महावीर कलियुग के वरदान हैं। शब्दों में :
हम उनसे "सन्मति" की याचना करते हैं ।
"महावीर के विचार-मानव कर्त्तव्य शास्त्र की उच्चतम अभिव्यक्ति हैं । अहिंसा का महान नियम, सबसे बलवान मौलिक सिद्धान्त है जिसके आधार पर मानव मात्र के कल्याण के लिये एक नैतिक जगत की रचना हो सकती है।"
आज मनुष्य पुनः विचार करने लगा है कि आत्मचिन्तन तथा एकान्त में स्वरूप लक्षण कितना आवश्यक है। बिना आत्म-चिन्तन हम असली तत्व तक नहीं पहुँच सकते । स्वामी सत्यानन्द सरस्वती ने सन् 1975 में ही प्रकाशित अपनी पुस्तक में लिखा है कि बिना आत्मचिन्तन के आत्म ज्ञान नहीं ही सकता। पूरी मीमांसा के साथ जैन मत यही कहता है ।
इतालियन विद्वान डा. अलबर्टी पोगी लिखते हैं: -
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विश्व शान्ति के सन्दर्भ में तीर्थंकर महावीर का सन्देश
प्रजातन्त्र की रक्षा और स्थायी शान्ति की स्थापना के नाम पर लड़े गए द्वितीय विश्वयुद्ध के अन्तिम दौर में अमरीका द्वारा नागाशाकी और हीरोशिमा पर बमवर्षा के माध्यम से
युद्ध विजय का मार्ग प्रशस्त हो जाने ० यू० एन० वाच्छावत
के बाद से विश्व की प्रमुख शक्तियों में अणु आयुधों की ऐसी होड़ मची,
जिसने आज उन्हें प्रगति के उस सोपान सम्पूर्ण विश्व आज अशान्ति और असुरक्षा के गम्भीर दौर से गुजर तक पहुंचा दिया है, जहाँ से कुछ क्षण रहा है । सम्पूर्ण मानव समाज युद्ध की विभीषिका से भयग्रस्त है। विकास में ही सम्पूर्ण मानव सभ्यता को समाप्त के कालचक्र में मानव सभ्यता को भौतिक प्रगति के क्षेत्र में उल्लेखनीय किया जा सकता है । परिणामस्वरूप उपलब्धियाँ प्राप्त कर जहाँ एक ओर भौतिक दृष्टि से सशक्त एवं विकास- विश्व के प्रमुख शक्तिशाली देश दो शील बनाया है वहाँ दूसरी ओर मानवीय पक्ष की दृष्टि से वह नित्य खेमों में वेट गए, और कई छोटे और प्रति निर्बल होती जा रही है। भौतिक प्रगति की दौड़ में अंधी वर्तमान अशक्त देश असुरक्षा के भय से उनके सभ्यता का रुख मानव कल्याण से हटकर शक्ति उपार्जन की ओर हो साथ हो लिये। जाने के परिणामस्वरूप मानवीय आधारों पर भोतिक प्रगति की स्थापना की दिशा से हटकर, माननीय समाज व्यवस्था भौतिक आधारों पर
विश्वविजय की दुष्कल्पना की निर्भर होती गई। भौतिक प्रगति के नित नए कीर्तिमानों की स्थापना
अंधी दीड़ में इन विश्व शक्तियों ने ऐसे की होड़ में मानव सभ्यता जितना अधिक भौतिकवादी जंजाल में फंसती
अस्त्र-शस्त्र निर्माण कर लिये हैं,
जिससे जितना विपक्षी के अस्तित्व को रही, मानवीय मूल्य उतने ही अधिक नष्ट होते रहे।
भय है, उनके स्वयं के आस्तित्व को - यों तो इतिहास के पृष्ठ सत्ता लिप्सा के कारण होनेवाले युद्धों, नर- भी उससे कम भय नहीं हैं । संहार और रक्तपात जैसी हिंसात्मक घटनाओं से भरे पड़े हैं। घणा, आज यह स्पष्ट है कि यदि देष और सत्तालिप्सा के कारण समय-समय पर तथाकथित योद्धाओं तीसरा विश्वयुद्ध हआ तो उसमें इन एवं राजनेताओं द्वारा राजनीतिक एवं धार्मिक कारणों से "शान्ति के संहारक आयुधों का प्रयोग निश्चित है, लिये युद्ध" की दुहाई देकर जन शक्ति को युद्ध की विभीषिका में झोंक- जो सम्पूर्ण मानव सभ्यता को नष्ट कर कर मानवीय मल्यों का गला घोंटा जाता रहा है। इसी शताब्दी में देगा। परिणामस्वरूप वड़ी शक्तियाँ पिछले दो विश्वयुद्ध भी इसी आधार पर लड़े गए, परन्तु इन सबके भी विश्वयूद्ध से बचने को तत्पर तो बावजद भी मानव सभ्यता के अस्तित्व को इतना बड़ा खतरा कभी नहीं रहीं, पर उनके मध्य व्याप्त प र रहा जितना आज है।
स्वार्थ पोषण, सत्ता लिप्सा तथा
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वैचारिक संघर्ष ने "शीत युद्ध' को जन्म दिया 1 करते हैं।" इस प्रकार महावीर ने प्राणीमात्र पर दया जिस मानवीय स्वरूप में इसका संचालन हआ है उसने करने और उनसे समान व्यवहार का विचार देकर यह स्पष्ट कर दिया है कि शीतयुद्धों और गृहयुद्धों का उच्चतम अहिंसक प्रतिमानों की स्थापना की। बिस्तार आज किसी भी समय ऐसे विश्वयुद्ध का रूप ले अहिंसा ब्रत के पालन में उन्होंने प्राणीमात्र पर सकता है जो सम्पूर्ण मानव सभ्यता को नष्ट कर दे। दया करने और वैचारिक एवं व्यावहारिक दोनों ही
अशान्ति और सुरक्षा के इस खतरनाक दौर के स्वरूपों में प्रत्येक जीव के प्रति दयामय रहते हुए उनसे मूल में झांकने और उसके निदान पर विचार करने समान व्यवहार करने पर बल दिया। उन्होंने अहिंसा पर बरबस ही हमारी दृष्टि उन सारी बातों पर ही की सकारात्मक व्याख्या की और कहा कि "सभी प्राणी जाकर ठहरती है जो तीर्थंकर महावीर ने आज से समान है, सभी जीवों की आत्मा एक-सी है, कोई पच्चीस शताब्दियों पूर्व कही थीं। तीर्थ कर महावीर किसी से ऊँचा या नीचा नहीं है। इस कारण सभी का यग भी हिंसा, घणा, द्वेष, विषमता और वैमनस्य जीवों को दूसरे प्राणियों से वैसा व्यवहार करना के विषाक्त वातावरण से ग्रस्त था । वर्तमान महावीर चाहिए, जैसा कि वह दूसरों से अपेक्षा करता है।" इसी वातावरण से प्रेरणा ग्रहण कर, राजपाट छोड़, इस प्रकार महावीर ने समाज की इकाई मनुष्य के मानव समाज को अशान्तिपूर्ण वातावरण से मुक्त कराने व्यक्तिगत जीवन में अहिंसक रहने, सदाचरण का पालन का मार्ग खोजने को सकल्पबद्ध हो, स्थायी शांति की कर राजन रित्र बनने पर बल दिया। खोज में निकल पड़े। अनेकों वर्षों की कठोर साधना आज विश्व शान्ति को खतरा होने का मूल कारण और चिन्तन के पश्चात केवलज्ञान की स्थिति को यही है कि उसमें राष्ट्र या वर्ग के अस्तित्व पर तो प्राप्त कर महावीर ने प्राणीमात्र के कल्याणार्थ जो अत्यधिक महत्व दिया जा रहा है, उसकी प्रगति की सन्देश दिया, उसका मूलाधार उनका सत्य, अहिंसा, बात की जाती है, परन्तु उसके समक्ष व्यक्ति को, प्रेम, करुणा, सहअस्तित्व, अपरिग्रह, अनेकान्तबाद और अर्थात मानवीय जीवन और चरित्र को गौण बना दिया स्याद्वाद का शाश्वत सन्देश है।
गया है। महावीर ने प्रत्येक इकाई के सुधार पर बल तीर्थंकर महावीर ने कहा कि "सभी प्राणियों को दिया और सभी के प्रथक् प्रथक् अस्तित्व को स्वीकारा अपना जीवन प्यारा है, सुख सबको अच्छा लगता हैं, महावीर ने न केवल प्राणीमात्र की रक्षा पर वरन् दुःख बुरा। सभी जोवों के प्रति मैत्री भाव रखना पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के जीवों की चाहिए। संसार में जितने दुःख हैं, वे सब हिंसा से रक्षा पर भी बल दिया। उन्होंने किसी प्राणी की हत्या उत्पन्न हैं, अत: किसी की हिंसा मत करो, किसी को को ही हिंसा नहीं कहा, वरन् मन में या वैचारिक त्रास मत पहुँचाओ" उन्होंने न केवल मनुष्य पर वरन दृष्टि से किये गये हिंसक कार्यों के समर्थन को भी हिंसा प्राणीमात्र पर दया का उपदेश दे, हिंसा को ही सभी कहा । आज जब कहीं शान्ति की बात की जाती है, दुःखों का कारक तत्व बताया । इस कारण उन्होंने जीवन वहाँ केवल युद्ध को टालने अथवा मानवीय हिंसा से में अहिंसा ब्रत का पूर्ण पालन करने को प्रेरित कर कहा, विरत रहने को ही अहिंसा मानकर विचार होता है, "जो स्वयं के लिए तुम्हें नहीं रुचता है. उसका व्यवहार जबकि मन की हिंसा या वैचारिक हिंसा पर न तो दूसरों के लिए मत करो। किसी भी प्राणी का घात विचार ही होता है, न ही कोई उसे छोड़ने को तैयार मत करो। जिस प्रकार तुम्हें सुख-दुःख का अनुभव होता है। यही कारण है कि स्थायी विश्व शान्ति की स्थाहै उसी प्रकार दूसरे प्राणी भी सुख-दुख का अनुभव पना की दिशा में किए गये प्रयास विफल हो जाते हैं ।
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आज में राजनीतिज्ञ युद्ध को स्थायी शान्ति स्थापना के दोनों के साध्य समान हैं, केवल साधनों का ही अन्तर लिए प्रयास निरुसूति करने लगे हैं, और युद्ध विराम है, क्योंकि महावीर का अपरिग्रहवाद अहिंसामूलक को शान्ति स्थापना । उनकी नजर में युद्ध विजय से समाजवाद का जनक है, अहिंसा उसकी आत्मा है, बड़ी वीरता और युद्ध विराम से बड़ी शान्ति नहीं है। जिससे उसे अलग नहीं किया सकता । इस प्रकार यही सबसे बड़ा भ्रम है । यही सबसे बड़ा छल है, जो महावीर का अपरिग्रहवाद अहिंसामूलक समाजवाद राजनीतिज्ञ और कूटनीतिज्ञ मानवता के साथ खेल रहे की स्थापना पर बल देता है, जो कि विचारधाराओं अर्थशास्त्रों के बल पर युद्ध क्षेत्र में निर्बल पर विजय के नाम पर विश्वशान्ति को उत्पन्न खतरे से मुक्ति का प्राप्त कर लेने में कौन-सी बहादुरी है, बहादुरी तो सर्वोत्तम हल है ।। हिंसक के सम्मुख भी निश्चल, निष्काम भाव से निडर महावीर ने अपने सारे दर्नन में विभिन्न सत्रों की होकर स्थिर रहने और बुराई तथा हिंसा का आत्मबल श्रखला में जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण और नितान्त के द्वारा मुकाबला करने में है । इस प्रकार अहिंसा मौलिक सत्र दिया वह है उनका अनेकान्त दर्शन जो वीरों का अस्त्र है, आज मानव जाति को इसके पालने विभिन्न विचारधाराओं के समन्वय पर बल देता है। की नितान्त आवश्यकता है । हिंसा से निर्मिक शान्ति, इस दर्शन ने वैचारिक व्यापकता के द्वार खोल दिए. मरघट की ही शान्ति हो सकती है, किन्तु स्थायी शान्ति इस दृष्टि से यह सर्वाधिक प्रगतिशील विचार है जिसमें केवल अहिंसा के द्वारा ही संभव है ।
बस्तु को एकांगी स्वरूप से न देखकर विभिन्न दृष्टियों अहिंसा के अतिरिक्त जिन अन्य बातों पर महावीर के समन्वय करने को कहा गया है। अनेकान्त दर्शन ने सर्वाधिक बल दिया वह है समतावाद और अपरि- हठवादिता, एकांगी दृष्टिकोण एवं दुराग्रह रूपी दोषों ग्रहवाद । उन्होंने कहा कि सभी जीव समान हैं, उनमें को समाप्त कर व्यापक दृष्टिकोण अपनाने पर बल आत्मा का समान अस्तित्व है, अतः सभी के अस्तित्व देता है । आज इन दोषों के कारण भी विश्वशान्ति को को स्वीकारा जाना चाहिए। महावीर का समतावाद, प्रमुख खतरा है। राष्टों के मध्य परस्पर विश्वास का आज भी विश्व के कई क्षेत्रों में व्याप्त रंगभेद, वर्गभेद
अभाव है, उनकी तीतियों के क्रियान्वयन और राजजाति एवं वर्णभेद का सर्वोत्तम हल है । ये भेद आज
नीतिक विचारों एवं प्रणाली में एकांगी दृष्टिकोण भी विश्वशान्ति के मार्ग में बाधा और मानवता के
निहित होने से भी स्थायी विश्वशान्ति स्थापित नहीं माथे पर कलंक के रूप में बाधक आर्थिक हो पा रही है। कुछ शान्तिप्रिय देशों तथा राजनीतियों वैवम्व एवं शोषण प्रकृति से मुक्ति के लिये महावीर ने द्वारा प्रदत्त गुट निरपेक्षता के विचार के मल में अपरिग्रहवाद का सन्देश दिया। उन्होंने वस्तु या धन हमें अनेकान्त दर्शन ही सरलक्षित होता है । से लगाव या ममत्व को अपरिग्रह कह इससे विमुक्त
इस प्रकार विश्वशान्ति की स्थापना परिप्रेक्ष्य रहने पर बल दिया और कहा कि आवश्यकता से में जब भी हम तीर्थकर महावीर के दर्शन पर विचार संग्रह मत करो, साथ ही अपनी आवश्कताओं को भी करते हैं तो आज भी वह उतना ही नूतन, मौलिक,
नाकानि एवं शाश्वत प्रतीत होता है । उनके हश्चात पच्चीस
शताब्दियां बीत जाने पर भी अहिंसा, समता, अपरिकी उन्नायक मार्क्सवाद और समाजवादी विचार
ग्रह और अनेकान्त के सिद्धांत स्थायी विश्व शाति की धाराओं के परिप्रेक्ष्य में यदि हम महावीर के अपरिग्रह
स्थापना हेतु उतने ही शाश्वत और कारगल हैं जितने वाद पर दृष्टिपात करें तो निश्चित रूप से वह इनसे बे उनके काल में थे आज भी उनमें स्था भी कहीं अधिक प्रगतिशील सिद्धांत प्रतीत होता है, की स्थापना का मार्ग निहित है।
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भारतीय क्षितिज पर उदित महापुरुषों की महान परम्परा में तीर्थकर महावीर एक ऐसे महामानव थे जिन्होंने प्रचलित परम्परागत मान्यताओं से हटकर उच्चतम मानवीय मूल्यों की स्थापना की। उनसे पूर्व का समाज परम्परागत तथा कृत्रिम मूल्यों पर आधारित होने से विषमता, पाखण्ड, अन्धविश्वास, रूढ़िग्रस्तता तथा संकुचित भावनाओं के प्रभाव के कारण जर्जरित होता जा रहा था । चन्द-उच्च सत्ता, प्रतिष्ठा एवम् अधिकार प्राप्त शक्तिशाली व्यक्तियों का सम्पूर्ण मानव समाज व्यवस्था पर नियन्त्रण था। इसे स्थिर रखने के उद्देश्य से उन्होंने समाज में ऐसी दूषित व्यवस्था को जन्म दे रखा था जिसमें मानवीय मूल्यों को तिलांजलि दे दी गई थी।
Sama
30 मार्च, ई. पू. 599 (चैत्र शुक्ला त्रयोदशी) को वैशाली के राजपरिवार में जन्मे राजकुमार बर्द्धमान ने तत्कालीन परिस्थितियों से प्रेरणा ग्रहण कर, श्रमण तीर्थ करों की परम्परा को आगे बढ़ाते हए अहिंसा
मानव धर्म के प्रणेता तीर्थंकर महावीर
को समतामयी भूमिका में प्रतिष्ठित कर उस युग की चिन्तनधारा को सर्वत्र चुनौती दी । शास्वत एवम् सर्वागीण दर्शन के माध्यम से उन्होंने तत्कालीन समाज में व्याप्त दोषपूर्ण व्यवस्था के विभिन्न पक्षों, ईश्वरवाद, पाखण्डवाद, वहुदेवोपासना, कर्मकाण्ड, लोकभाषा का अभाव, नरबलि, पशवलि तथा नारी जाति के साथ दुर्व्यवहार जैसी कुप्रथाओं एवं व्यवस्थाओं से ग्रस्त सामाजिक व्यवस्था पर प्रहार कर मानवीय जीवन के मौलिक पक्ष को प्रस्तुत कर मानवीय मूल्यों की स्थापना की।
सरदारसिंह चोरडिया
वर्ण व्यवस्था का खण्डन :
वर्द्धमान महावीर को जिस व्यवस्था के विरुद्ध सर्वाधिक संघर्ष करना पड़ा, वह थी तत्कालीन समाज में प्रचलित वर्ण व्यवस्था, जो जन्मना जाति के सिद्धान्त पर आधारित होने से विषमता की प्रमुख
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घटक थी ब्राह्मण जन्मना उच्च एवं शुद्र जन्मना तुच्छ, इस मान्यता पर आधारित व्यवस्था ने मानव-मानव में बहुत बड़ा भेद पैदा कर दिया था । महावीर ने इस व्यवस्था का तर्कसंगत खण्डन कर तत्कालीन समाज को आन्दोलित कर दिया।
तीर्थ कर महावीर ने सभी वर्ण और जाति के लोगों को समान मानव कहा। वर्द्धमान महावीर स्वयं जन्मजात जैन नहीं थे। जन्म से वे क्षत्रिय वर्ण के कुल में पैदा हुए थे। उन्होंने आत्मविजय द्वारा द्वेष व मोह का नाश कर आत्मा को जीता, इस कारण वे जिन कहलाए। उनके समवशरण के द्वार न केवल मानव मात्र को वरन प्राणीमात्र को खुले थे । उसमें सभी मिलजुलकर बैठते थे। उन्होंने बारह वर्ष की कठोर तपस्या के पश्चात निरंतर तीस वर्ष तक भ्रमण कर ज्ञानियों, अल्पशों उच्च एवं दलितों तथा छत एवम् अछूतों को जैन धर्म में दीक्षित कर समाज में प्रचलित अन्याय, अत्याचार, कुप्रथा एवं दुराचार के विरुद्ध आवाज उठायी और सन्मार्ग दिखाया उनके संघ में भी सभी वर्ग व जाति के लोग थे, उनके गणधर इन्द्रभूति आदि ब्राह्मण कुलोत्पन्न तथा अनेकों श्रावक-श्राविकाएं वैश्य कुल की थीं। उनके शिष्यों में सकड़ाल कुम्हार, अर्जुन माली, कंसा डाकू, अनुरक्त भद्रा नामक राज कर्मचारी की बेटी तथा पापी और नीच समझे जानेवाले लोग भी थे ।
दलितोद्धार :
प्राणीमात्र के मध्य समानता स्थापना का विचार देकर उन्होंने मानव समाज में व्याप्त भय, कायरता, दुराग्रह पाखण्ड एवं अन्धविश्वास को दूर किया तथा पतितों एवं दीनों को गले लगाया और धार्मिक जड़ता तथा अन्य श्रद्धा को तोड़कर जातिभेद व सामाजिक वैषम्य के विरुद्ध लोकमत जाग्रत किया तथा सुदूर क्षेत्रों में अपने उपदेश दे, जन जागरण कर सामाजिक
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क्रांति का सूत्रपात किया। दलितों एवं शोषितों के प्रति अन्याय से व्यथित महावीर ने उनके उद्धार को अपना एक प्रमुख लक्ष्य बनाया। वे जहाँ भी गए, उन्होंने ऐसे लोगों को प्राथमिकता दी । उन्होंने दृढ़ संकल्प हो, शूद्रों एवं एवं नारी जाति के लोगों को अपने धर्म में दीक्षित किया। हरिकेशी चांडाल, सहासपूत कुम्भकार और दासी चन्दवाला (स्त्री) के लिए उन्होंने धर्म के द्वार खोल दिए बिहार करते समय एक बार पोलासपुर गाँव के भ्रमण में दौरान सकड़ाल कुम्हार की प्रार्थना पर वे सहर्ष उसके यहाँ ठहरे । इस प्रकार दलितों एवं शोषितों को समाज में समान एवं सम्मानपूर्ण स्थान दिलाने के लिए कटिबद्ध वर्द्धमान महावीर ने इस दिशा में नवीन क्रांति को जन्म दे उनके लिए आध्या त्मिक साधना के द्वार खोल दिए।
अवतारवाद का खण्डन :
तीर्थंकर महावीर ने पूर्व प्रचलित इस धारणा का, कि-"सृष्टि निर्माता ईश्वर ही सबका भाग्य विधाता है" खण्डन किया। उनसे पूर्व धर्मगुरू इस धारणा पर ही बल देते थे, उन्होंने इसकी व्याख्याओं में इसे और जटिल बनाते हुए "राजा को ईश्वर का अवतार " तथा "संस्कृत को देवताओं की भाषा" भी निरूपति कर दिया, और यह विश्वास जाग्रत एवं पैदा किया कि मनुष्य का कल्याण इस सृष्टि निर्माता ईश्वर की पूजा अर्चना से ही सम्भव है। राजा, पुरोहित एव पंडित स्वयं इस ईश्वर के प्रतीक एवं मध्यस्थ बन गए और उन्होंने ईश्वर की पूजा अर्चना को भी जाति तथा वर्ण विशेष का ही अधिकार घोषित कर दिया। इस सारी व्यवस्था ने समाज को बुरी तरह जकड़ रखा था। महावीर ने इन बन्धनों को तोड़ा और कहा कि सृष्टि का कोई निर्माता नहीं है, वह अनादि और अनंत है । यह दुनियाँ किसी एक ईश्वर के भरोसे नहीं चल रही है। उन्होंने बुद्धिवादी कर्मवाद की धारणा प्रचलित कर हर व्यक्ति को लोकभाषा में मोक्षमार्ग ढूंढ़ने का
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मन्देश दिया । इस धारणा का कि राजा ईश्वर का अवतार मनुष्य स्वयं भाग्यविधाता : है, संस्कृत देवताओं की भाषा है, और उसमें लिखे कुछ
तीर्थकर महावीर ने भाग्यवाद का खण्डन कर ग्रन्थ ईश्वरीय है, खण्डन कर उन्होंने कहा कि कोई भी
कहा कि मनुष्य स्वयं ही अपने भाग्य का विधाता है, ग्रन्थ ईश्वरीय नहीं है, वे मनुष्य की ही कृति हैं, मनुष्य
कोई अन्य शक्ति न तो उसके भाग्य को निर्धारित ही पहले आया और ग्रन्थ बाद में । राजा देव नहीं, न ही
करती है, न ही उसके कर्मों को संचालित । मनुष्य वह ईश्वर का अवतार हैं । महावीर ने कहा कि "राजा
भाग्य या कर्म के यंत्र का पूर्जा नहीं है, भाग्य मनुष्य को मनुष्य है, उसे देवता मत कहो, एक सम्पन्न मनुष्य कहो।"
नहीं बनाता, मनुष्य स्वयं ही अपने भाग्य का निर्माण देवों पर मानव की महानता :
करता है, वह स्वयं ही अपना भाग्य विधाता है। वह
स्वयं ही अपने सुख दुःख का कर्ता है। इस प्रकार तीर्थकर महावीर ने समकालीन मानव को मानव माना, तथा स्वयं को भी मानव ही कहा।
पुरुषार्थ पर बल : यही कारण है कि अन्य धर्मों की तरह जैन धर्म तीर्थ- सुख प्राप्ति के लिए तीर्थ कर महावीर ने पुरुषार्थ करों के साथ ईश्वरीय अवतार की धारणा नहीं जडी का सन्देश दे सहजता और स्वाभाविकता पर बल दिया है। वे तप व संयम द्वारा कर्मों को क्षय करके, आत्मा उन्होंने कहा कि-"तुम सुख-कहाँ ढूढ़ते हो, वह तो तुममें को साधना से पहचान कर, आत्मस्वभाव के रमण ही स्थित है, सुख बाहर नहीं भीतर है । जिस राग द्वेष, करने की प्रक्रिया से, तीर्थ कर बने । उन्होंने चरित्र की अपने पराए में तुम सुख दुःख की कल्पना कर रहे हो, आवश्यकता तथा पंच महाबत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, परिग्रह समृद्धि में सुख खोज रहे हो, वह सुख कहाँ है ? ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह के पालन पर बल दिया । वहाँ तो दुःख का अपरम्पार पारावार लहरा रहा है । उन्होंने स्पष्ट कहा कि कोई ईश्वरीय अवतार नहीं, “सुख अन्त: में स्थित है, जिसे पुरुषार्थ से ही प्राप्त सभी प्राणी समान आत्मा को ग्रहण करते हैं, देव किया जा सकता है।" मानव से उच्च नहीं, वरन् उनके आधीन हैं, जैन वाङ
कर्मवाद : मय में ऐसे अनेको उदाहरण भरे पड़े हैं जिनमें देवों द्वारा महामानवों की शरण व स्वागत सत्कार में उप- यही कारण है कि अपने जीवन दर्शन में तीर्थ कर स्थित होने के प्रसंग हैं, जवकि ऐसा एक भी उदाहरण महावीर ने कर्मवाद के मूलमंत्र का प्रयोग किया। नहीं जिसमें मोक्ष प्राप्ति हेत् ईश्वर या देवताओं उन्होंने कहा कि “सिर मुडाने मात्र से कोई श्रमण नहीं या उनके अवतारों की पूजा अर्चना का मार्ग अपनाया हो जाता, ॐ रटने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता,
उनने अनुसार प्रत्येक मानव सत्कर्मों के द्वारा वनवास भोगने से कोई मुनि नहीं बन जाता, बल्कि दुष्कर्मो को क्षय कर, आत्मसाधना के द्वारा ही मोक्ष समता से ही व्यक्ति श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ही को प्राप्त कर सकता है। तीर्थकर महावीर करुणा और ब्राह्मण, ज्ञान से ही मुनि तथा तप से ही तपस्वी। आदमी संवेदना के प्रतीक थे । उन्होंने कहा कि मनुष्य की क्षत्रिय, ब्राह्मण वैश्य, शूद्र सिर्फ अपने कार्य से बनता है।" मत्ता सर्वोच्च है। प्रत्येक आत्मा का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है, उसमें अनन्त शक्ति विद्यमान है । इस प्रकार मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से महान है : तीर्थकर महावीर ने देवों पर मानव की महानता सिद्ध तीर्थकर महावीर ने कर्मवाद की धारणा दे कर
यह कहा कि "मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से महान होता
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है।" जाति विशेष को ही मोक्ष की प्राप्ति का अधिकार ज्ञान एवं कर्म का सवन्वय : है इस धारणा का खण्डन कर उन्होंने कहा कि धर्म के
इसके लिए महावीर ने ज्ञान और कर्म के समन्वय पथ का अनुशरण जन्म द्वारा निर्धारित न होकर उसके
पर बल दिया। मोक्ष प्राप्ति के लिए उन्होंने सम्यक भावनारूपी कर्म पर आश्रित होता है । जैसा क्रिया
दर्शन, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक चरित्र रूपी रत्नत्रय के कमें होगा, वैसा ही उसका भोग होगा। जीवात्मा स्वयं
प्रमाणबद्ध समन्वय पर बल दिया । अकेला ज्ञान, कर्म करता है और स्वयं ही फल भोगता है और स्वयं
अकेला दर्शन अथवा अकेला चरित्र ही मनुष्य को दु:ख ही विश्व में भ्रमण करता है । तथा स्वयं बन्धन से
मुक्ति को और नहीं ले जा सकता। इसके लिए ज्ञान, सदा के लिए मुक्त भी हो जाता है। जैसा कर्म होगा,
दर्शन और आचरण का समन्वय आवश्यक है। ज्ञान वैसा मिलेगा। जब तक पूर्व कर्मों का क्षय नहीं होता
हीन कर्म और कर्महीन ज्ञान दोनों ही व्यर्थ हैं । ज्ञान तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता।
सत्य का आचरण और आचरिक सत्य का ज्ञान दोनों
ही आवश्यक हैं। शुद्ध आत्मा ही परमात्मा :
समन्वयवादी दर्शन : ___मोक्ष प्राप्ति के लिए महावीर ने आत्मशुद्धि पर
महावीर का दर्शन अत्याधिक व्यापक है जिसमें बल दिया। "शुद्ध आत्मा ही परमात्मा की धारणा दे उन्होंने कहा कि ईश्वरत्व प्राप्त करने के साधनों पर
सो समन्वयवाद पर बल दिया गया है। अनेकान्त एवं स्याकिसी वर्ग या व्यक्ति विशेष का अधिकार नहीं है।
द्वाद दर्शन का सिद्धान्त जैन दर्शन की ऐसी मौलिक वह तो स्वयं में स्वतन्त्र, मुक्त, निर्लेप और निविकार उपलब्धि है जिसने दर्शन शास्त्र के जगत में ज्ञान एवं है । हर व्यक्ति चाहे वह किसी जाति, वर्ग, धर्म या
विकास के नए द्वार खोल दिए हैं, तथा विश्व भर के
चिन्तकों को नई दिशा दी है। लिंग का हो, मन की शुद्धता और आचरण की पवित्रता के बल पर उसे प्राप्त कर सकता है । इसके इस प्रकार तीर्थकर महावीर ने ऐसे मानवधर्म की लिए आवश्यक है कि वह अपने कषायों, क्रोध-मान- स्थापना की जिसने प्राणीमात्र की मुक्ति का द्वार खोल मोह-लोभ को त्याग दें । मनुष्य को मोक्ष प्राप्ति के दिया और एक ऐसे जीवन दर्शन की स्थापना की लिए अपनी तृष्णा से, वैर से, क्रोध से, मोह से, बिलास, जिसने मानव जगत को नई दिशा तो दी ही, साथ ही अहंकार एवं प्रमाद से मुक्ति प्राप्त करना आवश्यक मानव समाज में उच्चतम मानवीय मूल्यों की स्थापना है । इनसे मुक्ति प्राप्त आत्मा ही शुद्ध आत्मा है और की, जो कि तीर्थकर महावीर के मानवधर्म की महत्व वही परमात्मा है।
पूर्ण उपलब्धि है।
do
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भगवान महावीर का सर्वोतरा शासन
सुमेर चन्द्र दिवाकर शास्त्री
असंयम और स्वच्छन्दता से सम्बन्धित आज के भयावह स्थिति : विज्ञान ने समस्त विश्व की बड़ी भयावह स्थिति उत्पन्न कर दी है । हिंसा का विषाक्त वातावरण और आध्या
प्रायः प्रत्येक राष्ट्र स्वार्थ की पराकाष्ठा पर त्मिक अंधियारी उप्र रूप से बढ़ रही है। बड़े-बड़े प्रतिष्ठित दिखाई दे रहा है। लोकनायकों की हार्दिक राष्ट्रनायक शान्ति, एकता, अहिंसा और शांतिपूर्ण
स्थिति का अकबर ने ठीक चित्रण क्यिा है: सहअस्तित्व (Peaceful co-existence) की सुमधुर
कौम के गम में पार्टियां खाते हैं हक्काम के साथ। चर्चा करते हैं, किन्तु वे प्रयास इसलिए विफल होते हैं कि उनके अन्तःकरण में सच्ची अहिंसा की भावना नहीं
रज लीडर को बहुत है, मगर आराम के साथ । है । वे लोग तो शेक्सपियर के नाटक मैकबेथ
विश्व शांति और अहिंसा की वाणी द्वारा चर्चा (Macbeth) के इन शब्दों के प्रतीक प्रतीत होते हैं।
करते समय हमारे मोननीय राजनीतिज्ञ करुणामय लेडी मैकबेथ अपने पति को मायाचार की इस प्रकार
आचरण की ओर तनिक भी ध्यान नहीं देते । डाइनिंग शिक्षा देती है,
टेबिल पर विश्व कल्याण की मंत्रणा करते समय ये
निरपराध पशुओं का मांस बड़ी रुचि से अपने उदर में Look like an innocent flower
प्रवेश कराते हुए तथा शराब को सूधा तुल्य मान पीते But be the serpent under it
हए अहिंसा के प्रकाश को खोजा करते हैं। ऐसी
आसुरीवृत्ति पूर्ण स्थिति में अहिंसा से भेंट होगी या तुम पुष्प के समान अपना निर्दोष रूप दर्शाना, किन्तु क्रूरतापूर्ण राक्षसी वृत्ति दिख पड़ेगी ? विश्वकवि रवि अपने हृदय में विषधर की घातक वृत्ति को छिपाए बाबू ने कहा था "महाशांति का संबंध 'महाप्रेम' के रखना (ताकि शत्रुडंकन का विनाश कार्य संपन्न हो साथ है" । खेद है कि आज लोग जीवन की पवित्रता सके) । आज राष्ट्र के कर्णधार हंस की मनोज्ञ मुद्रा (Sanctity of life) के स्थान में री की पवित्रता धारण कर बकराज का आचरण करते हैं।
(Sanctity of knife) को अपने अन्तःकरण में मान
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बैठे हैं भौतिक विज्ञान ने जो आराम की सामग्री के साथ में सर्वनाश करने वाले अरणुत्रम आदि अस्त्र प्रदान किये हैं, उससे सारा विश्व गहरी चिन्ता में डूब गया है । सर्वत्र भय और स्नेह शून्यता की प्रचण्ड पवन बह रही है । डॉ. इकबाल ने वर्तमान हिंसात्मक विकास की व्यंग्यात्मक शैली में इन शब्दों में समीक्षा की है
जान ही लेने की हिकमत में तरक्की देखी। मौत का रोकनेवाला कोई पैदा न हुआ ।
दार्शनिक बट्रेंड रसिल ने लिखा है जिस अरबम के फेंके जाने पर जापान का हिरोशिमा नगर नष्ट हो गया, आज उससे पच्चीस हजार गुने बम का निर्माण हो चुका है। उन्होंने अपनी पुस्तक Impact of Science on Sociology' में लिखा है Some eminent authorities including Eienstein hav epointed out that there is a danger of the extinction of all life on this planet (P. 126 ) - आइंस्टीन आदि कुछ प्रमुख विशेषज्ञों ने कहा है कि वर्तमान स्थिति इतनी भयावह है कि उससे इस भूमंडल पर विद्यमान जीवमात्र के विनाश की संभावना है ।
स्वर्गीय राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसाद ने अपने एक वक्तव्य में कहा था, "जिन्होंने अहिंसा के मर्म को समझा है, वे ही इस अंधकार में कोई रास्ता निकाल सकते हैं। जैन धर्म ने संसार को अहिंसा की शिक्षा दी है । आज संसार को अहिंसा की आवश्यकता महसूस हो रही है । जैनियों का आज मनुष्य समाज के प्रति सबसे बड़ा कर्त्तव्य यह है कि वह कोई रास्ता ढूंढ़ निकालें ।"
भगवान महावीर ने संसार के दुःखों का मूल कारण हिंसात्मक भावना और आचरण को कहा है। उनका यह सूत्र अत्यन्त मार्मिक है, "हिसा प्रसूतानि सर्वदुःखानि
समन्त दुःखों का मूल कारण हिंसा है ज्ञानार्णव में आचार्य शुभचंद्र ने कहा है
यत्किचित् संसारे शरीरिणां दुःख शोक भय बीजम् । दौर्भाग्यादि समस्तं तद्विसासंभवं ज्ञेयम् ।
इस संसार में जीवों के दुःख शोक एवं भय के बीज स्वरूप दुर्भाग्य आदि का दर्शन होता है, वह हिंसा से ही उत्पन्न समझना चाहिये ।
शुद्ध तथा स्वार्थी व्यक्ति "जीवो जीवस्यभक्षणम्” जीव का आहार दूसरा जीव है अथवा समर्थ को ही जीने का अधिकार है ( Survival of the fittest ) सोचा करता है । यथार्थ में उक्त बात पशु जगत से संबंध रखती है । मनुष्य पशु जगत से श्रेष्ठ है । वह विवेक और विचार शक्ति समलंकृत है । उसे अपनी दृष्टि को उदार बनाना चाहिए। संत वाणी है
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जैसे अपने प्रान हैं वैसे पर के प्रान । कैसे हरते दुष्ट जन बिना बैर पर प्रान ॥
सर्वोदय पथ :
सर्वज्ञ तीर्थंकर महावीर ने सर्वोदय मार्ग का उपदेश दिया है। उनका सर्वोदय बहुत व्यापक है। उसमें सर्व जीवों का, सर्वकालीन तथा सर्वांगीण उदय विद्यमान है। हिंसा की भावना पर निर्मित विकास या विलास का भवन शीघ्र धराशायी हो जाता है। भगवान महावीर के शिक्षण के विषय में आचार्य समन्तभद्र ने कहा है "सर्वापदा मन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तदेव ||" युक्तमनुशासन ६१ आपका तीर्थ ( शासन ) समस्त संकटों का अन्त करनेवाला तथा स्वयं विनाश रहित सर्वोदय रूप है ।
अहिंसा की महत्ता :
भगवान की करुणामयी दृष्टि जीवमात्र के उत्थान की थी वे स्वार्थ पूर्ति के स्तर पर अहिंसाहिंसा का विश्लेषण नहीं करते थे। उनकी करुणामयी ।
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चन्द्रिका सर्व जगत को प्रकाश और आनंद प्रदान करती राधना द्वारा होती है । आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा हैथी। अहिंसा में अपार शक्ति है। गांधीजी ने उसका "अमृतत्वहेतुभूतं परमहिंसा रसायनम्" । ७८ । आश्रय लेकर भारत को स्वाधीन बनाया। इससे अहिंसा अहिंसा द्वारा अमत पद, (परम निर्वाण) प्राप्त होता की महत्ता, शक्ति तधा उपयोगिता स्पष्ट हो गई है। है। यह श्रेष्ठ रसायन है। इसमें मधुरता का रस भगवान ने कहा है "सत्थस्स सत्थं आC असंस्थस्स भरा है तथा इससे आत्मा की प्रसुप्त अनंत दिव्य सत्यं णत्थि" शस्त्र के मुकाबले में बड़ा शस्त्र बन शक्तिया विकसित हो जाती हैं। सकता है किन्तु अशस्त्र अर्थात् अहिंसा से बड़ा कोई दूसरा शस्त्र नहीं है । शस्त्र प्रयोग शत्रु का नाश करता ईश्वरभक्त भगवान को करुणा का सागर कहा है; वह शत्रुता का नाश नहीं करता है । अशोक ने करता है, इसलिए जिस व्यक्ति में जितनी मात्रा में कलिंग पर चढ़ाई कर उसे हराया था, किन्तु कुछ करुणा का सदभाव रहेगा उसमें उतनी मात्रा में दिव्यता समय बाद कलिंग सम्राट महामेघवाहन खारवेल ने की उपलब्धि रहेगी। शेक्सपियर ने कहा है Mercy मगध को जीतकर कलिंग को जयश्री प्रदान की। is an attribute to God Himself" दया ईश्वर अहिंसात्मक हथियार का चमत्कार यह है कि शत्रु का का ही गुण है। नाश न कर शत्रुता का नाश करता है। गांधीजी ने अंग्रेजी शासन को भारत से समाप्त कर दिया, किन्तु .
आत्मबल भारत और अग्रेजों के बीच दुश्मनी का विष नहीं पनपा तथा उनके साथ मैत्री की दृष्टि विकसित हई।
अहिंसा की साधना के लिए आत्मबल तथा
वासनाओं पर विजय आवश्यक है। इसमें साधक यह बात स्मरण योग्य है कि वही अहिंसा शक्ति
को अधोगामिनी प्रबत्तियों को उर्ध्वगामिनी बनाने शाली है, जिस पर माया या कपटाचार की छाया नहीं
का सकचा पुरुषार्थ और पराक्रम करना पड़ता है। साधारणतया जल का अधोगमन होता है। नदी
को निम्नगा इससे कहते हैं, कि उसका पानी सदा अहिंसा अमर जीवन प्रदान करती है। जिस अहिंसा- नीची भूमि की ओर प्रवाहित होता है, उस जल को मयी साधना के द्वारा यह साधक अमतत्व तथा परम ऊँचाई पर पहुँचाने के लिए विशेष श्रम और उद्योग ब्रह्म पद को प्राप्त कर सकता है, उसके द्वारा लौकिक जरूरी हैं, इसी प्रकार आत्मा को अहिंसा के उदात्त पथ तथा मानसिक शांति को प्राप्त करना कठिन नहीं है। पर पहुंचाने के लिए विशेष प्रयत्न तथा आत्मबल 'हिंसा' का पर्यायवाची शब्द 'मृत्यु' है अतः हिसा का बांछनीय है । काका कालेलकर ने कहा है, "बिना परिनिषेधवाचक 'अहिंसा' का पर्यायवाची 'अमत्यू' होगा। श्रम किए हम अहिंसक नहीं बन सकते । अहिंसा की उपनिषद में मैत्रेयी ने याज्ञवल्क्य में कहा था, आज साधना बड़ी कठिन है। एक ओर पोद्गलिक भाव तपोवन को अमृतत्व के लिए प्रयाण कर रहे हैं, तो खींचतान करता है, दूसरी ओर आत्मा सचेत बनता है। मैं धनादि सामग्री को लेकर क्या करूगी, जबकि उससे दूसरों का हित हृदय में रहने से आत्मा धार्मिक श्रद्धाअमृतत्व की उपलब्धि नहीं होती है। "किमहं तेन बान बनता है। आज की मानवता को युद्ध के दाबानल कूर्माम् मेनाहं नामता स्याम"--उस अमत पद (Life से मुक्त करने का एक मात्र उपाय भगवान महावीर immortal) की प्राप्ति अहिंसा की श्रेष्ठ समा- की अहिंसा ही है।"
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व्यसन त्याग
आचार, विचारवाले महापुरुषों का अनुभव है कि
आहार की शुद्धता का विचारों पर प्रभाव प्रत्यक्ष गोचर व्यक्ति तथा समष्टि के हित की दृष्टि से अहिंसा
है । अपने राजयोग में स्वामी विवेकानंद लिखते हैं, के साधक को अपनी प्रवृत्तियों को सदाचार से समलंकृत "हमें उसी प्रकार का आहार ग्रहण करना चाहिए, जो करना आवश्यक है। इन सप्त व्यसनों का परित्याग
हमें सबसे अधिक पवित्र मन दे। हाथी आदि बड़े अत्यन्त आवश्यक है, कारण इन व्यसनों से आत्मा
जानवर शान्त और नम्र मिलेंगे। सिंह और चीते की का पतन होता है तथा विश्व को भी हानि पहुंचती
ओर जाओगे, तो वे उतने ही अशान्त मिलेंगे। यह अन्तर आहार भिन्नता के कारण है।" हिरण शाकाहारी
है, बिल्ली मांसाहारी है। दोनों के जीवन का निरीक्षण जुआ, आमिष, मदिरा, दारी, आखेटक, चोरी, परनारी।
बताता है कि हिरण जहाँ शान्त रहता है, वहाँ मार्जार ये ही सात व्यसन दुःखदाई, दुरितमूल दूरगति के भाई ।
क्र रतापूर्ण आचरण के कारण अशांत अवस्था में पाया अहिंसा की साधना द्वारा ही सच्ची सर्वोदय की जाता है। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है स्थिति उपलब्ध होती है। सत्य, अचौर्य, शील, अपरि
"मन का शरीर के साथ निकट संबंध है । विकार ग्रह, निरभिमानता, संयम आदि सत्यप्रवृत्तियां अहिंसा
मुक्त मन विकार पैदा करने वाले भोजन की ही खोज के अंतर्गत हैं । तत्वार्थ सूत्र में कहा है, प्रमत्तयोगात्प्राण
में रहता है। विकृत मन नाना प्रकार के स्वादों और व्यपरोपणं हिंसा"-प्रमत्त योग अर्थात् क्रोधादि विकारों
भोगों को ढूढता फिरता है और फिर उस आहार और से मुक्त हो प्राणों का घात करना हिंसा है। ऐसी हिंसा
भोगों का प्रभाव मन के ऊपर पड़ता है। मेरे अनुभव का त्याग निर्मल मनोवृत्ति पर निर्भर है। उस निर्मल
ने तो मुझे यही शिक्षा दी है, कि जब मन संयम की मन:स्थिति के हेतु बाह्य प्रवृत्तियाँ उज्जवल रहनी
ओर झुकता है, तब भोजन की मर्यादा तथा उपवास चाहिये। मांस सेवन करने से मनोवृत्ति मलिन होती
खूब सहायक होते हैं। इनकी सहायता के बिना मन को है। शराब का सेवन भी आत्मा में विकारी भावों को
निर्विकार बनाना असंभव-सा ही मालूम होता है।" उत्पन्न करता है। एक शराब प्रेमी कहता है कि मा- (आत्मकथा ख. 5 पृ. 112-131) वैज्ञानिकों ने इस बात को
स्वीकार किया है कि मांस, मदिरा आदि के द्वारा पान से आत्मा को कोई हानि नहीं पहुँचती । मजहब में पक्का विश्वास रखने पर बाहरी स्वच्छन्द आचरण कुछ
शक्ति तथा आरोग्य का प्राप्त करना ऐसा ही है जैसे भी क्षति नहीं पहुंचा सकता। खाने-पीने से आत्म
चाबुक के जोर से सुस्त घोड़े को तेज करना। विकास तथा धर्म का सम्बन्ध है। वह विलासी जीवन
यूरोप के मनीषी महात्मा टाल्सटाय ने कहा है, का प्रतिनिधि बन पूछता है
'मांस खाने से मनुष्य की पाशाविक प्रवृत्तियाँ बढ़ती हैं, जाहिद शराब पीने से काफिर बना मैं क्यों?
काम उत्तेजित होता है, व्यभिचार करने और शराब क्या डेढ़ चुल्लु पानी में ईमान बह गया। पीने की इच्छा होती है । इन सब बातों के प्रमाण सच्चे
और शुद्ध सदाचारी नवयुवक, विशेषकर स्त्रियाँ और सत्पुरुषों का अनुभव
तरुण लड़कियां हैं जो इस बात को साफ साफ कहती यही धारणा हमारे विश्वहित की चिन्ता में निमग्न हैं, कि मांस खाने के बाद काम की उत्तेजना और अन्य रहनेवाले प्रमुख लोगों को मांस, मदिरा आदि को पाशविक वृत्तियां अपने आप प्रबल हो जाती है।" सेवन करने में उत्साहित करती है किन्तु सात्विक उनके ये शब्द विवेकी तथा सच्चे सुधार के प्रेमी को
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ध्यान में रखने योग्य हैं, "मांस खाकर सदाचारी बनना रसीली वनस्पतियाँ हैं । अनेक प्रकार के अन्न हैं, जिन्हें असंभव है। वर्नादशा की यह उक्ति मननीय है, "मैं आग के द्वारा मृदु एवं सुपाच्य बनाया जा सकता है। यह बात दृढ़तापूर्वक कहता हूँ, कि मदिरा तथा मृत पोषक दूध है। उदार पृथ्वी माता विविध भांति की शरीरों का भक्षण करने वाला मानव ऐसे श्रेष्ठ कार्य विपुल खाद्य सामग्री देती है तथा रक्तपात के बिना नहीं कर सकता जिसकी क्षमता उसमें विद्यमान रहती। मधुर एवं शक्तिप्रद भोजन देती है। नीची श्रेणी के
प्राणी अपनी क्र र भूख को मांस के द्वारा शान्त करते
हैं, परन्तु सभी ऐसे नहीं हैं । घोड़ा, गाय, बकरी, भेड़, शंका
बैल घास पर ही जीवित रहते हैं। अरे मरणशील
मानवो ! तुम मांस को छोड़ दो। मांसाहार के दोषों कोई-कोई शाकाहार और मांसाहार को समान
पर ध्यान दो। मारे गए बैल के लोथड़े जब तुम्हारे मानते हए कुतर्क करते हैं, जैसे जीव का घात मांस में
सामने आवे, तब यह समझ और अनुभव कर कि तू होता है, वैसे ही वनस्पति सेवन में जीव का घात समान
अन्न-फल पैदा करनेवालों को खाने जा रहा है।" रूप से पाया जाता है। प्राणी का अंगपना वनस्पति और मांस में समान रूप से है, किन्तु उनके स्वभाव में अंतर है । अन्न भोजन है तथा मांस, अण्डा आदि पदार्थ सर्वथा
मूल गुण त्याज्य हैं। स्त्रीयों की अपेक्षा माता और पत्नी समान
भगवान महावीर ने सच्ची उन्नति के लिए साधक हैं, किन्तु भोग्यत्व की अपेक्षा पत्नी ही ग्राह्य कही जाती
को अपने मनोमंदिर में भगवती अहिंसा को प्रतिष्ठित है, माता नहीं। एक बात और है। बनस्पति को पानी
करके मांस, मद्य, मधु, स्थूल हिंसा, स्थूल असत्य, स्थूल से उत्पन्न होने के कारण 'आबी' (जल से उत्पन्न)
स्तेय, परस्त्री सेवन तथा अमर्यादित परिग्रह वृत्ति का कहते हैं । मांस को रज, वीर्य से उत्पन्न होने के कारण
त्याग करना चाहिए। आत्मविकास के लिए ये अष्ट पेशाबी कहा जाता है । मूत्रादि से उत्पन्न शरीर पिण्ड
मूल गुण आवश्यक है । रत्नकरण्डश्रावकाचार में का भक्षण करना सभ्य तथा सुसंस्कृत व्यक्ति के लिए
समंतभद्र आचार्य ने लिखा है। उचित नहीं है।
मद्य मांस मधु त्यागः सहाणुव्रतपंचकम् ॥ अष्टौ मूलगुणाबाहु हिणां श्रमणोत्तमाः। ॥661
जो लोग ईश्वर को विश्व निर्माता तथा जगत् पिता कहते हैं, उन्हें टी. एल. वस्वानी कहते हैं, "पक्षी या पशु को प्रेम न करना मेरे लिए प्रभु को प्रेम न करना है, क्योंकि पशु-पक्षी भी उसके इसी तरह बच्चे हैं जैसे मानव प्राणी।"
श्रमणोत्तम भगवान ऋषभ देव, भगवान महावीर आदि ने मद्य, मांस, मधु के त्याग के साथ अहिंसा आदि पंच अणुव्रतों को गृहस्थों के आठ मूल गुण कहा है ।
गृहस्थ की अहिंसा
पायथोगोरस यूनानी तत्ववेत्ता की वाणी बड़ी मार्मिक है, “ऐ नश्वर मनुष्यो । अपने शरीर को घृणित
आहार से अपवित्र करना बन्द करो। जगत् में तुम्हारे लिए रसभरी फल राशि है जिनके बोझ से शाखाएँ झुक गई हैं। मधुर द्राक्षाओं से लदी हुई लताएँ हैं,
इस अहिंसा की साधना गृहस्थ और श्रमण के भेद से दो प्रकार की है। कृषि, वाणिन्य, राष्ट्र संरक्षण तथा
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अन्य उत्तरदायित्वों के होते हुए गृहस्थ पूर्ण रीति से चक्र ण यः शत्रुभयंकरेण जित्या नृपः सर्वनरेन्द्रचक्रम् । अहिंसा का पालन नहीं कर सकता है। उसके लिए यह समाधिचक्रण पुजिगाय महोदयो दुर्जप मोहचक्रम् । उचित है कि अपनी जिम्मेदारियों को ध्यान में रखते हुए अधिक-से-अधिक करुणाशील बनने का प्रयत्न करे।
जैन ग्रंथों के अध्ययन से यह बात स्पष्ट होती है कम-से-कम इरादतन-संकल्पी हिंसा (Intentional)
tentional
कि कम
कि कम-से-कम भी अहिंसा का पालन करनेवाला का परित्याग अवश्य करे । मांसभक्षण, शिकार अपनी कमजोरियों पर विजय पाता हुआ श्रेष्ठ अहिंसक खेलना आदि क्र रकम संकल्पी हिंसा के अंतर्गत होने श्रमण की अवस्था को प्राप्त करता है, तथा अन्त में से त्याज्य हैं। जैन क्षत्रिय स्वयं मांसादि का त्याग परम निर्वाण को प्राप्त कर जन्म, जरा, मरण के चक्कर करता हुआ लोक संरक्षण, न्याय-परित्राण, तथा सत्पुरुषों से सदा के लिए विमुक्त हो जाता है। के रक्षणार्थ अस्त्र शस्त्रादि का भी प्रयोग करता है, क्योंकि उस प्रक्रिया के द्वारा व्यापक अन्याय, अत्याचार
आकांक्षाओं पर नियंत्रण आदि का दमन होने से प्रकारान्तर से करुणा, शील,
अहिंसा की साधना के लिए गृहस्थ को धन-वैभव सदाचार आदि अहिंसात्मक प्रवृत्तियों का संरक्षण एवं
आदि की लालसा को कम करना चाहिए; आत्मा चेतना संवर्धन होता है । महर्षि जिन सेन ने महापुराण में कहा
ज्योति स्वरूप है; धनादि परिग्रह आत्मा से भिन्न हैं, है, "प्रजाः दण्डधराभावे मात्स्यं न्यायं श्रमन्त्मम्"
जो उसकी मृत्यु के समय यहाँ ही पड़े रहते हैं। अतः (16-252) यदि शासक दण्ड धारण करने में प्रमाद
विवेकी गृहस्थ का कर्तव्य है कि वह अपने पास की दिखावे, तो जगत् में हाहाकार मच जायगा । मात्स्य
अधिक संपत्ति को सत्कार्यों में व्यय करे। संग्रहशील न्याय-जिसमें बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती
व्यक्ति की शहद की मक्खी के समान दुर्दशा होती है-प्रवृत्त हो जायगा । अत्याचारी सशक्त व्यक्तियों का बोलबाला हो जायगा। अपभ्र श भाषा के महाकवि पुण्यदन्त ने कहा है, "रण चंगउ दीण परिरक्खणेण,
मक्खी बैठी शहद पर पंख लिए लिपटाय । पोरुसु सरणागम रक्खणेण"-दीनों के रक्षणार्थ युद्ध हाथ मलै अरु सिर धून लालच बुरी बलाय। करना अच्छा है, शरणागत का रक्षण यथार्थ पौरुष है। गृहस्थ क्षत्रिय नरेश जैन धर्मानुसार अपना व्यक्तिगत मनुष्य स्वामाविक आकांक्षाओं को पूरा किया जा जीवन करुणापूर्ण रखते हुए अपने उत्तरदायित्व को सकता है, धनादि की लालसा कृत्रिम अभिलाषा को ध्यान में रख शस्त्रादि का संचालन करते थे। तीर्थकर नहीं पूरा किया जा सकता है। सिकन्दर से भारतीय शान्तिनाथ भगवान ने चक्रवर्ती नरेन्द्र की अवस्था में संत दंदमिस (Dandamis) ने कहा था, "स्वाभाविक चक्र के द्वारा नरेन्द्र समुदाय को जीता था, पश्चात् इच्छाएं जैसे प्यास को पानी द्वारा दूर किया जा सकता राज्य त्याग कर श्रमण वृत्ति अंगीकार करने पर उन्होंने है, भूख को भोजन द्वारा पूर्ति हो सकती है, किन्तु समाधि आत्म ध्यान के द्वारा मोह की सेना को परास्त धनादि की लालसा अस्वाभाविक होने से वह बढ़ती ही किया था। आचार्य समन्तभद्र ने कहा है :
जाती है और कभी भी पूर्ण नहीं हो सकती है।"
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Dandamis told Alexander that natural desires are quenched easily, thirst by water hunger by food but the craving for possessions is an artificial one. It goes on unceasingly and never is fully satisfied (Speech by Dr. S. Radhakrishnan in inaugurating XXVI International Congress of Orientalists, New Delhi 1964)
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श्रेष्ठ साधक
जैन धर्म में दिगम्बर मुनि परिग्रह मात्र का त्याग करके श्रेष्ठ अहिंसा तथा आत्मशांति का सजीव उदाहरण उपस्थित करते हैं। परिग्रह त्यागी के चरणों के समीप विश्व का वैभव नतमस्तक होता है। एक कवि कहता है :
चाह घटी चिन्ता हटी मनुआ बे परवाह | जिन्हें कछू नहि चाहिये वे शाहनपति शाह् ।
अपरिग्रहत्व तथा अकिंचन वृत्ति पर गांधीजी के शब्द बड़े अनुभवपूर्ण हैं, "सच्चे सुधार का सच्ची सभ्यता का लक्षण परिग्रह बढ़ाना नहीं है, बल्कि उसका विचार और इच्छापूर्वक घटाना है। ज्यों-ज्यों परिग्रह घटाइये त्यों-त्यों सच्चा सुख और संतोष बढ़ता है, सेवा शक्ति बढ़ती है। आदर्श और आत्यंतिक अपरिग्रह तो उसी का होगा जो मन से और कर्म से दिगम्बर है । मतलब वह पक्षी की भांति बिना घर के बिना वस्त्रों के बिना 'अन्न के विचरण करेगा ( गांधी वाणी पृ. 98 ) अविद्या से अभिभूत व्यक्ति ईसा के इस उपदेश को भूल जाता है कि Naked I came from my mother's womb and naked shall I go thither. मैं अपनी माता के उदर से दिगम्बर रूप में आया था, तथा उसी
"
अवस्था में यहां से उसी स्थल पर चला जाऊंगा । आचार्य गुणभद्र आत्मानुशासन में मार्मिक शिक्षा देते हैं :
अवो जिक्षयो यान्ति यान्त्वं मजिघृक्षवः । इति स्पष्ट वदन्तौ वा नामोग्रामो तुलान्तयो ॥ | 154 ||
तराजू के दोनों पलड़े यह बताते हैं कि लेने की इच्छावाला प्राणी लदे पलड़े के समान नीचे जाता है। और न लेने की इच्छावाला प्राणी खाली पलड़े के समान उन्नत दशा को पाता है। सुकरात ने बड़ी सुन्दर
बात कही है, The fewer are our wants the more we resemble gods हमारी जितनी जितनी आवश्यकताएँ कम होती हैं उतना हम दिव्यता के समीप पहुँचते हैं।
भीषण स्थिति
वर्तमान युग की यांत्रिक पद्धति के कारण जगत् में पनवान और धनहीनों के बीच बड़ी गहरी खाई बन गई है। इसके कारण हिंसा का ज्वालामुखी सर्वसंहार हेतु जागृत हो रहा है। इस महा विपत्ति से बचने का उपाय भगवान महावीर का सीमित परिग्रह रखना तथा अनावश्यक संपत्ति को सत्कर्मों में स्वेच्छा से लगाना है। राजकीय अनेक कदम धनिकों को उनके अंधकारमय भविष्य का उद्बोधन करा रहे हैं। एक कवि कहता है :
दातव्यं भोक्तव्यं सति विभवे संचयो न कर्तव्यः यह मधुकरीणां संचितमर्थं हरन्त्यन्ये ।
धन वैभव के प्राप्त होने पर सरकार्यों में संपत्ति का विनियोग करो तथा स्वयं भी उसका उपयोग करो। देखो उस भ्रमरी को, जिसका संचित मधु दूसरे छीन
लेते हैं ।
महावीर की शिक्षा
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भगवान महावीर ने कहा था
अनित्यानि शरीराणि विभवोनैव शाश्वतः । सन्निहितं च सदा मृत्युः कर्त्तव्यो धर्म संग्रहः ॥
शरीर अनित्य है, वैभव सदा नहीं रहेगा, मृत्यु सदा समीप है, अतः धर्म का संग्रह करना चाहिए। अकबर का कथन सत्य है
आगाह अपनी मौत से कोई वशर नहीं । सामान सौ बरस का है पल की खबर नहीं । सेठ जी को फिक्र थी एक-एक के दस कीजिये । मौत आ पहुंची कि हजरत जान वापिस कीजिए ।
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नहीं
अपरिग्रह के समर्थन में कबीर की वाणी आज के व्यक्त करने में असमर्थ है, अतः तुम्हारी दृष्टि में यह गगनचुबी भवन निर्माताओं को चेतावनी देती है, बात रहनी चाहिए कि मैंने सत्य का एक अंश ग्रहण
कहा चुनाव में दिया लावी भीत उसार ॥ किया है, वह पूर्ण सत्य नहीं है। दूसरे व्यक्ति ने सत्य के । घर तो साढे तीन हथ धना कि पौने चार ॥ अन्य अंश को ग्रहण किया है। उसकी दृष्टि से वह भी
भगवान महावीर ने आत्मा को उसके उत्थान तथा सत्य है । सत्य पर मेरा सर्वाधिकार (monopoly) पतन में स्वतंत्र कहा है । सत्तचूड़ामणि में कहा है- नहीं है। इस समन्वय दृष्टि को स्याद्वाद दर्शन कहते
त्वमेव कर्मणां कर्ता भोक्ता च फलसंततेः । हैं । सन् 1935 में मैं गाँधीजी से वर्धा के आश्रम में भोक्ता च तात कि मुक्ती स्वाधीनायां न चेष्ट से मिला था उस समय उन्होंने कहा था, "जैन धर्म का
॥११-४५ ॥ स्याद्वाद सिद्धान्त मुझे अत्यन्त प्रिय है।" कबीर ने हे आत्मन् ! तू ही अपने कर्मों को बांधता है. उनके सुन्दर बात कही है-- फलों को तू ही भोगता है तथा तु ही उनकर्मों का
नदिया एक घाट बहुतेरे। क्षय करने की क्षमता संपन्न है। इस प्रकार तेरी मुक्ति
कहत कवीर वचन के फेरे। तेरे हाथ में है, उसके लिए क्यों नहीं चेष्टा करता है ?
इस चिंतन पद्धति के द्वारा धामिक मैत्री का महा मुक्ति मार्ग
प्रासाद निर्माण किया जा सकता है। भगवान ने कहा,
शक्ति रूप से संसारी जीव परमात्मा है, कर्मों के कारण ___ तत्वार्थ सूत्र में कहा है 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि
वह दीन बन रहा है। परमात्म प्रकाश में कहा है-- मोक्षमार्ग' :--सम्यग्दर्शन (आत्मश्रद्धा), सम्यग्ज्ञान
एहु जि अप्पा सो परमप्पा कम्मविसेसे जायउ जप्पा। (आत्मज्ञान) तथा सम्यक्चारित्र (आत्म स्वरूप में
जामह जाणह अप्पे अप्पा तामह सो गि देउ परमप्पा। स्थिरता) में तीनों मोक्ष के मार्ग है। इसे ही भक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य का संगम रूप त्रिवेणी कहा जाता है। यह आत्मा यथार्थ में परमात्मा है, कर्मों के कारण टेनीसन ने इस रत्नत्रय नाम से विख्यात जैन तत्वज्ञान वह संसारी आत्मा बनता है। वह जब अपनी आत्मा को इस प्रकार कहा है--
को अपने रूप में जानता है तब वह परमात्मा हो जाता Self reverence, Self-knowledge Self-Control है। These thre alone lead life to Soverign power.
सारआत्मश्रद्धा, आत्मज्ञान तथा आत्म निमंत्रण (सयम)
सर्वोदय के लिए भगवान ने कहा थाये तीनों मिलकर जीव को पूर्ण शक्ति संपन्नता (परमात्म
अभयं यच्छ जीवेषु कुरु मैत्री मनिन्दिताम । प्रदान करते हैं।
पश्यात्म सदृशं विश्वं जीवलोकं चराचरम् ।। समन्वय दृष्टि
संपूर्णजीवों को अभय प्रदान करो, सबके प्रति निर्मल भगवान ने वस्तु को अनंतगुणों का पुज बताते हुए मैत्री धारण करो तथा चराचर विश्व को अपने समान कहा है, कि तुम्हारी वाणी पूर्ण सत्य को एक साथ समझो।
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Message of
TK Tukol
Bhagavan Mahavira
dence to show that as far as the first century B. C., there were people who were worshipping Rishabhadeva, the first Tirthankara There is no doubt that Jainism prevailed before Vardhamana or Parsvanatha. The Yajurveda mentions the names of three Tirthankaras-Rishabha, Ajitanath and Arishtanemi. The Bhagavata Purana endorses the view that Rishabhadeva was the founder of Jainism."
The year commencing from November 13. 1974 to November 15, 1975 was ob served throughout the world as the 2500th Nirvana Mahotsava day of that great teacher, Bhagavan Mahavira, who preached the doctrines of Ahimsa, Satya, Achaurya, Brahmacharya and Aparigraha as holding the key to the spiritual advancement of an individual as also to public peace and morality. He did not preach these doctrines for the first time but merely reiterated what had been taught to humanity by his predecessors for thousands of years before him. As Dr. Hermann Jacobi has observed, "Jainism is an original system, quite distinct and independent of all others and that, therefore, it is of great importance for the study of philoso. phical thought and religious life in ancient India.” Dr. Radhakrishnan confirms this view in one of his volumes on Indian Philosophy (Vol II Page 287): "Jain tradition ascribes the origin of the system to Rishabhadeva (the first Tirthankara), who lived many centuries back. There is evi-
Though Mahavira was a historical person, not many details of his life are available. His father Siddartha was a King in Vaisali, part of modern Bihar and his mother was Trishaladevi. Since marvelous prosperity to the royal family and to the kingdom heralded the birth of the child who was destined to be a Tirthankara, the parents named the child Vardhamana. The child was brought up amidst royal grandeur and comfort; one would have expected him to grow to manhood with fondness for pleasures and soft comforts of palace life. That was not to be.
EC
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Vardhamana, who was subsequently named Mahavira, the great hero, on account of his remarkable deeds of prowess exhibited by him even during his childhood. He had a bent of mind which was at once philosophic and spiritual. As regards his marriage, the Digambaras and the Svetambaras differ in their traditions. While former hold that he was unmarried, the latter adhere to the view that he was married to one Yasoda and had a female child of that wedlock. Both are agreed that in the very prime of youth, he renounced the world and became a naked monk, as nudity was considered most essential for maintenance of mental detachment from all worldly objects and endurance of all bodily sufferings, paving the way for liberation. He believed that mental peace could result only from external peace by elimination of all attachments from one's mind. (swadosha Santyavihitatma santih.)
Omniscience dawns only on those who destroy their four distructive Karmas : Jnanavaraniya (knowledge-covering), Dars anavaraniya (perception of vision-covering). Antaraya (the obstructie karmas) and Mohaniya (the deluding karma). He preached for 30 years and atained salvation at Pavapuri (at a distance of 27 miles from Patna) when he was deeply absorbed in Meditation in the early hours of the Divali Amavasya which is observed as a festival of lights all over India.
His message is today as practical and convincing as it was in his time. He affirmed that there are four things of paramount value which it is difficult for a living being to obtain : human birth, instruction in religion of the law of Dharma belief in the law and energy in self-control. The universe is eternal It is not created by any external agency. There is therefore none either to lift you up or throw you down. You are the architect of your fortune and your salvation.
During the period of his monkhood, Mahavira led a life of great austerity and concentrated his mind by meditation on the true attributes of a liberated soul : infinite knowledge, infinite vision or faith, infinite power and infinite bliss. Rains, storms and hunger never deterred him from the path of meditation as he felt convinced that all these afflictions pertained to the body and not to the soul which was distinct from the body. After arduous penances and undisturbed meditations for a period of twelve years, he attained Omniscience when he was deeply sunk in pure meditation (sukla dhyana) on the shore of river Rjukula on the 10th day of the bright half of the month of Vaisakha.
The critics of the message of Mahavira regard it as pure atheism. The word atheism has varied in meaning. The word itself is of Greek origin, derived from the word 'theos' meaning God. Jainism does believe in the existence of soul which, in its purest state, posseses the divine attributes of infinite knowledge, infinite perception, infinite power and infinite bliss. Jainism does not believe in the existence of God as the creator of the Universe. Modern science and the well-established theories in physics and geology support the theory that the world is a natural creation with
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life and matter existing in different forms. Another meaning which is ascribed to the word in India is that athiests are those who do not believe in the Vedas. There are many religions which do not believe in the Vedas since they have their own sacred literature.
only because it wanted to cry halt to sacrifices of living beings in the name of religion but also to inculcate the virtue of humanism which exudes the milk of human kindness all around. Man is supreme among all the living creatures not only on account of his intelligence, knowledge and intiution but also on account of the all pervasive and protective quality of compassion. Bhagavan Mahavira has said :
So the religion preached by Mahavira is not a theistic religion bu lit is a religion which gives full freedom to every soul or living creature to work out its own salvation. He preached : The universe is peopled by manifold creatures, they are born in different states, climes and conditions. It is our thoughts, deeds and actions that constantly entangle us with karmas which are either auspicious or inauspicious according as our activities are pure, wicked or mixed ones. As Shakespeare has said in his Hamlet :
Sarve praninah priyausah. sukhaswadah dukkhaprat kulah Apriyavadhah priyajivinah, jivilukamah.
Acaranga. 2.37.
"All heings love to live long; they experience happiness; they hate misery. Since life is dear to them, they are against every kind of injury. All beings long to live."
There is nothing either good or bad, But our thinking makes it so.
It is the mind that can make a hell of heaven or a heaven of hell." It is by elimination of Karmas that living beings can reach in due course a pure state and be born as human beings The living beings are not at the mercy of any god or evil spirit but they are their own masters, working out a hell or heaven for themselves.
In such a world, Himsa, or injury of any type, whether to the mind or to any of the faculties becomes in human, as such action is a degradation of human qualities. That is why Himsa which is born of passions like attachment, anger, greed, pride or delusion has been regarded first as injury to one's own self and next as injury to some other being. All transgressions of the vows of truthfulness, honesty, celibacy and aparigraha are the direct progeny of one or the other of passions. That is why Bhagavan Mahavira advised; "Do no injury to living beings of the six orders, abstaining from lying and from taking what is not freely given, renouncing property, women, pride, and deceit, men
How do you work out your salvation ? The foundation for spiritual edifice has to be built on the practice of sound ethics. Ahimsa (non-violence) is the very lifebreath of all Jain ethics. It proclaimed that Ahimsa was the supreme religion not
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even in his attempts to reach the fringe of his ambitions.
should live under self-restraint." (Uttaradhyayana Sutra, 12.41). One should not permit or consent to the killing of living beings. A careful man will not injure living beings. In thoughts, words, and acts, one should do nothing injurious to beings who people the world, whether they move or not.
Mahatma Gandhi, who was very much influenced by the religion of Ahimsa and Truth, made Non-Violence his philosophy of life and Truth its goal. He said: "Abimsa and Truth are so intertwined that it is practically impossible to disentangle and separate them ..Ahimsa is the means and Truth is the end A steadfast pursuit of Ahimsa is inevitably bound to truth-not so violence. That is why I swear by Ahimsa.” In these days when violence, lying and excesses in private and public life have become the order of the day, there is the greatest need to understand and practise these doctrines in daily
There are two other vices in the public life of today. The difference between the West and the East in these matters is only a difference in degree. Promiscuousness in sexual matters has ruined many families and personal lives of many unmarried persons. The use of contraceptives has further added to the evil instead of solving it. Bhagavan Mahavira has said that for those who long for liberation and life according to the Dharma, there is nothing in this world which offers so many difficulties like the want of celibacy; it is only the ignorant that delight in sexual attraction. The problem of population is closely associated with the vow of celibacy. That is indeed a healthy solution. If our saints emphasised the need of education on Brahmachara during the student days, today we are emphasising on the need of sex-education without emphasis on celibacy as essential to moral character. "If we begin to believe" says Gandhiji, that indulgence is animal passion is necessary, harmless and sinless, we shall want to give reins to it and shall be powerless to resist it. Whereas if we educate ourselves to believe that such indulgence is harmful, sinful, unnecessary and can be controlled, we shall discover that self-restraint is perfectly possible. What formerly appeared to me to be extrvagant praise of brahmacharya in our religious books seems now, with increasing clearness every day, to be absolutely proper and founded on experience." * Brahmacharya must be observed in thought, word and deed,”
life.
There is dishonesty in various forms: corruption, black-marketting, adulteration, misappropriation and cheating. All these are traceable to human greed. Bhagavan Mahavira asked his followers to control greed and acquire purity of thought and action : "The more you get, the more you want, your desires increase with your means. Though two mashas would do to supply your want, still you would scarcely think ten million sufficient." (Uttara. 8.17). There are no limits to human greed, not even the whole space of the Universe. When a person becomes its prey, he falls down to the abyss of misery
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Aparigraha which requires an indivi- dual to impose voluntary restrictions on the limits on one's own earnings is based both on material and spiritual considerations. Concentration of wealth in a few hands hads to revolution against the rich; in fact it is a negation of samatavada or the doctrine of equality which religious teachers, socialists and jurists have emphaised as offering the best solution for social harmony and peace. In this conection, Bhagavan Mahavira has preached the twofold path for achievement of this objective.
The principle of Ahimsa which in its posi-" tive aspect stands for universal love and compassion naturally envisages a society in which all live in peace and comfort. It was Samantabhadra Acharya who in his book Yuktyanusasana said that the kind life which Bhagavan Mahavira wanted for all living beings was Sarvodaya-tirtha, that is, a holy message for universal peace and prosperity with mutual tolerance.
Having given to the humanity the secrets purposeful living with compassion, truthfulness, honesty, celibacy and voluntary limitations on earnings and and accumylation, Bhagavan Mahavira preached the doctrine of Syadvada so that the followers of Jainism could avoid conflicts due to dogmatism and intolerance. Syadvada endeavoured to abolish metaphysical fanaticism and rejected blind ritualism.
The first is that we should always remember that the grace of living consists in mutual help (parasparopagraho Jivanam). If we have to follow this advice in practice, we must help each other and that would not be possible if we live a selfish life. Einstine also said : "Man is here for the sake of other men". Selfscrifice needs both self-restraint and selfdetachment It is our greed and our love for greater comforts than what are needed for a healthy mind and body that are responsible for the instinct of accumulation. Today, the gulf between the rich and poor has become so wide that there is rivalry between the capitalist and communist nations. That is not happy either for those countries or for the whole world in general. The doctrine of peaceful coexistence needs mutual adjustment by equitable distribution of food, clothing and shelter.
With this ethical back-ground, if properly utilized for personal enlightenment and purification, then the path of liberation would be free from material thorns. Right Perception, Right Knowledge and Right Conduct together constitute the path of liberation. While some faiths have emphasised on devotion, others on Knowledge or Jnana and still others on Karma or conduct, Jainism considers that all the three in unison and harmony are essential for attainment of liberation. Faith without knowledge and knowledge without faith can only amount to misconceptions; conduct without the other two will be only an aimless march in the wilderness of worldly existence. All the three jewels together can form a safe
The other path is the creation of a society based on equality and tolerance.
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guide on the path of liberation lighting the dark corners on the way.
substances; by his perception, he acquires the intense purity of his Faith; and by the Force of his Right Conduct, he can break the shackles of Karma. By austerities, he can maintain the serenity of his mind and attain to greater purity. If purity of life is reinforced by Dharma-dhyana, he can go nearer the goal. If you bury your mind within the Soul in you, you would have marched very near your goal of liberation.
Right faith and knowledge will help in the cultivation of self-restraint which is the sheet-anchor for self-conquest. Bhagawana Mahavira advised his disciples : *Subduey our Self, for the Self is difficult to subdue; if your Self is subdued, you will be happy in this world and in the next. Better it is that I should subdue my Self by self-control and penance than be subdued by others with fetters and corporal punishment.' (Uttara. I. 15, 16). He who wants to be a better man spiritually, must heed this advice and follow it in letter and spirit. We should remember that unless the ash is cleared, the bright fire within, cannot be visible and cannot give light. So also, unless we purify our thoughts and actions by self control we can never see the nature of the Self. We will ever continue to grope in the dark for light without the lamp.
In fine, Jainism offers a practical solution to miseries of life. Right Conduct is the stepping stone to salvation. Attain purity of mind by subduing your passions; by purity of mind, you can acquire purity of soul. It is by attaining the purity of soul that the Atman can become the Paramatman. Be free from external and internal attachments and you will see the light of liberation. You cannot acquire purity without truth and Ahimsa. You cannot get the benefit of your religion, unless you have purity within you. Without realizing the core of the religion, you cannot reach the goal. Without liberation, there cannot be eternal bliss.
The veils of Karmas make us blind to the light of infinite perception, knowledge, bliss and power which are the emiable attributes of our own Self. The veils must be destroyed by Right understanding backed up by unstinted faith. It is the passions that bind us with fresh Karmas. He who has subdued the passions will find light from his own Soul. A blurred mirror can show only a dim image; so also, a person who has become a slave to his passions like anger, hatred, attachment etc caunot experience the joy of his own Soul. By Knowledge, the Self understands the principles of Jiva and the nature of
It is given to everyone to be in constant search. For the avrage individual. the message of Bhagavan Mahavira is that one should create an awareness in oneself that Knowledge of the Atman is bliss and white ignorance only involves one into interminable transmigrations. No one is high by birth; our virtues raise us high while our vices reduce us to lower state of existence. Whether to use our
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human birth for Self-elevation or demotion, is entirely dependent upon our own personal exertion, gradual advancement from the first Gunasthana to the next higher, step by step by step till we reach the fourteenth stage of final beattitude shonld be our constant endeavour.
the juice of happiness produced by contact with sons and others begins to trickle down. The Jiva gets a strong desire to taste the juice. The bees that had gathered round about begin to bite the Jiva. Yet the Jiva begins wasting its time in tasting the juice thinking that it alone constitutes the happiness. A food gets addicted like this: while the wise men instead of spending their time getting absorbed in tasting such sensual pleasures, renounce the attachments and spend their time in difficult austerities,
The only way of progressive enhancement of consciousness is to develop a conviction about the distinction between the soul and the body, about the futility of developing the latter at the cost of the former and about the ceaseless search for the light within. Remember the most realistic following picture of a Jiva in mundane existence as drawn by a great Jaina Acharya :
These are the realities of life. Bhagavan Mahavira woke up right from his childhood and renounced all attachments, including his royal throne and its grandeur, adopted a life of stringent austerities and attained liberation. The duty of those who desire to be free from the miseries of this life is clear; Acuire Right Faith, Right Knowledge and cultiva Right Conduct and note that your salvation lies in trying to get hold of the three jewels and get light from them to guide you in life.
A Jiva is wandering in the garden of mundane existence; an intoxicated angry elephant in the form of Death started running after it; the Jiva also starts running; the moment it becames exhausted by running, it hides itself in a big tree; at the root of the tree a number of creepers like gotra, low birth, etc have spread all round; just then, the Jiva is about to fall into a well but it catches hold of a creeper in the form of Ayus (life-span). Catching hold of it, it remains dangling and struggling. Just then, micc in the form of dark half and bright half of a month begin to bite that creeper, Serpants in the seven bells begin moving about with mouths open to eat away the Jiva. From the tree,
Jainism is a practical way of life. It does not advise evry one to jump high because all cannot reach the highest rung of the ladder by a single jump. Life is a long pilgrimage attended with the dangers of a long journey. Those who are cautious and possess the eternal lamp shall alone be able to wade through safely to liberation or some other place of happiness.
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PEARLS
As all rivers one after the other Merge their self in the ocean So merge all religions In bhagavati ahimsa
-Sambodha-sittari, 16
Truth is God The very quintessence of worldly life, Deeper than the ocean,1 Steadier than the mountain, More tranquil than the moon, More radiant than the sun, More transparent than the autumnal sky More fragrant than the Gandhamadana.
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- Prasna-vyakaran, 2
Truth uttered under rage is virtually falsehood.
-Dasavaikalika Churni, 7.7
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जैन धर्म-दर्शन
चतुर्थं खण्ड
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दर्शन के क्षेत्र में ज्ञान और ज्ञेय की मीमांसा चिरकाल से होती रही है। आदर्शवादी और विज्ञानवादी दर्शन ज्ञेय की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार नहीं करते । वे केवल ज्ञान की ही सत्ता को मान्य करते हैं । अनेकान्त का मूल आधार यह है कि ज्ञान की भाँति ज्ञेय की भी स्वतंत्र सत्ता है । द्रव्य ज्ञान के द्वारा जाना जाता है, इसलिए वह ज्ञेय है । ज्ञेय चैतन्य के द्वारा जाना जाता है. इसलिए वह ज्ञान है । ज्ञेय और ज्ञान अन्योन्याश्रित नहीं हैं । ज्ञेय है, इसलिए ज्ञान है और ज्ञान है, इसलिए ज्ञेय है। इस प्रकार यदि एक के होने पर दूसरे का होना सिद्ध हो तो ज्ञेय और ज्ञान दोनों की स्वतंत्र सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती । द्रव्य का होना ज्ञान पर निर्भर नहीं है और ज्ञान का होना द्रव्य पर निर्भर नहीं है । इसलिए द्रव्य और ज्ञान दोनों स्वतंत्र हैं । ज्ञान के द्वारा द्रव्य जाना जाता है, इसलिए उनमें ज्ञेय और ज्ञान का संबंध है ।
ज्ञेय अनन्त है और ज्ञान भी अनन्त है । अनन्त को अनन्त के द्वारा जाना जा सकता है । जानने का अगला पर्याय है कहना । अनन्त को जाना जा सकता है. कहा नहीं जा सकता । कहने की शक्ति बहुत सीमित है । जिसका ज्ञान अनावृत होता है, वह भी उतना ही कह सकता है, जितना कोई दूसरा कह सकता है । भाषा की क्षमता ही ऐसी है कि उसके द्वारा एक क्षण में एक साथ एक ही शब्द कहा जा सकता है । हमारे ज्ञान की क्षमता भी ऐसी है कि हम अनन्तधर्मा द्रव्य को नहीं जान सकते। हम अनन्त धर्मात्मक द्रव्य के एक धर्म को जानते हैं और एक ही धर्म का प्रतिपादन करते हैं । एक धर्म को जानना और एक धर्म को कहना नय है । यह अनेकान्त और स्याद्वाद का मौलिक स्वरूप है । उनका दूसरा स्वरूप है प्रमाण । अनन्तधर्मात्मिक द्रव्य
तीर्थंकर महावीर
७९
का
अनेकांत
और
स्याद्वाद दर्शन
को जानना और उसका प्रतिपादन करना प्रमाण है । हम अनन्तधर्मा द्रव्य को किसी एक धर्म के माध्यम से जानते । इसमें मुख्य और गौण दो दृष्टिकोण होते हैं । द्रव्य के अनन्त धर्मों में से कोई एक धर्म मुख्य हो जाता है और शेष धर्म गौण । नय हमारी वह ज्ञान पद्धति है, जिससे हम केवल धर्म को जानते हैं, धर्मों को नहीं जानते । प्रमाण हमारी वह ज्ञान पद्धति है, जिससे हम एक धर्म के माध्यम से समग्र धर्मी को जानते हैं । हम अँधेरे में बैठे हैं । कोई आदमी गुलाब के फूल ले आता है । हम नहीं देख पाते कि उसके पास क्या है ? पर सुगंध से पता चल जाता है कि उसके पास गुलाब के फूल हैं । गुलाब के फूलों में केवल सुगंध ही नहीं है । उनमें रंग भी है, स्पर्श भी है और भी अनेक धर्म है । यदि प्रकाश होता तो हम उन्हें आंखों से देखकर जान लेते । अनेक धर्मों में से जो भी धर्म मुख्य होकर हमारे सामने आता है, वही उसके आवारभूत द्रव्य को जानने
०
आचार्य श्री तुलसी
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का माध्यम बन जाता है। इस ज्ञान-पद्धति में द्रव्य और कर सकते कि सत्य के समग्र रूप को कहने की क्षमता धर्म की अभिता का बोध बना रहता है। यह प्रमा- किसी में भी नही होती। इसलिए सत्य की सारी णात्मक अनेकान्त है । द्रव्य और धर्म या पर्याय सर्वथा व्याख्या नय के आधार पर होती है। हम अखण्ड को अभिन्न नहीं है। उनकी अभिन्नता एक अपेक्षा या एक खण्ड रूप में जानते हैं और खण्ड रूप में ही उसका दृष्टिकोण से सिद्ध है। इस अपेक्षा के सूत्र को ध्यान में प्रतिपादन करते हैं । अत: किसी खण्ड को जानकर उसे रखकर धर्मी और धर्म की अभिन्नता को स्वीकार करने अखण्ड कहने का आग्रह हमें नहीं करना चाहिए । खण्ड वाली ज्ञान-पद्धति का नाम अनेकान्त है। एकान्त ज्ञान का आग्रह न बने, इसीलिए भगवान महावीर ने सापेक्ष से हम धर्मी और धर्म की अभिन्नता को स्वीकार नहीं दृष्टि का सूत्र किया। सोना पीला हैं, यह सोने का एक कर सकते। धर्मी एक द्रव्य है और धर्म उसमें होने धर्म है। उसमें और भी अनेक धर्म हैं । यह प्रत्यक्ष देखते वाले पर्याय हैं, वे दोनों अभिन्न नहीं हो सकते । अनन्त हुए भी हमें नहीं कहना चाहिए कि सोना पीला ही है। धर्मात्मक द्रव्य का किसी एक धर्म के माध्यम से प्रति- पीला रंग व्यक्त है, इसलिए हमें सोना पीला दिखाई पादन करना स्याद्वाद (या प्रमाण वाक्य) हैं। देता है । अव्यक्त में न जाने और क्या-क्या है ? उसके
सूक्ष्म रूप में प्रबेश किए बिना केवल स्थल रूप के ज्ञान पद्धति अनेकान्त है और प्रतिपादन पद्धति
आधार पर हम कैसे कह सकते हैं कि सोना पीला ही स्याद्वाद । अनेकान्त के दो रूप हैं -प्रमाण और नय।
है। क्या इससे व्यवहार का अतिक्रमण नहीं होगा? प्रतिपादन की दो पद्धतियाँ हैं-समग्र द्रव्य के प्रतिपादन
सोना जब प्रत्यक्षत: पीला दिखाई दे रहा है, हरा काला का नाम स्याद्वाद हैं और एक धर्म के प्रतिपादन का
दिखाई नहीं दे रहा है, तब हमें क्यों नहीं कहता चाहिए नाम नय।
कि सोना पीला ही है। व्यक्त पर्याय में सोना पीला ही - वस्तु के जितने धर्म होते हैं, उतने ही नय होते हैं। है, यह हम कह सकते हैं, किन्तु त्रैकालिक और अव्यक्त जितने नय होते हैं, उतने ही वचन के प्रकार हो सकते पर्यायों को दृष्टि में रखते हुए हम नहीं कह सकते कि सोना हैं। किन्तु कहा उतना ही जाता है, जितना कालमान होता पीला ही है। इसलिए सोना पीला ही है, यह निरूपण है। अनेकान्त का पहला फलित है अनाग्रह, सत्य के प्रति- सापेक्ष हो सकता है, निरपेक्ष नहीं। सोने में विद्यमान पादन की अक्षमता का बोध । सब लोगों में सत्य (या अनेक धर्मों को दृष्टि में रखते हुए भी हम यह कह सकते द्रव्य) के समग्र रूप को जानने की क्षमता नहीं होती। हैं कि सोना पीला ही है। शब्द का प्रयोग यह सूचित हम इस बात को छोड़ भी दें। सत्य को जानने का करता है कि सोने का पीला होना संदिग्ध नही है। कुछ अधिकार सब को है, सब उसे जान सकते हैं, यह मान लोग मानते हैं कि स्याद्वाद संदेहवाद है। किन्तु यह कर चलें। फिर भी हम इस तथ्य को अस्वीकार नहीं वास्तविकता नहीं है। संदेह अज्ञान की दशा में होता
1. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ४५० । उवकोसयसुतणाणी वि जाणमाणो वि तेऽभिलप्पे वि ।
ण तरित सव्वे वोत्तुग पहुप्पति जेण कालो से ॥ ' -इह तानुत्कृष्टश्र तो जाननोऽभिलाप्यानपि सर्वान् (न) भाषते, अनन्तत्वात्, परिमितत्वाच्चायुषः,
क्रमवर्तिनीत्वाद् वाच इति ।।
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है। हम जानते हैं कि सोना पीला है, किन्तु साथ-साथ है। केवल प्रमाण को माननेवाले ताकिक इसीलिए यह भी जानते हैं कि वह केवल पीला ही नहीं है, कुछ एकान्तवादी हैं कि वे नय को नहीं मानते । अनेकान्त और भी है। सापेक्षता की दृष्टि से हम कहते हैं सोना का मूल आधार नय है । द्रव्य के अनन्त धर्मों या पर्यायों पीला है। सोना पीला है, यह कहना सदिग्ध नहीं है, को अनन्त दृष्टिकोणों से देखे बिना एकान्तिक आग्रह से व्यक्त पर्याय की दृष्टि से यह असंदिग्ध है, इसलिए मुक्ति नहीं मिल सकती। द्रव्य के अनन्त धर्मों में यदि म्याद्वाद की भाषा में हम कहते हैं कि सोना पीला ही अपेक्षा सूत्र न हो तो वे एक-दूसरे के प्रतिपक्ष में खड़े हो
जाते हैं। नित्यता-अनित्यता के प्रतिपक्ष में खड़ी है अनेकान्त में नय का स्थान प्रधान रहा है।
और अनित्यता नित्यता के प्रतिपक्ष में। यह आमनेआगमसाहित्य में प्रमाण की अपेक्षा नय का अधिक।
सामने खड़ी होने वाली सैनिक मनोवत्ति को नय दृष्टि व्यापक प्रयोग मिलता है। न्यायशास्त्र के विकास
के द्वारा ही टाला जा सकता है। के साथ प्रमाण की चर्चा प्रारम्भ होती है। प्राचीन साहित्य में पांच ज्ञान उपलब्ध होते हैं । उनमें द्रव्याथिक नय ध्र व अंश का निरूपण करता है, मति, अवधि, मन : पर्यव और केवल-ये चार ज्ञान इसलिए उसके मतानुसार द्रव्य नित्य है । पर्यायार्थिक
श्रत ज्ञान स्वार्थ और परार्थ दोनों नय परिवर्तन अंश का निरूपण करता है, इसलिए होता है । नय श्रत ज्ञान के विकल्प हैं। अन्य दार्शनिक उसके मतानुसार पर्याय अनित्य है। यदि द्रव्य नित्य प्रमाण को मानते थे पर नय का सिद्धान्त किसी भी और पर्याय अनित्य हो तो वे एक-दूसरे के प्रतिपक्ष में दर्शन में निरूपित नहीं है। प्रमाण की चर्चा के प्रधान खड़े हो सकते हैं । पर द्रव्याथिक नय इस अपेक्षा को होने पर यह प्रश्न उठा कि नय प्रमाण है या अप्रमाण? नहीं भूलता कि पर्याय के बिना द्रव्य का कोई अस्तित्व यदि अप्रमाण है तो उससे कोई अर्थसिद्धि नहीं हो नहीं है और पर्यायाथिक नय इस बात को नहीं भूलता सकती। यदि वह प्रमाण है तो फिर प्रमाण और नय कि द्रव्य के बिना पर्याय का कोई अस्तित्व नहीं है। तब एक ही हो जाते हैं, दो नहीं रहते। जैन ताकिकों ने नित्यता और अनित्यता सापेक्ष हो जाती है। द्रव्य और इसका समाधान प्रमाण और नय के स्वरूप को ध्यान में पर्याय सर्वथा भिन्न नहीं हैं, इसलिए नित्य और अनित्य रखते हुए दिया। उन्होंने कहा-ज्ञानात्मक नयन भी सर्वथा भिन्न नहीं हैं । वे दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। अप्रमाण है और न प्रमाण । वह प्रमाण का एक अंश सापेक्षता के मूल सूत्र ये हैहै। धर्मी में प्रवृत्त होनेवाला ज्ञान जैसे प्रमाण होता है, वैसे ही धर्म (एक पर्याय) में प्रवृत्त ज्ञान नय होता 1 द्रव्य अनन्त धर्मात्मक है।
1. प्रमाणनयतत्वालोकालंकार ७७१४
श्रु तार्थाशांश एवेह योऽभिप्रायः प्रवर्तते । इतरांशाप्रतिक्षेपी स नयः सुव्यवस्थितः ।। तत्वार्यश्लोकवातिक, प० १२३, श्लोक २१ नाप्रमाणं प्रमाणं वा नयो ज्ञानात्मको मतः । स्यात्प्रमाणेकदेशस्तु सर्वथाप्यविरोधतः ।।
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2 द्रव्य में प्रोव्य और परिवर्तनीय दोनों धर्म होते हैं। उन्हें कभी पृथक नहीं किया जा सकता।
3 घ्रौव्य और परिवर्तनीय धर्म अभिवक्त होते हुए भी अपने-अपने स्वभाव में रहते हैं, इसलिए द्रध्य की नित्यता और अनित्यता में कोई निरोध नहीं है ।
4 अस्तित्व और नास्तित्व भी सापेक्ष हैं । वे एकदूसरे के विरोधी नहीं हैं।
5
हम द्रव्य को एक धर्म के माध्यम से जानते हैं, समग्र द्रव्य को नहीं जान सकते ।
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6 हम एक क्षण में द्रव्य के एक ही धर्म का प्रतिपादन कर सकते हैं ।
7 धर्मों की निरपेक्षता मानने से विरोध की प्रतीति होती है । सापेक्षता से विरोध का परिहार हो जाता है ।
इन सूत्रों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि अनेकान्त और स्वाद्वाद का जितना दार्श निक मूल्य है, उतना ही आध्यात्मिक और अहिंसात्मक मूल्य है।
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वर्तमान युग में श्रमा
O उपाध्याय मुनि श्री विद्यानन्द जो
उज्जवल श्रमण परम्परा
श्रमण संस्कृति की उज्ज्वल परम्परा ने शील, संयम; तप और शौच को चारित्र में परिवर्तित कर मानव-जीवन को युगों-युगों से विभूतिमय किया है । आचार और विचार के क्षेत्र में युगान्तरकारी परिवर्तन उपस्थित किए हैं। मानव को मानव समझने का विवेक जन-मानस में अंकुरित किया है और अखिल मंगलमय अहिंसामूलक विश्व मंत्री का सन्देश दिया है । समयसमय पर आनेवाले दुरन्त उपसर्गों को पार कर आज भी वह अपने अर्ध धरातल पर अवस्थित है और काल प्रभाव से प्रभावित न होते हुए काल-दोषों को निरस्त करने में ही संलग्न है । आज जबकि विश्व में काले, गोरे तथा परस्पर भिन्न जाति सत्ताक मानवों में एकदूसरे को समाप्त करने की स्पर्धा लगी हुई है, जिज्ञासु वृत्ति से सीमातिक्रमण किये जा रहे हैं, मानव को परि त्राण देने का पाथेय केवल उदर श्रमण संस्कृति में हैं । क्षमा और अहिंसा के मणि पीठ से भगवती जिनवाणी
पुकार-पुकार कर कहती है । "खम्मामि सव्वजीवान् सव्वे जीवा खमन्तु मे" मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ और सारे जीव मुझे क्षमा करें । सम्पूर्ण भूगोल और खगोल पर एकाधिपत्य चाहने वालों को "परिग्रहपरिमाण के सूक्त श्रमण संस्कृति ने ही दिए हैं। जहां शरीर भी परिग्रह है वहाँ संग्रह वृत्ति के लिए स्थान कहाँ ? ऐसी उदार, करुणावतार तीर्थं करवाणी का प्रसार कर्ता निर्मल मन, काय, वचन दिखलाता, जन को मोक्ष द्वार । सम्यक्त्व - शिला पर लिखे यहाँ दर्शन ज्ञान चारित्र - लेख, सम्पूर्ण विश्व को अभयदान देते जिनवाणी के प्रदेश | इसकी कल्प वृक्ष छाया में स्थित होकर मानव धर्म ने अपना सर्वस्व प्राप्त किया है ।
श्रमण-संस्कृति का मानव-जाति पर उपचार :
इस संस्कृति ने मानव को भक्ति मार्ग दिया, मुक्ति पथ के रत्न-सोपानों की रचना की और विश्वबन्धुत्व के भाव दिये । इसमें आश्रय में पल कर मनुष्य
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ने अहिसक समाज की रचना की और अपने को करते है और अपने एकांगी एकान्त ज्ञान को सत्य व्यसनों से मुक्त किया । व्रत-रहित-गन्तव्य मान से ठहराते हैं, उसी प्रकार मोक्ष मार्ग के त्रिरत्न-सत्य को अजान मानव को ब्रत-निष्ट किया तथा इन्द्रियों की विभक्त कर एक दूसरे से निरपेक्षता रखनेवाले सामादासता से मुक्त किया । इसी के नेतृत्व में मनुष्य जिकों ने सर्वोदयी तीर्थ के तीन मणिसोपानों का आदर्शो के ऊँचे मार्गों का आरोही बना और इसी के अलग-अलग अपहरण कर लिया है। आचार्य मार्ग से चलकर उसने कैवल्य प्राप्त किया।
भावात्मक विभिन्नता के दुष्परिणाम न धौधामिर्कविना
यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो इस अपहरण ऐसी निर्दोष संस्कृति में आज जान बूझकर विकारों।
काण्ड से समाज में गिरावट ही आई है । एक के पास का प्रवेश कराया जा रहा है । जहाँ श्रमण श्रमणी कर्म के संवर करने का दिव्यारग रह गया है तो और श्रावक श्राविका (चतुःसंघ) मिलकर धर्म के इस ।
निर्जरा का अमोधास्त्र नहीं है तो दूसरे के पास निर्जरा महारथ को खीचते थे, वहीं आज ये पृथक-पृथक मात्र रहकर 'संवर' का अभाव हो गया है। परिणाम होकर 'महारथ' को गति देने में असमर्थ हो गये हैं। स्वरूप विसंवाद और शिथिलाचार का प्रवेश हो गया अंग अंगी के समान धर्म और धार्मिक का नित्य संबन्ध
है। समाज अपने संगठन की शक्ति को खोता जा रहा है। न धर्मों धार्मिकैविना यह अव्यभिचारी सूत्र हैं।
है। 'नागेन्द्रा अपि बध्यवन्ते संहतैस्तणसंचयः' तिनकों तीन रत्नों की माला
की रस्सी बनाकर उससे गजराज को बांध लिया जाता
है । किन्तु यदि तिनका-तिनका पृथक कर दिया जाए मोक्ष मार्ग का निरूपण करते हुए सम्यग्दर्शन-ज्ञान तो स्पष्ट है कि उसमें गजेन्द्रबन्धन का सामर्थ्य नहीं चारित्राणि मोक्ष-मार्ग: कहा गया है। "मोक्षमार्ग" पद है। सम्यक्तवानुपूविक दर्शन-ज्ञान-चारित्र को एक बंटी एकवचनान्त है और सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्राणी' बहु हुई रस्सी के रूप में देखनेवाला ही उससे परम पुरुषार्थ वचन है। मोक्ष मार्ग में 'त्रितयमिदं व्याग्रियते' ये तीनों की उपलब्धि कर सकता है। इस समन्वित दृष्टि कोण साधन है। इनमें से किसी एक अंग को लेकर प्रवर्त- को चतुःसंघ की भावात्मक एकता से ही प्राप्त किया मान होनेवाले सम्यकत्व की अखिलता को जानकर जा सकता है। आहार देनेवाला और उसे ग्रहण करने उसके खण्ड से चिपके हुए है। समाज का पण्डित वर्ग वाला तथा आहारशास्त्र की व्यवस्था देनेवाला सम्यक्तव परिच्छिन्न ज्ञान को लिए घूमता है। श्रावक (श्रावक-श्रमण और पण्डित) तीनों यदि संघ प्रेम से समदर्शन से सन्तुष्ट है, और त्यागी चारित्र मात्र में कर्तव्य-नियोजित हों तो आचारशैथिल्य आ ही नहीं अपने श्रामण्य को कृतार्थ समझते हैं । एक सूत्र में पाएगा। अपना हाथ अपने मुह में विषाक्त कवल नहीं पिरोने पर जो माला निर्माण की जाती है, उसी की देता। किन्तु अपने हाथ और मुंह जो शरीर के अंग एक-एक मणि को विकीर्ण करने में माला का गुम्फ नहीं हैं तथा अगी के लिए कर्त्तव्य समर्पित हैं यदि अपना आ पाता । सम्यकत्व से विशिष्ट दर्शन ज्ञान और 'गांगी' भाव भूल जाएंगे तो विषकवल देना हाथ के चारित्र की यह माला ही अपने अत्रुटित जाप्य से मोक्ष लिए और उसे उदरसात् करना मुह के लिए कठिन सिद्धि दे सकती है । इसे एकैकश: विभक्त करनेवाले नहीं होगा। 'एकोदराः पृथग्ग्रीवा अन्योन्यफलभक्षिण: तो 'अन्धगजन्याय' के अनुगामी हैं। जैसे 'अन्धगजन्याय- त एव निधनं यान्ति' यह एक कथा है जिसमें बताया वादी परस्पर अपने 'गज' सम्बन्धी ज्ञान पर विवाद गया है कि एक पशु के पेट तो एक था, किन्तु मुख दो
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थे । एक दिन दोनों मुख किसी बात पर झगड़ने लगे । परस्पर की बैर भावना से उनमें से एक मुख ने विष खा लिया। पेट तो एक ही था । परिणाम यह हुआ कि वह मर गया । जो एकोदर होकर विसंवादी मुख रखते हैं वे अपनी ही मृत्यु के निमंत्रयिता बनते हैं ।
परस्परोपग्रह- एकमात्र समाधान
भावात्मक एकता में कभी-कभी ऐसा ही होता है कि दूसरे के अनिष्ट चिन्तन में अपना अहित हम कर बैठते है । अपने सम्पूर्ण अंग से प्र ेम करने वाला अंग के किसी अंश के दूषण को दूर करने में अपना सम्पूर्ण यत्न लगा देगा । यदि पाँव में काँटा चुभ गया है और सुई पास नहीं है तो वह अपने नखों से भी उसे निकाल बाहर करेगा । यही अंग धर्म है । चतुःसंघ में। जैसा कि आज सुनने में आ रहा है, यदि आचार शैथिल्य प्रवेश कर गया है तो अंगांगी भाव से उसका निराकरण करना अधिक श्रेष्ट है । एक दूसरे पर दोषारोपण न करके 'परस्परोपग्रह' से अपने आपको थिय को दूर कर सकें तो वह अच्छा रहेगा। कोई भी विनाशक तत्व सूचीमुख होकर प्रवेश करता है और जब निकलता है तो गोली के समान निकलने के मार्ग को विस्तीर्ण कर देता है । शिथिलाचार के विषय में भी ऐसा ही कहा जा सकता है ।
लोकैषणा का अनुचित रूप
आजकल के छपे धार्मिक ग्रन्थों में अर्थ सहायता करनेवाले धनिक के फोटो छापे जाते है । जिनकी प्रेरणा से ग्रन्थ छपते है उन श्रमणों के भी चित्र उनमें होते हैं । जो लोग रात दिन हजारों लाखों रुपयों से खेलते हैं, वे धार्मिक ग्रन्थों के पृष्ठों से अन्यत्र अपना अर्थ-व्यय करते समय कभी 'फोटो' नहीं छपवाते किन्तु धर्मध्वज होने की तृष्णा में लोकैषणा साथ मिली होती । केवल धर्म भाव से 'गुप्तदान" आजकल नहीं किया
जाता । भले ही अधर्मं करते समय व्यय किये गये लाखों रुपयों पर उनकी 'फोटो' न लगे, किन्तु धर्म शरीर पर उनकी मुद्रा (द्रव्य) अमुद्रित कैसे रहे ? अपने मान को करते समय धर्म ग्रन्थों की मर्यादा को भुलानेवाले स्वयं अपने कृत्य पर सोचें । इधर कुछ समय से मुनि मूर्तियाँ बनाई जा रही हैं। पहले जिनवाणी के साथ फोटो छपते थे अब 'जिन' भगवान के साथ मूर्ति भी रखी जाया करेगी । धीरे-धीरे प्रगति की जा रही है । एक वे त्यागी थे, जिन्होंने जिनवाणी को ग्रन्थ रचना का रूप देकर भी अपने आपको पर्दे में रखा, परिचय तक नहीं लिखा और धर्म ध्यान करते हुए जीवन को सार्थक किया । श्रावकों ने भावना से अभिभूत होकर उनकी 'चरण पादुका' विराजमान कर दी । उन चरण पादुकाओं का इतिहास भी विशेष विस्तृत नहीं । पंचम काल के श्रुतकेवली भद्रबाहु आचार्य और ज्ञान ज्योति से भासमान कुन्दकुन्द आचार्य जैसों की समाधि मरणोत्तर प्रतिष्ठा के रूप में 'पद पादुकाएँ' मिलती हैं । चन्द्रगिरि पहाड़ी का शिला लेख है 'जिनशासना यावनवरत 'भद्रबाहु चन्द्र गुप्त' मुनिपतिचरण मुद्राकित विशालशी.... 162 । कुन्दाद्रि आदि क्षेत्रों में भी आचार्य कुन्दकुन्द की चरण पादूकाएं ही मिलती हैं, मूर्तियाँ नहीं । आज तो पंचम काल अपनी सम्पूर्ण ग्रभविष्णुता के साथ ताल देकर नाच रहा है । शरीर को भी परिग्रह माननेवाले मुनि प्रतिमाओं के लिए प्रेरणा दे रहे हैं । किन्तु नातस्त्वमसि नो महान् " कहने का साहस रखनेवाले परीक्षा प्रधानियों को आगम विरुद्धता से उत्कीर्ण ये प्रस्तर क्या मान्य होंगे ?
समय की माँग
समय की माँग तो यह है कि सहसूत्रातिसहस्त्र मूर्ति से सम्पन्न जैन-जगत नवीन मूर्ति निर्माण से पूर्व अपने मन्दिरों, चैत्यालयों में प्रतिष्ठापित जिन बिम्बों की पूजा प्रक्षाल की व्यवस्था करे । ग्रन्थों और मूर्तियों
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की संख्या कम नहीं है। कभी है तो उनके स्वाध्यायियों और उपासकों की है । इस संख्या को बढ़ाने की ओर ध्यान देना अतीव आवश्यक है। भगवान की मूर्तियां, एक एक मन्दिर में अनेक है। देव दर्शन के नियमों का पालन करने में अपनी धर्म प्रवृत्ति लगाओ। धर्म और जीवन को एकाकार करो मत समझो कि मन्दिर से लौटने पर मूर्ति आँखों से परोक्ष हो गई । भावचक्षुओं में उसे अहर्निश विराजमान रखो। दश दिनों में दश
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लक्षण पर्वो को समर्पित मत करो। प्रत्येक दिन अहिंसा का है, क्षमावाणी का है । जब तक धर्म की इस दार्शनिक व्याख्या हृदयंगम नहीं करोगे, धर्म जीवन का अंग बनेगा । अग्नि और उसका दाहकत्व, पानी और उसका शीतत्व, अग्नि से पृथक् होकर नहीं रहता। धर्म और धर्मी एक नीड होकर रहते हैं। श्रमण संस्कृति की सुरक्षा के लिए यह स्मरण रखना आवश्यक है ।
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जैन योग में कँडलिनी
० मुनि श्री नथमल
योग की उपयोगिता जैसे-जैसे वढती जा रही है है। अग्नि ज्वाला के समान लाल वर्ण वाले पदगलों के वैसे-वैसे उस विषय में जिज्ञासाएँ भी बढ़ती जा रही हैं। योग से होने वाली चैतन्य की परिणति का नाम तेजोयोग की चर्चा में कुडलिनी का सर्वोपरि महत्व है। लेश्या है। यह तप की विभूति से होनेवाली तेजस्विता बहुत लोग पूछते हैं कि जैन योग में कूडलिनी सम्मत है। है या नहीं? यदि वह एक वास्तविकता है तो फिर कोई भी योग-परंपरा उसे अस्वीकृत कैसे कर सकती
हम शरीरधारी हैं । हमारे शरीर दो प्रकार के है ? वह कोई सैद्धान्तिक मान्यता नहीं है किन्तु एक
हैं---स्थूल और सूक्ष्म । हमारा अस्थि-चर्ममय शरीर
स्थूल है। तैजस और कर्म-ये दो शरीर सक्षम हैं । यथार्थ शक्ति है। उसे अस्वीकृत करने का प्रश्न ही नहीं
हमारी सक्रियता, तेजस्विता और पाचन का मुल हो सकता।
तैजस शरीर है । वह स्थूल शरीर के भीतर रहकर जैन परम्परा के प्राचीन साहित्य में कूडलिनी दीप्ति या तेजस्विता उत्पन्न करता रहता है। साधना के शब्द का प्रायोग नहीं मिलता । उत्तरवर्ती साहित्य में द्वारा उसकी शक्ति विकसित करली जाती है। तब इसका प्रयोग मिलता है। वह तंत्रशास्त्र और हठयोग उसमें निग्रह और अनुग्रह की क्षमता उत्पन्न हो जाती का प्रभाव है। आगम और उसके व्याख्या साहित्य में है। इस शक्ति का नाम तेजोलब्धि है। यह तेजस शक्ति कुंडलिनी का नाम तेजोलेश्या है। इसे इस प्रकार भी उष्ण और शीत-दोनों प्रकार की होती है । उष्ण कहा जा सकता है कि हठयोग में कुडलिनी का जो तेजोलब्धि के प्रहार को शीतल-तेजोलब्धि निष्फल बना नर्णन है, उसकी तेजोलेश्या से तुलना की जा सकती देती है। बालतपस्वी वैश्यायन से गोशालक को जलाने के
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ठाणं १११६४, वृत्ति पत्र २६: तेज-अग्निज्वाला, तद वर्णानि यानि द्रव्याणि लोहितानी त्यर्थः, तत्साचिव्याज्जाता तेजोलेश्या, शुभस्वभावा।
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लिए उष्ण-तेजोलब्धि का प्रयोग किया तब महावीर ने शीतल-तेजोलब्धि का प्रयोग कर उसे निष्फल बना दिया । गोशालक ने महावीर से पूछा- 'भंते ! यह तेजोलेश्या कैसे प्राप्त की जा सकती है ?' तब भगवान् ने उसे उपलब्ध करने की साधना बतलाई । उसकी चर्चा हम आगे करेंगे। वह तेजोलेश्या अप्रयोगकाल में संक्षिप्त और प्रयोगकाल में विपुल हो जाती है । "
वह विपुल अवस्था में सूर्य-बिम्ब के समान दुर्दर्श होती है' - इतनी चकाचौंध पैदा करती है कि आदमी उसे खुली आँखों से देख नहीं सकता । यही तथ्य हठयोग में 'सूर्यकोटिसमपुत्रम्' इस वाक्य के द्वारा व्यक्त किया गया हैं । तेजोलब्धि का प्रयोग करनेवाला जब अपनी इस तेजस शक्ति को बाहर फेंकता है तब वह महाज्वाला के रूप में विकराल हो जाती है ।" तैजस शरीर की शक्ति के दो कार्य हैं- दाह (शाप या निग्रह) और अनुग्रह । तैजस शरीर दो प्रकार का होता है - स्वाभाविक और लब्धिहेतुक | स्वाभाविक तैजस शरीर
2. भगवई १५६६, वृत्ति पत्र ६६ :
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सबको प्राप्त होता है । तपो विशेष या विशेष प्रकार की साधना करनेवाले व्यक्ति को लब्धिहेतुक तेजस शरीर उपलब्ध होता है ।" जिसे लब्धिहेतुक तैजस शरीर प्राप्त होता है वह क्रुद्ध होने पर अपनी तेजस शक्ति को बाहर निकालता है और लक्ष्य को शाक-भाजी की तरह पका देता है । वह शक्ति अपना काम कर फिर लौट आती है, फिर उसी में समाहित हो जाती है। यदि वह शक्ति बहुत समय तक बाहर ठहरती है तो उस लक्ष्य को जलाकर भस्म कर डालती है/ 17 तेजस शरीर की विकसित अवस्था का नाम तेजोलेश्या या तेजोलब्धि है और उसके प्रयोग का नाम तैजस समुद्घात है ।
संक्षिप्त प्रयोगकाले, विपुला प्रयोगकाले ।
ठाणं ३३८६, वृत्ति पत्र १३६ :
विपुलापि - विस्तीर्णापि सती अन्यथा आदित्यविम्बवत् दुर्दर्शः स्यादिति ।
ठाणं ३३८६, वृत्ति पत्र १३६ :
तेजोलेश्या - तपोविभूतिजं तेजस्वित्वं, तैजसशरीर - परिणतिरूप महाज्वालाकल्पम् ।
तत्त्वार्थवार्तिक २४६, पृष्ठ १५४ :
तेजसस्य सामर्थ्य कोपप्रसादापेक्षं दाहानुग्रहरूपम् ।
तत्वार्थ २४८
जो साधना के द्वारा तेजोलेश्या' को प्राप्त कर लेता है वह सहज आनन्द की अनुभूति में चला जाता है । इस अवस्था में विषय-वासना और आकांक्षा की सहज निवृत्ति हो जाती है । इसीलिए इस अवस्था को 'सुखासिका' (सुख में रहना) कहा जाता है ।" विशिष्ट ध्यानयोग की साधना करने वाला एक वर्ष में इतनी तेजो
तत्वार्थवार्तिक २०४६, पृष्ठ १५३ :
यतेरुप्रचारित्रस्यातिक्र ुद्धस्य जीवप्रदेशसंयुक्त बहिर्निष्क्रम्य दाह्य परिवृत्याबतिष्ठमानं निष्पावहरितपरि पूर्णां स्थालीमग्निरिव पचति पक्त्वा च निवर्तते, अथ चिरमवतिष्ठते अग्निसाद् दाह्योऽर्थो भवति ।
भगवई १४ । १३६, वृत्ति पत्र ६५७ :
तेजोलेश्यां – सुखासिकां, तेजोलेश्या हि प्रशस्तलेश्योपलक्षणं सा च सुखासिकाहेतुरिति कारणे कार्योपचा रात् तेजोलेश्याशब्देन सुखासिका विवक्षितेति ।
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लेश्या को उपलब्ध होता है कि जिससे उत्कृष्टतम बालसूर्य या प्रदीपशिखा के समान लाल होता है। भौतिक सुखों की अनुभूति अतिक्रान्त हो जाती है। उसका रस पके हुए आम के फल के रस से अत्यधिक उसे इतना सहज सुख प्राप्त होता है जो किसी भी मधुर होता है। उसकी गंध सुरभि कुसुम से अत्यधिक भौतिक पदार्थ से प्राप्त नहीं हो सकता।
सुखद होती है। उसका स्पर्श नवनीत या सिरीष कुसुम . तेजोलेश्या के दो रूप
से भी अत्यधिक मृदु होता है । हम चैतन्य और परमारगु-पुद्गल - दोनों को साथ
तेजोलेश्या का विकास साथ जी रहे हैं। हमारा जगत् न केवल चैतन्य का जगत् है और न केवल परमाणु-पुद्गल का। दोनों के
तेजोलेश्या के विकास का कोई एक ही स्रोत नहीं संयोग का जगत है। चैतन्य की शक्ति से परमाणु
है । उसका विकास अनेक स्रोतों से किया जा सकता पुद्गल सक्रिय होते हैं और परमाणु-पुद्गलों की सक्रि
है । संयम, ध्यान, वैराग्य, भक्ति उपासना, तपस्या आदियता से चैतन्य की उनके अनुरूप परिणति होती है।
आदि उसके विकास के स्रोत हैं। इन विकास-स्रोतों की इस नियम के आधार पर तेजोलेश्या के दो रूप बनते
पूरी जानकारी लिखित रूप में कहीं भी उपलब्ध नहीं हैं-भावात्मक और पुद्गलात्मक । भावात्मक तेजो
होती। यह जानकारी आचार्य शिष्य को स्वयं देता था। लेश्या चित्त की विशिष्ट परिणति या चितशक्ति है।
गोशालक ने भगवान महावीर से पूछा---'भंते ! तेजोतेजोलेश्यावाले व्यक्ति का चित्त नम्र, अचपल
लेश्या का बिकास कैसे हो सकता है ?' भगवान् ने और ऋजु हो जाता है । उसके मन में कोई कुतूहल नहीं
इसके उत्तर में उसे तेजोलेश्या के एक विकास-स्रोत का होता। उसकी इन्द्रियाँ सहज शान्त हो जाती हैं। वह
ज्ञान कराया। उन्होंने कहा--'जो साधक निरंतर दो-दो योगी (समाधि-सम्पन्न) और तपस्वी होता है। उसे ।
उपवास करता है, पारणा के दिन मुट्ठी भर उड़द या धर्म प्रिय होता है। वह धर्म का कभी अतिक्रमण नहीं मग खाता है और एक चूल्लू पानी पीता है, भुजाओं करता।
को ऊँचा कर सर्य की आतापना लेता है वह छह पुद्गलात्मक तेजोलेश्या के वर्ण, गंध, रस और महीनों के भीतर ही तेजोलेश्या को विकसित कर लेता स्पर्श विशिष्ट प्रकार के होते हैं। उसका वर्ण हिंगूल, है।1
9. 10.
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एयजाणत
भगवई १४।१३६ । उत्तरज्झयणाणि ३४।२७, २८ :
नीयावित्ती अचवले, अमाई अकूऊहले । विणीयविणए दन्ते जोगवं उवहाणवं ।। पियधम्मे दढघम्मे, वज्जभीरू हिएसए।
एयजोगसमाउत्तो, तेउलेसं तु परिणमे ।। भगवई १५॥६६, ७० : तए णं से गोसाले मंखलिपत्ते ममं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-कहण्णं भते । सखित्तविउलतेयलेस्से भवति ? तए णं अहं गोयमा ! गोसालं मखलिपुत्तं एवं वयासीजेणं गोसाला ! एगाए सणहाए कुम्भासपिडियाए एगेण य वियडासएणं छठंछठेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड़ढ़ बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सुराभिमूहे. आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ । से गं अंतो छण्ह मासाणं संतिविउलतेयलेस्से भवद ।
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स्थानांग सत्र में तेजोलेश्या के तीन विकास-स्रोत देख पाते। उसके सहायक परमाण-पूगल सूक्ष्मदृष्टि से बतलाए हैं12--
देखे जा सकते हैं। ध्यान करनेवालों को उनका यत्1. आतापना-सूर्य के ताप को सहना ।
किंचित आभास होता रहता है। . 2. क्षांतिक्षमा--समर्थ होते हए भी क्रोध-निग्रह
तेजोलेश्या और प्राण पूर्वक अप्रिय व्यवहार को सहन
तेजोलेश्या एक प्राणधारा है। किन्तु प्राणधारा करना।
और तेजोलेश्या एक ही नहीं है। हमारे शरीर में अनेक 3. जल पिए बिना तपस्या करना ।
प्राणधाराएँ हैं। इन्द्रियों की अपनी प्राणधारा है।
मन, वाणी और शरीर की अपनी प्राणधारा है। . इनमें केवल क्षांतोक्षमा नया है। शेष दो उसी विधि ।
श्वास-प्रश्वास और जीवन शक्ति की भी स्वतन्त्र प्राणके अंग हैं जो विधि महावीर ने गोशालक को सिखाई।
धाराएँ हैं। हमारे चैतन्य का जिस प्रवत्ति के साथ थी । तेजोलेश्या के निग्रह-अनुग्रह स्वरूप के विकास के
योग होता है वहीं प्राणधारा बन जाती है। इसलिए स्रोतों की यह संक्षिप्त जानकारी है। उसका जो सभी प्राणधाराएँ तेजोलेश्या नहीं हैं। तेजोलेश्या एक आनन्दात्मक स्वरूप है उसके विकास-स्रोत भावात्मक
प्राणधारा है। इन प्राणधाराओं के आधार पर शरीर तेजोलेश्या की अवस्था में होनेवाली चित्तवृत्तियाँ हैं। की क्रियाओं और विद्यत-आकर्षण के संबंध का अध्ययन चित्तवत्तियों की निर्मलता के बिना तेजोलेश्या के विकास किया जा सकता है। का प्रयत्न खतरों को निमंत्रित करने का प्रयत्न है। वे
प्राण की सक्रियता से मनुष्य के मन में अनेक खतरे शारीरिक, मानसिक और चारित्रिक--तीनों
प्रकार की वृत्तियाँ उठती हैं और जब तक तेजोलेश्या प्रकार के हो सकते हैं।
के आनन्दात्मक स्वरूप का विकास नहीं होता तब तक तेजोलेश्या का स्थान
वे उठती ही रहती हैं। कुछ लोग वायु-संयम से उन्हें तैजस शरीर हमारे समूचे स्थूल शरीर में रहता रोकने का प्रयत्न करते हैं। यह उनके निरोध का एक है। फिर भी उसके दो विशेष केन्द्र हैं--मस्तिष्क और उपाय अवश्य है। किन्तु वायु-संयम (या कमक) एक नाभि का पृष्टभाग । मन और शरीर के बीच सबसे कठिन साधना है । उसमें बहुत सावधानी बरतनी होती बड़ा सम्बन्ध-सेतु मस्तिष्क है। उससे तेजस शक्ति है। कहीं थोड़ी-सी असावधानी हो जाती है अथवा (प्राणशक्ति या विद्युतशक्ति) निकलकर शरीर की सारी योग्य गुरू का पथ-दर्शन न हो तो कठिनाइयाँ और बढ़ क्रियाओं का संचालन करती है। नाभि के पष्ठभाग में जाती हैं। मन: संयम से चित्त वृत्तियों का निरोध करना खाए हुए आहार का प्राण के रूप में परिवर्तन होता निर्विघ्न मार्ग है। इसकी साधना कठिन है, पर यह है । अतः शारीरिक दृष्टि से मस्तिष्क और नाभि का उसका सर्वोत्तम उपाय है । प्रेक्षा ध्यान के द्वारा उसकी पृष्ठभाग ये दोनों तेजोलेश्या के महत्वपूर्ण केन्द्र बन कठिनता को मिटाया जा सकता है। चित्त की प्रेक्षा जाते हैं । यह तेजोलेश्या एक शक्ति है। उसे हम नहीं चित्तवृत्तियों के निरोध का महत्वपूर्ण उपाय है।
12.
ठाण ३।३८६ : तिहिं ठाणेहि समणे णिग्गथे संखितविउलतेउलेस्से भवति, तेजहा-आयाबणताए, खंतिखमाए, अपाणगेण तवोकम्मेणं ।
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परिग्रह का स्वरूप
ऊं ही अहं नमः
परिग्रह का यदि निरुक्त किया जाय तो "परि-समन्तात् गहयते ---बध्यते प्राणी अनेन इति परिग्रह; "जिसके द्वारा प्राणी चारों ओर से पकड़ा जाता है, जकड़न में आता है। निगृहीत होता है उसे परिग्रह कहा जाता है ।" व्यावहारिक दृष्टि से बाह्य वस्तुओं को आप लोग परिग्रह मानते हैं । उन्हें त्यागनेवाला अपरिग्रही की कोटि में आ जाता है, परन्तु भगवान महावीर की पैनी दृष्टि बहुत गहराई तक पहुँचती है, मूल को पकड़ती है और कारणों को लक्षित करके नण्य दिशा देती है । वे परिग्रह को तीन भागों में विभक्त करते हैं:
1- कर्म परिग्रह, 2-शरीर परिग्रह और 3-बाह्यमण्डोपकरण परिग्रह ।
मुनि श्री चन्दनमल जी
कर्म परिग्रह से ज्ञानावरणीयादि जो पाप पुण्य के कारण हैं उनको ग्रहण किया गया है । संसार में आत्मा को बांधनेवाले वास्तव में पुण्य-पाप ही हैं। क्योकि पुण्य-पाप का समूल नाश ही तो मोक्ष है । यद्यपि पुण्य सोने की सांकल है और पाप लोहे की, पर है तो साँकल ही । चलते समय दोनों ही अवरोध पैदा करती हैं । पिंजड़ा चाहे सोने का हो या लोहे का, पक्षी को उड़ने न देने में तो दोनों समान ही हैं। जब तक एण्य-पाप का अस्तित्व रहेगा तब तक भव-बंधन से आत्मा छुट नहीं सकती और बार-बार नव-नव शरीर को धारण करती रहेगी। इस पहले कारण का कार्य ही दूसरा 'शरोर परिग्रह" है जो ममत्व का भीषण हेतु और देहाध्यास का प्रबल साधन है। इसीलिए ज्ञानियों ने कहा है कि--'मल संसार वक्षस्य देह एकात्मधीस्तत: "ससार वृक्ष का मूल देहाध्यास ही है। यथार्थ में देखा जाय तो सारा संसार देह का ही फैलाव है। सर्वप्रथम बच्चे के माता-पिता देह के सम्बन्ध से ही बनते हैं। छोटे-बड़े, भाई. बहन भी इसी के कारण कहलाते हैं । पश्चात् संयोग में स्त्री भी देह से ही सम्बन्धित है । फिर पूत्र-पुत्रियां, पोते-परपोते भी इसी का विस्तार हैं। शरीर के सुख में, सुख और शरीर के दुःख में, दुःख प्रति समय अज्ञानी मानता रहता है। शरीर को खिलाने-पिलाने, नहलाने-धुलाने में कितना समय व्यतीत होता है। इस शरीर की परि-तृप्ति के लिये ही फिर तीसरा मण्डोपकरण परिग्रह का व्याख्यान हुआ है। इसकी सुख-सुविधा के लिये ही धन-धान्यादिक की चाह है, उद्यान क्षेत्र गहादिक की अपेक्षा है। इसकी सुरक्षा के लिये ही सदीं-गर्मी के नये-नये परिधानों की लिप्सा है। इसे सजाने के लिये ही तो रत्नादि आभूषणों का आकर्षण है । इसलिये इन बाह्य वस्तुओं को परिग्रह की संज्ञा मिली है। यह बाह्य परिग्रह फिर
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नव-भेदों में विभक्त किया गया है। जैसे क्षेत्र-वास्तु, वैसे मुर्छा बेहोशी को भी कहते हैं । यथार्थतः अज्ञानी हिरण्य-सुवर्ण, धन-धान्य, द्विपद-चतुष्पद, और कुंभी मूच्छित ही है, बेहोश ही है जो पर द्रव्य को स्व द्रव्य धातु नववा परिग्रह है जो बाह्य मंड-कुण्ड, माचे- मानता है। उनके लाभ-अलाभ में सुख-दुःख का अनुभव ढोलिये, आदि विविध प्रकार से गह सामान से संबद्ध करता है । मूर्छा ही ज्ञानावरणीयादि धन घातिक कों है। इस प्रकार यह एक परिग्रह की श्रखला बन जाती का उपादान बनती है, अतः उपर्युक्त कर्म परिग्रह, है। इन सभी का यदि संग्रहीत रूप एक ही शब्द में शरीर परिग्रह एवं मण्डोपकरण परिग्रह मूर्छा का ही कहा जाय तो दशवकालिक सूत्र का वह पद बहुत महत्व- विस्तार है । इस लिये मूर्छा का त्याग ही सर्वोत्कृष्ट पूर्ण है । जैसे "मुच्छा परिग्गहो बुत्तो'। इसी का अनूदित है। बाह्य पदार्थों का त्याग चाहे कितना ही करो, पर रूप वाचक मुख्य उपास्वाति ने तत्वार्थ सत्र में लिखा है शरीर को तो आयुष्यावधि नहीं त्याग सकते। शरीर कि "मुर्छा परिग्रहः" । यह बहुत तात्विक एवं गम्भीर का त्याग हो भी जाय फिर भी तैजस कार्मणयुक्त व्याख्या है। वस्तुतः वस्तु परिग्रह नहीं, मूर्छा ही शरीर तो सागामी बने ही रहते हैं। इसी विषय को परिग्रह है। वस्तु तो अपने स्वरूप में उपस्थित है, वह स्पष्ट करते हुए विद्वद्वर श्री मोहन विजय लिखते हैंपरिग्रह और अपरिग्रह क्या ? उससे सम्बद्ध हमारी
"बाहर क्रिया कलाप थी निर्मल न भयो कोय ।"
.. आसक्ति ममता ही परिग्रह है ।
जिमि विष धर कंचली तजे, निज निविष नहीं होय । ___ एक व्यक्ति ने पशुओं के मेले में से गौ खरीदी ।
कंचुली के त्याग से साँप निविष थोड़े ही बन जाता उसके मुह पर बंधे हुए रस्से को अपने हाथ में लपेट
है। कंचुली तो ऊपर की आवरण है विष तो उसकी कर वह गौ को खींचता हुआ ले जा रहा था। एक
दाड़ में विद्यमान है। वैसे ही बाह्य त्याग से आंतरिक महात्मा मार्ग में मिले । उन्होंने उस ब्यक्ति से सवाल
शुद्धि कैसे हो सकती है ! इस भाव को लेकर सन्त किया-"तू गौ से बँधा हुआ है या गौ तेरे से बँधी
कवीर की साखी करारी चोट करती है
उस व्यक्ति ने कहा-"यह तो स्पष्ट ही है कि गौ
बांबी कुटे बांपड़ा, सांप न मरयो जाय ।
बांबी तो खावै नहीं, सांप जगत को खाय ॥ मेरे से बँधी है।"
अज्ञानी बेचारे साँप की बांबी को रोष करके पीटते ___ महात्मा ने कहा-"नहीं, तू गौ से बँधा है ।". व्यक्ति ने कहा-“कैसे ?"
है। पर सांप को मार नहीं सकते । अरे ! बांबी किसी
को डसती नहीं, डंसने वाला तो सांप है । फिर बांबी महात्मा ने कहा-“यदि रस्सा तुड़ाकर गौ दौड़ पर रोष करने से क्या लाभ? जाए तो तू गौ के पीछे दौड़ेगा या गौ तेरे पीछे ?"
आज बैज्ञानिक युग है। प्रत्येक व्यक्ति चिन्तनशील प्रत्युत्तर में उसने कहा-"महाराज ! मैं गौ के पीछे
है। भगवान महावीर ने निश्चय और व्यवहार, ज्ञान दौडगा । क्योंकि गौ मेरी है न ।”
और क्रिया, वाह य और आभ्यन्तर दोनों पक्षों को स्मित मुद्रा में महात्मा ने कहा-"फिर तू कैसे स्वीकार किया है। अतः मूर्छात्याग के द्वारा ही सही कहता है कि गौ तेरे से बँधी है ? वास्तव में तू ही गौ से रूप से अपरिग्रहवृत्ति अपनाना आज की समस्या का बँधा हुआ है" । वस्तु परिग्रह नहीं, हम वस्तु से मप्रत्व हल है । के कारण परिगृहीत हैं ।
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जैन दर्शन
प्रत्यक्ष की ही तरह प्रमाण एवं अर्थसिद्धि का सवल साधन माना है।
यों तो अनुमान का भारतीय दर्शनों में विस्तृत विवेचन उपलब्ध है और संख्याबद्ध ग्रन्थों का निर्माण हुआ है, किन्तु यहाँ हम उसके मात्र स्वरूप पर विमर्श प्रस्तुत करेंगे।
अनुमान परिभाषा
अनुमान शब्द की निरुक्ति
अनु+मान इन दो शब्दों से अनुमान शब्द निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है पश्चाद्वर्ती ज्ञान, और ऐसा ज्ञान
ही अनुमान है। डॉ. दरबारी लाल कोठिया
प्रश्न उठता है कि प्रत्यक्ष को छोड़कर शेष सभी (स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, चिन्ता आदि) ज्ञान प्रत्यक्ष के पश्चात् ही होते हैं। ऐसी स्थिति में ये सव ज्ञान भी अनुमान कहे जायेंगे । अतः अनुमान से पूर्व वह कौनसा
ज्ञान विवक्षित है, जिसके पश्चात् होने वाले ज्ञान को भारतीय दर्शनों में प्रत्यक्ष की तरह अनुमान को अनुमान कहा है ? भी अर्थसिद्धि का महत्वपूर्ण साधन माना गया है। सम्बद्ध और वर्तमान, आसन्न और स्थूल पदार्थों का इसका उत्तर यह है कि अनुमान से अव्यवहित ज्ञान इन्द्रिय प्रत्यक्ष से किया जा सकता है। पर पूर्ववर्ती वह ज्ञान विशेष है, जिसके अव्यवहित उत्तरअसम्बद्ध और अवर्तमान, अतीत-अनागत तथा दूर . काल में अनुमान उत्पन्न होता है । वह ज्ञान-विशेष है, और सूक्ष्म अर्थों का ज्ञान उससे सम्भव नहीं है, क्योंकि व्याप्ति-निर्णय (तर्क-ऊहा-चिन्ता) । उसके अनन्तर उक्त प्रकार के पदार्थों को जानने की क्षमता इन्द्रियों में नियम से अनुमान होता है। लिंगदर्शन, व्याप्तिस्मरण नहीं है। अतः ऐसे पदार्थों का ज्ञान अनुमान द्वारा और पक्षधमंताज्ञान इनमें से कोई भी अनुमान का किया जाता है। इसे चार्वाक दर्शन को छोड़कर, शेष अव्यवहित पूर्ववर्ती नहीं है । लिंगदर्शन व्याप्तिस्मरण से, सभी भारतीय दर्शनों ने स्वीकार किया है और उसे व्याप्तिस्मरण पक्षधर्मताज्ञान से और पक्षधर्मताज्ञान
1. व्याप्ति विशिष्टपक्षधर्मताज्ञान जन्म ज्ञान मनुमितिः । तत्करणमनुमानम् ।
-- गंगेश उपाध्याय, तत्त्व चि., अनु., जागदीशी, पृ. 13 ।
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व्याप्ति-निश्चय से व्यवहित हैं । अतः लिंगदर्शन, व्याप्ति- लिग परामर्श को अनुमान मानना न्याययुक्त है । इस स्मरण और पक्षधर्मताज्ञान व्याप्ति-निश्चय से व्यवहित तरह उद्योतकर के मतानुसार लग परामर्श वह ज्ञान है होने से अनुमान के साक्षात् पूर्ववर्ती नहीं हैं। यद्यपि जिसके पश्चात् अनुमिति उत्पन्न होती है। किन्तु तथ्य पारम्पर्य से उन्हें भी अनुमान का जनक माना जा यह है कि लिंगदर्शन आदि व्याप्ति-निश्चय से व्यवहित सकता है। पर अनुमान का अव्यवहित पूर्ववर्ती ज्ञान हैं। अतः व्याप्तिज्ञान ही अनुमान से अव्यवहित व्याप्ति निश्चय है, क्योंकि उसके अव्यवहित उत्तरकाल पूर्ववर्ती है। में नियम से अनुमान आत्मलाभ करता है । अतः व्याप्ति
की परिभाषानिश्चय ही अनुमान का पूर्ववर्ती ज्ञान है। जैन तार्किक वादिराज भी यही लिखते हैं
अनुमान शब्द की निरुक्ति के बाद अब देखना है
कि उपलब्ध जैन तर्कग्रन्थों में अनुमान की परिभाषा 'अनु व्याप्तिनिर्णयस्य पश्चाद् भावि मानमनु मानम्।' क्या की गयी है ? स्वामी समन्तमद् ने आप्तमीमांसा
में 'अनुमेयत्व' हेतु मे सर्वज्ञ की सिद्धि की है। आगे व्याप्ति-निर्णय के पश्चात् होनेवाले मान-प्रमाण अनेक स्थलों पर 'स्वरूपादिचतुष्टयात्', 'विशेषको अनुमान कहते हैं। वात्स्यायन' अनुमान शब्द की णत्वात' आदि अनेक हेतुओं को दिया है । और उनसे निरुक्ति इस प्रकार बतलाते हैं-'मितेन लिंगेन लिगिनो. अनेकान्तात्मक वस्तु की व्यवस्था तथा स्याद्वाद' की ऽर्थस्य पश्चान्मानमनुमानम्'-प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञात स्थापना की है। इससे प्रतीत होता है कि समन्तभद्र के लिंग से लिंगी-अर्थ के-अनु-पश्चात् उत्पन्न होने वाले काल में जैन दर्शन में विवादग्रस्त एवं अप्रत्यक्ष पदार्थों ज्ञान को अनुमान कहते हैं । तात्पर्य यह कि लिंगज्ञान के की सिद्धि अनमान से की जाने लगी थी। जिन उपादानों पश्चात् जो लिंगी-साध्य का ज्ञान होता है वह अनु- से अनुमान निष्पन्न एवं सम्पूर्ण होता है उन उपादानों मान है। वे एक दूसरे स्थल पर और कहते हैं कि- का उल्लेख भी उनके द्वारा आप्तमीमांसा में बहुलतया 'स्मत्या लिंग दर्शनेन चाप्रत्यक्षोऽयोऽनमीयते । -लिंग- आ है। उदाहरणार्थ हेतू, साध्य, प्रतिज्ञा, सधर्मा, लिंगी सम्बन्ध स्मृति और लिंगदर्शन के द्वारा अप्रत्यक्ष अविनरभाव, सपक्ष, साधर्म्य, वैधर्म्य, दृष्टान्त जैसे अर्थ का अनुमान किया जाता है । इस प्रकार वात्स्यायन अनुमानोपकरणों का निर्देश इसमें किया गया है । पर का अभिप्राय 'अनु' शब्द से सम्बन्ध स्मरण और लिंग परिभाषा ग्रन्थ न होने से उनकी परिभाषाएँ इसमें नहीं दर्शन के पश्चात् अर्थ को ग्रहण करने का प्रतीत होता हैं । यही कारण है कि अनुमान की परिभाषा इसमें है। न्यायवार्तिककार उद्योतकर' का मत है कि 'यस्मा- उपलब्ध नहीं है । एक स्थल पर हेतु (नय) का लक्षण ल्लिग परामर्गादनन्तरं शेषार्थप्रतिपत्तिरिति । तस्मा- अवश्य निबद्ध है, जिसमें अन्यथानुपपत्ति विशिष्ट विलक्षण ल्लिग परामर्शोन्याय्य इति ।'--यतः लिंग परामर्श के हेतु को साध्य का प्रकाशक कहा है, केवल विलक्षण को अनन्तर शेषार्थ (अनुमेयार्थ) का ज्ञान होता है, अतः नहीं। अकलका और विद्यानन्द द्वारा प्रस्तुत उसके
2. न्यायविनिश्चय विवरण, द्वि. भा. २११; 3. न्यायभाष्य १११५३; 4. वही, ११११५; 5. न्या. वा. १।११५, पृ. ४५; 6. आप्त मी. का.५; 7 वही, का. १५ ; 8. वही, का. १७, १८; 9. वही, का. १६, १७, १०६ आदि; 10. आ. मी. का. १०६; 11. अष्ट श. अष्ठ स. पृ. २८६% 12. अष्ट स. पृ. २८६%
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व्याख्यानों से भी यही अवगत होता है । आशय यह कि निश्चय के आधार पर ही होता है। जब तक साधन आप्तमीमांसा के इस सन्दर्भ से इतना ही ज्ञात होता के साध्याविनाभाव का निश्चय न होगा तब तक उससे है कि समन्तभद्र को अन्यथानुपपन्नत्वविशिष्ट विलक्षण साध्य का निर्णय नहीं हो सकता। हेतु से होनेवाला साध्यज्ञान अनुमान इष्ट रहा है।
यहाँ प्रश्न है15 कि इस अनुमान-परिभाषा से ऐसा सिद्ध सेन ने स्पष्ट शब्दों में अनुमान लक्षण
प्रतीत होता है कि जैन परम्परा में साधन को ही अनुदिया है
मान में कारण माना गया है, साधन के ज्ञान को नहीं?
इसका समाधान यह है कि16 उक्त 'साधन' पद से 'निश्चयसाध्याविनाभुनो लिंगात् साध्यनिश्चद्दायकं स्मृतम्।
पथ प्राप्त साधन' अर्थ विवक्षित है, क्योंकि जिस धूमादि अनुमान तदभ्रान्तं प्रमाणत्वात् समक्षवत् ।।
___ साधन का साध्याविनामावित्वरूप से निश्चय नहीं है
वह साधन नहीं कहलाता । अन्यथा अज्ञायमान धूमादि साध्य के बिना न होनेवाले लिंग मे जो माध्य का लिंग से सुप्त तथा अगृहीत धूमादि लिंगवालों को भी निश्चायक ज्ञान होता है वह अनुमान है। इस अनमान बह्नि आदि का ज्ञान हो जाएगा । अतः 'साधन' पद से लक्षण में समन्तभद्र का हेतुलक्षणगत 'अविरोधतः' पद, 'अविनाभावरूप से निर्णीत साधन' अर्थ अभिप्रेत है, जो अन्यथानुपपत्ति-अविनाभाव का बोधक है, बीज रूप केवल साधन नहीं। न्यायविनिश्चय के विवरणकार में रहा हो, तो आश्चर्य नहीं है। .
आचार्य वादिराज ने भी उसका यही विवरण किया
है । यथाअकलंक ने न्यायविनिश्चय और लधीयस्त्रय दोनों
'साधनं साध्याविनाभावनियमनिर्णयकलक्षणं में अनुमान की परिभाषा अंकित की है। न्यायविनिश्चय की अनुमान-परिभाषा निम्न प्रकार है--
वक्ष्यमाणं लिंगम् ।
साधन वह है जिसके साध्याविनाभावरूप नियम साधनात्साध्य विज्ञान मनुमानं तदत्यये ।।
का निश्चय है । इसी को लिंग (लीनमप्रत्यक्षमर्थ गमसाधन (हेतु) से जो साध्य (अनुमेय) का विशिष्ट यति)--छिपे हए अप्रत्यक्ष अर्थ का अवगम कराने वाला (नियत) ज्ञान होता है वह अनुमान है ।
भी कहा है।
अकलंकदेव स्वयं उक्त अर्थ की प्रकाशिका एक अकलंक का यह अनुमान-लक्षण अत्यन्त सरल और
दूसरी अनुमान-परिभाषा लघीयस्त्रय में निम्न प्रकार सुगम है। परवर्ती विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, वादिराज, प्रभाचन्द्र. हेमचन्द्र, धर्मभषण प्रभति ताकिकों ने इसी को
करते हैंअपनाया है। स्मरणीय है कि जो साधन से साध्य का लिंगात्साध्याविनाभावाभिनिबोधकलक्षणात् । नियत ज्ञान होता है वह साधनगत अविनाभाव के लिंगिधीरनुमान तत्फलं दानादिबुद्धयः ।।
13. न्यायावतार का. ५; 14. न्यायविनिश्चय. द्वि. भा. २१२; 15. 'ननु भवतांमते साधनमेवानुमाने हेतुर्नतु साधन ज्ञानं साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानमिति ।'-धर्म भूषण न्या. दी. पृ. ६७; 16. 'न, 'साधनात्' इत्य निश्चयपथ प्राप्ताद्धमादेरिति विवक्षणात्'। वही, पृ. ६७; 17. वादिराज, न्या. वि. वि. द्वि. भा. २११, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली; 18. अकलंकदेव लधीयस्त्रय का. १२ ।
न साधनात
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साध्य के बिना न होने का जिसमें निश्चय है, ऐसे लिंग से जो लिंगी (साध्य अर्थ ) का ज्ञान होता है उसे अनुमान कहते हैं । हान, उपादान और उपेक्षा का ज्ञान होना उसका फल है ।
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इस अनुमानलक्षण से स्पष्ट है कि साध्य का गमक वही साधन अथवा लिंग हो सकता है जिसके अविनाभाव का निश्चय है । यदि उसमें अविनाभाव का निश्चय नहीं है तो वह साधन नहीं है। " भले ही उसमें तीन रूप और पाँच रूप भी विद्यमान हों। जैसे 'सश्यामः तस्पुत्रत्वात्, इतर पुत्रवत्', 'बज्र लोहतेख्यं पार्थिवत्वात् काष्ठवत्' इत्यादि हेतु तीन रूपों और पाँच रूपों से सम्पन्न होने पर भी अबिनाभाव के अभाव से सद्धे तु नहीं हैं, अपितु हेत्वाभास हैं और इसी से वे अपने साध्यों के गमक-अनुमापक नहीं हैं । इस सम्बन्ध में और विशेष विचार किया जा सकता है ।
विद्यानन्द ने अकलंकदेव का अनुमानलक्षण आरत किया है और विस्तारपूर्वक उसका समर्थन किया है ।
यथा
साधनात्साध्य विज्ञानमनुमानं विदुर्बुधाः ।
साध्याभावासम्भवनियमलक्षणात
शक्याभिप्रेताप्रसिद्धत्वलक्षणस्य तदनुमानं आचार्या विदुः
साधनादेव
साध्यस्यैव यद्विज्ञानं
तात्पर्य यह कि जिसका साध्य के अभाव में न होने का नियम है ऐसे साधन से होनेवाला जो शक्य (अवाधित), अभिप्रेत (इष्ट) और अप्रसिद्ध साध्य का विज्ञान है उसे आचार्य (अकल देव) ने अनुमान कहा है।
विद्यानन्द अनुमान के इस लक्षण का समर्थन करते हुए एक महत्वपूर्ण युक्ति उपस्थित करते हैं। वे कहते हैं कि अनुमान के आत्मलाभ के लिए उक्त प्रकार का साधन और उक्त प्रकार का साध्य आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है । यदि उक्त प्रकार का साधन न हो तो केवल साध्य का ज्ञान अनुमान प्रतीत नहीं होता । इसी तरह उक्त प्रकार का साध्य न हो, तो केवल उक्त प्रकार का साधनज्ञान भी अनुमान ज्ञात नहीं होता । आशय यह है कि अनुमान के मुख्य दो उपादान हैंसाधनज्ञान और साध्यज्ञान । इस दोनों की समग्रता होने पर ही अनुमान सम्पन्न होता है ।
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आचार्य माणिक्यनन्दि अकलंक के उक्त अनुमानलक्षण को सूत्र का रूप देते हैं और उसे स्पष्ट करने के लिए हेतु का भी लक्षण प्रस्तुत करते हैं। यथा
सापनात्साध्य विज्ञानमनुमानम् । साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः 124
19. विद्यानन्द त श्लो. ११३०२००, पृ. २०६ 20. वही, १|१३|१२०, पृ. १६७; १।१३।१२०, पृ. १६७ ; 23. मणिक्यनन्दि, परीक्षामुख ३११४; 24. वही, ३।१५; १।२।७ पृ. ३० 26. धर्मभूषण न्याय दी. पृ. ६५, ६७ वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली; 28. उद्योतकर, न्याय वा. ११५, पृ. ४५ ।
हेमचन्द्राचार्य ने भी माणिक्यमन्दि की तरह अकलंक की ही अनुमान- परिभाषा अक्षरशः स्वीकार की है और उसे उन्हीं की भाँति सूत्र रूप प्रदान किया है।
-
न्यायदीपिकाकार धर्म भूषण ने भी अकलंक का न्यायविनिश्वयोक्त अनुमान-लक्षण प्रस्तुत करके उसका विशदीकरण किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने उद्योतकर द्वारा उपज्ञ तथा वाचस्पति आदि द्वारा समर्पित 'लिंग परामर्णोऽनुमानम्' इस अनुमानलक्षण की समीक्षा भी उपस्थित की है। उनका कहना है कि यदि लिगपरामर्श (लिगज्ञान- लिंगदर्शन) को अनुमान
21, 22. वही,
25. प्रमा. मी. 27. वही, पृ. ६६ ;
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माना जाय तो उससे साध्य (अनुमेय) का ज्ञान नहीं हो उन्होंने 'भवतु वाऽयमों लैंगिकी प्रतिपत्तिरनुमानम्, सकता, क्योंकि लिंगपरामर्श का अर्थ लिंगज्ञान है और इति ।'30 अर्थात लिंगी का ज्ञान अनुमान है' कहकर लिंगज्ञान केवल लिंग-माधन सम्बन्धी अज्ञान को ही साध्यज्ञान को अनुमान मान लिया है । जब उनसे कहा दूर करने में समर्थ है, साध्य के अज्ञान को नहीं । यथार्थ गया कि साध्यज्ञान को अनुमान मानने पर फल का में लिंग में होनेवाले व्याप्तिविशिष्ट तथा पक्षधर्मता के अभाव हो जायेगा. तो वे उत्तर देते हैं कि 'नहीं, हान, ज्ञान को परामर्श कहा गया है.--'व्याप्तिविशिष्ट पक्ष- उपादान और उपेक्षा बुद्धियाँ उसका फल है। उद्योतधर्मता ज्ञानं परामर्शः' । अतः लिंगपरामर्श इतना ही कर यहाँ एक महत्त्वपूर्ण बात और कहते हैं। वह यह ज्ञान करा सकता है कि धूमादि लिंग अग्नि आदि साध्यों कि सभी प्रमाण अपने विषय के प्रति भावसाधन हैंके सहचारी हैं और वे पर्वत आदि (पक्ष) में हैं । और 'प्रमितिः प्रमाणम, अर्थात् प्रमिति ही प्रमाण है और इस तरह लिंगपरामर्श मात्र लिंग सम्बन्धी अज्ञान का विषयान्तर के प्रति करणसाधन हैं--'प्रमीयतेऽनेनेति' निराकरण करता है एवं लिंग के वैशिष्ठ्य को प्रकट अर्थात् जिसके द्वारा अर्थ (वस्तु प्रमित (सुज्ञात) हो उसे करता है, अनुमेय (साध्य) सम्बन्धी अज्ञान का निरास प्रमाण कहते हैं । इस प्रकार वे अनुमान की उक्त कर उसका ज्ञान कराने में वह असमर्थ है। अतएवं साध्यज्ञानरूप परिभाषा भावसाधन में स्वीकार करते लिंगपरामर्श अनुमान की सामग्री तो हो सकता है, पर हैं। धर्मभूषण ने इसी तथ्य का ऊपर उद्घाटन किया स्वयं अनुमान नहीं । अनुमान का अर्थ है अनुमेय तथा साध्यज्ञान ही अनुमान है, इसका समर्थन किया है। सम्बन्धी अज्ञान की निवृत्तिपूर्वक अनुमेयार्थ का ज्ञान । इसलिए साध्यसम्बन्धी अज्ञान की निवृत्तिरूप अनु- इस तरह जैन दर्शन में अनुमान की परिभाषा का मिति में साधकतम करण तो साक्षात् साध्यज्ञान ही हो मूल स्वामी समन्तभद्र की 'सधर्मणव साध्यस्य साधासकता है । अतः साध्यज्ञान ही अनुमान है, लिंगपरामर्श दविरोधतः' (आप्तमी : १०६) इस कारिका में निहित नहीं। यहाँ धर्मभूषण इतना और स्पष्ट करते हैं कि है और उसका विकसित रूप सिद्धसेन के न्यायावतार जिस प्रकार धारणा नामक अनुभव स्मृति में, तात्कालिक (का. ५) से आरम्भ होकर अकलंक देव के उपयुक्त अनुभव और स्मृति दोनों प्रत्यभिज्ञान में तथा साध्य एवं लघीयस्त्रय (का. १२) और न्यायविनिश्चय (द्वि. भा. साधन विषयक स्मरण, प्रत्यभिज्ञान और अनुभव तर्क में
२११) गत दोनों परिभाषाओं में परिसमाप्त है । लघी. कारण माने जाते हैं, उसी प्रकार व्याप्तिस्मरण आदि यस्त्रय की अनुमान परिभाषा तो इतनी व्यवस्थित, युक्त सहित लिंगज्ञान (लिंगपरामर्श) अनुमान की उत्पत्ति में और पूर्ण है कि उसमें किसी भी प्रकार के सुधार, कारण है।
संशोधन, परिवर्तन या परिष्कार की भी गजायश नहीं
है। अनुमान का प्रयोजक तत्त्व क्या है और स्वरूप यहाँ ज्ञातव्य है कि लिंगपरामर्श को अनुमान की
क्या है, ये दोनों उसमें समाविष्ट हैं। परिभाषा मानने में जो आपत्ति धर्मभूषण ने प्रदर्शित की है वह उद्योतकर के भी ध्यान में रही जान पड़ती अक्षपाद गौतम की 'तत्पर्वकमतमानम्',32 प्रशस्तहै अथवा उनके समक्ष भी उठायी गयी है। अतएव पाद की 'लिंगदर्शनात संजायमानं लैंगिकम'33 और
29. धारणाख्योऽनुभवः स्मृतौ हेतुः । ... तद्वल्लिगज्ञानं व्याप्ति स्मर गादिसह कृतमनुमानोत्वत्ती निवन्धनभित्येत्सुसंगतमेव ।-न्या दी. पृ. ६६,६७ । 30. न्याय वा. ११११३, पृ. २८ २६। 31. वही १।१।३, पृ. २६ । 32. न्याय सू. १॥ १।५। 33. प्रश. भाष्य पृ. ६६ ।
६७
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उद्योतकर की 'लिंगपरामर्शोऽनुमानम्' परिभाषाओं जैन तार्किक अकलंकदेव का लिंगात्साध्याविनामें हमें केवल कारण का निर्देश मिलता है, स्वरूप का भावमिनिबोधक लक्षणात । लिगिधीरमानुनं तत्फल नहीं। उद्योतकर की एक अन्य परिभाषा 'लैंगिकी हानादिबुद्धयः ।।' यह अनुमानलक्षण उक्त दोषों से प्रतिपत्तिरनुमानम्' में स्वरूप का ही उल्लेख है, मुक्त है। इसमें अनुमान के साक्षात्कारण का और कारण का उसमें सूचन नहीं है। दिङ्नाग की 'लिंगा- उसके स्वरूप दोनों का प्रतिपादन है। सबसे महत्वदर्थदर्शनम्'38 अनुमान-परिभाषा में यद्यपि कारण और पूर्ण बात यह है कि इसमें उन्होंने 'तत्फलं हानादि स्वरूप दोनों की अभिव्यक्ति है परन्तु उसमें लिंग को बद्धयः' शब्दों द्वारा अनुमान के हान, उपादान और कारण के रूप में सूचित किया है, लिंग के ज्ञान को उपेक्षा बुद्धिरूप फल का भी निर्देश किया है। सभवतः नहीं। किन्तु तथ्य यह है कि अज्ञायमान धूमादि लिंग इन्हीं सब विशेषताओं के कारण सभी जैन ताकिकों ने अग्नि आदि के जनक नहीं हैं । अन्यथा जो पुरुष सोया अकलंक देव की इस प्रतिष्ठित और पूर्ण अनुमानहआ है या जिसने साध्य और साधन की व्याप्ति का परिभाषा को ही अपने तर्क ग्रन्थों में अपनाया है। ग्रहण नहीं किया है उसे भी पर्वत में धूम के सद्भाव मात्र विद्यानन्द जैसे तार्किक मूर्धन्य मनीषी ने तो अनुमान से अनुमान होजाना चाहिए । किन्तु ऐसा नहीं है । पर्वत विदुर्बुधाः' कहकर और आचार्यों द्वारा कथित बतला में अग्नि का अनुमान उसी पुरुष को होता है जिसने कर उसके. सर्वाधिक महत्व का भी ख्यापन किया है। पहले महानस (भोजनशाला) आदि में धूम-अग्नि को एक साथ अनेक बार देखा और उनकी व्याप्ति ग्रहण यथार्थ में अनुमान एक ऐसा प्रमाण है, जिसका की है, फिर पर्वत के समीप पहुंचकर धुम को देखा, प्रत्यक्ष के बाद सबसे अधिक व्यवहार किया जाता है। अग्नि और धूम की गृहीत व्याप्ति का स्मरण किया, अत: ऐसे महत्वपूर्ण प्रमाण पर भारतीय ताकिकों ने और फिर पर्वत में उनका अविनाभाव जाना, तब उस अधिक ऊहापोह किया है। जैन ताकिक भी उनसे पीछे पुरुष को 'पर्वत में अग्नि है' ऐसा अनुमान होता है, नहीं रहे। उन्होंने भी अपने तर्क ग्रन्थों में उस पर केवल लिंग के सद्भाव से ही नहीं। अतः दिङ्नाग के विस्तृत चिन्तन किया है। यहां हमने अनुमान के मात्र उक्त अनुमानलक्षण में 'लिंगात्' के स्थान में 'लिंग- स्वरूप पर यत्किचित विमर्श प्रस्तुत किया है। तर्क दर्शनात्' पद होने पर ही वह पूर्ण अनुमानलक्षण हो । ग्रन्थों में उसके भेदों. अवयवों और अंगों आदि पर सकता है।
विस्तृत विचार किया गया है, जो उन ग्रन्थों से ज्ञातव्य है।
37. न्या. दी.
34. न्याय वा. १।११५, पृ. ४५; 35. न्याय वा. १३१३; 36. न्याय फले. पृ. ७ ; पृ. ६७; 38. तर्क मा. पृ. ७८,७६; 39. लधी. का. १२।
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जैन संघ
-और
सम्प्रदाय
प्रत्येक धर्म में यथासमय संघ और सम्प्रदाय को कैसे जानेगा? तू मिथ्या दृष्टि है, मैं सम्यकदृष्टि हूँ खड़े हो जाते हैं। उनके पीछे सैद्धान्तिक मतभेद की मेरा कथन सार्थक है, तेरा कथन निरर्थक है। पूर्व कथपृष्ठभूमि रहती है । सैद्धान्तिक मतभेद धर्म और नीय बात तूने पीछे कही और पश्चात् कथनीय बात आगे सम्प्रदाय के विकास की कहानी है। इतिहास इसका कही । तेरा वाद बिना विचार का उल्टा है । तूने वाद साक्षी है कि जिन पन्थों में मतभेद नहीं हो पाये वे आरम्भ किया पर निगृहीत होगया। इस वाद से बचने प्रायः अपने प्रवर्तकों अथवा प्रसारकों के साथ ही के लिए इधर-उधर भटक । यदि इस वाद को समेट कालकवलित हो गये और जिनमें वैचारिक मतभेद सकता है तो समेट । इस प्रकार नातपुत्तीय निगण्ठों में पैदा हुए वे उत्तरोत्तर विकसित होते गये ।
मानों युद्ध ही हो रहा था।
जैनधर्म भी इस तथ्य से दूर नहीं रहा । भगवान महावीर के निर्वाण के उपरान्त ही उनके संघ में मतभेद
डा० भागचन्द्र जैन भास्कर प्रगट हो गये । पालि त्रिपिटक इसका साक्षी है। वहाँ कहा गया है कि एक बार भगवान बुद्ध शाक्य देश में एवं मे सुतं एक समयं भगवा सक्केसु विहरति सामग्राम में बिहार कर रहे थे। उसी समय निगण्ठ- सामगामे । तेन खो पेन समयेन निगण्ठो नातपुत्तो नातपुत्त का निर्वाण पावा में हो गया था। उनके पावायं अधुनाकालङ्कतो होति । तस्य कालङ्कि निर्वाण के बाद ही उनके अनुयायियों (निगण्ठों) में करियाय भिन्ना निगण्ठा द्वधिक जाता मण्डनजाता मतभेद पंदा हो गये । वे दो भागों (पक्षों) में विभक्त कलहजाता विवादापन्ना अञ्जमज मुखसत्तीहि हो गये थे और परस्पर संघर्ष और कलह कर रहे वितदन्ता विहरन्ति- “न त्वं इमं धम्मविनयं आजाथे। निगण्ठ एक-दूसरे को वचन-बाणों से बींधते हुए नासि, अहं छमं धम्मविनयं आजानामि । किं त्वं धम्मविवाद कर रहे थे-"तुम इस धर्म विनय को नहीं जानते, विनयं आजानिस्सस्मि ? मिच्छापटिपन्नो त्वमसि, मैं इस धर्म विनय को जानता हूँ।" तू इस धर्म विनय अहमस्मि सम्मापटिपन्नो । सहितं मे असहितं ते ।
1.
विशेष देखिये, लेखक के ग्रन्थ Jainism in Buddhist Literature तथा बौद्ध संस्कृति का इतिहासप्रथम अध्याय (आलोक प्रकाशन, नागपुर)।
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पुरे वचनीयं पच्छ अवच पच्छा वचनीयं पुरे अवच । इस प्रकार महावीर निर्वाण के 162 वर्ष अधिचिण्णं ते विपरावतं । आरोपितो ते वादो। (62+100) पर्यन्त केवली और श्रतकेवली रहे । निग्गहितोसि, चर वादप्यमोक्खाय; निष्पठेहि वा सचे श्वेताम्बर परम्परानुसार महावीर के जीवन काल में पहोसी" ति । वथो येव खो मजे निग्गण्ठे सु नातपत्ति- ही 9 गणधरों का निर्वाण हो गया था। मात्र इन्द्रभूति येसु वत्तति ।
गौतम और आर्य सुधर्मा शेष रह गये थे। महावीर
निर्वाण में उत्तरवर्ती आचार्यों की कालगणना स्थविराआचार्य कालगणना
वली में इस प्रकार दी गई है
भगवान महावीर के निर्वाण के बाद दिगम्बर परम्परानुसार 62 वर्ष में क्रमश तीन केवली और 100 वर्ष में पाँच श्रतकेवली इस प्रकार हुए। -
केवली
1. सुधर्मा 2. जम्बू 3. प्रभव 4. शप्पंभव 5. यशोभद्र 6. संभूतिविजय 7. भद्रबाहु 8. स्थूलभद्र
-20 वर्ष -44 वर्ष -11 वर्ष -23 वर्ष -50 वर्ष ~8 वर्ष -14 वर्ष -45
1. गौतम गणधर
-12 वर्ष 2. सुधर्मा स्वामी (लोहार्य) -12 वर्ष 3. जम्बू स्वामी
-38 वर्ष
62 वर्ष
215 वर्ष
श्रुतकेवली
1. विष्णुकुमार (नन्दि) 2. नन्दिमित्र 3. अपराजित 4. गोवर्धन 5. भद्रबाहु
-14 वर्ष -16 वर्ष -22 वर्ष -19 वर्ष -29 वर्ष
यहाँ यह दृष्टव्य है कि जैन परम्परानुसार हेमचन्द्र ने 'परिशिष्टपर्वन' में भगवान महावीर निर्वाण के 155 वर्ष बाद चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यकाल बताया है । आचार्य हेमचन्द्र अवन्ती राजा पालक के राज्यकाल के 60 वर्षों की गणना को किसी कारणवश भूल गये थे । अर्थात् महावीर के निर्वाण (155+60) 215 वर्ष बाद चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक हुआ होगा ।
100 वर्ष
उक्त आचार्य कालगणना के अनुसार दिगम्बर परम्परा में भगवान महावीर निर्वाण के 12 वर्ष तक गौतम
2. सुत्तपिटक, मज्झिमनिकाय, सामगामसुत्तन्त ; दीधनिकाय, पथिकवग्ग. पासादिकसुत्त, संगीतिसुत्त. 3. घवला, भाग 1, पृ० 66, तिलोयपण्णत्ति, 4. 1482-84; जयघवला: भाग 1, पृ० 85, इन्द्रश्रु तावतार
- 72-78, नन्दिसंधीय प्राकृत पावली-जन सिद्धान्त भास्कर, भाग 1, किरण 4.
१००
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गणधर का काल माना है । और उनके बाद उनके उत्तराधिकारी क्रमशः सुधर्मा और जम्बूस्वामी को रखा है पर स्थविरावली में गौतम के स्थान पर सुधर्मा का काल 20 वर्ष ( 12820) रखा है जबकि कल्पसूत्र पूर्ववर्ती परम्परा को ही स्वीकार कर महावीर निर्वाण के बाद 12 वर्ष गौतम का और 8 वर्ष सुधर्मा का काल निर्धारण करता है । यह कालगणना जो जैसी भी हो, पर दोनों परम्पराएं भद्रबाहु के कुशल नेतृत्व को सहर्ष स्वीकार करती हुई दिखाई देती हैं। अन्तर यहाँ यह है कि दिगम्बर परम्परा महावीर निर्वाण के 162 वर्ष बाद भद्रबाहु का निर्वाण समय मानती है जबकि श्वेताम्बर परम्परा 170 वर्ष बाद यहाँ लगभग आठ वर्ष का कोई विशेष अन्तर नहीं पर समस्या यह है कि इस कालगणना से भद्रबाहु और
1. गौतम
2. सुप 3. जम्बू
4.
प्रभव
5. स्वयंभू
6. यशोभद्र
आचार्य कालगणना
7. संभूतिविजय 8. भद्रबाहु
9. स्थूलभद्र
- 12 वर्ष 8 वर्ष
- 44 वर्ष
- 11 वर्ष
- 23 वर्ष
-50 वर्ष
8 वर्ष -14 वर्ष
- 45 वर्ष
-
215 वर्ष
चन्द्रगुप्त मौर्य की समयकालीनता सिद्ध नहीं होती । उन दोनों महापुरुषों के बीच वही प्रसिद्ध 60 वर्ष का अन्तर पड़ता है । अर्थात् यदि भद्रबाहु के समय वीर नि. 162 में 60 वर्ष बढ़ा दिये जायें तो चन्द्रगुप्त मौर्य और भद्रबाहु की समय कालीनता ठीक बन जाती है अथवा चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में से 60 वर्ष पीछे हटा दिये जायें जैसा कि हेमचन्द्राचार्य ने महावीर निर्वाण से 215 वर्ष की परम्परा के स्थान में 155 वर्ष पश्चात् चन्द्रगुप्त का राजा होना लिखा है तो दोतों की समयकालीनता बन सकती है ।"
:
4. जैन साहित्य का इतिहास पूर्व पीठिका, पृ० 342. 5. पट्टावली समुच्चय, पृ० 17.
श्वेताम्बर पपम्परानुसार महावीर निर्वाण के उपरान्त जैन संघ परम्परा इस प्रकार दी जाती है
१०१
पालक
नवनन्द
राजकाल
-- 60 वर्ष
- 155 वर्ष
-215 वर्ष
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215
-30 वर्ष -46 वर्ष
32 वर्ष
मौर्य वंश
-108 वर्ष
10. महागिरि 11. सुहस्ति 12. गुणसुन्दर 13. गुणसुन्दर-शेष 14. कालिक 15. स्कन्दिल
12 वर्ष
-30 वर्ष
40 वर्ष
पुष्यमित्र
बलमित्र (2) भानुमित्र ।
38 वर्ष
-60 वर्ष
16. रेवतीमित्र 17. आर्य भंगु
36 वर्ष -20 वर्ष
(1) नरवाहन (2) गर्दभिल्ल (3) शक
-40 वर्ष -13 वर्ष - 4 वर्ष
-60 वर्ष
18. बहुल 19. श्रीव्रत 20. स्वाति 21. हारि 22. श्वामार्य 23. शाण्डिल्य आदि 24. भद्रगुप्त 25. श्रीगुप्त 26. वज्स्वामी
(1) विक्रमादित्य (2) धर्मादित्य (3) भाइल्ल
-40 वर्ष
=111 वर्ष
-11 वर्ष
580 वर्ष
581 वर्ष
इस प्रकार महावीर निर्वाण के 581 वर्ष व्यतीत दिगम्बर परम्परानुसार जिस दिन भ. महावीर हए। उसके बाद पुष्यमित्र और नाहड़ का राज्यकाल का परिनिर्वाण हआ, उसी दिन गौतम गणधर ने केवल24 वर्ष का रहा। तदनन्तर । (581+24=605 ज्ञान प्राप्त किया। गौतम के सिद्ध हो जाने पर सुधर्मा वर्ष बाद) शक संवत् की उत्पत्ति हुई। आगे भ० । स्वामी केवली हुए । सुधर्मा स्वामी के सिद्ध हो जाने पर महावीर निर्वाण के 980 वर्ष पूर्ण हो जाने पर महा- जम्बूस्वामी अन्तिम केवली हुए। इन तीनों केवलियों गिरि की परम्परा में उत्पन्न देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने का काल 62 वर्ष है। उनके बाद नन्दी, नन्दिमित्र, कल्पसूत्र की रचना की।
अपराजिल, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँच थ तकेवली
6. कल्पसूत्र स्थविरावली. 7. जयघवला, भाग-1, प्रस्तावना, पृ० 23-30. हरिवंशपुराण
१०२
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हुए जिनका समय 100 वर्ष है। उनके बाद विशाल, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिल, गंगदेव और सुधर्म में ग्यारह आचार्य क्रमश: दश पूर्वधारी हुए। उनका काल 183 वर्ष है। उनके बाद नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु प्रबसेन और कस ये पाँच आचार्य ग्यारह अंग के धारी हुए । उनका समय 220 वर्ष हैं । उनके बाद भरत क्षेत्र में कोई भी आचार्य ग्यारह अंग का धारी नहीं हुआ । तदनन्तर सुभद्र, यशोमद्र, यशोवाह और लोह ये चार आचार्य आचारंग के धारी हुए। ये सभी आचार्य शेष ग्यारह अंग और चौदह पूर्व के एकदेश के ज्ञाता थे उनका समय 118 वर्ष होता है । इस प्रकार गौतम गणधर से लेकर लोहाचार्य पर्यन्त कुल काल का परिणाम 683 वर्ष हुआ अहंबली आदि आचायों का समय इस काल परिमाण के बाद आता है ।
(1) तीन केवली
(2) पाँच श्रुतकेवली
(3) 11 दश पूर्वधारी
- 62 वर्ष - 100 वर्ष
- 183 वर्ष
( 4 ) पाँच ग्यारह अंग के धारी -- 220 वर्ष (5) चार आचारंग वारी
- 118 वर्ष
कुल 683 वर्ष
-
नन्दिसंध की प्राकृत पट्टावली कुछ भिन्न है। उसमें उपर्युक्त लोहाचार्य तक का समय कुल 565 वर्ष बताया है । पश्चात् एकांगधारी अर्हद्बलि, माघनन्दिद, घरसेन, भूतबलि, और पुष्पदन्त इन पाँच आचार्यों का काल क्रमश: 28, 21, 191 30 और 20 वर्ष निर्दिष्ट है। इस दृष्टि से पुष्पदन्त और भूतबली का समय 683 वर्ष के ही अन्तर्गत आ जाता है। इस प्रकार धवला आदि ग्रन्थों में उल्लिखित और नन्दिसंघ की
प्राकृत पट्टावली में में उद्धृत इन दोनों परम्पराओं में आचायों की कालगणना में 118 वर्ष ( 683-565= 118 ) का अन्तर दिखाई देता है पर यह अन्तर एकादशांगधारी आचारांगधारी आचायों में ही है, केवली, श्रुतकेवली और दशपूर्वधारी आचार्यों में नहीं ।
आचार्य भद्रबाहु
आचार्य कालगणना की उक्त दोनों परम्पराओं को देखने से यह स्पष्ट है कि जम्बूस्वामी के बाद होनेवाले युगप्रधान आचार्यों में भद्रबाहु ही एक ऐसे आचार्य हुए हैं, जिनके व्यक्तित्व को दोनों परम्पराओं ने एक स्वर में स्वीकार किया है । बीच में । बीच में होनेवाले प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र और सभृतिविजय आचार्यों के विषय में एकमत नहीं । भद्रबाहु के विषय में भी जो मनभेद हैं वह बहुत अधिक नहीं । दिगम्बर परम्परा भद्रबाहु का कार्यकाल 29 वर्ष मानती है और उनका निर्वाण महावीर निर्वाण के 162 वर्ष बाद स्वीकार करती है पर श्वेताम्बर परम्परानुसार यह समय 170 बर्ष बाद बताया जाता है और उनका कार्यकाल कुल चौदह वर्ष माना जाता है। जो भी हो दोनों परम्पराओं के बीच आठ वर्ष का अन्तराल कोई बहुत अधिक नहीं है ।
परम्परानुसार श्रुतकेवली भद्रबाहु निमित्तज्ञानी थे। उनके ही समय संघभेद प्रारम्भ हुआ है। अपने निमित्तज्ञान के बल पर उत्तर में होनेवाले द्वादश वर्षीय दुष्काल का आगमन जानकर भद्रबाहु ने बारह हजार मुनि संघ के साथ दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। चन्द्रगुप्त मौर्य भी उनके साथ थे। अपना अन्त निकट जानकर उन्होंने संघ को चोल, पाण्डय प्रदेशों की बोर जाने का आदेश दिया और स्वयं श्रमणवेलगोल में ही कालमप्र नामक पहाड़ी पर समाधिमरण पूर्वक देह
8. घवला, आदिपुराण तथा श्रुतावतार आदि ग्रन्थों में भी लोहाचार्य तक के आचार्यों का काल 683 वर्ष
ही दिया गया है।
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त्याग किया । इस आशय का छटी शती का एक लेख वारस अंग वियाणं चउदश पूव्वंग विडलवित्थरणं । पुनाड़ के उत्तरी भाग में स्थित चन्द्रगिरि पहाड़ी पर सूयाणि भद्दाबाह गमय गुरू भयवओ जयओ ।।62।। उपलब्ध हुआ है । उसके सामने बिन्ध्यगिरि पर
___ बोहपाहुड़ की इन दोनों गाथाओं से यह स्पष्ट है चामुण्डराय द्वारा स्थापित गोमटेश्वर बाहबलि के 57
है कि आचार्य कुन्दकुन्द के समय तक भद्रबाहु नाम के फीट ऊँची एक भव्य मूर्ति स्थित है । उत्तरभारत में रह
दो आचार्य हो चुके थे । प्रथम श्र तकेवली भद्रबाहु जाने वाले साधुओं और क्षुलकों में दुर्भिक्ष जन्य परिस्थितियों के कारण आचार शैथिल्य घर कर गया और
जिन्हें कुन्दकुन्द ने गमकगुरू कहा है और द्वितीय उत्तरकाल में यही घटना संघभेद का कारण बनी। परि
भद्रबाहु जो कुन्दकुन्द के साक्षात गुरू थे। ये दोनो
व्यक्तित्व पृथक पृथक हुए हैं अन्यथा कुन्दकुन्द दोनों शिष्टपर्वन के अनुसार भद्रबाहु दुष्काल समाप्त होने के बाद
गाथाओं में भद्रबाह शब्द का प्रयोग नहीं करते । दक्षिण से मगध वापिस हए और पश्चात् महाप्राण ध्यान करने नेपाल चले गये । इसी बीच जैन साधु संघ ने
आचारंग, सूत्रकृतांग, सूर्यप्रजप्ति, व्यवहार, कल्प अनभ्यासवश बिस्मृत श्रत को किसी प्रकार से स्थूल- दशाश्र तस्कन्ध, उत्तराध्यायन, आवश्यक, दशवैकालिक भद्र के नेतत्व में एकादश अंगों का सकलन किया और और ऋषिभाषित ग्रन्थों पर किसी अन्य भद्रबाह अवशिट द्वादशवें अंग दृष्टिवाद के संकलन के लिए नेपाल नामक विद्वान ने नियुक्तियाँ लिखी हैं. ऐसी एक परमें अवस्थित भद्रबाह के पास अपने कुछ शिष्यों को भेजा म्परा है। ये नियंतिकार ततीय भद्रबाह होना चाहिए उनमें स्थूलभद्र ही वहाँ कुछ समय रुक सके जिन्होंने जो छेद स्त्रकार भद्रबाह से भिन्न रहे होंगे। नियुक्तियों उसका कुछ यथाशक्य अध्ययन कर पाया । फिर भी में आर्यवज, आर्यरक्षित, पादलिप्ताचार्य, कालिकाचार्य, दृष्टिवाद का संकलन अवशिष्ट ही रह गया। शिवभूति आदि अनेक आचार्यों के नामों के उल्लेख
मिलते हैं। ये आचार्य निश्चित ही उक्त प्रथम और देवसेन के भाव संग्रह में भद्रबाहु के स्थान पर द्वितीय भद्रबाह से उत्तरकाल में हुए हैं। शान्ति नामक किसी अन्य आचार्य का उल्लेख है । भद्रारक रत्नन्द ने संभबता देवसेन और हरिषेण की भद्रबाहु के चरित विषयक भद्रबाहचरित्र के कथाओं को सम्बद्ध करके भद्रबाहचरित्र लिखा है। अतिरिक्त ओर भी अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं-देवाधिप्रथम भद्रबाहु का कोई भी ग्रन्थ प्रामाणिक तौर पर क्षमाश्रमण की स्थविरावली, भद्रेश्वर सूरी की कहानहीं मिलता । छेद सूत्रों का कर्ता उन्हें अवश्य कहा वलि, तित्थोगालि प्रकीर्णक, आवश्यक चूर्णि, आवश्यक गया है पर यह कोई सुनिश्चित परम्परा नहीं। पर हरिभद्रीया वृत्ति तथा हेमचन्द्रसूरी के त्रिषष्ठिश
लाका पुरुषचरित का परिशिष्टपर्वन् । उनमें उपलब्ध आचार्य कुन्दकुन्द ने बोहपाहुड में अपने गुरु का विविध कथाएँ ऐतिहासिक सत्य के अधिक समीप नहीं नाम भद्रबाह लिखा है और उन भद्रबाहु को गमक गुरू लगती । मेरुतुंगाचार्य की प्रबन्ध चिन्तामणि और कहा है। कून्दकुन्द के ये गमकगुरू निश्चित हो थत- राजेश्वर सरि का प्रबन्ध कोष. भी इस सम्बन्ध में केवली भद्रबाहु रहे होंगे।
दृष्टव्य है।
मिल
सहवियारो हओ भासासुत्त सू जं जिणे कहियं । प्रबन्धचिन्ता मणि' में एक किंवदन्ति का उल्लेख है सो तह कहियं णयं रीसेण य भद्दबाहुस्स ॥ 61 कि भद्रबाहु बराहमिहिर के सहोदर थे । ब्राह्मण परिवार 9. प्रबन्धचिन्तामणि, सं. मुनि जिनविजय, सिंघी जैन सीरिज प्रकाश 5,5-118.
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में उत्पन्न ये दोनों भाई कुशल निमित्तवेत्ता थे। इन भद्रबाह संहिता आदि ग्रन्थों की रचना तथा नैमित्तिक दोनों भाइयों में भद्रबाह ने जैन दीक्षा ले ली पर बराह होने का कतई उल्लेख नहीं । अत: छेद सूत्रकार भद्रबाह मिहिर ने स्वधर्म परित्याग नहीं किया । बराहमिहिर तथा नियक्तिकार भद्रबाह दोनों का व्यक्तित्व निश्चित के पुत्र के सन्दर्भ में भद्रबाहु का निमित्तज्ञान बराह- ही पृथक पृथक रहा होगा। बराहमिहिर ने अपनी मिहिर की अपेक्षा प्रबल निकलफलतः बराहमिहिर पंच सिद्धांतिका शक संवत 427 (ई. 505) में जैनों से द्वेष करने लगे। इस द्वषभाव के परिणाम समाप्त की थी। अतः तृतीय भद्रबाहु का भी यही समय स्वरूप बराहमिहिर कालकवलित होने पर व्यन्तर निश्चित किया जा सकता है। जाति के देव हए और जैनों पर घनघोर उपसर्ग करने लगे। इन उपसर्गों को दूर करने के लिए भद्रबाहु ने
प्रश्न है, बराहमिहिर के भ्राता भद्रबाहु ने प्रस्तुत उपसग्गहरस्तोत्र लिखा । प्रबन्धकोष में इससे भिन्न भद्रबाहु संहिता की रचना की या नहीं ? हमें ऐसा अन्य कथा का उल्लेख है । तदनुसार बराहमिहिर और
लगता है कि बराहमिहिर की वृहत्संहिता के समकक्ष भद्रबाहु दोनों ने जैन मुनिब्रत ग्रहण किए । इनमें भद्र
में कोई अन्य जन संहिता रखने की दृष्टि से किसी बाहु चतुर्दश पूर्वज्ञान के धारी थे । जिन्होंने नियुक्तियों
दिगम्बर जैन लेखक ने श्रु तकेवली भद्रबाहु को सर्वा- . तथा भद्रबाहसंहिता जैसे ग्रन्थों की रचना की। परन्तु
धिक श्रेष्ठ एवं उपयोगी आचार्य समझ और उन्हीं के स्वभाव से उद्धत होने के कारण आचार्य बराहमिहिर
के नाम पर एक सहिना ग्रन्थ की रचना कर दी। को जैन मुनि दीक्षा त्यागकर पूनः व्राह्मणब्रत धारण
वृहत्संहिता का विशाल सांस्कृतिक कोष, विषद निरूपण करना पड़ा। इसी के पश्चात उन्होंने वृहत्संहिता लिखी
उदात्त कवित्व शक्ति, सूक्ष्म निरीक्षण और अगाध
विद्वता आदि जैसी विशेषताएँ भद्रबाह संहिता में यहा यह उल्लेखनीय है कि प्रबन्धकोष के पूर्ववर्ती अन्य किसी ग्रन्थ में भद्रबाहु को भद्रबाह संहिताकार अथवा
दिखाई नहीं देतीं। अतः यह निश्चित है कि भद्रबाहु बराहमिहिर का सहोदर नहीं बताया गया। प्रबन्धकोषा०
संहिताकार ने ही वृहत्संहिता का आधार लिया होगा। में भी इसी से मिलती जुलती घटनाका उल्लेख मिलता
"भद्रबाहुवनो यथा" आदि शब्दों से भी यही बात स्पष्ट होती है । भद्रबाहु संहिता में छन्दोभंग, ब्याकरण दोष,
पूर्वापर विरोध, वस्तु वर्णन शैथिल्य', क्रमबद्धता का परम्प र बराहमिहिर के सहोदर भद्रबाह अभाव, प्रभावहीन निरूपण इत्यादि अनेक अक्षम्य दोष ने ही उपयुक्त नियुक्तियों की रचना की है । जिन भी उक्त कथन की पुष्टि करते हैं। ग्रन्थों में श्र तकेवली भद्रबाहु का चरित्र चित्रण मिलता है। उनमें द्वादशवर्षीय दुष्काल, नेपला, प्रयाण, महाप्राण स्व. पं. जुगलकिशोर मुख्तार, डॉ. गोपाणी का ध्यान का आराधन, स्थूलभद्र की शिक्षा छेद सूत्रों की अनुसरण करते हुए भद्रबाह संहिता को इधर-उधर का रचना आदि का वर्णन तो मिलता है परन्तु बराह- बेढ़ेगा संग्रह मानते हैं जिसे 16-17 वीं शती में संकमिहिर का भाई होना, नियुक्तियों, उपसग्गहरस्तोत्र तथा लित किया गया था। यह ठीक नहीं क्योंकि 16-17 वीं
10. प्रबन्धकोश-सं. मुनि जिनविजय सिंघी जैन सीरिज. 1.2 11. भद्रबाहु संहिता, सं.-ए. एस. गोपाणी, पुष्पिका, पृ. 70 12. वही, प्राक्कथन, प. 3-4
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शती तक का सांस्कृतिक अथवा ऐतिहासिक कोई (1) चातुर्वर्ण्य व्यवस्था तथा वर्णसंकर का उल्लेख प्रमाण इसमें नहीं मिलता जिसके आधार पर मुख्तार भ० स० में अनेक स्थानों पर विकसित अवस्था में हुआ साहब के मत को समर्थन दिया जा सके। मुनि जिन- है। जैन संस्कृति में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था जिनसेन द्वारा विजय ने यह समय 11-12वीं शती निश्चित किया की गई जिसका परिपोषक रूप सोमदेव के ग्रन्थों में हैं। यह मत कहीं अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। मिलता है। वैसे ग्रन्थ के अन्त प्रमाणों के आधार पर इस समय को भी एक दो शताब्दी आगे किया जा सकता है।
(2) अरिष्टों के वर्णन के प्रसंग में दुर्गाचार्य और एलाचार्य का उल्लेख है । दर्गाचार्य का ग्रन्थ रिष्ट
समुच्चय का रचनाकाल 1032 ई. है। । कुछेक वर्षों पूर्व भारतीय ज्ञानपीठ से डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा सम्पादित एवं अनुवादित भद्रबाहु संहिता
(3) चन्द्र, वरुण, रुद्र, इन्द्र, बलदेव, प्रद्युम्न, का प्रकाशन हआ था। उसकी प्रस्तावना में डॉ. शास्त्री सर्य, लक्ष्मी, भद्रकाली, इन्द्राणी. धन्वन्तरि, परशराम, ने एक स्थान पर भद्रबाहु को बराहमिहिर से प्रभावित
रामचन्द्र' तुलसा, गड़, भूत, अर्हन्त, वरुण, रुद्र, सूर्य बताया । दूसरे स्थान पर उन्होंने लिखा कि कुछ विषयों शक्र, द्रोण, इन्द्र, अग्नि, वाय, समद्र, विश्वकर्मा, प्रजाका वर्णन बराहमिहिर से भी अधिक भद्रबाहु संहिता पति, पार्वती, रति आदि की प्रतिमाओं का वर्णन इस में मिलता है और यही नवीनता प्राचीनता की पोषिका ग्रन्थ में है। इन सभी के रूप 12वीं शती तक विकहै । फलतः भद्रबाहु बराहमिहिर के पूर्ववर्ती हो सकते सित हो चुके थे। हैं और अन्त में डॉ. शास्त्री ने इस कृति का समय 8-9 वीं शती भी बता दिया। इन तीन मतों में कौन
(4) भद्रबाहु वचो यथा (ई. 64), यथावदनुसा मत उनका माना जाय, निश्चित नहीं किया जा पूर्वशः (91) आदि जैसे वाक्यों का प्रयोग मिलता सकता। लगता है, वे स्वयं इस समय की परिधि को है। इससे स्पष्ट है कि भ. सं. की रचना श्रतकेवली निश्चित नहीं कर पाये।
भद्रबाह ने तो नहीं की। उनके अनुसार अन्य किसी
भद्रबाह ने की हो अथवा उनके नाम पर किसी यद्वा . इस सन्दर्भ में मेरा अपना मत है कि भद्रबाहु तद्वा विद्रान ने। 11-12 वीं शती के होना चाहिए, जो न तो श्रतकेवली भद्रबाहु हैं, न कुन्द कुन्द के साक्षात गुरू और न ही (5) भौगोलिक और राजनीतिक वर्णन । नियुक्तिकार भद्रबाह । इनके अतिरिक्त अन्य कोई
(6) वृहत्संहिता की अपेक्षा विषय वर्णन में चतुर्थ भद्रबाहु ही होना चाहिए, क्योंकि नियुक्तिकार
नवीनता। भद्रबाहु की भाषा प्रायः शुद्ध और समीचीन जान पड़ती है जबकि प्रस्तुत ग्रन्थ इस दृष्टि से अस्पष्ट तथा
इन सभी प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि भद्रबाहु व्याकरण दोषो से परिपूर्ण है।
संहिता की रचना 11-12 वीं शती से पूर्ववर्ती नहीं
होना चाहिए । मूल ग्रन्थ प्राकृत में रहा हो यह भी भद्रबाहु संहिता की रचना 12-13 वीं शती की समीचीन नहीं जान पड़ता। बौद्ध साहित्य की श्रेणी में है । इस मत के समर्थन में निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत इसे नहीं रखा जा सकता क्योंकि प्राकृत के रूप किये जा सकते हैं
इतने अधिक भ० सं० में नहीं मिलते । अतः इस ग्रन्थ
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की उपरितम सीमा 12-13वीं शती मानी जानी अनुयायियों में परस्पर विषाद और कलह हो रहा है। चाहिए।
ये एक दूसरे की बातों को गलत सिद्ध कर रहे हैं।
बुध्द ने इसका कारण बताग कि निगण्ठों के तीर्थकर संघ भेद
निगण्टनातपुत्त न तो सर्वज्ञ हैं और न टीक तरह से
उन्होंने धर्मदेशना दी है। अटठकथा में इसका विश्लेप्रायः हर तीर्थ कर अथवा महापुरुष के परिनिर्वत
षण करते हुए कहा गया है कि निगण्ठनातपुत्त ने अपने अथवा देहावसान हो जाने के बाद उसके संघ अथवा
अपने सिद्धांतों की निरर्थकता को समझ कर अपने अनुयायियों में मतभेद पैदा हो जाते हैं । इस मतभेद
अनुयायियों से कहा था कि वे बुध्द के सिद्धांतों को के मूल कारण आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक
स्वीकार करलें । आगे वहां बताया गया है कि उन्होंने परिस्थितियों के परिवर्तित रूप हुआ करते हैं। मतभेद
अन्तिम समय में एक शिष्य को शाश्वतबाद की शिक्षा की गोद में विकास निहित होता है जिसे जागृति का
दी और दूसरों को उच्छेदवाद की। फलतः वे दोनों प्रतीक कहा जा सकता है । पार्श्वनाथ और महावीर
परस्पर संघर्ष करने लगे। संघभेद का मूल कारण के संघ में भी उनके निर्वाण में बाद मतभेद उत्पन्न
यही है ।
, होना आरम्भ हो गया था। उस मतभेद के पीछे भी आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों के बदलते हुए उक्त उध्दरण कहां तक सही है, कहा नहीं जा रूप थे।
सकता पर यह अवश्य है कि शासन भेद निगण्ठनात
पत्त के परिनिर्वाण के बाद किसी न किसी अंश में इस प्रकार महावीर के निर्वाण के बाद उनका
प्रारम्भ हो गया था। संघ अन्तिम रूप में दो भागों में विभक्त हो गयादिगम्बर और श्वेताम्बर । संघभेद के संदर्भ में दोनों इस शासनभेद को श्वेताम्बर परम्परा में निन्हव सम्प्रदायों में अपनी अपनी परम्पराएं हैं । दिगम्बर कहा गया है। उनकी संख्या सात बताई गयी है। सम्प्रदाय पूर्णतः अचेलत्वय को स्वीकार करता है पर जामालि, तिष्यगप्त, आषाढ़, विश्वमित्र, गंग, रोह. श्वेताम्बर सम्प्रदाय सवस्त्र अवस्था को भी मान्यता गुप्त और गोष्ठामाहिल । निन्हव का तात्पर्य है--किसी प्रदान करता है। दोनों परम्पराओं का अध्ययन करने विशेष दृष्टिकोण से आगमिक परम्परा से विपरीत से यह पष्ट है कि मतभेद का मूल कारण वस्त्र था। अर्थ प्रस्तुत करनेवाला । यह यहां दृष्टव्य है कि प्रत्येक
निन्हव जैनागमिक परम्परा के किसी एक पक्ष को पालि साहित्य से पता चलता है कि निगण्ठ नात- अस्वीकार करता है और शेष पक्षों को स्वीकार करता पत्त के परिवर्तन के बाद ही संघभेद के बीज प्रारम्भ है अत: वह जैन धर्म के ही अन्तर्गत अपना एक पृथक हो चुके थे। आनन्द ने बुद्ध को चुन्द का समाचार मत स्थापित करता है। ये सातों निन्हव संक्षेपतः इस दिया था कि महावीर के निर्वाण के उपरान्त उनके प्रकार हैं ।
13. माज्झिमनिकाय भा. 2. पृ.-243 (रो.); दीघनिकाय मा. 3- 1. 117, 120 {रो.) 14. दीधनिकाय भा. 3, पृ. 121. 15. दीधनिकाय : अट्ठकथा भा-२, पृ. 996
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१. प्रथम निन्हव - ( जामालि); बहुरत सिद्धान्त :
३. तृतीय निन्हव- ( आषाढ़ आचार्य); अव्यक्त मत
श्वेताविका नगरी में आषाढ़ नामक एक आचार्य थे । वे अकस्मात मरकर देव हुए और पुनः मृत शरीर में आकर उपदेश देने लगे। योग साधना समाप्त होने पर उन्होंने अपने शिष्यों से कहा- "मैंने असंयमी होते हुए भी आप लोगों से आज तक बन्दना कराई श्रमणो, मुझे क्षमा करना ।" इतना कहकर वे चले गये तब शिष्य कहने लगे- कौन साधु बन्दनीय है, कौन नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। अतः किसी की भी बन्दना नही करनी चाहिए। व्यवहार नय को न सम झने के कारण यह निन्हब पैदा हुआ । 18
४. चतुर्थ निन्हव - (कौण्डिण्य ) ; सामुच्छेदक :
कौण्डिण्य का शिष्य अश्वमित्र मिथला नगरी में
२. द्वितीय निन्हव - (तिष्यगुप्त ) ; जीवप्रादेशिक अनुप्रवाद नामक पूर्व का अध्ययन कर रहा था । उसमें सिद्धांत एक स्थान पर प्रसंग आया कि वर्तमान कालीन नारक विच्छिन्न हो जायेगे द्वितीयादि समय के नारक भी विच्छिन्न हो जायेगे । अतः उसके मन में आया कि उत्पन्न होते हो जब जीव नष्ट हो जाता है तो कर्म का फल कब भोगता है। यह क्षणभंवाद पर्यायनय को न मानने के कारण उत्पन्न हुआ। इसे समुच्छेदक नाम दिया गया हैं । इसका अर्थ है --- जन्म होते ही अत्यन्त विनाश हो जाता हैं
५. पञ्चम निन्हव द्विक्रिया (गंग)
धनगुप्त का शिष्य गंग एक बार शरदऋतु में उलुकातीर नामक नगर से आचार्य की वन्दना करने
जामालि भ० महावीर का शिष्य था । श्रावस्ती में उसने अपने शिष्य से एक बार बिस्तर लगाने के लिये कहा। शिष्य ने कहा- विस्तर लग गये । जामालि ने जाकर जब देखा कि अभी बिस्तर लग रहा है तो उसे महावीर का कहा हुआ “कियमाणं कृत", ( किया जाने वाला कर दिया गया) वचन असत्य प्रतीत हुआ । तब उसने उस सिध्दांत के स्थान पर बरहुत सिद्धांत की स्थापना की जिसका तात्पर्य है कि कोई भी क्रिया एक समय में न होकर अनेक समय में होती है। मृदानयन आदि से घट का प्रारम्भ होता है पर घट तो अन्त में ही दिखाई देता है। यह ऋजु सूत्रमय का विषय है जिसे जामालि ने नहीं समझा।"
तिष्यगुप्त वसु का शिष्य था। एक समय ऋषभपुर में आत्म प्रवाद पर चर्चा चल रही थी । प्रश्न था - क्या जीव के एक प्रदेश को जीव कह सकते हैं। भगवान महावीर ने उत्तर दिया- नहीं ।
सम्पूर्ण प्रदेश युक्त होने पर ही 'जीव' कहा जायगा तब तिष्यगुप्त ने कहा कि जिस प्रदेश के कारण वह जीव नहीं कहलायेगा। उसी चरम प्रदेश को जीव क्यों नहीं कहा जाता, यही उसका जीव प्रादेशिक मत है। एवंभूतनय न समझने के कारण ही उसने यह मत स्थापित किया ।"
16. विशेषावश्यक भाष्य गाया 2308-32. 17. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-2333-2355. 18. विशेषावश्यक भाष्य गाथा - 2356-2388. 19 विशेषावश्यक भाष्य, गाया -2389-2433.
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के लिए निकला मार्ग में उसने गर्मी और ठण्ड दोनों का कहा कि साधु के मार्ग में अनेक अनर्थ उत्पन्न करने वाले अनुभव एक साथ किया । तब उसने यह मत प्रतिपा- इस कम्बल को ग्रहण करना उचित नहीं । पर शिवभूति दित किया कि एक समय में दो क्रियाओं का अनुभव को उस कम्बल में आसक्ति उत्पन्न हो गई थी। यह हो सकता है। नदी में चलने पर ऊपर की सूर्य उष्णता समझकर आयंकृष्ण ने शिवभूति की अनुपस्थिति में उस और नदी की शीतलता, दोनों का अनुभव होता है। के पादप्रोच्छनक बना दिये । यह देखकर शिवभूति को गंग ने अपने द्विक्रिया मत की स्थापना करली। तथ्य कषाय उत्पन्न हो गई । एक समय आर्यकृष्ण जिनकाल्पियों यह यह है कि मन की सूक्ष्मता के कारण यह भान नहीं का वर्णन कर रहे थे और कह रहे थे कि उपयुक्त संहनन होता क्रिया का वेदन तो क्रमशः ही होता है। आदि के अभाव होने से उसका पालन सम्भव नहीं ।
शिवभूति ने कहा-'मेरे रहते हए कैसे हो सकता है । ६. षष्ठ निन्हव-राशिक (रोहगुप्त)
यह कह कर अभिनिवेशवश निर्वस्त्र होकर यह मत __एक बार अन्तरंजिका नगरी में रोहगुप्त अपने स्थापित किया कि वस्त्र कष य का कारण होने से परिगुरू की बन्दना करने जा रहा था। मार्ग में उसे अनेक ग्रह रूप है अतः त्याज्य है। प्रवादी गिले जिन्हैं उसने पराजित किया। अपने वाद
ये निन्हव किसी अभिनिवेश के कारण आगमिक स्थापन काल में उसने जीव और अजीव के साथ ही
परम्परा से विपरीत अर्थ प्रस्तुत करने वाले होते हैं । नोजीव की भी स्थापना की गहकिकिलादि की उसने
प्रथम निन्हव महावीर के जीवन काल में ही उनकी 'नोजीव' बतलाया। समाभिस्ढ नय को न समझने के
ज्ञानोत्पत्ति के चौदह वर्ष बाद हआ। इसके दो वर्ष कारण उसने इस मत की स्थापना की इसे मैराशिक
बाद ही द्वितीय निन्हव हुआ। शेष निन्हव महावीर के कहा गया है।
के निर्वाण होने पर क्रमश: 214,220, 218, 544, ७. सप्तम निन्हव-अबध्द (गोष्ठामाहिल)
584, ओर 609 वर्ष वाद उत्पन्न हुए। सिद्धान्त भेद
से प्रथम सात निन्हवों का उल्लेख मिलता है । पर जिनएक बार दशपुर नगर में गोष्ठामाहिल कर्मप्रवाद भद्र ने विशेष्यावश्यक भाष्य में एक और निन्हव जोड पढ रहा था उसमें आया कि कर्म केवल जीव का स्पर्श कर उनकी संख्या 8 करदी। इसी अष्टम निन्हव को करके अलग हो जाता हैं। इस पर उसने सिद्धान्त दिगम्बर कहा गया है। आश्चर्य की बात है, इन निबनाया कि जीव और कर्म अबद्ध रहते हैं । उनका बन्ध हवों के विषय में दिगम्बर साहित्य बिलकुल मौन है। ही नहीं होता व्यवहारनय को न समझने के कारण ही प्रथम सात निन्हवों के कारण किसी सम्प्रदाय विशेष की गोष्ठामाहिल ने यह मत प्रस्थापित किया।
उत्पत्ति नहीं हई। ठाणांङ्ग सूत्र (587) में केवल
सात निन्हवों का उल्लेख हैं पर आवश्यकनियुक्ति ८. अष्टम निन्हव-बोटिक- (शिवभूति)
(गाथा-779-783) में स्थान काल का उल्लेख करते रथवीरपुर नामक नगर में शिवभूति नामक साधु समय आठ निन्हवों का और उपसंहार करते समय मात्र रहता था। वहां के राजा ने एक बार एक बहुमूल्य रत्न सात निन्हवो का निर्देश किया गया है। इससे यह कंबल भेंट किया। शिवभूति के गुरू आर्यकृष्ण ने स्पष्ट है कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने ही सर्वप्रथम
20. एवं एए कहिआ ओसप्पिणिए उ निष्हया सन्त ।
वीर वरस्स पवयणे संसाणं पवयणे नत्थि 178411
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अष्टम निन्हव के रूप में दिगम्बर मत की उत्पत्ति की मुनियों-निर्ग्रन्थों को भी रात्रि भोजन प्रारम्भ करना कल्पना की हैं। उन्होंने यह भी कहा है कि उपयुक्त पड़ा। एक बार अंधकार में भिक्षा की खोज में निकले संहननादि का अभाव होने से जिनकल्प का धारण निर्ग्रन्थ को देखकर भय से एक गभिणी का गर्भपात करना अब शक्य नहीं। इससे यह स्पष्ट है कि दिगम्बर हो गया। इस घटना के मूल कारण को दूर करने के सम्प्रदाय की उत्पत्ति अर्वाचीन नहीं, प्राचीनतर है। लिये श्रावकों ने मुनियों को "अर्धफलक' (अर्धवस्यऋषभदेव ने जिनकल्प की ही स्थापना की थी और खण्ड) धारण करने के लिये निवेदन किया । सभिक्ष वह अविच्छिन्नरूप से श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार हो जाने पर रामिल्ल, स्थविर स्थल और भद्राचार्य ने भी जम्बूस्वामी तक चला आया। बाद में उसका तो मुनिव्रत धारण कर लिये पर जिन्हें वह अनुकूल विच्छेद हुअ । शिवभूति ने उसकी पुन: स्थापना की। नहीं लगा, उन्होंने जिनकल्प के स्थान पर अर्धफलक अतः जिनकल्प को निन्हव कैसे कहा जा सकता है ! सम्प्रदाय की स्थापना कर ली। उत्तरकासा में इसी और फिर बोटिक का सम्बन्ध दिगम्बर सम्प्रदाय से अर्धफलक सम्प्रदाय से काम्बल सम्प्रदाय, फिर यापनीय कैसे लिया जाय, इसका स्पष्टीकरण श्वेताम्बर साहित्य संघ और बाद में इबेताम्बर संघ की उत्पत्ति हई। में नहीं मिलता। सम्भव है, बोटिक नाम का कोई पृथक सम्प्रदाय ही रहा होगा जिसका अधिक समय तक देवसेन के 'दर्शनसार' (वि. सं. 999) में अस्तित्व नहीं रह सका।
एतत् सम्बन्धी कथा इस प्रकार मिलती है
श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति
विक्रमाधिपति की मृत्यु के 136 वर्ष बाद सौराष्ट
देश के बलभीपूर में श्वेताम्बर संध की उत्पत्ति हई। दिगम्बर साहित्य में श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति के विषय में जो कथानक मिलते हैं बे इस प्रकार
इस संघ की उत्पत्ति में मूल कारण भद्रबाहुगणि के आचार्य शान्ति के शिष्य जिनचन्द्र नामक एक शिथि
लाचारी साधु था। उसने स्त्री-मोक्ष, कवलाहार, सव. हरिषेण के वृहत्कथाकोश (शक संवत् 853) स्त्र मुक्ति, महावीर का गर्भ परिवर्तन आदि जैसे मत में यह उल्लेख मिलता है कि गोवर्धन के शिष्य श्रुत- प्रस्थापित किये थे ।। केवली भद्रबाह ने उज्जयिनी में द्वादशवर्षीय दुष्काल को निकट भविष्य में जानकर मुनि विशाखाचार्य (चन्द्र- दर्शनसार में व्यक्त ये मत नि सन्देह श्वेताम्बर गुप्त मौर्य) के नेतृत्व में मुनिसंघ को दक्षिणापथवर्ती सम्प्रदाय से सम्बद्ध हैं। उनके संस्थापक तो नहीं, पुनार नगर भेज दिया और स्वयं भाद्रपद देश में जाकर प्रबल पोषक कोई जिनचन्द्र नामक आचार्य हुए होंगे। समाधिमरण पूर्वक शरीर त्याग दिया। इधर दुष्काल पर चूकि आचार्य शान्ति और उनके शिष्य जिनचन्द्र की समाप्ति हो जाने पर विशाखाचार्य ससंघ वापस आ का अस्तित्व देवसेन के पूर्व नहीं मिलता अत: ये जिनचन्द्र 'गये। संघ में से रामिल्ल, स्थविर स्थूल और भद्राचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (सप्तम शती) होना चाहिये। सिन्धु देश की ओर चले गये थे। वहाँ दुर्भिक्ष पीड़ितों उन्होंने विशेषावश्यक भाष्य में उक्त मतों का भरपर के कारण लोग रात्रि में भोजन करते थे। फलतः समर्थन किया है।
21. दर्शनसार-11-14.
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एक अन्य देवसेन ने भावसंग्रह में भी श्वेताम्बर संघ की उत्पत्ति इसी प्रकार बतायी है। थोड़ा-सा जो भी अन्तर है, वह यह है कि यहाँ शान्ति नामक आचार्य सौराष्ट्र देशीय बलभी नगर अपने शिष्यों सहित पहुंचे पर वहाँ भी दुष्काल का प्रकोप हो गया । फलतः साधुवर्ग यथेच्छ भोजनदि करने लगा । दुष्काल समाप्त हो जाने पर शान्ति आचार्य ने उनसे इस वृत्ति को छोड़ने के लिए कहा पर उसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया । तब आचार्य ने उन्हें बहुत समझाया। उनकी बात पर किसी शिष्य को क्रोध आयों और उसने गुरू को अपने दीर्घ दण्ड से सिर पर प्रहार कर उन्हें स्वर्ग लोक पहुंचाया और स्वयं संघ का नेता बन गया । उसी ने सवस्त्र मुक्ति का उपदेश दिया और श्वेताम्बर संघ की स्थापना की ।
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मट्टारक रत्ननन्दि का एक भद्रबाहुचरित्र मिलता है, जिसमें उन्होंने कुछ परिवर्तन के साथ इस घटना का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि दुर्भिक्ष पड़ने पर भद्रबाहु ससंघ दक्षिण गये । पर रामल्य, स्थूलाचार्य आदि मुनि उज्जयिनी में ही रह गये। कालान्तर में संघ में व्याप्त शिथिलाचार्य को छोड़ने के लिए जब स्थूलाचार्य ने मार डाला। उन शिथिलाचारी साधुओं से ही बाद में अर्थ फलक और श्वेताम्बर संघ की स्थापना हुई ।
इन कथानकों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भद्रबाहु की परम्परा दिगम्बर सम्प्रदाय से और स्थूलभद्र की परंपरा श्वेताम्बर सम्प्रदाय से जुड़ी हुई है। यह श्वेताम्बर सम्प्रदाय अर्धफलक संघ का ही विकसित रूप है।
अर्धफलक सम्प्रदाय का यह रूप मथुरा कंकाली टीले से प्राप्त शिलापट्ट में अंकित एक जैन साधु की
2 भावसग्रह-गा 53 - 70,
प्रतिकृति में दिखाई देता है । वहाँ एक साधु 'कण्ह' बायें हाथ से वस्त्रखण्ड के मध्य भाग को पकड़कर नग्नता को छिपाने का यत्न कर रहा है। हरिभद्र के सम्बोप्रकरण से भी श्वेताम्बर सम्प्रदाय के इस पूर्व
रूप पर प्रकाश पड़ता है। कुछ समय बाद उसी वस्त्र को कमर में धागे से बध दिया जाने लगा । यह रूप मथुरा में प्राप्त एक आयागपट्ट पर उटंकित रूप से मिलता-जुलता है। इस विकास का समय प्रथम शब्तादि के आस पास माना जा सकता है।
ऊपर के कथानकों से यह भी स्पष्ट है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के बीच विभेदक रेखा खींचने का उत्तरदायित्व वस्त्र की अस्वीकृति और स्वीकृति पर है। उत्तराध्ययन में केशी और गौतम के बीच हुए संवाद का उल्लेख है। केशी पार्श्वनाथ परम्परा के अनुयायी है और गौतम महावीर परम्परा के पा नाथ ने सन्तस्तर (सान्तरोतर ) का उपदेश दिया और महावीर ने अचेलकता का। इन दोनों शब्दों के अर्थ की ओर हमारा ध्यान श्री० पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री
।
आकर्षित किया है। उन्होंने लिखा है कि उत्तराध्ययन की टीकाओं में सान्तनेत्तर का अर्थ महामूल्यवान् और अपरिमित वस्त्र ( सान्त र प्रमाण और वर्म में विशिष्ट तथा उत्तर-प्रधान) किया गया है और उसी के अनुरूप अचेल का अर्थ वस्त्रभाव के स्थान में क्रमश: कुत्सितचेल, अल्पचेल और अमूल्यचेल मिलता है । किन्तु आचारंग सूत्र 209 में आये 'संतरुसर' शब्द का अर्थ दृष्टव्य है। वहाँ कहा गया है कि तीन वस्त्रधारी साधु का कर्तव्य है कि वह जब शीत ऋतु व्यतीत हो जाय जाय और श्रीष्म ऋतु आ जाये और वस्त्र यदि जीणं न हुए हों तो कहीं रख दे अथवा सान्तरोत्तर हो जाये । शीलांक ने सान्तरोत्तर का अर्थ किया है— सान्तर है उत्तर ओढ़ना जिसका अर्थात्, जो आवश्यकता होने पर
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वस्त्र का उपयोग कर लेता, है अन्यथा उसे पास रखे इसका मूल कारण है कि पाश्वं परम्परा में ब्रह्मचर्य व्रत रहता है।
को अपरिग्रह ब्रत में सम्मिलित कर दिया गया था।
केशी और गौतम के संवाद में आये हए सान्त- 'पञ्चाशक विवरण' में कहा गया है कि प्रथम रोत्तर का तात्पर्य भी यही है कि पार्श्वनाथ परम्परा और अन्तिम तीर्थकरों के अनुयायी साधु स्वभावतः के साधु अचेलक तो थे पर आवश्यकता पड़ने पर वे कठिन और वक्रजड़ होते थे। इसलिए उन्हें अचेलाववस्त्र भी धारण कर लेते थे जबकि महावीर के धर्म में स्था का पालन करना आवश्यक बताया गया जबकि साधु पूर्णत: अचेलक अवस्था में रहता था। साधु सचे- बीच के बाईस तीर्थ करों के अनुयायी साधु स्वभावतः लक वही हो सकता था जो अचेलक होने में असमर्थ सरल और बुद्धिमान थे, अत: उन्हें आवश्यकता पड़ने रहता था। पालि साहित्य में निग्गण्ठ साधुओं को जो पर सचेलावस्था को भी विहित बना दिया गया 128 'एकसाटका' कहा गया है वह भी हमारे मत का पोषण करता है।
श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी साधु को अपरिग्रही
होना आवश्यक बताया गया है ।29 आचारंगसूत्र - पार्श्वनाथ परम्परा में महावीर के समय तक उसमें एतदर्थ द्वष्टव्य है। उसमें अचेलक साधु की प्रशंसा की चारित्रिक पतन हो गया था। इसलिए उस परम्परा के गयी है और उसे वस्त्रादि से निश्चिन्त बताया गया अनुयायी साधुओं को 'पासावज्जिय ( पार्वापत्यीय) है। 30 ठाणांग (सूत्र 171) में वस्त्र धारण करने के अथवा 'पासज्ज' (पार्श्वस्थ) कहा जाने लगा । पास- तीन कारणों का उल्लेख मिलता है-लज्जा निवारण, ज्ज का तात्पर्य है कर्म से बंधा हुआ साधु । यह शब्द ग्लानि निवारण और परिषह निवारण । आगे पाँच इतना अधिक प्रचलित हो गया कि चरित्र से पतित कारणों से अचेलावस्था की प्रशंसा की गई है-प्रतिसाधु का वह पर्यायवाची बन गया ।26 सूत्रकृतांग में लेखना की अल्पता, लाघवता, विश्वस्तरूपता, तपपार्श्वस्थ साधुओं को अनार्य, बाल, जिनशासन से शीलता और इन्द्रिय निग्रहता । और भी अन्य आगमों विमुख एवं स्त्रियों में आसक्त कहा गया है। भगवती में अचेलावस्था को प्रशस्त माना आराधना (गाथा 1300, आदि में भी पार्श्वस्थ असमर्थता होने पर ही वस्त्र ग्रहण करने की अनज्ञा साधुओं का चरित्र चित्रण इसी प्रकार किया गया है। दी गई है।
23. जैन साहित्य का इतिहास: पूर्व पीठिका-397-98. 24. उत्तराध्ययन, 23-29-33. 25. तत्रिदं भन्ते, पूरणेन कस्सपेन लोहिताभिजाति पञ्चता, निग्गण्ठा एकसाटका, अगुत्तरनिकाय 6-6-3. 26. सूत्रकृतांग-1-1-2-5 वृत्ति; 27. सूत्रकृतांग--3-4-3 वृत्ति. . 28. पञ्चःशक विवरण 17-8-10; 29. आचारंग-5,150-152. 30. आचारंगसूत्र-182. 31. ठाणांगसूत्र-5
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कालान्तर में वस्त्र ग्रहण की प्रवृत्ति बढ़ती गई और उसी प्रारम्भ हो गये थे जो भद्रबाह के काल में भिक्ष की के साथ आगमों की टीकाओं और चूणियों आदि में समाप्ति पर कुछ अधिक उभरकर सामने आये। 'परिअचेलकता के अर्थ में परिवर्तन किया जाने लगा । जिन- शिष्ट पर्वन' (9-55.76) तथा तित्थोगाली पइन्नय भद्रगणि क्षमाश्रमण के काल तक स्थिति बिलकुल बदल (गा० 730-33) के अनुसार भी पाटलिपुत्र में हुई गई। फलतः उन्हें आचार के दो रूप करना पड़े-जिन- प्रथम वाचना काल में संघभेद प्रारम्भ हो गया था । कल्प और स्थविरकल्प । जिनकल्परूप अचेलकता का यह वाचना भद्रबाहु की अनुपस्थिति में हुई थी। इसी
दक बना तथा स्थविरकल्प सचेलकता का। के फलस्वरूप दोनों परम्पराओं की गुबर्बावलियों में भी जम्बस्वामी के मोक्ष जाने के बाद जिनकल्प को विच्छिन्न अन्तर आ गया। यह ग्वाभाविक भी था। उत्तरकाल बता दिया गया। व हत्कल्पसूत्र और विशेषावश्यक में इस अन्तर ने आचार-विचार क्षेत्र को भी प्रभावित भाष्य (गाथा 2598-2601) में इसका विशेष विवेचन किया और देवर्धिगणि क्षमाश्रमण के काल तक दिगम्बर मिलता है। वहाँ अचेल के दो भेद कर दिये गये हैं.- और श्वेताम्बर परम्परायें सदैव के लिये एक-दूसरे से संताचेल और असंताचेल । संताचेल (वस्त्र रहते हए पृथक हो गई। भी अचेल) जिनकल्पी आदि सभी प्रकार के साधु कहलाते हैं और असन्ताचेल के अन्तर्गत मात्र तीर्थकर आते भद्रबाहु के समय तक बौद्धधर्म के मध्यममार्ग का
प्रचार अपने पूरे जोर पर था। जैन संघ के आचार शैथिल्य
में वह विशेष कारण बना । विचारों में भी परिवर्तन . उत्तरकाल में इस प्रकार के अर्थ करने की प्रवृत्ति
हुआ जो विभिन्न वाचनाओं के बीच हुए संवादों से ज्ञात और भी बढ़ती गई। हरिभद्रसूरि ने दशवकालिक सूत्र होती है। यहाँ वस्त्र और पात्र के रखने के तरह-तरह में आये शब्द नग्न का अर्थ उपचरितनग्न और निरूप- से विधान बने । महावीर भगवान के साथ देवद्वस्य वस्त्र चरितनग्न किया है। कुचेलवान् साधू को उपचरितनग्न की कल्पना का सम्बन्ध भी ऐसे ही विधानों से रहा और जिनकल्पी साधु को निरूपचरित नग्न कहा गया होगा। इतना ही नहीं, प्रथम और अन्तिम तीर्थकरों का है। बाद में अचेल का अर्थ अल्पमूल्यचेल भी किया धर्म अचेलक कहा गया तथा शेष बाईस तीर्थकरों को गया है । सिद्धसेनमणि ने भी दसकल्पों में आये आचे- अचेलक और सचेलक दोनों माना गया । लक्य कल्प का अर्थ यही किया गया है। धीरे-धीरे साधु बस्तियों में रहने लगे, कत्विवस्त्र के स्थान पर चूल- आचेलक्को धम्मो पुस्त्रिस्म य. पच्छिमस्स जिणस्स । पट का प्रयोग होने लगा और उपकरणों में वदि हो मज्झिमगाण जिणाण होइ सचेलो अचेलो य॥ पंचाशक गई। लगभग आठवीं शताब्दी तक श्वेताम्बर सम्प्रदाय में यह विकास हो चुका था ।
आचारांग सूत्र की टीका में शीलाँक ने अचेलक का
जिनकल्प का और सचेलक को स्थविरकल्य का आधार उक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि शिथिलाचार की बतायः है। इस मत में दृढ़ता लाने के लिये एषणा पष्ठभूमि में सघभेद के बीज जम्बस्वामी के बाद से ही समिति में वस्त्र और पात्र एषणा को सम्मिलित किया
32. दशवकालिक सूत्र, गाथा-64 णि. 33. तत्वार्थसूत्र-9.9, व्याख्या,
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गया। पार्श्वनाथ की परम्परा को सचेल बताने के लिए निवास करने लगे। लगभग 10 वीं शताब्दी तक यह केशी-गौतम संवाद को जोड़ा गया । स्त्रीमुक्ति, सवस्त्र- प्रवत्ति अधिक दृढ़ हो गई । विशुद्ध आचारवान् भिक्षुओं मुक्ति, केवलिमुक्ति आदि सम्बन्धी वाक्य भी अन्तमुक्त ने इसका विरोध किया और शिथिलाचारी साधूओं की कर दिये गये । जिनदासगणि क्षमाश्रमण ने तो अन्तमुक्त भर्त्सना कर उन्हें जैनाभासी और मिथ्यात्वी जैसे के लोप की भी बात कर दी। (विशेषावश्यक अस्य, सम्बोधनों से सम्बोधित किया। इन सभी कारणों से 2593 गा.) पं. बेचरदास दोसी ने ऐसे ही कथनों दिगम्बर सम्प्रदाय में अनेक संघों की स्थापना हो गई। या उल्लेखों की भर्त्सना की है । (जैन साहित्यमां विकार देवसेन ने दर्शनसार में श्वेताम्बर, यापनीय, द्रविड़, थलाथयेली, हति, पृ. 103) इसी प्रकार की प्रवृत्तियोंने काष्ठा संघ और माथुर संघ को जैनाभास बताया है। संघ और सम्प्रदाय को जन्म दिया।
मूलसघ दिगम्बर संघ और सम्प्रदाय
शिथिलाचारी साधूओं के विरोध में विशुद्धतावादी दिगम्बर परम्परा संधभेद के बाद अनेक शाखा- साधुओं ने जिस आन्दोलन को चलाया उसे मूल संघ प्रशाखाओं में विभक्त हो गई। वीर निर्वाण से 683 कहा गया है। मूल संघ के स्थापकों ने यह नाम देकर वर्ष तक चली आयी लोहाचार्य तक की परम्परा में गण, अपना सीधा सम्बन्ध महावीर से बताने का प्रयत्न किया कुल, संघ आदि की स्थापना नहीं हुई थी। उसके बाद और शेष संघ को अमूल्य बता दिया। इस संघ की अंग पूर्व के एकदेश के ज्ञाताचार आरातीय मुनि हुए। उत्पत्ति का स्थान और समय अभी तक निश्चित नहीं उनमें आचाय शिवगुप्त अथवा अहंदबली से नवीन संध हो पाया पर यह निश्चित है कि इस संघ का विशेष और गणों की उत्पत्ति हुई। महावीर के निर्वाण के सम्बन्ध कुन्दकुन्द से रहा है। साधारणतः कुन्दकुन्द का लगभग इन 700 वषों में आचार-विचार में पर्याप्त समय ईसा की प्रथम शताब्दी माना गया है। कालापरिवर्तन हो चुका था। समाज का आर्थिक, सामाजिक न्तर में मूल संघ जैसे ही काष्ठा, द्राविड़ आदि और राजनीतिक और सांस्कृतिक ढांचा बदल चुका था। संघ भी स्थापित हए। इन सभी संघों पर निग्रन्थ शिथिलाचार की प्रवृत्ति बढ़ने लगी थी। इसी कारण और यापनीय संघों का प्रभाव अधिक है । नये-नये संध और सम्प्रदाय खड़े हो गये ।
मलसंघ का प्राचीनतम उल्लेख 'नोया मंगल' के कदम्ब एवं गंगवंशी लेखों से पता चलता है कि दानपत्र में पाया जाता है, जिसका समय शक सं. 347 समूचे दिगम्बर संध को निर्ग्रन्थ महाश्रमण संध कहा (वि. सं. 482) के आसपास है। आचार्य इन्द्रनन्दि जाता था। कालान्तर में जब शिथिलाचार बढ़ने लगा (11 वीं शताब्दी) ने मलसंघ का परिचय देते हुए लिखा तो उसकी विशुद्धि के लिए नये-नये आन्दोलन प्रारम्भ है कि पुण्डवर्धनपुर (बोगरा, बंगाल) के निवासी आचार्य हो गये। भट्रारक युगीन संघ तो इस शिथिलाचार का अहंद्वली (लगभग वि. .सं 275) पांच वर्ष के अन्त में सौ बहुत अधिक शिकार हुआ। फलस्वरूप विभिन्न संघ- योजन में रहने मुनियों को एकत्र कर युगप्रतिक्रमण किया सम्प्रदाय बन गये। इन संघ सम्प्रदायों में मतभेद करते थे। एकबार इसी प्रकार प्रतिक्रमण के समय उन्होंने का विशेष आधार आचार-प्रक्रिया थी। विचारों में मुनियों से पूछा-'क्या सभी मुनि आ चुके ? मुनियों भेद अधिक नहीं आ पाया । वनों में निवास करने वाले से उत्तर मिला-हों, सभी मुनि आ चुके । अर्हद्वली ने मुनि नगर की ओर आने लगे, मन्दिरों और चैत्यों में उत्तर पाकर यह सोचा कि समय बदल रहा है। अब
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जैन धर्म का अस्तित्व गणपक्षपात के आधार पर ही रह में तथा हरिवंश कथाकोष में भी मिलता है। 'सेनगण' सकेगा, उदासीन भाव से नहीं। तब उन्होंने संघ अथवा नाम भी उत्तरकालीन ही प्रतीत होता है। यह दक्षिण गण स्थापित किये । गुहाओं से आनेवाले मुनियों को भारत के भट्टारकों में अधिक प्रचलित रहा है। 'नन्दि' और 'वीर' संज्ञा दी, अशोक वाटिका से आनेवालों को "देव" और "अपराजित" कहा, पञ्चस्तूप मूलसंघ के अन्तर्गत जो शाखाएँ प्रशाखाएं उपलब्ध से आनेवालों को" सेन या 'भद्र" नाम दिया, शाल्म- होती हैं, उन्हें हम निम्न प्रकार से विभाजित कर लिवृक्ष से आनेवालों को “गुणधर" या गुप्त बताया सकते हैं । तथा खण्डकेशर वृक्षों से आनेवालों को सिंह और चन्द्र कहकर पुकारा । इसी संदर्भ में इन्द्रनन्दि ने कुछ
1. अन्वय -कोण्डकुन्दान्वय, श्रीपुरान्वय, कित्त, . मतभेदों का भी उल्लेख किया है, जिससे पता चलता है
रान्वय, चन्द्रकवायन्वय, चित्रकूटान्वय
निगमान्वय आदि । कि इन्द्रनन्दि को भी संघभेद का स्पष्ट ज्ञान नहीं था । पर यह निश्चित है कि उस समय विशेषतः नन्दि । सेन ,
सन 2. बलि-इनसोगे या पनसोगे इंगलेश्वर एवं वाणद देव और सिंह गण ही प्रचलित थे । उन्होंने गोपु-
अलि आदि । च्छिक, श्वेताम्बर, द्रविड, यापनीय, और निपिच्छ को जैनाभास कहा है।
3. गच्छ-चित्रकूट, होत्तगे, तगरिक, होगरि, पारि
जात, मेषपाषाण, तित्रिणीक, सरस्वती, इनमें नन्दि संघ प्राचीनतम संघ प्रतीत होता है।
पुस्तक, वक्रगच्छ आदि । इस संघ की एक प्राकृत पट्टावली भी मिली है । ये कठोर तपस्वी हुआ करते थे । यापनीय और द्राविड़ 4. संघ-नावित्मूरसंघ, मयुरसंघ, किचूरसंघ, कोशलसंघ में भी नन्दिसंघ मिलता है। लगभग 14-15 वीं
नूर संघ, गनेश्वरसंघ, गौड़संघ, श्रीसंघ, शताब्दी में नन्दिसंघ और मूलसंघ एकार्थ वाची से हो
सिंहसंघ, परलूरसंघ आदि । गये । नन्दिसंघ का नाम “नन्दि" नामान्तधारी मुनियों से हुआ जान पड़ता है।
5. गण-बलात्कार, सूरस्थ, कालोन, उदार, योग
रिय, पुलागवृक्ष मूलगण, पंकुर, देवगण, सेनसंघ का नाम भी सेनान्त आचार्यों से हा
सेनागण, सूरस्थगण, क्राणूरगण आदि । होगा । जिनसेन एक संघ के प्रधान नायक कहे जा सकते हैं। उनके पूर्व संभव है उसे पञ्चस्तूपान्वय ये गण दक्षिण भारत में अधिक पाये जाते हैं, कहा जाता हो । जिनसेन ने अपने गुरू वीरसेन को उत्तर भारत में कम । उनमें प्रधानतः उल्लेखनीय हैंइसी अन्वय का लिखा है । इस अन्वय का उल्लेख कोण्डकुन्दान्वय, सरस्वतीपुस्तक गच्छ, सूरस्थगण, पहाड़पुर (बंगाल) के पाँचवी शताब्दी के शिलालेखों क्राणूरमण एव बलात्कारगण ।
34. श्रु तावतार, 96. 35. नीतिसार, 6-8; 36. चौधरी गुलाबचन्द्र-दिगम्बर जैन संघ के अतीत को झांकी,
आचार्य भिक्षु स्मृति ग्रन्थ, द्वितीय खण्ड, पृ. 295.
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कोण्ड कुन्दान्वय का ही रूपान्तर कुन्दकुन्दान्वय है, मूलसंघ के आचार्यों ने इतर संघों को जैनाभास जिसका सम्बन्ध स्पष्टतः आचार्य कुन्दकुन्द से है। यह कहा है। ऐसे संघों में उन्होंने द्राविड़ काष्ठा एवं यापअन्वय देशीगण के अन्तर्गत गिना जाता है। इसका नीय की गणना की है । जैनामास बताने का मूल (देशीगण) उद्भव लगभग 9वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में देश कारण यह था कि उनमें शिथिलाचार की प्रवृत्ति नामक ग्राम (पश्चिमघाट के उच्चभूमिभाग और गोदा अधिक आ चुकी थी । वे मन्दिर आदि का निर्माण वरी के बीच) में हुआ था। कर्नाटक प्रान्त में इस गण का कराते थे और तन्निमित्त दान स्वीकार करते थे। विशेष विकास 10-11 वीं शताब्दी तक हो गया था। पर यह ठीक नहीं । क्योंकि आशाधर जैसे विद्वान इसी
तथाकथित जैनाभाष संघों में से थे, जिन्होंने शिथिलामलसंघ के अन्य प्रसिद्ध गणों में सूरस्थगण, क्राणूर
न्य प्रसिद्ध गणा म सूरस्थगण, क्राणूर चार की कठोर निन्दा की है । गण और बलात्कारगण विशेष उल्लेखनीय हैं । सूरस्थ गण सौराष्ट्र धारवाड़ और बीजापुर जिले में लगभग द्राविड़ संघ 13 वीं शती तक अधिक लोकप्रिय रहा है। क्राणूरगण
द्राविड़ संघ का सम्बन्ध स्पष्टत: तमिल प्रदेश से का अस्तित्व 14 वी शती तक उपलब्ध होता है । इसकी
रहा है । ई० पूर्व चतुर्थ शताब्दी में वहाँ जैन धर्म तीन शाखाएं थीं। तन्मिणी गच्छ, मेषपाषण गच्छ और
पहुंच चुका था। सिंहल द्वीप में जो जैनधर्म पहुँचा पुस्तक गच्छ । बलात्कारगण के प्रभाव से ये शाखाएं
वह तमिल प्रदेश होकर ही गया । आचार्य देवसेन ने हतप्रभ हो गई थीं। इनके अनुयायी भट्टारक पद्मनन्दि
इस संघ की उत्पत्ति के विषय में लिखा है कि बज्रनन्दि को अपना प्रधान आचार्य मानते रहे है। पद्मनन्दी
ने वि सं. 526 में मथुरा में इस संघ की स्थापना की स्वभावत; आचार्य कुन्दकुन्द का द्वितीय नाम था । बला
थी। इस संघ की दृष्टि में वाणिज्य व्यवसाय से जीवित्कारगण का उद्भव बलगार ग्राम में हुआ था । यह .
- कार्जन करना और शीतल जल से स्नानादि करना कहा जाता है कि बलात्कारगण के उद्भाबक पद्मनन्दि
विहित माना गया है। तमिल प्रदेश में शैव सम्प्रदाय ने गिरनार पर पाषण से निर्मित सरस्वती को वाचाल
की प्रतिष्ठा बहुत अधिक थी। सप्तम शताब्दी में उसके कर दिया । इसलिए बलात्कारगण के अन्तर्गत ही
साथ अनेक संघर्ष भी हुए। इस संघ को अधिकाधिक एक सारस्वत गच्छ का उदय हुआ । इसका सर्वप्रथम
लोकप्रिय बनाने की दृष्टि से इसके यक्ष याक्षिणियों उल्लेख शक सं. 993-994 के शिलालेख में मिलता
की पूजा-प्रतिष्ठा आदि की भी स्वीकार कर लिया है। कर्नाटक प्रान्त में इस गण का विकास अधिक हआ
गया। पद्मावती की मान्यता यहीं से प्रारम्भ हई है पर इसकी शाखाएं कारंजा, मलयखेड, लातूर,
प्रतीत होती है। देहली, अजमेर, जयपुर, सूरत, ईडर, नागौर, सोनागिर आदि स्थानों पर भी स्थापित हई हैं। होयसल नरेशों के लेखों से पता चलता है कि वे भट्टारक पद्मनन्दी और सकलकीर्ति आदि जैसे कुशल इस संघ के संरक्षक रहे हैं। उन्हीं के लेख इस संघ के साहित्यकार इसी बलात्कारगण में हुए हैं । राजस्थान विषय में सामग्री से भरे हुए हैं । द्राविड़ संघ के साथ मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में इस बलात्कारगण ही इस संघ में कोण्डकुन्दान्वय, नन्दिसंघ, पुस्तकगच्छ का कार्यक्षेत्र अधिक रहा है। एक अन्य शाखा सेनगण और अगलान्वय को भी जोड़ दिया गया है। संभव की परम्पराऐं कोल्हापूर, जिनकांची (मद्रास). है अपने संघ को अधिकाधिक प्रभावशाली बनाने की पेनुगोण्ड (आन्ध्र) और कारंजा (विदर्भ) में उपलब्ध दृष्टि से यह कदम उठाया गया हो मैसूर होती हैं।
प्रचार प्रसार का केन्द्र रहा है ।
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द्राविड़ संघ में अनेक प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। उनमें वादिराज और माल्लिषेण विशेष उल्लेखनीय है । उनके ग्रन्थों में मंत्र तत्र के प्रयोग अधिक मिलते हैं। भट्टारक प्रथा का प्रचलन विशेषतः द्राविड संप से ही हुआ होगा ।
काष्ठ संघ
काष्ठासंघ की उत्पति मथुरा के समीपवर्ती काष्ठा ग्राम में हुई थी । दर्शनसार के अनुसार वि. सं. 753 में इसकी स्थापना विनयसेन के शिष्य कुमारसेन के द्वारा की गई थी। तदनानुसार मयूर पिक्ष के स्थान पर गोपिच्छ रखने की अनुमति दी गई वि.स 853 में रामसेन ने माथुर संघ की स्थापना कर गोपिच्छ रखने को भी अनावश्यक बताया है। बुलाकीचन्द के वचन कोश (वि.सं. 1737) में काष्ठा संघ की उत्पत्ति उमा स्वामी के शिष्य लोहाचार्य द्वारा निर्दिष्ट है।
"
काष्ठा संघ का प्राचीनतम उल्लेख श्रवणबेलगोला के वि. सं. 1119 के लेख में मिलता है । मुरेन्द्र कीर्ति (वि. सं. 1747 ) द्वारा लिखित पट्टावली के अनुसार लगभग 14 वीं शताब्दी तक इस संघ के प्रमुख चार अवान्तर भेद हो गये थे - माथुरमच्छ, बाग लाट वागडगच्छ एवं नन्दितगच्छ । बारहवीं शती तक के शिलालेखों में ये नन्दितगच्छ को छोड़कर शेष तीनों गच्छ स्वतन्त्र संघ के रूप में उल्लिखित हैं। उनका उदय क्रमशः मथुरा, बागड (पूर्व गुजरात) और लाट दक्षिण गुजरात ) देश में हुआ था। चतुर्थ गच्छ नन्दितट की उत्पत्ति नान्देड़ (महाराष्ट्र) में हुई दर्शनसार के अनुसार नान्देड़ महाराष्ट्र ही काष्ठा संघ का उद्भव स्थान है । संभव है इस समय तक उक्त चारों गच्छों
37. षड्दर्शन समुच्चय, पद्प्राभूतटीका, पृ. 7. 38. अमोघ वृत्ति 1-2-201-4.
को एकीकरण कर काष्ठासंघ नाम दे दिया गया हो इस संच में जयमेन महासेन आदि जैसे अनेक प्रसिद्ध आचार्य और ग्रन्थकार हुए हैं । अग्रवाल, खण्डेलबाल आदि उप जातियां इसी संघ के अन्तरगत निर्मित हुई है।
यापनीय संघ
दर्शनसार के अनुसार इस संघ की उत्पत्ति वि. सं. 205 में श्री कलश नामक श्वेताम्बर साधु ने की थी । संघभेद होने के बाद शायद यह प्रथम संघ था जिसने श्वेताम्बर और दिगम्बर, दोनों की मान्यताओं को एकाकार कर दोनों को मिलाने प्रयत्न किया था। इस संघ के आचार के अनुसार साधु नग्न रहता, मथुरपिन्छ धारण करता, पाणितलभोजी होता और नग्न मूर्ति की पूजन करता था । " पर विचार की दृष्टि से वे श्वेताम्बर सम्प्रदाय के समीप थे । तदनुसार वे स्त्रीमुक्ति, केवलीकवलाहार और सवस्त्रमुक्ति मानते थे उनमें आवश्यक सूत्र नियुक्ति, दशका लिक आदि श्वेताम्बरीष ग्रन्थों का भी अध्ययन होता
था । "
आचार विचार का यह संयोग यापनीय संघ की लोकप्रियता का कारण बना। इसलिए इसे राज्य संरक्षण भी पर्याप्त मिला । कदम्ब, चालुक्य, गंग राष्ट्रकूट, रट्ठ आदि वंशों के राजाओं ने यापनीय संघ को प्रभुत दानादि देकर उसका विकास किया था। इस संघ का अस्तित्व लगभग 15 वीं शताब्दी तक रहा है, यह शिलालेखों से प्रमाणित होता है । ये शिलालेख विशेषतः कर्नाटक प्रदेश में मिलते हैं । यही इसका प्रधान केन्द्र रहा होगा । बेलगांव, वीजापुर, धारवाड़ कोल्हापुर आदि स्थानों पर भी यापनीय संघ का प्रभाव देखा जाता है ।
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यापनीय संघ भी कालान्तर में अनेक शाखा प्रशा- दोनों शब्द श्वेताम्बर सम्प्रदाय में अधिक प्रचलित हए खाओं में विभक्त हो गया। उसकी सर्वप्रथम शाखा दिगम्बर सम्प्रदाय में उनका स्थान क्रमशः मूलसंघ और 'नन्दिगण, नाम से प्रसिद्ध है। कुछ अन्य गणों का भी द्राविड़ संघ ने ले लिया। बाद में तो मलसंघी भी . उल्लेख शिलालेखों में मिलाता है जैसे-कनकोपलसम्भू चैत्यवासी बनते दिखाई देने लगे। आचार्य गुणभद्र तवृक्षमूल गण, श्रीमूलगण, पुन्नागवृक्षमूलगण कौमुदीगण (नवीं शताब्दी) के समय साघुओं की प्रवृत्ति नगरवास मडुवगप वान्दियूरगण, कण्डरगण, बलहारीगण आदि की ओर अधिक झुकने लगी थी। इसका उन्होंने तीब्र ये नाम प्रायः वृक्षों के नामों पर रखे गये हैं । सम्भव है विरोध भी किया । इस संघ ने उन वृक्षों को किसी कारणवश महत्व दिया
मध्ययुग तक आते-आते जैनधर्म की आचार हो । लगता है, बाद में यापनीय संघ मूलसघ से सम्बद्ध
व्यवस्था में काफी परिवर्तन आ गया। साधु समाज में हो गया होगा। लगभग 11 वीं शताब्दी तक नन्दिसंघ
परिग्रह और उपभोग के साधनों की ओर खिचाव का उल्लेख द्रविडसंघ के अंतर्गत होता रहा और 12
अधिक दिखाई देने लगा । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में तो वीं शताब्दी से वह मूलसंघ के अंतर्भूत होता हुआ
यह प्रवृत्ति बहत पहले से ही प्रारम्भ हो गई थी। पर दिखता हैं।
दिगम्बर सम्प्रदाय भी अब वस्त्र की ओर आकर्षित यापनीय संघ के आचार्य साहित्य सर्जना में भी होने लगा । इसका प्रारम्भ वसन्तकीति (13 वीं अग्रणी थे। पाल्यकीर्ति का शकटायन व्याकरण, अपरा- शताब्दी) द्वारा मण्डपदुर्ग (मांडलगढ़, राजस्थान) में जित की मूलाराधना पर विजयोदया टीका और शिवार्य किया गया 140 भट्टारक प्रथा भी लगभग यहीं से प्रारम्भ की भगवती आराधना का विशेष उल्लेख यहाँ किया जा हो गई । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि वे दिगम्बर भट्टासमता है।
रक नग्न मुद्रा को पूज्य मानते थे और यथावसर उसे
धारण करते थे । स्नान को भी वे वर्जित नहीं मानते भट्टारक सम्प्रदाय
थे । पिच्छी के प्रकार और उपयोग में भी अन्तर आया उक्त संघों की आचार विचार परम्परा की समीक्षा
धीरे-धीरे ये साधू-मठाधीश होने लगे और अपनी पीठ करने पर यह स्पष्ट आभास होता है कि जैन संघ में
__ स्थापित करने लगे । उस पीठ की प्रचुर सम्पदा के भी समय और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन होता
वे उत्तराधिकारी होने लगे । इसके बावजूद उनमें
निर्वस्त्र रहने अथवा जीवन के अन्तिम समय नग्न रहा है। यह संघ मूलतः निष्परिग्रही और वनवासी
मुद्रा धारण करने की प्रथा थी । प्रसिद्ध विद्वान भट्टाथा, पर लगभग चौथी पाँचनी शताब्दी में कुछ साधु चैत्यों में भी आवास करने लगे। यह प्रवृत्ति श्वेताम्बर
रक कुमुदचन्द्र पालकी पर बैठते थे, छत्र लगाते थे. और दिगम्बर, दोनों परम्पराओं में लगभग एक साथ
और नग्न रहते थे।" पनपी । इस तरह नहाँ साधु सम्प्रदाय दो भागों में लगभग बारहवीं शती तक आते-आते भट्टारक विभक्त हो गया वनवासी और चैत्यवनी पर ये समुदाय का आचार मूलाचार से बहुत भिन्न हो गया।
39. आत्मानुशासन, 197. 40. भट्टारक सम्प्रदाय, विद्याधर जोहगपुर कर, आचार्य भिक्षु स्मृति ग्रन्थ, द्वितीय खण्ड प. 37. 41. जैन निबन्ध रत्नावली 405.
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आशाधर ने उनके आचार को म्लेच्छों के आचार के टन करते और वैद्यक यन्त्र, मन्त्र, गण्डा, ताबीज आदि समान बताया है । सोमदेव ने भी यशस्तिलक चम्पू में कुशल होते हैं। में इसका उल्लेख किया है । इबेताम्बर चैत्यवासियों में
ये श्रावकों को सुविहित साधुओं के पास जाते हुए भी इसी प्रकार का कुत्सित आचरण घर कर गया था,
रोकते हैं, शाप देने का भय दिखाते हैं, परस्पर विरोध जिसका उल्लेख हरिभद्र ने संबोध प्रकरण में किया है। उन्होंने लिखा है कि ये कुसाधु चैत्यों और मठों में रहते हैं. रखते हैं, और चेलों के लिए एक दूसरे से लड़ मरते हैं। पूजा करने का आरम्भ करते हैं, देव द्रव्य का उपभोग
जो लोग इन भ्रष्टचारियों को भी मुनि मानते करते हैं, जिन मन्दिर और शालाऐं चिनवाते है, रंग-बिरंगे
थे, उनको लक्ष्य करके हरिभद्र ने कहा है, "कुछ अज्ञानी सुगन्धित धूपवासित वस्त्र पहिनते हैं, बिना नाथ के बैलों
कहते हैं कि यह तीर्थकरों का वेष है. इसे भी नमस्कार के सदृश स्त्रियों के आगे गाते हैं, आयिकाओं द्वारा लाये
करना चाहिए । अहो ! धिक्कार हो इन्हें । मैं अपने गये पदार्थ खाते हैं और तरह तरह के उपकरण रखते
त शिर के शूल की पुकार किसके आगे जाकर करूं।" हैं । जल, फल, फूल आदि संचित्त द्रव्यों का उपभोग करते हैं. दो तीन बार भोजन करते और ताम्बूल दिगम्बर साधुओं में भी लगभग इसी प्रकार का लवंगादि भी खाते हैं।
आचरण प्रचलित हो गया था। महेन्द्रसूरि की शतपदी
(वि. स. 1263) इसका प्रमाण है। तदनुसार दिगम्बर ये मुहूर्त निकालते हैं, निमित्त बतलाते हैं, भभूत
मुनि नग्नत्व के प्रावरण के लिए योगपट्ट (रेशमी वस्त्र) भी देते है । ज्योनारों में मिष्ठाहार प्राप्त करते हैं,
आदि धारण करते थे। उत्तर काल में उसका स्थान आहार के लिए खुशामद करते है और पूछने पर भी
वस्त्र ने ले लिया। श्र तसगर की तत्वार्थसूत्र टीका में यह सत्य धर्म नहीं बतलाते ।
भी लिखा है कि शीतकाल में ये दिगम्बर मनि कम्बल स्वयं भ्रष्ट होते हए भी दूसरों से आलोचना प्रति- आदि भी ग्रहण कर लेते थे और शीतकाल के व्यतीत कमण कराते हैं । स्नान करते, तेल लगाते, श्रगार होने के उपरान्त वे उन्हें छोड़ देते थे। धीरे-धीरे ऋतु करते और इत्र फुलेल का उपयोग करते हैं । अपने काल का भी बन्धनत्व दूर हो गया और साधु यथेच्छ हीनाचारी मृतक गुरूओं की दाहभूमि पर स्तप बनवाते वस्त्र धारण करने लगे । साथ ही गद्दे, तकिये, पालकी हैं। स्त्रियों के समक्ष ध्याख्याम देते हैं और स्त्रियाँ छत्र, चंवर, मठ, सम्पत्ति आदि विलासी सामग्री का उनके गुणों के गीत गाती हैं।
भी परिग्रह बढ़ने लगा । ऐसे साधुओं को भट्टारक
अथवा चैत्यवासी कहा गया है । सारी रात सोते, क्रय-विक्रय करते और प्रवचन के बहाने बिकथायें किया करते हैं । चेला बनाने के उक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि मध्यकालीन जैन लिए छोटे-छोटे बच्चों को खरीदते, भोले लोगों को ठगाते संघ में यह शिथिलाचार सुरसा की भाँति बढ़ता चला और जिन प्रतिमाओं को भी बेचते खरीदते हैं । उच्चा- जा रहा था। विशुद्धतावादी आचार्यों ने उसकी घनघोर
42. अनागार धर्मामृत, 2,96. 43. जैन साहित्य और इतिहास-पृ. 489. 44. संबोध प्रकरण, 76: जैन साहित्य का इतिहास, पृ. 480-81.
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निन्दा की फिर भी उसका विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। मूर्तिकला और स्थापत्यकला को गहरा आघात दूसरा मूल कारण था कि समाज का मानसिक परिवर्तन पहुचा दिया था। उन्होने इन सभी साँस्कृतिक धरोबडी तीब्रता से होता चला जा रहा था। भट ट रकों हरों को अधिकाधिक परिमाण में नष्ट भ्रष्ट कर दिया का मुख्य कार्य मूर्तियों की प्रतिष्ठा, मन्दिरों का निर्माण था । ये अचेतन मतियाँ इस कार्य का कोई विरोध नहीं और उनकी व्यवस्था, यान्त्रिक, मान्त्रिक और तान्त्रिक कर सकी। प्रत्यत उन्होंने आपत्तियों को निमन्त्रित प्रतिपादन तथा यक्ष-यक्षणियों और देवी-देवताओं का किया । फलस्वरूप दिगम्बर सम्प्रदाय के ही व्यक्ति के भजन-पूजन हो गया । साधारण समाज में ये कार्य बड़े मन में Taara गई लोकप्रिय हो गये थे । अत: उपासकों में भट्टारक और उसने अपना नया पन्थ प्रारम्भ कर दिया। कालासमाज के प्रति श्रद्धा जाग्रत हो गई थी। भट्टारको न्तर में इस पन्थ के संस्थापक तारणतरण स्वामी के के कारण मूर्ति और स्थापत्य कला को अधिकाधिक
नाम से प्रसिद्ध हुआ । सन् 1515 में उनका स्वर्गवास प्रोत्साहन मिला । जैन ग्रन्थभण्डार स्थापित किये
मल्हारगढ़ (ग्वालियर) में हुआ । यही स्थान आज गये, साहित्य सृजन और संरक्षण की ओर अभिरुचि
नसिया जी कहलाता है, जो आज एक तीर्थ स्थान बन जाग्रत हई तथा जैनधर्म का प्रभावना-क्षेत्र बढ गया।
गया है । इस पन्थ का विशेष प्रचार मध्यप्रदेश में जैन संघ और सम्प्रदाय को भट्टारक सम्प्रदाय की यह
हुआ। इसके अनुयायी मूर्ति के स्थान पर शास्त्र की देन अविस्मरणीय है।
पूजा करते हैं । ये दिगम्बर सम्प्रदाय में मान्य सभी तेरहपन्थ और वीसपन्थ
ग्रन्थों को स्वीकार करते हैं । तारणतरण स्वामी ने
तारणतरण श्रावकाचार, पण्डितपूजा, मालारोहण, - भट्टारक सम्प्रदाय का उक्त आचार-विचार जैन
कमलबचीसी, उपदेशशुद्धसार, ज्ञानसमुच्यमार, अंमल धर्म के कुशल ज्ञाताओं के बीच आलोचना का विषय
पाहुड़, चौबीस ठाण, त्रिभङ्गीसार आदि 14 छोटे-मोटे बना रहा। कहा जाता है कि उसके विरोध में पण्डित
ग्रन्थों की रचना की हैं उनमें श्रावकाचार प्रमुख हैं। प्रवर बनारसी दास ने सत्रहवीं शताब्दी में आगरा में एक आन्दोलन चलाया। इसी आन्दोलन का नाम तेरह . श्वेताम्बर संघ और सम्प्रदाय पन्थ रखा गया। इसके नाम के विषय में कोई निविवाद सिद्धान्त नहीं है। इस तेरहपन्थ की दृष्टि में भट टा. .. जैसा हम पहले कह चुके हैं, श्वेताम्बर सम्प्रदाय रकों का आचार सम्यक नहीं । वह तो महावीर के की उत्पत्ति एक विकास का परिणाम है। कुछ समय द्वारा निर्दिष्ट मूलाचार को ही मूल सिद्धान्त स्वीकार तक श्वेताम्बर साधु वस्त्र को अपवाद के रूप में ही करता है। यह पन्थ समाज में काफी लोकप्रिय हो कटिवस्त्र धारण किया करते थे। पर बाद में लगभग गया। दूसरी ओर भट टारकों अथवा चैत्यवामियों आठवीं शती में उन्होंने उन्हें पूर्णतः स्वीकार कर लिया। के अनयायी अपने आप को वीसपन्थी कहने लगे । इस साधारणतः उनके पास ये चौदह उपकरण होते हैंपन्थ के अनुयायी प्रतिमाओं पर केसर लगाते तथा पाव, पात्रबन्ध, पात्रस्थापन, पात्रप्रमार्जनिका, पटलं, पंष्पमालायें और हरे फल आदि चढ़ाते हैं । तेरहपन्थ रजस्माण, गुच्छक, दो चादर, कम्बल (ऊनी वस्त्र), के अनुयायी इसके विरोधक है ।
रजोहरण, मुखवस्त्रिका, मात्रक और चोलक । महावीर
निर्वाण के लगभग 1000 वर्ष बाद देवधिगणि क्षमातारणपन्थ
श्रमण के नेतृत्व में श्वेताम्बर सम्प्रदाय ने अपने ग्रन्थों पन्द्रहवीं शताब्दी तक मुस्लिम आक्रमणों ने जंन का संकलन श्रुति परम्परा के आधार पर किया जिन्हें
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दिगम्बरों ने स्वीकार नहीं किया। इसका मूल कारण था
2. खरतरगच्छ-जैसा उपर कहा जा चुका है, कि वहाँ कतिपय प्रकरणों को काट-छाँट और तोड़- खरतरगच्छ की स्थापना में दुर्लभदेव का विशेष हाथ मरोड़कर उपस्थित किया गया था। श्वेताम्बर सघ में रहा है। उनके अतिरिक्त वर्धमानसरि के शिष्य जिनेनिम्नलिखित प्रधान सम्प्रदाय उत्पन्न हुए।
श्वरसरि ने चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ किया था । चैत्यवासी
३. तपागच्छ-वि. सं. 1285 में जगच्चन्द्रसरि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में वनवासी साधुओं के विप- की कठोर साधना को देखकर मेवाड़ के राजा ने उन्हें रीत लगभग चतुर्थ शताब्दो में एक चैत्यवासी साधु 'तपा' अभिधान दिया। तभी से उनका संघ तपागच्छ सम्प्रदाय खड़ा हो गया, जिसने वनों को छोड़कर चैत्यों के नाम से पुकारा जाने लगा। कालान्तर में उन्हीं के (मन्दिरों) में निवास करना और प्रन्थ संग्रह के लिए अन्यतम शिष्य विजयचन्द्रसरि ने शिथिलाचार को आवश्यक द्रव्य रखना विहित माना । इसी के पोषण में प्रोत्साहन दिया। उन्होंने यह स्थापित किया कि साधु उन्होंने निगम नामक शास्त्रों की रचना भी की। हरि- अनेक वस्त्र रख सकता है, उन्हें धो सकता है, घी, दूध भद्रसूरि ने इन चैत्यवासियों की ही निन्दा अपने संबोध शाक, फल आदि खा सकता है, साध्वी द्वारा अजित प्रकरण में की है। चैत्यवासियों ने 45 आगमों को भोजन ग्रहण कर सकता है । प्रमाणिक स्वीकार किया है । वि. सं. 802 में अणहिलपुर पठाण के राजा
४. पार्श्वनाथगच्छ - वि. सं. 1515 में तपागच्छ चावड़ा ने अपने चैत्यवासी गुरू शीलगणसरि की आज्ञा से पृथक् होकर आचार्य पार्वचन्द्र से इस गच्छ की से यह निर्देश दिया कि इस नगर में वनवासी साधओं स्थापना की। वे नियुक्ति, भाष्य, चुणि, और छेद का प्रवेश नहीं हो सकेगा। इससे पता चलता है कि ग्रन्थों को प्रमाण कोटि में नहीं रखते थे । लगभग आठवीं शताब्दी तक चैत्यवासी सम्प्रदाय का प्रभाव काफी बढ़ गया था। बाद में वि. सं. 1070 ५. सार्ध पौर्णमीयकगच्छ-आचार्य चन्द्रप्रभसरि में दुर्लभदेव की सभा में जिनेश्वरसरि और बुद्धिसागर में प्रचलित क्रियाकाण्ड का विरोधकर पौर्णमीयक सरि ने चैत्यवासी साधूओं से शास्त्रार्थ करके उक्त गच्छ की स्थापना की। वे महानिशीथ सत्र को प्रमाण निदेश को वापिस कराया। इसी उपलक्ष्य में राजा नहीं मानते थे । कुमारपाल के विरोध के कारण इस दुर्लभदेव ने वनवासियों को खरतर नाम दिया। इसी गच्छ का कोई विशेष विकास नहीं हो पाया। कालान्तर नाम पर खरतरगक्छ की स्थापना हुई।
में सुमतिसिंह ने इस गच्छ का उद्वार किया। इसलिए
इसे सार्ध पौर्णमीयकगच्छ कहा जाने लगा। श्वेताम्बर सम्प्रदाय कालान्तर में विविध गच्छों में विभक्त हो गया। उन गच्छों में प्रमुख गच्छ इस प्रकार हैं :
6. अचलगच्छ-उपाध्याय विजयसिंह (आर्य
रक्षितसूरि) ने मुखपट्टी के स्थान पर अंचल (वस्त्र का १. उपदेशगच्छ --पार्श्वनाथ का अनुयायी केशी छोर) के उपयोग करने की घोषणा की। इसीलिए इसका संस्थापक कहा जाता है ।
अंचलगच्छ कहा जाता हैं ।
45. विस्तार से देखें-जैन धर्म-कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ. 290-2.
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७. आगमिकगच्छ-इस गच्छ के संस्थापक शील- तेरापन्थ गुण और देवभद्र पहले पौर्णमेयक थे, बाद में आंचलिक
स्थानकवासी सम्प्रदाय में आचार-विचार की हुए और फिर आगमिक हो गये। वे क्षेत्रपाल की पूजा को अनुचित बताते थे। सोलहवीं शती में इसी गच्छ
शिथिलता बढ़ रही थी ।श्रावकों में उसकी प्रतिक्रिया के की एक शाखा 'कटुक' नाम से प्रसिद्ध हुई। इस शाखा
दर्शन हो रहे थे। उनका मानस भिक्षुओं के प्रति श्रद्धा
से विदूर हो रहा था। यह सब देखकर स्थानकवासी के अनुयायी केवल श्रावक ही थे। . .
सम्प्रदाय में दीक्षित आचार्य भिक्ष (जन्म वि. स. इन गच्छों की स्थापना छोटे-मोटे कारणों से हुई ।783, कन्टालिया--जोधपुर) ने वि. सं. 1817. चैत्रहै। प्रत्येक गच्छ की साधु-चर्या पृथक्-पृथक् है । इन शुक्ला 9 के दिन अपने पृथक् सम्प्रदाय की स्थापना गच्छों में आजकल खरतरगच्छ, तपागच्छ और आंच- का सूत्रपात किया। लगभग तीन माह बाद उन्होंने लिकगच्छ ही अस्त्तिव में हैं।
तेरापन्थ की दीक्षा स्वीकार की । इस अवसर
पर उनके साथ तेरह साधु थे और तेरह श्रावक । स्थानकवासी
इसी संख्या पर इस सम्प्रदाय का नाम "तेरापन्थ"
रख दिया गया । 'तेरा' शब्द से यह भी आशय निकस्थानकवासी सम्प्रदाय की उत्पत्ति चैत्यवासी
लता है कि हे भगवान ! यह तुम्हाराही मार्ग है जिस सम्प्रदाय के विरोध में हुई। पन्द्रहवीं शताब्दी में अहमदाबादवासी मुनि ज्ञानश्री के शिष्य लोकाशाह ने
पर हम चल रहे हैं। आगमिक ग्रन्थों के आधार पर यह प्रस्थापित किया कि स्थानकवासी सम्प्रदाय के समान तेरापन्थ भी मूर्ति पूजा और आचार-बिचार जो आज के समाज में बत्तीस आगमों को प्रामाणिक, मानता है। तद्नुसार प्रचलित है वह आगम विहित नहीं हैं। इसे लोकागच्छ प्रमुख मान्यतायें इस प्रकार हैंनाम दिया गया।
(1) षष्ठ या षष्ठोत्तर गुणस्थानवर्ती सुपात्र संयमी उत्तरकाल में सूरतवासी एक साधु ने लोकागच्छ को यथाविधि प्रदत दान ही पुण्य का मार्ग हैं। की आचार परम्परा में कुछ सुधार किया और ढं दिया सम्प्रदाय की स्थापना की । लोकागच्छ के सभी अनुयायी (2) जो आत्मशुद्धिपोषक दया है वह परमार्थिक है इस सम्प्रदाय के अनुयायी हो गये। इसके अनुसार और जिसमें साध्य और साधन शुद्धि नहीं है, वह मात्र अपना धार्मिक क्रियाकर्म मन्दिरों मे न कर स्थानकों लोकिक है.।। अथवा उपाश्रयों में करते हैं। इसलिए इस सम्प्रदाय
(3) मिथ्यादृष्टि के दान, शील, तप आदि अनको स्थानकवासी सम्प्रदाय कहा जाने लगा। इसे
वद्य अनुष्ठान मोक्ष प्राप्ति के ही हेतु हैं और निर्जरा साधुमार्गी भी कहते हैं । यह सम्प्रदाय ीर्थयात्रा
धर्म के अन्तर्गत हैं। में भी विशेष श्रद्धा नहीं रखता। इसके साधु श्वेतवस्त्र पहनते और मुखपट्टी बांधते हैं। अठारहवीं शती में इस सम्प्रदाय में एक ही आचार्य होता है और सल्यविजय पंयास ने साधुओं को श्वेतवस्त्र के स्थान पर उसी का निर्णय अन्तिम रूप से मान्य होता है। इससे पीत वस्त्र पहिनने का विधान किया, पर आज यह संघ में फट नही हो पाती। अभी तक तेरापन्थ के आचार में दिखाई नहीं देता । भट्टारक प्रथा भी इसी आठ आचार्य हो चुके हैं-भिक्षु (भीखम), भारमल, समय प्रारम्भ हुई।
- . रामचन्द्र, जीतमल, मछवागणी, माणकगणी, डालगणी,
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और कालूगणी। इसी श्रखला में आचार्य तुलसी जी अधिक बन जाती हैं । विकास में बाधक होती हैं रुढ़िया नवम् आचार्य हैं।
जो तेरापन्थ में यथा समय भग्न होती चली जाती हैं।
आचार-विचार की दिशा में भी यह पन्थ आगे हैं। तेरापन्थ की संघ व्यवस्था विशेष प्रशंसनीय है। उदाहरणतः (1) साधु के भोजन, वस्त्र, पुस्तक आदि इस प्रकार महावीर के निर्वाण के बाद जैन संघ जैसी आवश्यकताओं की पूर्ति का सामुदायिक उत्तर- और सम्प्रदाय अनेक शाखा-प्रशाखाओं में विभक्त हो दायित्व संघ पर है। (2) प्रति वर्ष साधु-साध्वियाँ गया। पर उनका आचार-विचार जैन धर्म के मूल रूप आचार्य के सान्निध्य में एकत्रित होकर अपने-अपने कायों से बहुत दूर नहीं रहा। इसलिए उनमें बह-हास नहीं का विवरणं प्रस्तुत करते हैं और आगामी वर्ष का आया जो बौद्धधर्म में आ गया था। जैन संघ की यह कार्यक्रम तैयार करते हैं। इसे मर्यादा महोत्सव कहा विशेषता जनेतर संघों की दष्टि से निःसदेह महत्वजाता है । (3) संघ में दीक्षित करने का अधिकार मात्र पूर्ण है । आचार्य को है, अन्य किसी को नहीं ।
इस व्यवस्था से संघ का एक ओर जहाँ सामुदायिक विकास होता है वहाँ वैयक्तिक विकास की भी संभावनाएँ
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भगवान महावीर का अपरिग्रह
संग्रह -
एक दार्शनिक विवेचन
- एक चिरंतन प्रवृत्ति -
अनादि काल से मनुष्य संचय एवं संग्रह की ओर आकर्षित होता चला आ रहा है । केवल आकर्षण ही नहीं अपितु विविध प्रकार के संग्रहों में इस मानव ने स्वयं को इतना संलग्न कर रखा कि वह अपने उदात्त अस्तित्व को भूला एवं अपनी आध्यात्मिक चेतना को भी विस्मत कर बैठा इस संदर्भ
उसने गुरुओं से बहुत कुछ सुना सांसारिक परिवर्तनों ने उसे अनेक बार झकझोरा, स्वानुभूति के आलोक में उसने अपनी कमजोरियों को विविध रूपों में परखा अपने साथी के सम्पर्क में आकर अपनी भूलों को भी पहचाना तथा धार्मिकता एवं सामाजिकता के आदान-प्रदान में वनादि की संग्राहक अनुभूति की निस्सारता को अनुभूत किया, फिर भी वह अपनी ललक लालसा की उपेक्षा
न कर सका। अपने खुले नेत्रों से इसी मानव ने धनवान् की प्रतिष्ठा देखी, दीन-हीन का अनादर देखा और श्रीमान के अत्याचारों से प्रपीड़ित कराहती हुई मानवता निन्दा करने वाले उन विद्वानों को जब इस इन्सान ने को एक बार नहीं अनेक बार देखा । धन-वैभवादि की धनवानों के प्रशस्ति गान में सलग्न पाया तो उसका अपरिग्रहवादी उन्मेष बालुका- निर्मित मित्ति की भांति शीघ्र बिखर गया । तथ्य तो यह है कि साँसारिक जीवन यापन में घनादि की आवश्यकता अनिवार्य है फिर भी इनके प्रति अमर्यादित गृध्रता अक्षम्य है ।
1. यस्यातिवित्तं स नरः कुलीनः स पंडितः स श्रुतबान्गुणज्ञः ।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति ।
भर्तरि जैसे अनुभवी मनीषी का यह कथन कि सभी गुण सुवर्ण ( धनादि) में रहते है सार्वभौमिक सत्य की परिधि में नहीं माना जा सकता है,' धन-संग्रह की यह एकदेशीय उपयोगिता कही जायगी ।
प्रो० श्रीचन्द्र जैन
सभी गुण सुवर्ण में निवास करते हैं। (क्योंकि) जिसके पास धन है बही आदमी आदमी अच्छे कुल का है, वही विद्वान, वही शास्त्रज्ञ और गुणों का पारखी है, वही भाषण देने में कुशल है और उसी का दर्शन करना चाहिए। (भर्तृहरि कृत शतकत्रयम्, अनुवादक श्रीकांत खरे, नीति शतकम्, पृष्ठ 34 )
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परिप्रह-एक मानसिक संघर्ष
एकत्रित करता हआ व्यभिचारी तक बन जाता है। शंतान की एक अनुकृति है, परिग्रह पशता है, गंभीरता से विचार करते पर यह सत्य हमें प्रभावित उलझन है, संग्राम है, शोषण है. अनर्थ है, संकीर्णता है, करता है कि अपरिग्रही ही सच्चा जैन बनता है । कालिमा है, विष है, मदिरालय है और माया का मानव कहलाता है और सद्गुणी बनकर विश्व की जघन्यरूप है।
धरती पर सम्मानित होता है। सन्तोष की उपलब्धि
का अर्थ है कि मानव के मानस में संचय की भावना परिग्रही का आचरण इतना हेय होता है कि सर्व- नहीं है। साधारण में भी उसकी प्रतिष्ठा कलंकित हो जाती है और उसका आचरणजन्य घेराव उसकी आत्मिक
भगवान महावीर का कथन हैशक्ति को कुठित कर देता। फलतः उसका मानसिक
संगनिमित्ति मारइ, भणइ अत्नी करेइ चोरिक्कं । तनाव इतना असंतुलित हो जाता है कि नह स्व पर सेबइ मेहण मच्छं, अप्परिमाण कणइ जीवो ॥ का विभेद भी भूल उठता है । उलझनों से लिपटा हुआ उसका चिन्तन संकीर्ण होकर अनेक अनर्थों को जन्म जीव परिग्रह के निमित्त हिंसा करता है, असत्य देता है और पाप कालिमा से कलुषित उसकी जीवन बोलता, चोरी करता है। मैथुन का सेवन करता है सरिता कुठित धूमिल हो जाती है। परिग्रही की धन और अत्यधिक मूर्छा करता है। (इस प्रकार परिग्रह लिप्सा पशुता का ही दूसरा रूप है, जिसमें न करुणा है पाँचों पापों की जड़ है।)
और न उदारता । भोगों के जाल में आबद्ध ऐसा संग्राहक विषय बासना की कल्पित पूर्ति में ही अपने लक्ष्य की
राग द्वेष की अग्नि को प्रज्वलित करने वाला यह समाप्ति मान लेता हैं जो उसके पतन का प्रारम्भिक
परिग्रह ही है जिसने यत्र-तत्र सर्वत्र विभीषिका के अशोभएवं चरम रूप दोनों ही हैं।
नीय दृश्यों को अधमाधम धरातल पर प्रदर्शित किया है।
कविवर स्व. दुष्यंतकुमार की ये पंक्तियां समाज के रक्तसम्पूर्ण प्रन्थियों का आगार यह अनावश्यक रंजित इतिहास के काले पन्नों को हमारे आगे विचारार्थ संग्रह यद्यपि कांचन-आकर्षण अवश्य है लेकिन इसकी रख रही हैं । इनमें दर्द है, वेदना है दीन की चीत्कार चरमोवलब्धि घृणित मृत्यु मानी गई है।
है और शोषण का आर्तनाद है:सब पापों का मूल परिग्रह
कैसे मंजर सामने आने लगे हैं, विश्व में जितने अनर्थ पाप दुष्कर्म होते हैं उनका एक
___ गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं ।
अब नयी तहबीज के पेशे नजर हम, मात्र कारण परिग्रह है। इसी धन धान्यादि के अनावश्यक संग्रह संचय ने इस पुष्प भूमि को नरकीय रूप में परि
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं। वर्तित कर दिया है । आज नहीं अपितु एक बड़े समय से इंसान अर्थ लोलुपता के कारण अपना सब कुछ भूल
मूर्छा ही परिग्रह है चुका है। छोटे-बड़े संघर्ष इसीलिए हो रहे हैं, कि मनुष्य लालसा, ललक, आकांक्षा, उन्माद, माया, लोलुअपनी लालसा बढ़ाता जा रहा है और बढ़ती हुई उसकी पता आदि को मूर्छा कहा गया है । इसीलिए एक कामना जब अपूर्ण रह जाती है तब वह हिंसा करता है अर्द्धनग्न बनवासी अपरिग्रही नहीं है क्योंकि उसके मानस मिथ्या बोलता कुकर्म करता, चोरी करके धनादि को में धनादि के संग्रह की कामना भावना निरन्तर जीवित
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रहती है जो अपूर्ण होने के कारण उसकी विह्वलता जब तक मनूज-मनुज का यह, . को दहकाती है । इसके विपरीत एक नृपति जो विशाल
सुख भोग नहीं कम होगा ।। वैभव का स्वामी है । जो राज्यश्री से असंप्रक्त है उसे ___ शांत न होगा कोलाहल, अपरिग्रही कहा गया है। इस संबंध में अनेक धार्मिक
संघर्ष नहीं कम होगा । कथाओं को प्रस्तुत किया जा सकता है। मोक्ष शास्त्र
परिग्रह के भेद : के सप्तम अध्याय में वर्णित है-.
. परिग्रह दो प्रकार का है-आभ्यांतर और बाह्य मूर्छा परिग्रहः ।।17।
आभ्यांतर परिग्रह चौदह प्रकार का है: 1. मिथ्यात्व,
2. स्त्रीवेद, 3. पुरुषवेद, 4. नपुसकवेद, 5. हास्य, मूर्छा को परिग्रह कहते हैं । मूर्छा का अर्थ है --
6. रति, 7. अरति, 8. शोक, 9. भय, 10. बाह्य धन, धान्यादि तथा अन्तरंग क्रोधादि कषायों
जुगुप्सा, 11. क्रोध, 12. मान, 14. माया, 14. में वे मेरे हैं ऐसा भाव रहना ।
लोभ । . चार संज्ञाओं में परिग्रह संज्ञा को भी परिगणित
___बाह्य परिग्रह. दस प्रकार का है :करके तत्वार्थ सार में बताया गया है कि अंतरंग में
1. खेत, 2. मकान, 3. धन-धान्य, 4. वस्त्र, 5. लोभ कषाय की उदारणता होने से तथा बहिरंग में
भाण्ड, 6. दास-दासी, 7. पशू, 8. यान, 9. शय्या, उपकरणों के देखने, परिग्रह की ओर उपयोग जाने तथा
10. आसन । (दृष्टव्य-समण सुत्त, पृष्ठ 47) . मुभिाव-ममता भाव के होने से जो इच्छा होती है उसे परिग्रह संज्ञा कहते है । यह संज्ञा दशम गुणस्थान आन्तरिक शुद्धि और बाह्य शुद्धि के लिए दोनों तक होती है। (देखिए श्रीमदमृतचन्द सूरि कृत तत्वार्थ प्रकार के परिग्रह का क्रम से परित्याग आवश्यक है। सार, सम्पादक-पंडित पन्नालाल साहित्याचार्य, पृ. 46) लेकिन आभ्यांतर परिग्रह के त्याग से वाह्य आडम्बर
(परिग्रह) के प्रति अनुरक्ति स्वतः नष्ट हो जाती है। परिग्रह का संचय न होकर यदि इसका आवश्यकता:
मानसिक परिशुद्धि, आत्मोत्थान के लिए सर्वदा नुसार वितरण होता रहे तो संसार की विषमता शीघ्र
वान्छित कही गई है। समाप्त होगी और संघर्षों में खनखनाते हुए तड़तड़ाते हुए अस्त्र-शस्त्रों का प्रलाप समाप्त हो जावेगा। अन्यथा अविनश्वर विश्रान्ति के हेतु इन्द्रियनिग्रह प्रमुख यह विरोध कभी न समाप्त होगा और सदा भवातुरता साधन है तथा एतदर्थ परित्याग सर्वप्रधान है। कहा व्याप्त रहेगी। कविवर दिनकर की ये चार पंक्तियाँ गया है कि सम्पूर्ण ग्रन्थ (परिग्रह) से मुक्त, शीतीभत परिग्रह से आतंकित बेचैनी को उघाड़ती हैं उजागर प्रसन्न चित्त श्रमण जैसा मुक्तिसूख पाता है, वैसा सूख करती हैं :
चक्रवर्ती को भी नहीं मिलता। .
2. तत्वार्थसार में भी इसी तथ्य.को इस प्रकार प्रमाणित किया गया है:- ममेदमिति संकल्प रूपा मूर्छा परिग्रहः ॥ 77 ।'
-'यह मेरा है इस प्रकार के संकल्प रूप मूर्छा को परिग्रह कहते हैं ।
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जैसे हाथी को वश में रखने के लिए अंकूश होता अधोगति में ले जानेवाले हैं, इससे इन तीनों को त्याग है, और नगर की रक्षा के लिए खाई होती है वैसे ही देना चाहिए। इन्द्रिय-निवारण के लिए परिगृह का त्याग (कहा
माया के विविध रूपों को वणित करके संत कवि गया) है। असंगत्व (परिग्रह-त्याग) से इन्द्रियाँ वश में
कबीर ने इसे पापणी कहा है। ..... होती हैं । (समण सुत्त पृष्ठ 47)
माया तजु तजी नहिं जाई । माया का त्याग---संतोष से अनुराग
फिरि फिरि माया मोहि लपटाई ।।
माया . आदर माया मान । परिगृह-त्याग का वास्तविक अर्थ है माया से माया नहीं तहं ब्रह्म गियान । विराग । यही माया है जिसने ब्रह्माण्ड की शान्ति को
माया रस माया कर जांन । कुठित कर दिया है, पंगु बना दिया हैं और अहर्निश माया कारनि तजै परांन । इस विश्रान्ति के आंगन में प्रस्फुटित कोमल अंकुरों माया माता माया पिता । को यही विधातिनी तोड़ रही है । यही लोभ
अति माया अस्तरी सुता ॥ आसक्ति समत्व की विरोधिनी हैं, समता को नाशिनी
माया मारि करै व्यौहार । है, नरक का द्वार है। संसार के समस्त संतों ने इसी- कहै 'कबीर' मेरे राम अधार । लिए माया का तिरस्कार किया है।
कबीर माया पापणी, हरि सू करै हराम । श्रीमद्भगवदगीता में (अध्याय 16) कहा गया है- मुखि कड़ियाली कुमति की कहण न देई राम । त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
— (कबीर ग्रन्थावली) कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ।।
आशारूपी नदी की जननी यही माया है और हे अर्जुन ! काम, क्रोध तथा लोभ ये तीन प्रकार इसे जिस महानानव ने 'संतोष' के माध्यम से जीता हैके द्वार आत्मा का नाश करनेवाले हैं । अर्थात पार किया है-वही धन्य है।' आत्म संतुष्टि का नाम
-
3.
मोह से महान ऊंचे परबत सों डर आई,
तिहूँ जगमूतल को पाय बिस्तरी है। विबिध मनोरथ में भूरि जल भरी वहै,
तिसना तरंगिनसों आकुलता धरी है। परै भ्रम भौंर जहां राग सो मगर तहाँ,
चिंता चित तट हुंग धर्म बृक्ष ढाय परी है। ऐसी यह आशा नाम नदी है अगाध, ताको धन्य साधु धीरज जहाज चढ़ि तरी है
(जैन शतक छंद 76)
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हो संतोष है । इससे निर्लोभ की भावना बलवती होती पत्रिका के अनेक पद इस सदर्भ में पठनीय है । कामहै, दया की वृद्धि होती है, और उदारता में सत्य का नाओं को त्याग करनेवाला संतोषी ही है जिसे अपरि अनुभव होने लगता है। यही सन्तोष अनन्त कामना ग्रही भी कहा गया है। भगवान महावीर ने कहा हैको समाप्त करता है और आत्मा में ही विराट विश्व
कामे कमा ही कमियं खु-दुक्खं ।' की कल्पना को साकार बनाता है। सन्तोष ही परम सुख है। अत: परिग्रह के परित्याग में इसी गुण
जो कामनाओं को त्याग देता है वह समस्त दु:खों (सन्तोष) का विशेष महत्व है । आशा तृष्णा को से छुटकारा पा लेता है । क्योंकि :निर्मूल करनेवाला सन्तोष ही है जो आत्म चिंतन को सफल बनाकर नर को नारायणत्व प्रदान करता
इच्छा ह आगास समा अणंतिया । उत्त० है। कविवर बनारसीदास का निम्नस्थ पद यहाँ उल्लेख्य
इच्छाएँ (कामनाएँ) आकाश के समान अनंत हैं,
एवं इनकी पूर्ति असंभव है । एक ही पूर्ति दूसरी रे मन, कर सदा संतोष,
(कामना) को जन्म देती है। जात मिटत सब दुःख दोष ।
एक संत कवि का यह दोहा सन्तोष की व्याख्या रे मन कर सदा सन्तोष ।
में पर्याप्त है :बढ़त परिग्रह मोह बाढ़त, अधिक तिसना होति ।
गोधन, गजधन, रत्नधन, कंचन खान सुखान । बहत ईधन जरत जैसे, अगिनि ऊँची जोति, रे मन, कर सदा संतोष ।
जब आवे संतोष धन, सब धन धूल समान ।। लोभ लालच मूढ जन सो कहत कंचन दान । गोस्वामी तुलसीदास संतोष की महिमा अंकित फिरत आरत नहिं बिचारत, धरम धन की हान। करते हुए कहते हैंरे मन कर सदा संतोष,
संतोष के बिना कोई भी आत्मिक शान्ति प्राप्त नहीं नारकिन के पादसेवत सकुच मानत संक। कर सकता। ज्ञान करि बूझै 'बनारमि' को नृपति को रक ।
सोरठारे मन, कर सदा सतोष । आध्यात्म-पदावली, पृष्ठ 105।।
कोउ विश्राम कि पाव, तात सहज संतोष बिनु ।
चले कि जल बिनु नाव, कोटि जतन पचि पचि मग्मि। स्व-पर-भेद का प्रकाशक संतोष है जिसने-संतोष
(दोहावली 275) ने-मायाजनित विकारों को नष्ट किया एवं मन के समस्त दोषों का परिमार्जन कर उसे (मन को) शुद्ध स्वभाविक संतोष के बिना क्या कोई शांति पा चितन में लगाया है । गोस्वामी तुलसीदास द्वारा विनय सकता है ? चाहे करोड़ों प्रकार से जतन करते-करते
4.
माया मरी न मन मरा, मर मर गया शरीर । आशा तृसिना ना मरी, सो कह गए दास कबीर ।
-संत कबीर
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मर जाय, जल के बिना सूखी जमीन पर क्या कभी परहित-निरत निरन्तर, मन क्रम वचन नेम निवहौंगो नाव चल सकती है ?
परिहरि देह जनित चिंता, दुखसुख समबुद्धि सहौंगो
तुलसीदास प्रभु यह पथि रहि, अविचल हरिभक्ति लहोंगो 'जैन धर्मामत' में कहा गया है कि जिस पुरुष को संतोष रूपी आभूषण प्राप्त है उसके समीप में सदा
(विनय पत्रिका पद 172) निधियाँ विद्यमान रहती हैं, कामधेनु अनुगामिनी बन जाती है और अमर किंकर बन जाते हैं :
स्वहित एवं राष्ट्र-हित में परिग्रह-मर्यादा आव
श्यक हैं। सन्निधौ निधयस्तस्य कामगव्यनुगामिनी । अमराः किङ्करायन्ते संतोषो यस्य भूषणम् ।
परिग्रह-परिधि के लिए हमें सदा सजग रहना (चतुर्थ अध्याय, पृष्ठ 135) चाहिए । यह सर्वमान्य है कि जैन श्रावक--गृहस्थ के
के लिए धन-धान्यादि की आवश्यकता निरन्तर रहती प्राणी की तप्ति होना असंभव सा है' जैसे ईधन है। फिर भी उनका परिमाण निश्चित होना जरूरी है। से अग्नि की, और हजारों नदियों से लवण समुद्र की दिगम्बर मनि-साधक के लिए तो पूर्णरूपेण अपरिग्रही तप्ति नहीं होती, वैसे ही तीन लोक की सम्पत्ति प्राप्त होना परमावश्यक है। हो जाने पर भी जीव की तृप्ति नहीं होती । यह असाध्य रोग संतोष से ही साध्य बनता है और शनैः
उसे परिग्रह त्याग महाव्रती होना, जरूरी हैशनैःनिर्मूल हो जाता है।
अन्यथा उसका स्वरूप ही कलंकित हो जायगा। वाह्य
परिग्रह का दिगम्बर साधु त्यागी रहता ही है और भगवान महावीर ने कहा है कि कामना और भय से अतीत हीकर यथालाभ संतुष्ट रहनेवाले
साथ ही साथ आभ्यांतर परिग्रह के परित्याग में वह मेधावी पाप नहीं करते :
सदैव संलग्न माना गया है । जैन मुनि की इस साधना
में न अतिचार आना चाहिए और न अनाचार । लेकिन मेहाविणो लोम भयावईया संतोषिणो व पकरेंति पावं। जैन श्रावक के लिए परिग्रह परिणाम ब्रत का विशेष संतप्रवर गोस्वामी तुलसीदास ने भी इसी संतोष
महत्व है । कहा भी है :वृति की कामना की है :
धन-धान्य आदि वाह्य दस प्रकार के परिग्रह का कबहुक हौं यहि रहनि रहौंगे ।
परिमाण करके उससे अधिक वस्तुओ में निस्पृहता श्री रघुनाथ-कृपालु-कृपा ते संत-सुभाव गहौंगो। रखना सो इच्छा परिमाण नामका पांचवा परिग्रह जथा लाम संतोष सदा, काहू सों कछु न चहौंगो। परिमाण वृत है।
5. चेतनेतर बाह्यान्तरग विवर्जनए ।
ज्ञान संयमसंगो वा निममत्वमसगता। (जन धर्नामृत पचम अध्याय) चेतन और अचेतन तथा वाह्य और अंतरंग सर्व प्रकार के परिग्रह को छोड़ देना और निर्गमत्व भाव को अंगीकार करना अथवा ज्ञान और संयम का ही संगम करना सो असंगता नामक परिग्रह त्याग महाबत जानना चाहिए।
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धन्य-धान्यादि ग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निस्प्रहता । परिमित परिग्रहः स्यादिच्छा परिमाण नामापि । (जैन धर्मामृत चतुर्थ अध्याय)
इसी प्रकार प्रत्येक श्रावक को यह जानना चाहिए कि संसार के मूल कारण आरम्भ हैं, और इन आरम्भों का मूल कारण परिग्रह है. इसलिए श्रावक को चाहिए कि वह अपने परिग्रह को दिन प्रतिदिन कम करता जात्रे ।
ससार मूलमारंभास्तेषां हेतुः परिग्रहः । तस्मादुपासकः कुर्यादल्पमल्यं परिग्रहम् ॥
जैन धर्म विश्वधर्म है और इसका प्रत्येक सिद्धांत जन-जन का हितकारी है, कल्याण कारी है मंगलकारी है । हरएक जैन साधक देव पूजा में लोक कल्याण की कामना करता है ।" तथा मानव समाज में कल्पित भेदभाव को भूल कर प्राणी मात्र के हित में अपने जीवन को समर्पित करने का संकल्प करता है । ऐसी स्थिति
6.
( जैन धर्मामृत, चतुर्थ अध्याय, 72)
में दूसरों को पीड़ित कर अन्य के देय को हड़पकर दीन की कुटिया को नष्ट कर एवं जनता की हरी-भरी कामना को मिटाकर अपना महल बनाना, गुप्त गृहों को धन-धान्यादि से भरना, अपने परिवार के सदस्यों को सोने-चांदी के आभूषणों से अलंकृत करना तथा रेशमी गद्दों पर लेटकर अपनी थकान मिटाना कहाँ तक उचित ? लोक कल्याण में संलग्न हमारी माननीया प्रधान मंत्री के बीस सूत्रीय आर्थिक कार्यक्रम की पूर्ण सफलता भगवान महावीर के परिग्रह में ही सन्निहित है । प्रत्येक भारतीय को इस पर विचार करना चाहिएबाँके खाइए, बैकुठ जाइए - यह एक ग्रामीण कहावत है, जिनमें जन कल्याण की भावना मुखरित हुई है । एक दूसरी कहावत है जिसका भाव है कि जो दूसरों के हाथ से छीनकर खाता है, वह नरकगामी होता है । इसलिए हमें कामनाओं को कम करके दूसरों के दुख दर्दों की चिन्ता करनी चाहिए, अन्यथा मनुष्य एवं पशु में क्या भेद है ?
परिग्रह परिमाण पाँच अणुव्रतों में अंतिम है और चार व्रतों का संरक्षण करना एवं बढ़ाना इसके अधीन
(क) होवे सारी प्रजा को सुख बलयुत धर्म धारी नरेशा । होवै वर्षा समं पं तिलभर न रहै ब्याधियों का अन्देशा | होबे चोरी न जारी सुसमय वरते हों न दुस्काल भारी । सारे ही देश धारें जिनवर वृषको जो सदा सौख्यकारी । (शांतिपाठ )
(ख) सत्त्वेषुमैत्री गुणीषु प्रमोदं ।
क्लिष्टेषु जोबेषु कृपादरत्वं ।
माध्यस्थ भाव बिपरीतवृत्तौ ।
सदा ममात्मा विदधातु देव ॥ (सामयिक पाठ)
(ग) मंत्री भाव जगत में मेरा, सव जीवों से नित्य रहे ।
दीन दुखी जीवों पर मेरे उर से दुर्जन-क्रूर कुमार्ग रतों पर, क्षोभ साम्य भाव रक्ख मैं उन पर ऐसी
(घ) परस्परोपग्रहो जीवानाम् । ( जैन धर्म का प्रमुख सिद्धांत -- तत्त्वार्थ सूत्र )
करुणा स्रोत वहै ।
नहीं मुझको आबे ।
परिणति हो जाबे । (मेरी भावना)
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है, परिग्रह को घटाने में हिंसा, असत्य, अस्तेय, कुछ क्षणों के लिए अवश्य कभी-कभी मानव चेतना को कुशील, इन चारों पर रोक लगती है । इस ब्रत के सजग बनाता है लेकिन यह सजगता निरर्थक ही रहती परिणामस्वरूप जीवन में शान्ति और सन्तोष प्रकट है। वस्तुतः यह कितनी बड़ी म ढ़ता है कि संचय होने से सूख की वृद्धि होती है । निश्चिन्ता और सग्रह के दुष्परिणामों को हम नित्य प्रति देख रहे हैं निराकुलता आती है। ऐसी स्थिति होने से धर्म क्रिया फिर भी पशु के समान पारस्परिक विद्वेष बढ़ाकर की ओर मनुष्य का चित्त अधिकाधिक आकर्षित होता संग्रह में हम लीन हैं । है । इस ब्रत के ये वैयक्तिक लाभ हैं । किन्तु सामाजिक दृष्टि से भी यह ब्रत अत्यन्त उपयोगी है । आज जो
यदि हम मानव हैं, अमीर-गरीब की खाई को आर्थिक वैषम्य दृष्टिगोचर होता है, इस ब्रत का पालन पाटना चाहत ह, दान-हान
पाटना चाहते हैं, दीन-हीन के भेद को मिटाना चाहते न करने का ही परिणाम है। आथिक वैषम्य इस युग हैं तो हमें अपरिग्रह को शीघ्र अपना लेना चाहिए, की एक बहुत बड़ी समस्या है आज कुछ लोग अन्यथा परिणाम बड़े दुखद होंगे। समाजवाद के प्रति यंत्रों की सहायता से प्रचर धन एकत्र कर लेते हैं तो भारतीय जनता विशेषतः आकर्षित है, यह आकर्षण दूसरे लोग धनाभाव के कारण अपने जीवन की अनि- सर्वथा उचित है, यह वाद शोषण से मुक्ति दिलाता है, वार्य आवश्यकताओं की पूर्ति करने से भी वंचित रहते सबको भरपेट रोटी देता है अत्याचारों एवं अनाचारों हैं। उन्हें पेट भर रोटी, तन ढकने को वस्त्र और से प्रपीड़ित जन को सुख की सांसे लेने का पूरा अवसर
औषधि जैसी चीजें भी उपलब्ध नहीं। इस स्थिति का देता है और समानता की भावना को निरंतर मूर्त रूप सामना करने के लिए अनेक वादों का जन्म हुआ है। देता रहता है। इसके (समाजवाद) अन्तर्गत सब को समाजवाद, साम्यवाद, सर्वोदयवाद आदि इसी के समान अधिकार प्राप्त होते हैं सब अपनी योग्यतानफल हैं। प्राचीन काल में परिग्रह वाद के द्वारा इस सार कार्य करने के लिए साधन सम्पन्न कराये जाते हैं समस्या का समाधान किया जाता था। .... . अतएव तथा आर्थिक दृष्टि से सब में एकरूपता लाने का सफल अगर परिग्रह ब्रत का व्यापक रूप में प्रचार और
प्रयास किया जाता है वस्तुत: यह वाद भारत के लिए अंगीकार हो तो न अर्थ-वैषम्य की समस्या विकराल वरदान के रूप में वरेण्य है। रूप धारण करे और न वर्ग-संघर्ष का अवसर उपस्थित हो।'
ऐसे तो अपरिग्रह सभी धर्मों का आधार है । अप
रिग्रह कहने से नहीं करने से होता है। समाज के सभी सब इस तथ्य से परिचित हैं कि यह सब बाह्य धर्मों में अपरिग्रह की साधुओं और गृहस्थों के लिए वैभव है, क्षणिक है और मृत्यु होने पर मानव की आत्मा अलग-अलग व्याख्याएं हैं। हमें व्याख्या करनी है अपने एकाकी हो जाती है। अन्यायोपाजित सब द्रव्यादि यहीं लिये ना कि दूसरों के लिए .......अपरिग्रह के लिए प्रथम पर पड़े रहते हैं, फिर भी मोहवश मनुष्य उन्मत्तवत् इस बात है कि इच्छा को जैसे चाहे मोडे, बुरी इच्छा न व्यापक तत्ब से अज्ञात सा रहता है । श्मशान वैराग्य करें और यदि सदिच्छा भी करें तो उसे परमित ही रखों
7. आचार्य-श्री हस्तीमल जी, म. सा.-परिग्रह-मर्यादा, व्यक्ति और समाज के संदर्भ में,
जिनवाणी, मार्च 1976 से साभार. समाजवाद में उत्पादन, वितरण एवं उपभोग पर सामाजिक नियंत्रण होता है।
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अपरिग्रह की व्याख्या है कि कोई भी अपनी जरूरत निश्चयतः धन विष है कामना की अतृप्ति है, से ज्यादा न रखे...अपरिग्रह का सिद्धान्त समाजवाद से और माया का मोहक रूप है। भी आगे है। जहाँ समाजवाद की सीमा है उससे आगे
भगवान महावीर ने कहा - अपरिग्रह है समाजवाद अपरिग्रह में ही निहित है, अपरिग्रह का लक्ष्य है भगवान और मनुष्य को एक बनाना। धर्म (१)-मुच्छा परिग्रहो वुत्तो। क्या है ? धर्म एक है, मानव धर्म, मानव धर्म कि मनुष्य मनुष्य का शोषण न करें समाज में ऊंच नीच का भेद
(वस्तु के प्रति रहे हुए ममत्व भाव को परिग्रह
कहा है।) न हो । आर्थिक असमानताएं कम हों, समाजवाद में सब मनुष्य समान होते हैं। इस प्रकार अपरिग्रह और (2) वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते समाज का अटूट सम्बन्ध है समाजवाद लोकतांत्रिक
इम्मि लोए अदुवा परत्था । तरीके से आता है तानाशाही से नहीं।'
(प्रमत्त पुरुष धन के द्वारा न तो इस लोक में अपनी
रक्षा कर सकता है और न परलोक में ही।) धन शाप है वरदान नहीं
(3) नत्थि एरिसो पासो पडिबंधो अत्थि, सांसरिक संघर्ष का प्रमुख कारण धन है जिसके
सव्व जीवाणं सव्व लोए । लिए पिता पत्र की हत्या करता है, पति पत्नी को म त्य के मुख में डालता है, और भाई बहन के गले को दवाते (विश्व के सभी प्राणियों के लिए परिग्रह के समान हुए भी नहीं हिचकता है। एक अंग्रेजी कहावत है दूसरा कोई जाल नहीं बंधन नहीं ।) जिसमें कहा गया है कि धन ही सब अनर्थों की जड़ है।
(4) बहुपि लद्धं न निहे इस धन अर्जन में दुखः है संरक्षण में कष्ट है तथा इसके
परिग्गहाओ अप्पाणं अवसविकज्जा । व्यय में वेदना होती है इसलिए यह धन निरंतर पीडा दायक है इसमें सुख कहाँ ?
(बहुत मिलने पर भी संग्रह न करे । परिग्रह-वृत्ति
__ से अपने को दूर रखे।) अर्थानामर्जने दुःखं अजितानाञ्चरक्षणे ।
(5) जया निविदए भोगे, जे दिव्वे जे य माणुसे । आये दुःखं व्यये दुःखं घिगर्थ शोक भाजनम् ।।
तया चयइ संजोगं, सभितर-बाहिरं ।, __एक संस्कृत कवि
(जब मनुष्य दैविक और मानुषिक (मनुष्य संबंधी) धन का सदुपयोग यही है कि हम इसका संचय भोगों से विरक्त हो जाता है, तब आभ्यन्तर और बाह्यन करें अपितु जरूरतमंदों में इसे बांट दें:
परिग्रह को छोड़कर आत्म साधना में जूट जाता है।)
पानी बाढ़ नाब में, घर में बाढ़े दाम । दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो काम ।।
(6) जे पावकम्मेहि धणं मणूसा,
समायन्ती अमयं गहाय ॥
9. मोरारजी देसाई-समाजवाद-अपरिग्रह के सिद्धान्त में निहित-'तीर्थ कर', जून 1972., पृष्ठ 37.
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पहाय ते पास पर्याट्टिए नरे।
(कोई भी किसी दूसरे के लिये दुःख की इच्छा वेराणुबद्धा नरयं उनति ॥
न करें।) (जो मनुष्य धन को अमृत मानकर अनेक पाप (14) सव्वे सत्ता अवेरिनो होन्तु मा वेरिनो। कर्मों द्वारा उसका उपार्जन करते हैं, वे धन को छोड़कर
(सभी व्यक्ति अबैर बनें कोई भी किसी के साथ मौत के मुंह में जाने को तैयार हैं, वे बैर से बँधे हुए। मरकर नरकवास प्राप्त करते हैं।)
(15) सव्वे सत्ता भवन्तु, सुख वत्ता । (7) परिग्गह निट्ठिाणं, वैरं तेसि पवड्ढई।
(संसार के सभी जीव सुखी हों, सुखी रहें!) (जो परिग्रह संग्रह वत्ति में व्यस्त हैं, वे संसार में
(श्री गणेश मुनि शास्त्री, सं.-भगवान महावीर के अपने प्रति बैर की ही अभिवृद्धि करते हैं ।)
हजार उपदेश) (8) थोवाहारो थोवभणिओ य, जो होइथोवनिछोय
यह शरीर भी परिग्रह है थोवोवहि उवगरणो, तत्स हु देवा वि पणमंति ।
जिस शरीर के लिये इतने अधिक आडम्बर एकत्रित (जो साधक मिताहारी, मित-भाषी मित-शायी
किए जाते हैं तथा जिसकी संरक्षा के हेतु रात-दिन और मित परिग्रही है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।)
चितित रहना पड़ता है वह तन भी कम विघातक नहीं (9) जे ममाइअ मई जहाइ से जहाइ ममाइअं। है । करोड़ों के सौन्दर्य प्रसाधन इसी देह की कमनीयता
की बुद्धि को अधिक आकर्षक बनाने के लिए खरीदे (जो साधक अपनी ममत्व बुद्धि का त्याग कर जाते हैं । इस भौतिक युग में चचल तरुणाई अधिक सकता है वही परिग्रह का त्याग करने में समर्थ हो भ्रमित है जिसका कारण शारीरिक सुन्दरता कही जा सकता है।)
सकती है।
(10) एतदेव एगेसिं महब्भयं भवइ ।
भगवान महावीर ने परिग्रह को तीन रूपों में विभाजित किया है जिसमें शरीर को भी परिग्रह बताया गया है
(परिग्रह ही इस लोक में महाभय का कारण होता
(11) लोहस्सेस अणुप्फासो, मन्ने अन्नयरावि ।
कर्मपरिग्रह, शरीरपरिग्रह, वाह्यभण्ड-मात्र-उप करण परिग्रहः
(संग्रह करना, यह अंदर रहने वाले लोभ की झलक है।)
तिविहे परिग्गहे पण्णते, त जहाकम्म-परिग्गहे, बाहिर भंडमत्त परिग्गहे ।
(12) मा नो द्विक्षत कश्चन । (हम किसी से द्वेष न करें) (13) नाझमास्स दुक्खमिच्छेय ।
परिग्रही नरक में जाता है
अर्थादि संग्रह में लोलुपी जितना पर-पीड़न करता है उससे हजार गुना कष्ट उसे भोगना न्यायत: समुचित
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ही है। इसलिए परशोषक को नारकीय जीवन रो-रो और बेचे जाते थे। विलासता, वैभव का उच्छखल कर बिताना ही चाहिए अन्यथा शुभाशुभ कर्मों का ताण्डव नृत्य था। भगवान ने सामाजिक विषमता प्रतिफलन कैसे प्रमाणित होगा। आचार्य श्री उमा- को समझा एवं उसके परिमार्जन में सफल प्रयास किये। स्वामी ने मोक्षशास्त्र (तत्वार्थसूत्र) के अध्याय 6 में (देखिए महावीर युग में समाज और धर्म की स्थिति कहा है कि बह्वारम्भ परिग्रहत्व नारकस्या यषः । लेखक डा. ज्योति प्रसाद जैन, भगवान महावीर स्मति बहुत आरंभ और परिग्रह का होना नरक आयु का ग्रन्थ खण्ड 3, पृष्ठ 3 1) अस्तित्व है। इसी प्रकार माया (छल-कपट) तिर्यञ्च आयु का आस्त्रव है:--माया तैर्यग्योनस्य (मोक्षशास्त्र जिस प्रकार स्वस्थ शरीर के लिए शुद्ध आचार अध्याय 6 सूत्र 16) निष्पक्ष विचारक इस मान्यता के विचार आवश्यक है उसी प्रकार मानवता के उदात्त पूर्ण समर्थक हैं कि परिग्रह जब स्वयँ नरक है तब उपके संरक्षण में अपरिग्रहवाद सर्वोपरि है। इस सजनात्मक स्नेही को पातकी बनकर नरक में रहना और तड़पना
सत्य के दृष्टिकोण को भगवान ने भली मांति अंगीकार स्वाभाविक ही है।
कर अपरिग्रह की गरिमा को बहुरूपों में समाज के
सन्मुख प्रस्तुत किया और कराहती हई इन्सानियत को वीर-युग-अनेक द्वन्दों का आतंक
शुद्ध जिजीविषा प्रदान की। भगवान महावीर का यही महावीर के समय को यदि आत्मधातौ कहा जाय तो अपरिग्रह है और यही जैन मत का मूलाधार है। कुछ सीमा तक अनुचित नहीं है। इस युग में मानवता खंडित थी, धर्मों के रूप प्रशस्तन, थे स्वार्थपूर्ण मनोवृ.
यदीया बांग्गंगा विविध-नय-कल्लोल-विमला। त्तियां जनता के मानस को खसोट रही थीं एवं दीन
बहद् ज्ञानाम्भोभिर्जगति जनतां या स्नपयति । अमीर का भेद व्यापकता ले चुका था। नारी का करुण
इदानीमप्येषा बुधजन-मरालः परिचिता । क्रन्दन किसी ह्दय को प्रभावित करने में असमर्थ था ।
महावीर स्वामी नयस-पथ-गामी भवंतु नः । दास दासियाँ बाजारों में मूक पशुओं की तरह खरीदे
-पंडित भागचन्द्र. महाबीराष्टक.
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जैन कर्म सिद्धान्त
श्यामलाल पाण्डवीय
भारतीय संस्कृति प्रारम्भ से ही आध्यात्मिकता के आधार मान कर ही अपने विचार प्रकट किये हैं। अधिक निकट रही है। समय-समय पर अनेकों दिव्य तीसरा अर्थ है-जीव के साथ बंधने वाले विशेष जाति एवं महान आत्माओं द्वारा विभूषित इस देश का इति- के स्कन्ध । यह अर्थ अप्रसिद्ध है, केवल जैन सिद्धान्त हास धर्म एवम् दर्शन से अत्याधिक प्रभावित रहा है। ही इसका विशेष प्रकार से निरूपण करता है। भारतीय दर्शन के विविध पक्षों के रूप में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग. मीमांसा, वेदान्त, जैन, बौद्ध तथा भारतीय दर्शन में कर्म सिद्धान्तचार्वाक दर्शन में हमें मानव जीवन के प्रति विविध
न्याय दर्शन के अनुसार मानव शरीर द्वारा मतों के दर्शन होते हैं। इनमें से चार्वाक को छोडकर
सम्पन्न विविध कर्म; राग, द्वेष और मोह के वशीअन्य समस्त भारतीय दर्शनों ने परलोक, पुनर्जन्म, कर्म
भूत होकर किये जाते हैं। अच्छा आचरण पुण्य प्रवृत्ति और मोक्ष की धारणा को ग्रहण किया है। ये सभी
है, जो धर्म को उत्पन्न करती है। धर्म करने से पुण्य मानते हैं कि मानव जैसे कर्म करता है, वैसा ही फल
तथा अधर्म करने से पाप उत्पन्न होता है । धर्माधर्म को भोगता है।
अदृष्ट भी कहते हैं। अदृष्ट कर्मफल के उत्पादन में शाब्दिक दृष्टि से कर्म के तीन अर्थ प्रमख हैं। कारण होता है। किन्तु अदृष्ट जड़ है और जड़ में पहला-कर्म कारक; कर्म का यह अर्थ जगत प्रसिद्ध फलोत्पादन शक्ति चेतन की प्रेरणा के बिना संभव नहीं है। दूसरा अर्थ है-क्रिया। इसके अनेक प्रकार हैं। है। अतः ईश्वर की प्रेरणा से ही अदृष्ट फल देने में सामान्यतः विविध दार्शनिकों ने कर्म के द्वितीय अर्थ को सफल होता है।।
1. जैन कर्म सिद्धान्त और भारतीय दर्शन, प्रो. उदयचन्द्र जैन, जैन सिद्धान्त भास्कर-किरण १, प्र.
श्री देवेन्द्र कुमार जैन ओरियन्टल रिसर्च इन्सटीट्यूट, आरा । पृ. ३८ ।
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वैशेषिक दर्शन के अनुसार अयस्कान्त मणि की द्योतक है। शंकराचार्य ने इसीलिये अपूर्व को कर्म की ओर सूई की स्वाभाविक गति, वृक्षों के भीतर रस का सूक्ष्मा उत्तरावस्था या फल की पूर्वावस्था माना है। नीचे से ऊपर की ओर चढ़ना, अग्नि की लपटों का
वेदान्त दर्शन के अनुसार कर्म से वासना उत्पन्न ऊपर की ओर उठना, वायु की तिरछी गति, मन तथा
होती है और वासना से संसार का उदय होता है । परमाणुओं की प्रथम परिस्पन्दात्मक क्रिया, ये सब
विज्ञान दीपिका में यह बतलाया गया है, कि जिस कार्य अदृष्ट द्वारा होते हैं ।
प्रकार घर में तथा क्षेत्र में स्थित अन्न का विनाश सांख्य दर्शन के मत में--क्लेश रूपी सलिल से विविध रूप से किया जा सकता है, किन्तु मुक्त अन्न का सिक्ता भूमि में कर्म बीज के अंकूर उत्पन्न होते हैं, विनाश पाचन द्वारा ही होता है, परन्तु प्रारब्ध कर्म का परन्तु तत्वज्ञान रूपी ग्रीष्म के कारण क्लेश जल के क्षय भोग के द्वारा ही होता है। सुख जाने पर ऊसर जमीन में क्या कभी कर्म-बीज
बौद्ध धर्म में भी, जो कि अनात्मवादी है कर्मों की उत्पन्न हो सकते हैं।
बिभिन्नता को ही प्राणियों में व्याप्त विविधता का योग दर्शन के अनुसार पातञ्जल योगसत्र में कारण माना है । अंगुतर निकाय में सम्राट मिलिन्द के क्लेश का मूल कर्माशय वासना को बतलाया है। यह
प्रश्नों के उत्तर में भिक्ष नागसेन कहते हैं?-"राजन ! कर्माशय इस लोक और परलोक में अनुभव में आता है।
कर्मों के नानात्व के कारण सभी मनुष्य समान नहीं
होते । भगवान ने भी कहा है कि मानवों का सद्भाव मीमांसा दर्शन के अनुसार--प्रत्येक कर्म में अपूर्व कर्मों के अनुसार है । सभी प्राणी कर्मों के उत्तराधिकारी (अदृष्ट) को उत्पन्न करने की शक्ति रहती है । कर्म से हैं। कर्मों के अनुसार ही योनियों में जाते हैं। अपना अपूर्व उत्पन्न होता है, और अपूर्व से फल उत्पन्न होता कर्म ही बन्धु है, आश्रय है. और वह जीव का उच्च है। अतः अपूर्व, कर्म तथा फल के बीच की अवस्था का और नीच रूप में विभाग करता है ।
2. मणिगमनं सूचभिसर्पण मित्य दृष्ट कारणम् । --वै. मू. ५।१:१५
वृक्षाभिसर्पणमित्यदृष्टकारणम् ।-वै. सू. ५।२।७ 3. क्लेशसलिलावसिक्तायां हि बुद्धि भूमौ कर्मवीजान्यंकुरं प्रसुवते ।
तत्वज्ञान निदाघणीतसकलक्लेशसलिलायां ऊषरायां कुतः कर्मवीजानामंकुर प्रसन । --तत्व कौमुदी सांख्य का० ६७
क्लेशमूलः कर्माशयः दृष्टादृष्टवेदनीयः । -योग सूत्र २।१२ 5. नचाप्यनुत्पाद्य किमपि अपूर्व कर्म विनश्यत् कालान्तरितं फलं दातुं शक्नोति ।
अतः कर्मणो वा सूक्ष्मा काचिदुत्तरावस्था फलस्य वा पूर्वावस्था अपूर्वनाभास्तीति तय॑ते । --शा. भा. ३।२।४० जैन कर्म सिद्धान्त और भारतीय दर्शन; पूर्वाक्त, पृ. ४० "महाराज कम्मानं नानाकरणेन मनुस्सा न सव्वे समका । भासितं एतं महाराज भगवता कम्मस्स कारणेन माणवसत्ता, कम्मदायादा कम्मयोनी, कम्मबन्धु कम्मपरिसरणा कम्म सत्ते विभजति यदिद होनप्पणीततायीति ।"
--अंगुत्तर निकाय
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__यही नहीं भारत के लगभग सभी प्रमुख धार्मिक 'कर्म' का अर्थ - ग्रंथों में कर्म सिद्धान्त की महत्ता तथा प्रकृति का यथा
मौलिक अर्थ की दृष्टि से तो कर्म का अर्थ बास्तव संभव उल्लेख मिलता है। गीता का मान्य सिद्धान्त है
में क्रिया से ही सम्बन्धित है। मन, वचन एवं काय के कि-प्राणी को कर्म का त्याग नहीं करना चाहिये,
द्वारा जीव जो कुछ करता है, वह सब क्रिया या कर्म किन्तु कर्म के फल का त्याग करना चाहिये । प्राणी का
है। मन, वचन और काय ये तीन उसके माध्यम हैं। अधिकार कर्म करने में ही है, फल में नहीं। महाभारत
इसे जीव कर्म या भाव कर्म कहते हैं, यहां तक कर्म की में भी आत्मा को बांधने वाली शक्ति को कर्म कहा
धारणा सभी को स्वीकार है । यह धारणा केवल संसारी है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी रामचरित मानस में
जीवों की क्रिया पर ही विचार करती है, अर्थात केवल कर्म को प्रधान कहा है
चेतन की क्रियाएं ही इसकी विषय वस्तु हैं, जड़ की कर्म प्रधान विश्व करि राखा।
क्रियाओं अथवा जड़ एवं चेतन की क्रियाओं में सम्बन्धों जो जस करहि सो तस फल चाखा ।। पर अन्य धारणाओं में विचार नहीं किया जाता, जैन
दर्शन इन दोनों के सम्बन्ध में भी गम्भीरता पूर्वक इस प्रकार भारतीय दर्शन में कर्म सिद्धान्त को
विचार करता है। इस कारण उसमें कर्म की व्याख्या प्रमुखता दी गई है। लगभग सभी दार्शनिकों ने कर्म
अधिक व्यापक एवं विस्तृत है। जैन दार्शनिक कर्म सिद्धान्त के विषय में अपने-अपने दृष्टिकोण से विचार
शब्द की भौतिक व्याख्या करते हैं। प्रकट कर इसे जीवन-दर्शन का प्रमुख आधार माना है।
परिभाषा एवं व्याख्याजैन कर्म दर्शन
श्री क्षु. जिनेन्द्र वर्णी के अनुसार- "भावकर्म से कर्म सिद्धान्त का जितना सविस्तार प्रभावित होकर कुछ सुक्ष्म जड़ पुदगल स्कन्ध जीव के विवेचन किया गया है, वह अन्य दर्शनों में कर्म सिद्धान्त प्रदेशों में प्रवेश पाते हैं और उसके साथ बंधते हैं, यह के विवेचन से कई गुना है । जैन बाङ्मय में इस संबंध बात केवल जैनागम ही बताता है। यह सूक्ष्म स्कन्ध में विपुल साहित्य भण्डार उपलब्ध है। प्राकृत भाषा अजीव कर्म या दव्य कर्म कहलाते हैं और रूप रसादि का जैन ग्रंथ "महाबन्ध", कर्म सिद्धान्त पर विश्व का धारक मूर्तीक होते हैं । जैसे कर्म, जीव करता है, वैसे सबसे वृहद ग्रंथ है, जिसमें चालीस हजार श्लोक हैं। ही स्वभाव को लेकर द्रव्य कर्म उसके साथ बंधते हैं इसके अतिरिक्त षट्खण्डागम, गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड, और कुछ काल पश्चात परिपक्व दशा को प्राप्त होकर लब्धिसार तथा क्षपणासार आदि कर्म सिद्धान्त विषयक उदय में आते हैं। उस समय इनके प्रभाव से जीव के वृहद ग्रंथ हैं । इस प्रकार जैन दर्शन में कर्म दर्शन को ज्ञानादि गण तिरोभूत हो जाते हैं। यही उनका फलविशेष महत्व दिया गया है, तथा उसकी सक्ष्म विवेचना दान कहा जाता है। सूक्ष्मता के कारण वे दृष्ट नहीं की गई है।
8.
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।। मा कर्मफलहेतुर्भू: मा ते संगोऽस्तवकर्मणि ||--भगवद्गीता २१४७ "कर्मणा बध्यते जन्तुविद्ययातु विमुच्यते", महाभारत--शान्तिपर्व (२४०-७) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भा. १,-जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, पृ. २५
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इस प्रकार जैन दार्शनिक यह मानते हैं कि यदि प्रवक्त होता है, तब कर्म रूपी रज ज्ञानवरणादि रूप से 'कर्म' भौतिक स्वरूप का है, तो 'कारण' भी भौतिक आत्म प्रदेशों में प्रविष्ट होकर स्थित हो जाता है । स्वरूप का होगा। अर्थात जैन धर्म यह मानता है कि- श्री अकलंक देव ने कर्म की सोदहारण व्याख्या करते चूंकि विश्व की सभी वस्तुएं सूक्ष्म स्कन्धों या पर- हुए कहा है कि --- "जिस प्रकार पात्र विशेष में रखे माणुओं से बनी हैं, अत: परमाणु ही वस्तु का कारण' गए अनेक रस वाले बीज, पुष्प तथा फलों का मदिरा हैं और चूंकि परमाणु भौतिक तत्व है, अत: वस्तुओं के रूप में परिणमन होता है, उसी प्रकार, क्रोध, मान, 'कारण' भी भौतिक तत्व हैं। इस सम्बन्ध में आलोचकों माया और लोभ रूपी कषायों तथा मन, वचन और की इस आपत्ति का कि "अनेकों क्रियाएँ, यदा-सुख, काय योग के निमित्त से आत्म प्रदेशों में स्थित पुदगल दुःख, पीड़ा आदि विशुद्ध रूप से मानसिक हैं, इसलिये परमाणुओं का कर्मरूप में परिणमन होता है।" उनके कारण भी मानसिक होने चाहिये, भौतिक नहीं।"
इस प्रकार जैन दार्शनिकों ने कर्म की विषद एवं सूक्ष्म उत्तर देते हुए कहा है कि- ये अनुभव शारीरिक कारणों से सर्वथा स्वतन्त्र नहीं हैं, क्योंकि सुख, दुःख
व्याख्या की है जो अन्य दर्शनों में की गई व्याख्याओं से
नितान्त भिन्न है। जहां अन्य दर्शन परिणमनरूप भावाइत्यादि अनुभव, उदाहरणार्थ- भोजन आदि से सम्बन्धित होते हैं । अभौतिक सत्ता के साथ सूख आदि का
त्मक पर्याय को कर्म न कहकर केवल परिस्पन्दन रूप कोई अनुभव नहीं होता, जैसे कि आकाश के साथ ।।
क्रियात्मक पर्याय को ही कर्म कहते हैं, वहां जैन कर्म अतः यह माना गया है कि - इन अनुभवों के पीछे
सिद्धान्त इन दोनों को ही कर्म कहता है । जैन दर्शन में
कर्म की यह व्याख्या अत्यन्त व्यापक है। 'प्राकृतिक कारण' हैं, और यही कर्म है। इसी अर्थ में सभी मानवीय अनुभवों के लिये सुखद या दुःखद कर्म और आत्मातथा पसंद या नापसंद--कर्म जिम्मेवार हैं।
लगभग सभी दर्शन, जो कर्म की धारणा पर विचार इसी कारण विभिन्न जैन दार्शनिकों ने जीव के करते हैं, कर्म को आत्मा से सम्बन्धित अवश्य मानते रागद्वेषादिक परिणामों के निमित्त से जो कामण वर्गणा हैं। जैन दार्शनिकों के अनुसार आत्मा अनादिकाल से रूप पुदगल-स्कन्ध जीव के साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं, कर्मबन्धन से युक्त है, कम बन्धन जन्म जन्मातर आत्मा को उन्हें कर्म कहा है। आचार्य कुन्द-कुन्द के अनुसार- बांधे रहते हैं, इस दृष्टि से आत्मा और कर्म का सम्बन्ध "जब रागद्वेष से युक्ता आत्मा अच्छे या बुरे कार्यों में अनादि है। परन्तु एक दृष्टि से वह सादि भी है; जिस
11. 'कर्म ग्रन्थ', 1.३ 12. जैन दर्शन की रूपरेखा, एस. गोपालन, वाईली इस्टर्न लि., पृ. १५१. 13. परिणमदि जदा अप्पा सुहम्मि असुहम्मि रागदोस जुदो। तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिभावेहि ॥
-प्रवचन सार-१५ 14. यथा भोजन विशेषे प्रक्षिप्तानां विविधरसबीज पूष्पलतानां मदिराभाबेन परिमाणः तथा पुदगलानामपि आत्मनि स्थितानां योगकषायवशात् परिमाणो वेदितव्यः ।
--तत्वार्थबार्तिक पृ. २६४
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प्रकार वृक्ष और बीज का सम्बन्ध सन्तति की दृष्टि से मुक्ति पर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार अनादि है, और पर्याय की अपेक्षा से वह सादि है. इसी जैन दर्शन में मोक्ष की धारणा का विकास, कर्म दर्शन प्रकार कर्मबन्धन सन्तान या उत्पत्ति की दृष्टि से अनादि के विकास पर ही आधारित है। और पर्याय की दृष्टि से सादि है। जैन दर्शन में कर्म
___ कर्म के भेद --- और आत्मा के सम्बन्ध में इस व्याख्या के कारण ही आगे चलकर उसे वैज्ञानिक रूप दिया है जिस कारण जैन दार्शनिकों ने कर्म की वृहद व्याख्या करते हुए वह अन्य दर्शनों से अलग है। जैन दर्शन कर्मबन्धन को कहा है कि--कर्म मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति, योग, अनादि और पर्याय की दृष्टि से सादि मानकर ही आगे मोड तथा क्रोधादि कषाय ये भाव जीव और अजीव के यह और व्याख्या करता है, कि--पर्याय की दृष्टि से मेद से दो-दो प्रकार के हैं। इस प्रकार कर्म को दो सादि होने के कारण पूर्व के कर्मबन्धनों को तोड़ा भी आधारों भौतिक तथा मानसिक के आधार पर दो भेद जा सकता है। कोई भी सम्बन्ध अनादि होने से अनन्त किये गए हैं--'द्रव्य कर्म' एवं 'भाव कर्म'। द्रव्य कर्म नहीं हो ज ते, विरोधी कारणों का समागत होने पर का अर्थ है जहां द्रव्य का आत्मा में प्रवेश हो गया हो अनादि सम्बन्ध टूट भी जाते है, जिस प्रकार बीज और अर्थात जहां रागद्वेषादि रूप भावों का निमित्त पाकर वृक्ष का सम्बन्ध अनादि होते हुए भी, पर्याय विशेष में जो कार्मण बर्गणारूप पुदगल परमाणु आत्मा के साथ सादि होता है, और पर्याय विशेष में किसी बीज विशेष बंध जाते हैं उन्हें द्रव्यकर्म कहते हैं । यह पौदगलिक हैं, के जल जाने पर, अर्थात विरोधी कारणों के समागम और इनके और भी भेद किये गए हैं। के कारण उसमें अंकुर उत्पन्न नहीं होता। इस विषय में आचार्य अकलंक देव तत्वार्थराज वातिक (२/७) में
भाव कर्म, आत्मा के चैतन्य परिणामात्मक हैं। ऐसा ही दृष्टांत देकर समझाया गया है कि जिस प्रकार
इनमें इच्छा तथा अनिच्छा जैसी मानसिक क्रियाओं का बीज के जल जाने पर अंकुर नहीं उत्पन्न होता, उसी
समावेश होता है। अर्थात ज्ञानरणादिरूप द्रव्य कर्म के प्रकार कर्मबीज़ के भस्म हो जाने पर भवांकुर उत्पन्न
निमित्त से होने वाले जीव के राग द्वेषादि रूप भावों नहीं होता।
को भावकम कहते हैं।
यही कारण है कि, जैन दार्शनिकों ने आत्मा के द्रव्य कम और भाव कर्म की पारस्परिक कार्यस्वभाव की सकारात्मक व्याख्या करते हुए उसे विशुद्ध कारण परम्परा अनादिकाल से चली आरही है। इन एवं अमीम क्षमताओं वाली कहा है। उनके अनुसार दोनों में नैतिक सम्बन्ध है। भावक्रम का निमित्त कर्म के दुष्ट प्रनाव के कारण वह अपने को सीमित द्रव्यकर्म है और द्रव्य कर्म का निमित्त भाबकर्म है। अनुभव करती है। कर्म के इस दुष्ट प्रभाव से आत्मा राग द्वषादिरूप भावों का निमित्त पाकर द्रव्यकर्म आत्मा को मुक्त करा पाने पर ही सदकर्मों की उत्पत्ति होती से बंधता है और द्रव्यकर्म के निमित्त से आत्मा में राग है, सदकर्मों से कर्मबन्ध टूटते हैं और कर्मबन्धों से पूर्ण द्वेषादि मावों की उत्पत्ति होती है ।
15. मिच्छत्त पुण दुवह जीबमजोब तहेव अण्णाण । अविरदि जोगो मोहो कोहादिया इमे भावा । समयसार ।
मूल । ८७ । प्र.-अहिंसा मन्दिर प्रकाशन, देहली 16. जैन कर्म सिद्धान्त और भारतीय दर्शन, पूर्वाक्त, पृ. 47
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कर्म बन्ध-
जैन दर्शन के अनुसार दोनों ही प्रकार के कर्मों से उत्पन्न कर्माण विभिन्न कालावधियों के लिये मनुष्य को बांधकर रखते हैं। इस प्रकार कर्मबन्ध कर्म ओर आत्मा के सम्बन्ध के परिणामस्वरूप उत्पन्न अवस्था है। यह अवस्था कषाय एवं योग के कारण उत्पन्न होती है । आचार्य गृद्धपिच्छ ने कहा है कि "-- "जीव कषाय सहित होने के कारण कर्म के योग्य पुदगलों को ग्रहण करता हैं । इसी का नाम बन्ध है। शुद्ध आत्मा में कर्म का बन्ध नहीं होता है, किन्तु कषायवान् आत्मा ही कर्म का वन्ध करता है। आचार्य जिन सेनाचार्य ने भी कर्मबन्ध की लगभग ऐसी ही व्याख्या करते हुए कहा है कि- "यह अज्ञानी जीव इष्ट और अनिष्ट संकल्प द्वारा वस्तु में प्रिय और अप्रिय की कल्पना करता है, इससे रागद्वेष उत्पन्न होता है और इस रागद्वेष से कर्म का बन्ध होता है, इस प्रकार रागद्वेष के निमित्त से संसार का चक्र चलता रहना है।"
इस प्रकार रागद्व ेष रूप भावकर्म का निमित्त पाकर यकर्म आरमा से बंधता है और द्रव्यकर्म के निमित्त से आत्मा में रागद्वेष रूपी भाव कर्म उत्पन्न होता है । इन कर्मों से उत्पन्न परमाणु प्रत्येक समय बंचते रहने से अनन्तानन्त होते हैं। यह बन्ध केवल जीवप्रदेश के क्षेत्रवर्ती कर्म परमाणुओं का होता है, बाहर के क्षेत्र में स्थित कर्म परमाणुओं का नहीं । आत्म प्रदेशों में होने वाला यह कर्मबन्ध प्रति समय होता है। यह सम्भव नहीं है कि किसी समय किन्हीं आत्म प्रदेशों के साथ बन्ध हो और किसी समय अन्य आत्मप्रदेशों के साथ
कर्मफल- ईश्वरवादी दर्शन ईश्वर को कर्म का फलदाता मानते हैं। उनके अनुसार यह अज्ञ प्राणी अपने सुख
और दुःख में असमर्थ है। यह जीव ईश्वर की प्रेरणा से स्वर्ग में या नरक में जाता है ।" जैन दर्शन के अनुसार कर्म स्वयं अपना फल देते हैं, किसी के माध्यम से नहीं । इसी कारण कहा है कि उस कम से उत्पन्न किया जाने वाला सुख दुःख कर्मफल है 120 यह कर्मफल कर्म की प्रकृति से प्रभावित होता है। जैन दर्शन के अनुसार शुभ एव अशुभ भावों से किये गए कर्मों में जीव पर अच्छा और बुरा प्रभाव डालने की शक्ति होती है, अतः इन भावों का प्रभाव कर्म परमाणुओं पर भी होता है, और इसी के अनुसार वे कर्म अपने उदय के अवसर पर तदनुरूप सुख और दुःख प्रदान करते हैं।
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इस प्रकार जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त की अत्यन्त सूक्ष्म एवं विषद तथा वैज्ञानिक विवेचना की गई है जो यह बतलाती है कि मनुष्य स्वयं अपने कर्म का सुष्टा एवं भाग्य विधाता है। ईश्वर या अन्य कोई शक्ति न तो उसके कर्म को निर्धारित करती है, न ही उसके फल को। यही नहीं ईश्वरीय या अन्य कोई ऐसी शक्ति उसे बुरे कर्मों के उदय या फल भोगने से मुक्त भी नहीं करा सकती । कर्मों से मुक्ति के लिये कर्ता द्वारा स्वयं कर्मक्षय करना आवश्यक है । कर्मक्षय से कोई भी जीव शुद्ध अवस्था अर्थात मुक्ति या मोक्ष को प्राप्त कर सकता है । इसी कारण स्वामी कार्तिकेय ने कहा है कि न तो कोई लक्ष्मी देता है, और न कोई इसका उपकार करता है। शुभ और अशुभ कर्म ही जीव का उपकार और अवकार करते हैं ।
- तत्वार्थ सूत्र ८२
17. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुदगलानादत्ते स बन्धः । 18. संकल्पयशो मूढः बस्त्विष्टा निष्टतां नयेत, रागद्वेष ततस्ताभ्यां बन्धं दुर्मोचमश्नुते । महापुराण २४।२१ 19. अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख दुःखयोः ।
ईश्वर प्रेरितो गच्छेत स्वर्ग वा वमेव वा ॥ 20 तस्य कर्मणो यन्निष्याद्य सुख दुःख तत्कर्म फलम
णय को बि देदि लच्छी ण को वि जीवस्स कुणई उवयार उदयारं अववारं कम्म पि सुहासुहं कुणदि ॥ - स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा ३१८
x x
- महाभारत, वन पर्व ३०१२८ प्रवचनसार / स. प्र. / १२४.
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जैन दर्शन में
मोक्ष का स्वरूप,
एक तुलनात्मक अध्ययन
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जैन दर्शन के अनुसार संवर के द्वारा कर्मों के आगमन का निरोध हो जाने पर और निर्जरा के द्वारा समस्त पुरातन कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा की जो निष्कर्म शुद्धावस्था होती है उसे 'मोक्ष' कहा जाता है । कर्म मलों के अभाव में कर्म जनित आवरण या बन्धन भी नहीं रहते और यह बन्धन का अभाव ही मुक्ति है" । मोक्ष आत्मा की शुद्ध स्वरूपावस्था है । अनात्मा में ममत्व आसक्ति रूप आत्माभिमान का दूर हो जाना यही मुक्ति है । यही आत्मा की शुद्धावस्था है । बन्धन और मुक्ति की यह समग्र व्याख्या पर्याय दृष्टि का विषय है । आत्मा की विरूप पर्याय हो बन्धन है और स्वरूप पर्याय मोक्ष है। पर पदार्थं, पुद्गल परमाणु या जड़ कर्म वाणिओं के निमत्त से आत्मा में जो पर्यायें उत्पन्न होती हैं और जिनके कारण पर मैं
( मेरा पन) उत्पन्न होता है यही विरूप पर्याय है, परपरिगति है, स्व की पर में अवस्थिति है, यही बन्धन है और इसका अभाव ही मुक्ति है । बन्धन और मुक्ति दोनों एक ही आत्म द्रव्य या चेतना की दो अवस्थाएं मात्र हैं, जिस प्रकार स्वर्ण कुण्डल और स्वर्ण मुकुट
1. कृत्स्न कर्मक्षयान् मोक्षः, तत्वार्थ सूत्र १०१
2. बन्ध वियोगो मोक्षः - अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ६, पृ. ४३१
स्वर्ण की दो अवस्थाएं हैं। लेकिन यदि मात्र विशुद्ध तत्व दृष्टि से विचार किया जाए तो बन्धन और मुक्ति दोनों की व्याख्या सम्भव नहीं है क्योंकि आत्मतत्व स्वरूप का परित्याग कर परस्वरूप में कभी भी परिणित नहीं होता । विशुद्ध तत्वदृष्टि से तो आत्मा नित्य मुक्त
3. मुक्खो जीवस्स शुद्ध रूबस्स - बही, खण्ड ६, पृ. ४३१
4. तुलना कीजिए (अ) आत्मा मीमांसा (दलसुखभाई), पृ. ६६-६७
डाँ. सागरमल जैन
( ब ) ममेति बध्यते जन्तुर्नममेति प्रमुच्यते । - गरुड़ पुराण ।
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है। लेकिन जब तत्व की पर्यायों के सम्बन्ध में विचार और न्याय, वैशेषिक ज्ञान और दर्शन को भी अस्वीकार प्रारम्भ किया जाता है तो बन्धन और मुक्ति की कर देते हैं । बौद्ध शून्यवाद अस्तित्व को भी निराश सम्भावनाएं स्पष्ट हो जाती है, क्योंकि बन्धन और कर देता है और चार्वाक दर्शन मोक्ष की धारणा को मुक्ति, पर्याय अवस्था में ही सम्भव होती है। मोक्ष को भी समाप्त कर देता है। वस्तुतः मोक्षावस्था को तत्व माना गया है लेकिन वस्तुत: मोक्ष बन्धन के अभाव अनिर्वचनीय मानते हुए भी विभिन्न दार्शनिक मान्यका ही नाम है। जैनागमों में मोक्ष तत्व पर तीन ताओं के प्रति उत्तर के लिए ही मोक्ष की इस भावात्मक दृष्टियों से विचार किया है 1. भावात्मक दृष्टिकोण अवस्था का चित्रण किया गया है। भावात्मक दृष्टि से 2. अमावात्मक दृष्टिकोण 3. अनिर्वचनीय दृष्टि- जैन विचारणा मोक्षावस्था में अनन्त चतुष्ठय की उपकोण।
स्थिति पर बल देती है। अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन
अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति को जैन विचारणा में मोक्ष पर भावात्मक दृष्टिकोण से विचार- अनन्त चतुष्ठय कहा जाता है। बीज रूप में यह अनन्त
चतुष्ठय सभी जीवात्माओं में उपस्थित है मोक्ष दशा में जैन दार्शनिकों ने मोक्षावस्था पर भावात्मक दृष्टि- इनके अवरोधक कर्मों का क्षय हो जाने से यह पूर्ण रूप कोण से विचार करते हुए उसे निबाघ अवस्था कहा में प्रगट हो जाते हैं । यह प्रत्येक आत्मा के स्वभाविक हैं। मोक्ष में समस्त बाधाओं के अभाव के कारण गुण है जो मोक्षावस्था में पूर्ण रूप से अभिव्यक्त हो आत्मा के निज गुण पूर्ण रूप से प्रकट हो जाते हैं, मोक्ष जाता है। अनन्त चतुष्टय में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, बाधक तत्वों की अनुपस्थिति और पूर्णता प्रगटन है। अनन्त शक्ति और अनन्त सौख्य (अव्यावाघसुख) आते आचार्य कून्द-कुन्द ने मोक्ष की भावात्मक दशा का हैं। लेकिन अष्ट कर्मों के प्रहाण के आधार पर सिद्धों के चित्रण करते हुए उसे शुद्ध, अनन्त चतुष्ठय युक्त अक्षय, आठ गुणों की मान्यता भी जनविचारणा में प्रचलित है। अविनाशी, निर्बाध, अतीन्द्रिय अनुपम, नित्य, अविचल, 1. ज्ञानवरणीय कर्म के नष्ट हो जाने से मुक्तात्मा अनालम्ब कहा है । आचार्य उसी ग्रन्थ में आगे चलकर अनन्त ज्ञान या पूर्ण ज्ञान से युक्त होता है । 2. दर्शनामोक्ष में निम्न बातों की विद्यमानता की सूचना करते वरणीय कर्म के नष्ट हो जाने से अनन्त दर्शन से सम्पन्न हैं। (1) पूर्णज्ञान (2) पूर्णदर्शन (3) पूर्णसौख्य होता है। 3. वेदनीय कर्म के क्षय हो जाने से (4) पूर्णवीर्य (शक्ति) (5) अमूर्तता (6) अस्तित्व विशुद्ध, अनश्वर, आध्यात्मिक सुखों से युक्त होता है । (7) सप्रदेशता । आचार्य कुन्द-कुन्द ने मोक्ष दशा के 4. मोह कर्म के नष्ट हो जाने से यथार्थ दृष्टि (क्षायिक जिन सात भावात्मक तथ्यों का उल्लेख किया है वे सभी सम्यकत्व) से युक्त होता है। मोह कर्म के दर्शन मोह भारतीय दर्शनों को स्वीकार नहीं है । वेदान्त सप्रदेशता और चारित्रमोह ऐसे, दो भाग किए जाते हैं। दर्शन मोह को अस्वीकार कर देता है । साँख्य, सौख्य एवं वीर्य को, के प्रहाण से यथार्थ दृष्टि और चारित्र मोह के यथार्थ
5. अब्वावाहं अवत्थाणं --अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ६, पृ. ४३१ 6. नियमसार १७६-१७७ 7. विज्जदि केवलणाणं, केवलसोक्ख च केवलविरियं ।
केवलदिद्रि अमूत अत्थित्त सप्पदेसत ।। -नियमसार १५१
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से चारित्र (क्षायिकचारित्र) का प्रगटन होता है, लेकिन मानने वाली वैभाषिक बौद्धों और न्याय-बैशेषिक दर्शन मोक्ष दशा में क्रिया रूप चारित्र नहीं होता, मात्र की धारणा का प्रतिषेध किया गया है। मुक्तात्मा के दृष्टि रूप चारित्र ही होता है. अतः उसे क्षायिक सम्य- अस्तित्व या अक्षयता को स्वीकार कर मोक्ष को अभाक्त्व के अन्तर्गत ही माना जा सकता है, वैसे आठ कर्मों वात्मक रूप में मानने वाले जड़वादी तथा सौत्रान्तिक की 31 प्रकृतियों के प्रहाण के आधार पर सिद्धों के बौद्धों की मान्यता का निरसन किया गया है। इस 31 गुण माने गये हैं, उसमें यथाख्यात चारित्र को प्रकार हम देखते हैं कि मोक्ष दशा का समग्र भावात्मक स्वतंत्र गुण माना गया है। 5 आयुकर्म के क्षय हो जाने चित्रण अपना निषेधात्मक मूल्य ही रखता है। यह से मुक्तात्मा अशरीरी होता है अतः वह इन्द्रियाग्राह्य विधान भी निषेध के लिए है । नहीं होता। 7 गोत्र कर्म के नष्ट हो जाने से वह अगुरुलधुत्व' से मुक्त हो जाता है अर्थात् सभी सिद्ध अभावात्मक दृष्टि से मोक्ष तत्व पर विचार-- समान होते हैं उनमें छोटा बड़ा या ऊँच नीच का भाव नहीं होता। 8. अन्तरायकर्म का प्रहाण हो जाने से जैनागमों में मोक्षावस्था चित्रण निषेधात्मक रूप बाधा रहित होता है, अर्थात् अनन्त शक्ति सम्पन्न होता से भी हआ है। प्राचीनतम जैनागम आचारांग में है। अनन्त शक्ति का यह विचार मूलतः निषेधात्मक मुक्तात्मा का निषेधात्मक चित्रण निम्न प्रकार से प्रस्तुत ही है यह मात्र बाधाओं का अभाव है। लेकिन इस किया गया है। मोक्षावस्था में समस्त कर्मों का क्षय हो प्रकार अष्ट कर्मों के प्रहाण के आधार पर मुक्तात्मा के
र पर मुक्तात्मा के जाने से मुक्तात्मा में समस्त कर्म जन्य उपाधियों का आठ गुणों की व्याख्या का मात्र एक व्यवहारिक संक- भी अभाव होता है अतः मूक्तात्मा न दीर्घ है, न ह्वस्व ल्पना ही है। उसके वास्तविक स्वरूप का निर्वचन नहीं है. न वृताकार है, न त्रिकोण है न चतुष्कोण हैं, न है । व्यवहारिक दृष्टि से उसे समझने का प्रयास मात्र परिमण्डल संस्थान वाला है। वह कृष्ण, नील, पीत, है इसका मात्र व्यवहारिक मूल्य है। वस्तुतः तो बह रक्त और श्वेतवर्ण वाला भी नहीं है, वह सुगन्ध और अनिर्वचनीय है। आचार्य नेमीचन्द्र गोम्मटसार में दर्गन्धवाला भी नहीं है। न वह तीक्ष्ण कटक, खट्टा, मोठा स्पष्ट रूप से कहते हैं, सिद्धों के इन गुणों का विधान एवं अम्ल रस वाला है। उसमें गुरू, लघु, कामल, मात्र सिद्धात्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में जो एकान्तिक कठोर. स्निग्ध कक्ष, शीत एवं उष्ण आदि स्पर्श गुणों मान्यताएं हैं उनके निषेध के लिए है।। मुक्तात्मा में का भी अभाव है। वह न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुसक केवल ज्ञान और केवल दर्शन के रूप में ज्ञानोपयोग है। इस प्रकार मुक्तात्मा में रूप, रस, वण, गन्ध आर और दर्शनोपयोग को स्वीकार करके मुक्तात्मा को जड़ स्पर्श. भी नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द नियमसार में
8. कुछ विद्वानों ने अगुरूलघुत्व का अर्थ न हल्का न भारी ऐसा भी किया है। 9. प्रवचनसारोद्धार द्वार २७६, गाथा १५६३-१५६४ 10. सदासिव सखो मक्कडि बुद्धौ याइयो य वेसेसी।
ईसर मंडलि दंसण विदूसणठें कयं एदं ॥ -गोम्मटसार (नेमिचन्द्र) 11. से नदीहे, न हस्से, न वटे, न तंसे, न चउरसे, न परिमंडले, न किण्हे, न नीले,न लोहिए, न हालिद्दे,
न सुकिल्ले, न सुरभिगन्धे, न दुरभिगन्धे, न तित्ते, न कड्रए, न कसाए, न अंबिले, न मेहरे, न कक्खड़े, न मउए, न गुरूए, न लहुए, न सीए, न उण्हे, न निद्ध. न लुक्खे, न काऊ, न रूहे, न संगे, न इत्थी, न पुरिसे, न अन्नहा,-से न सद्दे, न रूवे, न गंधे, न रसे, न फासे । आचारांगसूत्र ११५।६
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मोक्षदशा का निषेधात्मक चित्रण प्रस्तुत करते हुए अर्थात् वह वाणी, विचार और बुद्धि का विषय नहीं है। लिखते है मोक्षदशा में न सुख है न दुःख है, न पीला किसी भी उपमा के द्वारा भी उसे नहीं समझाया ज है, न बाधा है, न जन्म है, न मरण है। न वहां सकता, है क्योंकि उसे कोई उपमा नहीं दी जा सकती, इन्द्रियां है, न उपसर्ग है, न मोह है, न व्यामोह है, न वह अनुपम है, अरूपी सत्ताधान है। उस अपद का निद्रा है; न वहा चिन्ता है, न आर्त और रौद्र विचार कोई पद नहीं है अर्थात् ऐसा कोई शब्द नहीं है जिसके ही, वहाँ तो धर्म (शुभ) और शुक्ल (प्रशस्त) विचारों द्वारा उसका निरूपण किया जा सके। उसके बारे का भी अभाव है12 | मोक्षावस्था तो सर्व संकल्पों का में केवल इतना ही कहा जा सकता है, वह अरूप, अरस अभाव है, वह बुद्धि और विचार का विषय नहीं है वह अवर्ण, अगंध और अस्पर्श है क्योंकि वह इन्द्रिय ग्राह्य पक्षातिक्रांत है। इस प्रकार मुक्तावस्था का निषेधात्मक नहीं है। विवेचन उसकी अनिर्वचनीयता को बताने के लिए है।
गीता में मोक्ष का स्वरूपमोक्ष का अनिर्वचनीय स्वरूप
गीता की समग्र साधना का लक्ष्य परमतत्व, ब्रह्म मोक्षतत्व का निषेधात्मक निर्वचन अनिवार्य रूप अक्षर पुरुष अथवा पुरुषोत्तम की प्राप्ति कहा जा सकता से हमें उसकी अनिर्वचनीयता की और ही ले जाता है। है। गीताकार प्रसंगान्तर से उसे ही मोक्ष निर्वाणपद, पारमार्थिक दृष्टि से विचार करते हए जैन दार्शनिकों ने अव्यय पद, परमपद, परमगति और परमधाम भी उसे अनिर्वचनीय ही माना है।
कहता है। जैन एवं बौद्ध विचारणा के समान गीता
कार की दृष्टि में भी संसार पुनरागमन या जन्म मरण आचारांग सूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है की प्रक्रिया से युक्त है जबकि मोक्ष पुनरागमन या समस्त स्वर वहां से लौट आते हैं, अर्थात् मुक्तात्मा जन्म मरण का अभाव है। गीता का साधक इसी ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की प्रवृति का विषय नहीं प्रेरणा को लेकर आगे बढ़ता है (जरामरणमोक्षाय है, वाणी उसका निर्वचन करने में कदापि समर्थ नहीं 7.29) और कहता है, "जिसको प्राप्त कर लेने पर है। वहां वाणी मूक हो जाती, तर्क की वहां तक पहुँच पुनः संसार में नहीं लौटना होता है उस परम पद की नहीं है, बुद्धि (मति) उसे ग्रहण करने में असमर्थ है, गवैषणा करना चाहिए'"1" | गीता का ईश्वर भी साधक
12. णवि दःखं णवि सुक्खं णवि पीडाणेवविज्जदे बाहा ।
णवि मरणं णवि जणणं तत्थेव य होई णिव्वाणं ।। णिव इंदिय उवसग्गा णिव मोहो विम्हियो ण णिद्दाय ।
ण य तिण्हा व छुहा तत्थेव हवदि णिव्वाणं ॥ --नियमसार १७८-१७६ 13. सब्वे सरा नियट्ठति, तक्क जत्थ न विज्जइ, मई तत्थ न गहिया ओए अप्पइट्ठाणस्स खयन्न
-उवम्प न विज्जए अरूवी सत्ता अपयस्स पयं नत्थि। -आचारांग १।५।६।१७१ तुलना कीजिएयतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह-तैत्तरीय शह
न चक्षुषा गृह्यते नाऽपि वाचा -मुण्डक ३।१।८ 14. ततः पदं तत्परिमागितव्य, यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः । --गीता १५।४
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को आश्वस्त करते हुए यही कहता है कि "जिसे प्राप्त ब्रह्म परमतत्व, स्वभाव (आत्मा की स्वभाव दशा) कर लेने पर पुनः संसार में आना नहीं होता, वही और आध्यात्म भी कहा जाता है । गीता की दृष्टि में मेरा परमधाम (स्वस्थान) है।" परमसिद्धि को प्राप्त मोक्ष निर्वाण है परमशान्ति का अधिस्थान है। । जैन हुए महात्माजन मेरे को प्राप्त होकर दुःखों के घर इस दार्शनिकों के समान गीता भी यह स्वीकार करती है कि अस्थिर पुर्नजन्म को प्राप्त नहीं होते हैं। ब्रह्मलोक मोक्ष सुखावस्था है। गीता के अनुसार मुक्तात्मा ब्रह्मभूत पर्यन्त समन जगत पुनरावृति युक्त है । लेकिन जो भी होकर अत्यन्त सुख (अनन्त सौख्य) का अनुभव करता मुझे प्राप्त कर लेता है उसका पुर्नजन्म नहीं होता। है1 । यद्यपि गीता एवं जैन दर्शन में मुक्तात्मा में जिस "मोक्ष के अनावृत्ति रूप लक्षण को बताने के साथ ही सुख की कल्पना की गई है वह न ऐन्द्रिय सुख है न वह मोक्ष के स्वरूप का निर्वचन करते हुए गीता कहती है मात्र दु:खाभाव रूप सुख है। वरन् वह अतीन्द्रिय "इस अव्यक्त से भी परे अन्य सनातन अव्यक्त तत्व हैं, ज्ञानगम्य अनश्वर सुख है। जो सभी प्राणियों में रहते हुए भी उनके नष्ट होने पर नष्ट नहीं होता है अर्थात् चेतना पर्यायों में जो अव्यक्त बौद्ध दर्शन में निर्वाण का स्वरूपहै उनसे भी परे उनका आधार भूत आत्मतत्व है। भगवान बुद्ध की दृष्टि में निर्वाण का स्वरूप क्या चेतना की अवस्थाएँ नश्वर है, लेकिन उनसे परे रहने है? यह प्रश्न प्रारम्भ से विवाद का विषय रहा है। वाला यह आत्मतत्व सनातन है जो प्राणियों में चेतना स्वयं बौद्ध दर्शन के आवन्तर सम्प्रदायों में भी निर्वाण (ज्ञान) पर्यायों के रूप में अभिव्यक्त होते हुए भी उन के स्वरूप को लेकर आत्यन्ति विरोध पाया जाता है। प्राणियों तथा उनकी चेतना पर्यायों (चेतन अवस्थाओं) आधुनिक विद्वानों ने भी इस सम्बन्ध में परस्पर विरोधी के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता है। उसी आत्मा निष्कर्ष निकाले हैं जो एक तुलनात्मक अर्ध्यता को को अक्षर और अव्यक्त कहा गया है, और उसे ही अधिक कठिनाई में डाल देते हैं। वस्तुतः इस कठिनाई परमगति भी कहते हैं वही परमधाम भी है वही मेरा का मूल कारण पालि निकाय में निर्वाण का विभिन्न परमात्म स्वरूप आत्मा का निज स्थान है, जिसे प्राप्त दृष्टियों से अलग-अलग प्रकार से विवेचन किया जाना कर लेने पर पुनः निवर्तन नहीं होता। उसे अक्षर है। आदरणीय श्री पुसें एयं प्रोफेसर नलिनाक्ष दत्त
15. (अ) यंप्राप्य न निर्वतन्ते तध्दाम परमं मम । -गीता ८।२१
(ब) यंगत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम। -गीता १५४६ (स) मामुपेत्य पुर्नजन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।
____ नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धि परमां गताः । -गीता ८।१५ 16. गीता-८।२०-२१ 17. अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्मुच्यते । -गीता ८।३ 18. शान्तिं निर्वाणपरमं । -गीता ६.१५ 19. सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शभत्यन्तं सुखमश्नुते । -गीता ६।२८ 20. सुखमात्यन्तिकं यताद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । -गीता ६।२१ 21. इनसाइक्लोपेडिया आफ इथिक्स एण्ड रिलीजन 22. आस्पेक्टस ऑफ महायान इन रिलेशन ट्रहीनयान
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ने बौद्ध निर्वाण के सम्बन्ध में विद्वानों के दृष्टिकोणों धर्म है। प्रोफेसर शरवात्स्की ने वैभाषिक निर्वाण को निम्न रूप से वर्गीकृत किया है।
की अनन्त मृत्यु कहा है । उनके अनुसार
निर्वाण आध्यात्मिक अवस्था नहीं वरन् चेतना एवं (1) निर्वाण एक अभावात्मक तथ्य है । क्रिया शून्य जड़ अवस्था है। लेकिन समादरणीय (2) निर्वाण अनिवर्चनीय अव्यक्त अवस्था है।
एस. के. मुकर्जी, प्रोफेसर नलिनाक्ष दत्त और प्रोफेसर
मूर्ति ने प्रोफेसर शारवात्स के इस दृष्टिकोण का (3) निर्वाण की बुद्ध ने कोई व्याख्या नहीं दी है।
विरोध किया है। इन विद्वानों के अनुसार वैभाषिक (4) निर्वाण भावात्मक विशुद्ध पूर्ण चेतना की निर्वाण निश्चित रूप के एक भावात्मक अवस्था है। अवस्था है।
जिसमें यद्यपि संस्कारों का अभाव होता लेकिन फिर
भी उसकी असंस्कृत धर्म के रूप में भावात्मक सत्ता बौद्ध दर्शन के आवन्तर प्रमुख सम्प्रदायों का होती है। वैभाषिक निर्वाण में चेतना का अस्तित्व होता निर्वाण के स्वरूप के सम्बन्ध में निम्न प्रकार से दृष्टि है या नहीं है ? यह प्रश्न भी विवादास्पद है, भेद हैं
शरवात्सकी निर्वाण दशा में चेतना का अभाव मानते
हैं लेकिन प्रोफेसर मुकर्जी। इस सम्बन्ध में एक (1) वैभाषिक सम्प्रदाय के अनुसार निर्वाण परिष्कारित दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं, उनके अनुसार संस्कारों या संस्कृत धर्मों का अभाव है क्योंकि संस्कृत यशोमित्र की अभिधर्मकोष की टीका के आधार पर धर्मता ही अनित्यता है, यही बन्धन है, यही दुःख है, निर्वाण की दशा में विशुद्ध मानस या चेतना रहती है। लेकिन निर्वाण तो दु:ख निरोध है, बन्धनाभाव है और इसलिए वह एक असंस्कृत धर्म है और असंस्कृत धर्म के डा. लाड ने अपने शोध प्रबन्ध में एवं विद्वत्वर्य रूप में उसकी भावात्मक सत्ता है। वैभाषिक मत के बलदेव उपाध्याय ने बौद्ध दर्शन मीमांसा में वैभाषिक निर्वाण के स्वरूप को अभिधर्म कोष व्याख्या में निम्न बौद्धों के एक तिव्वतीय उप सम्प्रदाय का उल्लेख किया प्रकार से बताया गया है "निर्वाण नित्थ असंस्कृत है। जिसके अनुसार निर्वाण की अवस्था में केवल स्वतन्त्र सत्ता, पृथक-भूत, सत्य पदार्थ (द्रव्यसत) है" | वासनात्मक एवं वलेशोत्पादक (सास्त्रव) चेतना का ही निर्वाण में संस्कार या पर्यायों का अभाव होता है लेकिन अभाव होता है। इसका तात्पर्य यह है कि निर्वाण की यहां संस्कारों के अभाव का अर्थ अनसित्व नहीं है, दिशा में अनास्त्रव विशुद्ध चेतना का अस्तित्व बना वरन् एक भावात्मक अवस्था ही है। निर्वाण असंस्कृत रहता है। वैभाषिकों के इस उप सम्प्रदाय का यह
23. द्रव्यं सत् प्रतिसंख्या निरोधः सत्यचतुष्टय-निर्देश-निद्धिष्टत्वात मार्ग सत्येव इति वैभाषिका: ।
-यशोमित्र-अभिधर्म कोष व्याख्या, पृ. १७ । 24. बुद्धिस्ट निर्वाण, पृ. २७ 25. आस्पेक्ट्स ऑफ महायान इन रिलेशन टु हीनयान, पृ. १६२ 26. सेंट्रल फिलासफी आफ बुद्धिज्म, पृ. २७२-७३ 27. बुद्धिस्ट फिलासफी आप युनिवर्सल फ्लक्स पृ. २५२ 28. ए कम्परेटिव स्टेडी ऑफ दी कानसेप्ट आफ लिबरेशन इन इंडियन फिलासफी, पृ. ६६
(ब) बौद्ध दर्शन मीमांसा प. १४७
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दृष्टिकोण जैन विचारणा के निर्वाण के अति समीप आ के बौद्ध निर्वाण को अभावात्मक एवं अनस्तित्व के रूप जाता है । क्योंकि यह जैन विचारणा के समान निर्वा- में देखते हैं। निर्वाण के भावात्मक, अभावात्मक और णावस्था में सत्ता (अस्तित्व) और चेतना (ज्ञानोपयोग अनिर्वचनीय पक्षों की दृष्टि से विचार करने पर ऐसा एवं दर्शनोपयोग) दोनों को स्वीकार करता है । वैभाष्कि प्रतीत होता है कि सौत्रान्तिक विचारणा निर्वाण के दृष्टिकोण निर्वाण को संस्कारों की दृटि से अभावात्मक, अभावात्मक पक्ष पर अधिक बल देती है। यद्यपि इस द्रव्य सत्यता की दृष्टि से भावात्मक एवं बौद्धिक विवे- प्रकार सौत्रान्तिक सम्प्रदाय का निर्वाण अभावात्मक चना की दृष्टि से अनिर्वचनीय मानता है, फिर भी दृष्टिकोण जैन विचारणा के विरोध में जाता है। लेकिन उसकी व्याख्याओं में निर्वाण का भावात्मक या सत्तात्मक सौत्रान्तिकों में भी एक ऐसा उपसम्प्रदाय था, जिसके पक्ष अधिक उभरा है। सौत्रान्तिक सम्प्रदाय वैभाषिक अनुसार निर्वाण पूर्णतया अभावात्मक दशा नहीं था। सम्प्रदाय के समान यह मानते हुए भी कि निर्वाण उनके अनुसार निर्वाण अवस्था में भी विशुद्ध चेतना संस्कारों का अभाव है, वह स्वीकार नहीं करता है कि पर्यायों का प्रवाह निर्वाण की अवस्था में रहता है। असंस्कृत धर्म की कोई भावात्मक सत्ता होती हैं । इनके यह दृष्टिकोण जैन विचारणा की इस मान्यता के निकट अनुसार केवल परिवर्तनशीलता ही तत्व का यथार्थ ___आता है, जिसके अनुसार निर्वाण की अवस्था में भी स्वरूप है । अतः सौत्रान्तिक निर्वाण की दशा में किसी आत्मा में परिणामीपन बना रहता है अर्थात् मोक्ष दशा असंस्कृत अपरिवर्तनशील नित्य तत्व की सत्ता को में आत्मा में चैतन्य ज्ञान धारा सतत रूप से प्रवाहित स्वीकार नहीं करते । उनकी मान्यता में ऐसा करना होती रहती है। बुद्ध के अनित्यवाद और क्षणिकवाद की अवहेलना करना है । शरवात्स्की के अनुसार सौत्रान्तिक सम्प्रदाय (3) विज्ञानवाद (योगाचार)-महायान के प्रमुख में निर्वाण का अर्थ है जीवन की प्रक्रिया समाप्त हो ग्रंथ लंकावतारसूत्र के अनुसार निर्वाण सप्त प्रवृति जाना जिसके पश्चात् ऐसा कोई जीवन शून्य तत्व शेष विज्ञानों की अप्रवृतावस्था है; चित्त प्रवृत्तियों का निरोध नहीं रहता है, जिसमें जीवन की प्रक्रिया समाप्त हो है।29 स्थिरमति के अनुसार निर्वाण क्लेशावरण और गई है" । निर्वाण क्षणिक चेतना प्रवाह का समाप्त हो ज्ञेयावरण का क्षय है।३० असंग के अनुसार निवृत चित्त जाना है, जिसके समाप्त हो जाने पर कुछ भी अवशेष (निर्वाण) उचित है क्योंकि वह विषयों का ग्राहक नहीं नहीं रहता। क्योंकि इनके अनुसार परिवर्तन ही सत्य है। वह अनुपलम्म है क्योंकि उसको कोई बाह्य आलहै । परिवर्तनशीलता के अतिरिक्त तत्व की कोई म्बन नहीं है और इस प्रकार आलम्बन रहित होने से स्वतंत्र सत्ता नहीं है। और निर्वाण दशा में परिवर्तनों लोकोत्तर ज्ञान है। दौष्ठूल्य अर्थात आवरण (क्लेशाकी शृखला समाप्त हो जाती है, अतः उसके परे कोई वरण और ज्ञेयावरण) के नष्ट हो जाने से निवृत चित्त सत्ता शेष नहीं रहती है। इस प्रकार सौत्रान्तिक निर्माण आलयविज्ञान) परावृत नहीं होता प्रवृत नहीं होता । मात्र अभावात्मक अवस्था है वर्तमान में वर्मा और लंका वह अनावरण और आस्त्रवधातू है, लेकिन असंग केवल
29. लंकावतार सूत्र--२१६२ 30. क्लेशज्ञेयावरण प्रहाणमपि मोक्ष सर्वज्ञत्वाघिगमार्थम । -स्थिरमति त्रिशिको को वि. भा. पृ. १५ 31. अचित्तोऽनुपलम्भो सो ज्ञानं लोकोत्तरं चतत । आश्रयस्यपरावृतिद्विघादौष्ठुल्य हानितः ।
--त्रिशिका २६
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इस निषेधात्मक विवेचन से सन्तुष्ट नहीं होते, वे निर्वाण आलय विज्ञान को अपरिवर्तनीय या कूटस्थ माना है।83 की अनिर्वचनीय एवं भावात्मक व्याख्या भी लेकिन आदरणीय बलदेव उपाध्याय उसे प्रवाहमान प्रस्तुत करते हैं । निर्वाण अचिन्त्य है क्योंकि तर्क से या परिवर्तनशील ही मानते हैं।4 (4) निर्वाणावस्था उसे जाना नहीं जा सकता लेकिन अचिन्त्य होते हुए भी सर्वज्ञता की अवस्था है। जैन विचारणा के अनुसार वह कुशल है, शाश्वत है, सुख रूप है, विमुक्तकाय है, उस अवस्था में केवल ज्ञान और केवल दर्शन है । असंग
और धर्माख्य है। इस प्रकार विज्ञानवादी मान्यता में ने महायान सूत्रालंकार में धर्मकाय को, जो कि निर्वाण निर्वाण की अभाव परक और भावपरक व्याख्याओं के की पर्यायवाची है, स्वाभाविक काय कहा है 135 जैन साथ-साथ उनकी अनिर्वचनीयता को भी स्वीकार किया विचारणा भी मोक्ष को स्वभाव दशा कहा जाता है। गया है वस्तुत: निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप के विकास स्वाभाविक काय और स्वभाव दशा अनेक अर्थों में अर्थका श्रेय विज्ञानवाद और शून्यवाद को ही है। लंका- साम्य रखते हैं। वतार सूत्र में निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप का सर्वोच्च विकास देखा जा सकता है। लंकावतार सूत्र के अनु- (4) शून्यवाद-बौद्ध दर्शन के माध्यमिक सम्प्रसार निर्वाण विचार की कोटियों से परे है लेकिन फिर दाय में निर्वाण के अनिवर्चनीय स्वरूप का सर्वाधिक भी विज्ञानवाद निर्वाण को इस आधार पर नित्य विकास हुआ है। जैन तथा अन्य दार्शनिकों ने शून्यता माना जा सकता है कि निर्वाण लाभ से ज्ञान उत्पन्न । का अभावात्मक अर्थ ग्रहण कर माध्यमिक निर्वाण को होता है।
अभावात्मक रूप में देखा है, लेकिन यह उस सम्प्रदाय
के दृष्टिकोण को समझने में सबसे बड़ी भ्रान्ति ही कही तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर विज्ञानवादी जा सकती है । माध्यमिक दृष्टि से निर्वाण अनिवर्चनीय निर्वाण का जैन विचारणा से निम्न अर्थों में साम्य है। है, चतुष्कोटि विनिमुक्त है, वही परमतत्व है। वह न (1) निर्वाण चेतना का अभाव नहीं हैं, वरन् विशुद्ध भाव है, न अभाव है। यदि वाणी से उसका निर्वचन चेतना की अवस्था है। (2) निर्वाण समस्त संकल्पों करना ही आवश्यक हो तो मात्र यह कहा जा सकता का क्षय है, वह चेतना की निर्विकल्पावस्था है। (3) है कि निर्वाण अप्रहाण, असम्प्राप्त अनुच्छेद अशाश्वत, निर्वाणावस्था में भी चैतन्य धारा सतत प्रवाहमान रहती अनिरुद्ध, अनुत्पन्न है । निर्वाण को भाव रूप इसलिए है (आत्मपरिणमीपन) यद्यपि डा. चन्द्रधर शर्मा ने नहीं माना जा सकता है कि भावात्मक वस्तु या तो
32. स एवानास्त्रवो धातुरचिन्त्यः कुशलो ध्र वः । -त्रिशिका 30 33. देखिये-A critical survey of Indian Philosophy-ty C. D. Sharma 34. बौद्ध दर्शन मीमांसा 35. महायान सूत्रालंकार ६।६० (महायान-शान्तिभिक्षु पृष्ठ ७३) 36. भावाभाव परामर्शक्षयो निर्वाणं उच्यते । -माध्यमिककारिका वृति पृष्ठ ५२४
[उद्धृत दी सेंट्रल फिलासफी आफ बुद्धीज्म (टी. आर. व्ही. मुर्ती) पृष्ठ २७४] 37. अप्रहीणम सम्प्राप्तमनुच्छिन्नमशाश्वतम् ।
अनिरूद्धमनुत्पन्नमेतन्निर्वाण मुच्यते ॥ -माध्यमिक कारिका वृति पृ. ५२१
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नित्य होगी या अनित्य । नित्य मानने पर निर्वाण के लिए किये प्रयासों का कोई अर्थ नहीं होगा । अनित्य मानने पर बिना प्रयास ही मोक्ष होगा। निर्वाण को अभाव भी नहीं कहा जा सकता, अन्यथा तथागत के द्वारा उसकी प्राप्ति का उपदेश क्यों दिया जाता । निर्वाण को प्रहाण और सम्प्राप्त भी नहीं कहा जा सकता, अन्यथा निर्वाण कृतक एवं कालिक होगा और यह मानना पड़ेगा । वह काल विशेष में उत्पन्न हुआ और यदि वह उत्पन्न हुआ तो वह जरामरण के समान अनित्य ही होगा । निर्वाण को उच्छेद या शाश्वत भी नहीं कहा जा सकता अन्यथा शास्ता के मध्यम मार्ग का उल्लंघन होगा और हम उच्छेदवाद या शाश्वतवाद की मिथ्या दृष्टि से ग्रसित होंगे। इसलिए माध्यमिक नय में निर्वाण भाव और अभाव दोनों नहीं हैं । वह तो सर्व संकल्पनाओं का क्षय है, प्रपंचोपशमता है ।
।
बौद्धदार्शनिकों एवं वर्तमान युग के विद्वानों में बौद्ध दर्शन में निर्वाण के स्वरूप को लेकर जो मतभेद दृष्टिगत होता है उसका मूल कारण बुद्ध द्वारा निर्वाण का विविध दृष्टिकोणों के आधार पर विविध रूप से कथन किया जाना है। पाली- निकाय में निर्वाण के इन विविध स्वरूपों का विवेचन उपलब्ध होता है । उदान नामक एक लघु ग्रन्थ में ही निर्वाण के इन विविधरूपों को देखा जा सकता है
(निर्वाण ) अजात अभूत, अकृत, असंस्कृत है। भिक्षुओं यदि वह अजात, अभूत, अकृत, असंस्कृत नहीं होता तो जात, भूत, कृत और संस्कृत का व्युपशम नहीं हो सकता । भिक्षुओं क्योंकि वह अजात, अभूत, अकृत और असंस्कृत है इसलिए जात भूत, कृत और संस्कृत
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का व्युपशम जाना जाता है"। धम्मपद में निर्वाण को परम सुख अच्युत स्थान अमृत पद " कहा गया है जिसे प्राप्त कर लेने पर न च्युति का भय होता । है, न शोक होता है । उसे शान्त ससांरोपशम एवं सुख पद भी कहा गया है" । इति वृत्तक में कहा गया वह ध्रुव, न उत्पन्न होने वाला, शोक और राग रहित है, सभी दुःखों का वहा निरोध हो जाता है, वहां संस्कारों की शान्ति एवं सुख है" । आचार्य बुद्ध घोष निर्वाण की भावात्मकता का समर्थन करते हुए विशुद्धिमा लिखते हैं - निर्वाण नहीं है, ऐसा नहीं कहना चाहिए । प्रभव और जरामरण के अभाव से नित्य है -- अशिथिल, पराक्रम सिद्ध, विशेष ज्ञान से प्राप्त किए जाने से और सर्वज्ञ के वचन तथा परमार्थ से निर्वाण अविधमान नहीं है ।
निर्वाण की अभावात्मकता निर्वाण की अभा वात्मकता के सम्बन्ध में उदान के रूप में निम्न बुद्ध वचन है, "लोहे पर धन की चोट पड़ने पर जो चिन गारियां उठती है सो तुरन्त ही बुझ जाती है-कहां गई कुछ पता नहीं चलता। इसी प्रकार काम बन्धन से मुक्त हो निर्वाण पाए हुए पुरुष की गति का कोई इस सन्दर्भ में बुद्ध वचन इस प्रकार है "भिक्षुओं भी पता नहीं लगा सकता 44 |
निर्वाण एक भावात्मक तथ्य है
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38. उदान ८ । ३ पृ. ११० १११ ( ऐसा ही वर्णन इतिवृत्तक २२६ में भी है )
39. धम्मपद २०३, २०४ ( निव्वाणं परम सु)
40. अमतं सन्ति निव्वाण पदमत्वृतं - सुत्तनिपात पारायण वग्ग
41 पद सन्त सखारूपसमं सखधम्मपद ३६८
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42. इत्तिवृत्तक २२६
43. विशुद्धि मग्ग (परिच्छेद १६ ) भाग २, पृ. १९१६-१२१ ( हिन्दी अनुवाद - भिक्षुधर्म रक्षि ) 44. उदान पाटलिग्राम वर्ग ८।१०
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शरीर छोड़ दिया, संज्ञा निरुद्ध हो गई,
उसका लक्षण स्वरूपतः नहीं बताया जा सकता किन्तु सारी वेदनाओं को भी बिलकूल जला दिया। गुणतः दृष्टान्त के रूप में कहा जासकता है कि जिस प्रकार संस्कार शान्त होगए; विज्ञान अस्त हो गया।
जल प्यास को शान्त करता है, निर्वाण त्रिविध तृष्णा को शान्त करता है। निर्वाण को अकृत कहने से भी
उसकी एकान्त अभावत्मकता सिद्ध नहीं होती । आर्य लेकिन दीप शिखा और अग्नि के बूझ जाने अथवा
(साधक) निर्वाण का उत्पाद नहीं करता फिर भी वह संज्ञा के निरुद्ध हो जाने का अर्थ अभाव नहीं माना जा
उसका साक्षात्कार (साक्षीकरोति) एवं प्रतिलाभ सकता, आचार्य बुद्धघोष विशुद्धिमग्ग में कहते हैं निरोध
(प्राप्नोति) करता है । वस्तुतः निर्माण को अभावात्मक का वास्तविक अर्थ तृष्णाक्षय अथवा विराग है ।
रूप में इसीलिए कहा जाता है कि अनिर्वचनीय का प्रोफेसर कीथ एवं प्रोफेसर नलिनाक्षदत्त अग्गि वच्छ
निर्वचन करना भावात्मक भाषा की अपेक्षा अभावात्मक गोत्तमुत्त के आधार पर यह सिद्ध करते हैं कि बुझ जाने
भाषा अधिक युक्तिपूर्ण होती है। का अर्थ अभावात्मकता नहीं है, वरन अस्तित्व की रहस्यमय, अवर्णणीय अवस्था है। प्रोफेसर कीथ के
निर्वाण की अनिर्वचनीयता--निर्वाण की अनिर्वचअनसार निर्वाण अभाव नहीं वरन् चेतना का अपने मूल नीयता के सम्बन्ध में निम्न बुद्ध वचन उपलब्ध है--
शुद्ध) स्वरूप में अवस्थित होना है। प्रोफसर "भिक्षओ; न तो मैं उसे अगति और न गति कहता हूँ, निलनाक्षदत्त के शब्दों में निर्वाण की अग्नि शिखा के न स्थिति और न च्यति कहता है. उसे उत्पत्ति भी बझ जाने से, की जाने वाली तुलना समुचित है, क्योंकि नहीं कहता हूँ। वह न तो कहीं ठहरा है, न प्रवर्तित भारतीय चिन्तन में आग के बुझ जाने से तात्पर्य उसके होता है और न उसका कोई आधार है यही दुःखों का अनस्त्तित्व से न होकर उसका स्वभाविक शुद्ध अदृश्य अन्त है । भिक्षुओ ! अनन्त का समझना कठिन है, अव्यक्त अवस्था में चला जाना है, जिसमें की वह अपने निर्वाण का समझना आसान नहीं । ज्ञानी की तृष्णा दृश्य प्रगटन के पूर्व रही हई थी। बौद्ध दार्शनिक नष्ट हो जाती है उसे (रागादिक्लेश) कुछ नहीं है । संघभद्र का भी यही निरूपण है कि अग्नि की उपमा जहाँ (निर्वाण) जल, पृथ्वी, अग्नि और वायु नहीं ठहरती, से हमको यह कहने का अधिकार नहीं है कि निर्वाण वहाँ न तो शुक्र और न आदित्य प्रकाश करते है । वहाँ अभाव है। मिलिन्द प्रश्न के अनुसार भी निर्वाण चन्द्रमा की प्रभा भी नहीं है, न वहाँ अंधकार ही होता अस्ति धर्म (अस्थिधम्म) एकान्त सुख एवं अप्रतिभाग है है । जब क्षीणाश्रव भिक्षु अपने आपको जान लेता है
45. उदान ८१६ 46. विशुद्धिमग्ग, परिच्छेद ८ एवं १६ 47. बौद्ध धर्म दर्शन, पृ. २६४ पर उदघृत 48. उदान ८१ 49. मुल पाली में, यहाँ पाठान्तर है--तीन पाठ मिलते है १. अनत्तं २. अनत ३. अनन्तं । हमने यहाँ
"अनन्त' शब्द का अर्थ ग्रहण किया है । आदरणीय काश्यपजी ने अनत (अनात्म) पाठ को अधिक उप.
युक्त माना है लेकिन अट्ठकथा में दोनों ही अर्थ लिए गए हैं। 50. उदान ८।३
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तब रूप-अरूप तथा सुख-दुःख से छूट जाता है। उदान का अभाव है। लेकिन जिस प्रकार रोग का अभाव, का यह वचन हमें गीता के उस कथन की याद दिला अभाव होते हए भी सद्भुत है, उसे आरोग्य कहते हैं देता है, जहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं जहाँ न पवन बहता है, उसी प्रकार तृष्णा का अभाव भी सद्भूत है उसे सुख न चन्द्र सूर्य प्रकाशित होते हैं, जहाँ जाने पर पुन: इस कहा जाता है। दूसरे उसे अभाव इसलिए भी कहा संसार में आया नहीं जाता वही मेरा (आत्मा का) परम जाता है कि साधक में शाश्वतवाद की मिथ्या दृष्टि भी धाम (स्वस्थान) है।
उत्पन्न नहीं हो । राग का प्रहाण होने से निर्वाण में मैं बोद्ध निर्वाण की यह विशद विवेचना में हम (अत्त) और मेरापन (अत्ता) नहीं होता इस दृष्टिकोण निष्कर्ष पर ले जाती है कि प्रारम्भिक बौद्ध दर्शन का
के आधार पर उसे अभाव कहा जाता है। निर्वाण राग निर्वाण अभावात्मक तथ्य नहीं था। इसके लिए निम्न
का अहं का पूर्ण विगलन है। लेकिन अहं या ममत्व तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं :
की समाप्ति को अभाव नहीं कहा जा सकता । निर्वाण
की अभावात्मक कल्पना 'अनत' शब्द का गलत अर्थ (1) निर्वाण यदि अभाव मात्र होता तो वह ततीय समझने से उत्पन्न हई है। बौद्ध दर्शन में अनात्म आर्य सत्य कैसे होता? क्योंकि अभाव आर्यचित का (अनत्त) शब्द आत्म (तत्व) का अभाव नहीं बताता आलम्बन नहीं हो सकता ।
वरन् यह बताता है कि जगत में अपना या मेरा कोई
नहीं है, अनात्म का उपदेश असक्ति के प्रहाण के लिए, (2) तृतीय आर्य सत्य का विषय द्रव्य सत नहीं
तृष्णा के क्षय के लिए है, निर्वाण 'तत्व' का अभाव है तो उसके उपदेश का क्या मूल्य होगा ?
नहीं वरन् अपनेपन या अहं का अभाव है। वह (3) यदि निर्वाण मात्र निरोध या अभाव है तो
वैयक्तिकता का अभाव है, व्यक्तित्व का नहीं। उच्छेद दृष्टि सम्यक दृष्टि होगी लेकिन बुद्ध ने तो सदैव
अनत्त (अनात्म) वाद की पूर्णता यह बताने में है कि ही उच्छेद दृष्टि को मिथ्या दृष्टि कहा है।
जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे मेरा या अपना
कहा जा सके । सभी अनात्म है। इस शिक्षा का सच्चा (4) महावान की धर्म काय की धारणा और अर्थ यही है कि मेरा कुछ भी नहीं है। क्योंकि जहाँ
ता तथा विज्ञानवाद के मेरापन (अत्त भाव) आता है वहाँ राग एवं तृष्णा का आलय विज्ञान की धारणा निर्वाण की अभावात्मक उदय होता है। स्व पर में अवस्थित होता है, आत्म व्याख्या के विपरीत पड़ते हैं। अतः निर्वाण का तात्विक दृष्टि (ममत्व) उत्पन्न होती है । लेकिन यही आत्म स्वरूप अभाव सिद्ध नहीं होता है। उसे अभाव या निरोध दृष्टि स्व का पर में अवस्थित होना अथवा राग एव कहने का तात्पर्य यही है कि उसमें वासना या तृष्णा तृष्णा की वृत्ति बन्धन है, जो तृष्णा है, वही राग है;
51. यस्थ आपो न पठवी तेजो वायो न गाधति ।
न तत्थ सुक्का जोवन्ति आदिच्चो न प्पकासति ।। म तस्थ चन्दिमा भाति तमो तत्थ न विज्जति । उदान १११० तुलना कीजिए-न तम्दासयते सूर्यों न शशांको न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।। गीता १५६
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ग है वही अपनापन है। निर्वाण में तृष्णा का भाषा उसका यथार्थ चित्र प्रस्तुत करने में समर्थ नहीं क्षय होने से राग नहीं होता, राग नहीं होने से अपना है क्योंकि भाव किसी पक्ष को बताता है और पक्ष के पन (अत्ता) भी नहीं होता । बौद्ध निर्वाण की अभावा- लिए प्रतिपक्ष की स्वीकृति अनिवार्य है जबकि निर्वाण त्मकता का सही अर्थ इस अपनेपन का अभाव है वह तो पक्षातिक्रांत है। निषेधमूलक कथन की यह विशेषता तत्व अभाव नहीं है। वस्तुतः तत्व लक्षण की दृष्टि से होती है कि उसके लिए किसी प्रतिपक्ष की स्वीकृति निर्वाण एक भावात्मक अवस्था है। मात्र वासनात्मक को आवश्यक नहीं बढ़ा सकता । अतः अनिर्वचनीय का पर्यायों के अभाव के कारण ही वह अभाव कहा जाता निर्वचन करने में निषेधात्मक भाषा का प्रयोग ही अधिक है। अतः प्रोफेसर कीथ और नलिनाक्षदत्त की यह समीचीन है। इस निषेधात्मक विबेचनाशली ने निर्वाण मान्यता कि बौद्ध निर्वाण अभाव नहीं है, बौद्ध विचारणा की अभावात्मक कल्पना को अधिक प्रबल बनाया है। की मूल विचारदृष्टि के निकट ही है। यद्यपि बौद्ध वस्तुतः निर्वाण अनिर्वचनीय है। निर्वाण एक भावात्मक तथ्य है फिर भी भावात्मक
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जैन पुरातत्व एवं कला
मधुसूदन नरहरि देशपान्डे
जब हम प्राचीन भारतीय स्थापत्य-शिल्प और चित्र- रहती है, लेकिन इस शैली के ऐसे परिवर्तन में आशय, कला के विकास का विहंगावलोकन करते हैं तब हमें एक प्रेरणा और प्राणतत्व की दृष्टि से मूलभूत परिवर्तन कमी विशिष्टता प्रतीत होती है कि इन कलाओं के विकास होता ही नहीं । अपितु परिवर्तन के स्वरूप में परिवर्धन, का एक अखण्ड और शक्तिशाली प्रवाह रहा है। जो संशोधन और संवर्धन होता है। इसीलिए मारतीय लोग ऐसा समझते हैं कि बौद्ध, हिन्दू और जैन धर्मा- कला के प्रांगण में आशय, प्रेरणा और प्राणधिष्ठित कला का पृथक-पृथक् प्रवाह रहा है; वास्तव में तत्व की दृष्टि से सर्वत्र एकरूपता ही दृष्टिगोचर होती उनको भारतीय संस्कृति का मर्म ही ज्ञात नहीं है, ऐसा है। ऐसे कला-प्रवाह में अलग-अलग स्रोत की कल्पना कहना पड़ेगा। भारतीय कला के विकास में धार्मिक करना, वैसा ही हास्यास्पद होगा, जैसा कि त्रिवेणी स्थलों को सौन्दर्य पूर्ण विकास करने की भावना, मूति- प्रवाह से गंगा, यमुना और सरस्वती के स्रोतों को पूजा और तदनुसंगिक धर्माचरण में प्रेरणादायक होती अलग करना। भारतीय संस्कृति के गर्भ से पैदा हुए है। राजा हो या धनिक दाता हो या सामान्य मानव आचार, विचार और संस्कारित हुए कलात्मक मानहो, हर एक ने अपनी-अपनी रुचि के अनुरूप भारतीय बिन्दु, जब तत्कालीन कला माध्यम से अपना रूप संस्कृति के कला भण्डारों से अद्भुत एवं सुन्दर रत्न धारण करते हैं तब उनमें पृथकत्व देखना भारतीय निकाले हैं। और अपनी-अपनी निष्ठा और श्रद्धा के कला संस्कृति की महती परंपरा पर अन्याय करने के अनुरूप कलात्मक वस्तु या वास्तु का निर्माण किया समान है। है; उन सभी का मूल्यांकन और रसास्वादन भी भारतीय कला के आविष्कार के रूप में ही होना चाहिए। हर एक जैसा कि ईसा पूर्व तीन शताब्दि से मथुरा नगरी शैली में कम या अधिक वैशिष्ट्य जरूर होता है परन्तु बौद्ध, हिन्दू और जैन कला का मायका माना जाता भारतीय कला के पुष्पहार में धर्मनिष्ठ पृथकत्व की है। परन्तु वहाँ की कला “भारतीय कला" इसी नाम कल्पना करना सर्वथा अयोग्य और अनुचित है। वैसे से जानी पहचानी जाती है। वहाँ उक्त तीनों धर्म देखा जाय तो शैली भी कालानुरूप परिवर्तित होती प्रचलित थे। अपने-अपने धर्म के अनुयायी अहमहमिका
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की भावना से स्तूप, मूर्ति, भवन और प्रासाद निर्माण संस्कृत भाषा को त्याग करके उन्होंने अहिंसा और करने लगे। हर-एक के पीछे जो आशय और रचना त्यागमय नैतिक जीवनयुक्त तत्वज्ञान का उपदेश का ढंग था, उसके पीछे थोड़ी-सी भिन्न (अलग) प्रेरणा लोकभाषा में दिया। इतना ही नहीं उन्होंने मोक्ष का थी परंतु कलामूल्य और कला माध्यम की दृष्टि से उन द्वार जनसाधारण के लिए खोल दिया। यज्ञ कांड सब में एक विलक्षण साम्य प्रतीत होता है। गुप्त प्रचुर ब्राह्मणी वर्चस्व और जातिनिष्ठ परंपरा से कालोत्तर बनाए हुए जैन और हिन्दू मन्दिर स्थापत्य जनता को निकालकर मुक्ति का एक प्रशस्त मार्ग और कला की दृष्टि से अलग नहीं हैं। विषय अलग दिखाया । उन्होंने ब्राह्मण की व्याख्या ही बदल हो सकते हैं लेकिन उनका कलात्मक रूप सम्पूर्ण डालीएकात्मक एवं भारतीय है। इस पार्श्वभूमि में भारतीय कला में जैनों का योगदान क्या रहा है ? इसका
न हि मुडिए समणो, न ओंकारेणे बम्भणो ।
न मणी रणवासेण, कसचीरेण, न तावसो।। सामान्य परिचय इस संक्षिप्त लेख में दिया जा रहा है। परंतु इससे पहले जैन धर्म के उद्गम और विकास
समयाए समणो होई, बम्भचारेण बम्भणो :
नाणेण च मुणी होई, तवेण होइ तावसो॥ पर दृष्टिपात करना उपयुक्त होगा।
(उत्तराध्ययनसूत्र) श्री वर्द्धमान महावीर स्वामी जैनों के चौबीसवें तीर्थकर माने जाते हैं। इस वर्ष हम उनके महानिर्वाण
___ अर्थात् मुडन करने से कोई श्रमण नहीं होता, की 25 वीं शताब्दी मना रहे हैं । उनसे पहले
ओंकार का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, परंपरा के अनुसार 23 तीर्थकर हो चुके थे। उनमें
अरण्यवास करने से कोई मुनि नहीं होता और कुशवस्त्र से तेईसवें तीर्थ कर पार्श्वनाथ थे, जो महावीर स्वामी
पहनने से कोई तपस्वी नहीं होता। अपितु समभाव से के महानिर्वाण से 250 वर्ष पूर्व हो चुके थे। ऐसे
श्रमण; ब्रह्मचर्य पालन करने से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि विश्वसनीय प्रमाण मिलते हैं कि वे एक श्रेष्ठ ऐति
और तप से तपस्वी होता है। हासिक पुरुष थे। उन्होंने "चाउज्जाम धम्म” (चार व्रतों का धर्म) प्रतिपादित किया। उसी को "पंच भगवान महावीर लोकाभिमुख नेतृत्व से सामान्य सिख्खिओ" (पंच महाव्रतयुक्त) बनाकर महावीर जी ने जनों को तर्कप्रधान विचार करने में बडी सहायता पुनः प्रतिपादित किया ऐसा उल्लेख उत्तराध्ययन सूत्र मिली। इस प्रकार ईसा पूर्व 6वीं शताब्दी में लगाया में मिलता है। "चाउज्जमों या जो धम्मो, जो इमो गया नव विचार और नवधर्म का नन्हा-सा पौधा अब पच सिक्खिओ । देसिओ बद्धमाणेण पासेण य महामुनी" महावक्ष बन गया है और उसके पुष्पपरिमल से आसेतु यह चतुर्याम धर्म है, जिसका प्रतिपादन महामुनि हिमाचल पर्यन्त की भारत भूमि सुगन्धित हो गयी है। पार्श्वनाथ ने किया था और यह पंचशिखा युक्त धर्म है जिसका प्रतिपादन वर्द्धमान महावीर जी ने किया। प्राकृत (अर्ध-मागधी भाषा) में रचित आगम भगवान महावीरजी की सबसे बड़ी विशेषता यह थी साहित्य, श्वेताम्बर और दिगम्बर जैन साहित्य, कि उन्होंने इस धर्म का उपदेश लोक भाषा में किया, महाराष्ट्री अपभ्रंश में और संस्कृत भाषा के अन्तर्गत "सव्वाणुगामिणीए सक्कर मधुराए भाषाए" अर्थात् विविध टीका साहित्य पैतृक दैन के रूप में भारत की सबको सहजरूप से समझ में आनेवाली शर्करा के सब भाषाओं को प्राप्त हुआ है। इस साहित्य सम्पदा समान मधुर भाषा का सहारा लिया। उच्च वर्ग की का परीक्षण भारतीय संस्कृति के विकास के सभी
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स्त्रोतों पर प्रकाश डालता है, जैसे साहित्य, स्थापत्य, कला, तत्वज्ञान, सामाजिक जीवन, धर्माचरण और भारतीय भाषाओं का क्रमिक विकास इत्यादि । इस धर्म के विकास में चेदि कलिंग नृपति खारवेल से कुषाण, गुप्त, चालुक्य, राष्ट्रकूट, चोल, पांड्य, गंग, परमार, चन्देल, यादव, होयसल, विजयनगर आदि अनेक राजवंश नृपतियों और घनिक श्रेष्ठियों तथा श्रावकश्राविकाओं का उल्लेखनीय योगदान रहा है । इतना ही नहीं मुगल सम्राट अकबर के विचारों पर भी जैन मत का प्रभाव पड़ा था । महात्मा गांधीजी की विचारधारा पर भी जैन धर्म और आचार का गहरा प्रभाव दिखाई पड़ता है ।
प्राचीन भारत में इस धर्म की नींव समण (श्रमण ) नाम से संबंधित किये जानेवाले और एक स्थान से दूसरे स्थान पर अखंड परिभ्रमण करनेवाले अत्यन्त कठिन व्रतधारी साधुओं ने डाली थी । श्रमणों की एक बहुत प्राचीन परंपरा है। प्राचीन जैन और बौद्ध बाङमय में ऐसे श्रमण समुदायों का उल्लेख मिलता है: -
"संबहुला नानातिथ्थिया नाना दिठिका नाना रुचिका, नानादिठिनिस्सर्थानस्सिता, "
अर्थात् " बहुत बड़ी संख्या में अनेक गुरुओं को माननेवाले, विविध आचार-विचार, विविध योग, प्रवृति के विविध रुचिवाले और विविध दार्शनिक विचारधारा में विश्वास करने वाले ऐसे विविध सम्प्रदाय वाले भारतसमाज की पार्श्वभूमि पर बुद्ध और महाबीर दीपस्तम्भ जैसे दिखाई देते हैं। उन्होंने दीर्घ और गहरा विचार मंथन करके अपनी स्वतन्त्र अनुभूति से नवीन धर्म की नींव डाली । बौद्ध धर्म को माध्यम मार्ग ( मज्जिमा पटिपदा) के रूप में हम सब जानते हैं । जैन मत में उम्र तपस्या अभिप्रेत है। परन्तु ऐसे कठोर तपस्या मार्गी पंथ ने भी कला के
क्षेत्र में अत्यन्त महत्व का कार्य किया है, यह एक बड़ा विरोधाभास है । लेकिन वस्तुस्थिति ऐसी है कि एक तरफ श्रमणों ने अपने जीवन में असिधारा जैसे व्रती जीवन का आदर्श सँभाला और साथ ही साथ साहित्य और कलाप्रेमी श्रावक-श्राविकाओं ने अपने स्वाभाविक कला प्रेम से इस धर्म के तत्वज्ञान के साथ-साथ सुसंगत कला साधना भी आरम्भ की। जैन धर्मावलम्बी धनिक श्रेष्ठियों ने स्थापत्य कला में अग्रगण्य माने जाने वाले जिन - देवालय बनाये और भारतीय स्थापत्य कला को समृद्ध बनाया । भगवान महावीर जी की प्रमुख कार्यभूमि बिहार राज्य थी । उनका जन्म वैशाली के निकट कुंडलपुर ग्राम में हुआ था और केवल ज्ञान की प्राप्ति के उपरांत महावीर जी ने मगध देश की राजधानी राजगृह में अंगदेश की राजधानी चम्पा में, विदेह के अन्तर्गत मिथिला में तथा श्रावस्ती में अपने वर्षावास व्यतीत किए ।
जैन कला का पहला आविष्कार
जैन मूर्तिकला का पहला आविष्कार यथार्थ रूप से हमको बिहार में दिखाई देता है। पटना संग्रहालय में रखी एक मस्तकहीन दिगम्बर तीर्थंकर प्रतिमा, जो लोहानीपुर से प्राप्त हुई थी, मौर्य मूर्तिशिल्प की तरह चमकदार पालिशयुक्त है। बिहार में बक्सर के निकट चौसा ग्राम में पाई गई एक शताब्दी ईसा पूर्व की, कुषाणकालीन ऋषभ व पार्श्वनाथ की कांस्य प्रतिमाएँ जैन धातु शिल्प में अत्यन्त प्राचीन मानी जाती हैं । ये दोनों प्रतिमाएँ पटना संग्रहालय में सुरक्षित हैं ।
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कलिंग, सौराष्ट्र और महाराष्ट्र की प्राचीन जैन गुफाएँ
मौर्य वर्चस्व के पश्चात् कलिंग देश के चेदि नृपति खारवेल ने ईसा पूर्व की दूसरी शताब्दी में जैन धर्मी श्रमणों के लिए कलात्मक गुफा -समूह उत्कीर्ण करके
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राणी गुम्फा का सुविख्यात दुमंजिला शैलगृह, उदयगिरि (ईसा पूर्व, २-री शताब्दी)
राणी गुम्फा में उत्कीर्ण शिल्पपट्ट उदयगिरी (ईसा पूर्व, २-री शताब्दी)
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एक अप्रतिम कला आदर्श प्रस्तुत किया। ये गूफा समूह सौराष्ट्र में जूनागढ़ के निकट और भावनगर के भुवनेश्वर नगर के निकट खंडगिरि और उदयगिरि पास तलाजा में जैन गुफा समुह क्षत्रपों के काल में नामक पहाड़ों में स्थित हैं। उदयगिरि पहाड़ पर हाथी उत्कीणित माना जाता है। उपरकोट की गुफा में स्थित नामक गुफा में खारवेल का एक सुप्रसिद्ध शिलालेख है, स्तम्भ शीर्ष विशेष रूप से उल्लेखनीय है । जिसका प्रारम्भ ही “नमो अरिहंताणं नमो सबसिधान" अर्थात् अर्हत् और सिद्ध के नमस्कार से ही हुआ है। महाराष्ट्र में सहयाद्रि पर्वत माला पर ईसा पूर्व खारवेल की अग्रमहिषी ने स्वप्नपुरी के लेख में लिखा दूसरी शताब्दी से लेकर 6वीं और 7वीं शताब्दियों है-"अरहंत पसादाय कलिंगन समनानं लेणसिरि तक के शैल मन्दिर पाये जाते हैं । जिसमें अजन्ता, खारवेलस अगम महिसिन कारियाम'। उदयगिरि स्थित एलौरा कारला, भाजा, पितरखोरा, एलीफैन्टा आदि राणी गुम्फा और गणेश गुम्फा नाम से सुविख्यात दुमंजिले बौद्ध और हिंदू, गुफाएं सुविख्यात हैं। हाल ही में शिलागृहों में सुन्दर शिल्पपट उत्कीर्ण किये गये हैं। पूना के पास कारला और भाजा बौद्ध गुफाओं के पास इनका विषय पार्श्वनाथ के जीवन से सम्बद्ध प्रसंगों से पालेगाँव की एक गुफा में ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी का होगा, ऐसा कई विद्वानों का मत है। ये सुन्दर शिलापट शिलालेख मिला है। “नमो अरहंताणं' से यह लेख शैली की दृष्टि से भाजा और भरहुत शिल्पकला के आरम्भ किया गया है । यह प्राचीन गुफा जैन साधुओं समान दिखाई देते हैं। खंडगिरि गुफा समूह में आठवीं के निवास के लिए सातवाहन राजाओं के वर्चस्व काल और नवमीं शताब्दी में उत्कीर्ण कई जिन-प्रतिमाएँ में बनाई गई होगी, ऐसी सम्भावना है। उपलब्ध हुई हैं।
पालेगांव (पूना) की गुफा में प्राप्त नवीन शिलालेख
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मथुरा नगरी और जैन कला
शिलापट्ट पर लोणशोधिका नाम की वैश्या की पुत्री मथुरा एक कलानगरी के रूप में प्राचीन भारत
वसु द्वारा अरहत देवकुल को दान देने का उल्लेख है । में अनेक शताब्दियों तक विख्यात रही है। कुषाण
इस पट्ट पर एक स्तूप व सोपानयुक्त तोरण और और गुप्तकाल में कलावंतों ने इस नगरी को देवालयों,
प्रदक्षिणापथ बहुत ही कलात्मक ढ़ग से चित्रित किया अर्हत आयतनों, स्तप और मतियों से सुशोभित किया। गया ह । कुषाणकाल
गया है। कुषाणकालीन पार्श्वनाथ की मूर्ति, जो मथुरा यहाँ की शिल्प शालाओं में बनाई हुई लाल रंग संग्रहालय में सुरक्षित है, एक उत्कृष्ट कुषाणकालीन की प्रस्तर मूर्तियाँ सारनाथ, बौधगया आदि शिल्पकला का नमूना मानी जाती है । महावीरजी की स्थानों पर भेजी जाती थीं । मथुरा में कंकाली जन्मकथा से संबन्धित हरिण-गमेशी की मूर्तियाँ भी टीला नामक एक प्राचीन स्थान है । ऐसा अनुमान
मिली हैं। गए तीन साल से कंकाली टीले पर पुन: लगाया जाता है कि इस टीले के स्थान पर ईसा पूर्व उत्खनन कार्य हो रहा है। इसके फलस्वरूप यहाँ एक द्वितीय शताब्दी में एक जैन बस्ती रही होगी। वर्तमान अतीव सुन्दर पक्की ईटों की बनी कूषाणकालीन शताब्दी के आरम्भ में यहाँ पर खदाई करने पर पुष्करिणी मिली है । इसमें एक खंडित प्रतिमा जो कुषाणकालीन आयागपट्ट मिला, जिस पर अष्टमंगल लेखांकित है, प्राप्त हुई है। एक विशेष उल्लेखनीय सहित मध्यवर्ती जिन प्रतिमा उत्कीर्ण है । दूसरे एक लेख की उपलब्धि, जो इस पूष्करिणी से हुई है, उसमें
आयागपट्र पर मंगल चिन्ह सहित मध्यवर्ती जिन प्रतिमा (मथुरा से प्राप्त) दूसरी शताब्दी
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मथुरा से प्राप्त दूसरा आयागपट्ट सोपानयुक्त तोरण और प्रदक्षिणापथ सहित
कुषाणकालीन स्तूप (मथुरा म्यूजियम) कनिष्क प्रथम के पंचम वर्ष में विशाखमित्रा द्वारा गुप्तकालीन जैन कला किये दान का उल्लेख, कदाचित इसी पुष्करिणी से सम्बन्धित है । दूसरी भी कई सुन्दर जैन प्रतिमायें स गुप्तकाल में हिन्दू मन्दिरों का प्राथमिक स्वरूप प्राप्त हुई हैं।
निश्चित होने लगा था। मध्यप्रदेश में सांची, देवगढ,
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नाचना कुथारा, तिगोवा आदि स्थलों पर हिन्दू मंदिरों अकोटा (प्राचीन अंकोटक) नामक स्थान गुजरात का निर्माण हो रहा था । देवगढ़ के पास अनेक जैन में बड़ौदा के निकट है । यहाँ 1949 में डा. यू. पी. देवालय और उनके अवशेष मौजूद हैं । उनका काल शाह के प्रयत्नों से एक अद्वितीय 68 जैन धातु मूर्तियों गुप्तकालोत्तर 8 या 9वीं शताब्दी का बताया का संग्रह प्रकाश में आया। यहाँ पर अंकोटक-वसति जाता है। यहाँ के अनेक शिल्पों पर गुप्तकाल का नाम का जैन मंदिर रहा होगा । इस संग्रह की कांस्य प्रभाव दिखाई देता है । देवगढ, ललितपूर, चंदेरी, मतियों पर गूप्तशिल्प कला का प्रभाव दिखाई देता चाँदपुर, आदि स्थलों पर सहस्त्रों की संख्या में जैन है। ऋषभनाथ की कायोत्सर्ग प्रतिमा और जीवन्त प्रतिमाओं का निर्माण किया गया और तत्कालीन स्वामी की प्रतिमा के ऊपर गुप्तकाल का सौन्दर्य यथार्थ मंदिरों में उनकी प्रतिष्ठापना की गई। इस प्रदेश रूप से दिखाई देता है। यहाँ 7, 8, 9, 10वीं शताब्दी में गुप्तकालीन जैन मंदिर मिलने की संभावना की कांस्य प्रतिमाएँ भी पाई गई हैं, जो बड़ौदा के है। विदिशा से दो जिन प्रतिमाओं पर रामगुप्त संग्रहालय में सुरक्षित हैं । यह मूर्ति संग्रह बड़ौदा का उल्लेख मिला है इसी उपलब्धि पर मेरा यह अनु- संग्रहालय का अलंकार माना जाता है। मान है कि गुप्तकाल में भी जैन देवालय मध्यप्रदेश में बने होंगे।
ऐलोरा स्थित जैन गुफा प्रांगण में एकाश्य मंदिर ( 9वीं,-10वीं शताब्दी)
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एलौरा को जैन गुफाएं
में लगभग 6वीं शताब्दी से एक अखंडित कला साधना
का स्त्रोत दिखाई देता है । जहाँ हिन्दु गुफाएँ समाप्त चालुक्य और राष्ट्रकूट आधिपत्य में भी महान होती हैं वहाँ से ही जैन गफा
होती हैं वहाँ से ही जैन गुफाओं का आरम्भ होता हैजैन-शैल-गृह कर्नाटक में बनाये गये हैं । सातवीं शताब्दी छोटा कैलास, जगन्नाथ सभा और इन्द्र सभा जैनों की प्रमुख में बदामी और ऐहोली में चालूक्यकालीन जैन गुफाएँ
गुफाएँ हैं । इन जैन गुफाओं का काल 9 और 10वीं और राष्ट्रकूटकालीन एलौरा की गुफाएँ अपनी शताब्दी का माना जाता है और ये गुफाएँ जैनमत प्रेमी विशेषता रखती हैं। बदामी और ऐहोली गुफाओं में राष्ट्रकूट नृपति गोविन्द और अमोधवर्ष के शासनकाल पार्श्वनाथ और बाहुबली के शिल्पपट उत्कीर्ण हैं। में खोदी गई। इनमें पार्श्वनाथ और बाहुबली की मूर्ति एलोरा की गुफाओं में स्थापत्य, शिल्प और चित्रकारी का शिल्पपट बहुत ही प्रेक्षणीय है । पार्श्वनाथ पर का मनोहर त्रिवेणी संगम दृष्टिगोचर होता है। एलोरा कमठ का किया गया आक्रमण और धरणेन्द्र यक्ष द्वारा
किया गया संरक्षण बहुत ही आकर्षक है। इस शिल्पपट्ट को देखकर बुद्ध पर मार द्वारा किये आक्रमण की याद आ जाती है जिसको अजंता की चित्रकला और शिल्पकला पटों पर सून्दर ढंग से दिखाया गया है। यहाँ की यक्ष-यक्षिणी की मूर्तियाँ भी प्रेक्षणीय हैं। एलोरा की जैन गुफाओं के भित्ति चित्रों का भारतीय कला में प्रमुख स्थान माना जाता है। जैन गुफाओं की छतों और भित्तियों पर जो शेष चित्रपटल हैं, वे अजता और मध्ययुगी ताडपत्रीय और हस्तलिखित चित्रकला की श्रृखला की एक कड़ी मानी गई हैं। इन्ही भित्ति चित्रों में भारतीय चित्रकला का अखंड विकास समझ में आता है।
पश्चिम भारतीय जैन हस्तलिखित ग्रन्थ जिसमें कई चित्र अंकित हैं, गुजरात के पाटन वोर खंभात में
और राजस्थान के जैसलमेर के ज्ञान भण्डार में उपलब्ध हैं। इन ग्रन्थ के संरक्षण के लिए, जो लकड़ी के पटल ऊपर और नीचे रखे जाते थे, वे भी सुन्दर चित्रों से अलंकृत हैं। यह चित्र सम्पदा 12 वीं और 16 वीं शताब्दी के बीच की है। इन चित्र पटलों पर चित्र प्रदर्शनों में नाट्यपूर्ण गतिमानता के साथ-साथ चित्र अंकित किये गये हैं।
सुपार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा (बादामी की गुफा)
गुफा क्र. 4 (7वीं शताब्दी)
कर्नाटक में जैन कला वास्तु
कर्नाटक में जैन धर्म का प्रचार अति प्राचीन है। मौर्यकाल में उत्तरी भारत में जब भीषण अकाल पड़ा
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था, उससे बचने के लिए भद्रबाह मुनि के नेतृत्व में कई कर्नाटक ही नहीं अपितु समस्त भारतवर्ष का अत्यन्त श्रमण दक्षिण की ओर चले गये । भद्रबाहु मुनि ने अनूठा भव्य शिल्प जिसको कहा जा सकता है वह है श्रमण-वेल-गोल के निकट कर्नाटक राज्य में चन्द्रगिरी गोमेटेश्वर को श्रावण बेलगोल स्थित शैल प्रतिमा, यह नामक पर्वत पर तपस्या करते हुए देह त्याग किया। एकाश्य शिल्प राछमल्ल सत्यवाक गगराजा के काल में ऐहोली में मेगुती का जैन मंदिर 644 ई० में चालुक्य उसके मत्री चामण्डय राय ने बनवाया था। इस प्रचण्ड नरेश द्वितीय पुलकेशी के काल में बनाया गया है। मति का समय 983 ई. माना जाता है। कर्नाटक में
गोमदेश्वर (वाहुबलि) स्वामी की एकाश्य शैल प्रतिमा, श्रवण बेलगोला, (कर्नाटक),983 ईस्वी
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चालुक्य-आधिपत्य के उत्तर काल में अनेक जैन मन्दिरों गुजरात-एक महत्वपूर्ण जैन कला केन्द्र का निर्माण हुआ। लकगुडी, जिला धारवाड़ में बारहवीं शताब्दी का पार्श्वनाथ का मन्दिर है । इस मन्दिर
___ गुजरात में जैन धर्म का प्रभाव बहुत ही गहरा
और प्राचीन है। तलाजा और गिरनार का उल्लेख तो में तथा अन्य मन्दिरों में अनेक सुन्दर जिन प्रतिमाएँ हैं । बेलगाँव में कमल बस्ती नाम का एक जैन मन्दिर
मैंने पहले ही किया है इसके बाद बल्लभी या बल्लभीहै। इस देवालय की छतों की कला सौन्दर्य बहुत ही
पुर एक प्रसिद्ध जैन केन्द्र रहा था। महावीर के निर्वाण प्रेषणीय है । कानरा जिले के भटकल गांव में और
के पश्चात् लगभग 980 वर्ष के उपरान्त यहाँ देवधिमंगलौर के पास मुडबिनद्री स्थलों पर जैन मंदिरों की
गणी क्षमा-श्रमण के नेतत्व में एक जैनमूनि सम्मेलन ऐसी विशिष्ट रचना है जिसे देखकर नेपाली स्थापत्य
हुआ था, जिसमें श्वेताम्बर जैन आगम का संकलन का आभास होता है। भटकल के मन्दिर के सामने एक
किया गया । श्वेताम्बर परम्परा इन आगम ग्रन्थों को ऊँचा स्तम्भ है जिन पर तीर्थ करों की चहमख प्रतिमाएँ।
प्रमाणभूत मानती है । बल्लभी में जैन बस्ती के अवशेष उत्कीर्ण हैं।
और कांस्य प्रतिमाएँ मिली हैं।
तामिल देश में जैन प्रभाव
गुजरात में चालुक्यों के अभिपत्य काल में कुमारतामिलनाडु राज्य के पदकोटाई जिले में कई
पाल राजा ने तारंगा में अजितनाथ का मंदिर प्राचीन जन गुफाऐं मिली हैं । इन गुफाओं में जैन
बनवाया, जो एक प्रसिद्ध जैन तीर्थ है, यह जिला मुनियों के लिए पत्थरों पर तराशी हुई शय्याएँ मिलती
मेहसाना में सिद्धपुर के निकट है । सौराष्ट्र में गिरनार हैं और यहां पाये गये ब्राह्मणी लेख ईसा पूर्व पहली
पर्वत पर और शत्रुजय पहाड़ी पर अनेक जैन मंदिर शताब्दी के हैं। तामिलनाडु में और दूसरे जैन स्था त्य
स्थित हैं । ये दोनों स्थान महत्वपूर्ण जैन-तीर्थ माने कला के केन्द्र स्थान हैं किन्तु इनमें उल्लेखनीय हैं
जाते है। गिरनार में नेमिनाथ के भव्यमन्दिर का सित्तन्नवासल की जैन गुफा में अजन्ता शैली के 7 वीं
जीर्णोद्धार 1278 ई. में किया गया था। शत्रुजय शताब्दी के भित्ति चित्र सुरक्षित हैं। दूसरा महत्वपूर्ण
पर्वत पर; जिसको पालिताना भी कहते हैं, ग्यारह स्थल कांचीपुरम, जिसे जिन-कांची भी करते हैं। प्राकारों के बीच 500 जैन मन्दिर हैं । इनमें से 640 ई. में हयूएन त्संग ने लिखा है कि कांची में कुछ तो 11 वीं शताब्दी के हैं । परन्तु बहुत से मन्दिर जैनों की एक बड़ी बस्ती थी। कांचीपुरम की इस बस्ती 16 वीं शताब्दी के बाद के हैं । 1618 ई. में यहाँ को तिरुपति कुण्डम् भी कहते हैं। यहाँ चोल राजाओं एक 3
एक सुन्दर शिखर युक्त दो मंजिला मन्दिर अहमदाबाद के आधिपत्य काल में चन्द्रप्रभ-वर्धमान स्वामी और
के एक श्रेष्ठी ने बनवाया । इस मन्दिर के स्तम्भ त्रिकूट बस्ती नाम के जैन मन्दिरों का परिवर्धन किया ।
शीर्ष पर नर्तक और वादक वन्द उत्कीर्ण हैं । यहाँ गया। यहाँ संगीत मंडप नाम का एक भाग विजया
19 वीं शताब्दी में भी अहमदाबाद के एक नगर नगर राजाओं के आधिपत्य में चित्रांकित किया गया।
थेष्ठी ने एक मन्दिर बनवाया था जिसने पांच तीर्थों
का मानचित्र भी उत्कीर्ण कराया था। इस मंडप और मुखमंडल की छतों पर महावीर स्वामी के समवरण के प्रसंग चित्रित किए गये हैं इनके साथ अलाकिक आबू ही ऋषभदेव और नेमिनाथ आदि तीर्थकरों के जीवन राजस्थान के आबू पर्वत के अत्यन्त प्रसंग चित्रित किये गये हैं और हर एक प्रसंग के नीचे सरम्य स्थल पर चार प्रमुख देवालय हैं । उचित लेख भी है।
इनमें विमलशा और तेजपाल ने क्रमशः 1032 ई.
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और 1232 ई. में शुभ संगमरमर के मन्दिर बनवाये मीटर ऊँचा मानस्तम्भ स्थापत्य कला का उत्कृष्ट जो अपने विलक्षण सौन्दर्य से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर नमना है, इस स्तम्भ पर आदिनाथ और अन्य तीर्थ - देते हैं। यहाँ का उत्कीर्ण कलाकौशल बहुत ही कोमल करों की प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं । जोधपुर जिले में और बारीकी का है। ऐसा लगता है कि शुभ्र पाषाण को तराश कर निर्माण किया गया है । यह जनथ ति प्रचलित है कि हथौड़ा और छैनियों से पत्थर को काटा नहीं गया अपितु छोटे औजारों द्वारा तराशने से निकले हुए चूर्ण की माप के अनुसार कारीगरों को मजदूरी दी जाती थी। इसके मंडप की छत पर उत्फुल्ल कलाकृति का अकन और अप्सराओं का मूर्ति शिल्प देखकर ऐसा लगता है कि इतना कोमल और कलापूर्ण काम कैसे किया गया होगा। कलापूर्ण चातुर्य के चरमोत्कर्ष की अनुभति इस मन्दिर के दृष्टिगोचर से होती है ।
मध्यप्रदेश में खजुराहो के चन्देल राजाओं ने जो मन्दिर बनवाये हैं उनमें एक जैन मन्दिर समूह भी है। इसमें से पार्श्वनाथ मन्दिर चन्देल नपति धंग की प्रेरणा से एक जैन श्रावक ने 955 ई. में बनवाया था । इसकी रचना खजुराहो के मन्दिर से थोड़ी अलग है परन्तु इसका वास्तु कौशल और शिल्प सौन्दर्य अत्यन्त मनोहारी है । भारतीय शिल्प कला का परमोत्कर्ष यहां के मूर्ति शिल्प में परिलक्षित होता है। राजस्थान में और कई जैन स्थापत्य के केन्द्र हैं। जिनमें से 3 या 4 का उल्लेख करना अनिवार्य है । 1439 ई. में राणकपुर का 26 मंडप और 420 स्तम्भ युक्त आदिनाथ का च मुख मन्दिर स्थापत्य कला का उत्कृष्ट नमूना है । गर्भगृह चतु मुखी है और प्रत्येक दिशा में प्रांगण युक्त चार मंदिर हैं, जिनकी रचना अत्यन्त कौशल पूर्ण है । प्राकार में 86 लघु देव कुलिकाएँ है । इतना सब होते हुए भी प्रकाश योजना ऐसी है कि मन्दिर का प्रत्येक कोना प्रकाशित रहता है, जिससे उसके कलापूर्ण स्तम्भों और छतों की नक्काशी के काम को मन भर के देखा जा सके। चित्तौड किले पर स्थित चैत्यालय के सामने का 25
अम्बिका (सरस्वती) की कलात्मक संगमरमर प्रतिमा
(पल्लूगांव-राजस्थान से प्राप्त)
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ओसिया नाम के ग्राम में एक प्रेक्षणीय महावीर मन्दिर को अधिक प्रभावित करती हैं । मध्ययुगीन जैन धर्म है। इस मन्दिर के स्तम्भों की नक्काशी बहुत सुन्दर शिल्पकला का सर्वोत्कृष्ट नमूना मानने योग्य राजस्थान है यह मन्दिर गुर्जर प्रतिहार नरेश वत्सराज (770- के पल्लू ग्राम से प्राप्त सरस्वती की मूर्ति है जो दिल्ली 840) के समय का है परन्तु इसका सभा मंडल 10 के राष्ट्रीय संग्रहालय में संग्रहीत है। यह मूर्ति भारतीय वीं शताब्दी में सन् 926 का है। जैसलमेर में 15 वीं कला को प्रदान की गई अमोल भेंट है। यथायोग्य रूप, शताब्दी के जैन मन्दिर हैं। जब भारत वर्ष के उत्तरी भेद प्रमाण बद्धता और लावण्य का सुयोग्य मिश्रण प्रदेशों में मन्दिर स्थापत्य निर्माण समाप्त हो गया था इस मूर्ति में दिखाई देता है। तब यहाँ एक कलात्मक जैन मन्दिर समह का निर्माण हुआ।
जैन कला सम्पदा का मैंने विहंगमावलोकन ही
किया है इनके अतिरिक्त अनेक वस्तु और वास्तु हैं । गुफाओं और शैल मन्दिरों की निमिति में लगभग जिनका मैंने उल्लेख ही नहीं किया । इन चीजों का अंतिम प्रयोग ग्वालियर के दुर्ग के परिसर में हआ। अध्ययन विद्या प्रेमी विद्वानों को करना चाहिए । मेरी यहाँ की गुफा में उत्कीर्ण विशाल जिन प्रतिमाएं तोमर आशा है कि 2500 वां भगवान महावीर निर्वाण राजा डूंगर सिंह और कीति सिंह के जमाने में बनाई महोत्सव के निमित्त से इस सुन्दर विषय की अनेक गई । इन प्रतिमाओं के सौन्दर्य से उनकी भव्यता दर्शकों छटाऐं प्रकाश में आयगी।
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जैन मूर्तिशास्त्र
(मध्यप्रदेश की जैन मूर्तिकला के सन्दर्भ में)
भारतीय स्थापत्य या भवन निर्माण कला का परंपरा विकसित हुई । उड़ीसा के भुवनेश्वर के समीप कई ऐतिहासिक विवेचन करने से ज्ञात होता है कि जैन बडी गुफाएँ पत्थर की चट्टानों को काटकर बनायी गयीं। देवालयों का निर्माण मौर्य-शासनकाल में होने लगा था। वहाँ खण्डगिरि तथा उदयगिरि नामक जैन गुफाऐं बहुत बिहार में गया के समीप बराबर नामक पर्वत गफाओं में प्रसिद्ध हैं। तीसरी गुफा का नाम हाथीगफा है। उसमें कई शिलालेख मिले हैं। उनसे ज्ञात हआ है कि मौर्य कलिग के जैन शासक खारवेल का एक शिलालेख खदा सम्राट अशोक ने आजीविक नामक एक संप्रदाय के हुआ है । लेख से ज्ञात हुआ है कि ईसवी पूर्ब चौथी सन्यासियों के निवास के लिए पहाड़ की चट्टानों को शती में मगध के राजा महापद्मनन्द तीर्थ कर की एक काटकर शैल-गहों का निर्माण कराया। उसके वंशज मूति कलिंग से अपनी राजधानी पाटिलपत्र उठा ले गए दशरथ नामक शासक ने भी इस कार्य को आगे
थे। खारवेल ईसवी पूर्व दूसरी शती के मध्य में उस बढाया। आजीविक संप्रदाय के प्रारंभकर्ता आचार्य को प्रतिमा को मगध से अपने राज्य में लौटा लाए और तीर्थकर महावीर का समकालीन माना जाता है। उसे उन्होंने अपने मुख्य नगर में प्रतिष्ठापित किया । बराबर की पहाड़ी से कुछ दूर नागार्जुनी नामक पहाड़ी है। वहाँ भी मौर्यकाल में साधूओं के निवास के लिए कई
प्रो० कृष्णदत्त बाजपेयी शैल-गृह बनवाए गए। भारतीय साहित्य में पर्णशालाओं के उल्लेख मिलते हैं। भूमि में मोटी लकड़ी इस शिलालेख से पता चलता है कि तीर्थ कर मतियों के बडे टुकड़ों को गाडकर उन पर पत्ते छा दिए जाते का निर्माण नन्दराज महापद्मनन्द के कुछ पहले प्रारम्भ थे । इस प्रकार पत्ते की कुटियाँ या पर्णशालाएँ बनायी हो चुका था। जैन साहित्यिक अनुश्र ति से भी पता जाती थीं । उन्हीं के ढंग पर शैल-गृहों का निर्माण चलता है कि चन्दन की तीर्थ कर मूर्तियाँ भगवान किया गया। जैन साधुओं के लिए शैल-गृह बनाने के महावीर के समय से या उनके निर्वाण के पश्चात ही कई उदाहरण तामिलनाडु में भी मिले हैं।
बनने ली थी।
ईसवी पूर्व दूसरी और पहली शती में उड़ीसा तथा पश्चिमी भारत में पर्वतों को काटकर देवालय बनाने की
उत्तर भारत में जैन कला के जितने केन्द्र थे उनमें मथुरा का स्थान महत्वपूर्ण है । ईसवी पूर्व दूसरी शती
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से लेकर ईसवी बारहवीं शती तक के दीर्घकाल में मथुरा भूमि पर पत्थर और ईटों द्वारा किया जाता था। में जैन धर्म का विकास होता रहा । यहाँ के चित्तीदार उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गजरात, बंगाल और मध्यप्रदेश लाल बलुए पत्थर की बनी हुई कई हजार जैन कला- मे समतल भूमि पर बनाए गए जैन मंदिरों की संख्या कृतियाँ अब तक मथुरा और उसके आसपास के जिलों बहुत बड़ी है । कभी-कभी ये मंदिर जैन स्तूपों के साथ से प्राप्त हो चुकी हैं। उनमें तीर्थ कर आदि प्रतिमाओं बनाए जाते थे । के अतिरिक्त चौकोर आयागपट्र विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उन पर प्रायः बीच में तीर्थकर मूर्ति तथा जैन स्तूपों के संबंध में प्रचुर साहित्यिक तथा उसके चारों ओर विविध प्रकार के मनोहर अलंकरण अभिलेखीय प्रमाण उपलब्ध हैं। उनसे ज्ञात होता है मिलते हैं। स्वस्तिक, नन्दयावर्त, वर्धमानक्य, श्रीवत्स, अनेक प्राचीन स्थलों पर उनका निर्माण हुआ। मथूरा, भद्रासन, दर्पण, कलश और मीन युगल-इन अष्टमंगल कौशांबी आदि कई स्थानों में प्राचीन जैन स्तूपों के भी द्रव्यों का आयागपट्टों पर सुन्दरता के साथ चित्रण अवशेष मिले हैं। उनसे यह बात स्पष्ट है कि इन किया गया है। एक आयागपतृ पर क्षाठ दिवकुमारियाँ स्तूपों का निर्माण ईसवी पूर्व दूसरी शती से व्यवस्थित एक-दूसरे का हाथ पकड़े हए आकर्षक ढंग से मंडल रूप में होने लगा था। प्रारंभिक स्तूप अर्घवृत्ताकार नृत्य में संलग्न दिखाई गई हैं। मण्डल या 'चक्रवाल' होते थे। उनके चारों ओर पत्थर का बाड़ा बनाया अभिनय का उल्लेख 'रायपलेनिय सत्र' नामक जैन नथ जाता था । उसे 'वेदिका' कहते थे। वेदिका के स्तंभों में भी मिलता है । एक दूसरे आयागपट्ट पर तोरण द्वार
पर आकर्षक मुद्राओं में स्त्रियों की मूर्तियों को विशेष तथा वेदिका का अत्यन्त सुन्दर अंकन है। वास्तव में रूप से अंकित करना प्रशस्त माना जाता था। गप्त ये आयागपट्र प्राचीन जैन कला के उत्कृष्ट उदाहरण काल से जैन स्तूपों का आकार लंबोतरा होता गया। हैं। इनमें से अधिकांश अभिलिखित हैं, जिन पर बौद्ध स्तूपों की तरह जैन स्तुप भी परवर्ती काल में ब्राह्मीलिपि में लगभग ई. प. एक सौ से लेकर ईसवी अधिक ऊँचे आकार के बनाए जाने लगे। प्रथम शती के मध्य तक के लेख हैं। मथुरा की जैन
मध्य काल में जैन मंदिरों का निर्माण व्यापक रूप कला का प्रभाव मध्यप्रदेश में विदिशा, तुमैन आदि स्थानों की कला पर पड़ा।
में होने लगा । भारत के सभी भागों में विविध
प्रतिमाओं से अलंकृत जैन मंदिरों का निर्माण हआ। पश्चिमी भारत, मध्य भारत तथा दक्षिण में पर्वतों इस कार्य में विभिन्न राजवंशों के अतिरिक्त व्यापारी को काटकर जैन देवालय बनाने की परंपरा दीर्घकाल वर्ग तथा जन-साधारण ने भी प्रभूत योग दिया। तक मिलती है। विदिशा के समीप उदयगिरि की पहाड़ी में दो जैन गुफाएँ हैं । वहाँ संख्या एक की गुफा च
चन्देलों के समय में खजराहो में निर्मित जैन मंदिर में गुप्तकालीन जैन मन्दिर के अवशेष उपलब्ध हैं। प्रसिद्ध है । इन मादरा के बाहभाग खजुराहा का उदयगिरि की संख्या 20 वाली गुफा भी जैन मंदिर
विशिष्ट शैली में उकेरे गए हैं। मंदिरों के बाहरी भागो है। उसमें गुप्त सम्राट कुमारगुप्त प्रथम के समय में
पर समानांतर अलंकरण पद्रिकाएँ उत्खचित हैं। उनमें निर्मित कलापूर्ण तीर्थ कर प्रतिमा मिली है।
देवी-देवताओं तथा मानव और प्रकृतिजगत को अत्यन्त
सजीवता के साथ आलेखित किया गया है । खजुराहो जैन मंदिर-स्थापत्य का दूसरा रूप भूमिज मन्दिरों के जैन मंदिरों में पार्श्वनाथ मंदिर अत्यधिक विशाल है। में मिलता है। इन मंदिरों का निर्माण प्राय: समतल उसकी ऊंचाई 68 फुट है। मंदिर के भीतर का भाग
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महामण्डप, अन्तराल तथा गर्भगृह-इन तीन मुख्य मंदिर पास-पास बने हुए हैं। मध्यप्रदेश में पपौरा, भागों में विभक्त है। उनके चारों ओर प्रदक्षिणा मार्ग अहार, थूबोन, कुण्डलपुर, सोनागिरि आदि अनेक स्थलों है । इस मंदिर की छत का कटाव विशेष कलात्मक है पर जैन मंदिर-नगर निर्मित हुए। ऐसे मंदिर-नगरों के और खजुराहो के स्थापत्य विशेषज्ञों की दक्षता का लिए पर्वत शृखलाएं धिशेष रूप से चुनी गयीं। परिचायक है। मंदिर के प्रवेश-द्वार पर गरुड़ पर
भारत के अनेक राजवंशों ने जैन-कला की उन्नति दसभुजी जैन देवी आरूढ़ है । गर्भगृह की द्वारशाखा
में योग दिया। गुप्त शासकों के बाद चालुक्य, राष्ट्रकूट, पर पद्मासन तथा खड्गासन में तीर्थंकरों की प्रतिमाएं
कलचुरि, गंग, कदम्ब चोल तथा पांड्य वंश के अनेक उकेरी गई हैं। खजुराहो के इन मंदिरों में विविध
राजाओं ने जैन-कला को संरक्षण तथा प्रोत्साहन दिया। आकर्षक मुद्राओं में सुरसुदरियों या अप्सराओं की भी
इन वंशों के कई राजा जैन धर्मानुयायी थे। इनमें सिद्धमूर्तियां उत्कीर्ण हैं । इन मूर्तियों में देवांगनाओं के अंगप्रत्यंगों के चारुविन्यास तया उनकी भावभंगिमाएँ
राज जयसिंह, कुमारपाल, अमोध वर्ष, अकालवर्ष तथा विशेष रूप से दर्शनीय हैं । खजुराहो का दूसरा मुख्य
गंगवंशी भारसिंह द्वितीय के नाम उल्लेखनीय हैं। इन
शासकों को जैन धर्म की ओर प्रवर्त करने का श्रेय जैन संदिर आदिनाथ का है। इसका स्थापत्य पार्श्वनाथ मंदिर के समान है।
स्वनामधन्य हेमचन्द्र, जिनसेन, गुणभद्र, कुन्दकुन्द आदि
जैन आचार्यों को है। राज्य-संरक्षण प्राप्त होने एवं विदिशा जिले के ग्यारसपूर नामक स्थान में माला- विद्वान आचार्यों द्वारा धार्मिक प्रचार में क्रियात्मक देवी का मंदिर है। उसके बहिर्भाग की सज्जा तथा योग देने पर जैन साहित्य तथा कला की बड़ी उन्नति गर्भगृह की विशाल प्रतिमाएं कलात्मक अभिरुचि की हुई । मध्यकाल में अठारहवीं शती के अन्त तक प्रायः द्योतक है। मध्य भारत में मध्यकाल में ग्वालियर, समस्त भारत में जैन मंदिरों एवं प्रतिमाओं का निर्माण देवगढ़, चन्देरी, अजयगढ़, अहार आदि स्थानों में जारी रहा । सामाजिक-धार्मिक इतिहास की जानकारी स्थापत्य तथा मूर्तिकला का प्रचुर विकास हुआ। के लिए यह सामग्री महत्त्व की है।
जैन स्थापत्य तथा मूर्तिकला का प्राचुर्य 'देवालयनगरों में देखने को मिलता है। ऐसे स्थलों पर सैकड़ों
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जैन धर्म और संगीत
भगवान महावीर ने संसार को अनादि-अनंत कहा उसका काल कितना लंबा है, यह साधारण मानव के है। संसार का न आदि है और न अंत । इसलिये जैन बुद्धिग्राह्य के बाहर की बात है। वर्तमान में मानव, दर्शनकारों ने कहा है कि संसार के उत्थान और पतन जिनकी बुद्धि सीमित है और अनुप्रेक्षा से रहित है, का क्रम चलता रहता है । इसी उत्थान और पतन की उपरोक्त तथ्य को मानने को आज भी तैयार नहीं हैं अवस्था में तीर्थंकरों का जन्म होता है और वे इस परन्तु जो नवीन वस्तुओं को पुन: प्रकाशित करना क्रमानुसार अनन्त हो गये हैं और होते रहेंगे । जितने चाहते हैं वे तथ्यों को कभी भी अस्वीकार नहीं करते। भी पूर्वकाल में तीर्थकर हो गये हैं उन्होंने अपना प्रवचन उनका कहना है कि भूतकाल में जो शक्ति उत्पन्न हई राग 'मालकोश' में ही दिया और भविष्य में होने वाले है उनका नाश कभी नहीं हुआ है। वे इसी आकाश
प्रदेश में विद्यमान हैं क्योंकि यदि हम वस्तुओं का
विनाश मान लेते हैं तो वस्तुओं का अभाव हो जाता गुलाबचन्द्र जैन
है । वस्तुओं के ही अभाव होने पर उत्पत्ति के आधार
का अभाव होता है जो युक्ति संगत नहीं है। जिस प्रकार भी 'मालकोश' की ध्वनि में ही देवेंगे । संगीत के विषय वायु अस्थिर रहती है उसी तरह प्रत्येक परमाणु भी की उत्पत्ति का निश्चय करना बालचेष्टा ही है। इतना स्थिर नहीं रहते वे निरंतर गमनागमन कार्य करते अवश्य है कि रागों में उत्थान और पतन समयानुकूल, रहते हैं । वायु को जिस प्रकार एकत्रित कर उसमें प्रकृति के परिवर्तनानुसार होता ही रहता है। इसी शक्ति पैदा की जाती है उसी प्रकार परमाणु को भी
संग्रहीत कर उससे मनचाहा काम लिया जाता है । देकर उसमें उलझने लगते हैं और ध्वनि की वास्तविक प्रत्येक परमाणु में रूप, रंग, गंध, स्पर्श एवं शब्द आदि तरंगों और उसके क्रिया एवं शक्ति से हम वंचित हो गुण एक दूसरे से भिन्न और अभिन्न रहते हैं। इसलिये जाते हैं। जैन दर्शन में रागों का कितना महत्व है और उनके संग्रहीत करने में इस बात का ध्यान रखना पड़ता
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है कि किस प्रकार के कंपन का और कितनी मात्रा में उप- योगः' । अर्थात् मन, बचन और काया के योग से जो योग किया जाय कि परमाणुओं का समूह हमारी इच्छा एक प्रकार का विशेष रूप से कंपन होता है अथवा के अनुसार कार्यरूप में परिणत हो । भगवान महावीर जिसे कंपन क्रिया कहा जाता है उस कम्पनानुसार ही
कहा है कि हमारे मुंह से जो शब्द निकलते हैं वे परमाणुओं का स्वतः संचय होता रहता है। जिस हमें या दूसरों को सुनाई नहीं पड़ते। जो भाषा या प्रकार चुम्बकीय शक्ति से लोह के परमाण स्वत: खिच शब्द हमारे मुंह से निकलते हैं, वे इतने सूक्ष्म और कर उसमें आ मिलते हैं उसी प्रकार अपने गुणों के तीब्र गतिशील होते हैं कि एक समय जिसका दो भाग अनुसार स्वधर्मी स्वधर्मी में आकर मिलते रहे हैं और नहीं हो सकता, उतने समय में सारे लोकाकाश में वे कार्यरूप में परिणत होते रहते रहते हैं। उसमें उतारफैल जाते हैं और दूसरे समय में लोकाकाश के अंतिम चढाव अथवा हानि और वद्धि जो होती रहती है उसका हिस्से से टकराकर समूह रूप में परिणित होते हैं तब कारण आपस में मिलकर और पुनः अलग-विलग हो सामूहिक परमाणु में ध्वनि उत्पन्न होती है जो हमें जाने में होती है। सामान्य दृष्टि से कम्पन की मात्रा सुनाई पड़ती है। इसकी पुष्टि शकभाष्य के प्रथम खण्ड एक सैकेण्ड में 240 मान ली है और उस ध्वनि को और भगवतीसूत्र, परमाणु उद्देशक, पुदगल उद्देशक मन्द, मध्य तथा तीब्र में विभाजित की है जो 22 और भाषा उद्देशक में मिलती है। उपरोक्त उद्देशकों श्रतियों के नाम से कही जाती है। तीब्र में 3800 से यह स्पष्ट हो जाता है कि 'परमाणु' पुदगल के रूप मात्रायें संगीत के रूप में मान ली गयी है। उससे में किस प्रकार परिवर्तित होता है और भाषा वर्गणाओं अधिक मात्रा होने पर वह ध्वनि संगीत न कहलाकर के लिये कितने परमाणुओं एवं परमाणुओं के स्कंधों की कोलाहल की श्रेणी में आती है। कहने का आशय यह आवश्यकता पड़ती है, जो श्रोतेन्द्रियों के ग्रहण योग्य है कि सगीत-शास्त्र में जो श्र तियों और ध्वनि मात्राओं बनती हैं।
की रूपरेखा तैयार की है, वह सक्ष्म दृष्टि से न कर
स्थूल दृष्टि से है, क्योंकि कार्य रूप में और इंद्रियों के वैशेषिक और न्याय दर्शन में भी परमाण के विषय ग्राह्य योग्ण कितना कम्पन कम से कम आवश्यक है, में बताया गया है कि सूर्य की किरणें छिद्र में से होकर ताकि वह व्यवहार में सुचारु रूप से उपयोग हो सके । बाहर आती हैं तथा उसमें जो छोटे-छोटे अति सूक्ष्म इसलिये उस ध्वनि का नाम संगीत रखा-'सम' अर्थात् रजकण दिखाई पड़ते हैं उनका साठवां भाग परमाणु सम्यक प्रकार में श्रोतेन्द्रिय की शक्ति में किसी प्रकार से मान लिया गया है। परन्तु जैन दर्शनकारों का कथन विकार पैदा न करे उसकी शक्ति से वृद्धि और सुचारू है कि अनन्त परमाणुओं का स्कंध बनने पर भी वे रूप से उसमें सहायक भूत हो वह सम्यक ध्वनि ही दृष्टिगोचर नहीं हो सकते। जैन दर्शनानुसार अनन्त संगीत कही जाती है । संगीत में तीन अक्षर है परमाणु के स्कंध वाले, स्कंधों से भी जो अनन्त हो सं-गी-त बीच के अक्षर 'गी' अर्थात् ग्रीवा वाणी को और जब उसका पिण्ड बनता है तब वे इन्द्रिय-ग्राह्य निकालने से, 'संत' बचता है। संतों की 'गी'--अर्थात बनते हैं। ऊपर कह आये हैं कि हर एक परमाण में वाणी को संगीत कहते हैं। रागद्वेष से रहित संतों के अपनी विशेष वर्गण शक्ति रहती है । जिस परमाणुओं हृदय के भाव, उनके उद्गार जो निकलते थे, उसमें से भाषा बनती है उन्हें जैन दर्शन में भाषा वर्गणा कहा ऐसी शक्ति थी कि लोग आकर्षित हो जाते थे और है। परमाणुओं का स्कंध किस तरह बनता है इसके उसको ही भव्य प्राणी लक्ष्य मानकर अनुकरण करते विषय में कहा गया है कि, 'काय वाङग्रा मन : कर्म- और वही संगीत कहा जाता था।
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यशोधरा में कवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी गीत की परिभाषा कही है - "अधर पर मुस्कराहट है, नैनों से नीर बहता है, हृदय की हूक हँस पड़ती, जिसे जग गीत कहता है ।"
जैन आगमों में यह कहा गया है कि जिस समय भगवान महावीर के कान से खीले खींच कर निकाले गये उस समय उन्हें इतनी अधिक वेदना हुई थी कि उनके मुख से ऐसी तेज ध्वनि ( चीख ) निकली कि जिस पहाड़ी के तले वे काउसग्ग में खड़े थे उसमें दरार पड़ गयी। आज के युग में इस बात को शायद ही कोई विरला व्यक्ति मानने पर तैयार हो; पर अधिकांश मानने को तैयार नहीं है। संगीत की ध्वनि में इतनी शक्ति है तथा आकर्षण है कि वह बड़े-बड़े पहाड़ों में भी दरारें पैदा कर देती है।
प्राणियों को "संगीत” ध्वनि तरंगों के अनुसार सात्विक, राजस तथा तामस प्रकृतियों में बदल देता है । fन तरंगों का कितना अकाट्य प्रभाव पड़ता है जिसका साक्षात्कार हमें नृत्य में और सरकसों में, मौत की सीढ़ी पर चढ़ने वालों में लड़ाई में अनेक कर्त्तव्यों को देखकर होता है । शास्त्रों में जो लिखा गया है कि ध्वनि से अनेक बीमारियां कट जाती हैं; उसे आज वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं ।
प्रश्न यहां यह रह जाता है कि भगवान महावीर ने तथा इनके पूर्व में जितने भी तीर्थकर हुये वे सभी ने "मालकोश" की ध्वनि में हो क्यों प्रवचन दिये हैं। इस विषय के लिये जिज्ञासुओं को चाहिये कि नंदी सूत्र, आवश्यक भाव्य द्रव्यानयोग और भगवती सूत्र आदि आगमों को सूक्ष्म दृष्टि से देखें इसका सामान्य एक कारण यह भी है कि मालकोश राग में तेज तत्व विशेष रूप से रहे हुये हैं। वैशेषिक जिसके कर्त्ता कणाद, न्याय सूत्र जिसके कर्त्ता गौतम हैं तथा तर्क-संग्रह जिसके कर्त्ता अन्नभट्ट है, उन्होंने अपने ग्रंथों में तेज का स्वरूप
बताते हुये बताया कि तेज में एक विशेष नित्य समवाय संबंध तेज-गुण, रूप रहा हुआ है, वही रूप, तेज, हर प्राणी को आकर्षित करता है और उसको ग्रहण करने वाली आँख है । इन सब बातों से यह सरलता से समझ में आ सकता है कि मालकोश की ध्वनि का यही अभिप्राय है कि मानव के अन्दर अज्ञान, अंधकार, मिथ्या ज्ञान, अविवेक जो रहा हुआ है उसे निकालने के लिये तेज शक्ति ताप और वैसे ही रूप की आवश्यकता रहती है कि वह अंधकार रूपी मिथ्याभिमान से निकलकर वास्तविक अपने स्वरूप को देखे और उस तेज को ग्रहण कर अंधकार से छुटकारा पाये कहावत भी है कि जिसके चहरे और वाणी में तेज (नूर) नहीं, वह नर होते हुये भी नराधम है। हम आप सभी यही बात कहते हैं कि सामान्य मानव की वाणी कितनी गंभीर और तेजपूर्ण है कि उसके वाणी को सुनकर क्रूर से क्रूर हिंसक प्राणी भी; जिस तरह आंच पाकर लोहा पिघल कर बहने लगता है, उसी प्रकार उसमें भी रहे हुये बुरे विचार पिघलकर बहने लगते हैं । ऐसी अवस्था में यदि हम मिथ्या अभिमान को एक बाजू में रखकर शान्त चित्त से विचार करें तो वास्तविकता हमारे समझ में आ जावेगी कि सामान्य जन की वाणी में ध्वनि का इतना प्रभाव है तो जो तीर्थकर या अवतारी पुरुष या भगवान होते हैं उनकी वाणी की ध्वनि कितनी तेज युक्त रहती होगी कि उस वाणी के प्रभाव से तीनों लोक के प्राणी अपनी भूलों को स्वीकार करके उनके चरणों में मस्तक झुकाकर अपने को अहोभाग्य समझते हैं।
जैन दर्शन संसार को जब अनादि - अनंत मानता है तब यह कथन प्रागेतिहासिक काल का हो जाता है। इसलिये हम ऐतिहासिक दृष्टि से इसके विषय में भगवान महावीर की उपस्थिति में संगीत का जैन दर्शन में कितना स्थान था इसी को लक्ष्य कर ही इसका प्रतिपादन करते हैं । आगमों में जो संकलन किया गया वह क्रमबद्ध न होकर प्रसंगानुसार पाया जाता है। हमारे सामने इस समय जो संकलन है वह वाचना देववृद्धि
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गणिका है । इसके पूर्व 3 वाचना का संकलन हुआ था शंखिका, (4) खरमुही, (5) पेया (6) पीरिपिरियाजो लिपिबद्ध नहीं मिलता। इससे अनुमान लगाया जा शूकर-पुटावनद्धमुखोवाद्य विशेष, (7) पणव-लघु पटह, सकता है कि वे वाचनायें पुनरावर्ती के रूप में मुखाग्रही (8) पटह, (9) होरंभ (10) महाढक्का, (11) मेरी, करा दी गयी होंगी। यदि लेख रूप में होते तो कुछ अंशों (12) झल्लरी, (13) दुदुभि-वृक्ष के एक भाग को में अवश्य मिलते। जैन आगमों के सिवाय अन्य प्रकरणों भेदकर बनाया गया वाद्य, (14) मुरज-शंकटमुखी, में और स्वतंत्र रूप से भी अति सूक्ष्म दृष्टि से लिखे (15) मदंग आदि 60 प्रकार के वाद्यों का उल्लेख गये ग्रन्थ संपूर्ण नहीं मिलते। उन ग्रन्थों का नाम अन्य किया गया है। ग्रन्थों में भी पाया जाता है। इसमें अनुमान लगाया
वृहत्कल्पभाष्यपीठिका 24 वृत्ति जाता है कि कुछ असावधानी से खराब हो गये, कुछ बाहर विदेश चले गये और इसके पूर्व भारतीय दर्शन इस पुस्तक में वाद्यों के नामों का निम्न प्रकार से का अधिकांश भाग जैन, वैदिक आदि सभी दर्शनों सहित उल्लेख मिलता है:नष्ट कर दिया गया। इसलिये हमारे सामने जो वर्त
(1) भंभा (2) मुकुन्द (3) मद्दल (4) कडंब मान में ग्रन्थ आगम आदि हैं उन्हीं के आधार पर कुछ
(5) झल्लरि (6) हुडुक्क (7) कांस्यताल (8) काहल दिग्दर्शन कराया जा सकता है। वर्तमान अनुसंधानकर्ता
(9) तलिमा (10) वंश (11) पणव तथा (रिसर्च करने वाले) वर्तमान ग्रन्थों के आधार पर ही अंतिम छाप लगा बैठते हैं । पर यह विचारणीय है कि
(12) शंख । अंतिम छाप तो वह लगा सकता है जो सर्वज्ञ और स्थानाड ग7,उ.3 एवं अनुयोग द्वार अंतरयामी हो। छद्मस्थ यदि ऐसा करता है तो यह उसकी अनाधिकार चेष्टा है।
उपरोक्त ग्रन्थों में "संगीत" की व्याख्या विशद रूप
से की गयी है। इसमें गीत के तीन प्रकार बताये गये वाद्यों से संबंधित ग्रंथ
स्थानाग 4
(1) प्रारम्भ में मृदु (2) मध्य में ते (3) अन्त प्रस्तुत ग्रन्थ में वाद्यों के चारों प्रकारों के वर्गी- में मन्द । करण का उल्लेख है । जैसे :
गीत के दोष (1) तत् --तंतुवाद्य, वीणा आदि,
(1) भीतं-भयभीत मानस से गया जाय, (2) तितत-मंढे हुये वाद्य, पटह आदि,
(2) द्रुतं-बहुत शीघ्र शीघ्र गाया जाय, (3) घन-कांस्यताल
(3) अपित्वं-श्वास युक्त शीघ्र गाया जाय अथवा
हस्व स्वर लघु स्वर से ही गाया जाय । (4) झुशिर-शुषिर-फूक द्वारा बजने वाले वाद्य, बांसुरी आदि।
(4) उत्तालं-अति उत्ताल स्वर से व अवस्थान
ताल से गाया जाय। राजप्रश्नीय सूत्र 64
(5) काकस्वरं-कौए की तरह कर्ण-कटु शब्दों प्रस्तुत ग्रन्थ में (1) शंख, (2) शृग, (3) से गाया जाय ।
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(6) अनुनासिकम-अनुनासिका से गाया जाय।
अक्षरादि सम भी सात प्रकार का है :
(1) अक्षर सम-हस्व, दीर्घ, प्लुत, सानुनासिका
से युक्त ।
गीत के आठ गुण (1) पूर्ण-स्वर, लय और कला से युक्त गाया
जाय। (2) रक्त-पूर्ण तल्लीन होकर गाया जाय । (3) अलंकृत-स्वर विशेष से अलंकृत होकर
गाया जाय । (4) व्यक्त-स्पष्ट गाया जाय । (5) अविधुष्टं-अविपरीत स्वर से गाया जाय । (6) मधुरं - कोकिला की तरह मधुर गाया जाय। (7) सम-ताल, वश, व स्वर से समत्व गाया
जाय। (8) सुललितं-कोमल स्वर से गाया जाय।
(2) पद-सम : पद विन्यास से युक्त । (3) ताल-सम : ताल के अनुकूल कर आदि का
हिलाना। (4) ग्रह-सम : बांसुरी या सितार की तरह
गाना। (5) लय-सम : वाद्य यंत्रों के साथ स्वर मिला
कर गाना। (6) निश्वसित्तोच्छवसितो-सम : श्वास ग्रहण
करने और निकालने का क्रम व्यवस्थित । (7) संचार-सम : वाद्य यंत्रों के साथ गाना ।
प्रकारान्तर से अन्य आठ गुण :
अन्य आठ गुण
(1) उरोविशुद्ध-अक्षस्थल से विशुद्ध होकर
निकलना। (2) कण्ठविशुद्ध-जो स्वर भंग न हो। (3) शिरोविशुद्ध-मूर्धा को प्राप्त होकर भी जो
स्वर-नासिका से मिश्रित नहीं होता। (4) मृदुक-जो राग कोमल स्वर से गाई जाय। (5) रिंगित-आलाप के कारण स्वर अठखेलियां
करता सा प्रतीत हो।। (6) पदबद्ध-जो गेय पद विशिष्ठ लालित्य युक्त
भाषा में निर्मित किये गये हों। (7) समताल प्रत्युत्क्षेप-नर्तकी का पाद निक्षेप
और ताल आदि परस्पर मिले हों। (8) सप्त स्वर सोमर-सातों स्वर अक्षरादि से
मिलान खाते हों।
(1) निर्दोष-गीत के वत्तीस दोष से रहित
गाना। (2) सारवन्तं-विशिष्ठ अर्थ से युक्त गाना। (3) हेतुयुक्त-गीत से निबद्ध, अर्थ का गमक
और हेतु युक्त। (4) अलंकृतं-उपमादि अलंकारों से युक्त। (5) उपनीतं-उपनय से युक्त । (6) सोपचारं कठिन न हो, विशुद्ध हो । (7) मितं--संक्षिप्त व सार युक्त । (8) मधुरंभ--मोग्य शब्दों के चयन से श्रति
मधुर ।
.
छन्द के तीन प्रकार :
(1) सम-चारोंपाद के अक्षरों की संख्या समान। .
(2) अर्घसम-प्रथम और तृतीय, द्वितीय और
चतुर्थ पाद समान संख्या बाले हों।
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हो।
(3) विषमसम-किसी भी पाद की संख्या एक षडज ग्राम को सात मूर्च्छनाएँ : दूसरे से नहीं मिलती हो।
(1) मार्गा (2) कौरवी (3) हरिता (4) रत्ना सप्त-स्वर :
(5) सारकान्ता (6) सारसी (7) शुद्ध षडजा। (1) षडज : नासिका, कंठ, छाती, तालु, जिव्हा, मध्य ग्राम की सात मूर्च्छनाएं : दांत इन छह स्थानों से उत्पन्न ।
(1) उत्तरमंदा (2) रत्ना (3) उत्तरा (2) ऋषभ : जब वायु नाभि से उत्पन्न होकर (4) उत्तरासमा (5) समकान्ता (6) सुवीरा
कण्ठ और मुर्वा से टक्कर खाकर (7) अमिरूपा। वृषभ के शब्द की तरह निकलता
गांधार ग्राम को सात मूर्च्छनाएं :
(1) नदी (2) क्षुद्रिका (3) पूरिमा (4) शुद्ध (3) गांधार : जब वायु नाभि से उत्पन्न होकर हृदय और कण्ठ को स्पर्श करता
गांधार (5) उत्तरगांधार (6) सुष्ठुतर मायामा (7)
उत्तरायत कोटिया। हुआ सगंध निकलता हो । (4) मध्यम : जो शब्द नाभि से उत्पन्न होकर
र संगीत-शास्त्र में मूर्च्छनाओं के नाम अन्य उपलब्ध होते
ग हृदय से टक्कर खाकर पुन: नाभि में पहुंचे । अर्थात् अन्दर ही अन्दर (1) ललिता (2) मध्यमा (3) चित्रा (4) गूंजता रहे।
रोहिणी (5) मतंगजा (6) सौबोरी (7) षण्मध्या। (5) पंचम : नाभि, हृदय, छाती, कंठ और (1) पंचमा (2) मत्सरी (3) मृदुमध्यमा
सिर इन पांच स्थानों से उत्पन्न (4) शुद्धा (5) अत्रा (6) कलावती (7) तीवा । होने वाला स्वर ।
(1) रौद्री (2, ब्राह्मी (3) वैष्णवी (4) खेवरी 16) घेवत : अन्य सभी स्वरों का जिसमें मेल (5) सूरा (6) नादावती (7) विशाला। हो, इसका अपर नाम धेवत भी है।
वर्तमान की उपलब्धियों से वैदिक ग्रन्थों के आधार . (7) निषाद : जो स्वर अपने तेज से अन्य स्वरों पर भरत का नाट्यशास्त्र आदि माना जाता है, जिसमें को दबा देता है और जिसका संगीत विभाग (28
संगीत विभाग (28 से 36 तक) है। उसमें गीत और देवता सर्य हो।
वाद्यों का विवरण पाया जाता है किन्तु रागों के नाम
और उनका विवरण नहीं बताया गया। ग्राम और मूर्च्छनाएँ :
भरत के शिष्य दत्तिल, कोहल और विशाखिय इन सात स्वरों के तीन ग्राम हैं :
तीनों ने ग्रन्थ की रचना की थी। प्रथम का दत्तिलम्, (1) षडज् ग्राम (2) मध्य ग्राम तथा (3) दूसरे का कोहलीयम और तीसरे का विशा खिलियम गांधार ग्राम ।
ग्रन्थ था। वर्तमान में विशाखिलम् अप्राप्त है।
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आरियेन्टल सीरीज, बड़ौदा से प्रकाशित हो गया है। यह ग्रन्थ स्वयं सुधाकलश द्वारा वि.सं. 1380 में रचित "संगीतोपनिषद" का स्वरूप है। इस ग्रंथ में 6 अध्याय हैं और 610 श्लोक हैं। प्रथम अध्याय में गीत प्रकाशन, दूसरे में प्रशस्ति सौपाश्रय-ताल प्रकाशन, तीसरे में गुणस्वर रागादि प्रकाशन और छठे में नित्य पद्धति प्रकाशन है।
मध्यकाल में हिन्दुस्तानी और कर्णाटक की पद्ध- तियों का प्रचार हुआ और उसके साथ आचार्यों ने संगीत पर अनेक ग्रन्थ भी लिखने प्रारंभ कर दिये। सन् 1200 में सब पद्धतियों का मंथन कर शारंगदेव ने, "संगीत रत्नाकार" नामक ग्रंथ लिखा। उस पर छः टीका ग्रंथ भी लिखे गये। इनमें से चार टीका ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं । अर्धभागधी (प्राकृत) में रचित "अनुयोग द्वार" सूत्र में संगीत विषयक सामग्री पद्य में मिलती है। इससे ज्ञात होता है कि प्राकृत संस्कृत में भी अनेक ग्रंथ रहे होंगे क्योंकि कोई भी ग्रंथ लिखने के लिये उसके पूर्व की आधारशिला आवश्यक रहती है। उपरोक्त जैन आगमों और अन्य ग्रन्थों के आधार पर जैन आचार्यों ने भी संगीत पर कुछ ग्रन्थोंकि रचना अति पैनी दृष्टि से की है।
यह कृति "संगीत मकरंद" और संगीत पारिजात से भी विशिष्ठतर और अधिक महत्व की है।
इस ग्रंथ में नरचन्द्र सूरि का, “संगीतज्ञ" के रूप में भी उल्लेख हुआ है। प्रशस्ति में अपनी "संगीतोपनिषत्" रचना के वि. सं. 1380 होने का उल्लेख भी है।
"संगीत समयसार"
(यह ग्रन्थ त्रिवेन्द्रम संस्कृत ग्रन्थमाला में छापा गया है)।
मलधारी, अमयदेवसरि की परम्परा में अभीचन्द्र सूरि हो गये हैं। वे संगीत-शास्त्र में विशारद थे, ऐसा उल्लेख सुधाकलश मुनि ने किया है ।
दिगम्बर जैन मुनि अभयचन्द के शिष्य महादेवाचार्य
"संगीतोपनिषत" और उनके शिष्य पार्श्वचन्द्र ने, 'संगीत समयसार" नाम के ग्रन्थ की रचना लगभग वि. सं. 1380 में की
___ आचार्य राजशेखर सूरि के शिष्य सुधाकलश ने है। इस ग्रन्थ में नव अधिकरण है, जिनमें नाद, ध्वनि, "संगीतोपनिषत" ग्रन्थ की रचना सं. 1308 में की स्थायी, राग, वाद्य, अभिनय, ताल, मस्तार और ऐसा उल्लेख ग्रन्थकार ने स्वयं सं. 1406 में अपने आध्वयोग-इस प्रकार अनेक विषयों पर प्रकाश डाला "संगीतोपनिषत सारोदार" नामक ग्रन्थ की प्रशस्ति में गया है । इसमें प्रताप दिगम्बर और शंकरनामक ग्रन्थों किया है। यह बहुत बड़ा था जो अभी तक उपलब्ध नहीं का उल्लेख पाया जाता है और भोज, सामेश्वर, पर- हो पाया। मर्दी इन तीन राजाओं का नाम भी पाया जाता है। (विशेष परिचय के लिये देखें जैन सिद्धांत भास्कर सुधाकलश ने “एकाक्षरनाम माला" की भी रचना भाग-9 अंक-2 और भाग-10 अंक-10) ।
की है।
"संगीतोपनिषत् सारोबार"
"संगीत मंडन"
यह ग्रन्थ आचार्य राजशेषर सूरि के शिष्य सुधाकलश मालवा-मांडवगढ़ के सुलतान आलमशाह के मत्री ने वि. सं. 1406 में लिखा। यह ग्रंथ गायकवाड़ा मंडन ने विविध विषयों पर अनेक ग्रंथ लिखे हैं । उनमें
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"संगीत मंडल" मी एक है। इस ग्रंथ की रचना सं. से शिक्षा-दीक्षा आदि देकर साधक की रुचि के अनुसार 1490 के आस-पास हुई है। इसकी हस्त-लिखित प्रति । उसमें उसे प्रवीण करा दिया जाता है। किसी भी कार्य मिलती है। ग्रंथ अभी तक अप्रकाशित है।
की पूर्ति के लिये मुख्य दो साधन होते हैं । प्रथम आंत
रिक तथा दूसरा वाह्य । वाह्म साधन आंतरिक का "संगीत दीपक, संगीत रत्नवाली, संगीत पिंगल" पूरक है। इसलिये ग्रंथों का प्रकाशन शिक्षा-दीक्षा जितने
भी कार्य किये या कराये जाते हैं, आंतरिक मावों की - इन तीनों ग्रंथों का उल्लेख जैन ग्रन्थावली में जागृति विशेष के लिये ही होते हैं। वह जागृत अवस्था मिलता है। परन्तु इनके विषय में अभी तक नाम के चाहे भौतिक वस्तु की प्राप्ति के लिये हो अथवा आध्यासिवाय विशेष जानकारी नहीं मिलती।
त्मिक निःश्रेय मार्ग को प्राप्त करने के लिये हो; यह
तो साधक के मानसिक विचारों और उसके पक्ष पर नाट्य
ही आधारित है। ऋषि-मुनियों ने जो मार्ग दर्शन हमें
कराया उनका एकमात्र लक्ष्य निश्रेय मार्ग अर्थात अपयो यं स्वभावो लोकस्य सुख दुःख समन्वित:। । वर्ग मार्ग का ही विशेष लक्ष्य रहा है। परंतु भौतिक सोआंगाद्यभिनयो येतो, नाट्यमित्यभिधीयते।।
या अर्थ की ओर जिनका लक्ष्य रहा, उन्होंने इसका
उपयोग अर्थ प्राप्ति के लिये ही किया। इससे इन दुःखी, शोकार्त, श्रांत एवं तपस्वी व्यक्तियों को
कलाओं में स्वाभाविक गुण और शक्ति का ह्रास होने विश्रांत देने के लिये नाट्य की सृष्टि की गयी। सुख
लगा है क्योंकि लक्ष्य, लोक रुचि की ओर होने से लोक दुःख से युक्त लोक स्वभाव ही आंगिक, वाचिक इत्यादि
रुचि अनुसार रंजकता लाने के लिये इन रागों, मुद्राओं अभिनवों से युक्त होने के कारण नाट्य कहलाता है।
और नाट्य कलाओं में परिवर्तन करना पड़ता है। इससे नाट्य मुद्रायें और चित्रकला-प्राणियों के लिये एक
वहां की वस्तुकला वास्तविकता से हटकर अपने स्वरूप विशेष स्वाभाविकता रही है, जिसके आधार पर ही
को खो बैठती है। यह अपने मानसिक, वाचिक और कायिक भावों का दूसरों पर प्रभाव डालता है। नाट्यकला, मुद्राकला "नाटय वर्षण"..
. और संगीत कला ये तीनों कला आपस में इस तरह मिली हुई हैं कि जिस प्रकार सूर्य से ताप या प्रकाश अलग
. . , कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र सूरि के दो शिष्यों कवि नहीं किया जा सकता। मानब के अंत:स्थल में जन
कहारयल विरुद्धधारक रामचन्द्र सूरि और उनके गुरु भावावेश की जागृति होती है। तदनुकूल उसकी मान
माई गुणचन्द्र गणि ने मिलकर "नाट्यदर्पण" की रचना सिक, वाचिक तथा कायिक चेष्टायें स्वतः स्वाभाविक
वि. सं. 1200 के आस-पास की है। (नेचुरल) प्रकट होने लगती हैं । ये तीनों कलायें सीखनी
नाट्यदर्पण में चार विवेक हैं जिनमें सब मिलकर नहीं पड़तीं। वह (मानव) जन्म से ही साथ लेकर 207 पद्य हैं। जन्मता है और मरणोपरांत भी पुनर्जन्म के समय उसके साथ बनी रहती हैं। लोक आकर्षण के लिये मानसिक प्रथम विवेक "नाट्यदर्पण" में नाटक संबंधी सब प्रवत्ति न होने पर भी वैसा भाव दिखाना जब कभी बातों का निरूपण किया गया है। इसमें 1 नाटक 2 आवश्यक होता है और उसका निराकरण करना भी प्रकरण, 3 नाटिका, 4 प्रकरणी, 5 व्यायोग, 6 समवआवश्यक होता है ऐसी अवस्था में उसमें विशेष रूप कार, 7 भाण, 8 प्रहसन, 9 डिम, 10-उत्तस्रास्ति
'.
गह।
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कार्तक. 11 रामृता तथा 12 वीथी - इस प्रकार बारह प्रकार के रूपक बताये गये हैं। पांच अवस्थाओं और पांच संधियों का भी उल्लेख है ।
द्वितीय विवेक " प्रकरणाद्यकादशनिर्णय" में प्रकरण से लेकर बोथी तक के 11 रूपकों का वर्णन है । इसमें वृत्ति, रस, भाव और अभिनय का विवेचन है ।
तृतीय विवेक "वृत्तिरस भावाभिनय विचार" में चार वृत्तियों, नव रसों, नव स्थायी भावों, तैंतीस व्यभिचारी भावों, रस आदि आठ अनुभावों और अभिनवों का निरूपण है ।
आचार्य रामचन्द्र सूरि और गुण चन्द्र गणि ने अपने नाट्यदर्पण पर स्वोषज्ञ विवृत्ति की रचना की चतुर्थं विवेक "सर्वरूपक साधारण लक्षण निर्णय" है । इसमें रूपकों के उदाहरण 55 ग्रन्थों से दिये गये में सभी रूपकों के लक्षण बताये गये हैं । हैं । स्वरचित कृतियों से भी उदाहरण लिये हैं । इसमें उपरूपकों के स्वरूप का आलेख किया गया है।
आचार्य रामचन्द्र सूरि समर्थ आशुकवि के रूप में प्रसिद्ध थे; गुण-दोपो के बड़े परीक्षक थे । इन्होंने नाटक आदि अनेक ग्रंथों की रचना की । गुरु हेमचन्द्रचार्य ने जिन नाटक आदि ग्रन्थों पर नहीं लिखा था उन विषयों पर इन्होंने अपनी लेखनी चलाई। ये प्रबंध शतकर्ता भी माने गये हैं। प्रबंध शतक ग्रन्थ अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है । ऐसे समय कवि की अकाल मृत्यु सं. 1230 के आस-पास राजा अजयपाल के निमित्त हुई । ऐसी सूचना प्रबंध से मिलती है। इनके गुरुभाई गुणचन्द्र सूरि भी समर्थ विद्वान थे । उन्होंने "सवृत्तिक द्रव्यालंकार" आचार्य रामचन्द्र सूरि के साथ रचना की है।
आचार्य रामचन्द्र सूरि ने जो ग्रन्थ लिखे हैं, उनमें वर्तमान समय में निम्नलिखित ग्रन्थ उपलब्ध हैं :
(1) कौमुदीमियाणंद ( प्रकरण ), ( 2 ) नलविलास (नाटक), (3) निर्भय, (4) मल्लिकामकरंद ( प्रकरण ), ( 5 ) यादवाभ्युदय (नाटक), (6) रघुविलास (नाटक), ( 7 ) राघवाभ्युदय (नाटक), (8) रोहिणी मृगांक ( प्रकरण ), ( 9 ) बनमाला ( नाटिका ), ( 10 )
सत्य -
हरिश्चन्द्र (नाटक). (11) सुघाकलश ( कोष), (12) आदिदेवस्तवन, (13) कुमार विहारशतके, ( 14 ) जिनत्तेत्र, (15) नेमिस्त्व, ( 16 ) मनसुब्रस्त्व, ( 17 ) दुविलास ( 18 ) सिद्ध हेमचन्द्र, शब्दानुशासन, लघुन्यास, ( 19 ) सोलह साधारण जिनस्त्व, (20) प्रसाद्धात्रि शिकर ( 21 ) युगादिद्वात्रिशिका (22) व्यतिरेकद्वात्रिंशिका, (23) प्रबंघशत - यह ग्रंथि अभी तक अप्राप्त है ।
"आचार्य दर्पणवृत्ति"
धनंजय के " दशरूपक" ग्रंथों को आदर्श रूप में रखकर यह विवृत्ति लिखी गयी । बिवृत्तिकार ने कहीं-कहीं घनंजय के मत से भिन्न मत भी प्रदर्शित किया है। भरत के नाट्य में पूर्वापर विरोष है, ऐसा भी उल्लेख किया है । अपने गुरु आचार्य हेमचन्द्राचार्य के "काव्यानुशासन" में भी कहीं-कहीं भिन्न मत का भी निरूपण मिलता है । इस दृष्टि से यह कृति विशेष तौर से अध्ययन करने योग्य है । नाट्यदर्पण स्वपोत विवृत्ति के साथ गायकवाडा ओरियेन्टल सीरीज में दो भागों में छपा है। इस ग्रन्थ का के. एच. त्रिवेदिकृत आलोचनात्मक अध्ययन लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ है ।
"प्रबंध शतक"
आचार्य हेमचन्द्र सूरि के शिष्यत्व आचार्य रामचन्द्र सूरि ने 'नाट्यदर्पण" के अतिरिक्त नाट्यशास्त्र विषयक "प्रबंध शतक" नामक ग्रंथ की भी रचना की थी जो अप्राप्य है ।
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"कला-कलाप". "चित्रवर्ण संग्रह
वायड गच्छीय जिनदत सूरि के शिष्य अमरचन्द्र सोमराज रचित "रत्न परीक्षा" ग्रन्थ के अंत में सूरि की कृतियों के बारे में प्रबंध कोश में उल्लेख हैं, "चित्रवर्ण" संग्रह के 42 श्लोकों का प्रकरण अत्यंत जिसनें “कला-कलाप" नामक कृति का भी निर्देश है । उपयोगी है।
इस ग्रंथ का शास्त्र रूप में उल्लेख है । परन्तु अभी तक
यह अप्राप्य है। इसमें 72 या 74 प्रकरणों का निरूपण इसमें मित्तचित्र बनाने के लिये भित्ति कैसी होनी है, ऐसी संभावना है । चाहिये, रंग कैसा बनाना चाहिये, इत्यादि ब्योरेवार वर्णन है।
"मसी-विचार"
प्राचीन भारत में सित्तनबासल, अजंता, वाघ आदि "मसी-विचार" नामक ग्रन्थ जेसलेमर भंडार में है, गुफाओं में और राजा-महाराजों तथा श्रेष्ठियों के जिसमें ताडपत्र और कागज पर लिखने की स्याही प्रसादों में चित्रों को जो आलेखित किया जाता था, बनाने की प्रक्रिया बतायी गयी है। इसका जैन ग्रन्थाउसकी विधि इस छोटे से ग्रंथ से बनाई गई है। यह वली . 362 में उल्लेख है। प्रकरण अप्रकाशित है।
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भारतीय शिल्पकला के विकास में
जैन शिल्पकला का योगदान
भारत की प्राच्य संस्कृति के लिए जहाँ जैन साहित्य का अध्ययन आवश्यक है, वहीं जैन कला के अध्ययन का भी कुछ कम महत्व नहीं है । जेन कला अपनी कुछ विशिष्ट विशेषताओं के कारण भारतीय कला में अपना विशिष्ट महत्व रखती । जैन धर्म की स्वर्णिम - गौरव गरिमा को प्रतीक प्रतिमाएँ, पुरातन मंदिर, विशाल स्तंभादि प्राचीन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के ज्वलंत निदर्शन हैं । अतीत इनमें अंतर्निहित है । सम्बता एवं संस्कृति की रक्षा एवं अभिवृद्धि में साहित्यकार जहाँ लेखनी के माध्यम से समाज में अपने भावों को व्यक्त करता हैं, वहीं कलाकार पार्थिव उपादानों के माध्यम द्वारा आत्मस्थ भावों को अपनी सधी हुई छैनी से व्यक्त करता है ।
मूर्तिकला के क्षेत्र में जैनकला ने अर्हन्तों की अगणित कायोत्सर्ग एवं पद्मासन ध्यान मग्न मूर्तियों का निर्माण किया है जो पाषाण से लेकर मूंगा, हीरा,
पुखराज, नीलम आदि से निर्मित है । मामूली ताँबा, पीतल से लेकर रजत, स्वर्ण जैसी बहुमूल्य धातुओं से निर्मित आकार में छोटी से छोटी एवं बड़ी से बड़ी जैन धर्म की इन प्रतिमाओं में कितनी ही तो चतुर्मुख एवं कितनी ही सर्वतोभद्र हैं । जैन पुरातत्व की प्रमुख वस्तु प्रतिमा है । भारत के विभिन्न भूभागों में जैन मूर्तियों की उपलब्धि होती रहती है, जिनकी मौलिक मुद्रा एक होते हुए भी परिकर में प्रांतीय प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । मुखाकृति पर भी असर होता है ।
डा० शिवकुमार नामदेव
जैन मत में मूर्तिपूजा की प्राचीनता एवं विकास का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है । जैन मत दो प्रमुख पंथ श्वेतांबर एवं दिगम्बर में विभाजित है । श्वेतांबर सदैव ही अपनी प्रतिमाओं को वस्त्राभूषण आदि से सुसज्जित रखते थे । ये पुष्पादि द्रव्यों का प्रयोग करते हैं तथा अपने देवालयों में दीपक भी नहीं जलाते । दिगम्बर मूर्तियाँ नग्न रहतीं थीं ।
1. जैन मत में मूर्ति पूजा की प्राचीनता एवं विकास- शिवकुमार नामदेव, अनेकांत, मई 1974
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भारत की प्राचीनतम मूर्तियाँ सिन्धु घाटी में भारतीय कला का क्रमबद्ध इतिहास मौर्यकाल से मोहन जोदड़ो एवं हड़प्पा आदि स्थलों के उत्खनन से प्राप्त होता है । मौर्यकाल में मगध जैन धर्म का प्रमुख प्राप्त हुई हैं। इस सभ्यता में प्राप्त मोहन जोदड़ो के केन्द्र था। इस काल की तीर्थ कर की एक प्रतिमा पशुपति को यदि शैव धर्म को देव मानें तो हड़प्पा से लोहानीपुर से प्राप्त हुई है । मूर्ति के हाथ एवं मस्तक प्राप्त नग्न धड़ को दिगम्बर की खंडित मूर्ति मानने में टूट गये हैं। पर भी जंघा के पास से नहीं हैं। प्रतिमा आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
पर मौर्यकालीन उत्तम पालिश है। तंग वक्षस्थल तथा
क्षीण शरीर जैनों के तपस्यारत शरीर का उत्तम नमूना सिन्धु सभ्यता के पशुओं में एक विशाल स्कंध
है। पीठ प्राय. चौरस है, पीछे से काठ से प्रतीत होती युक्त वृषभ तथा एक जटाजूटधारी का अंकन है। .
है। यह प्रतिमा किसी ताख में रखकर पूजार्थ प्रयुक्त वृषभ तथा एक जटाजूट के कारण इसे प्रथम जैन तीर्थ
की जाती रही होगी। पार्श्वनाथ की एक कांस्य मूति जो कर आदिनाथ का अनुमान कर सकते हैं। हड़प्पा से ,
मौर्यकाल की मानी जाती है, कायोत्सर्गासन में है। प्राप्त मुद्रा क्रमांक 300, 317 एवं 318 में अंकित
यह प्रतिमा बम्बई के संग्रहालय में संरक्षित है। प्रतिभा अजानलंबित. बाहद्वय सहित कायोत्सर्ग मद्रा में है । हडप्पा के अतिरिक्त उपरोक्त साक्ष्य हमें मोहनजोदड़ो में भी उपलब्ध होता है।'
शुगकाल (185 ई. पू. से 72 ई. पू.) में जैन
धर्म के अस्तित्व की द्योतक कतिपय प्रतिमायें उपलब्ध मथुरा एवं उदयगिरि-खण्डगिरि का पुरातत्व भी हुई. हैं । लखनऊ संग्रहालय' में संरक्षित शुगयुगीन जिन मूर्तियों के प्राचीन आस्तित्व को सिद्ध करते हैं। मथुरा से प्राप्त एक कपाट पर ऋषमदेव के सम्मुख जन स्तूप पर मूर्तियां अंकित रहती थीं । ईसा की अप्सरा नीलांजना का नृत्य चित्रित है । कपाट में अनेक पहली शताब्दी में मथुरा में वह प्राचीन स्तूप विद्यमान नरेशों सहित ऋषमदेव को बैठे हुए दिखाया गया है, था जो इस काल में देव-निर्मित समझा जाता था और नर्तकी का दक्षिण पैर नृत्य मुद्रा में उठा हुआ है तथा जिसे बुल्हर तथा स्मिथ ने भगवान पार्श्वनाथ के काल दक्षिण हाथ भी नृत्य की भंगिमया को प्रस्तुत कर का बताया था।
है। संगत-राश निकट ही बैठे हुए हैं। . ..
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"2. स्टेडीज इन जैन आर्ट -यू. पी. शाह, चित्र फलक क्रमांक 1 3. सरवाइबल ऑफ दि हड़प्पा कल्चर-टी. जी. अमूथन, पृष्ठ 55 । 4. हडप्पा ग्रथ 1, वत्स एम. एस., पृष्ठ 129-130, फलक 931 5. बही, पृष्ठ 28, मार्शल-मोहन जोदड़ो एन्डं इन्डस बली सिविलाइजेशन, ग्रंथ 1, फलक 12, आकृति 13.
14. 18, 19, 22। 6. निहाररंजन रे-मौर्य एन्ड शुग आर्ट, चित्र फलक 28, काम्प्रिहेनसिव हिस्ट्री ऑफ इन्डिया -संपादक
के. ए. नीलकंठशास्त्री, चित्र फलक 38, स्टेडीज इन जैन आर्ट-यू. पी शाह, चित्र फलक 1 क्रमांक 2, मौर्य साम्राज्य का इतिहास-सत्य केतु विद्यालंकार, चित्र फलक 10, भारतीय कला को बिहार की
देन–विन्ध्येश्वरीप्रसाद सिंह, चित्र संख्या 301 7. स्टेडीज इन जैन आर्ट-यू. पी. शाह, चित्र फलक 2, आकृति ।
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प्रिंस ऑफ वेल्सम्यूजियम बम्बई में जैन तीर्थ कर कुषाण युग के अनेक कलात्मक उदाहरण मथूरा पार्श्वनाथ की प्राचीन कांस्य प्रतिमा संग्रहीत है । यह के कंकाली टीले की खुदाई से उपलब्ध हुए हैं। यहाँ कायोत्सर्गासन में है, उनका सर्पफणों का वितान एवं से प्राप्त एक आयागपट्ट जिस पर महास्वस्तिक का दक्षिण कर खंडित है । ओष्ठ लंबे एवं हृदय पर चिन्ह बना है, के मध्य में छत्र के नीचेपद्मासन में श्रीवत्स चिन्हांकित नहीं है. जो परवर्तीकाल में प्राप्त तीर्थकर मूर्ति है, उनके चारों ओर स्वस्तिक की चार होता है। श्री यू.पी. शाह ने प्रतिमा का काल 100 ई. भुजाएं हैं। तीर्थ कर के मण्डल की चार दिशाओं में पू. के लगभग सिद्ध किया है ।
चार त्रिरत्न दिखाये गये हैं। कलात्मक दृष्टि से
लखनऊ संग्रहालय में संरक्षित आयागपट्ट' (क्रमांक जे. ___ शं गकालीन कंकाली टोला (मथुरा) से जैन स्तूप
249) महत्वपूर्ण है । इसकी स्थापना सिंहनादिक ने के अवशेष प्राप्त हुए हैं इसके साथ ही उसी काल के
अर्हत् पूजा के लिए की थी । मध्य में पद्मासन पर पूजा पट्ट भी उपलब्ध हुए है जिन्हें आयाग पट्ट भी
बैठी हुई तीर्थक र मूर्ति है । पट्ट की बाह्य चौखट पर कहा जाता था । यह प्रस्तर अलंकृत हैं तथा आठ
आठ मंगलिक चिन्ह हैं। मांगलिक चिन्हों से युक्त है। पूजा निमित्त अमोहिनी ने इसे प्रदान किया था । इस युग का एक प्रधान केन्द्र
आयागपट्ट पर जो मांगलिक चिन्ह हैं उनकी उड़ीसा में था। यहाँ की उदयगिरि पहाड़ियों पर जैन
स्थिति से मूर्ति को जन प्रतिमा मानने में संदेह नहीं धर्म से सम्बन्धित गृहायें उत्कीर्ण हैं।
रह जाता ये चिन्ह हैं =स्वास्तिक, दर्पण, भस्मपात्र, शुंग एवं कुषाण युग में मथुरा जैन धर्म का प्राचीन वेंत की तिपाई (भद्रासन), दो मछलियाँ, पुष्पमाला केन्द्र था । यहाँ के कंकाली टीले के उत्खनन से बह- एवं पुस्तक । कुषाण युग के अन्य आयागपट ट पर जो संख्यक मूर्तियाँ प्राप्त हई हैं। ये मूतियाँ किसी समय मांगलिक खुदे हैं उनमें दर्पण तथा नंधावर्त का अभाव मथुरा के दो स्तूपों में लगी हई थीं । अहंत नंधावर्त है। संभवतः कनिष्क के काल (प्रथम सदी ई.) तक की एक प्रतिमा जिसका काल 89 ई. है, इस स्तूप के अष्टमांगलिक चिन्हों की अंतिम सूची निश्चित न हो उत्खनन से प्राप्त हुई है।
सकी थी। यहाँ से उपलब्ध जैन मूर्तियां, बोट मूर्तियों से विवेच्य युग में प्रधानतः तीर्थ कर की प्रतिमाएं इतना सहश्य रखती हैं कि दोनों का विभेद करना तैयार की गई जो कायोत्सर्ग एवं आसन अवस्था में कठिन हो जाता है। यदि श्रीवत्स पर ध्यान न दिया हैं। मथुरा के शिल्पयों के सम्मुख यक्ष की प्रतिमायें ही जाय तो ऊपरी अंगों की समानता के कारण जैन को आदर्श थीं, अतः कायोत्सर्ग स्थिति में तीथं कर की बौद्ध एवं बौद्ध को जैन मूर्ति कहने में कोई आपत्ति नहीं विशालकाय नग्न मूर्तियाँ बनने लगीं। कंकाली टीले के होगी । कारण यह था कि कुषाण युग के प्रारम्भ में उत्खनन से प्राप्त वहसंख्यक नग्न तीर्थ कर की प्रतिमायें कला में धार्मिक कट्टरता नहीं थी।
लखनऊ के संग्रहालय में हैं । तीर्थ कर प्रतिमाओं में
8. वही, आकृति 31 9. भारतीय कला- वासुदेव शरण अग्रवाल, पृष्ठ 281-282, चित्र फलक 3161 10. वही. पृष्ठ 282-283, चित्र संख्या 318 |
.... ...
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अधोवस्त्र का समावेष कुषाणयुग के पश्चात किया प्रतिमाओं की संख्या पर्याप्त रूप से मिलती है। तांत्रिक गया । इस युग में तीर्थ करों के विभिन्न प्रतीकों का भावना ने कला को प्रभावित किया । कलाकारों का परिज्ञान न हो सका था । विभिन्न तीर्थ करों को पह- कार्यक्षेत्र विस्तृत हो गया, परन्तु शास्त्रीय नियमों से चानने के लिए तीर्थ करों की चौकियों पर अंकित बद्ध होने के कारण जैन कलाकारों को स्वतंत्रता न लेखों में नाम का उल्लेख ही पर्याप्त था।
रही । इस युग में 24 तीर्थकरों से सम्बन्धित चौबीस
यक्ष-यक्षिणी को भी कला में स्थान दिया गया। ..कुषाण युग में मथुरा कला में तीर्थ करों के लांछन नहीं पाये जाते हैं, जिनसे कालांतर में उनकी पहचान
प्राचीन भारत के महत्वपूर्ण नगर विदिशा के की जाती थी । केवल आदिनाथ के कंधों पर खुले निकट दुर्जनपूर ग्राम से कुछ वर्ष पूर्व रामगुप्तकालीन हए केशों की लटें दिखाई गई है और सुपार्श्वनाथ के तीन अभिलेसन
तीन अभिलेख युक्त जैन प्रतिमायें प्राप्त हंई थी। इन
निया में मस्तक पर सर्पफणों का आटोप है। तीर्थ कर मूर्तियों प्रतिमाओं की प्राप्ति से भारतीय इतिहास में अर्दशती के वक्ष पर श्रीवत्स एवं मस्तक के पीछे तेजचक्र या से चले आ रहे इस विवाद का निराकरण संभव हो प्रभामण्डल पाया जाता है। फणाटोप वाली मूर्तियों में
__ सका कि रामगुप्त गुप्त शासक था या नहीं।"
का प्रभामण्डल नहीं रहता। चौकी पर केवल चक्र ध्वज या जिनमूर्ति या सिंह का अंकन पाया जाता हैं।
उपयुक्त तीनों प्रतिमाओं में से दो प्रतिमायें चन्द्र
प्रभ एवं एक अर्हत पुष्पदंत की हैं। यद्यपि मूर्तियाँ भारतीय इतिहास में स्वर्णयुग के नाम से विख्यात
कुछ नग्न हैं तथापि कलात्मक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं । गुप्तकाल में यद्यपि जैनधर्म अधिक लोकप्रिय नहीं था,
चन्द्रप्रभ की प्रथम मूर्ति के दक्षिण कर्ण में एक कड़ा परन्तु अनेक साक्ष्यों से इस काल में जैन धर्म पर प्रकाश
एवं वक्ष पर श्रीवत्स चिन्हांकित हैं। पदमासनस्थ इस पडता है। इस युग में कला प्रौढता को प्राप्त हो चुकी .
प्रतिमा के पाठपीठ पर मध्य में चक्र एवं दोनों पार्श्व में थी। जैन प्रतिमायें सुन्दरता एवं कलात्मक दृष्टि से
सिंह उत्कीर्ण है । मूर्ति का शरीर गठीला है । मस्तक . उत्तम हैं । अधोवस्त्र तथा श्रीवत्स ये विशेषतायें गुप्त
के पीछे आभामण्डल था जो नष्ट हो गया है । चन्द्रल में परिलक्षित होती हैं। जैन मूर्तियाँ बनावट की
प्रभ की द्वितीय प्रतिमा का मुख भाग पूर्णरूपेण खंडित दृष्टि से उच्चकोटि की हैं। प्रतिमाओं में चक्र, चौकी
है। पीछे तेजोमण्डल जिसका अर्धभाग ही शेष है। के मध्य तैयार किए गये, जिसके दोनों पार्श्व में दो
वक्ष पर श्रीवत्स अंकित यह प्रतिमा भी पद्मासनस्थ हिरण या वृषभ खोदे गए हैं । सिरे पर तीन (चक्र)
है । पादपीठ के मध्य चक्र उत्कीर्ण हैं। दोनों पार्श्व रेखाओं का छत्र दिखलाया गया है जिसके दोनों ओर
- पर चामरधारी हैं । तृतीय प्रतिमा अर्हत पुष्पदंत की हरित स्थित हैं। गुप्तयुगीन जैन प्रतिमाओं में यक्ष
है जो उपरिवर्णित प्रतिमा के ही सद्दश्य है । यक्षिणी, मालावाही गंधर्व आदि देवतुल्य मूर्तियों को भी स्थान दिया गया था। उत्तर गुप्तकाल में जन कला बक्सर के निकट चौसा (बिहार) से उपलब्ध सम्बन्धी अनेक केन्द्र काम करने लगे। अतः स्थानीय कुछ कांस्य प्रतिमायें पटना के संग्रहालय में है । इन
11. विदिशा से प्राप्त जैन प्रतिमायें एवं रामगुप्त-शिवकुमार नामदेव, अनेकांत मई 1974। विदिशा से प्राप्त
प्रतिमायें एवं रामगृप्त-शिवकुमार नामदेव, मध्यप्रदेश संदेश, 28 अक्टूबर 1972 । विदिशा से प्राप्त जैन प्रतिमायें एवं रामगुप्त की ऐतिहांसिकता-शिवकुमार नामदेव, श्रमण, अप्रैल 1974 ।
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प्रतिमाओं में से कुछ पर गंधार कला का स्पष्ट प्रभाव में निर्मित महावीर की एक प्रतिमा मथुरा संग्रहालय में दृष्टिगोचर होता है । यहां से उपलब्ध ऋषभनाथ की है। यह उत्थित पद्मासन में है।16 एक स्थानक प्रतिमा महत्वपूर्ण है। प्रतिमा का प्रभा । मण्डल एवं शरीर गठन कला की दृष्टि से सुन्दर नहीं।
____सीरा पहाड़ की जन गुफाये तथा उनमें उत्कीर्ण
मनोहर तीर्थकर प्रतिमाओं का निर्माण इसी काल में है । ओष्ठ मोटे प्रतीत होते हैं ।
हुआ। यहां से प्राप्त पार्श्वनाथ की मूर्ति सप्तफणों से युक्त राजमिरि की वैभार पहाड़ी पर एक खंडित देवा- पदमासनरूढ है। भारत कला भवन काशी में संरक्षित लय के आले में एक प्रतिमा पदमासनस्थ ध्यानावस्थित राजघाट से प्राप्त धरणेन्द्र एवं पदमावती सहित पावहै, प्रतिमा के मूर्तितत्व पर मध्य में एक युवा राज- नाथ की प्रतिमा कला की दृष्टि से सुन्दर है। कुमार अकित है जिनके दोनों पार्श्व में पैरों के निकट शंख हैं। प्रभामण्डल से युक्त इस प्रतिमा को कुछ वर्धमान महावीर को दीक्षा ग्रहण करने के पूर्व विद्वानों ने नेमिनाथ को माना था, परन्तु वास्तव में जीवंत स्वामी के नाम से जाना जाता था । जीवंत यह प्रतिमा चक्र-पुरुष की है जो गुप्तयुगीन विचार स्वामी की गुप्तयुगीन दो प्रतिमायें बड़ौदा संग्रहालय17 में धारा है । इस प्रतिमा के दोनों ओर दो जिन पदमासन सुरक्षित हैं । राजकीय परिधान में होने से उनकी में बैठे हैं। मस्तक प्रभामण्डल से सुशोभित हैं । अन्य पहचान सरलता से हो जाती है। अकोठा18 से प्राप्त आलों में भी तीर्थकर प्रतिमायें हैं । शैली की दृष्टि से प्रथम तीर्थकर ऋषभनाथ की एक कांस्य प्रतिमा कला ये ई. चौथी सदी की ज्ञात होती है।
की दृष्टि से सुन्दर है । प्रतिमा नग्न है एवं उसके
मुर्तितल का पता नहीं है। प्रतिमा के अर्ध निमीलित गुप्तयुगीन बेसनगर (ग्वालियर संग्रहालय) से
नेत्र योग की ध्यानमुद्रा की ओर संकेत करते हैं। प्रतिमा प्राप्त एक प्रतिमा के प्रभामण्डल के दोनों ओर उड़ते
का काल 450 ई. ज्ञात होता है। हुए मालाधारी अंकित हैं । प्रभामण्डल कुषाण शैली का है । विवेच्य युगीन मथुरा संग्रहालय की दो प्रति छठवीं सदी के तृतीय चरण में पाण्डवंशियों ने मायें। शैली की दृष्टि से बनारस स्कूल के शिल्प की सरमपूरीय राजवंस को समाप्त कर दक्षिण कोशल को तरह हैं। सारनाथ से प्राप्त अजित नाथ की प्रतिमा का अपने अधिकार में कर श्रीपुर (सिरपुर, रायपुर जिला) डॉ. साहनी ने गुप्त संवत् 61 माना है, यह काशी को अपनी राजधानी बनाया। इस काल की पार्श्वनाथ की संग्रहालय में है । गुप्त नरेश कुमारगुप्त प्रथम के काल एक प्रतिमा" सिरपुर से उपलब्ध हुई । ध्यानावस्था में
12. स्टेडीज इन जैन आर्ट-यू. पी. शाह, चित्र फलक 6, क्रमांक 171 13. वही, आकृति 18।। 14. वही, चित्र फलक 10, आकति क्रमांक 241 15. वही, चित्र फलक 11, आकृति क्रमांक 25-261 16. इम्पीरियल गुप्त, आर. डी. बनर्जी, फलक 28 । 17. अकोठा बोन्ज-यू. पी. शाह, पृ. 26-28।। 18. स्टेडीज इन जैन आर्ट-यू. पी. शाह, फलक 8, आकृति 191 19. महत घासीराम स्मारक संग्रहालय रायपुर का सूची पत्र भाग 2, चित्र फलक 3 क।
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पद्मासनरूढ़ इस प्रतिमा के केश घुघराले एवं उष्णीष- कलचुरि कालीन तीर्थ कर प्रतिमायें आसन एव बद्ध हैं, कर्ण की लौंडी लम्बी एवं हृदय पर श्रीवत्स स्थानक मुद्रा में प्राप्त हुई है । कुछ संयुक्त प्रतिमाये चिन्ह अंकित है। उनका लांछन नाग तकिया के रूप भी उपलब्ध हुई हैं। तीर्थ करों में सर्वाधिक प्रतिमाये कुण्डली मारे बैठा है जिसके सातों फण उनके ऊपर तीर्थ कर ऋषमदेव की हैं। छत्र की भांति तने हुए हैं।
कलचुरि युगीन भगवान ऋषभनाथ की सर्वाधिक उत्तरगुप्तकाल में कला के अनेक केन्द्र थे। कला प्रतिमायें कारीतलाई से उपलब्ध हुई हैं । ये श्वेत तांत्रिक भावना से ओत-प्रोत थी। यद्यपि इस काल में बलुआ पाषाण से निर्मित हैं। सम्प्रति ये सभी प्रतिमाये कलाकारों का क्षेत्र विस्तत हो गया था परन्तु वे प्रतिमा रायपूर संग्रहालय में संरक्षित हैं । कारीतलाई के निर्माण में स्वतंत्र नहीं थे अपितु अपनी रचनाओं को अतिरिक्त तेवर (जबलपुर), मल्लार एवं रतनपुर शास्त्रीय नियमों के आधार पर ही रूप प्रदत्त करते थे। (बिलासपूर) आदि से भी आदिनाथ की प्रतिमाये बंधन के फलस्वरूप मध्ययुगीन जैन कला निष्प्राण सी उपलब्ध हुई हैं। तेवर से उपलब्ध, सम्प्रति जबलपुर के हो गई थी। इस काल की एक प्रमुख विशेषता जो हमें हनुमानताल जैन मंदिर में संरक्षित 7 फुट 4 इच परिलक्षित होती है, वह है-कला में चौबीस तीर्थकरों ऊंची ऋषभनाथ की प्रतिमा अतिकलापूर्ण एवं प्रभावो की यक्ष-यक्षिणी को स्थान प्रदान किया जाना। मध्य त्पादक हैं। प्रतिमा के अंग प्रत्यंग सुन्दर एवं सुडौल है कालीन जैन प्रतिमाओं में चौकी पर आठ ग्रहों की मस्तक पर धुघराले केश आकर्षक हैं । उभय स्कंध पर आकृति का अंकन है जो हिन्दुओं के नव-ग्रहों का ही केश गुच्छ लटक रहे हैं। अनुकरण है।
द्वितीय तीर्थकर अजितनाथ की आसन मुद्रा में दो मध्यकाल में मध्यप्रदेश में जैन धर्म की प्रतिमायें बह एवं चन्द्रप्रभ, शांतिनाथ, नेमिनाथ की एक-एक मूर्ति लता से उपलब्ध होती हैं। मध्यप्रदेश के यशस्वी राज- प्राप्त हुई है। तीर्थ कर शांतिनाथ की एक आसन एक वंश, कलचुरि, परमारों एवं चंदेल नरेशों के काल में दो स्थानक मुद्रा में प्राप्त प्रतिमायें विशेष उल्लेखनीय उनकी धार्मिक सहिष्णुता के फलस्वरूप जैन धर्म भी हैं। बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ की एक सुन्दर प्रतिमा इस भू भाग में पुष्पित एवं पल्लवित हुआ । भारतीय धुबेला के संग्रहालय में संरक्षित हैं। विवेच्य युगीन जैन कला में मध्यप्रदेश का योगदान महत्वपूर्ण है। पार्श्वनाथ की प्रतिमायें सिंहपुर (शहडोल), पेन्ड्रा अखिल भारतीय परम्पराओं के साथ-साथ मध्यप्रदेश (बिलासपुर) कारीतलाई (जबलपुर) आदि से उपलब् की अपनी विशेषताओं को भी यहाँ की कला ने उचित हुई हैं। महावीर की आसन प्रतिमाओं में कारीतलाई स्थान दिया।
से उपलब्ध प्रतिमा महत्वपूर्ण है। महावीर की श्याम
20. कारीतलाई की अद्वितीय भगवान ऋषभनाथ की प्रतिमायें-शिवकुमार नामदेव, अनेकांत, अक्टूबर
दिसम्बर 19731 21. कलिचुरी कालीन भगवान शांतिनाथ की प्रतिमायें-शिवकुमार नामदेव, श्रमण, अगस्त 1972 । 22. धुबेला संग्रहालय की जैन प्रतिमायें-शिवकुमार नामदेव, श्रमण-जून 1974 ।
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बलुआ पाषाण निर्मित कायोत्सर्गासन की एक प्रतिमा मध्यप्रदेश के विश्व प्रसिद्ध कला तीर्थ खजुराहो में जबलपुर से उपलब्ध हुई थी जो सम्प्रति फिल्जेलफिया चन्देल नरेशों के काल में निर्मित नागर शैली के देवाम्यूजियम आफ आर्ट में संग्रहीत है । मूर्ति में अंकित लय वास्तु वैशिष्ट्य एवं मूर्ति संपदा के कारण गौरवसिंह के कारण यह महावीर की ज्ञात होती है।
शाली है। यहाँ के जैन मंदिरों में जिन मतियां प्रतिष्ठित
हैं और प्रवेश द्वार तथा रथिकाओं में विविध जैन विवेच्य आसन एवं स्थानक प्रतिमाओं के अतिरिक्त देवियाँ । देवालयों के ललाट बिब में चक्र श्वरी यक्षी तीर्थकरों की द्विमूर्तिकायें भी प्राप्त हुई हैं । ये भी प्रदर्शित है एवं द्वार शाखाओं तथा रथिकाओं में अधिस्थानक एवं आसन मुद्रा में हैं। कारीतलाई से प्राप्त कांशतः अन्य जैन देवी देवता जैसे जिनों, विद्याधरों द्विमतिका प्रतिमायें रायपुर संग्रहालय में संरक्षित हैं।
शासन देवताओं आदि की मूर्तियाँ हैं। वर्धमान की मां
ने जो सोलह स्वप्न देखे थे वे सब जैन देवालयों कलचुरियूगीन पाश्र्वनाथ एवं नेमिनाथ की एक
(पार्श्वनाथ को छोड़कर) के प्रवेश द्वार पर प्रदर्शित मूर्तिका सम्प्रति फिल्डेलफिया म्यूजियम ऑफ आर्ट में
हैं । जैन मूर्तियां प्रायः तीर्थंकरों की हैं, जिनमें से संरक्षित है । कृष्ण बादामी प्रस्तर से निर्मित दसवीं
- वृषम, अजित, सम्भव, अभिनन्दन, पद्मप्रभु, शांतिनाथ सदी की इस द्विमूर्तिका में तीर्थ कर एक वट वृक्ष के
एवं महावीर की मूर्तियाँ अधिक हैं।30 नीचे कायोत्सर्गासन में है।
बुन्देलखण्ड के जैन तीर्थ अहार (टीकमगढ से 12 विवेच्ययुगीन जैन शासन- देवियों की मूर्तियाँ मील के प्राचीन देवालय में बाईस फुट के आकार की बहुतायत से प्राप्त हुई हैं । ये स्थानक एवं आसन दोनों
एक विशाल शिला है, इसी शिला पर अठारह फुट ऊँची तरह की है। उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि कलचुरि
भगवान शांतिनाथ की एक कलापूर्ण मूर्ति सुशोभित नरेशों के काल में निर्मित अधिकांश प्रतिमायें दसवीं
है। इसे परमादिदेव चन्देल के काल में संवत् 1237 एवं बारहवीं सदी के मध्य निर्मित हुई थीं । मूर्तियाँ वि. में स्थापित किया गया था। बायीं ओर की बारह शास्त्रीय नियमों पर आधारित हैं। उस मूर्ति कला पर ।
फुट की कुन्थुनाथ की मूर्ति भी सुन्दर है । गुप्तकालीन मूर्तिकला का प्रभाव अवश्य पड़ा है फिर भी कलचुरि कालीन जैन प्रतिमाओं में कुछ रूढ़ियों का प्रयाग नगरसभा के संग्रहालय में खजुराहो से दृढ़ता पूर्वक पालन किया गया है ।23
उपलब्ध 10 वीं सदी की निर्मित पार्श्वनाथ की एक 23. स्टैला केमरिच-इन्डियन स्कल्पचर इन द फिल्डेलफिया म्यूजियम आफ आर्ट, पृष्ठ 82 । 24. कारीतलाई की द्विमूर्तिका जैन प्रतिमायें-शिवकुमार नामदेव, श्रमण, सितम्बर 1975। 25. स्टला कमरिच-इन्डियन स्कल्पचर इन द फिल्डेलफिया म्यूजियम ऑफ आर्ट, पृ. 83 । 26. कलचुरी कला में जैन शासन देवियों की मूर्तियां-शिवकुमार नामदेव, श्रमण, अगस्त 1974 । 27. भारतीय जन शिल्प कला को कलचुरि नरेशों की देन, शिवकुमार नामदेव, जैन प्रचारक, सितम्बर
अक्टूबर 19741 28. भारतीय जैन कला को कलचुरि नरेशों का योगदान-शिवकुमार नामदेव, अनेकांत-अगस्त 1974। 29. जन कला तीर्थ-खजुराहों-शिवकुमार नामदेव, श्रमण, अक्टूबर 1974 । 30. खजुराहो की अद्वितीय जैन प्रतिमायें-शिवकुमार नामदेव, अनेकांत, फरवरी 19741 31. खण्डहरों का वैभव-मुनि कांतिसागर पृ. 246-47 ।
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विलक्षण प्रतिमा संग्रहीत है । जिनके समीकरण के जैन धर्म का आस्तित्व पूर्व मौर्यकाल से लेकर आद्याविषय में विद्वानों में मतैक्य है।
वधि निरंतर दृष्टिगोचर होता है।
प्रतिहारों के पतन के पश्चात मालवा में परमारों उत्तरप्रदेश में मध्यकालीन जैन प्रतिमायें बहलता का राज्य स्थापित हआ । इनके समय में जैन धर्म से प्राप्त हुई है जो इस प्रदेश के विभिन्न संग्रहालयों में मालवा में अपने स्वणिम काल में था। भोजपुर से तीन देवालयों एवं यत्र-तत्र अवस्थित है । उत्तर प्रदेश के मील आशापूरी नामक गांव में शांतिनाथ की परमार- अधिकांश स्थलों से उपलब्ध जैन प्रतिमायें प्रयाग संग्रहाकालीन प्रतिमा है। निमाड़ के मैदान में ऊन नामक के लय में हैं, यहाँ संग्रहीत ऋषभनाथ की चुनार पाषाण अवशेषों में लगभग एक दर्जन मन्दिर परमार राजाओं से निर्मित प्रतिमा उल्लेखनीय है। संग्रहालय में स्थित की स्थापत्य कला के उत्तम नमुने हैं। केन्द्रीय संग्रहालय हल्के हरे रंग के आकर्षक प्रस्तर पर चतुर्विशतिइंदौर में परमार युगीन तीर्थ करों की लेखयुक्त प्रति- पट्ट उत्कीर्ण है । प्रतिमाओं का अंग विन्यास स्वाभाविक मायें हैं।
है, यह 13वीं सदी की कृति है।
पूर्व मध्य एवं मध्यकाल में जैन कलाकृतियाँ नगर सभा संग्रहालय के उद्यान कूप के निकट एक मध्यप्रदेश के विभिन्न भूभागों से उपलब्ध होती हैं। छोटे से छप्पर में अम्बिका देबी उत्कीर्ण है। इसका मुरैना के सिंहोनिया, पढावली, गुना के तिराही एवं परिकर न केवल जैन शिल्प स्थापत्य कला का समुज्जइन्दौर, पन्ना के टूडा ग्राम, सिवनी में घंसौर एवं वल प्रतीक है, अपितु भारतीय शिल्प स्थापत्य कला में बरहटा, ग्वालियर के निकट मुरार, नागौद एवं जसो जनों की मौलिक देन है। प्रतिमा का काल 12-13वीं के अतिरिक्त दक्षिण कौशल के अनेकों स्थल जैन शिल्प सदी के मध्य का ज्ञात होता है। उत्तरप्रदेश के विभिन्न कला से भरे पड़े हैं। मालव भूमि के साँची, धार, स्थलों से जैन यक्षी पदमावती की प्रतिमायें उपलब्ध दशपुर, बदनावर, कानवन, बड़नगर, उज्जैन, जावरा, हई हैं। बड़वानी आदि ऐसे कला केन्द्र हैं, यहाँ ब्राह्मण धर्म की प्रतिमाओं के साथ-साथ जैन मतियाँ संरक्षित हैं।
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के खुरवन्दोग्राम
में भगवान महावीर की प्राचीन मूर्ति स्थापित है। उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि अति झाँसी जिले के चंदेरी में भगवान महावीर की लावव्यप्राध्यकाल से ही मध्यप्रदेश के विभिन्न भूभागों में मयी प्रतिमा आभा से परिपूर्ण है । इसके अतिरिक्त
32. मध्यप्रदेश में जैन धर्म एवं कला-शिवकुमार नामदेव, सन्मति संदेश, अप्रैल-मई 19751 33. जैन धर्म एवं उज्जयिनी-शिवकुमार नामदेव, सन्मति वाणी, जुलाई 19751 34. भारतीय जैन कला को मध्यप्रदेश की देन--शिवकुमार नामदेव, सन्मति वाणी, मई-जून 19751 35. खण्डहरों का वैभब-मुनि कांति सागर, फ. 232 एवं आगे। 36. खण्डहरों का वैभव-मुनि कांतिसागर पृष्ठ 250-253 1 37. उत्तर भारत में जैन यक्षी पदमावती का प्रतिमा निरूपण-मारुतिनंदन प्रसाद तिवारी, अनेकांत
अगस्त 19741
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महावीर की प्रतिमायें इलाहाबाद में स्थित पफोसा, देवगढ़ के मन्दिर क्रमांक 21 आदि में सुरक्षित हैं ।
श्रावस्ती के पश्चिमी भाग में जैन अवशेष प्रचुर मात्रा में मिलते हैं । यहीं पर भगवान संभवनाथ का जीर्ण-शीर्ण मन्दिर है । यहाँ पर अनेकों प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं । 39 जिला गोंडा के महंत से आदिनाथ की एक सुन्दर प्रतिमा उपलब्ध हुई है । पदमासन के नीचे दो सिंह और वृषम हैं। आसन के नीचे कमल है जिस पर आदिनाथ पदमासन पर बैठे हैं । हृदय पर धर्म चक्र बना है । मस्तक के पीछे प्रभामण्डल एवं तीन छत्रों वाला छत्र है । सभी ओर अनेक तीर्थंकर ध्यान मग्न हैं । 10 बरेली जिले के अहिच्छत्र से अनेकों जैन प्रतिमायें उपलब्ध हुई हैं। यहां से उपलब्ध पार्श्वनाथ की एक सातिशय प्रतिमा हरित पन्ना की पद्मासन मुद्रा में विराजमान है । प्रतिमा अत्यन्त सौम्य एवं प्रभावक है। मूर्ति के नीचे सिंहासन के पीठ के सामने वाले भाग में 24 तीर्थ कर प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं ।"
कर्नाटक में जैन धर्म का अस्तित्व प्रथम सदी ई. पू. से 11वीं सदी ई. तक ज्ञात होता है । होयशल वंशी नरेश इस मत के प्रबल समर्थक थे । पूर्वकालीन जैन देवालय एवं गुफायें ऐहोल, बादामी एवं पट्टडकल
आदि में है । इनके अतिरिक्त जैन देवालय लकुण्डी (लोकिगुण्डी), बंकपुर, बेलगाम, हल्शी, बल्लिगवे,
गुण्ड आदि में हैं । ये देवालय विभिन्न देव प्रतिमाओं से विभूषित हैं । इस काल की वृहताकार प्रतिमायें श्रावणबेलगोल, कार्कल एवं वेनूर में स्थापित है ।
कर्नाटक में पद्मावती सर्वाधिक लोकप्रिय यक्षी रही हैं। 12 यद्यपि पद्मावती का संप्रदाय काफी प्राचीन रहा है: परन्तु 10वीं शती के बाद के अभिलेखीय साक्ष्यों में निरंतर पद्मावती का उल्लेख प्राप्त होता है । कन्नड क्षेत्र में प्राप्त पार्श्वनाथ मूर्ति ( 10वीं11वीं सदी) में एक सर्पफण से युक्त पद्मावती की दो भुजाओं में पदम एवं अभय प्रदर्शित है । 13 कन्नड शोध संस्थान संग्रहालय की पार्श्व मूर्ति में चतुर्भुज पद्मावती, पदम, पाश, गदा या अंकुश एवं फल धारण करती हैं ।" इसी संग्रहालय में चतुर्भुजी पद्मावती की ललितासन मुद्रा में दो स्वतन्त्र मूर्तियाँ हैं। बादामी की गुफा पाँच, के समक्ष की दीवार पर ललित में मुद्रा आसीन चतुर्भुजी यक्षी आमूर्तित है । आसन के नीचे वाहन सम्भवतः हंस है । सर्पफणों से विहीन यक्षी के करों में अभय, अंकुश पाश एवं फल प्रदर्शित हैं । 15 पद्मा वती की तीन चतुर्भुजी कर्नाटक से प्राप्त प्रतिमायें प्रिंस ऑफ वेल्स म्युजियम बम्बई में संरक्षित है ।"
38. भारतीय पुरातत्व एवं कला में भगवान महावीर - शिवकुमार नामदेव, श्रमण, नवम्बर-दिसम्बर 1974।
39. जैन तीर्थ श्रावस्ती - पं. बलभद्र जैन - अनेकांत, जुलाई-अगस्त 1973 ।
40. भारतीय प्रतीक विद्या - जनार्दन मिश्र, चित्र संख्या 79 ।
41. अहिच्छत्र - श्री बलिभद्र, जैन, अनेकांत, अक्टूबर-दिसम्बर 1973
42. जैनिज्म इन साउथ इन्डिया - देसाई, पी. वी. पृष्ठ 163 |
43. नोट्स ऑन टू जैन मेण्टल इमेजेज - हाडवे, डब्ल्यू एस, रूपम, अंक 17 जनवरी 1924, पृ. 48 44. गाइड टू द कन्नड रिसर्च इन्सटीट्यूट म्युझियम धारवाड़ - 1958 पृ. 19 ।
45. जैन यक्षाज ऐण्ड पक्षिणीज- सांकलिया, कलेटिन डेक्कन कॉलेज रिसर्च इन्स्टीट्यूट, खण्ड 9, 1940
पृष्ठ 169 ।
46. वही पृष्ठ 158 159 1
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कर्नाटक में गोम्मट की अनेक मूर्तियाँ हैं । चालुक्यों श्री पद्मप्रभु स्वामी की प्रतिमा है। इसी स्थल के एक के काल में निर्मित ई. सन् 650 की गोम्मट की एक मदिर में ऋषभनाथ की पांच प्रतिमायें हैं। जिनमें दो प्रतिमा बीजापुर जिले के बादामी में है । तलकाडु के गंग चौबीस तीर्थकरों की प्रतिमा परिसर युक्त हैं। राजाओं के शासन काल में गंग राजा रायमल्ल सत्य
उड़ीसा की खण्ड गिरि की नवमुनि एवं बारभुजी वाक्य के सेनापति व मन्त्री चामुण्डराज द्वारा वेलगोल
गुफाओं (8वीं-9वीं सदी) के सामूहिक अंकनों में भी में ई. सन 982 में स्थापित विश्व प्रसिद्ध गोम्मट मूर्ति
पार्श्वनाथ के साथ पदमावती आमूतित है। नवमुनि है। गोम्मट गिरी में भी 14 फुट ऊँची एक गोम्मट
गृफाओं में पार्श्व के साथ उत्कीणित द्विभूजी यक्षी मूर्ति है । इसके अतिरिक्त होसकोटे हल्ली, कार्कल एवं
ललितमुद्रा में पदमासन पर विराजमान है । 40 बारभुजी वेणुर में पैतीस फुट ऊँची प्रतिमा है ।
गुफा में पार्श्व के साथ पांच सर्पफणों से मंडित अष्टभुजी बंगाल48 में जैन धर्म का आस्तित्व प्राचीन काल से पद्मावती है। पुरी जिले से उपलब्ध आदिनाथ की ही रहा है। यहाँ के धरापात के एक प्रतिमा विहीन एक स्थानक प्रतिमा इंडियन म्यूजियम कलकत्ता की देवालय के तीनों ओर के ताकों में विशाल प्रतिमायें निधि है। 60 विराजित थीं जिनमें पृष्ठ भाग वाली में ऋषमदेव,
तामिलनाडु से भी जैन धर्म से सम्बंधित अनेकों वामपक्ष से प्रदक्षिणा करते प्रथम शांतिनाथ और अन्त
प्रतिमायें उपलब्ध हई हैं। कलगुमलाई से चतुर्भुजी में तीसरे आले में जैनेतर मूर्तियाँ हैं। ये सम्भवतः 8वीं
षदमावती को ललित मुद्रा में (10 वीं-11 वीं सदी) सदी की हैं। बहुलारा नामक स्थल के एक मन्दिर के
मूर्ति प्राप्त हुई है। शीर्ष भाग में सर्पफण से मंडित सामने वेदी पर तीन प्रतिमायें हैं । मध्यवर्ती प्रतिमा
यक्षी, फल, सर्प, अंकुश एवं पाश धारण करती हैं । 1 भगवान पार्श्वनाथ की हैं जो अष्ट प्रतिहार्य और
मदुरा तामिलनाडु का महत्वपूर्ण नगर है। यहां पर धरणेन्द्र-पदमावती से युक्त है। भगवान पार्श्वनाथ की
जैन संस्कृति की गौरव गरिमा में अभिवद्धि करने वाली प्रतिमा के निम्न भाग में धरणेन्द्र-पदमावती है और
कलात्मक सामग्री का प्रचुर परिमाण विद्यमान हैं। मति निर्माणक दम्पत्ति भी है। बांकुडा जिले के ही हाडमासरा ग्राम के जंगल में एक पार्श्वनाथ प्रतिमा है। बिहार प्रदेश से उपलब्ध अनेकों प्रतिमायें पटना अंबिकानगर में स्थित अंबिका देवी के मंदिर के पृष्ठ संग्रहालय में संरक्षित हैं। संग्रहालय में चौसा के भाग में अवस्थित एक जैन मदिर में सपरिकर ऋषभ- शाहाबाद से प्राप्त जैन धातु मूर्तियां सुरक्षित हैं । नाथ की प्रतिमा है। पाकबेडरा में अनेकों प्रतिमायें ऋषभनाथ की प्रतिमा कायोत्सर्ग स्थिति में कंधे पर संरक्षित हैं। इनमें 7 फुट ऊँची खड़गासन स्थित बिखरे बाल तथा लंबी भुजाओं के साथ बनाई गई थीं।
47. कर्नाटक की गोम्मट मूर्तियां-आचार्य पं. के. भुजबल शास्त्री, अनेकांत, अगस्त 1972 । 48. बंगाल के जैन पुरातत्व की शोध में पांच दिन-भंवरलाल नाहटा, अनेकांत, जुलाई-अगस्त 19731 49 शासन देवीज इन द खण्डगिरि केबस-मित्रा देवल, जर्नल एशियाटिक सोसायटी (बंगाल) खण्ट ।
अंक 2, 1959, 4.-139। 50. स्टेडीज इन जैन आर्ट-यू. पी. शाह, आकृति 36 । 51. जैनिज्म इन साउथ इन्डिया-पी. बी. देसाई, प. 651
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पार्श्वनाथ की धातु प्रतिमा कायोत्सर्ग तथा पीछे सर्प- के जैन मंदिर की दक्षिणी वेदिका बंध पर उत्कीर्ण है। फण के साथ है। यहां से उपलब्ध धातु प्रतिमायें ललित मुद्रा में मद्रासन पर विराजमान यक्षी की कमलासन पर खड़ी हैं। राजग्रह निवासी कन्हैयालालजी भुजाओं में बरद, वज, पद्मकलिका, कृपाण, खेटक, श्रीमाल के संग्रह में एक प्रस्तर पट्रिका है । इसके निम्न घण्ट एवं फल प्रदर्शित है। भाग में महाबीर की प्रतिमा है। ऊपर के एक भाग में
विमलशाह गुजरात के प्रतापी नरेश भीमदेव के भाव शिल्प है जिसका सम्बन्ध महावीर से ज्ञात होता
मंत्री थे। इन्होंने ग्यारहवीं सदी में विमलवसही का
निर्माण कराया था। इसके गढमण्डप के दक्षिणी द्वार नालंदा से उपलब्ध एवं नालंदा संग्रहालय में पर चतुर्भुजी पद्मावती की आकृति उत्कीर्ण है। संरक्षित ललित मुद्रा में पद्म पर विराजमान चतुर्भूजी विमलवसही की देवकूलिका 49 के मण्डप वितान पर देवी के मस्तक पर पांच सर्पफण प्रदर्शित हैं। देवी उत्कीर्ण षोडशभुजी देवी की सम्भावित पहचान महाकी भुजाओं में फल, खड़ग, परशु एवं चिनमुद्रा में विद्या वैरोट्या एवं यक्षी पद्मावती दोनों ही से की जा पदमासन का स्पर्श करती देवी की भुजा में पद्म नालिका सकती है। सर्प के सप्तफणों का मण्डन जहां देवी भी स्थित है। 53 केवल सर्पफण से हो इसका समी- पद्मावती की पहचान का समीकरण करता है, वहीं करण पदमावती से करना उचित नहीं है।
कुक्कुट सर्प के स्थान पर वाहन के रूप में नाग का
चित्रण एवं भुजाओं में सर्प का प्रदर्झन महाविद्या राजस्थान के ओसिया 54 नामक स्थल में महावीर
वैरोट्या से पहचान का आधार प्रस्तुत करता है। का एक प्राचीन मंदिर है। यह 9 वीं सदी की रचना है। मंदिर में विराजमान महावीर को एक विशालकाय जयपुर के निकट चांदनगांव एक अतिशय क्षेत्र है। मूर्ति है । इसी स्थल से पार्श्वनाथ की एक धातु प्रतिमा “यहां महावीर जी के विशाल मंदिर में महावीर की उपलब्ध हुई थी जो सम्प्रति कलकत्ता के एक मंदिर में भव्य सुन्दर मूर्ति है। जोधपुर के निकट गाँधाणी तीर्थ है । इस देवालय के मुखमण्डल के ऊपरी छज्जे पर में भगवान ऋषभदेव की धातु मूर्ति 937 ई. को है । पद्मावती की प्रतिमा उत्कीर्ण है। कुक्कुट-सर्प पर वदी 56 से 20 वर्ष पहले कुछ प्रतिमायें प्राप्त हुई थीं। विराजमान द्विभुज यक्षी की दाहिनी भुजा में सर्प और उनमें से तीन अहिच्छत्र ले जाकर स्थापित की गई हैं। वायीं में फल स्थित है । स्पष्ट है कि पद्मावती के साथ तीनों का रंग हल्का कत्थई है, एयं तीनों शिलापट्ट पर 8बीं सदी में ही वाहन कुक्कूट-सर्प एवं भूजा में सर्प को उत्कीर्ण हैं । एक पर पार्श्वनाथ उत्कीर्ण हैं। सम्बद्ध किया जा चुका था।
चौहान जाति की एक उप-शाखा देवड़ा के शासकों ग्यारवीं सदी की एक अष्टभुज पद्मावती की की भतपूर्व राजधानी सिरोही की भौगोलिक सीमाओं प्रतिमा राजस्थान के अलवर जिले में स्थित झालरपादन में स्थित देलवाडा के हिन्दू एवं जैन मंदिर प्रसिद्ध हैं।
52, खण्डहरों का वैभव-मुनि कांतिसागर, पृ. 126 । 53. आकियालाजीकल सर्वे आफ इन्डिया, ऐनुअल रिपोर्ट 1930-34, भाग 2, फलक 68, चित्र बी। 54. ओसिया का प्राचीन महावीर मन्दिर-अगरचन्द जैन नाहटा, अनेकांत, मई 19741 55. खण्डहरों का वैभव-मुनि कांतिसागर-पू. 71 । 56. अहिच्छत्र-श्री बलिभद्र जैन, अनेकांत, अक्टूवर-दिसम्बर 1973 ।
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दिलवाडा के पांच जैन मन्दिर श्वेत सगमरमर से निर्मित प्रतिमायें हैं। रचना शेली की दृष्टि से ये 13वीं सदी है। विमलशाह का मन्दिर जिसका निर्माण 1030 ई. की ज्ञात होती हैं। में तथा वस्तुपाल एवं तेजपाल के मन्दिर 1231 ई. में बनवाये गये थे। विमलशाह के मन्दिर में जैन तीर्थ कर गजरात जैन शिल्पकला की दष्टि से समद्ध राज्य आदिनाथ और अन्य दो मंदिरों में नेमिनाथ जी की है। गुजरात के चालुक्य राजाओं के काल में अनेक मतियाँ हैं। सादड़ी से 14 मील दूर अरावली की जेन मदिरों का निर्माण हुआ। गुजरात के बनासकांठा पहाड़ी टेकड़ी में राणापुर (राणापुर) के मंदिरों में जिले में स्थित कुमारिया 57 एक प्राचीन जैन तीर्थ है । नेमीनाथ, आदिनाथ एवं पार्श्वनाथ के मन्दिर प्रमुख हैं। यहां पांच श्वेताम्बरीय, श्वेत संगमरमर से निर्मित जैन यहां के आदिनाथ मन्दिर में ऋषभदेब की विशाल मंदिर हैं। इनमें महावीर का मंदिर सबसे प्राचीन एवं पदमासन मूर्ति अत्यन्त मनोज्ञ एवं आकर्षक है कुल भव्य है। मूलनायक के अतिरिक्त गूटमंडप में परिकर मिलाकर वेदियों में 425 मूर्तियां हैं। इसी प्रकार नेमि- युक्त दो अन्य कायोत्सर्गासन की प्रतिमायें हैं। कलापूर्ण नाथ एवं पार्श्वनाथ मन्दिर में अनेकों जैन प्रतिमायें हैं। कोरणीयुक्त रंग मडप के दूसरे भागों की छत में आबू के
विमलवराही जैसे जैन चरित्रों के विभिन्न द्रश्य है। महाराष्ट्र प्रदेश में भी जैन प्रतिमायें बहुसंख्या में गढ़ मण्डप में दो विशाल कायोत्गर्ग मूर्तियाँ-शांतिनाथ उपलब्ध होती हैं। दिगंबर केन्द्र एलोरा (9वीं सदी) एवं अजितनाथ की हैं । श्वेताम्बर परंपरा का निर्वाह की गुफायें तीर्थ कर प्रतिमाओं से भरी पड़ी हैं । छोटा करने वाली बारहवीं सदी की दो चतुर्भुज पदमावती कैलास गहा संख्या 30) में ऋषभनाथ, पार्श्वनाथ तथा की प्रतिमायें कूमारिया के नेमिनाथ मन्दिर की पश्चिमी महाबीर की बैठी पाषाण मूर्तियां पदमासन एवं ध्यान देवकुलिका की वाह्य भिति पर उत्कीर्ण है । 8 गुजरात मदा में है। प्रत्येक तीर्थकर के पावं में चांवर धारण के अन्य मन्दिरों में शांतिनाथ, कुभेश्वर, संभवनाथ किये यक्ष तथा गंधर्व हैं। ऋषभनाथ के कंधे पर केश आदि मुख्य हैं । गुजरात के बडनगर में चालुक्य नरेश विखरे हैं। पाश्वनाथ के सिर पर सात सर्पफण हैं । मूलराज (642-997 ई.) के काल का आदिनाथ सिहासन पर बैठे महावीर की प्रतिमा के ऊपरी भाग में मन्बिर है । मन्दिर के देवकूलिकाओं में आदिनाथ की छत्रदीख पडता है। एलोरा की 30 से 34 क्रमांक यक्षयक्षिणी अंकित हैं । यहीं पर चक्र श्वरी की भी तक की गुफायें जैन धर्म से सम्बन्धित हैं। इन्द्रसभा प्रतिमा है। गुका (संख्या 33) की उत्तरीय दीवार पर पार्श्वनाथ, दक्षिण पार्श्व में गोम्मटेश्वर-बाहवलि के अतिरिक्त उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि महावीर एवं अन्य तीर्थकर मूर्तियां हैं। जगन्नाथ गुफा भारतीय शिल्पकला के विकास में जैन शिल्पकला के बराण्डा में पाश्र्वनाथ तथा महावीर के अतिरिक्त का भी महत्वपूर्ण स्थान है। भारत की प्राचीन संस्कृति
स्तर पर चौबीस तीर्थकरों की छोटी-छोटी मूर्तियां को जानने के लिये जैन शिल्पकला का अध्ययन हैं। एलोरा की एक गुफा में अंबिका की मानव कद आवश्यक है। भिन्न-भिन्न कालों और ढंगों पर बनी प्रतिमा है।
मूर्तियों से मूनिकला के विकास पर गहरा प्रकाश पड़ता
है। ये इसके अतिरिक्त विभिन्न कालीन योगियों के आसन अंकाई-तंकाई में जैनों की सात गुफाये हैं। ये छोटी मुद्रा, केश और प्रतिहार्यों पर भी काफी प्रकाश डालती होते हा भी शिल्प कलापेक्षया अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। हैं। इन मूर्तियों के अध्ययन से भारतीय लोगों की तीसरी गफा के छोर पर इन्द्र और इन्द्राणी हैं। इसके वेशभूषा आदि का ज्ञान होता है । अतिरिक्त शांतिनाथ, पार्श्वनाथ एवं गवाक्ष में जिन
57. भारिया का महावीर मन्दिर-श्री हरीहरसिंह, श्रमण, नवम्बर-दिसम्बर 1974, कुभारिया का कला
। पूर्ण महावीर मन्दिर-श्री अगरचन्द नाहटा, श्रमण अप्रैल 19741 58. ब्रीफ सर्वे आफ द आइकनोग्राफिक डैटा एट भारिया-नार्थ गुजरात, सम्बोधि, खण्ड 2, अक 1,
अप्रैल 1973, पृ. 131
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जैन चित्रकला
श्रीमती उषा किरण जैन
कला आत्माभिव्यक्ति का सन्दरतम स्वरूप है। चित्र अत्यन्त सजीव, रोचक और कलात्मक होते थे। इस धरा पर मानव जाति के विकास का इतिहास कला इनके पश्चात् कागजों पर भी चित्रांकन का कार्य के सुन्दरतम हाथों ही लिखा गया है । भारतीय संस्कृति प्रारम्भ हुआ। इस दृष्टि से बड़ी सम्पन्न है, भारतीय सभ्यता के उदय के साथ ही भारतीय कला का इतिहास भी प्रारम्भ जैन चित्रकला की प्राचीनता और उसके उदय के होता है । यों तो सिन्धु कालीन सभ्यता के काल में भी सम्बन्ध में इतिहासकारों के विभिन्न मत हैं। इस दिशा भारतीय चित्रकला के प्रमाण उपलब्ध होते हैं, परन्तु में अभी काफी शोध कार्य अपेक्षित है । अभी तक उपचित्रकला के आधार सामान्यतः प्राचीन मकान और लब्ध प्रमाणों के आधार पर यह अवश्य कहा जा वस्त्र आदि अधिक सुरक्षित न रहने के कारण, अधिक सकता है कि भारतीय चित्रकला के अभिन्न अंग के प्राचीन काल के प्रमाण कम ही प्राप्त होते हैं । ऐतिहा. रूप में यह परम्परा उसके उदय के समय से ही सिक दृष्टि से महावीर के बाद के काल से जन-सामान्य विद्यमान थी । वाचस्पति गैरोला के अनुसार" जैन कला की रुचि चित्रकला में निरन्तर बढने सम्बन्धी अनेक के प्राचीन अस्तित्व की खोज निकालने के लिए हमारा प्रमाण उपलब्ध हैं । इस काल से भारतीय चित्रकला का ध्यान इस ऐतिहासिक दिशा की ओर उन्मुख होता है पर्याप्त विकास और हआ, समयानुकल परिस्थितियों के तो हमें लगता है कि उसकी दयनीयता न केवल उसके अनुरूप उसमें विभिन्न परम्पराओं का भी विकास हुआ वेष विन्यास एवं भावविचारांकन के कारण विश्रत है. इनमें जैन चित्रकला की भी अपनी विशिष्ट परम्परा अपितु भारतीय चित्रकला के इतिहास में कागद पर रही। परम्परा के प्रारम्भिक काल में यदा-कदा भित्ति की गई चित्रकारी की दिशा में उसका पहला स्थान चित्रों के रूप में तथा तदुपरान्त व्यापक रूप से ताड- है । राजपूत परम्परा की भांति जैन कला ऐसी प्राचीन पत्रों, काष्ठ पटिकाओं के अनेक नमुने आज भी जैन परम्परा पर आधारित है, जो राजपूत कलम से प्राप्त भण्डारों में प्राप्य हैं । इनमें अधिकतर अपभ्रंश कालीन सबसे प्राचीन चित्रों से भी एक शताब्दी पहले की सिद्ध यूग के हैं। ताड-पत्रों, वस्त्रों और कागजों पर बने ये होती है।"
1. ारतीय चित्रकला; वाचस्पति गैरोला, (प्र. सं. 1963) पृष्ठ 138
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समग्र भारतीय चित्र शैलियों में जितने भी प्राचीन विभिन्न प्राचीन जैन ग्रन्थों में जैन चित्रकला के चित्र प्राप्त हैं उनमें मुख्यता और प्राचीनता जैन चित्रों विविध पक्षों का वर्णन प्राप्त होता है। कल्पसूत्र आदि की है । ये चित्र दिगम्बर जैनियों से सम्बन्धित हैं जिन्हें में भगवान महावीर का चित्रमय वर्णन मिलता अपने सम्प्रदाय के ग्रन्थों को चित्रित करने व कराने है। "प्रश्न व्याकरण सूत्र" (2/5/16) में चित्रों की का बड़ा शौक था। प्राकृत भाषा में रचित जैन ग्रन्थों अनेक श्रेणियों का उल्लेख है। इस व्याकरण ग्रन्थ में का अध्ययन करने से तत्कालीन समाज में विद्वानों चित्रों की तीन प्रमुख श्रेणियों सचित्त (मानव, पशु, साहित्यकारों एवं जन-सामान्य में चित्रकला के प्रति पक्षी), अचित्त (नदी, नद, पहाड़, आकाश) और मिश्र अनुराग तथा निष्ठा का बोध होता है। दसवीं शती से (संयुक्ता) में वर्गीकृत किया गया है। लकड़ी, कपड़े और पन्द्रहवीं शती के मध्यकाल में भारतीय चित्रकला की पत्थर पर अनेक रंगों के योग से उरेहे गए चित्रों को परम्परा में जैन व बौद्ध कला का बाहुल्य है। इससे "लेपकम्प" कहा है। लोककला के उन्नत स्वरूप के रूप पूर्व के काल में जैन कला का समृद्ध रूप मूर्तियों तथा में इस काल में अल्पना चित्रों का भी अंकन किया मन्दिरों के शिल्प में परिलक्षित होता है। इस काल जाता था। साथ ही मिट्री-पत्थर व हाथीदांत पर भी में इसका स्वरूप निखर आया था। चित्रकला के जो चित्र उरेहे जाते थे । एक कथाकृति "नाया-धम्म नमूने आज उपलब्ध हैं उनमें अधिकतर जैन साहित्य की कहाओ" (1/16/77-80) से विदित होता है कि चम्वा विभिन्न कृतियों के मध्य विभिन्न सन्दों में चित्रांकित हैं। नामक नगरी में ललित गोष्टी (ललियाएणामं गोठठी)
नाम की एक प्रमोद सभा विद्यमान थी। इस ग्रन्थ में जैन कला में जहाँ मूर्तिकला और शिल्प एवम लिखा है (1/1/17) कि महाराज श्रोणिक के महल में स्थापत्य के क्षेत्र में दिगम्बर परम्परा का बाहल्य है. दीवारों पर बड़े अच्छे चित्र उरेहे हुए थे। इसी ग्रन्थ में वहाँ चित्रकला के क्षेत्र में श्वेताम्बरीय जनों का महत्व- इस प्रकार के अन्य अनेक उदाहरणों का भी उल्लेख है। पूर्ण योग रहा है। जैन का महत्त्वपूर्ण योग रहा है। इस कला की अनेक जैन साहित्यिक रचनाओं में जैन चित्रकला गुजरात की श्वेताम्बर कलम से पूर्ण भी चित्रकला सम्बन्धी उल्लेख हैं। श्री गेरोला के विकास की ओर अग्रसर होकर वर्षों तक राजपताने में अनुसार "11वीं-12वीं शताब्दी में रचित जैन साहित्य अपना विकास कराती रही और बाद में ईरानी प्रभावों की कथा कृतियों में चित्रकला के सम्बन्ध में बड़ी ही से मुक्त होकर "राजपूत कलम" में ही विलयित हो उपयोगी चर्चाएं देखने को मिलती हैं। मागधी प्राकृत गई। 12वीं सदी के पूर्व जहाँ मुगल शैली की विका- की कथा कृति "सुर सुन्दरी कहा" (रचनाकाल 1338 सावस्था में जैन चित्रकला की प्रगति शिथिल पड़ गई ई.) में श्लेषोक्ति के द्वारा किसी नायक की एकान्त वहाँ 12 वीं सदी के बाद महमूद गजनवी के विध्वंशों प्रेमासक्ति को भ्रमर और कुमुदनी का चित्र बनाकर के बावजूद भी जैन चित्रकला आबू और गिरनार के व्यक्त किया गया है। प्राकृत भाषा की दूसरी कथाकृति केन्द्रों में अपने परिवेश में नव निर्माण की ओर अग्रसर "तरंगवती" (सम्भवतः आंध्रभृत्य राजाओं के आश्रय में हुई। बाद में जैन चित्रकारों ने राजपूत और मुगल निर्मित) में नायिका तरंगवती द्वारा एक चित्र प्रदर्शनी का शैलियों से प्रेरणा ग्रहण कर अपने क्षेत्र को और भी आयोजन इस उद्देश्य से किये जाने का उल्लेख है कि कदाव्यापक बनाया।
चित इस लोभ से उसका रूठा हआ प्रेमी वहां आ जाय।
2. भारतीय चित्रकला-वाचस्पति गैरोला, पृष्ठ 93 ।
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"आचारांग सूत्र " ( 2/2/3/13) में जैन साधुओं और ब्रह्मचारियों को चित्र शालाओं में जाने और ठहरने से वर्जित किया गया है । जैनाचार्य हेमचन्द्र ( 10821172 ई.) के महाकाव्य " त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरित" में तत्कालीन राज दरबारों में अनेक चित्रकारों की सभा होने का वर्णन है, जो भित्तिचित्रों से सुसज्जित हुआ करती थी ।
प्रभावक चरित्र के " वप्पभट्ट सूरि चरित्र" (सम्वत 1334) में नवीं शताब्दी में भगवान महावीर के चित्रपटों के बनाने का उल्लेख है । " वप्पभट्टि सूरी जी को चित्रकार ने महावीर की मूर्ति वाले चार चित्रपट्ट तैयार करके दिये । सूर जी ने उनकी प्रतिष्ठा करके एक कन्नौज के जैन मन्दिर में, एक मथुरा में, एक अणहिल्ल पाटण में, एक सत्तारकपुर में भेज दिये गये जिनमें से पाटणवाला पट्ट मुसलमानों ने पाटण को नष्ट किया तब तक वहाँ के मोढ़गच्छ के जैन चैत्य में विद्यमान था । नवीं शताब्दी में महावीर के चार चित्रपट्ट बनाये जाने
का उल्लेख बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । परन्तु खेद है कि आज उनमें से एक भी प्राप्त नहीं है । हरिभद्र सूरि ने आवश्यक वृत्ति में समवशरण चित्रपट्ट का उल्लेख किया है।"
बारहवीं से सोलहवीं शती के मध्य श्वेताम्बरी जैनों द्वारा अपभ्रंश शैली के अनेक ताडपत्रीय ग्रन्थ चित्रों की रचना की गई। इनमें से कुछ, यदा-"निशीथ चूर्णी" "अंग सूत्र", "दशवैकालिक लघुवृत्ति", "ओध नियुक्ति", "त्रिषष्टि शालाका पुरुष चरित", "नेमिनाथ चरित", " कथा सरित्सागर " " संग्रहणीय सूत्र", "उत्तराध्ययन सूत्र", "कल्प सूत्र" और " श्रावक प्रतिक्रमण चूर्णी" आज भी पोथियां, पाटन, खंभात, Master और जैसलमेर आदि के ग्रन्थकारों तथा अमरीका के बोस्टन संग्रहालय में सुरक्षित हैं ।
इस काल के चित्रों की शैली के सम्बन्ध में कला मर्मज्ञों के विभिन्न मत हैं । प्रारम्भ में तो इसे "जैन शैली के नाम से ही सम्बोधित किया जाता था परन्तु बाद में इस आधार पर कि इस शैली के चित्र जैनेतर और वैष्णव ग्रन्थों में भी प्राप्त होते हैं, रायकृष्णदास ने इसे अपभ्रंश शैली के नाम से सम्बोधित किया है। जौनपुर इस शैली का प्रमुख केन्द्र माना जाता है । अहमदाबाद के श्री साराभाई माणिक लाल ने अपभ्रंश शैली से
सैकड़ों सादे और रंगीन चित्रों से युक्त एक महत्त्वपूर्ण
जिसका लिपि काल 1465 ई. (1522 वि.) है; इस ग्रन्थ "चित्र कल्पद्र ुम" ( कल्पसूत्र) प्रकाशित किया है शैली के कागद पर निर्मित ग्रन्थ चित्र और स्फुट चित्र
बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं । इनमें से एक रायल एशियाटिक सोसायटी, बम्बई में और दूसरी लीभणी के सेठ आनंद जी कल्याण जी के पास बताई जाती हैं । इनका लिपिकाल 1415 ई. है | जौनपुर की "कल्पसूत्र” इसकी तीसरी प्रति है जो स्वर्णाक्षरों में अंकित है और संप्रति बड़ौदा के नरसिंह जी पोल के ज्ञान मन्दिर में सुरक्षित है। यह प्रति 147 ई. में जौनपुर के बादशाह
हुसैन शाह शर्की के समय चित्रित की गई थी । कल्पसूत्र की एक चौथी प्रति अहमदाबाद निवासी मुनि दया विजय जी के संग्रह में है, जिसको 15 वीं शती के उत्तरार्द्ध का माना जाता है । यह भी स्वर्णाक्षरों में अंकित है, इसमें अंकित चित्र अपभ्रंश शैली के सर्वश्रेष्ठ चित्र माने जाते हैं ।
किसी भी कला या उसकी किसी शैली की रूप-' रेखा का परिचय प्राप्त करने के लिये उसके प्रमुख प्रतीकों का अध्ययन नितान्त आवश्यक है । इस दृष्टि से जैन कला में जो प्रमुख प्रतीक हमें प्राप्त होते हैं उनमें तीर्थंकर महावीर की माता त्रिशला को हुए स्वप्नों के चित्र बहुतायात में प्राप्त होते हैं । उनमें एरावत हाथी,
3. भगवान महावीर चित्रावली - अगरचन्द्र नाहटा, वीर परिनिर्वाण सितम्बर 1974, पृष्ठ 11
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केशरी सिंह, वृष (बैल), पद्मावती (कमल के सिंहासन श्वरी तथा सोलह विद्या देवियों के चित्र अंकित किये पर बैठी लक्ष्मी), पुष्प मालाएं, सूर्य, चन्द्र, स्वर्ण कलश, गए हैं । सरोवर, समुद्र, विमान (पालकी), रत्न भण्डार, अग्नि
रंग योजना की दृष्टि से जन कलाकृतियों का मीन युगल व विशाल गगनचुम्बीभवन आदि प्रमुख हैं।
अबलोकन करने पर प्रतीत होता है कि प्रारम्भिक काल इनके अतिरिक्त स्वास्तिक, श्रीवत्स, नंदियावत, बद्ध
में इनमें हल्दिया रंगों का प्रयोग अधिक मात्रा में होता मानक्य, भद्रासन, दर्पण आदि प्रतीकों को आयागपटों
था। बाद में लाल रंग का प्रयोग अधिकाधिक मात्रा में पर बहत ही कुशलतापूर्वक चित्रित किया गया है ।
होने लगा। इसके अतिरिक्त आसमानी, पीले, नीले तथा इसके साथ ही चौवीस तीर्थ करों और उनके प्रतीकों व ।
श्वेत रंगों का भी समावेश किया गया है। बाद में चिन्हों को भी चित्रित किया गया। इनमें भी चार तीर्थ करों महावीर, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ और ऋषभनाथ
इनमें सुनहरी स्याही का भी अधिकाधिक प्रयोग होने
लग गया। के चित्र अधिकांश मात्रा में प्राप्त होते हैं । इनका वर्ण क्रमशः पीत (पीला), नीला, काला तथा स्वर्णिम, वस्त्राभूषणों की दृष्टि से जैन कला में मुकुटों और प्रतीक चिन्ह क्रमशः केसरी सिंह, सर्प, शंख व वष तया मालाओं की सज्जा पर अधिक ध्यान दिया गया है। दीक्षातरु क्रमशः अशोक, घातकी, वेधस, कदली अंकित स्त्रियों की श्रृंगार सज्जा के रूप में माथे पर बिन्दी, किये गए हैं।
कानों में कुण्डल और बाहों में बाजूबन्द अंकित किये
गए हैं। गले में रत्नमालाओं को प्रधानता दी गई है तीर्थकरों के आसन के रूप में 'ईषत्प्रभभार' या जो लगभग सभी चित्रों में प्राप्त होती हैं तथा गले से 'सिद्ध शिला' अंकित की गई है जो तिर्यक् अर्द्ध चन्द्रा- लेकर पैरों तक सारी आकति को घेरनेवाली मालाओं कार के स्वरूप की हैं। इसके अतिरिक्त समवशरण की तक, अनेकों प्रकार से अंकित हैं। वस्त्रों में धोतियों की भी रचना की गई है । यह वह स्थान है जहाँ बैठकर सज्जा मोहक है। प्रारम्भिक चित्रों में वस्त्रों में मोती तीर्थकर उपदेश देते थे। इस स्थान का स्वरूप सामान्यतः जैसे श्वेत तथा स्वणिम रंग की प्रधानता है, जिसका वत्ताकर और यदाकदा वर्गाकार भी प्राप्त होता है। स्थान बाद में ईरानी प्रभाव के कारण हल्की छाप, इसे मणि-माणिक्य एवं सूवर्ण से सजाया जाता था। इसके बेल-बटों की जगह पच्चीकारी तथा स्वर्णीय रंगों के अतिरिक्त जैन दर्शन के अनुसार भैलोक्य रचना, ब्रह्माण्ड काम ने ले लिया। पश्चातवर्ती चित्रों में मुकुटों के सृष्टि' और पौराणिक चित्र भी प्रचुरता से प्राप्त होते हैं। स्थान पर पाग (पगड़ियों) का भी अंकन किया गया।
जहाँ पुरुषों के वस्त्रों में धोती व दुपट्टे प्रमुख हैं जैन कला के प्रतीक के रूप में नारी-रूपों का चित्रण
वहाँ नारी चित्रों में कंचुकी, रंगीन धोती, चूनरी और बहुत ही कम हुआ है । नारी चित्रों के न्यूनतम उपयोग
कटिपट का प्रयोग किया गया है। के वावजूद भी जैन कला की समृद्धि उसका ऐसा महत्वपूर्व गुण हैं जो विश्व में प्राप्त चित्रकला की विभिन्न चित्रों में आकार एवं अनुपात का भी पूरा ध्यान विधाओं में उसे मौलिक प्रतिष्ठा प्रदान करता है। जैन रखा गया है। प्रख्यात कला समीक्षक श्री वाचस्पति कला में यदाकदा ही नारी चित्र प्राप्त होते हैं। नारी गैरोला के अनुसार "चित्रों का आकार एकचश्म, डेढ़ चित्रण के क्षेत्र में कुछ चित्रों में तीर्थ करों के दोनों पाश्वों चश्म और दोचश्म है। एक चश्म या डेढ़ चश्म वाले में यक्ष-यक्षणियों के चित्र तथा तीर्थकरों की अधिण्ठात्री चित्रों में ठोढ़ी सेब की तरह बाहर की ओर उभर देवियाँ अम्बिका, पदमावती, सरस्वती, शासन, चक्र- आयी है और उसके नीचे की रेखा में गौरव, गर्व तथा
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अभिमान को प्रकट करने के उद्देश्य से झोल दे दिया इन्द्र वरुण, काली आदि यक्ष-यक्षिणी तथा अन्य गया है। दो चश्म आकार के खड़े हए जैन मुनियों की रूपान्तरों में जैन कला में भी प्राप्त होते हैं। पश्चातठोड़ी में त्रिशल की भाँति तीन रेखाएँ और नासिका, वर्ती काल में जैन कला हिन्दू कला के साथ एकाकार भाल की नोक की तरह अंकित है। भवें और नयनों करती प्रतीत होती है। एक मुख्य असमानता जो जैन का फैलाव समरूप है। एक चश्म तथा डेढ़ चश्म चेहरों और हिन्दू कला के मध्य सदेव विद्यमान रही वह थी में नासिका शुकचंचु की भांति नुकीली और अनुपात से हिन्दू कला में नारी चित्रों तथा अति थ्रांगारिक चित्रों अधिक लम्बी हो गयी है। नेत्र उठे हए तथा बाहर की के अंकन के सम्बन्ध में । हिन्दू कला स्थूल मांसलता ओर उभरे हुए हैं। उनकी लम्बाई कर्णभाग को छूती की ओर अग्रसर हो, राग-रागिनी, नख-शिख तथा है , वस्तुत: नेत्रों और नासिका के चित्रण में जैन कला- बारहमासा आदि विषयों में संलग्न होती गयी तब भी कारों की निपुणता की तुलना नहीं है।""
जैन कला में अपनी परम्परागत धार्मिक निष्ठा स्थिर
रही। यही कारण है कि ज्यों-ज्यों हिन्दू कला राजइस प्रकार जैन चित्रकला की परम्परा के प्रसादों में सिमटती गई और विलासितामयी जीवन अन्तर्गत जो कार्य हुआ उसने भारतीय चित्रकला के के चित्रण में लगती गई, त्यों-त्यों जैन चित्रकला की विकास का मार्ग प्रशस्त किया । चित्रकला के क्षेत्र में निहित होती गई। राजपूत और मुगल शैलियों के पूर्व भी महत्वपूर्ण कार्य इस देश में जैन चित्रकला के माध्यम से हुआ। बौद्ध कला भी जैन कला से कई स्थानों पर सामंभारतीय चित्रकला को जैन चित्रकला ने ऐसी अनुपम जस्य करती प्रतीत होती है। जैन कला में जिस प्रकार सचित्र कृतियां दी हैं जो भावाभिव्यक्ति, सौन्दर्य बोध. कथाओं को कई स्थानों पर आधार बनाया गया है, रंग योजना, वर्ण-आकार-सज्जा के अदभत सामंजस्य उसी प्रकार बुद्धकला का भी मुख्य आधार जातक के कारण सजीव बन पड़ी हैं । इसने चित्रकला की कथाएँ हैं। पन्द्रहवीं शती के पूर्व जैन एवं बौद्ध कलाओं अगली परम्पराओं राजपूत और मुगल शैलियों को की ही कृतियाँ उपलब्ध हैं । जैन कला ने बौद्ध कला नवीन प्रवृत्तियाँ तथा प्रगतिशील तत्व दिये हैं।
की अलंकरण प्रवृत्ति से सामंजस्य स्थापित किया है ।
एक मुख्य अन्तर जो इन दोनों में पाया जाता है वह जैन चित्रकला ने अपने से उत्तरकालीन सभी यह कि बौद्ध कला भित्ति चित्रों पर अधिक केन्द्रित शैलियों पर अपनी गहरी छाप छोड़ी है। हिन्दू रही जबकि जैन कला में भित्ति चित्रों के पश्चात् राजपूत कला जैन चित्रशैली से अत्यधिक प्रभावित ताड़पत्रों तथा कागज पर चित्रांकन को प्रमुखता दी हुई। भारतीय चित्र शैलियों में बेलबूटों की बनावट गई और वह ग्रन्थ चित्रों की ओर अधिक आकर्षित की जन्मदात्री सर्वप्रथम जैन कला ही रही । जैन हई । बौद्ध कला ने राज्य संरक्षण प्राप्त कर तथा चित्रकला हिन्दू चित्रकला शैलियों के अति निकट रही विलासिता पूर्ण, श्रगारिक चित्रों तथा नारी चित्रों का है। विषय वस्तु के रूप में भी जन कला में स्वयंभू अंकन अपने क्षेत्र को और व्यापक बनाते हुए जहाँ राम और नेमिनाथ हिन्दू कला के राम और कृष्ण के अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अपना विकास किया वहाँ जैन समान एवं समकालीन हैं । हिन्दू शैलियों की सरस्वती, कला ने सिद्धांतों के मूल्य पर कभी परिस्थिति से
4. भारतीय चित्रकला--वाचस्पति गैरोला, पृष्ठ 1421
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समझौता नहीं किया और सदैव धार्मिक आधारों का सर्वश्रेष्ठ पट्ट चित्र माना जाता है। नाहटा कला कठोरतापूर्वक प.लन किया ।
भवन बीकानेर में भी इस प्रकार के सुन्दर वस्त्रचित्र
सुरक्षित हैं। भारतीय चित्रकला के विकास में जैन कलाकारों ने अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। भारतीय चित्रकला जैन कलाप्रेमियों के कलात्मक दसवीं से पन्द्रहवीं शती के बीच का काल तो वस्तुओं की सुरक्षा के विशिष्ट गुण को भी विशेष शद्ध रूप से मुख्यत: जैन कला का ही काल रहा ऋणी है जिसके कारण चौदहवीं-पन्द्रहवीं शती के है। इस युग में पूर्व परम्परा को जीवित रखकर जिस क्रांतिमय समय में भी, जबकि अल्लाउद्दीन खिलजी निष्ठा और लगन के साथ जैन कलाकारों ने जैन जैसे सरदारों ने जहाँ भी हिन्द कलाकति देखी नष्ट शैली को विकसित किया और भविष्य में राजपूत करदी, जैन विद्वानों ने जी जान से अपनी कला परएवं मुगल शैली को जो नये प्रयोग एवं भाव
म्परा या यों कहें कि तत्कालीन भारतीय कला परम्परा विधान दिये, उनके लिए भारतीय चित्रकला जैन ।
की रक्षा की। इन दिनों कागज के स्थान पर काश्मीरी चित्रकला की परम्परा की ऋणी है। तिब्बत, नेपाल
कागज स्वर्णमयी एवं रजतमयी स्याही से मूल्यवान और गढ़वाल में कपड़े पर चित्रांकन की प्राचीन परम्परा चित्रों एवं पोथियों का निर्माण किया गया । मुनि के अनरूप भारतीय कला में वस्त्रों पर अंकन व लेखन कान्तिसागर के अनसार "कल्पसत्र" की एक प्रति, की सामग्री जैन कला में ही उपलब्ध होती है । श्रद्ध य जो अहमदाबाद में सुरक्षित है, इतने महत्व की प्रमामनि कांति सागर ने अपने एक गवेषणात्मक लेख में णित हो चुकी है कि उसका मल्य सवा लक्ष रुपये तक ताडपत्रों, वस्त्रों तथा कागजों आदि पर निर्मित जैन भी
आँका जा चुका है। भारतीय नाट्य, संगीत और चित्रों, उनके चित्रकारों एवं ग्रन्थकारों का वृहद वर्णन चित्रकला तीनों ष्टियों में उम किया है। उनके संग्रह के अतिरिक्त लखनऊ, इलाहा- इन चित्रों में राग-रागिनी, मर्छना, तान आदि की बाद, कलकत्ता आदि के संग्रहालयों तथा योजना संगीत शास्त्र के अनुसार है, और आकाशचारी, अनेक व्यक्तिगत संग्रहों में वस्त्रचित्रों के मूल्यवान एवं पादचारी, मोमचारी, वगैरह भरतमुनि के "नाट्यदुर्लभ नमूने प्राप्त होते हैं । वाशिंगटन की फेयर आर्ट
शास्त्र" में वर्णित नाट्य के विभिन्न रूप बड़े ही भाव गैलरी में सुरक्षित "वसंत विलास" नामक कृति (1508
पूर्ण हैं । प्रत्येक के मुखमुद्रा उनके हृदयगत भावों का वि. में लिखित) वस्त्र पर चित्रित विज्ञप्ति पत्रों की
स्पष्टीकरण करते हुए विविध रूप उत्पन्न कर साधारण अपने ढंग की विश्व भर में चित्रकला में अद्वितीय कृति मानव को भी अपनी ओर आकृष्ट करती है यही उक्त मानी जाती है । ब्रिटिश म्यूजियम में भी जिनभद्रसूरि प्रति की कुछ विशेषताएँ हैं। के समय का जैन शास्त्रों पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालने वाला एक बहुमूल्य एवं वृहत पट्ट चित्र आज भी जैन चित्रकारों द्वारा रंगों और रेखाओं के प्रति सुरक्षित है जिसे मुगल-राजपूत शैलियों से पूर्व का पूर्ण सजगता बरती गई है । इनका सबसे सुन्दर स्वरूप
5. "जैनों द्वारा पल्लवित चित्रकला" -- लेखक-मुनि कांतिसागर, “विशाल भारत" दिसम्बर 1947;
भाग 40, अंक 6, पृष्ठ 341-348 । 6. तदैव ।
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ताड़पत्रों पर निर्मित चित्रों में देखने को मिलता है जहाँ बारीक रेखाओं द्वारा अल्प स्थान में ही निर्मित चित्रों में कलाकारों ने अपनी प्रतिभा एवं कौशल का पूर्ण प्रदर्शन किया है। जैन शैली के चित्रों में नेत्रों की बनावट पर विशेष ध्यान दिया गया है । ताङपत्रों पर अंकित सूक्ष्म रेखाऐं इतनी सार्थक हैं कि उनके कारण चित्र में पूर्ण सजीवता प्रतीत होती है जिन्हें देखकर कोई भी कलाकार इनकी प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता । जैन पोथियों के बाहर सुरक्षा के लिए बँधी लकड़ियों की तख्तियों पर भी सुन्दर चित्रकारी देखने को मिलती है । जैसलमेर के जैन मन्दिरों में ऐसी जितनी भी लकड़ी को सचित्र तख्तियाँ थीं उनके चित्र लेकर उन्हें सुरक्षित रखा गया है, अन्य जैन शास्त्र भण्डारों में भी ऐसा किए जाने की आवश्यकता है ।
इस प्रकार जहाँ जैन धर्मानुयायियों ने करोड़ों रुपया व्यय कर कला का पोषण किया है वहाँ जैन मुनियों ने भी एकाग्रभाव से तन्मयतापूर्वक हजारों ग्रन्थों की प्रतिलिपि एवं स्वतन्त्र रचना कर कला की समृद्धि में महान योग दिया है । जैन ग्रन्थकारों की कृतियों में एक और विशिष्ट विशेषता देखने को मिलती है, कि अनेक कृतियों में लिखने के बीच-बीच इस ढंग से खाली स्थान छोड़ा गया है कि अपने आप छत्र, कमल, स्वस्तिक आदि उभर आते हैं । जैन चित्रकारों में जहाँ जैन परम्परा के विकास का बड़ा महत्वपूर्ण कार्य किया है वहाँ अन्य परम्पराओं के विकास में भी कई
जैन कलाकारों ने महत्वपूर्ण कार्य किया है। चौदहवींपन्द्रहवीं शती में जैन कलाकारों द्वारा जहाँ " मार्कण्डेय पुराण" तथा "दुर्गा सप्तमी" जैसे जैसे वैष्णव ग्रन्थों के चित्र निर्मित किए गये हैं, वहाँ सोलहवीं सत्रहवीं शती में जहांगीर के दरबारी चित्रकारों में सालिवाहन नामक जैन चित्रकार द्वारा " आगरा का विज्ञप्ति पत्र" (1667 वि . ) तथा मतिसार चित्र " धन्नाशालिभद्रचौपई, का भी चित्रांकन किया गया । इसी प्रकार अकबर के काल में समय सुन्दर नामक जैन मुनि द्वारा "अर्थ रत्नावली" नामक एक ग्रन्थ की रचना कर बादशाह को भेंट किया गया ।
इस प्रकार जैन धर्म के प्रति अपनी अटूट निष्ठा को स्थिर रख जैन कलाकारों ने जैन कला का जिस धैर्य, निष्ठा व विश्वास के साथ चित्रांकन किया वह विश्व में अपनी सानी नहीं रखता । राज्याश्रयों के विलासितापूर्ण वातावरण से विलग तथा धार्मिक सीमाओं से बँधे रहने के कारण जैन चित्रकला में लोक जीवन की वास्तविक अभिव्यक्ति हुई है । उसकी आकृतियों, रेखाओं और साज-सज्जा आदि सभी में लोककला का समर्थ रूप विद्यमान है उसमें वैसे ही लोक सौन्दर्य एवं लोक संस्कृति के तत्व छिपे हैं जैसे सांची और भरहुत की कृतियों में है । इसलिए लोककला का जो वास्तविक प्रतिनिधित्व जैन कला में समाहित है, वैसा न तो बौद्ध कला में दिखाई देता है और न राजपूत कला में है।"
7. भारतीय चित्रकला - वाचस्पति गरोला, पृष्ठ 143
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CONTRIBUTION
OF MAHAVIRA
TO INDIAN CULTURE
KAILASH CHAND JAIN
Mahavira, who lived in the sixth century B. C., made distinct and special contributions, to Indian culture. He is described as a supreme personality, and acknowledged as a great Brahmana, a great guardian, a great guide, a great preacher, a great pilot and a great recluse. There were several religious thinkers and sects contemporary to Mahavira, but their philosophical dogmas had a merely temporary vogue, and gradually faded away. Inspite of the opposition from time to time, Mahavira's religion came to stay, and influenced the Indian culture in different ways.
derable time. is very helpful. As it was codified much afterwards with certain interpolations and changes, it should be used with caution. This literary evidence is twofold: direct and collateral. The direct evidence is that which is furnished by the Jaina literary works specially the Purvas and the Avigas, and the collateral one is gathered from the Buddhist literary works known as Nikayas.
The most important contribution of Mahavira to Indian Culture is the doctrine of ahimsa or non-violence. Previously there was too much slaughter of animals and injury to creatures, and this practice of violence polluted the whole atmosphere of the society. Animals were killed even in the religious sacrifices which were performed to please the gods. For the
For the true understanding of Mahavira's contributions to Indian culture, his contemporary literature, which remained in the form of oral traditions for a consi-
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masses who formed the different castes such as the Osavalas, the Khandelavalas and the Poravalas etc.
blissfulnes of the entire being, Mahavira inculcated the doctrine of ahimsa or nonviolence in thought, word and action. 1 The visible effect of this doctrine was sought to be proved by alpractical demonstration. Already in Mahavira's time and even afterwards, the righteous kings of India made it a point of duty to vouchsafe lawful protection to all forms of life within the sacred precincts of a religious establishment. 2 They even prohibited the slaughter of animals on certain sacred days of the year. This principle of causing no harm to any being had a salutary effect on man's habitual diet. Those, who came under the influence of Mahavira's personaltiy and teaching, gave up the eating of meat and fish, and adhered to a strictly vegetarian diet.
The next contribution of Mahavira is that he observed no distinction of caste and creed. According to him, salvation is the birthright of everyone, and it is assured if one follows the prescribed rules of conduct. His doctrine of Karma(action) made the individual conscious of his responsibility for all actions. One becomes a Brahmana or a Kshatriya or a Vaisya or Sudra by one's actions. Though he was Kshatriya, he himself was styled 'Mahana' or Mahamahana (Great Brahamana). His religion was accepted by a large number of men and women belonging to different castes and classes. The contemporary kings, queens, princes and ministers became his followers. Among the kings, Srenika, Kunika and Chetaka are the prominent. His chief eleven disciples known as Ganadbaras were also Brahmanas who helped the master to spread his faith. Besides, he attracted a large number of rich bankers and merchants. Mahavira also tried bis best to improve the general condition of these down-trodden people. Harikeshabala, born in the family of Chandalas, became a monk possessing some of the highest virtues. 4 Several contemporary clans such as the Lichchhav
After Mahavira's death, this vegetarian habit seems to have influenced the entire population The Brahmanas, Vaisyas and even Rajaputs became vegetarians because of the influence of Jainism. The principle was at the back of many philanthropic and humanitarian deeds performed, and institucions established from time to time. The practice of feeding and sustaining the insects, birds and animals followed in ancient times was the result of the doctrine of ahimsa. It is perhaps due to this principle that Jainism appealed to the
1. Uttaradhyayana Sutra. VIII, 10 2. Majjhimanikaya, II, p. 101. 3. Uvasagada-sao, 7. 4. Uttaradhyayana Sutra, XII
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is, the Vajjis, the Jnatrikas, the Mallas, the Ugras and the Bhogas came under the influence of Mahavira. 5
Another notable contribution of Mahavira is that he made no distinction of sex by admitting women into his Order. Some of them distinguished themselves as teachers and preachers. They used to lead a life of celibacy, with the aim of understanding and following the eternal truths of religion and philosophy. Ajita Chaudana became the first disciple of Mahavira under whom a large number of nuns practised the rules of right conduct and attained salvation. Another famous lady Jayanti, the sister of king Sayaniya of Kosambi, abandoned her royal robe and became a devout nun.
some time, in the merits and benefits of monastic life without obliging them to renounce the world altogether. The type of organization gave the Jaina a root in India, and that root firmly planted amongst the laity enabled Jainism to withstand the storm that drove Buddhism out of India.
The next remarkable contribution of Mahavira is that he established strict discipline in the Jaina monastic order by laying down certain rules of conduct for ascetics. These rules are classified under such general heads as begging, walking, modes of speech, entry into others possessions, postures; place of study and attending to the calls of nature. Here begging included begging food and drink, begging a bowl, begging clothes, and begging a residence of a couch under these subheads are to be found the rules governing the modes of eating, drinking and lying down. Walking includes travelling. crossing, swimming and other forms of movement. The postures are those that are involved in religious exercises. These rules have been prescribed so that a monk may not to prey to the worldly disputes. The noble conduct of the monk is essential, for he is regarded as an ideal example to be followed by the people. He is actually the guide, the guardian, and the leader of the society.
The ultimate object taught by Mahavira is the conception of Nirvana which consists in the attainment of peace and infinite bliss, 6 This highest goal is to
As Mahavira was born and brought up in republican atmosphere he organized the monastic order efficiently on democratic principles. He possessed a unique power of organization. There were four orders of his community: monks, nuns, laymen and laywomen. He made laily the participants of the monastic order. These laymen were householders who could not actually renounce the world but they at least could observe the five small vows colled anuvrata. The similarity of their religious duties, differing not in kind but in degree, brought about the close union of laymen and monks. Most of these regulations meant to govern the conduct of laymen were intended apparently to make them participate in a measure and for
5. Sacred Books of the east XLV (Sutrakritanga) pp. 71, 321, 339. 6. Satrakritarlga, I, 11. 11.
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the soul. Thus, the soul is not passive in the sense that it remains untouched or unaffected by what a person does, but is susceptible to the influence of Karma.?
be attained though annihilating the old Karmans by the practice of austerities, and to step the influx of new Karmans by the practice of self-restraint, called Samvara with regard to the body, speach and mind. Right Faith, Right Knowledge and Right Conduct are the three essential points which lead to perfection by the destruction of Karmans. Without Right Faith, there is no Right Knowledge; without Right Knowledge, there is no Virtuous Conduct, without virtues, there is no deliverance and without deliverance, there is no perfection.
The next great contribution of Mahavira is the theory of Karma. According to him, birth is nothing, caste is nothing, Karma is cverything, and that on the destruction of Karma, all future happiness depends. This theory of Karma is known as the notion of the freedom of the will. According to it, pleasure and pain, and happiness and misery of the individual depend upon his free will, exertion and manly strength. Karma is the deed of the soul. It is a material forming a subtle bond of extremely refined karmic matter which keeps the soul confined to its place of origin or the natural abode of full knowledge and everlasting peace, According to this theory. there are as many souls as living individuals, and Karma consists of acts, intentional and unintentional, that produce effects on nature of
The doctrine of Naya as propounded by Mahavira in opposition to the agnosticism of Sanjaya 8 is no less contribution to Indian Culture. The early canonical texts just mention Nayas without fixing up their number four or seven. 9 In course of time, this doctrine of Nayas was called Syadvada (Saptabhanginyaya), according to which there can be seven alternatives to a decisive conclusion. Nayas were actually the ways of expressing the nature of things from different points of view; they were the ways of escaping from the tendencies of insenstivity and dogmatism which Mahavira disliked. It is a midway between scepticism and dogmatism. There were many religious sects and philosophical views prevalent in his time. Mahavira was tolerant in religious matters and this theory of Naya laid stress on the fact that there should be room for the consideration of teachings and views of all religious sects which avoided squabbles and quarrels among religious exponents. This attitude in religious matters produced an atmosphere of mutual harmony among the followers of different sects who began to appreciate the views of their opponents as well. Jainism has survived the ravages
7. Sutrakritanga I, II, II. 8. Sacred books of the East X IV, p. XXVII. 9. Sutrakritanga II 5.3,Acharanga 1. 7.3.
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of time because of this tolerant attitude imbibed in the doctrine of Naya.
Another great message of Mahavira to mankind is the doctrine of aparigraha or freedom from possession. By becoming a monk, he renounced everything by breaking all worldly ties. This doctrine enables a person to cut off the ties of attachment and desire, making him indifferent to all agreeable and disagreeable sensations of sound, touch, colour and smell. 10 It leads to the feeling of contentment; which cannot be bought by wealth, pomp and power of the world. Had it been possible, the kings and wealthy persons would certainly have attained it. It can certainly be realized through patience, forbearance, self-denial, forgiveness, humanity, compassion, suffering and sacrifice. This doctrine created healthy atmosphere in the society. Several kings, ministers and wealthy merchants led simple lives thinking wealth and power not for their own but for the welfare of all living beings.
was a decay of morals of the monastic order. He considered it to be the highest austerity. This vow of chastity requires the avoidance of sexual pleasure. For its attainment, a person should desist from continually discussing topics relating to women. He should not regard and contemplate the lovely forms of women. He should not recall to his mind the pleasures and amusements he formerly had with women. He should not eat and drink too much. He should not drink liquer or eat highly seasoned food. He should not eccupy a bed or a couch belonging to women. 1 2
One special contribution of Mahavira is that he preached his doctrines in the language of the masses known as the old Ardha Magadhi dialect which soon grew as literary language. Traditionally the eleven Angas based on the teaching of Mahavira were originally in ArdhaMagadhi. This literature seems to have been handed down orally in the form of traditions, and it took literary form after much considerable time. It underwent many changes in language and subjectmatter. The prscentcanon does not belong to one period, but the language of the available canon, however, shows a great influence of Maharashtrian Prakrit.
While Parsva taught only four vows for the realization of absolute happiness, Mahavira taught five in all making chastity a separate vow altogether. 11 He was compelled to do this because there
10. Acharanga 15-i-v. 11. Uttaradhyayanasutra, XXIII, 26-27 11. Uttaradhyayanasytıy, XVI.
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JAINA IMAGES AND THEIR PREDOMINANT STYLES :
DAHALA AND SOUTH KOSALA REGION
Dr. R. N. MISRA
The paper attempts to make a brief study of Jaina sculpures in Central India and their stylistic evolution within an over-all pattern of sculptural style that shaped the images of the region under the Kalachuris of Dahala and South Kosala, 1
dedicated to Jinas, while prolific remains of sculptures of Jinas, the seated couples (variously identified as DharanedraPadmavati, Ambika-Sarvanha or the parents of Jina), the Jaina sasana devatas and Upasakas indicate the patronage - both royal and individual—that Jainism seems to have enjoyed during the Kalachuri rule. That some of these images are related to a distinct iconic tradition which is sui geeris has also been sometimes stressed. 2
It is of interest to note that although the Kalachuris were devout Saivas, their faith did not come in way of development of Jainism in the region under their control Some official records of the Kalachuris testify to the construction of temples
1. Many of the sites in these regions were explored by Cunningham and his assistants
Baglar and Garrick in the last century. Among others who worked on this region mention may be made of Bhandarkar and Cousens, Only R. D. Banerji made a study of some consequence in which he attempted to present a systematic survey of the monuments of Haihayas (also known as Chedis or Kalchuris) of Tripuri. Despite these studies no serious attempt was made till recently to systematise the vast amoun of Archaeological evidence in terms of sculptures and monuments in
the region. These monuments are however are now reeiving some attention. 2. The authors' Yakshini images and the Matrika Tradition in Central India',
Prachya Pratibha, IIT, (i), pp, 29-34.
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Quanti a ively the epigraphic evidenc: with regard to Jaina monuments in the region under the survey is scanty. We have an inscription of K. E. 900/ 1149 A. D. referring to the setting up of a Tirthankara image (at Tripuri) by Jasadeva and Jasadhaval of Mathura. This short dedicatory inscription is engraved on the pedestal of this image which is now in the collection of Sir Hari Singh Gour Archaeological Museum of University of Sagar. 3
In the Bahoribandha Jaina image inscription of the time of Gayakarna (1123-1153) we find a reference to the construction of a temple of Tirthankara Santinath by Mhabhoja, son of Sarvadhara. This inscription affords. information regarding the construction of a mandira, temple', along with a very white. ritana, canopy', in front of it.. During its heyday, as the inscription testifics. the shrine was a ramy 1, 'beautiful', construction Similarly the vitana was very white' and 'extremely beautiful'. The name of the sutradhana, architect', who made it was
Sreshthin and the acharya who conscerated the image was Subhadra. This acharya belongs to the anvaya, 'line', of the Desigana in the Amnaya of holy Chandrakara, 5
The Alhaghat inscription of V. S. 1216/1159 A. D. refers to the construction of a shatishadika ghat and a temple dedicated to Ambika on the road leading to the ghat. This deed was performed by Ranaka Chihula who belongs to the line of the Rautiyas of Kausambi. The Ranaka himself was a feudatory of the Kalachuri Narsimhadeva (1153-1163). It is difficult to say whether this temple was dedicated to Ambika, the sasanadevi of Neminath or to the Brahmanical deity of the same name. But the coincidence of the existence of a Jaina temple at Patyan Dae (Satna) district) is interesting in this connection.. That this temple is a Jain monument is beyond doubt. It may be dated to about 12th century. Stylisticaly, the figures of Jinas on the lintel of the doorway and the other decorative figures on the doorframe.
3. Cf. Dikshit, M. G, Madhya Pradesh p. 70; Tripuri-1952 (Sagar, 1955); p. 4. Cf., Mi ashi, V. V., Inscription of the Chedi Kalachuri Era, Corpus Inscriptionum. Indicarum, vol. IV (i) (Ootacamound. 1955, inscription no. 59, p. 310-311; Cunningham, A., Archaeological Survey of India Reports. Vol. IX. p. 40; Bhandarkar, P. R. A S. W. I. for 1903-04, pp. 54-55.
e puratatva ki ruprekha (in Hindi; Sagar 1954). 12. pl. VII. B.
5. According to Mirashi this may be identical with the Chandrakapat Gaccha of Digambar sect, Cf., C. I. I, IV (i), p. 310, note 3;
Indian Antiquary, XXI. p. 73. It is also of Interest to note that Sarvabhadra the father of donor belong to a line namely Golla parva anvaya which stil has several adherents in M. P.
6. Mirashi. V. V., opcit. p. 323-24.
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appear to belong to a period of the art of Dahala when decadence had already set in. But it is curious to note that housed in this temple was an image of Ambika of about 10th century. The image now fiills the collection of the Allahabad Municipal Museum.
Incidentaly, it may be noted here that the Alhaghat inscription refers to several craftsmen also who might have been associated with the construction of the ghat and the Ambika temple. No less than five craftsmen are mentioned in it, namely the Sutradhara Kamlasinha and his team consisting of Some, Kokasa, Palhana, and Dalhana. The inscription seems to indicate that the number of craftsmen and artisans was growing while the patronage and style was fast dwindling by now.
This is all that the Kalchuri epigraphs tell about art activity related to Jainism. The Jainaremains in the region however are prolific though scattered. Although most of the remains are in nature of loose sculptures, it may be surmised on their basis that Jaina temples must have existed at Bilhari and Karitalai besides the Patyan
7. For the details of this image of Ambika, cf., Saraswati, S. K., Jisoa., VIII. 148; Shah, U. P.. Studies in Jain Art, Banaras, 1955), p. 18; Journal of University of Bombay, Sept. 1941.
Dae temple of the Satna district and the Bahoridhandha shrine of Santinatha in the Jabalpur district. The speculation regarding the former two places is based on the doorframes which still exist at Karitalai and Bilhari. The connected monuments have disappeared now and their ruins shifted to the Rani Durgavati Museum (Jabalpur) and Mahant Ghasidas Memorial Museum (Raipur). Among these places Bilhari came into prominence architecturally when Nohala, the queen of Yuvarajadeva 1 (915-945) built the reputed Nohalesvara matha and Somanath temple there. The remains of these constructions can still be seen in the reconstructed Vishnu-Varaha temple of Bilhari. Karitalai became famous for its temples one of which was built in 840-41 A. D. and the other some time during the reign of Lakshmanaraja II (945-70). These cons tructions define the background of building activity which eventually seems to have influenced the content of Jaina art also, for it was a significant part of a whole in which sharp lines of division in respect. of stylistic details get blurred. These circumastances also explain as to why in
8. Cf. Jain, B. C., Sculptures from Karitalai in Raipur Museum' Journal of Indian Museums, Vol. XIV-XVI (1958-60). pp. 19-20. ef also Prachya Pratibha, vol. III (i), 1975, p. 89 During the course of my field work which covered the areas of Vindhya Pradesh and Chattisgarh most of the sites covered contain Jaina Sculptures, This Temple at Karitalai was dedicated probably to the Trinity of Hindu Pantheon. The opening verses of the Karitlai inscription of K. E. 593/840-41 A. D. have: om namostu Druhinopendrarudrebhyayah. cf. Mirashi. V. V,, opcit., p. 181,
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the otherwise wholly Jainistic images there is often a distinctive iconographic touch which does not conform to the conventional Jaina iconography. Any number of examples may be cited to indicate this phenomenon of mutual adjustment in the details of images and iconography. A major example of this is to be seen in the Jaina temple of Arang which is an architec tural marvel interpreting the bhumija style of architecture usually reserved for Saiva temples. 10 Another typical example of iconographic adjutments in Jaina sculpture is afforded by the Hanumantal (Jabalpur) Jina image. A Jaina image from Karitalai (now displayed in the Raipur Museum) similarily interprets a variation of the same idion which is predominent in the Hanumantal image. Stylistically these images conform to the idiom of sculptures of Karitalai and Tripuri-Jabalpur region as a whole, as obtaining in the 10th and 11th century.
Sagar and Narsinghpur regions also. have several sites abounding in Jaina remains. At Bina-Barha ard Ranital (Sagar district) there are rich remains exhibiting. nine Tirthankara images such as Adi
10. For a detailed study of Bhumija mode in temple architecture, see Krishna Deva, Bhumija Temples', in Studies in Temple Inian Architecture, Ed. Pramod Chandra (1975) pp. 90-113.
11. Cf. Munikanta Sagar, khandaharon ka baibhava in (Hindi), pp. 199-200.
12. Banerji, R. D., The Haihayas of Tripuri and their Monuments (M. A S.I. No. XXIII), p. 100, pl. XLI, B; p. 102. pl. XLVIII, B.
13. Bajpai, K. D.. in the Bulletin of Ancient Indian History and Archaeology, (Sagar 1967), p. 74.
natha, Sambhavanatha, Santinatha, etc. and Ambika. Some of these images have now been spoiled due to liberal dabs of oil applied on them. Iconographically however a pillar now standing in the compound of the Town Council office at Narsinghpur is interesting This pillar originaily was decorated with the surmounting sarvatobhadrika images whose pedestals with their empanelled sasanadevi figures have fortunately escaped damage. Thus on them we have the figures of Padmavati, Ambika and Chakreshwari (the fourth figure is damaged),11 A Jina image in the Subhash Park of Narsinghpur is also of interest and seems to articulate the same breadth of style which interprets the Jina images of Sohagpur (the Thakur's collection) and Jabalpur (Cursetjee's collection) published by Banerji. 12 Images of Jinas sasandevis and upasakas having their bearing on the Jaina art and iconography are 18 fairly abundant in the region of Shadol, (Antara, Singhpur), Jabalpur (Tewar, Karitalai, Bilhari, Darshani Gurji, Bahoribaodha), Sagar (Bina-Barha, Deori, Ranital), Satna (Ramvan Museum collection, Patyan Dae), all of which once formed the part of an
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extensive Dhala Mandala. In the South Kosala region similarly images are known from Bilaspur and Raipur districts at such places as Sirpur, Malhar, Dhanpur, Ratanpur, Padampur, etc. 14 Among these notable examples are from Arang and Malhar All in all, the content of Jaina art in the regions under observation here is fairly rich in types, iconography and style. It is the last aspect which has been discussed in the following pages.
IL
In the period following the Guptas, Central Indian region indicates a very definite idiom of style in sculptures which seems to have derived itself from the classical mannerisms of art that came up mainly of the Gupta-Vakataka tradition of the north and the Deccan. Although securely dated images of the post-Gupta phase in Central India are mostly absent, the stylistic features of evolving images are to some extent traceable in stages from ccrtain dated examples known from Eran, Mandoor and certain other regions in Rajasthan. In the Dahala however the images from Nandchand (Panna district)
and Sagar (Ardhanarisvara image in the Sir H.S. Gouar Museum), provide stylistic indices to the evolution of modes and mannerism in sculptural art and help in establishing its forms that obtained during the transitional phase. A study of transformation of classical idiom into Medieval has reference here geographically to two different regions of Central India namely the Dahala and the South Kosala 1 5 In terms of patronage, it appears that the Panduvamsis in the South Kosala and the Kalachuris in Dahala were mainly responsible for developing different styles. Of these to the South Kosala idiom has a greater sophistication artistry and a concerted historikal tradition. The inscriptions of the Sarabhapuriyas, 16 Pandus?? and Nalas 18 in the South Kosala indicate that this region had come to assume an important position in the wake of political conflicts and change of power following the dissolution of the Guptas and the Vakatakas. Even as the different dynasties of the South Kosala succeeded the Guptas and the Vakatakas, the prevalent art idiom of the region underwent a change. 19 Although the majority of
14. Raipur District Gazetteer, pp. 65-66; Bilaspur District Gazetteer, p. 61. 15. Cf. Pramod Chandra, Sculptures in the Allahabad Museum, (1970), pp, 33 ff. 16. Cf. Dikshit, M. G. opcit, (1954. pp. 58-61). 17. Cf. Mirashi, V. V., "The Pandva Dynasty of Mekala”, Indica (Silver Jubilee Volume
of Indian Historical Institute, St. Xavier College, Bombay), pp. 268-73. 18. Dikshit, M. G., opcit (1954), pp. 60-61; Mirashi, V. V., E. I., XXVI. 54. 19. The brick-temples of South Kosala have been assigned to the period of 6th and 7th
century A. D. A transformation from the Gupta-Vakajaka to the Traditional phase in the monuments of the area may be traced through the recently discovered temple at Tala near Sirpur. The credit for this discovery goes to Sri Vishnu Singh Thakur of Raipur and Mr. Don Stadner of California Universtty, U. S. A.
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monuments existing in this region belonged to the Budhist and Brahmanical sects, some Jaina images coeval in time and Mannerism to these are known from Malhar (Bilaspur district). These images are housed in a dilapidated enclosure koown as Parghania Deva temple. Some other Jina images of a later date are studded in the walls near the house of Sri Amarnath Sao of Malhar. Important among these and belonging to late 7th (or probably to 8th) century are the images of Adinatha inside the Parghania Deo temple and of another Jina, buried outside the said temple. This latter seated image is of massive proportions; both the images however, reflect a sophistication and purity, distinguished by a balanced conglomeration of conver surfaces bounded with a rhythmic move ment. In the meilowed and sensitive form of the torso, the sophistry is accentuated by a balanced dispersal of solidity and mass. The modelling of these images is superb to the extent that even the somewhat stiff thrust of limbs seems subdued. These features represent a re-statement of classical' idiom and in articulating it
the images seem to follow dintictly the breadth of a style which flourished in such areas as Ratanpur (Kalyansundera panel in the Raipur Museum), Dhamtari (same collection), Kharod (doorframe of the Sondaridevi temple), Rajim (Rajibalochan and Ramachandra temple sculptures and Mukhlingham in the Parlakimedi Taluk of Ganjam district in Orissa. Although the form of sculptures evident in these reliefs seems to have declined in course of time in the South Kosala, it did not conpletely disappear. On the other hand, the Orissan monuments of early phase (e. g. Mukteshvara), particularly seem to have imbibed in them the features of this artistic traditon. 20 It has been suggested that the art and architecture of the upper Mahanadi valley made a deep impact when it travelled Utkal. In that region it helped in initiating a "revival of artistic conception with certain modifications, 21
Not much is known regarding the sculptural tradition of South Kosala next to the Pandus and Nalas till the advent of
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The Harbingers of this South Kosala tradition in the Orissan region were primarily the Somuvamsis. The Brahmeshwar inscription indicate that Janmejaya, the Scmvansi conqurred odra and during the reigns of his successors, the regions of Kosala, Utkala, Kongoda and the parts of what then was knon as Kalinga assumed a unity distinguished by cultural and linguistics bonds. Panigrahi, K. C. Archaeo.'ogical Remains of Bhuvaneshwer (Orient Longmen, 1961) p. 251. Ibid, p, 251. For special characterstics of Orissan sculptures of the period under the Somavamsis, cf. Panigrahi, K. C.. pp. 251 ff. be (pp. 158 ff. says that three temples of the formar Baudha State in the upper Mahanadi valley also indicate a similars sophistications.
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the Kalchuris, except for a short interlude of the kings of the Bana dynasty, 22 During the Kalchuris who first started as a branch of the main line of Tripuri and sometime during the reign of Jajjlldeva I (1090-1120) became independent, Jina images seem to have come up at various places specified above. These images cut in black stone (Ratanpur, Bilaspur) or in greyish sandstones (Malhar), reflect the same modes of style which inform the other sculptures of the region in their lenghthening limbs tending towards extreme lateralism, swollen faces, broad plump chest suddenly constructing to an almost triangular waist with a central lump near the navel, below which are attached feet which look more like unhappy appendages, the sculptures of the South Kosala during this phase interpretan idiom which is emphatically provincial.
Kosala is peculiar for its artistic idiom which was sufficiently wide-spread. Geographically, it covered almost the whole of the present Chhattisgarh and Baster regions besides such other places as Amarkantak and Marakanda (Maharashtra). The origins of this idiom may have their moorings in the Mahanadi valley. While in the Orissan region it assumed a greater sophistication in various stages at Jajapur. Ranipur Jharial, Bhuvaneshwar and Puri, its form in Chhattisgarh remained almost changeless, certain inspired phases here notwithstanding.
The exuberant or languorous variations of this idiom are fairly recurrent in the art of South Kosala from about 10th cent. to 14th cent. The images of Chadraprabh, Rishabhadeva and othe:s in black stone from Ratanpur (C. 12th cent.) have such features. The seated Jina type of images seem to have helped in evolving the devotee images of black stone found at several places such as Ratanpur, Kharod, Chhapari, Amarkantak and Malhar. On the whole the Kalachuri phase of South
Exceptional in this regard are the images on the Bhand-Dewala at Arang (Raipur district). This Jaina temple, stellate in plan stands on a lofty pitha decorated with seven mouldings in which the major ones consist of Gajapitha, aswapitha and narapitha. The jangha of the temple has six verticle butteresses decorated with two bands of sculptures. The sculptured bands are demarcated from each other by a moulding called vidyadhara pattika. The images on the jangha represent Jaina sasanadevis on the Bhadra niches and minor deities, dikpalas and Apsaras on the other projections. The recesses alternating with buttresses have the usual motifs of erotic couples which became an essential feature of the Kalachuri temples from 11th century onwards in the Dahala
22. Mirashi, (C. I. I., vol. 1V), intro. p. CXV; CXVII.) Ascribes the costruction the
Pali temple to the Bana king Vikramaditya in C. 9th century. Stylistically however the temple in its reconstred form, door-way excluded, is ascribable to 12th century. cf. Krishna Deva, Temples of North India, p. 53.
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its importance has recently been proven beyond doubt by Krishna Deva. 29 Stylistically, the decorative images on this temple do not show the contortion of limbs, a feature which otherwise is predominent in this region. So the inspiration as well as the execution of the temple should he traced to some other locality preferably the Dahala region. That the Virateshwara temple of Sohagpur might have influenced the Bhandadeval is a probability accepted by Krishna Deva.
as well as South Kosala region. Certain mouldings on jangha have figures of Yakshas and Jinas. No less than twentyone figures of Yakshas appear here. How- ever it is difficult to relate them to any definite iconographic tradition in absence of their clear cognizances. The recesses and projections on the jangha follow a definite scheme of decoration regarding placement of motifs such as Apsaras, erotic figures, sansanadevis, upasakas, dik pulas, etc. But the vyala figures so commonly used in the other Kalachuri temples eveywhere are conspicuous by their absence here. The only notable exception in this is a loan vyala figure occupying a recess by the side of the Central Bhadra projection on the south face of the temple. The figures of non-Jaina deities e. g. Bhairawa (South face), Natesa (in a recess on south face) and Krishna Lila scene (in a recess of north face) also occur on the jangha of the temple. But the most spirited decorative figures belong to the miscellaneous group thrown around the various places on the walls of the temple representing dance groups, Warriors, wrestlers, etc. One such figure on the south face, upper band represents a flute player having two torsos aligned to a single head. Below him we have a drummer. The sikhara of the temple, a bhumija type, has the usual latas rising from bhadra; the lates have on them a series of panels containing Jina figures in a group of two or more.
As regards the Dahala region, it is possible to determine the predominant idiom of sculptural style, their epicentres and their spread. Roughly stated, the carly images following the Ardhanarishwara of Sagar University, tend to indicate simple decoration unencumbered with profuse ornamental features of the parikara. In the anthropomorphic form the distinctive features in images reflect an ovaloid face, a simple hair style or crown wherever found, and a short almost squatting proportions devoid of any exaggerated later. alism. The images of Jinas at Bina-Barha and those of Natesa from Marh-Piparias and Bina Barha indicate these feature rather imphatically. These forms may be related to the 9th century. The 10th century however was a turning point in the artistic tradion of Dahala when the Kalachuri rulers invited the saints of Mattamayura sect into their territory and established several mathas for them. This seems to have brought out an upsurge both in quality as well as artistry of sculp
The temple on the whole is a unique monuments coming from this region and
23. Krishna Deva, Bhumija Temples (1975), pp. 110 ff.
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ture. The Jina images rom Bilhari and Kalitalai mentioned above seem to belong to this tradition. Stylistically, the doorways and other art remains at Baijnath, Marai, Gurgi, Mehsaon, Bilhri and Arjula in that order seem to mark the various stages of development of sculpture during the period extending from 10th through 11th century. They indicate a style in which figures are elongated, torso triangular instead of squarish, resting on thin waist, and feet sometimes columnar. The whole standing posture has an rlegance attenuated by the bhanga on the main axis of body. The close parellel to this idiom is found in the images of the Lakhamaneshwar temple of Khajuraho. 24 The images of Karitalai (Raipur Museum) and Bilhari (Dharmasala Compound) have these features adjusted to the canonical requirements from Jina images. Among these, of particular significance are the images of Parshvanatha and of Chandraprabha, Padmaprabha and Parshwanatha at Bilhari. However in the comparatively remote regions of Sagar, Damoh and Narsinghpur a variation of the same idiom is reflected in the Jina images which have otherwise the features similar to the Bilhari-Karitalai idiom with the exception that the face is more squarish than oval.
The idiom has an anterior history in the region, but in the notable examples of 10th century,reference may be made to the images of Jinas and their Yakshis from Narsinghpur. Close to Narsinghpur at at Barahata and Naunia there are figures of Adinatha, Parshwanatha and Mahavira which also seem to belong to this period.
The 11th century, particularly the second and third quarter of it, witnessed the effloroscence of sculptures in the Dahala region. The decorative details increased in the parikara of the sculptures. A very delicate scroll work elegantly covering the portions of halo and the whole background of relief highetens the aesthetic. quality of sculptures of this period. The tracerred scroll work, beaded festoons regularly looped through the span of pedastals or seats, the filigried crowns of the attendant deitties and minutely fretted and carved chhatras on the head of the Jinas leave the viewer spell bound at the wealth of carving displayed on the individual images. Although the Jina images are monotonously similar in their seated or standing postures, the wealth of decorative details on the parikara is what makes the images of this period very distinctive. As regards the images them
24. Krishna Deva. Temples of North India, p. 62. He assigns the Lakhamaneshwar temple to 950 A. D.
25. Prof, K. D. Bajpai deals with these images while describing the Jaina art of the Central India during A. D. 1300-1800. He however has Indicated that the Jaina. art flourished here from about 11th to 13th century A. D. For his comments c. f. Jain Art and Architecture, vol. II. Ed. A. Ghosh (Bhartiya Jnanpitha, New Delhi, 1975), p. 353.
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selves, although their stiffness is mitigated by the profuse ornamentation, none the less, angularities lateralism and idealisation seems to have started showing up in them now. Some typical examples of this 'sort are known from Jabalpur (the Aranatha image in the Jaina temple), Sohagpur (the Thakur's collection), Lakhanadaun, Narsingpur and Bilhari. In these we have variations of the same style but the angularities are always present in them.
proliferate and have such motifs as elephants, attendants, Jinagroups standing or seated and fly-whisk bearers. Below the Jina images we usually have a couch from which in the middle, hangs an astaraka which is sometimes decorated with festoons and carries the cognizance of Jinas. Pedastals indicate balusters with the inset figures of devotees or the lions or such symbols. The garland bearing vidyadharas and the attendants flanking Jina figures are sometimes striking similar in almost all the details to those found on the images of other deities including the Brahmanical ones. This similarity seems to suggest that same artists or their guilds brought out images as required and where iconograhic considerations could be relaxed, they took liberty in experimenting with details irrespective of the secterian plurality.
We may conclude by some remarks on the parikaras of the Jaina images from Dahala region. The early images of 9th century lack in details except for the garland bearers at the top of stele and an attendant or attendants on the either side of the Jinas. In the 10th century images, the details of parikara tend to
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षष्टम खण्ड
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वे महान अविष्कर्ता थे । उन्होंने अपनी बड़ी पुत्री ब्राह्मी को जो लिपि सिखाई वह भारत की प्राचीनतम लिपि ब्राह्मी के नाम से प्रसिद्ध हुई और छोटी पुत्री सुन्दरी को अंक आदि सिखाये, जिससे गणित का विकास हआ । पूरुषों की 72 तथा स्त्रियों की 64 कलाएँ या विद्याएँ भगवान ऋषभदेव की ही विशिष्ट देन हैं। भगवान ऋषभदेव के बड़े पुत्र भरत 6 खण्डों को विजय कर चक्रवर्ती सम्राट बने, और उन्हीं के नाम से इस देश का नाम भारत प्रसिद्ध हुआ। व्यावहारिक शिक्षा देने के बाद भगवान ऋषभदेव ने पिछली आयु में सन्यास ग्रहण किया और तपस्या तथा ध्यान आदि ।
साधना से आत्मिक ज्ञान प्राप्त किया । उस परिपूर्ण और विशिष्ट ज्ञान का नाम केवल 'ज्ञान'
जैन धर्म में प्रसिद्ध है। इसके बाद उन्होंने आध्यात्मिकअगरचन्द नाहटा
साधना का मार्ग प्रवर्तित किया, आत्मिक उन्नति और मोक्ष का मार्ग सबको बतलाया इसीलिए
भगवान ऋषभदेव का जैन साहित्य में सर्वाधिक जैन धर्म भारत का प्राचीनतम धर्म है । उसके महत्व है यद्यपि उनको हए असंख्यात वर्ष हो गये, प्रवर्तक और प्रचारक 24 तीर्थ कर सभी इम भारत- इसलिए उनकी वाणी या उपदेश तो हमें प्राप्त नहीं हैं, भमि में ही जन्मे, साधना करके विशिष्ट ज्ञान प्राप्त पर उनकी परम्परा में 23 तीर्थकर और हए । उन्होंने किया और जनता को धर्मोपदेश देकर भारत में ही भी साधना द्वारा केवल ज्ञान प्राप्त किया और सभी निर्वाण को प्राप्त हुए। जैन परम्परा के अनुसार भग- केवलियों का ज्ञान एक जैसा ही होता है। इसलिये वान ऋषभदेव प्रथम तीर्थ कर थे। उन्होंने युगलिक ऋषभदेव की ज्ञान की परम्परा अंतिम तीर्थ कर धर्म का निवारण करके असी शास्त्र की मसी भगवान महावीर की वाणी और उपदेश के रूप में लिख कृषि, तथा विद्याओं और कलाओं की आज भी हमें प्राप्त है। समस्त जैन साहित्य का मूल शिक्षा देकर भारतीय संस्कृति को एक नया रूप दिया। आधार वही केवल ज्ञानी-तीर्थ करों की वाणी ही है।
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प्राचीनतम जैन साहित्य
कर बाकी में रचियता का नाम नहीं मिलता उनमें से
रचियता के नामवाले ग्रन्थों में सबसे पहला सूत्र है भगवान महावीर के पहले के तीर्थ करों के
दशवकाल्पिक, जिनमें जैन मुनियों का आधार संक्षेप में मुनियों का जो विवरण आगमों में प्राप्त है, उससे
वणित है। इस सूत्र के रचियता राय्यंभव सूरि महामालूम होता है कि 'पूर्वो' का ज्ञान उस परम्परा में चालू
वीर निर्वाण के 98 वर्ष में स्वर्गस्थ 5 वें पक्षधर हुए था। आगे चलकर उनको 14 पूर्वो में विभाजित कर
र हैं। इसके बाद आचार्य भद्रबाहु श्रुतकेवली ने वृहददिया मालूम देता है। अतः भगवान महावीर में समय
कल्प, ब्यवहार और दशाथ त स्कन्ध नामक उछेद सूत्रों और उसके कई शताब्दियों तक 14 पूर्वो का ज्ञान
की रचना की। 10 आगमों की नियुक्तियाँ रूप प्राचीन प्रचलित रहा। 'क्रमशः' उसमें क्षीणता होती गई और ,
आत विटर टीकाएँ भी भद्रबाहु रचित हैं । पर आधुकरीब 2 हजार वर्षों से 14 पूर्वो के ज्ञान की वह
निक विद्वानों की राय में उनके कर्ता द्वितीय भद्रबाह विशिष्ट परम्परा लुप्त सी-हो गयी।
पीछे हुए हैं । इसके बाद स्यामाचार्य ने पत्रवणा सूत्र
बनाया। इस तरह समय-समय पर अन्य कई आचार्यों भगवान महावीर ने जो 30 वर्ष तक अनेक
और विद्वानों ने ग्रंथ बनाकर जैन साहित्य की अभिस्थानों में विचरते हुए धर्मोपदेश दिया, उसे अनेक
वृद्धि की। प्रवान गौतम आदि गणधरों ने सुत्र रूप में निबद्ध कर । दिया। वह उपदेश 12 अंग सूत्रों में विभक्त कर दिया संस्कृत में जैन साहित्य - गया जिसे 'द्वादशांग गणि-पिटक' कहा जाता है। इनमें भगवान महावीर ने तत्कालीन लोकभाषा अर्द्धसे 12वां दृष्टिबाद अंग सत्र जो बहत बड़ा और विशिष्ट माथी में पटेडा दिया था बहुत बड़ा और विशिष्ट मागधी में उपदेश दिया था और उसी परम्परा को
और न ज्ञान का स्तोत्र था। पर वह तो लुप्त हो चुका है। जैनाचार्यों ने भी 500 वर्षों तक तो बराबर निभाया । बाकी "अंग सूत्र करीब हजार वर्ष तक मौखिक रूप अतः उस समय तक का समस्त जैन साहित्य प्राकृत । से प्रचलित रहे, इसलिए उनका भी बहुत-सा अंश भाषा में ही रचित है । इसके बाद संस्कृत के बढ़ते विस्मत हो गया। वीर निर्वाण संवत_980 में देवधि हए प्रचार से जैन विद्वान भी प्रभावित हुए और गणि क्षमाश्रमण ने सौराष्ट्र की वल्लभी नगरी में उस उन्होंने प्राकृत के साथ-साथ संस्कृत में भी रचना करना समय तक जो अंग मौखिक रूप से प्राप्त थे उनको प्रारम्भ कर दिया । उपलब्ध जैन साहित्य में सबसे लिपिबद्ध कर दिया । अतः प्राचीनतम और जैन पहला संस्कृत ग्रंथ आचार्य उमास्वाति रचित 'त्वार्थ साहित्य में रूप के वे 11 अंग और उनके उपांग तथा ।
गि तथा सूत्र माना जाता है, जो विक्रम की दूसरी तीसरी शताब्दी उनके आधार पर बने हुए जो भी आगम आज प्राप्त की रचना है। इसमें छोटे-छोटे सूत्रों के रूप में जैन हैं उन्हें प्राचीनतम जैन साहित्य माना जाता है। सिद्धान्तों का बहत खुबी से संकलन कर दिया गया है। दिगम्बर सम्प्रदाय में तो ये अंग सूत्रादि लुप्त हो गये यह 10 अध्यायों में विभक्त है। श्वेताम्बर और दिगमाना जाता है, पर श्वेताम्बर सम्प्रदाय में वे ही आगम म्बर दोनों सम्प्रदाय इसे समान रूप से मान्य करते ग्रंथ प्राप्त और मान्य हैं।
हैं, और दोनों सम्प्रदायवालों की इस पर सही टीकाएँ
प्राप्त हैं । श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार तो तत्थ्यार्थका प्राचीनतम जैन साहित्य
सुत्र की भाष्य तो स्वय उमास्वाति ने ही रची है। भगवान महावीर के बाद कई जैनाचार्यों ने बहुत- सुत्र ग्रन्थों की परम्परा का यह महत्वपूर्ण संस्कृत से सूत्र ग्रंथ बनाये, पर उन सूत्रों में से 2-4 को छोड़- जैन ग्रन्थ है।
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इसके बाद तो समंतभद्र' सिद्धसेन, पूज्यमाद, की बँगला आदि अन्य प्रांतीय भाषाओं में भी जैनों की अकलंक हरिभद्र आदि श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों रचित प्राप्त हैं। हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती में सम्प्रदायों के विद्वानों द्वारा दार्शनिक, न्याय ग्रथ और तो लाखों श्लोक परिमित गद्य और पद्य की जैन रचटीकाएँ आदि संस्कृत में बराबर रची जाती रही। नाएं प्राप्त हैं एवं प्राचीनतम रचनाएं जैनों की ही
और आगे चलकर तो संस्कृत में काव्य, चरित्र और प्राप्त हैं। सभी विषयों के जैन ग्रन्थ संस्कृत में खूब लिखे गये ।
कथाओं का भंडार जैन-साहित्यअपभ्रंश एवं लोकभाषाओं में जैन साहित्य--
लोकभाषा की तरह लोककथाओं और देशी जैन भाषा में निरन्तर परिवर्तन होता ही रहा संगीत को भी जैनों ने विशेष रूप से अपनाया। इसीहै अतः प्राकृत भाषा अपम्रश के रूप में लिए लोककथाओं का भी बहुत बड़ा भंडार जैन परिवर्तित हो गयी । अपभ्रंश में भी जैनों ने ही साहित्य में पाया जाता है। और लोकगीतों की चाल सर्वाधिक साहित्य का निर्माण किया है । वैसे तो था 'तर्ज' पर हजारों स्तवन, सझाय, ढाल आदि प्राचीन नाटकों में भिन्न जाति एवं साधारण छोटे-बड़े काव्य रचे गये हैं। उन ढाल आदि के प्रारम्भ पुरुषों और स्त्रियों की भाषा की 'रचनाएं 8 वीं में किस' लोक गीत की तर्ज पर इस 'गीत' रचना 9वीं शताब्दी से मिलने लगती हैं, और 17 वीं को गाना चाहिए, इसका कुछ उल्लेख करते हुए उस शताब्दी तक छोटी-बड़ी सैकड़ों रचनाएँ जैन कवियों लोकगीत की प्रारम्भिक कुछ पंक्तियाँ भी उद्धृत कर की रचित आज भी प्राप्त है। कवि स्वयंभू पुष्पदंत, दी गई हैं जिससे हजारों विस्मृत और लुप्त लोकधनपाल आदि अपभ्रश के जैन महाकवि हैं । जैनेतर गीतों की जानकारी मिलने के साथ-साथ कौनसा गीत रक्तिग्रंथ अपभ्रंश में नहीं मिलता क्योंकि उन्होंने कितना पुराना है, इसके निर्णय करने में भी सुविधा प्रारम्भ से ही संस्कृत को प्रधानता दी थी; अतः हो गई है। इस सम्बन्ध में मेरे कई लेख प्रकाशित हो उनका सर्वाधिक साहित्य संस्कृत में है।
चुके हैं।
अपभ्रश से उत्तर भारत की प्रान्तीय भाषाओं एक-एक लोककथा को लेकर अनेकों जैन रचनाएँ का विकास हआ । 13वीं शताब्दी से राजस्थानी, प्राकृत, संस्कृत, राजस्थानी आदि भाषाओं में जैन गुजराती और हिन्दी में साहित्य मिलने लगता है। विद्वानों ने लिखी हैं। इससे वे लोककथाएं कौनसी यद्यपि 15वीं शताब्दी तक अपभ्रंश का प्रभाव कितनी पुरानी है, उनका मूल रूप क्या था उन रचनाओं में पाया जाता है। उस समय तक और कब-कब कैसा और कितना परिवर्तन उनमें होता राजस्थान और गुजरात में तो एक ही भाषा बोली रहा, इन सब बातों की जानकारी जैन कथा साहित्य जाती थी, जिसे राजस्थान वाले पुरानी राजस्थानी एवं से ही अधिक मिल सकती है । उन लोककथाओं को गुजरातवाले जूनी-गुजराती कहते हैं अतः कई विद्वानों धर्म प्रचार का माध्यम बनाने के लिए उनमें जैन ने उसे 'मरु-गूजर' भाषा कहना उचित अधिक माना सिद्धांतों और आचार विचार का पुट दे दिया है। आगे चलकर राजस्थानी, गुजराती और हिन्दी में गया है जिससे जनता उन कथाओं को सुनकर पापों से प्रान्तीय भेद अधिक स्पष्ट होता गया। और इन बचे और अच्छे कार्यों की प्रेरणा प्राप्त करे । क्योंकि तीनों भाषाओं में जैन विद्वानों ने प्रचूर रचनाएँ कथाएँ, बालक, युवा-वृद्ध स्त्री-पुरुष सभी को समान बनायी हैं। वैसे कुछ रचताए सिन्धी, मराठी रूप से प्रभावित करती है इसलिए जैन लेखकों ने
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कथाओं सम्बन्धी साहित्य बहत बड़े परिमाण में रचा से प्रकाशित है। भाषा विज्ञान के अध्यापन में जैन है और इससे जन-साधारण के जीवन में सदाचार और साहित्य की उपयोगिता--भाषा विज्ञान की दृष्टि से जैन नैतिकता का खूब प्रचार हआ । जैन साहित्य की साहित्य का महत्व सबसे अधिक है क्योंकि जैन मुनि एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें निरन्तर घूमते रहते हैं और सब प्रान्तों में धर्म प्रचारार्थ विकार वर्द्धक और वासनाओं को उभारनेवाले और तीर्थ यात्रा आदि के लिए उनका यातायात होता साहित्य को स्थान नहीं मिला। इससे लोकजीवन का रहा है। उनका जीवन बहुत संयमित होने से उन्होंने नैतिक-पद ऊँचा उठा, उससे भारत का गौरव बढ़ा। साहित्य निर्माण और लेखन में बहुत समय लगाया,
इसी का परिणाम है कि अलग-अलग प्रान्तों की साहित्य संरक्षण में जैनों का विशिष्ट योगदान
भाषाओं में जैन विद्वान बराबर लिखते रहे । इससे
उन भाषाओं का विकास किस तरह होता गया, शब्दों जैन साहित्य की एक दूसरी विशेषता यह है कि
के रूपों में किस तरह का परिवर्तन हुआ, इसकी जानवह बराबर लिखा जाता रहा और उसकी सुरक्षा का
कारी जैन रचनाओं से जितनी अधिक मिलती है जैनेभी बहुत अच्छा प्रयत्न किया जाता रहा । इसलिए
तर रचनाओं से नहीं मिलती । क्योंकि एक तो वे हस्तलिखित प्रतियों के ज्ञान-भण्डार जैनों के पास बहुत
इतनी सुरक्षित नहीं रहीं और प्रत्येक शताब्दी के प्रत्येक बड़ी व अच्छी संस्था में सुरक्षित हैं । प्राचीन और शुद्ध
चरण की जैन रचनाएं जिस तरह की मिलती हैं वैसी प्रतियों की उपलब्धि स्वरूप ज्ञान भण्डार में एक ताड़
जैनेतरों की नहीं मिलती। पत्रीय प्रति, 10वीं शताब्दी से 15वीं शताब्दी तक की ताडपत्रीय प्रतियाँ जैसलमेर, पाटण, खंभात, बड़ौदा
प्राकृत भाषा के दो प्रधान भेद हैं-खेरे सेनी और आदि में करीब एक हजार सुरक्षित हैं । 13वीं
___ महाराष्ट्री। खेरे सेनी में दिगम्बर और महाराष्ट्री में शताब्दी से कागज पर ग्रन्थ लिखे जाने लगे । तब से वेताम्बर साहित्य रचा गया । इनसे अपभ्रश और अब तक की लाखों प्रतियाँ कागज की प्राप्त हैं। इनमें
ज का प्राप्त है । इनमें अपभ्रश से उत्तर भारत की प्रान्तीय भाषाओं की केवल जैन साहित्य ही नहीं है। ऐसा बहुतसा जनेतर शखला जडती है। साहित्य भी है जो अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। और यदि मिलता है तो भी उन जैनेतर ग्रन्थों की प्राचीन उत्तर भारत की प्रान्तीय भाषाओं की तरह व शुद्ध प्रतियां जैन भण्डारों में जितनी व जैसी मिलती दक्षिणी भारत की प्रमुख भाषा 'कन्नड' और 'तमिल, हैं उतनी और वैसी जनेतर संग्रहालयो में नहीं इन दोनों में भी जैन साहित्य बहुत अधिक मिलता है। मिलतीं । अर्थात् साहित्य के निर्माण में ही नहीं, आचार्य भद्रबाह, दक्षिणी भारत में अपने संघ को लेकर संरक्षण में भी जैनों का उल्लेखनीय योगदान रहा है। पधारे क्योंकि उत्तर भारत में उन दिनों बहुत बड़ा सचित्र, स्वर्णाक्षरी, गैष्याक्षरी, पंचपाठ, त्रिपाठ आदि दुष्काल पड़ा था। उनके दक्षिण भारत में पधारने से अनेक शैलियों की विशिष्ट प्रतियाँ बहुत ही उल्लेखनीय उनके ज्ञान और त्याग तप से प्रभावित होकर दक्षिण हैं। लेखनकला और चित्रकला का जैनों ने खूब भारत के अनेक लोगों ने जैन धर्म को स्वीकार कर लिया विकास किया । इस सम्बन्ध में सौजन्य मूर्ति, महान और उनकी संख्या क्रमशः बढ़ती ही गई। आसपास के साहित्य सेवी स्वर्गीय पूज्य विजयजी लिखित 'भारतीय क्षेत्रों में जैन धर्म का खूब प्रचार हुआ । जैन मुनि श्रवण संस्कृति अने लेखनकला' नामक गूजराती ग्रन्थ चातुर्मास के सिवाय एक जगह रहते नहीं बहत ही पठनीय हैं जो साराभाई नबाव, अहमदाबाद हैं, इसलिए उन्होंने घूम-फिरकर जैन धर्म का सन्देश
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जन-जन में फैलाया । लोक सम्पर्क के लिए वहां जो अब उपलब्ध भी नहीं होते । बहुत से जनेतर ग्रंथों को कन्नड और तमिल भाषाएं अलग-अलग प्रदेशों में अन्तर बनाये रखने का श्रेय जनों को प्राप्त है। बोली जाती थीं, उनमें खूब साहित्य निर्माण किया ।
ऐतिहासिक दृष्टि से जैन साहित्य बहुत महत्वपूर्ण अतः इन दोनों भाषाओं का प्राचीन और महत्वपूर्ण
है। भारतीय इतिहास, संस्कृति और लोकजीवन साहित्य जैनों का ही प्राप्त है। इस तरह उत्तर और
सम्बन्धी बहुत ही महत्वपूर्ण सामग्री जैन ग्रंथों व प्रशदक्षिण भारत को प्रधान भाषाओं में जैन साहित्य का
स्तियों एवं लेखों आदि में पायी जाती है। जैन आगम प्रचुर परिमाण में पाया जाना बहत ही उल्लेखनीय
साहित्य में दो-अढाई हजार वर्ष पहले का जो सांस्कृऔर महत्वपर्ण है। भारतीय साहित्य को जैनों की यह
तिक विवरण मिलता है, उसके सम्बन्ध में जगदीश चन्द्र बिशिष्ट देन ही समझी जानी चाहिए।
जैन लिखित "जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज'', विषय वैविध्य--
नामक शोध प्रबन्ध चौखम्बा विद्या भवन-वाराणसी विषय वैविध्य की दृष्टि से भी जैन साहित्य बहुत से प्रकाशित हुआ है, उससे बहुत-सी महत्वपूर्ण वातों महत्वपूर्ण है क्योंकि जीवनोपयोगी प्रायः प्रत्येक का पता चलता है । जैन प्रबन्ध संग्रह पट्टाबलियाँ, विषय के जैन ग्रन्थ रचे गये हैं। इसलिए जैन साहित्य तीर्थ मालाएँ और ऐतिहासिक गीत, काव्य आदि में केवल जैनों के लिए ही उपयोगी नहीं, उसकी सार्वजनिक अनेक छोटे-बड़े ग्रामनगरों वहाँ के शासकों, प्रधान उपयोगिता है । व्याकरण, कोश, छन्द, अलंकार, काव्य- व्यक्तियों का उल्लेख मिलता है । जिनसे छोटे-छोटे शास्त्र, वैद्यक, ज्योतिषि मंत्र-तंत्र, गणित, रत्न परीक्षा गाँवों की प्राचीनता, उनके पुराने नाम और वहाँ की आदि अनेक विषयों के जैन ग्रन्थ प्राकृत, संस्कृत, कन्नड, स्थिति का परिचय मिलता है । बहुत से ऐसे शासको तमिल, और राजस्थानी, हिन्दी, गुजराती में प्राप्त है। के नाम जो इतिहास में कहीं नहीं मिलते, उनका इनमें से कोई ग्रन्थ तो इतने महत्वपूर्ण हैं कि जैनेतरों जैन ग्रथों में उल्लेख मिल जाता है। बहुत से राजाओं ने भी उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है और उन्हें आदि के काव्य निर्णय में भी जैन सामग्री काफी सूचअपनाया है । जैन विद्वानों ने साहित्यक क्षेत्र में बहत नाएँ देती है, व सहायक होती है। गुर्दावली तो बहुत उदारता रखी । किसी भी विषय का अच्छा नथ महत्वपूर्ण है। कहीं भी उन्हें प्राप्त हो गया तो जैन विद्वानों ने उसकी प्रति यदि मिल सकी तो ले ली या खरीद करवाली,
. जैन साहित्य की गुणवता - नहीं तो नकल करवा के भण्डार में रख ली। जैनेतर अब यहाँ कुछ ऐसे जैन ग्रंथों का संक्षिप्त परिचय ग्रन्थों का पठन-पाठन भी वे बराबर करते ही थे। अतः कराया जायगा जो अपने ढंग के एक ही हैं। आवश्यकता अनुभव करके उन्होंने बहुत से जैनेतर इनमें कई ग्रन्थ तो ऐसे-ऐसे भी हैं जो भारतीय साहित्य ग्रन्थों पर महत्वपूर्ण टीकाएँ लिखी हैं। इससे उन ग्रथों ही में नहीं विश्व साहित्य में भी अजोड़ हैं। प्राचीन का अर्थ या भाव को समझना सबके लिए सुलभ हो भारत में ज्ञान-विज्ञान का कितना अधिक विकास हआ गया और उन ग्रन्थों के प्रचार में अभिवद्धि हई। जैने- था और आगे चलकर उसमें कितना ह्रास हो गया, तर ग्रथों पर जैन टीकाओं सम्बन्धी मेरा खोजपूर्ण इसकी कुछ झाँकी आगे दिये जानेवाले विवरणों से लेख 'भारतीय विद्या' के 2 अंकों में प्रकाशित हो चुका पाठकों को मिल जायगी। ऐसे कई ग्रंथों का तो प्रकाहै। जैन नथों में अनेक बौद्ध और वैदिक ग्रंथों के शन भी हो चुका है पर उनकी जानकारी विरले ही उदाहरण पाये जाते हैं। उनमें से कई जनेतर ग्रथ तो व्यक्तियों को होगी। वास्तव में जैन साहित्य अब तक
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बहुत ही उपेक्षित रहा है और बहुत से विद्वानों ने तो दृष्टि से बड़े महत्व का है । फलादेश विषयक यह ग्रन्थ यह गलत धारणा बना ली है कि जैन साहित्य, जैन- एक पारिभाषिक ग्रन्थ है । डॉ. अग्रवालजी ने इसे धर्म आदि के सम्बन्ध में हो होगा । सर्वजनोपयोगी कुषाण गुप्त युग की सन्धि काल का बतलाया है अर्थात साहित्य उसमें नहीं है । पर वास्तव में सर्वजनोपयोगी यह ग्रन्थ बहुत पुराना है इस तरह के न मालूम कितने जैन साहित्य बहुत बड़े परिमाण में प्राप्त है जिससे महत्वपूर्ण ग्रन्थ काल में समा गये हैं। लाभ उठाने पर भारतीय समाज का बहुत बड़ा उपकार होगा। बहुत-सी नई और महत्वपूर्ण जानकारी
प्राकृत भाषा का दूसरा महत्वपूर्ण ग्रन्थ है संघ जैन साहित्य के अध्ययन से प्रकाश में आ सकेगी।
दास गणि रचित 'वसूदेव हिन्डी' यह भी तीसरी और
पांचवीं शताब्दी के बीच की रचना है । इसमें मुख्यतः प्राकृत भाषा का एक प्राचीन ग्रन्थ 'अंगविज्जा' तो श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव के भ्रमण और कई मूनि पूण्य विजय जी संपादित प्राकृत ग्रन्थ परिषद से विवाहों का वर्णन है, पर इसमें प्रासंगिक रूप में अनेक प्रथम ग्रन्थाङ्क के रूप में सन् 1947 में प्रकाशित हुआ पौराणिक और लौकिक कथाओं का समावेश भी पाया है। 1 हजार श्लोक परिमित यह ग्रन्थ अपने विषय का जाता है । पाश्चात्य विद्वानों और डॉ. जगदीश चन्द्र सारे भारतीय साहित्य में एक ही ग्रन्थ है। इसमें इतनी जेन तथा डॉ. सांडेसरा आदि के अनुसार यह दृहद् कथा विपुल और विविध सांस्कृतिक सामग्री सुरक्षित है कि नामक लुप्त ग्रंथ की बहुत अंशों में पूर्ति करता है।
समय के जैनाचार्य का किन-किन विषयों का कैसा सांस्कृतिक अध्ययन की दृष्टि से इसका बहत ही महत्व विशद शान था यह जानकर आश्चर्य होता है। डॉ.वासु- है । इस सम्बन्ध में 2 बड़े-बड़े शोध प्रबंध ग्रन्थ लिखे देव शरण अग्रवाल ने हिन्दी में और डा. मोतीचन्द्र जा चुके हैं । वसुदेव हिन्दी व मध्यम खण्ड भी असंख्य ने अंग्रेजी में इस ग्रन्थ का जो विवरण दिया है, उससे मिले हैं - प्राकृत भाषा का तीसरा उल्लेखनीय ग्रंथ इसका महत्व स्पष्ट हो जाता है । निवित्त शास्त्र के है-ऋषि जैन बौद्ध और वैदिक तीनों धर्मों के हैं। 8 प्रकारों में पहली 'अंग विद्या' है। अग्रवालजी ने अपने ढ़ग का यह एक ही ग्रंथ है। इसी तरह हरिभद्र लिखा है कि अंग विद्या क्या थी ? इसको बतानेवाला सूरि का धुर्ताख्यान भी प्राकृत भाषा का अनूठा नथ एकमात्र प्राचीन ग्रन्थ यही जैन साहित्य में अंग विज्जा है । ये दोनों ग्रथ. प्रकाशित हो चुके हैं । के नाम से बच गया है।
भारतीय मुद्रा शास्त्र सम्बन्धी एक महत्वपूर्ण ग्रंथ यह अंग विज्जा नामक प्राचीन शास्त्र सांस्कृतिक दृष्टि है 'द्रव्य परीक्षा' जिसकी रचना अलाउद्दीन खिलजी से अति महत्वपूर्ण सामग्री से परिपूर्ण है। अंग विज्जा के कोषाध्यक्ष या भण्डारी खरतर गच्छीय जैन श्रावक के आधार पर वर्तमान प्राकृत कोषों में अनेक नये ठक्कुर फेरु' ने की है। उस समय की प्रचलित सभी शब्दों को जोड़ने की आवश्यकता है। मुनि पुण्य मुद्राओं के तील, माप मूल्य आदि की जो जानकारी विजयजी ने जो ग्रंथ के अन्त में शब्दकोश दिया है, उसमें इस ग्रंथ में दी गई है, वैसी और किसी भी नथ में हजारों नाम व शब्द आये हैं जिनमें से बहत सों का नहीं मिलती। ठक्कुर फेरु ने इसी तरह धापत्ति सही अर्थ बतलाना भी आज कठिन हो गया है। मुनि- वास्तुनुसार गणितसार, ज्योतिषसार रत्न परीक्षा आदि श्री ने लिखा है कि सामान्यतया प्राकृत वाकया में जिन महत्वपूर्ण नथ बनाये हैं । इन सबकी प्राचीन हस्तक्रियापदों का उल्लेख सग्रह नहीं हआ है, उनका संग्रह लिखित प्रति की खोज मैंने ही की. और मनि जिन इस ग्रन्थ में विपुलता से हुआ है जो प्राकृत समृद्धि की विजयजी द्वारा सभी ग्रंथों को एक संग्रह प्रथ में
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प्रकाशित करवा दिया है । राजस्थान प्राच्य विद्या रूप में प्रकाशित हो चुका है। वैसे द्विसंधान, पचसंधान प्रतिष्ठान जोधपुर से यह प्रकाशित है ।
आदि तो कई काव्य मिलते हैं पर सप्तसंधान काव्य
विश्वभर में यह एक ही है । ग्रथकार ने ऐसा काव्य संस्कृत भाषा में एक विलक्षण ग्रोथ है 'पाश्वभ्युि
3 पहले आचार्य हेमचन्द ने बनाया था, उल्लेख किया दय काव्य जिसकी रचना आ. जिनसेन ने की है।
__ है, पर वह प्राप्त नहीं है । इसमें मेघदून के समग्रचरणों की पादपूर्ति रूप में भगवान पार्श्वनाथ का चरित्र दिया है । कालिदास के दक्षिण के दिगम्बर जैन विद्वान हसदेव रचित, मग पद्यों के भावों को आत्मसात करके ऐसा काव्य यह सबसे पक्षी शास्त्र, भी अपने ढ़ग का एक ही नथ है। इसमें पहले समग्र पादपूर्ति के रूप में बनाकर ग्रंथकार ने पशु-पक्षियों की जाति एवं स्वरूप का निरूपण है। अपनी असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया है। इस नथ का विशेष विवरण मेरी प्रेरणा से श्री जयंत
ठाकुर ने गुजराती में लिखकर 'स्वाध्याय पत्रिका' में विश्व साहित्य में अजोड़ अन्य जैन संस्कृत ग्रथ है
प्रकाशित कर दिया है। इस ग्रथ की प्रतिलिपि बड़ौदा 'अष्ठ लक्षी' । इसे सम्राट अकबर के समय में महो
के प्राच्यविद्या मन्दिर में है । पशु-पक्षियों सम्बन्धी पाध्याय समय सून्दर ने संवत 1649 में प्रस्तुत किया।
ऐसी जानकारी अभी किसी भी प्राचीन ग्रंथ में नहीं था। इस आश्चर्यकारी प्रयत्न से सम्राट बहुत ही प्रसन्न
मिलती।
र हआ। इस ग्रंथ में 'राजा नोद दते सोख्यम' इन आठ अक्षरोंवाले वाक्य के 10 लाख से भी अधिक कन्नड साहित्य का एक विलक्षण ग्रथ है 'भूवलय'। अर्थ किये हैं। रचियता ने लिखा है कि कई अर्थ संगति यह अंकों में लिखा गया है। कहा जाता है कि इसमें में ठीक नहीं बैठे तो भी 2 लाख शब्दों को बाद देकर अनेकों ग्रंथ संकलित हैं एवं अनेकों भाषाएं प्रयुक्त हैं। आठ लाख अर्थ तो इसमें व्याकरण सिद्ध हैं ही इसीलिए इसका एक भाग जैन मित्र मंडल दिल्ली से प्रकाशित इसका नाम 'अष्ट लक्षी' रखा है। यह ग्रंथ देवचन्द हआ है। राष्ट्रपति राजेन्द्रप्रसाद जी के समय तो इस लाल भाई पुस्तकोद्वार फण्ड सूरत से प्रकाशित 'अनेकार्थ ग्रंथ के सम्बन्ध में काफी चर्चा हुई थी। पर उसके रत्न मंजूषा' में प्रकाशित हो चुका है।
बाद उसका पूरा रहस्य सामने नहीं आ सका।
संस्कृत का तीसरा अपूर्व ग्रंथ है-सप्त संधान हिन्दी भाषा में एक बहुत ही उल्लेनीय रचना है महाकाव्य, यह 18वीं शताब्दी के महान विद्वान 'अर्द्ध कथानक' । 17वीं शताब्दी के जैनसुकवि बनारसी उपाध्याय मेघविजय रचित है । इसमें भी ऋषभदेव, दासजी ने अपने जीवन की आत्मकथा बहुत ही शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर इन पाँच रोचक रूप में इस ग्रंथ में दी है इस आत्मकथा की तीर्थंकरों और श्लोक प्रसिद्ध महापुरूष राम और प्रशंसा श्री बनारसी दास चतुर्वेदी ने मुक्त कंठ से की कृष्ण, इन संतों-महापुरुषों की जीवनी एक साथ चलती है। इस तरह के और भी अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथ जैन है । यह रचना विलक्षण तो है ही । कठिन भी इतनी साहित्य-सागर में प्राप्त हैं, जिससे भारतीय साहित्य है कि बिना टीका के सातों महापुरुषों में सजीवन प्रत्येक अवश्य ही गौरवान्वित हुआ है। वास्तव में इस श्लोक की संगति बैठाना विद्वानों के लिए भी संभव विषय पर तो एक स्वतंत्र ग्रंथ ही लिखा जाना नहीं होता। यह महाकाव्य टीका के साथ पत्राकार अपेतिक्ष है। यहाँ तो केवल संक्षिप्त झाँकी ही दी है
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- मराकालीन हिन्दी साहित्य में affid
सतगुरु-मसंग की महत्ता
डा० श्रीमती पुष्पलता जैन
साधना की सफलता और साध्य की प्राप्ति के जो कोई भी कल्याणकारी उपदेश प्राप्त होते हैं वे सब लिए सदगूरू का सत्संग प्रेरणा का स्रोत रहता है। गुरूजनों की विनय से ही होते हैं। इसलिये उत्तराध्यगुरू का उपदेश पापनाशक, कल्याणकारक, शान्ति और यन में गुरू और शिष्यों के पारम्परिक कर्त्तव्यों का आत्मशक्ति करने वाला होता है। उसके लिए श्रमण विवेचन किया गया है । इसी सन्दर्भ में मपात्र और और वैदिक साहित्य में आचार्य, बुद्ध, पूज्य, धर्माचार्य, कुपात्र के बीच भेदक रेखा भी खींची गई है। उपाध्याय, भन्ते, भदन्त, सदगुरू, गुरू आदि शब्दों का पर्याप्त प्रयोग हआ है। जैनाचार्यों ने अर्हन्त और सिद्ध जैन साधक मुनि रामसिंह और आनंदतिलक ने को भी गुरू माना है और विविध प्रकार से गुरूभक्ति गुरू की महत्ता स्वीकार की है और कहा है कि गुरू प्रदर्शित की है। इहलोक और परलोक में जीवों को की कृपा से ही व्यक्ति मिथ्यात्व रागादि के बन्धन से
उत्तराध्ययन, 1.27. 2. जे केइ वि उवएसा, इह पर लोर सुहावहा संति ।
विणएण गुरुजणाणं सव्वे पाउणइ ते पुरिसा ॥ वसुनन्दि-थावकाचार, 339; तुलनाथं देखिये-धेरंड __ संहिता, 3,12-14.
उत्तराध्ययन, प्रथम स्कन्ध । श्वेताश्वेतरोपनिषद् 3-6,22; आदि पर्व, महाभारत, 131.34-58. ताम कुतित्थई परिभमई धुत्तिम ताम करेइ । गुरुहु पमाएँ जाम णवि अप्पा देउ मुणेइ॥ योगसार, 41, पृ. 380. गुरु दिण यरु गुरू हिमकिरण गुरू दीवउ गुरू देउ । अप्पापरहं परंपरहं जो दरिसावइ भेउ ॥ दोहापाहड, 1 गरू जिणवरू गुरू सिद्ध सिउ, गुरू रयणतय सारु । सो दरिसावइ अप्प परु आणंदा ! भव जल पावइ पारु ॥ आणंदा, 36.
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. मुक्त होकर भेद विज्ञान कर अपनी आत्मा के विशुद्ध .. युरू की दी हुई उस वस्तु को सुलगा देता है । " जायसी
रूप को जान पाता है । इसलिए उन्होंने गुरू की के भावमूलक रहस्यवाद का प्राणभूत तत्व प्रेम है और वन्दना की है। आनन्दतिलकं भी गुरू को जिनवर सिद्ध, यह प्रेम पीर की महान देन है । पद्मावतके स्तुतिखण्ड शिव और स्व-पर का भेद दर्शानेवाला मानते हैं। में उन्होंने लिखा है-- जैन साधकों के ही समान कबीर ने भी गुरू को ब्रह्म ..." (गोविन्द) से भी श्रेष्ठ माना है। उसी की कृपा से
सैयद असरफ पीर पियारा, गोविन्द के दर्शन सम्भव हैं।' रागादिक विकारों को दूर
जेहि मोहिं पंथ दीन्ह उजियारा। कर आत्मा ज्ञान से तभी प्रकाशित होती है जब गुरू
लेसा हिए प्रेम कर दिया,
उठी जोति भा निरमल हीया ।15 की प्राप्ति हो जाती है। उनका उपदेश सशयहारक और पथ प्रदर्शक रहता है । गुरू के अनुग्रह एवं कृपा
सर की गोपियाँ तो बिना गरू के योग सीख ही दृष्टि से शिष्य का जीवन सफल हो जाता है। सदगुरू
नहीं सकीं। वे उद्धव से मथुरा ले जाने के लिए कहती स्वर्णकार की भाँति शिष्य के मन से दोष और दुर्गुणों
हैं जहाँ जाकर वे गुरू श्याम से योग का पाठ ग्रहण को दूर कर उसे तप्त स्वर्ण की भांति खरा और निर्मल
कर सकें।" भक्ति-धर्म में सूर ने गुरू की आवश्यकता बना देता है। सूफी कवि जायसी के मन में पीर
अनिवार्य बतलाई है और उसका उच्च स्थान माना है। (गुरू) के प्रति श्रद्धा दृष्टव्य होती है। वह उनका प्रेम
सदगुरू का उपदेश ही हृदय में धारण करना चाहिए का दीपक है। हीरामन तोता स्वयं गुरू का रूप है। क्योंकि वह सकलभ्रम का नाशक होता हैऔर संसार को उसने शिष्य बना लिया है। उनका विश्वास है कि गुरू साधक के हृदय में विरह की चिन
सदगुरू को उपदेश हृदयधरि, गारी प्रक्षिप्त कर देता है और सच्चा साधक शिष्य
जिन भ्रम सकल निवरायौ ॥
7. गुरू गोविन्द दोऊ खड़े काके लागू पायें ।
बलिहारी गुरू आपकी जिन्ह गोविन्द दियो दिखाय ॥ संत वाणी संग्रह, भाग 1, पृ. 2. 8. बलिहारी गुरू आपणे द्यौ हाड़ो के बार।
जिनि मानिष तें देवता करत न लागी बार ॥ कबीर ग्रंथावली, पृ. 1. 9. संसै खाया सकल जग, संसा किनहूं न खद्ध, वही, पृ .2-3. 10. वही, पृ. 4 । 11. जायसी ग्रन्थमाला पु. 7 । 12. गुरू सुआ जेइ पंथ देखावा । बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा ॥ पद्मावत.. 13. गुरू होइ आय, कीन्ह उचेला । जायसी ग्रन्थावली, पृ. 33. 14. गुरू विरह चिनगी जो मेला । जो सुलगाइ लेइ सो चेला ॥ वही, पृ. 51. 15. जायसी ग्रन्थावली, स्तुतिखण्ड, पृ. 7. 16. जोगविधि मधुबन सिखिहैं जाइ। ......
बिनु गुरू निकट संदेसनि कैसे, अवगाह्यो जाइ । सूरसागर (समा) पद 4328. 17. वही, पद 3361
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सूर गुरू महिमा का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि हरि और गुरु एक ही स्वरूप हैं और गुरू के प्रसन्न होने से हरि प्रसन्न होते हैं। गुरू के बिना सच्ची कृपा करनेवाला कौन है ? गुरू भवसागर में डूबते हुए को बचानेवाला ओर सत्पथ का दीपक है ।" सहजोबाई मी कबीर के समान गुरू को भगवान से भी बड़ा मानती हैं।" दादू लौकिक गुरू को उपलक्ष्य मात्र मानकर असली गुरु भगवान को मानते हैं मानक भी कबीर के समान गुरू की ही बलिहारी मानते हैं जिसने ईश्वर को दिला दिया अन्यथा गोविन्द का मिलना कठिन था | सुन्दरदास भी "गुरूदेव बिना नहीं मारग सूझय" कहकर इसी तथ्य को प्रकट करते हैं ।" तुलसी ने भी मोह भ्रम दूर होने और राम के रहस्य को प्राप्त करने में गुरू को ही कारण माना है। रामचरित मानस के प्रारम्भ में ही गुरू वन्दना करके उसे मनुष्य के रूप में करुणासिन्धु भगवान माना है। गुरू का उपदेश अज्ञान के अंधकार को दूर करने के लिए अनेक सूर्यो के समान है -
बंदऊँ गुरुपद कंज कृपासिन्धु नररूप हरि । महामोह तम पुंज जासु वचन रवि कर निकर ॥23
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22. सुन्दरदास ग्रन्थावली, प्रथम खण्ड, पृ. 8
23. रामचरितमानस, बालकाण्ड 1-5
18. सूरसागर, पद 416-417; सूर और उनका साहित्य,
19. परमेसुर से गुरू बड़े गावत वेद पुरान संतसुधासार पृ. 182.
20. आचार्य क्षितिमोहन सेन दादू और उनकी धर्म साधना, पाटल सन्त विशेषांक भाग 1, पृ. 112.
21. बलिहारी गुरु आपण्य यो हाड़ी के बार।
जिनि मानिषतें देवता करत न लागी बार। गुरु ग्रंथ साहिब, म 1, आसादीवार, पू-1
"
कबीर के समान ही तुलसी ने भी संसार सागर को पार करने के लिए गुरू की स्थिति अनिवार्य मानी है। साक्षात् ब्रह्मा और विष्णु के समान भी, बिना गुरु के संसार से मुक्त नहीं हो सकता 124 सदगुरू ही एक ऐसा कर्णधार है जो जीव के दुर्लभ कामों को भी सुलभ कर देता है
करनघार सदगुरू दृढ़ नावा, दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ।
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मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने भी गुरू को इससे कम महत्व नहीं दिया। उन्होंने तो गुरू को वही स्थान दिया है जो अहंत को दिया है। पंच परमेष्ठियों में सिद्ध को देव माना और शेष चारों को गुरू रूप स्वीकारा है | ये सभी ' दुरित हरन दुखदारिद दोन" के कारण है। कवीरादि के समान कुशललाभ ने शाश्वत सुख की उपलब्धि को गुरू का प्रसाद कहा है - - " श्री गुरु पाव प्रसाद सदा सुख सपंजइ २०० रूपचन्द ने भी यही माना" बनारसी दास ने सदगुरू के उपदेश को मेघ की उपमा दी है जो सब जीवों
24. गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई भी विरंचि संकर सम होई ।
1
बिन गुरु होहि कि ज्ञान-ज्ञान कि होई विराग बिनु रामचरितमानस उत्तरकाण्ड, 93. 25. वही, उत्तरकाण्ड, 43/4.
26. बनारसी विलास, पंचपद विधान 1 10. पृ. 162-163.
27. हिन्दी जंन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 117.
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का हितकारी है.128 मिथ्यात्वी और अज्ञानी उसे ग्रहण "जो तजं विषे की आसा, द्यानत पावै सिववासा । नहीं करते पर सम्यग्दृष्टि जीव उसका आश्रय लेकर यह सदगुरू सीख बताई, काहूँ विरलै के जिय जाई" . भव से पार हो जाते हैं। एक अन्यत्र स्थल पर बनारसी दास ने उसे "संसार सागर तरन तारन गरू के रूप में अपने सदगुरू से पथप्रदर्शन मिला । जहाज विशेखिये" कहा है। 30
सन्तों ने गुरु की महिमा को दो प्रकार से व्यक्त मीरा ने "सगुरा" और 'निगुरा' के महत्व को किया है-सामान्य गुरू का महत्व और किसी विशिष्ट ष्टि में रखते हुए कहा कि सगरा को अमत की प्राप्ति व्यक्ति का महत्व । कबीर और नामक ने प्रथम प्रकार होती है और निगुरा को सहज जल भी पिपासा की को अपनाया तथा सहजोबाई आदि अन्य.सन्तों ने प्रथम तृति के लिए उपलब्ध नहीं होता। सदगरू के मिलन प्रकार के साथ ही द्वितीय प्रकार को स्वीकार किया से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। रूपचन्द का है। जैन सन्तों ने भी इन दोनों प्रकारों को अपनाया. कहना कि सदगुरू की प्राप्ति बड़े सौभाग्य से होती है। है । अर्हन्त आदि सदगुरुओं का तो महत्वगान प्रायः सभी इसलिए वे उसकी प्राप्ति के लिए अपने इष्ट से जैनाचार्यों ने किया है पर कुशलाभ जैसे कुछ भक्तों ने अभ्यर्थना करते हैं 12 धानतराय को
अपने लौकिक गुरुओं की भी आराधना की है।"
-
28. ज्यों वरषा वरष समै मेघ अखंडित धार ।
त्यो सदगुरू वानी खिरे, जगत जीव हितकार ॥ नाटक समयसार, 6, पृ. 338. 29. वही, साध्यसाधक द्वार, 15.16, पृ. 342-3. 30. बनारसीविलास, भाषासूक्त मुक्तावली, 14, पृ. 24. 31. सतगुरू मिलिया सुज पिछानी ऐसा ब्रह्म मैं पाती।
सगुरा सूरा अमृत पीवे निगुरा प्यासा जाती। मगन भया मेरा मन सुख में गोविन्द का गुणगाती।
मीरा कहे इक आस आपकी औरों सू सकुचाती ॥ संतवाणी संग्रह, भाग 2, पृ. 69. 32. अब मोहि सदगुरू कहि समझायो,
तो सो प्रभु बड़े भागनि पायो। रूपचन्द नटु विनवे तोही,
अब दयाल पूरी दै मोही ॥ हिन्दी पद संग्रह, पृ. 49. 33. वही, पृ. 127; तुलनार्थ देखिये
मन वचकाय जोग थिर करके त्यागो विषय कषाई ।
द्यानत स्वर्ग मोक्ष सुखदाई सतगुरू सीख बताई ॥ वही, पृ. 133. 34. हिन्दी न भक्ति काव्य और कवि, पृ. 117.
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गुरू के इस महत्व को समझकर ही साधक कवियों गुरू के सत्संग को प्राप्त करने की भावना व्यक्त की है । परमात्मा से साक्षात्कार कराने वाला ही सदगुरू है । सत्संग का प्रभाव ऐसा होता है कि वह मजीठ के समान दूसरों को अपने रंग में रंग लेता है । 30 काग भी हंस बन जाता है। 7 रैदास के जन्म-जन्म के पाश कट जाते हैं " मीरा सत्संग पाकर ही हरि चर्चा करना चाहती हैं । " सत्संग से दुष्ट भी वैसे ही सुधर जाते हैं जैसे पारस के स्पर्श से कुधातु लोहा भी सुवर्ण बन जाता है । 10 इसलिए सूर दुष्ट जनों की संगति से दूर रहने के लिए प्रेरित करते हैं । 42
मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने भी सत्संग का ऐसा ही महत्व दिलाया है। बनारसीदास ने तुलसी के समान सत्संगति के लाभ गिनाये हैं
35. भाई कोई सतगुरू संत कहावे, मैनन अलख लखावे" कबीर, भक्ति काव्य में रहस्यवाद, पृ. 146.
36. दरिया संगत साधु की, सहजे पलटें अंग ।
जैसे संग मजीठ के कपड़ा होय सुरंग ॥ 37. सहजो संगत साध की काग हंस हो जाय।
38. कह रैदास मिले निजदास, जनम जनम के काटे पास-रैदास वानी, पृ. 32.
39. तज कुसंग सतसंग बैठ नित, हरि चर्चा सुन लीजो-संतवाणी संग्रह, भाग 2, पृ. 77.
40. जलचर थलचर नभचर नाना जे जड़ चेतन जीव जहाना ।
मीत कीरति गति भूमि मिलाई, जब जेहि जसंन जहाँ जेहि पाई। जो जानव सतसंग प्रभाऊ, लोकहुँ वेद न आन उपाऊ । बिनु सतसंग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई । सतसंगति गुद मंगल मूला, सोइ फल सिधि सब साधन फूला ॥ सठ सुधर
41. तजी मन हरि विमुखन को संग |
कुमति निकंद होय महा मोह मंद होय; जगभर्ग सुयश विवेक जगै हियसों । नीति को दिठाव होय विनैको बढ़ाव होय; उपजे उछाह ज्यों प्रधान पद लिये सों ॥ धर्म को प्रकाश होय दुर्गंति को नाश होय, बरते समाधि ज्यों विष पियेसों । तोष परि पूर होय, दोष दृष्टि दूर होय, एते गुन होहि सत-संगति के कियेसौ ॥
रस
42
1
दरिया 8 संत वाणी संग्रह भाग 1, पृ 129. सहजोबाई, वही पृ. 158
सतसंगति पाई, पारस परस कुधात सुहाई । तुलसीदास रामचरितमानस, बालकाण्ड 2-5.
जिनके संग कुमति उपजत है परत भजन में भंग ।
कहा होत पय पान कराये विष नहि तजत भुजंग ।
काहि कहा कपूर चुगाए स्वान न्हवाए गंग।
सूरदास खल कारी कामरि, चढ़े न दूजो रंग ॥ सूरसागर, पृ. 176.
42. बनारसी विलास, भाषासूक्त मुक्तावली, पृ. 50.
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द्यानवराय कबीर के समान उन्हें कृतकृत्य मानते हैं जिन्हें सत्संगति प्राप्त हो गयी है। भूधरदास सत्संगति को दुर्लम मानकर नरभव को सफल बनाना चाहते हैं--
प्रभु गुन गाय रे, यह औसर फेर न पाय रे ।। मानुष भब जोग दुहेला, दुर्लभ सतसगति मेला। सब बात भली बन आई, अर्हन्त भजो रे भाई ॥10॥
चन्द्र क्रांति मनि प्रगट उपल सौ, जल ससि देख झरत सरसाई ।। लट घट पलटि होत षटपद सी, जिन को साथ भ्रमर को - थाई । विकसत कमल निरखि दिनकर कों, लोह कनक होय पारस छाई ।। बोझ तिरै संजोग नाव के, नाग दमनि लखि नाग न खाई । पावक तेज प्रचड महाबल, जल परता सीतल हो जाई ।। संग प्रताप भयंगम जै है, चंदन शीतल तरल पटाई। इत्यादिक ये बात घणेरी, कौलों ताहि कहीं जु बढ़ाई ॥
दरिया ने सत्संगति मजीठ के समान बताया और नवलराम ने उसे चन्द्रकान्तमणि जैसा बताया है। कवि ने और भी दृष्टान्त देकर सत्संगति को सूखदायी कहा है
सतसंगति जग में सुखदायी । देव रहित दूषण गुरू साँचो, धर्म दया निश्चै चितलाई ॥
सुक अति
मैना संगति नर की करि, परवीन वचनता पाई।
इसी प्रकार कविवर छत्रपति ने भी संगति का महात्म्य दिखाते हुए उसके तीन भेद किये हैं-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य 146
43. कर-कर सपत संगत रे भाई ॥
पान परत नर नरपत कर सो तो पाननि सौ कर असनाई ।। चन्दन पास नींव चन्दन है काठ चढयो लोह तरजाई। पारस परस कुधात कनक व बूद उर्द्ध पदवी पाई ॥ करई तोवर संगति के फल मधुर मधुर सुर कर गाई।। विष गुन करत संग औषध के ज्यों बच खात मिटै वाई ।। दोष घटै प्रगटै गुन मनसा निरमल ह तज चपलाई।
द्यानत धन्न धन्न जिनके घट सत संगति सरधाई॥ हिन्दी पद संग्रह, पृ. 137. 44. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 155. 45. वही, पृष्ठ 185-86. 46. देखो स्वांति ब्रद सीप मुख परी मोती होय :
केलि में कपूर बांस माहि बंसलोचना। ईख में मधुर पुनि नीम में कटुक रस; पन्नग के मुख परी होय प्रान मोचना ।।
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इस प्रकार मध्यकालीन हिन्दी जैन साधकों ने सन्देह सत्संगति का प्रभाव है। यहां यह दृष्टव्य है कि विभिन्न उपमेयों के आधार पर सदगुरू और उनकी जैनेतर कवियों ने सत्संगति के माध्यम से दर्शन की सत्संगति का सुन्दर चित्रण किया है। ये उपमेय एक- बात अधिक नहीं कि जबकि जैन कवियों ने उसे दर्शन दसरे को प्रभावित करते हुए दिखाई देते हैं जो नि:- मिश्रित रूप में अभिव्यक्त किया है।
अंबुज दलमिपरि परी मोती सम दिप, सपन तबेलै परी नस कछु सोचना। उतकिस्ट मध्यम जघन्य जैसी संग मिले, तैसो फल लहै मति पोच मति पोचना 1114711 मलय सुवास देखो निबादि सुगंध करै, पारस पखान लोह कंचन करत है। रजक प्रसंग पट समलतें श्वेत करै, भेषज प्रसंग विष रोगन हरत है। पंडित प्रसंग जन मूरखतें बुध कर, काष्ठ के प्रसंग लोह पानी में तरत है। जसो जाको संग ताकी तेसो फल प्रापति है, सज्जन प्रसंग सब दुख निरवत है ।।14811 मन मोदन पंचशती, पृ. 70-71.
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जैन साहित्य
एवं संस्कृति
के विकास
में भट्टारकों
का योगदान
भगवान महावीर के पश्चात् होनेवाले अधिकांश आचार्यों ने साहित्य निर्माण में विशेष रुचि ली और उसके प्रचार-प्रसार के लिए अथक परिश्रम किया । प्राकृत भाषा के साथ-साथ उन्होंने संस्कृत, अपभ्रंश एवं प्रादेशिक भाषाओं को भी प्रश्रय दिया और जन-साधारण की रुचि के अनुसार विविध विषयों में विशाल साहित्य का सर्जन किया । ऐसे आचार्यों में आचार्य कुन्दकुन्द (प्रथम शताब्दी), उमा स्वामी (तृतीय शताब्दी) समन्तभद्र (तृतीय- चतुर्थ शताब्दी), सिद्धसेन (पंचम शताब्दी), देवनन्दि, पात्रकेसरी, अकलंक (सातवीं शताब्दी), वीर सेन ( आठवीं शताब्दी) विद्यानन्दि माणिक्य नन्दि, जिनसेन, गुणभद्र, नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवती, अमृत चन्द्र, देवसेन, पद्मनन्दि आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। ये सभी आचार्य अपने-अपने समय के अत्यधिक ओजस्वी एवं सशक्त विद्वान थे ।
लेकिन जब देश की राजनैतिक एकता समाप्त होने लगी और सम्राट हर्षवर्धन के बाद जब कोई भी शासक देश को एकता के सूत्र में बाँधने में असमर्थ
डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल
रहा तब देश में एकता के स्थान पर अनेकता ने सिर उठाया । चारों ओर अशान्ति का वातावरण छाने लगा । 11वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही भारत पर मुसलमानों के आक्रमण होने लगे और 13वीं शताब्दी के आते-आते वहाँ मुसलमानों का हमेशा के लिये शासन स्थापित हो गया । देश में आतंक का साम्राज्य छा गया । मुसलमानों के भयपूर्ण शासन में अहिंसकों का
जीना दूभर हो गया
।
नग्न साधुओं का विहार और
।
भी कठिन हो गया मन्दिरों को लूटना, मूर्तियों को तोड़ना एवं स्त्री-पुरुषों तथा बच्चों को मौत के घाट उतारना साधारण-सी बात हो गयी । ऐसे समय में बादशाह अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में नन्दि संघ के भट्टारक प्रभाचंन्द्र ने दिल्ली में अपना केन्द्र स्थापित किया और इस प्रकार सारे उत्तर भारत में भट्टारक परम्परा को नव स्वरूप प्रदान किया ।
के
भट्टारक प्रभा चन्द्र ( संवत् 1314 से 1408) पश्चात् सारे देश में भट्टारकों ने शनैः शनैः लोकप्रियता प्राप्त की और एक के पश्चात् एक दूसरे प्रान्तों
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में
में मटटारक गादियाँ स्थापित होने लगीं । राजस्थान में चित्तौड़, चम्पावती तक्षकगढ़, आमेर, सांगानेर, जयपुर, श्री महावीर जी, अजमेर, नागौर, जौवनेर, मध्यप्रदेश में ग्वालियर एव सोनागिरि जी, बागड़प्रदेश में डंगरपुर, सागवाड़ा, बासवाड़ा एवं रिषभदेव, गुजरात में नवसारी, सूरत, खम्भात, धोधा, गिरनगर, महाराष्ट्र कारंजा एवं नागपुर, दक्षिण में मूड़विद्री, हुम्मच एवं श्रवण बेलगोला आदि स्थानों में भट्टारकों की गादियाँ स्थापित हो गयीं । इन भट्टारकों ने अपने-अपने गण संघ व गच्छ स्थापित कर लिए। अपने प्रभाव से क्षेत्र बट लिए और अपनी-अपनी सीमाओं में धर्म के एकमात्र स्तम्भ बन गये । 16वीं शताब्दी में देहली गादी के भट्टारकों ने अपने ही अधीन मंडलाचार्य पद बनाये जो भट्टारकों की ओर से प्रतिष्ठा, पूजा एवं समारोह आदि का नेतृत्व करने लगे ।
इन भट्टारकों ने जैन साहित्य और संस्कृति के विकास में अपना महत्वपूर्ण योग दिया । 1350 से 1850 तक भट्टारक ही आचार्य, उपाध्याय एवं मुनि रूप में जनता द्वारा पूजे जाते रहे तथा जैन संस्कृति के प्रधान स्तम्भ रहे। इन 500 वर्षों में जितने भी : प्रतिष्ठा महोत्सव आयोजित हुए उनमें इनकी प्रेरणा एवं आशीर्वाद ने जबरदस्त कार्य किया । संवत् 1548, 1664, 1783, एवं 1826 में देश में विशाल प्रतिष्ठा समारोह आयोजित हुए, इन सब में भट्टारकों का बोल बाला रहा। हजारों मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित होकर देश के विभिन्न मन्दिरों में विराजमान की गई। उत्तर भारत के. अधिकांश जैन मन्दिरों में आज इन संवतों में प्रतिष्ठापित मृत्तियाँ प्राप्त होती हैं। आज सारा बागड़प्रदेश 'मालवा' कोटा दी एवं झालावाड़ का प्रदेश, चम्पावती, टोड़ाराम सिंह एवं रणथम्भौर का क्षेत्र जितना जैन पुरातत्व से समृद्ध है उतना देश का अन्य क्षेत्र नहीं । संवत् 1548 में भट्टारक जिनचन्द्र ने मुंडासा नगर में हजारों मुर्तियों की प्रतिष्ठा करवा कर सारे देश में जैन संस्कृति के प्रचार-प्रसार में विशेष योग दिया। देश के
गाँव-गाँव में मन्दिरों का निर्माण हुआ जिसमें संस्कृति ही पुनर्जीवित नहीं हुई अपितु मूर्तिकला, स्थापत्यकला आदि कलाओं को भी प्रोत्साहन प्राप्त हुआ । 1664 में मोजमाबाद ( राजस्थान) में तीन शिखरोंवाले मन्दिर के जीर्णोद्वार के पश्चात् जो विशाल प्रतिष्ठा हुई थी उसे तो बादशाह अकबर एवं आमेर के महाराज मानसिंह का भी आशीर्वाद प्राप्त था । करोड़ों रुपया पानी की तरह बहाया गया : इसी तरह 1826 में सवाई माधोपुर के भट्टारक सुरेन्द्र कीर्ति के तत्वाधान व प्रेरणा से जो अभूतपूर्व प्रतिष्ठा महोत्सव आयोजित हुआ संभवतः वह अपने ढंग का पहला महोत्सव था । राजस्थान में आज कोई ऐसा मन्दिर नहीं है जिसमें 1826 में प्रतिष्ठापित मूर्ति न हो । जयपुर, सागवाड़ा, चांदखेड़ी, झालरापाटन में जो विशाल एवं कलापूर्ण मूत्तियाँ हैं उन सबकी प्रतिष्ठा में इन भट्टारकों का प्रमुख हाथ
था ।
जब इन भट्टारकों की कीर्ति अपनी चरम सीमा पर पहुंचने लगी तो इनकी निशेधिकाएँ व कीर्तिस्तम्भ बनने लगे । आवां (राजस्थान) में पहाड़ पर भट्टारक प्रभाचन्द्र, जिनचन्द्र और शुभचन्द्र की इसी तरह की तीन निषेधिकाएं हैं जो भट्टारकों में तत्कालीन जनता की श्रद्धा एवं भावना को व्यक्त करनेवाली हैं । इसी तरह चित्तौड़ किले में प्रतिष्ठापित कीर्तिस्तम्भ चाकसू में बनवाया गया जिसमें भट्टारकों की मूर्तियों के अतिरिक्त उनके होने का भी समय दिया हुआ है । इसी तरह का कीर्तिस्तम्भ आमेर के बाहर की बस्ती में स्थापित किया हुआ है । ये सब कीर्तिस्तम्भ भट्टारकों के उत्कर्ष के तो प्रमाण हैं ही किन्तु उनके द्वारा सम्पा दित सांस्कृतिक सेवाओं को भी घोषित करनेवाले हैं।
जयपुर के काला छावड़ा के मन्दिर में पार्श्वनाथ की एक धातु की मूर्ति है जिसकी प्रतिष्ठा संवत् 1413 में वैशाख सुदी 6 के दिन हुई थी। इसमें भट्टारक प्रभाचन्द्र का उल्लेख हुआ है। इसी तरह ओवा तथा
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बयाना में संवत 1400 तथा 1404 की मूत्तियाँ हैं इन्होंने संवत 1502 में बैशाख सुदी 3 के दिन पावजिसमें भट्टारक प्रभाचन्द्र एवं उनके शिष्य पद्मनन्दि नाथ प्रतिमा की स्थापना करवायी थी । इसके अगले दोनों का उल्लेख किया गया है। भट्टारक पद्मनन्दि वर्ष संवत् 1503 में प्रतिष्ठापित चौबीसी की एक (संवत् 1385 से 1450) को गुजरात में प्रतिष्ठा प्रतिमा जयपुर के एक मन्दिर में विराजमान की। महोत्सव के संचालन के लिए ही भट्टारक पद पर संवत 1504 में नगर (राजस्थान) में आयोजित स्थापित किया गया। कविवर वख्तराम शाह ने अपने प्रतिष्ठा महोत्सव में भाग लिया था । इन्हीं भट्टारक बुद्धि विलास में निम्न प्रकार व्यक्त किया है
जिनचन्द्र के शिष्य भट्टारक प्रभाचन्द्र द्वितीय ने
कितने ही मन्दिरों के निर्माण एवं प्रतिष्ठा महोत्सवों को सवत् तेरह सौ पिचिहतस्यौ जानि वै
अपना आशीर्वाद दिया था। मंडलाचार्य धर्मचन्द जो भये भट्टारक प्रभाचन्द्र गुनखानि वै ।
भट्टारक प्रभाचन्द्र के प्रमुख शिष्य थे, ने, आवां तिनको आचारिज इक हो गुजरात में,
(राजस्थान) में संवत 1583 में जिस विशाल प्रतिष्ठा तहाँ सवै पंचनि मिलि ठानी बात में ।।
समारोह का नेतृत्व किया था वह इतिहास में अपना की इक प्रतिष्ठा तो सुभ काज हवं
विशेष स्थान रखती है । धर्मचन्द्र ने भट्टारक जिनचन्द्र करन लगे विधिवत सब ताकी साज वै
का निम्न शब्दों में स्मरण किया हैभट्टारक बुलवाये तो पहुंचे नहीं, तवं सबै पंचनि मिलि यह ठानी सही ।
तत्पहस्थ-श्रुताधारी प्रभाचन्द्र त्रिया निधिः। सूरि मंच वाहि आचारिज को दियो।
दीक्षितो पो लसत्कीतिः प्रचण्ड पण्डिता गणी ॥ पद्मनन्दि भट्टारक नाम सु यह कियौ ॥
सोमकीति अपने समय के लोकप्रिय भट्टारक थे। भट्टारक पद्मनन्दि द्वारा प्रतिष्ठित सैंकड़ों मूत्तियाँ संवत 1527, 1532, 1536, एवं 1540 में इनके राजस्थान में मिलती हैं । सांगानेर के संघीजी के द्वारा प्रतिष्ठित कितनी ही मूर्तियां राजस्थान के विभिन्न मन्दिर में इन्हीं के द्वारा प्रतिष्ठापित शान्तिनाथ मन्दिरों में उपलब्ध होती हैं । अपने समय के मुसलस्वामी की मूत्ति है जिसकी प्रतिष्ठा संवत् 1464 में मान शासकों से इनका अच्छा सम्बन्ध था। 16वीं हई थी। इसी संवत की प्रतिष्ठित मूर्ति पार्श्वनाथ शताब्दी में भट्टारक ज्ञानभूषण भट्टारक सकलकीति दिगम्बर जैन मन्दिर में टोंक में विराजमान है । भट्टा- परम्परा में अत्याधिक प्रभावशाली भट्टारक हुए रक सकल कीति ने अपने जीवन में 14 बिम्ब प्रति- जिन्होंने प्राचीन मन्दिरों का जीर्णोद्धार, नवीन मन्दिर ष्ठाओं का संचालन किया था । इनके द्वारा संवत् निर्माण, पंच कल्याणक प्रतिष्ठाएँ सांस्कृतिक समारोह, 1490, 1492 एवं 1497 में प्रतिष्ठापित मूत्तियाँ उत्सव एवं मेलों आदि के आयोजनों को प्रोत्साहित उदयपुर, डूगरपुर एवं सागवाड़ा के जैन मन्दिरों में किया । इनके द्वारा संवत् 1531, 1534, 1535, मिलती हैं। संवत 1548 में जीवराज पापड़ीवाल ने 1540, 1543, 1544, 1545, 1552, 1557 व जो विशाल प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न कराया था उस 1560 तथा 1561, में प्रतिष्ठापित सैंकड़ों मूर्तियाँ महोत्सव के प्रधान थे भट्टारक जिनचन्द्र । सर्वप्रथम बागड़ प्रदेश के नगरों में उपलब्ध होती हैं।
1. मूर्ति लेख संग्रह भाग 1 पृष्ठ 68 एवं भाग 2 पृष्ठ सं. 305 (महाबीर भवन जयपुर द्वारा संग्रहित)। 2. वीर शासन के प्रभावक आचार्य--पृष्ठ सं. 135
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भट्टारक ज्ञानभूषण के समान भ. विजयकीर्ति का थे । भट्टारक रत्नकोति, कुमुदचन्द्र, सोमकोति, जय भी अपने समय में बहुत ही प्रभाव था । इनके काल सागर, भट्टारक महीचन्द्र आदि पचासों भट्टारकों ने में कितने ही मन्दिरों का निर्माण हुआ तथा संवत् साहित्य निर्माण में अत्यधिक रुचि ली थी । जव 1557,60, 61, 64 68, 70 में जो प्रतिष्ठा साहित्य का निर्माण, शास्त्र भण्डारों की स्थापना, महोत्सव हुए, उनके सम्पादन में इनका विशेष योग नवीन पाण्डुलिपियों का लेखन एवं उनका संग्रह आदि रहा । भट्टारक विजयकीति राजस्थान एवं गुजरात सभी इनके अद्वितीय कार्य थे। आज भी जितना अधिक के कितने ही शासकों द्वारा सम्मानित थे। एक गीत में संग्रह भट्टारकों के केन्द्रों पर मिलता है उतना अन्यत्र भ. विजय कीति की निम्न प्रकार प्रशंसा की गई :-- नहीं। अजमेर, नागौर एवं आमेर जैसे नगरों में स्थित
शास्त्र भण्डार इस तथ्य के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । ये अनेक राजा चरण सेखि मालवी मेवाड
भट्टारक ज्ञान की ज्वलंत मृत्ति थे। प्राकृत एवं अपगूजर सोरठ सिन्धु सहिजी अनेक भड भूपाल ।
भ्रश के स्थान पर इन्होंने संस्कृत और हिन्दी में अन्य दक्षण मरहठ चीण कुकण पूरवि नाम प्रसिद्ध ।
रचना को अधिक प्रोत्साहन दिया और स्वयं भी इन्हीं छत्रीस लक्षण कला बहुतरि अनेक विद्यावारिधि ।
भाषाओं में साहित्य निर्माण करते रहे । वे साहित्य की
किसी एक विधा से भी नहीं चिपके रहे किन्तु साहित्य के भ. विजयकीर्ति के पश्चात् और भी अनेक
सभी अंगों को पल्लवित किया। उन्होंने चरित काव्यों के भट्टारक हुए जिनमें भ. शुभ चन्द्र, भ. रत्नकीति, म. कुमुदचन्द्र, भ. चन्द्रकीर्ति, भ. देवेन्द्रकीर्ति (प्रथम)
साथ साथ पुराण, काव्य, वेलि, रास, पंचासिका, शतक, भ. देवेन्द्रकीर्ति (द्वितीय) आदि कितने ही भट्टारक हुए
पच्चीसी वाबनी, विवाह लो, आख्यान, पद व गीतों
की रचना में गहरी रुचि ली और संस्कृत व हिन्दी में जिन्होंने देश व समाज के सांस्कृतिक विकास में जबरदस्त
सैकड़ों रचनाओं का निर्माण करके एक नया कीर्तिमान योग दिया । संवत् 1664 में तीन विशाल शिखरों से युक्त आदिनाथ के मन्दिर के निर्माण और उसकी भव्य
स्थापित किया । प्रतिष्ठा समारोह में म. देवेन्द्रकीति (द्वितीय) का
नाय) का भट्टारक सकल कीति (15वीं शताब्दी) ने अपने प्रमुख योगदान था । इस समारोह में भव्य और जीवन के अन्तिम 22 वर्षों में 26 से भी अधिक विशाल आकार की मूत्तियाँ प्रतिष्ठित की गयीं जो संस्कत एवं 8 राजस्थानी रचनाएँ लिखीं। वे मंगीत, आज भी देश के विभिन्न मन्दिरों में विराजमान हैं।' तथा छन्द शास्त्र में निपुण थे तथा अपनी कृतियों को वास्तव में इन 500 वर्षों में (संवत् 1350 से 1850 जन-जन में प्रचार की दृष्टि से सरल एवं आकर्षक तक) इन भट्टारकों का जैन संस्कृति के विकास में शैली में लिखते थे। सकल कीर्ति की प्रमख रचनाओं योगदान रहा।
के नाम इस प्रकार हैंसाहित्यक क्षेत्र के विकास में भटटारकों का योग- संस्कृत कृतियाँ : दान सर्वाधिक उल्लेखनीय है । भट्टारक सकल कीर्ति आदि पुराण, उत्तर पुराण, नेमिजिन चरित्र, एवं उनकी परम्परा के अधिकांश विद्वान , साहित्य सेवी शान्ति नाथ चरित्र, पार्श्वनाथ चरित्र, वर्द्धमान चरित्र,
3. मूर्ति लेख संग्रह प्रथम भाग--पृष्ठ सं. 176।
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मल्लिनाथ चरित्र. सद्भाषितावलि, जम्बू स्वामी चरित्र, जो छन्द संख्या की दृष्टि से रामायण से भी बड़ी है । श्रीपाल चरित्र, तत्वार्थसार दीपक सुकुमाल चरित्र । बहन जिनदास 15वीं शताब्दी के विद्वान थे तथा
मीरा व सूरदास के पूर्व ही उन्होंने हिन्दी के प्रचारराजस्थानी कृतियाँ:
प्रसार में महत्वपूर्ण योग दिया तथा जन-साधारण की आराधना प्रतिवोधसार, नेमिश्वर गीत, मुक्तावलि भाषा में सबसे अधिक रचनाएँ लिखीं। बहन जिनदास गीत, णमोकारक गीत, सोलहकारण रास, सारसीखा की हिन्दी की प्रमुख रचनाएँ निम्न प्रकार हैंमणिरास तथा शान्तिनाथ फागु ।'
राम सीतारास, यशोधर रास, नागकुमाररास, आचार्य सोमकीर्ति (संवत् 1516-40) ने भी परमहंसरास, आदि पुराणरास, हरिवंश पुराण, श्रीविक संस्कृत व हिन्दी को अपनी रचनाओं का माध्यम रास, जम्बू स्वामीरास, भद्रबाहु, चाऊदन्त सबन्घरास, बनाया। इनकी सातव्यसन कथा, प्रद्य म्न चरित्र एवं धन्य कुमाररास, भविष्य दन्तरास, जीवन्धर रास. यशोधर चरित्र संस्कृत में निबद्ध रचनाएँ हैं तथा गुर्वा- करकण्डुरास, पुष्पांजलिरास, सुभौम चक्रवर्तीरास, वलि, यशोधर गस, ऋषभनाथ की धूलि, त्रेपनक्रिया- धनपालरास, सुदर्शनरास । गीत, आदिनाथ एवं मल्लगीत इनकी राजस्थानी कृतियाँ हैं । सभी कृतियाँ भाषा एवं शैली की दृष्टि ज्ञानभूषण भट्टारक भुवनकीर्ति के शिष्य थे । भट्टासे उत्तम रचनाएं हैं । कवि ने इन रचनाओं में जन- रक बनने से पूर्व ही वे साहित्य निर्माण में लग गये थे साधारण की भावनाओं को अच्छी तरह प्रदर्शित किया और भट्टारक पद छोड़ने के पश्चात भी वे इसी है तथा उसकी दृष्टि में वही नगर एवं ग्राम श्रेष्ठ माने
दिशा में लगे रहे। आदीश्वर फाग उनकी सर्वश्रेष्ठ जाने चाहिए जिनमें जीववध नहीं होता । सत्याचरण व परिष्कृत रचना है । इसमें 501 फाग हैं जिनमें किया जाता हो तथा नारी समाज का जहां अत्याधिक 262 हिन्दी के तथा शेष 239 पद्य संस्कृत में निवद्ध सम्मान हो । यही नहीं यहाँ के लोग अपने परिग्रह
हैं। आदीश्वर फाग के अतिरिक्त इनकी अन्य रचनाओं संचय की प्रतिदिन सीमा भी निर्धारित करते हों तथा में पोषह रास, जलगालन रास तथा षटकर्म रास के जहाँ रात्रि को भोजन करना भी वजित हो।
नाम उल्लेखनीय हैं।
- भ. सकल कीति के शिष्य एवं लघु भ्राता बहन 17वीं शताब्दी में होनेवाले भट्टारकों में भट्टारक जिनदास संस्कृत एवं हिन्दी के प्रकाशमान नक्षत्र हैं। रत्नकीर्ति एवं भटारक कुमुदचन्द्र का नाम विशेषतः उन्होंने हिन्दी की सबसे अधिक सेवा की और उसमें उल्लेखनीय है । ये गुरू व शिष्य दोनों ही बड़े लोक60 से भी अधिक कृतियाँ निबद्ध करके इस दिशा में एक प्रिय सन्त थे तथा जन-जन में भगवद् भक्ति को उभानया कीर्तिमान स्थापित किया। उनकी रामसीतारास रने के लिये छोटे-छोटे भक्तिपरक पदों की रचना (संवत 1520) राजस्थानी की प्रथम रामायण है किया करते थे। नेमि राजुल को लेकर भी दोनों ही
4. मो पूज्यो नृप मल्लि भैरव महादेवेन्द्र मुख्य नृपै ।
षट्तकीगम शास्त्र कोविद मति जाग्रंत मशश्चन्द्रमा । भव्याम्भोसह भास्करः शुभ करः संसार विच्छेदकः। सोऽव्याछी विजयादि कीति मनियो भदारकाधीक्षवरः ।
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कवियों ने अनेक पदों की रचना की । रत्नकीर्ति के नीच नहीं है। कर्मों के कारण ही उसे ऊँच व नीच की पदों की संख्या 38 है तथा कुमुदचन्द्र के भी इतने संज्ञा दी जाती है तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि नामों ही पद होंगे । रत्नकीति का एक पद देखिये---
से सम्बोधित किया जाता है। आत्मा तो राजा है वह
शूद्र कैसे हो सकती है। सखी री नेमि न जानी पीर । बहोत दिवाजे आये मेरे घरि, संग लेई हलधर वीर। ऊँच नीच नवि अध हुयि, कर्म कलंक तणो कीतु सोई । नेमि सुख निरखि हरषी मनसू', अब तो होई मन धीर। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य न शूद्र, अधा राजा नवि होय शूद्र । तामे पसूय पुकार सुनी करि, गयो गिरिवर के तीर । चन्दवदनी पोकारती डारती, मण्डन हार उर चीर। इनके पश्चात् एक के बाद एक भट्टारक होते रत्नकीरती प्रभु भये वैरागी, राजुल चित्त कियो धीर। गये । अजमेर, नागोर, आमेर, जयपूर, डूंगरपुर,
गालिया कोट, कारंजा, उदयपुर आदि स्थानों में कुमुदचन्द्र के पदों में अध्यात्म, विरह और भक्ति उनकी गादियाँ स्थापित हुई तथा वहीं से वे बिहार तीनों का सामंजस्य है। 'मैं तो नर भव वारि गया यों' करके जन-जन में साहित्य के प्रति रुचि पैदा किया पद यदि अध्यात्मपरक है तो 'सखी री अब तो रहयो करते, अपने शिष्यों को साहित्य निर्माण की ओर प्रोत्सानहिं जात, विरहपरक पद हैं । इन दोनों सन्तों ने हित किया करते रहते । व्र. जिनदास, ब्रह्मराय मल्ल, हिन्दी साहित्य में जो पद साहित्य लिखने की परम्परा बख्तराम शाह, लक्ष्मीराम चांदवाड़ा जैसे विद्वान् इन्हीं डाली वह भविष्य में होनेवाले कवियों के लिये वरदान भट्टारकों के शिष्य थे जिन्होंने साहित्यिक विकास की सिद्ध हुई।
ओर विशेष ध्यान दिया और देश के साहित्यिक
पक्ष को मजबूत किया। इन भट्टारकों ने संस्कृत भाषा 16वीं 17वीं शताब्दी में एक और प्रभावशाली
को अपना कर देश में उसे उच्च स्थान दिया तथा अपने भट्टारक हुए जिनका नाम भ. शुभचन्द्र है। भ. शुभ
काव्यों के माध्यम से उसे जन-सामान्य में लोक-प्रिय चन्द्र शास्त्रों के पूर्ण मर्मज्ञ थे। उन्हें षटभाषा कवि
बनाया गया। एक ओर संस्कृत तथा दूसरी ओर हिन्दी चक्रवर्ती कहा जाता था । इन्होंने जो साहित्य सेवा अपने
राजस्थानी दोनों ही भाषाओं को अपनाकर इन्होंने जीवन में की वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखने
साहित्य क्षेत्र में उदार वातावरण को स्थान दिया। योग्य है। इन्होंने संस्कृत में 40 रचनाएँ तथा हिन्दी
वास्तव में 500 वर्षों तक इन भट्टारकों ने देश में 7 रचनाओं को निबद्ध करके भारतीय साहित्य की
का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से जो विकास अभूतपूर्व सेवा की। इनकी सभी हिन्दी कृतियाँ लघु
किया वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है । हैं किन्तु भाव व शैली की दृष्टि से उत्तम हैं "तत्व
लेकिन अभी तक इनकी सेवाओं का जितना मूल्यांकन
ही सार दहा, इनकी सुन्दर कृति है । इसमें दोहे व होना चाहिए था उतना नहीं हो सका है और उसकी चौपाई हैं । रचना छोटी होने पर भी अत्यधिक महत्व
व महती आवश्यकता है। पूर्ण हैं । एक स्थान पर आत्मा का वर्णन करते हुए कवि ने कहा कि किसी की भी आत्मा उच्च अथवा
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जैन साहित्य के आद्य पुरस्कर्ता
डा० ज्योतिप्रसाद जैन
जैन अनुश्रुति के अनुसार लेखन कला का आवि - sarर कर्मभूमि, या सभ्य युग, के उदयकाल में आदि पुरुष भगवान ऋषभदेव ने किया था। उनकी प्रथम शिष्या, जिसके निमित्त से उन्होंने इस क्रान्तिकारी कला का आविष्कार किया था, स्वयं उनकी सुपुत्री ब्राह्मी थी। यही कारण है कि भारत की प्राचीन लिपि ब्राह्मी लिपि के नाम से प्रसिद्ध हुई । सिन्धु घाटी की प्रार्गेतिहासिक सभ्यता के अवशेषों में प्राप्त लेखांकित मुद्राएँ इस बात का असंदिग्ध प्रमाण हैं कि अब से छ:सात सहस्र वर्ष पूर्व भी भारतवासी लेखनकला से भलीभाँति परिचित थे और लोक व्यवहार में उसका पर्याप्त उपयोग करते थे । इसके पश्चात् एक ऐसा दीर्घकालीन अन्तराल पड़ा प्रतीत होता है जिसमें लेखनकला बहुत कुछ उपेक्षित रही तथाकथित वैदिक युग में लेखन का प्रचार बहुत विरल रहा प्रतीत होता है । तथापि ऋग्वेद विश्व पुस्तकालय का अधुनाज्ञात सर्वप्राचीन ग्रन्थ माना जाता है, और इसका रचनाकाल दो सहस्र वर्षं से लेकर एक सहस्र ईस्वी पूर्व के मध्य अनुमान किया जाता है। वेदों की 'ब्राह्मण' और 'आरण्यक' नामक प्रारंभिक व्याख्याओं में से कुछ एक, कई एक उपनिषद् मूल धर्मशास्त्र और संभवतया कुछ एक दार्शनिक सूत्र भी, 6ठी - 5वीं शती ईस्वी पूर्व तक
र और लिखे जा चुके विश्वास किये जाते हैं । इन्द्र और पाणिनि के व्याकरण, सुश्रुत की संहिता (वैद्यक शास्त्र ), और कौटिल्य का मूल अर्थशास्त्र भी 5वीं और 3री शती ईस्वी पूर्व के मध्य लिखे जा चुके थे, ऐसा कहा जाता है ।
किन्तु, सिन्धुघाटी की उक्त मुद्राओं के अतिरिक्त प्रायः और कोई भारतीय शिलालेख या अभिलेख ऐसा अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है जिसका समय निश्चित रूप से छठी शती ई. पूर्व से पहिले का स्थिर किया जा सके । ब्राम्हणों, बौद्धों या जैनों के किसी भी ग्रन्थ की प्रायः एक भी ऐसी प्रति अभी तक प्राप्त नहीं हुई है जिसे असंदिग्ध रूप से दो पुराना भी कहा हजार वर्ष जा सके। ऊपर जिन ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है वे अवश्य ही मौर्य युग के अन्त ( लगभग 200 ई. पू.) के पूर्व की सहस्राब्दि में रचे जा चुके थे । किन्तु रचे जाने के साथ-ही-साथ वे लिपिबद्ध भी किये जा चुके थे, यह केवल अनुमान ही है, निश्चय के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता ।
अस्तु, यद्यपि इस बात में प्रायः सन्देह नहीं है कि संसार की प्राचीन सभ्य जातियों में भारतीय जाति ही लेखन कला का आविष्कार एवं प्रयोग करनेवाली
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कदाचित् सर्वप्रथम जाति थी, तथापि यह भी स्पष्ट है कि महावीर और बुद्ध के समय तक लिखने का प्रचार अत्यन्त विग्न रहा था। कम-से-कम जहाँ तक धर्म शास्त्रों या धार्मिक साहित्य का सम्बन्ध है, भारत के प्राचीन ऋषि मुनि और आचार्य अपनी स्मृति पर ही अधिक निर्भर रहते थे और लिखने के झंझट में पड़ना पसन्द नहीं करते थे । श्रुति, स्मृति, आगम आदि शब्द बहुत पीछे आकर धर्मिक साहित्य के अङ्गक विशेषों के लिये रूड़ हुए, प्रारम्भ में यह सब प्रायः पर्यायवाची थे जो परम्परा से स्मृति में सुरक्षित रहता आया है, मौखिक द्वार से उपदेशा जाता रहा है और कानों से जिसे सुनते चले आये हैं वही स्मृति, आगम या श्रुति रूप धर्मशास्त्र था महावीर और बुद्ध के पश्चात् भी शताब्दियों पर्यन्त भारतवर्ष में पर्मोपदेश, मौलिक शिक्षण-प्रशिक्षण तथा व्यक्तिगत एवं राजनैतिक लोकव्यवहार भी मौखिक शाब्दिक ही रहता रहा। लिखने या लिखित वस्तुओं का सहारा बहुत कम लिया जाता था। यदि ऐसा न होता तो पाद, महावीर, वुद्ध आदि के उपदेश तुरन्त ही अथवा थोड़े समय उपरान्त ही लिपिबद्ध कर लिये जाते यह कार्य उक्त धर्मोपदेष्टाओं के चार-पाँच सौ वर्ष पश्चात् ही आरम्भ हुआ। तीसरीदूसरी शती ई. पूर्व से भारतवर्ष में लिखने का प्रचार, अनेक कारणों से, पर्याप्त द्रुत वेग से बढ़ा । उसी के फलस्वरूप भारत के पुस्तक साहित्य का वास्तविक प्रणयन प्रारम्भ हुआ जैनों ओर बौद्धों के पुस्तक साहित्य निर्माण का इतिहास दूसरी पहली शती इस्वी पूर्व से आगे नहीं जाता और ब्राम्हण परम्परा के विषय में भी वह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि वे इस सम्बन्ध में जैनों और बौद्धों से कुछ बहुत आगे रहे हैं । अन्तर इतना ही है कि जैनी लोग अपने साहित्यिक इतिहास के विषय में बहुत सावधान, ईमान दार और यथार्थवक्ता रहे हैं, बौद्धों का साहित्यिक । इतिहास भी सिंहली, चीनी, तिब्बती, वर्मी आदि भारतेतर साधनों के आधार पर बहुत कुछ ठीक ठीक निर्माण हो चुका है । किन्तु वैदिक परम्परा के अनु-
।
याथियों का सात्विक इतिहास अभी तक पर्याप्त अस्पष्ट एव विवादग्रस्त बना हुआ है वह अधिकांशतः अनुमानों, कल्पनाओं, धारणाओं और मनमानी मान्यताओं पर आधारित है। आचार्य शंकर और महाकवि कालिदास जैसे पर्याप्त परवर्ती व्यक्तियों की तिथियों के सम्बन्ध में भी अभी तक एकमत नहीं हो पाया है। विभिन्न विद्वानों के बीच इन विषयों में दो-चार वर्षो या दो-चार दशकों के नहीं वरन् शताब्दियों का, और कभी-कभी सहस्राब्दियों का मतभेद पाया जाता है। इसके अतिरिक्त, उत्तरोत्तर सम्मिलित किये जाते रहे क्षेत्रकों, संवर्धनों, परिवर्धनों आदि के कारण ईस्वी सन् की प्रथम सहस्राब्दि में रने गये ग्रन्थों के भी वर्तमान में उपलब्ध संस्करण बहुत ही कम ऐसे हैं जो निश्चयपूर्वक मूल रचनाओं की यथावत् प्रतिलिपि कहे जा सकें ।
अतएव, जहाँ हम तीर्थंकर पार्श्व और महावीर के सम्बन्ध में, महावीर की शिष्य प्रम्परा में होनेवाले गुरुओं के सम्बन्ध में जैन साहित्य प्रणयन के प्रा रंभिक इतिहास के सम्बन्ध में प्राचीन जैनाचार्यो एवं ग्रन्थकारों और उनका कृतियों के सम्बन्ध में प्राय: निश्चयपूर्वक यह कह सकते हैं कि अमुक व्यक्ति, रचना या घटना की तिथि यह है उसका पूर्वापर यह है, इत्यादि, और इसी प्रकार जहाँ हम यह भी प्रायः निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि पालि त्रिपिटक सर्वप्रथम ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी के मध्य के लगभग सिंहल देश में संकलित एवं लिपिबद्ध हुए और भारत बौद्धों के पुस्तक साहित्य का इतिहास कुषाण काल (2री शती ई.) में महाकवि अश्वघोष और दार्शनिक नागार्जुन के साथ प्रारम्भ हुआ, ब्राह्मण परम्परा के ग्रन्थकारों और धार्मिक अथवा लौकिक ग्रन्थों के सम्बन्ध में वैसी कोई बात निश्चयपूर्वक कहना नितान्त कठिन है। तथापि, जिन विशेषज्ञ विद्वानों ने इस सम्बन्ध में वैज्ञानिक पद्धति से विधिवत् अनुसंधान किया है, उनका यह प्रायः निश्चित मत है कि वर्तमान हिन्दू परम्परा के
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पुस्तक साहित्य के इतिहास का वास्तविक प्रारम्भ शुग थे। इनका सनिश्चित समय 877-777 ई. पूर्व है। काल में ब्राह्मण पुनरुत्थान से ही किया जाना चाहिये। इनके द्वारा उपदेशित द्वादशांग श्रत का प्रचार वास्तव में इस परम्परा के वर्तमान में उपलब्ध महावीर और बुद्ध के समय तक बराबर बना हुआ था। पुस्तक साहित्य का अधिकांश, जिसमें वैदिक संहिताएँ अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर 'निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र' (अपने अन्तिम रूप में), निरुक्त, अधिकांश उपनिषदें, (599-527) व्रात्य क्षत्रियों की बज्जि जाति के वैशाली श्र तियाँ, स्मति या धर्मशास्त्र, दार्शनिक सूत्र, गणतन्त्र (गणराज्य संघ) के अर्गत कुण्डग्राम के वाल्मीकि की रामायण, सौति का महाभारत (जो लिच्छवियों के ज्ञातक वंशी राजपुत्र थे। तीस वर्ष मूलतः दश-सहस्री थी, अब जैसी शत-सहस्री नहीं), की अवस्था में इस बालब्रम्हचारी ने गृह का परित्याग तथा विष्णु पुराण आदि प्राचीनतम पुराणग्रन्थ, करके बारह वर्ष पर्यन्त कठिन आत्मसाधना की । फलशुग काल और गुप्त काल के मध्य, अर्थात 3-2री शती स्वरूप कैवल्य की प्राप्ति करके अर्हत तीर्थकर के ई. पू. से लेकर 4-5वीं शती ईस्वी के बीच ही रचे गये रूप में तीस वर्ष (557-527 ई पू.) पर्यन्त देश-विदेश हैं । लौकिक काव्य नाटकादि, क्लेसिकल संस्कृत साहित्य में विहार करते हए 'सर्व सत्वानं हित सुखाय' तीर्थंकरों तथा ज्योतिष, गणित, वैद्यक आदि वैज्ञानिक साहित्य के द्ववाद शांग में निहित सिद्धान्तों का निरन्तर प्रचार अधिकतर गुप्त काल एवं गुप्तोत्तर काल की देन हैं। किया। उनके प्रधान गणधर इन्द्र भूति गौतम ने पूर्ववर्ती इस ब्राम्हण पुनरुत्थान एवं पुस्तक साहित्य प्रवर्तन तीर्थंकरों के गणधरों की भांति ही, अपने गुरु तीर्थके प्रमुख आद्य पुरस्कर्ता महर्षि पतञ्जलि, कामन्दक, कर महावीर के उपदेशों का सार द्वादशाङग श्रत वाल्मीकि, सौति, यास्क, वात्स्यायन, कात्यायन, ईश्वर के रूप में संकलित किया अर्थात् उसे बारह अङ्गों और कृष्ण, आदि विद्वान थे।
चौदह प्रकीर्णकों में विभाजित किया। प्रत्येक अंग
__ में भी कई उपविभाग हैं, विशेषकर बारहवें दृष्टिप्रवाह अस्तु, क्या आश्चर्य है कि उस समय के पूर्व
अंग के पाँच विभाग हैं:-जिनमें एक का नाम 'पूर्व' का भी प्रायः कोई उल्लेखनीय पुस्तक साहित्य विद्यमान
है । पूर्वो की संख्या 14 है। इस प्रकार द्वादशाङ्ग नहीं था। उनका धर्मशास्त्र या आगम जो द्ववादशाङग श्रुत कहलाता है, सर्वप्रथम अत्यन्त प्राचीन समय में
श्रत को बहुधा ग्यारह अङ्क-चौदह पूर्व' भी कहते हैं ।
बारहवें अंग का ही एक अन्य भेद 'प्रथमानुयोग' है सभ्य युग के उदय काल में ही-प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित किया गया था। उनके पश्चात
जिस पर समस्त जैन पुराण साहित्य आधारित है । ये एक के बाद एक अठारह तीर्थकरों ने उसी सत्य का
अंङग पूर्व विधिवत् 'वस्तुओं, अधिकारों' और 'प्राभृतों' प्रतिपादन किया। तदनन्तर, रामायण में वणित घटनाओं
में विभाजित हैं। यही भाषाबद्ध मूल जिनागम या और राम-रावणादि के समय में 20वें तीर्थकर
जैन धार्मिक साहित्य है। सर्वज्ञ वीतराग हितोपदेशी
जा मुनि सुवृतनाथ ने उसी उपदेश की प्रायः पूनरावत्ति की। गुणों से विशिष्ट तीर्थंकरों द्वारा उपदेशित और परम इतिहासकार इन घटनाओं का समय लगभग 2000 ज्ञानी-ध्यानी तपस्वी गणधरों द्वारा गुथित एवं संकलित ई. पू. अनुमान करते हैं। 21वें तीर्थकर नमिनाथ जिनागम या द्ववादशाङग श्र त में सम्पूर्ण मानवी आध्याथे और 22वें तीर्थकर अरिष्टनेमि थे जो नारायण त्मिक ज्ञान का सार समन्बित है । गौतमादि गणधरों कृष्ण के ताउजात भाई थे और महाभारत काल (अनु- के पश्चात् वह आगम ज्ञान या जैन थ त साहित्य गुरुमानतः 15वीं शती ई. पूर्व) में विद्यमान थे। 23 वें शिष्य परम्परा में मौखिक द्वार से प्रवाहित हुआ और तीर्थकर पार्श्वनाथ वाराणसी के उरगवंशी राजकुमार लगभग सात शताब्दियों तक मोखिक प्रवाह की इस
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परम्परा को पूर्ण सक्षम ज्ञानी-ध्यानी तपस्वी विग्रन्था- थे। दूसरी शाखा जो कालान्तर में श्वेताम्बर नाम से चार्यों ने सुरक्षित बनाये रखा।
प्रसिद्ध हुई वह अपनी परम्परा में सुरक्षित अवशिष्ट
श्रुतागम को ही मान्य करती थी। उसने भी उसकी मौखिक द्वार से गुरु-शिष्य परम्परा में श्र तज्ञान
वाँचना एवं संकलन करने का प्रयास किया । अतएव का प्रवाह तो चलता रहा, किन्तु अनेक कारणों से,
उसमें एक-एक करके आगमों की तीन बाँचनाएँ हुईंचौथी शती ईसा पूर्व के मध्य के उपरान्त उसके विस्तार
दो मथुरा में और एक वल्लभी में । सौराष्ट्र के वल्लभी में द्र तवेग से ह्रास होने लगा, मतभेद और पाठभेद
नगर में आचार्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में, भी उत्पन्न होने लगे। अतएव दूसरी शती ईसापर्व के
पाँचवी शती ईस्वी के मध्य के लगभग सम्पन्न तीसरी मध्य के लगभग कलिंग चक्रवर्ती महामेघवाहन खारवेल
वाचना में ही इस परम्परा में सुरक्षित आगमों का की प्रेरणा से मथुरा के जैन संघ के आचार्यों ने श्रत
संकलन एवं लिपिबद्धीकरण हुआ। यह भी मूल द्वादसंरक्षण की भावना से सरस्वती अन्दोलन चलाया,
शांग श्रुत का अत्यन्त अल्पांश ही था। तथापि, आगमों जिसका प्रधान उद्देश्य आगम साहित्य को पुस्तकारूढ़
के इस प्रकार पुस्तकारूढ़ होने से उन पर रचे जानेवाले करना तथा धार्मिक पुस्तक प्रणयन था । ज्ञान की
नियुक्ति, चूणि, भाष्य, टीका आदि अत्यन्त विपुल व्याख्या अधिष्ठात्री पुस्तकधारिणी सरस्वती देवी को उक्त
साहित्य के लिए द्वार उन्युक्त हो गया। विविध विषयक, आन्दोलन का प्रतीक बनाया गया। फलस्वरूप ईस्वी
विभिन्न भाषाओं और शैलियों में अनगिनत स्वतन्त्र सन के प्रारम्भ के आसपास दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द,
रचनाएँ भी रची जाने लगी, और उभय सम्प्रदाय के लोहार्य, शिवार्य आदि ने परम्परागत श्रुत के आधार
मनीषी आचार्य जैन भारती के भडार को उत्तरोत्तर से पाहुड़ आदि ग्रन्थ रचे, और गुणधराचार्य एवं धरसेना
समृद्ध से समृद्धतर करते गये। चार्य ने तथा उनके सुयोग्य शिष्यों आचार्य आर्यमंक्षु, नागहस्ति, पुष्पदन्त, भूतबलि आदि ने अवशिष्ट आगमों के
अस्तु, जैन धार्मिक साहित्य के आद्य प्रस्तोता तो महत्वपुर्ण अंशों का उपसंहार करके उन्हें पुस्तकारूढ़ ऋषभादि-महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकर भगवान हैं... किया। उमास्वाति, विमलसूरि, समन्तभद्र, यतिवृषभ उनके बाद गौतमादि गणधर भगवान और भद्रबाहु
आदि अन्य कई आचार्यपुंगवों ने भी धार्मिक साहित्य के प्रभृति श्रुतकेवलि हैं, और अन्त में कुन्दकुन्दादि-देवद्धि विविध अंगों का आगमाधार से प्रणयन किया।
पर्यन्त श्रुतधर आचार्य पुंगव हैं।
इस काल में जैन संघ दो भागों में विभक्त हो चुका था। दिगम्बर आम्यना के मुनि स्वयं को मूलसंधी कहते
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प्राचीन जैन राम-साहित्य में सीता
डा० लक्ष्मीनारायण दुबे
प्राकृत में चार ग्रन्थ लिखे गये जिनमें सीता का चरित्र-चित्रण सम्यकरूपेण मिलता है--विमल सूरि का पउमचरियं. शीलाचार्य की रामलक्खण चरियम् भद्रेश्वर की कहावती में रामायणम् और भूवनतुग सूरि का रामलक्खणचरिय । संस्कृत में रविषेण के पद्मचरित आचार्य हेमचन्द्र के जैन रामायण, जिनदास के रामदेव पुराण, पद्मदेव विजयगणि के रामचरित, सोमसेन के रामचरित, आचार्य सोमप्रभकृत लघुत्रियशलाकापुरुष चरित, मेघविजय गणिवर के लघुत्रियष्टिशलाकापुरुष चरित्र आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । अपभ्रंश में स्वयंभू का पउमचरिउ, रइधू का पद्मपुराण आदि प्रसिद्ध हैं । कन्नड़ में नागचन्द्र के रामचन्द्र चरित पुराण, कुमुन्देन्दु के रामायण, देवध के रामविजयचरित, देवचन्द्र के रामकथावतार और चन्द्रसागर के जिन रामायण को विस्मृत नहीं किया जा सकता।
जैन सीता-साहित्य
इसी परम्परा में सीता को लेकर भी कतिपय काव्य लिखे गये थे जो कि विशेष उल्लेखनीय हैंभुवनतुग सूरि का सीया चरिय (प्राकृत), आचार्य हेमचन्द्र का सीता रावण कथानकम् (संस्कृत), ब्रह्म
नेमिदत्त, शांत सूरि और अमरदासकृत सीताचरित्र जैन राम-साहित्य :
(संस्कृत); हरिषेण का सीताकथानम् । हरितमल्ल ने जैन वाङ्गमय में विपुल रामकथा तथा राम काव्य 'मैथिली कल्याण' नामक नाटक संस्कृत में लिखा था । मिलता है । जैन रामकथा सामान्यतया आदिकवि
जैन-रामकथा की द्वितीय परम्परा के जनक गुणवाल्मीकि से प्रभावित है । जैन राम-साहित्य प्राकृत,
भद्र थे जिनका 'उत्तर पुराण' और कृष्णदास कवि कृत संस्कृत, अपभ्रश तथा कन्नड़ में मिलता है यह इसका
'पुण्य चन्द्रोदय पुराण' संस्कृत में लिखा गया । प्राकृत पुरातन रूप है।
में पुष्पदन्त का तिसट्ठी-महापुरिस गुणालंकार और विमल सरि की परम्परा में निम्नलिखित साहित्य कन्नड़ में चामुण्डराय का त्रिषष्टि शलाकापुरुष पुराण मिलता है :
लिखा गया।
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जैन- रामकथा में विमल सूरि की परम्परा को अधिक प्रश्रय मिला है। यह श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में प्रचलित है, परन्तु गुणभद्र की परि पाटी सिर्फ दिगम्बर सम्प्रदाय में ही मिलती है ।
काव्य के अतिरिक्त सीता को लेकर नाटक - साहित्य तथा कथा साहित्य में भी लिखा गया।
जैन कवि हस्तिमल्ल ने सन् 1290 के आसपास संस्कृत में 'मैथिली कल्याण' लिखा जिसका विवेच्य विषय श्रृंगार है । इसके प्रथम चार अंकों में राम और सीता के पूर्वानुराग का चित्रण मिलता है । वे मिलन के पूर्व कामदेव मंदिर तथा माधवी वन में मिलते हैं। तृतीय तथा चतुर्थ अंक में अभिसारिका सीता का वर्णन मिलता है । पंचम तथा अंतिम अंक में राम-सीता के विवाह का वर्णन है।
संपदास के 'वसुदेवहिण्डि' में जैन महाराष्ट्रीय गद्य जो रामकथा मिलती है उसमें सर्वप्रथम सीता का जन्मस्थल लंका माना गया है । वह मंदोदरी तथा रावण की पुत्री है परन्तु परित्यक्त होकर राजर्षि जनक की दत्तक पुत्री बन जाती है। सीता स्वयंवर में सीता अनेक राजाओं में से राम का चयन एवं वरण करती है। संचदास ने गुणभद्र को भी प्रभावित किया था क्योंकि 'उत्तर पुराण' में रावण की वंशावली एवं सीता की जन्म-गाथा पर्याप्त रूप में 'वसुदेवहिण्डि' से सादृश्य रखती है ।
कालक्रमानुसार प्राचीन जैन राम साहित्य के प्रमुख स्तम्भ निम्नलिखित महाकवि थे
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रविषेण - 'पद्मचरित' ( 660 ई.) प्राचीनतम जैन संस्कृत ग्रन्थ ( संस्कृत )
(ग) स्वयंभू - 'पउमचरिउ' या 'रामायण पुराण' ( अष्टम शताब्दी ई.) (अपभ्रंश)
(घ) गुणभद्र - 'उत्तर पुराण' ( नवम शताब्दी ई.) (संस्कृत)
उपरिलिखित ग्रन्थों में सीता के चरित्र के विविध पक्षों का सम्पक उद्घाटन मिलता है।
'उत्तर पुराण' में भी राम परीक्षा के बिना सीता को स्वीकार करते हैं । सीता अनेक रानियों के साथ ( क ) विमल सूरि पउमचरियं' (तृतीय- चतुर्थ दीक्षा लेती है। अंत में सीता को स्वर्ग मिलता है।
शताब्दी ई.) ( प्राकृत )
विमल सूरि और गुणभद्र की सोता
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विमल सूरि ने सीताहरण का कारण इस प्रकार विवेचित किया है शम्बूक ने सूर्यहास संग की प्राप्ति के हेतु द्वादश वर्ष की साधना की थी। संग के प्रकट होने पर लक्ष्मण उसे उठाकर शम्बूक का मस्तकच्छेदन कर देते हैं | चन्द्रनखा पुत्र वियोग में विलाप करती है । वह राम-लक्ष्मण की पत्नी बनना प्रस्तावित करती है लक्ष्मण खरदूषण की सेना को रोक देते हैं। रावण सीता पर मुग्ध हो जाता है। वह अवलोकनी विद्या से जान लेता है कि लक्ष्मण ने राम को बुलाने हेतु सिंहनाद का संकेत निश्चित किया है। इसलिए वह युक्ति पूर्वक सिंहनाद करके सीना से लक्ष्मण को पृथक् कर सीताहरण करने में सफल हो जाता है ।
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'पउम चरियं के वित्तरवें पर्व में लंका में श्री राम प्रविष्ट होकर सबसे पहले सीता के पास जाते हैं। दोनों का मिलन देखकर देवगण फूल बरसाते हैं और सीता में निष्कलंक तथा पुनीत सात्विक चरित्र का साक्ष्य देते हैं । इस ग्रन्थ में श्रीराम की किसी शंका या सीता की अग्नि परीक्षा का कोई उल्लेख नहीं है ।
स्वयंभू को सोता
स्वयंभू के 'पउमचरिउ' में प्रारम्भ में मूक सीता के दर्शन होते हैं। सागर वृद्धि भट्टारक तथा ज्योतिषी
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सीता के कारण रावण एवं राक्षसों के विनाश की भविष्यवाणी कर देते हैं
तेहिं हणेवउ रक्खु महारगे । जग राहिव तणयहें कारणे । और
आहे कण्णहें कारणेण होइस । विणासु बहु-रक्त हूँ |
वन में सीता के चरित्र का विकास मौन रूप में होता है । सीता युद्धों के विपरीत है
कर चलण देह - सिर- खण्डणहु । निव्त्रिण माए हउं भण्डण ॥ हउं ताएं दिण्णी केहाहुं । कलि-काल-कियन्तहुं जेहाहुँ ||
सीता हरण के समय वह अपने को बड़ी अभागिनी मानती है
को संथवई मई को सुहि कहीं दुक्खु महन्तउ | जहिं जहि नामि हउं तं तं जि पएसु पलित्तउ ॥
रावण के प्रलोभनों तथा उपसर्गों से सीता का हिमालय जैसा अचल और गंगा जल जैसा पवित्र चरित्र रंचमात्र भी विचलित नहीं हो पाया । सीता अग्नि परीक्षा में सफल होती है
कि किजइ अण्णइ दिव्वे, जेण विसुज्झहो महु मणहो । जिह कणय लालि डाहुत्तर, अच्छणि मज्झे आरहण हो ॥
अंत में सीता का विरागी मन स्त्री न बनने की घोषणा कर देता है
एवहि तिह करेमि पुणु रहुवइ । जिह ण होमि पडिवारी तियमइ ||
स्वयंभू ने सीता के चरित्र को अनुपम तथा दिव्य स्वरूप प्रदान किया है ।
जैन - राम - साहित्य में सीता- निर्वासन प्रसंग :
राम कथा के समान सीता- निर्वासन के आख्यान को भी प्रस्तुत करने का सर्वप्रथम श्रेय महर्षि वाल्मीकि को है ।
गुणभद्र के 'उत्तर पुराण' में सीता-त्याग की कोई चर्चा नहीं मिलती । इसकी श्रृंखला में महाभारत, हरिवंश पुराण, वायु पुराण, विष्णु पुराण, नृसिंह पुराण और अनायक जातकं भी आते हैं जिनमें सीतानिर्वासन आख्यान का अभाव है । परन्तु सीता-त्याग को अधिकांश जैन राम - साहित्य स्वीकार करता है ।
सीता - निर्वासन के मुख्य चार कारण थे
(क) लोकात्पवाद - जैन - राम साहित्य में इसका प्रतिपादन विमल सूरि के 'पउम चरियं' तथा रविषेण के 'पद्म चरित' में मिलता है । स्वयंभू ने अपने महाकाव्य 'पउम चरिउ' में इसकी पृष्ठभूमि का विश्लेषण करते हुए लिखा है : अयोध्या की कतिपय पुश्चली नारियों ने अपने पतियों के समक्ष यह तर्क किया कि यदि इतने दिनों तक रावण के यहाँ रहकर आनेवाली सीता राम को ग्राह्य हो सकती है तो एक-दो रात अन्यत्र बिता कर उनके घर लौटने में पतियों को आपत्ति क्यों हो ? - इस चर्चा को लेकर नगर में सीताविषयक प्रवाद फैलता है
पर-पुरिसु रमेवि दुम्भहिलउ, देंति
पडुत्तर पह-य हो । कि रामण भुजइ जणय-सुय, afry वसेवि धरे रामण हो ।
राम कुल की मर्यादा के
कारण सीता को निष्कासित कर देते हैं । 'पउम चरिउ' अनेक मार्मिक तथा भावप्रवण प्रसंगों से परिपूर्ण है परन्तु सीता-त्याग का
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प्रसंग सर्वाधिक कारुणिक और विदग्ध है। विभीषण दीवउ होइ सहावें कालउ । सीता के पवित्र चरित्र की निर्दोषिता सिद्ध करने के वट्टि-सिहएं मण्डिज्जइ आलउ ।। लिए अपनी सारी शक्ति लगा देते हैं। लंका से त्रिजटा णर णारिहि एवड्डउ अन्नउ । आकर गवाही देती है। अंत में सीता की अग्नि परीक्षा मरणे विवेल्लिण मेल्लिय तरुवरु ।। होती है । दूसरे दिन जब सीता को सबेरे सभा में
अंत में सीता तपश्चरण के लिए प्रस्थित हो जाती लाकर आसन पर बिठाया जाता है, तब सीता वर
है। स्वयंभू ने सीता के चरित्र को सम्वेदनशीलता से आसन पर संस्थित ऐसी शोभायमान होती है जैसे जिन
आपूर्ण कर दिया है। वह पाठकों की दया, सम्वेदना आसन पर शासन-देवता
तथा सहानुभूति की अधिकारिणी बन जाती है । सीय पइट्ट णिवट्ठ वरासणे ।
___ स्वयंभू के पूर्व विमल सूरि, रविषेण तथा आचार्य सासण देवए जंज़िण-सासणे ॥
हेमचन्द्र ने सीता-त्याग के प्रसंग का सम्यक प्रतिपादन
किया है। प्रखर तथा स्पष्टवादिनी सीता का, शंकालु तथा नारी-चरित्र की भर्त्सना करने वाले श्री राम को कितना 'पउम चरियं' के पूर्व 92 94 में सीता-त्याग का आत्माभिमानपूर्ण एवं सतेज उत्तर है कि गंगा जल विस्तृत वर्णन मिलता है। लका से लौट आने के समय गॅदला होता है, फिर भी सब उसमें स्नान करते हैं। भी जनता के अपवाद की चर्चा मिलती है। श्री राम चन्द्रमा सकलंक है, लेकिन उसकी प्रभा निर्मल, मेघ स्वतः गर्भवती सीता को वन में विभिन्न जैन चैत्यालय काला होता है परन्तु उसमें निवास करनेवाली दिखला रहे थे कि अयोध्या के अनेक नागरिक उनके विद्युत्छटा उज्ज्वल । पाषाण अपूज्य होता है, यह सर्व- पास आए और अभयदान पाकर उन्होंने अपने आगमन विदित है परन्तु उससे निर्मित प्रतिमा में चन्दन का का निमित्त निरूपित किया । उनसे श्री राम को सीता लेप लगाते हैं । कमल पंक से उत्पन्न होता है लेकिन का अपवाद विदित होता है और वे अपने सेनापति उसकी माला जिनवर पर चढ़ती है, दीपक स्वभाव से कृतांतवदन को जिन-मंदिर दिखलाने के बहाने सीता काला होता है लेकिन उसकी शिखा भवन को आलो- को गंगा पार के वन में छोड़ आने का आदेश देते हैं। कित करती है। नर तथा नारी में यही अन्तर है जो संयोग से वन में पुण्डरीकपुर के नरेश बज्रजंघ ने सीता वृक्ष और बेलि में । बेलि सूख जाने पर भी वृक्ष को । का करुण क्रन्दन सुन लिया जिस पर वह उन्हें अपने नहीं छोड़ती
भवन में ले आया और उसके यहाँ सीता के दो पुत्र
साणुण केण वि जणेण गणिज्जइ । गंगा गइहिं तं जि ण हाइज्जइ ॥ ससि क्लंक तहिं जि पह णिम्मल । कालउ मेह तहिं जें तणि उज्जल ।। उवलु अपुइजु ण केण वि छिप्पइ । तहि जि पडिप चन्दणेण विलिप्पइ ।। धुज्जइ पाउ पंकु जइ लग्गइ । कमल-भाल पुणु जिणही बलग्गइ ।
'पदमचरित' के छियान्नवे पर्व में सीता के ग्रहण स्वरूप दुष्परिणामों में प्रजा का मर्यादाविहीन स्वरूप
और नारियों का हरण, प्रत्यावर्तन तथा उनकी स्वीकृति बतलाई गयी है।
_ 'योगशास्त्र' (द्वादश शताब्दी) में सीता निर्वासन के तदन्तर एक घटना का वृत्तांत मिलता है । तदनुसार श्री राम अपनी भार्या के अन्वेषण में बन गये हुए थे
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किन्तु सीता कहीं नहीं मिल पायी। राम ने यह विचार परन्तु उन्हें न पाकर यह समझ लिया कि वे किसी करके कि सीता किसी हिंसक पशु द्वारा समाप्त हो हिंसक जानवर का ग्रास बन गई हैं। चुकी है, अतएव, उन्होंने परावर्तित होकर सीता का
हेमचन्द्र के 'जैन रामायण' (द्वादश शताब्दी) में श्राद्ध किया।
भी यही गाथा है। नागरिकों ने भी सीता के लोकाप(ख) धोबी का आख्यान :
वाद की चर्चा की जिसे राम ने ठीक पाया। जैन-राम-साहित्य में इसकी चर्चा नहीं मिलती। देवविजयगणि के 'जैन रामायण' (सन् 159)
में नारियाँ राम से शिकायत करती हैं कि सीता (ग) रावण का चित्र :
रावण के चरणों की पूजा-अर्चना करती हैइस वृत्तांत को प्रस्तुत करने का सर्वप्रथम एवं स्वामिन् एषा सीता रावण मोहिता रावणांही प्राचीनतम श्रेय जैन-राम-साहित्य को है।
भूमौ लिखित्वा पुष्पादिभि: पजयति ।। हरिभद्र सूरि के (अष्टम शताब्दी) उपदेश पद में जैन रावण-चित्र-कथा का भारतीय रामायणों पर प्रभाव : सीता द्वारा रावण के चरणों के चित्र निर्मित करने का जैन राम-साहित्य में आयी, सीता द्वारा रावण के सत्र मिलता है। टीकाकार मुनिच्चन्द्र . सूरि (द्वादश चित्र के निर्माण की घटना का भारतीय रामायणों पर शताब्दी) के कथानानुसार सीता ने अपनी ईर्ष्यालु सपत्नी व्यापक प्रभाव पड़ता दिखलायी देता है। के प्रोत्साहन से रावण के पैरों का चित्र बनाया था। इस पर सपत्नी ने राम को यह चित्र दिखला दिया
बंगाल में कृतिवास ओझा द्वारा लिखित रामकथा दिया और उन्होंने सीता का त्याग कर दिया।
'कृतिवास रामायण' या 'श्रीराम पांचाली' (पन्द्रहवीं
शताब्दी का अंत) में सखियों से प्रेरित होकर सीता भद्रेश्वर की 'कहावली' (एकादश शताब्दी) में रावण का चित्र खींचती है। यह आख्यान आया है कि सीता के गर्भवती हो जाने
सिक्खों के दशमेश गुरु गोविन्दसिंह ने 'रामावतार पर ईर्ष्यालु तथा द्वषमयी सपत्नियों के आग्रह पर सीता ने रावण के पैरों का चित्र निमित किया जिसे
कथा' या गोविन्द 'रामायण' (सन् 1668) में रावणउन्होंने सीता द्वारा रावण के स्मरण के प्रमाण स्वरूप
चित्र के कारण राम के सीता पर संदेह होने का वृत्तांत
मिलता है। राम के समक्ष उपस्थित कर दिया । राम ने इसकी उपेक्षा करदी । सौतों ने रावण चित्र का किस्सा संस्कृत की 'आनन्द रामायण' (पन्द्रहवीं शताब्दी) दासियों के द्वारा जनता में फैला दिया। तत्पश्चात के तृतीय सर्ग में कैकयी के आग्रह पर सीता रावण के राम गुप्त वेष धारण कर नगरोद्यान में गये जहाँ सिर्फ अंगूठे का चित्र बनाती है जिसे कैकयी परा उन्होंने अपनी इस हेतु निंदा सुनी । गुप्तचरों ने भी करती है, और राम को बुलाकर नारी-चरित्र की लोकापवाद की चर्चा की । राम का निर्देश पाकर आलोचना करती है-- कृतांतवदन तीर्थयात्रा के बहाने सीता को वन में छोड़ यत्र-यत्र मनोलग्नं स्मर्यते हदि तत्सदा । आया। उसके बाद राम ने लक्ष्मण एवं अन्य विद्या- स्त्रियाश्च चरित्र को वेत्ति शिवाद्या मोहिता: धरों के साथ विमान में चढ़कर सीतान्वेषण किया स्त्रिया ॥
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काश्मीरी रामायण' अथवा 'रामावतार चरित' मार्गों न गांग गंगलिया गंगाजल पानी, गंगाजल पानी हो (अट्ठारहवीं शताब्दी) में दिवाकर भट्ट ने रावण के ननदी समुहे के ओवरी लियावउ तौ खना उरेहों हो।। चित्र के ही कारण सीता-त्याग को चरितार्थ होते मांगिन गांग गंगुलिया गंगाजल पानी, गंगाजल पानी हो निरूपित किया है । राम की सगी बहिन सीता से हेइ हो, समुहें के ओबरी लिपाइन तो खना उरेहैं हो। चित्र बनवाती है।
हथवा उरेही सीता गोड़वा उरेही अवर उरेही दृइनों
__ आंखि । नर्मदा द्वारा रचित गुजराती रामायण 'रामायण- हेइ हो, आइ गये सिरीराम आंचर छोरि मूदिनि हो । नोसार' (उन्नीसवीं शताब्दी) के अनुसार राम सीता को रावण का चित्र खींचते हए और अपनी दासी से
___लोकगीतों में सर्वत्र सीता-परित्याग का कारण
रावण के चित्र का निर्माण ही बताया गया है। सीता रावण का वृत्तांत कहते हए सुनते हैं।
पहले से ही चित्रकला विशारदा थी और लोकगीतों में जैन हिन्दी रामकथा 'पदम पुराण' (सन् 1661) विवाह के पूर्व भी कई स्थलों पर सीता के चित्रकला में दौलत राम ने भी रावण के चित्र का उल्लेख किया प्रावीण्य का वृत्तांत मिलता है। अतएव, लंका से लौटने
के बाद सीता के द्वारा रावण के चित्र के निर्माण में
कोई अस्वाभाविकता आती प्रतीत नहीं होती। एक सम्राट जहाँगीर के समय में मूल्ला मसीह या
भोजपुरी लोकगीत मोहर में भी इसी भावना की परम सादुल्लाह कैरानवी तखल्लुस मसीह ने फारसी में
पुष्टि मिलती हैलिखित 'रामायण मसीही' अथवा 'हदीस-इ-राम-उसीता' के अनुसार राम की बहिन ने सीता से रावण
राम अवरु लछुमन भइया, का चित्र खिचवाकर कहा कि सीता रात-दिन इस चित्र आरे एकली बहिनियाँ हइहों की। की पूजा करती है।
ए जीवा रामजी बइठेले जेवनखा,
बहिन लइया लखे रे की । जैन रावण चित्र-कथा का लोकगीतों पर प्रभाव :
ए भइया भौजी के दना बनवसवा,
जिनि . खना उरेहे ले की। इस मूलस्रोत को हमारे लोकगीतों ने भी स्वी
जिनि सीता भूखा के भोजन देली, कार किया है। लोकगीतों में सीता-परित्याग की घटना
और लागा के बहतरवा ।। का अत्यन्त मार्मिक वर्णन तथा सीता का चरित्र-चित्रण
होनी से हो सीता गहबाइ रे आसापति, मिलता है। एक अवधी सोहर लोकगीत में ननद के
कइसे बनवासिन हो कि । कहने से सीता ने रावण का चित्र बनाया था
इसी प्रकार एक बुन्देली लोकगीत में भी सीताननद भौजाई दुइनों पानी गयीं अरे पानी गयीं।
निर्वासन का कारण रावण के चित्र का निर्माण हैभौजी जौन खन तुम्हें हरि लेइ ग उरेहि देखावहु हो । जौमें खना उरेहों उरेहि देखावउं, उरेहि देखाव उना। चौक चंदन बिन आंगन सनौ कोयल बिन अमराई । ननदी सनि पइहैं बिरना तोहार तौ देसवा निकरि हैं हो ॥ रामा विना मोरी सूनी अजोध्या लछमन बिन ठकुराई ।। लाख दोहइया राजा दशरथ राम मथवा छुवो, सीता बिना मोरी सनी रसोइया कौन करे चतुराई ।
राम मथवा छुवोना। आम इमलिया की नन्हीं नन्हीं पतियाँ, नीम की शीतल भौजी लाख दोहइया लछिमन भइया जौ भइया बताव हो
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ओई तरें बैठी ननद भोजाई कर रही रावन की बात । कर उससे रावण का चित्र अंकित कराती है और इस जोन खना भौजी तुमें हर लेगव हमें उरेइ बताव। चित्र में प्रविष्ट हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप र वन उरे हों जबई बारी ननदी घर में खबर न होय। सीता प्रयास करने के बाद भी उस चित्र को मिटा जो सुन पाहें बीरन तुम्हारे घर में देंय निकार। नहीं पाती है, और अंततः हताश होकर पलंग के नीचे राम की सौगंध लखन की सौगंध दसरथ लाख दुहाई। उसे छिपा देती है । तदुपरांत राम के इस पलंग पर हमारी सौगंध खाओ बारी ननदी तुमको कहा घट जाई। लेट जाने पर उनको तेज बुखार हो आता है । जब अपनी सौगध खात हों भौजी, सिजिया पावन देऊ। उन्हें उस चित्र का पता चलता है तो वे लक्ष्मण को सुरहन गऊ के गोबर मगाओं वैया मिटिया देव लिपाई। सीता को वन में ले जाकर मार डालने का आदेश देते हाथ बनाये, पांव बनाये और बत्तीसई दांत । हैं। ऊपर को मस्तक लिखन नहि पाओ, आ गए राजाराम।
- श्यामदेश की रचना 'राम कियेन' में अदुल नामक ल्याव ने बैया पिछौरिया लिखना देंय लुकाय ।
शूर्पणखा की पुत्री सीता से रावण का चित्र अंकित जैन रावण चित्र-कथा का विदेशी रामकाव्य पर प्रभाव :
करवाती है और तत्पश्चात इसी चित्र में प्रवेश कर
जाती है जिससे सीता उसे मिटा नहीं पाती है। जावा के 'सरत काण्ड' में कैकयी स्वतः सीता के
श्याम के उत्तर पूर्वीय प्रांतों के लाओ भाषा में पंखे पर रावण का चित्र अंकित करती है और सुषुप्ता
सोलहवीं शताब्दी में 'राम जातक' की रचना हुई थी वस्था में लीन सीता के पर्यक पर रख देती है। हिकायत
जिसमें भी रावणचित्र के कारण सीता-त्याग होता है। सेरी राम' में कीकवी देवी भरत-शत्रुधन की सहोदरी है। सीता ने कीकवी देवी के आग्रह के कारण पंखे पर
लाओस के 'ब्रह्मचक्र' या 'पोम्पका' में शुर्पणखाँ रावण का चित्र खींच दिया। कीकवी ने उसे सीता के
स्वतः छदमवेश में सीता के पास आकर उनसे चित्र वक्षस्थल पर रख दिया और यह आक्षेप किया कि सोने
बनवा लेती है। के पूर्व सीता ने उस चित्र का चुम्बन किया था। राम ने कीकवी पर विश्वास कर लिया।
थाईलैण्ड की 'थाई रामायण' में भी इसी चित्र की
पर्याप्त चर्चा है। हिन्देसिया के 'हिकायत महाराज रावण' में यह वृत्तांत आया है कि रावण वध के उपरान्त र म को सिंहली रामकथा में उमा सीता के पास आकर लंका में रहते सात माह हो गये । रावण की पुत्री उनसे केले के पत्ते पर रावण का चित्र अंकित करवाती अपने पिता का चित्र सोती सीता की छाती पर रख है। अकस्मात राम के आगमन पर सीता इस चित्र देती है। सीता निद्रावस्था में उस चित्र का चुम्बन को पलंग के नीचे फक देती है। राम उस पलंग पर करती है, उसी क्षण राम उनके पास आते हैं और उस बैठ जाते हैं और पलंग कांपने लगता है। कारण विदित दृश्य को देखकर राम आग बबूला हो जाते हैं। होने पर राम अत्यन्त ऋद्ध हो जाते हैं ।
हिन्दचीन अर्थात रुमेर-वाङ्मय की सर्वाधिक रावण के चित्र का मूल उत्स जैन-साहित्य है सशक्त कृति 'रामकेति' (सत्रहवीं शताब्दी) है। इसके जिसने विदेशों में जाकर बड़ा उग्र तथा विशिष्ट रूप पचहत्तरवें सर्ग में अतुलय राक्षसी सीता की सखी बन- धारण कर लिया है।
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(घ) परोक्ष कारग
हिन्दी की जैन-राम-कथा की मध्यकालीन परम्परा ___'पउम चरियं' के पूर्व 103 में यह कथा आयी है में मुख्य कृतियाँ निम्नलिखित हैं:कि सीता ने अपने पूर्व जन्म में मुनि सुदर्शन की बुराई (क) मुनिलावण्य की 'रावण मन्दोदरी सम्वाद्'। की थी और इसके परिणामस्वरूप वह स्वयं लोकापवाद की पात्र बन गयीं।
(ख) जिनराजसूरी की 'रावण मन्दोदरी सम्वाद' और
(ग) ब्रह्मजिनदास का 'रामचरित' या 'रामरस' और समाकलन :
'हनुमंत रस' । सम्पूर्ण जैन राम-साहित्य सीता की विभिन्न
इनमें सीता के चरित्र के अनेक उज्ज्वल तथा छबियों तथा बिम्बों से परिपूर्ण है । उनको जैन कवियों
सरस पाश्वों को सफलतापूर्वक उदघाटित किया गया ने अपने धर्म-सम्प्रदाय तथा सिद्धान्त के अनुसार गढ़ने का सफल प्रयास किया है। भारतीय वाड मय को जैन राम-साहित्य का यह अप्रतिम प्रदेय है कि उसने सीता को धरती-पुत्री के समान ही आकलित किया।
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जैन- आचार्यों का
संस्कृत काव्यशास्त्र
में योगदान
डा० अमरनाथ पाण्डेय
संस्कृत साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों में जैनों का योगदान रहा है । काव्यशास्त्र के क्षेत्र में भी उनकी सेवा महनीय है । ऐसे अनेक आचार्य हुए हैं, जिन्होंने काव्यशास्त्र के सिद्धान्तों की सूक्ष्म परीक्षा की है और
अनेक उद्भावनायें प्रस्तुत की हैं । यहाँ संक्षेप में इन आचार्यों के योगदान की चर्चा की जा रही है ।
हेमचन्द्र' ऐसे जैन आचार्य हैं, जिन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की है । इन्होंने अपनी सेवा और साधना से विद्वत्परम्परा की सर्जना की। इनका जन्म 1090 ई. में गुजरात प्रान्त के धुन्धुका ग्राम में वैश्य वंश में हुआ था। इनके पिता का नाम चर्चिभ और माता का नाम चाहिणी या पाहणी था । दीक्षित होने के पहले इनका नाम चङ्गदेव था । इन्होंने आठ वर्ष की अवस्था में देवचन्द्रसूरि से जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण की। इक्कीस वर्ष की अवस्था में 'सूरि' पद प्राप्त होने पर ये 'हेमचन्द्र ' नाम से प्रसिद्ध हुए ।
जयसिंह सिद्धराज ( 1093 1143 ई.) और कुमारपाल (1143-1173 ई.) से आचार्य हेमचन्द्र को अत्यधिक सम्मान मिला था । हेमचन्द्र के अनेक योग्य शिष्य थे, जिनमें रामचन्द्र, गुणचन्द्र, वर्धमानगणि, महेन्द्रसूरि देवचन्द्रमुनि, यशश्चन्द्रगणि आदि थे । हेमचन्द्र ने व्याकरण, साहित्य, दर्शन आदि के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है । इनका काव्यशास्त्र विषयक ग्रन्थ 'काव्यानुशासन' अत्यधिक प्रसिद्ध है । इस पर लेखक की अपनी टीका है । इस ग्रन्थ के तीन भाग हैंसूत्र (गद्य), वृत्ति और उदाहरण । सूत्रभाग का नाम काव्यानुशासन, वृत्तिभाग का नाम अलङ्कारचूडामणि
1. हेमचन्द्र के जीवन के सम्बन्ध में विशेष ज्ञान के लिए द्रष्टव्य -- प्रभाचन्द्र विरचित प्रभावकचरित, मेरुतुङ्गसूरि विरचित प्रबन्धचिन्तामणि, राजशेखरसूरि विरचित प्रवन्धकोष, सोमप्रभसूरि विरचित कुमारपालप्रतिबोध, बूलर - कृत 'लाइफ ऑफ हेमचन्द्र' आदि ।
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तथा उदाहरणभाग का नाम विवेक है । इसमें आठ
विद्यात्रयीचणमचुम्बितकाव्यतन्द्र अध्याय हैं। प्रथम में काव्य के उद्देश्य, हेतु आदि, द्वितीय कस्तं न वेद सुकृती किल रामचन्द्रम् ।। में रस, तृतीय में दोष, चतुर्थ में गुण, पञ्चम में शब्दा
रामचन्द्र 'प्रबन्धशतकर्ता' के रूप में प्रसिद्ध हैं। लङ्कार, षष्ठ में अर्थालङ्कार, सप्तम में नायक-नायिका
इनकी 39 कृतियों का पता चलता है, जिनमें नाट्यदर्पण, के गुण और प्रकार तथा अष्टम में दृश्य और श्रव्य
नलविलासनाटक, निर्भयभीमव्यायोग, सत्यहरिश्चन्द्र काव्य के भेदोपभेदों तथा लक्षणों का निरूपण हुआ है।
' नाटक, कुमारविहारशतक, कौमुदीमित्राणन्द आदि काव्यानुशासन के अतिरिक्त इनके ग्रन्थ सिद्धम- अमुख ह।
रामचन्द्र और गूणचन्द्र ने नाटयदर्पण की रचना मन, द्वयाश्रय महाकाव्य, सप्तसन्धान महाकाव्य, की है। नाट्यदर्पण चार विवेकों में विभक्त है। इसमें विषष्टिशलाकापुरुषचरित, प्रमाणमीमांसा आदि हैं। कारिकाएँ हैं और उन पर ग्रन्थकारों की विवति है।
इसमें दशरूपकों के अतिरिक्त दो संङ्कीर्ण भेदों-नाटिका हेमचन्द्र के शिष्यों में रामचन्द्र और गणचन्द्र प्रति- और प्रकरणी का भी निरूपण हुआ है। भा सम्पन्न विद्वान् थे । रामचन्द्र के जीवन का अन्त दुःखमय था, क्योंकि ये अन्धे हो गये थे । जर्यासह
ग्रन्थकारों ने अनेक स्थलों पर दशरूपककार के सिद्धराज ने रामचन्द्र को 'कविकटारमल्ल' उपाधि से
मत का खण्डन किया है। अलकृत किया था। रामचन्द्र-न्याय, व्याकरण और
दशरूपककार के अनुसार नाटक का नायक धीरोनाहित्य में निष्णात थे। उन्होंने रघुविलास की प्रस्ताबना
दात्त होना चाहिए,, किन्तु नाट्यदर्पण के आचार्यों के में अपने को 'विद्यात्रयीचण' कहा है
अनुसार धीरललित भी नाटक का नायक हो सकता है।'
'पञ्चप्रबन्धमिषपञ्चमुखानकेन विद्वन्मनःसदसि नृत्यति यस्य कीतिः ।
दशरूपककार अमात्य को धीरप्रशान्त नायक मानते हैं। रामचन्द्र और गुणचन्द्र अमात्य को धीरोदात्त
2. नाट्यदर्पण (दिल्ली विश्वविद्यालय का संस्करण) की प्रस्तावना, पृ. 16 3. 'अभिगम्य गुणयुक्तो धीरोदात्तः प्रतापवान् । ___ कीतिकामो महोत्साहस्त्रय्यास्त्राता महीपतिः ॥'.
दशरूपक (चौ. सं.) 3/22-23 4. 'ये तु नाटकस्य नेतारं धीरोदात्तमेव प्रतिजानते, न ते मुनिनयाध्यवगाहिनः । नाटकेषु धीरललितादीनामपि ___नायकना दर्शनात कविसमयबाह्याश्च । नाट्यदर्पण 1/7 की विवृति । 5. अथ प्रकरणे वृत्तमुत्पाद्य लोकसंश्रयम् ।
अमात्यविप्रवणिजामेकं कुर्याच्च नायकम् ॥ धीरप्रशान्तं सापायं धर्मकामार्थतत्परम् । दशरूपक 3139-40
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मानते हैं। वे दशरूपककार द्वारा दिये गये अमात्य के प्रमाचन्द्राचार्य के प्रभावक चरित से ज्ञात होता है 'धीरप्रशान्त' विशेषण को ठीक नहीं मानते।
कि वाग्भट ने अपने धन से जैन-मन्दिर का निर्माण
कराया था, जिसमें श्रीमहावीर की प्रतिष्ठा संवत् ग्रन्थकारों ने अनेक स्थलों पर धनञ्जय के मत
1 179 में की गयी थीका उल्लेख अन्ये, केचित आदि के द्वारा किया है।
अथास्ति बाहडो नाम धनवान धामिकाग्रणीः । नाट्यदर्पणकारों ने मम्मट के भी मत का खण्डन
गरूपादान् प्रणम्याथ चक्र विज्ञापनामसौ ॥ किया है मम्मट ने अङ्ग-रस के अतिविस्तार को रस- आदिश्यतामतिश्लाध्यं कृत्यं यत्र धनं व्यये । दोष माना है ओर हयग्रीववध के हयग्रीव-वर्णन को प्रभूराहालये जैने द्रव्यस्य सफलो व्ययः ।। उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है ।' नाट्यदर्पण के शतकादशके साष्टसप्ततौ विक्रमार्कतः । आचार्यों की मान्यता है कि यह वृत्त (कथा) का दोष वत्सराणां व्यतिक्रान्ते श्रीमुनिचन्द्रसूरयः ॥ है, रस का दोष नहीं।'
आराधनाविधिश्रीष्ठं कृत्वा प्रायोपवेशनम् ।
शमपीयुषकल्लोलप्लतास्ते त्रिदिवं ययुः । रामचन्द्र और गुणचन्द्र के मौलिक विचार अनेक
वत्सरे तत्र चैकेन पूर्णे श्रीदेवसूरिभिः । स्थानों पर उपलब्ध होते हैं। उनका परीक्षण और
श्रीवीरस्य प्रतिष्ठां स बाहडोऽकारयन्मुदा ।। मूल्याङ्कन स्वतन्त्र निबन्ध का विषय हैं।
वाग्भट का निवासस्थान अणहिल्लपट्टन बतलाया जैन-आचार्य वाग्भट (प्रथम) जयसिंह सिद्धराज जाता है । वाग्भटालङ्कार के अधोलिखित श्लोक से के मन्त्री थे। इनका प्राकृत-नाम बाहड था और इनके वाग्भट की जैन-धर्म के प्रति श्रद्धा और आस्था प्रकट पिता का नाम सोम था
होती हैबम्भण्डसुतिसम्पुडमुक्तिअमणिणो पहासमूहव्व । श्रियं दिशतु बो देवः श्रीनाभेयजिनः सदा । सिरि बाहड त्ति तणओ आसि बहो तस्स सोमस्स ॥
मोक्षमार्ग सतां ब्र ते यदागमपदावली ॥'10
6. 'सचिवो राज्यचिन्तकः । अयं वणिरविप्रयोर्मध्यपात्यपि धीरोदात्त--धीरप्रशान्तौ प्रकरणे नेतारौ भवत
इति प्रतिपादनार्थ पृथगुपात्तः । यस्त्वमात्य नेतारम्यूपगम्य धीरप्रशान्तनायकमिति 'प्रतरणं' विशेषयति,
स वृद्धसम्प्रदायवन्ध्यः ।' नाट्यदर्पण 211 की विवृति । 7. काव्यप्रकाश (झलकीकर की टीका से समन्वित, 1950 ई.), पृ. 441 । 8. 'केचिदत्र हयग्रीववधे हयग्रीववर्णनमुदाहरन्ति ।स पुनर्वृत्तदोषो वृत्तनायकस्याल्पवर्णनात् । तत्र हि वीरो ___रसः । स विशेषतो वध्यस्य शौर्यविभूत्यतिशयवर्णनेन भूष्यत इति । नाट्यदर्पण 3123 की विवृति ।
9. वाग्भटालङ्कार (चौ. सं.), 41147 10. वही 1।1। इस पर देखिए-सिंहदेवर्गाण की टीका, जिसमें उन्होंने अतिशयचतुष्टय तथा रत्नत्रय का
निर्देश किया है।
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वाग्भट ने वाग्मटालङ्कार की रचना की है। इसमें काव्यालङ्कारसूत्राणि स्वानि किञ्चिद् विवण्महे । पाँच परिच्छेद हैं । इसमें काव्यफल, काव्योत्पत्ति, तन्मनस्तन्मर्याकृत्य विभाव्यं कोविदोत्तमैः ॥ काव्यशरीर, दोष, गुण, अलङ्कार और रस के विषय
___ अलङ्कारमहोदधि आठ तरङ्गों में विभक्त है। प्रथम में संक्षेप में विचार किया गया है। प्रथम परिच्छेद में
में काव्यप्रयोजन आदि, द्वितीय में शब्द-वैचित्र्य, तृतीय 26 श्लोक, द्वितीय में 29 श्लोक, तृतीय में 181 श्लोक,
में ध्वनिनिर्णय, चतुर्थ में गणीभूतव्यङ ग्य, पञ्चम में चतुर्थ में 152 श्लोक, और पञ्चम में 33 श्लोक हैं।
दोष, षष्ठ में गुण, सप्तम में शब्दालङ्कार और अष्टम नरेन्द्रप्रभसरि ने मन्त्रीश्वर वस्तपाल की प्रेरणा में अर्थालङ्कार का निरूपण हुआ है। से अलङ्कारमहोदधि की रचना 1225-26 ई. में की।। अजितसेन ने अलङ्गारचिन्तामणि और शङ्गारराजशेखरसूरि ने न्यायकन्दलीपज्जिकाप्रशस्ति में नरेन्द्र
मञ्जरी की रचना की शङ्गारमञ्जरी छोटी रचना प्रभसूरि को अलङ्कारमहोदधि का कर्ता बतलाया है-----
है । अजितसेन ने शृङ्गारमजरी की रचना 1245 ई.
के लगभग और अलङ्कारचिन्तामणि की रचना 1250तस्य गुरोः प्रियशिष्यः प्रभुनरेन्द्रप्रभः प्रभानाट्यः ।
1260 ई. में की। अलङ्कारचिन्तामणि का प्रकाशन योऽलङ्कारमहोदधिमकरोत् काकुत्स्थकेलि च ॥12
भारतीय ज्ञानपीठ से 1973 ई. में हुआ है। डॉ.
नेमिचन्द्र शास्त्री ने विस्तृत भूमिका और अनुवाद के नरचन्द्रसूरि नरेन्द्रप्रभसूरि के गुरू थे। नरेन्द्रप्रभसूरि
साथ इस ग्रन्थ का सम्पादन किया है। इसमें पाँच ने गुरू की आज्ञा पर श्रीवस्तुपाल की प्रसन्नता के लिए
परिच्छेद हैं । प्रथम (106 इलोक) का नाव अलङ्कारमहोदधि का निर्माण किया
कविशिक्षाप्ररूपण, द्वितीय (1891 श्लोक) का नाम तन्मे मातिसविस्तरं कविकलासर्वस्वगर्वोदर ।
चित्रालङ्कारप्ररूपण, तृतीय (41 श्लोक) का नाम शास्त्रं ब्रूत किमप्यनन्यसदृशं बोधाय दुर्मेधसाम् ।
यमकादिवचन, चतुर्थ (345 श्लोक) का नाम अर्थाइत्यभ्यर्थनया प्रतीतमनसः श्रीवस्तुपालस्य ते ।
लङ्कारविवरण तथा पञ्चम (406 श्लोक) का नाम
रसादिनिरूपण है। श्रीमन्तो नरचन्द्रसूरिगुरवः साहित्यतत्त्वं जगुः ।। तेषां निदेशादथ सद्गुरुणां श्रीवस्तुपालस्य मुदे तदेतत्। अरिसिंह तथा अमरचन्द्र की कृति काव्यकल्पलता चकार लिप्यक्षरसंनिविष्टं सूरिनरेन्द्रप्रभनामधेयः ॥ के नाम से प्रसिद्ध है । अरिसिंह ने इसके सूत्रों की रचना
अलङ्कारमहोदधि (ओरियन्टल इन्स्टीट्यूट बड़ोदा सं. 1942 ई.) के अन्तिम श्लोक में ग्रन्थ का रचनाकाल संवत् 1282 दिया गया है'नयनवसुसूरि (1282) वर्षे निष्पन्नायाः प्रमाणमेतस्याः । अजनि समस्रचतुष्टयमनुष्टुभामुपरि पण्चशती ।'
इस इलोक से ग्रन्थ का प्रमाण 4500 श्लोक ज्ञात होता है। 12. वही, प्रस्तावना, पृ. 16 । 13. वही, 1118.20 14. अलङ्कारचिन्तामणि की प्रस्तावना, प. 33-341
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की है और अमरचन्द्र ने वत्ति । अमरचन्द्र ने अल. ड्रारमहोदधि के परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित हुआ है। कारप्रबोध की भी रचना की। अरिसिंह और अमर- इसमें आठ अध्याय हैं। प्रथम में काव्यफलहेतु, द्वितीय चन्द्र का समय त्रयोदश शताब्दी है।
में शब्दार्थ, तृतीय में शब्दार्थदोष, चतुर्थ में गुण, पञ्चम
में शब्दालङ्कार, षष्ठ में अर्थालङ्कार, सप्तम में रीति वाग्भट (द्वितीय) नामक एक अन्य जैन-आचार्य
और अष्टम में रस का निरूपण हुआ है। इसकी श्लोकहुए हैं। ये वाग्भटालङ्कार के कर्ता वाग्भट से भिन्न
सख्या 132 है। आठ अध्यायों में क्रमशः 5, 15, हैं। इनका समय सम्भवतः चतुर्दश शताब्दी है । इनके 24. 13. 13.49,5 और 8 श्लोक हैं। पिता का नाम नेमिकूमार था और का माता नाम वसुन्धरा । ये राधापुर में रहते थे । इन्होंने काव्यानुशासन की
मन्त्रिमण्डन श्रीमाल वंश में उत्पन्न हुए थे। इनका रचना की।"काव्यानुशासन वाग्भट की अलङ्कारतिलक
समय विक्रमीय पन्द्रहवीं शताब्दी है। इन्होंने अलङ्कारटीका के साथ निर्णयसागर से प्रकाशित हो चुका है।
मण्डन नामक ग्रन्थ की रचना की। इसमें पाँच परिच्छेद
हैं । काव्यमण्डन-चम्पूमण्डन-शङ्गारमण्डन-सङ्गीतमन्डनइसके सूत्र गद्य में हैं । यह ग्रन्थ पाँच अध्यायों में
सारस्वतमण्डन-कादम्बरीमण्डन-चन्द्रविजय आदि भी विभक्त है । प्रथम में काव्यप्रयोजन, काव्यहेतु, द्वितीय में दोष-गुण, तृतीय में अर्थालङ्कार, चतुर्थ में शब्दा
इनकी रचनाएं बतलायी जाती हैं। लङ्कार तथा पञ्चम में रस, नायक-नायिकाओं के प्रकार और रस-दोषों का विवेचन हआ है। वाग्भट ने अपनी
अणुरत्नमण्डन या रत्नमण्डनगणि (15वीं शताब्दी) टीका में विभिन्न प्रदेशों, नदियों, वक्षों और अनेक
. ने कविशिक्षाविषयक ग्रन्थ 'जल्पकल्पलता' की रचना
की। इनकी अन्य कृति मुग्धमेधाकर है, जिसमें मुख्य विशिष्ट वस्तुओं का स्थल-स्थल पर उल्लेख किया है। इन्होंने छन्दोऽनुशासन तथा ऋषभदेवचरित की भी र
___ रूप से अलङ्कारों का विवेचन किया गया है। रचना की थी।
जयमकलाचार्य-कृत कविशिक्षा और आचार्य भावदेवसूरि ने काव्यालङ्कारसार नामक लघुकाय विनयचन्द्र-कृत कविशिक्षा में कवियों के लिए आवश्यक ग्रन्थ की रचना की । यह नरेन्द्रप्रभसूरि-विरचित अल- निर्देशों का प्रतिपादन हुआ है ।
15. अलङ्कारमहोदाधि की प्रस्तावना; पृ. 20 । 16, 17. 'नव्यानेकमहाप्रबन्धरचनाचातुर्य विस्फजित
स्फारोदारयशः प्रचारसततव्याकीर्णबिश्वत्रयः । श्रीमन्नेमिकुमारसूनुरखिलप्रज्ञालुचूडामणिः काव्यानामनुशासनं वरमिदं चक्र कविर्वाग्भटः ।।
काव्यानुशासन (निर्णयसागर सं., 1915 ई0) का अन्तिम श्लोक । 18. कृष्णमाचार्य, हिस्ट्री ऑफ क्लैसिकल संस्कृत लिटरेचर, पृ. 7641 19. अलङ्गारमहोदधि की प्रस्तावना। 20. कृष्णमाचार्य, हिस्ट्री ऑफ क्लैसिकल संस्कृत लिटरेचर, 4 780 ।
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जैन-टीकाकार
काव्यालङ्कार के अन्य जैन-टीकाकार आशाधर हैं। अनेक जैन-आचार्यों ने काव्यशास्त्र के उत्कृष्ट इन्होंने अपने पिता का नाम सल्लक्षण और पुत्र का ग्रन्थों पर टीकाओं की रचना की है।
नाम छाहड बतलाया है। इन्होंने टीका की रचना
1239.43 ई. में की। इनकी अन्य रचनाएँ हैं-अमरवादिसिंह ने दण्डी के काव्यादर्श की टीका की 122
कोश की टीका, वाग्भट-कृत अष्टाङ्गहृदय की टीका, रूद्रट के काव्यालङ्कार के कई जैन-टीकाकार हुए त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र, रत्नत्रयविधानशास्त्र आदि ।24 हैं। नमिसाधू काव्यालङ्कार के प्रसिद्ध टीकाकार हैं। इनके गरू शीलभद्र थे। इन्होंने अपनी टीका की रचना काव्यप्रकाश की सबसे प्राचीन टीका माणिक्यचन्द्र1069 ई. में की
कृत सङ्कत है। माणिक्यचन्द्र सागरेन्दु के शिष्य थे।
इन्होंने टीका की रचना 1159 ई. में की।25 माणिक्य__एवं रुद्रटकाव्यालंकृतिटिप्पणकविरचनात् पुण्यम् ।
चन्द्र गुर्जरदेश के निवासी थे । इनकी टीका में किसी - यदवापि मया तस्मान्मनः परोपकृति रति भूयात् ।।
टीका या टीकाकार के नाम का उल्लेख नहीं मिलता। थारापद्रपुरीयगच्छतिलक: पाण्डित्यसीमाभवत् -
अभिधावृत्तिमातृकाकार मुकुल और सरस्वतीकण्ठाभरणसूरिभू रिगुणकमन्दिरमिह श्रीशालिभद्राभिधः ।।
कार भोजराज का उल्लेख मिलता है ।26 तत्पादाम्बुजषट्पदेन नमिना सङ क्षेपसम्क्षिणः । सो मुग्धधियोऽधिकृत्य रचितं सटिप्पणं लहवदः ।। गणरत्नगणि ने काव्यप्रकाश की सारदीपिका नामक
पञ्चविंशतिसंयुक्तरेकादशसमाशतैः । टीका की रचना की तथा भानुचन्द्र-सिद्धचन्द्र ने काव्यविक्रमात समतिक्रान्तः प्रावषीदं समथितम ।।23 प्रकाशविकृति का प्रणयन किया ।
21.. 22. अलङ्कारमहोदधि की प्रस्तावना । 23. काव्यालंकार की नमिसाधु-कृत टीका के अन्तिम श्लोक। 24. काणे, संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास (मोतीलाल सं., 1966 ई.), पृ. 197.98 और अलङ्कारमहोदधि
__ की प्रस्तावना। 25. गणानपेक्षिगी यस्मिन्नर्थालङ्कारतत्परा ।
प्रौढापि जायते बुद्धिः सङ्केतः सोऽयमद्भुतः ॥1॥ मदमदनतुषारक्षेपपूषाबिभूषा जिनवदनसरोजावासिवागीश्वरीया । द्य मुखमरिवलतर्कग्रन्थपङ्कहाणां तदनु समजनि श्रीसागरेन्दुर्मुनीन्द्रः ॥10॥ माणिक्यचन्द्राचार्येण तदध्रिकमलालिना । काव्यप्रकाशसङ्केतः स्वान्योपकृतये कृतः ।।11।। रसवक्त्रग्रहाधीशवत्सरे (संवत् 1216) मासि माधवे। काव्ये काव्यप्रकाशस्य सङ्केतोऽयं समर्थितः ॥12॥
काव्य प्रकाश (झलकीकर की टीका) की प्रस्तावना के प. 21-22 पर मङ्कत के श्लोक उद्धत । । 26. वही, पृ. 21। 27. अलङ्कारमहोदधि की प्रस्तावना ।
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अनेक जैनों ने वाग्भटालङ्कार की टीका की । वाग्भटालङ्कार के अन्य जैन-टीकाकार हैं-जिनसिंहदेवगणि की टीका चौखम्बा विद्याभवन से प्रकाशित वर्धनसूरि, क्षेमहंसगणि, ज्ञानप्रमोदगणि, वादिराज, (1957 ई.) हुई है। इन्होंने मुग्धजनों के प्रबोध और राजहंसोपाध्याय, समयसुन्दर आदि । अपनी स्मृति की वृद्धि के लिए टीका की रचना की
आजड ने सरस्वतीकण्ठाभरण तथा जिनप्रभ, शिववाग्भटकवीन्द्ररचितालंकृतिसत्राणि किमपि विवणोमि । चन्द्र, विनय रत्न, विद्यासागर आदि ने धर्मदास-कृत मुग्धजनबोधहेतोः स्वस्य स्मृतिजननवृद्ध्यै च ॥ विदग्धमुखमण्डन की टीका की।
28. काव्यालङ्कार की टीका के प्रारम्भ में द्वितीय श्लोक । 29. अलङ्कारमहोदधि की प्रस्तावना, प. 19 तथा कृष्णमाचार्य-कृत हिस्ट्री ऑफ क्लै सिकल संस्कृत लिटरेचर,
पृ. 762-63। 30. अलङ्कारमहोदधि की प्रस्तावना ।
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राजस्थान के कवि
परमानन्द जैन शास्त्री
राजस्थान भारतीय इतिहास का महत्वपूर्ण अंग है । यहाँ की भूमि वीर प्रसव रही है। यहाँ के वीरों की वीरता, साहस, शौर्य की गरिमा से राजस्था गौरवान्वित है । उसी तरह वह साहित्य और संस्कृति के लिए भी गौरव का स्थान रहा है । यहाँ के साहित्य 'मनीषियों ने वीर योद्धाओं की तरह संस्कृति के संर क्षण और साहित्य निर्माण द्वारा देशभक्ति, नैसिकता और सांस्कृतिक जागरूकता का परिचय दिया है । इस दृष्टि से राजस्थान की महत्ता लोक गौरव का प्रतीक है । राजस्थान के विपुल शास्त्र भंडारों में विविध भाषाओं में कवियों की रचनाएँ उपलब्ध होती हैं । वहाँ अनेक जैनाचार्यों, विद्वानों, भट्टारकों और कवियों का यत्र-तत्र विहार रहा है, जिससे देश में जागृति और धार्मिक मर्यादाओं का संरक्षण हुआ है । उन्होंने अनेक
ठकुरसी
संकटों और भयावह समयों के झंझावातों से भारतीय साहित्य को संरक्षण प्रदान किया है । इस कारण वे अभिनंदनीय हैं । कवि ठकुरसी राजस्थान की इस महान परम्परा के एक प्रमुख कवि थे, भारतीय साहित्य को उनकी देन अविस्मरणीय है ।
afa ठकुरसी कविवर घेल्ह के पुत्र थे । इनकी माता बड़ी धर्मिष्ठा थी। गोत्र पहाड्या, जाति खंडेलवाल और धर्म दिगम्बर जैन था ।" यह सोलहवीं शताब्दी के अच्छे कवि कहे जाते थे । कविता करना एक प्रकार से आप की पैतृक सम्पत्ति थी; क्योंकि आपके पिता भी अच्छी कविता करते थे । परन्तु अद्यावधि उनकी कोई रचना अवलोकन में नहीं आई । संभव है अन्वेषण करने पर प्राप्त हो जाय ।
1. पपड पहाsिहं वंस शिरोमणि, घेल्हा गरू तसु तियवर धरमिणी । ताह तणइ कवि ठाकुरि सुन्दरि, यह कहि किय संभव जिणमंदिरि ॥
मेघमालावय प्रशस्ति
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कवि की इस समय सात कृतियाँ उपलब्ध हैं। संलग्न रहता था, कि किसी तरह से सम्पत्ति संचित वे सभी कृतियाँ अभी तक अप्रकाशित हैं। उनका अव- होती रहे परन्तु उरे खर्च न करना पड़े। उसने कभी "लोकन करने से जहाँ कवि की काव्य-शक्ति का परिचय दान, पूजा, माला, उत्सव आदि धार्मिक कार्यों में मिलता है वहाँ उनकी प्रतिभा का दर्शन हए बिना नहीं धन खर्च न किया था । माँगनेवालों को कभी भूलरहता । रचनाओं में स्वाभवतः माधुर्य और प्रासाद है, कर भी नहीं देता था, और न किसी देव मन्दिर, गोठ और गति में प्रवाह है, उन्हें पढ़ते हए जी अरुचि नहीं या सहभोज में ही धन को व्यय करता था । भाई, होती, किन्तु शुरू करने पर उसे पूरी किये बिना छोड़ने वहिन, बुआ, भतीजी और भाणिजी आदि के न्योता को जी नहीं चाहता । आपकी सातों रचनाओं के नाम आने पर कभी नहीं जाता था, किन्तु सदा रूखा-सा निम्न प्रकार हैं
बना रहता था। उसने कभी सिर में तेल डालकर
स्नान नहीं किया था । धन के लिए झूट बोलता था, कृपाण चरित्र, पारसनाथ श्रवण सत्ताइसी, जिन- झूठा लेख लिखाता था, कभी पान नहीं खाता था और चउबीसी, मेघमाला ब्रतकथा, पंचेन्द्रिय वेलि. नेमिसर की न किसी को खिलाता था । न कभी सरस भोजन ही वेलि, और चिन्तामणि जयमाल । इनमें से प्रथम रचना करता था, और न कभी चन्दनादि द्रव्य का लेप ही का परिचय पं. नाथरामजी प्रेमी बम्बई ने अपने करता था। न कभी नया कपड़ा पहिनता था, कभी हिन्दी साहित्य के इतिहास में कराया था। कृपण खेल-तमाशे देखने भी नहीं जाता था, और न गीत रस चरित की एक प्रतिलिपि मेरे पास है, जिसे मैंने सन् ही सुहाता था, कपड़ा फट जाने के भय से उन्हें कभी 1945 में जयपुर के किसी गुच्छक पर से नोट की
से नोट की नहीं धोता था। कभी-कभी अभ्यागत या पाहना आ
नहा धाता था थी। कवि ने इसमें अपनी आँखों देखी एक घटना का
मी आँखों देखी एक घटना का जाने पर भी उसे नहीं खिलाता था-मुह छिपाकर मारे घटता माजीत और नविन कसे हर जाता था इसी से पत्नी से रोजाना कलह 35 पद्यों में अंकित करने का प्रयत्न किया है। रचना होती थी, जैसा कि कवि की निम्न पंक्तियों से सरस और प्रसाद गुण से भरपूर है। और कवि ने प्रकट है :उसे वि. सं. 1580 के पौष महीने की पंचमी के दिन पूर्ण किया है, घटना का संक्षिप्त परिचय निम्न
__ "झूठ कथन नित खाइ लेख लेखौ नित झूठी, प्रकार है
झूठ सदा सहु कर, झूठ, नहु होइ अपूठो ।
झूठी बोल साखि, झूठे झगड़े नित्य उपाब,
जहि तहि बात विसासि धूति धनु घर महि ल्यावं एक प्रसिद्ध कृपण व्यक्ति उसी नगर में रहता था,
लोभ कोल यों चेते न चिति जो कहिजै सोइ खवै, जहाँ कविवर निवास करते थे । वह जितना अधिक
धन काज झूठ बोल कृपणु मनुखजनम लाधो गवै ।।5।। कृपण था उसकी धर्मपत्नी उतनी ही अधिक उदार
और विदुषी थी। वह दान-पूजा-शील आदि का पालन कदेन खाइ तंबोलु सरसु भोजन नहीं भक्ख, करती थी। कृपण ने सम्पदा को बड़े भारी यत्न और कदे न कापड़ नवा पहिरि काया सुख रक्खै । अनेक कौशलों से प्राप्त किया था । धन संचय की उस कदे न सिर में तेल घालि मल मूरख न्हावं, की लालसा इतनी अधिक बढ़ी हुई थी, वह उसका कदे न चन्दन चरचे अंग अवीरु लगावै । जोड़ना जानता था, किन्तु खर्च करने का उसे भारी पेषणो कदे देख नहीं श्रवणु न सुहाई गीत-रसु । भय लगा रहता था । वह रात दिन इसी चिन्ता में घर घरिणी कहै इम कंत स्यौं दई काइ दीन्हीं न यसु ।।6।।
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।
वह दे न खाण खरचं न कि दुवै करहि दिनि कलह अति संगी भतीजी भुवा वहिणि भणिजी न ज्यावे रहे रूसो मोडि आपु ग्योतो जब आये । पाहूणो सगो आयो सुर्ण रहे छिप्पो मुख रखकर जिव जाय तिवहि नीसरै यों धनु संच्यो कृपण नर ॥"
कृपण की पत्नी, जब नगर की दूसरी स्त्रियों को अच्छा खाते-पीते और अच्छे वस्त्र पहिनते तथा धर्म कर्म का साधन करते देखती तो अपने पति से भी वैसा ही करने को कहती । इस पर दोनों में कलह हो जाती थी। तब वह सोचती है कि मैंने पूर्व में ऐसा क्या पाप किया है जिससे मुझे ऐसे अत्यन्त कृष्ण पति का समागम मिला । क्या मैंने कभी कुदेव की पूजा की, सुगुरु साधुओं की निन्दा की, कभी झूठ बोला, दया न पाली, रात्रि में भोजन किया, या व्रतों की संख्या का अपलाप किया। मालूम नहीं मेरे किस पाप का उदय हुआ जिससे मुझे ऐसे कृपण पति के पाले पड़ना पड़ा, जो न खरचे, न खरचने दे, निरन्तर लड़ता ही रहता है ।
एक दिन पत्नी ने सुना कि गिरनार की यात्रा करने संघ जा रहा है । तब उसने रात्रि में हाथ जोड़ कर हँसते हुए पति से संघ यात्रा का उल्लेख किया और कहा कि सब लोग संघ के साथ गिरनार और शत्रुंजय की यात्रा के लिए जा रहे हैं । वहाँ नेमिजिनेन्द्र की वन्दना करेंगे, जिन्होंने राजमति को छोड़ दिया था । वे वन्दना - पूजाकर अपना जन्म सफल करेंगे, जिससे वे पशु और नरक गति में न जायेंगे, और नरक गति में न जायेंगे, किन्तु अमर पद प्राप्त करेंगे। अतः आप भी चलिए । इस बात को सुनकर कृपण के मस्तक में सिलवट पड़ गई, वह बोला कि क्या तू बावली हुई है, जो धन खरचने की तेरी बुद्धि हुई । मैंने धन चोरी से नहीं लिया और न पड़ा हुआ पाया, दिन रात नींद, भूख, प्यास की वेदना सही, बड़े दुःख से उसे प्राप्त किया है। अतः खरचने की बात अब मुंह से न निकालना ।
तब पत्नी बोली हे नाथ ! लक्ष्मी तो बिजली के
।
समान चंचला है । जिनके पास अटूट धन और नवनिधि थी, उनके साथ भी धन नहीं गया। जिन्होंने केवल संचय किया, उन्होंने उसे पाषाण बनाया, जिन्होंने धर्म कार्य में खर्च किया, उनका जीवन सफल हुआ । इसलिए अवसर नहीं चूकना चाहिए, नहीं मालूम किन पुण्य परिणामों से अनन्त धन मिल जाय । तब कृपण कहता है कि तू इसका भेद नहीं जानती । पैसे बिना आज कोई अपना नहीं है। धन के बिना राजा हरिश्चन्द्र ने अपनी पत्नी को बेचा था तव पत्नी कहती है कि तुमने दाता और दान की महत्ता नहीं समझी। देखो, संसार में राजा कर्ण और विक्रमादित्य से दानी राजा हो गये हैं, सूम का कोई नाम नहीं लेता, जो निस्पृह और सन्तोषी हैं वह निर्धन होकर भी सुखी है किन्तु जो धनवान होकर भी चाह दाह में जलता रहता है वह महादुखी है। मैं किसी की होड़ नहीं करती, पर पुण्य कार्य में धन का लगाना अच्छा ही है । जिसने केवल धन संचय किया, किन्तु स्व-पर के उपकार में नहीं लगाया वह चेतन होकर भी अचेतन जैसा है, जैसे उसे सर्प ने डस लिया हो।
इतना सुनकर कृपण गुस्से से भर गया और उठ कर बाहर चला गया । तव रास्ते में उसे एक पुराना मित्र मिला। उसने कृपण से पूछा, मित्र ! आज तेरा मन म्लान क्यों है ? क्या तुम्हारा धन राजा ने छीन लिया, या घर में चोर आ गए, या घर में कोई पाहुना आ गया है, या पत्नी ने सरस भोजन बनाया है । किस कारण से तेरा मुख आज म्लान दीख रहा है । कृपण ने कहा - मित्र ! मुझे घर में पत्नी सताती है, यात्रा में जाने के लिए धन खरचने के लिए कहती है, जो मुझे नहीं माता, इसी कारण में दुर्बल हो रहा हूँ । रात-दिन भूख नहीं लगती । मित्र मेरा तो मरण आ गया है । तब मित्र ने कहा, हे कृपण ! सुन, तू मन में दुःख न कर । पापिनी को पीहर पठाय दे, जिससे तुझे कुछ सुख मिले। यह सुनकर कृपण को अति हर्ष हुआ ।
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एक आदमी को बुलाकर एक झूठा लेख लिख दिया. इस तरह कृपण विचार कर ही रहा था कि कि तेरे जेठे भाई के घर पुत्र हुआ है, अतः तुझे बुलाया जीभ थक गई, वह बोलने में असमर्थ हो गया, और है । यद्यपि पत्नी पति के इस प्रपंच को जानती थी, वह इस संसार से विदा हो गया और कुगति में गया । किन्तु फिर भी वह उस पुरुष के साथ पीहर चली पश्चात् पत्नि आदि ने उस संचित द्रव्य को दान गई।
धर्मादि कार्यों में लगाया ।
कवि की दूसरी कृति 'पारसनाथ श्रवण सत्ताइसी' जब संघ यात्रा से लौट कर आया, तब ठौर
है, जिसमें जैनियों के तेवीसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ का ठौर ज्योंनारें की गई, महोत्सव किए गये और
जीवन-परिचय और स्तवन दिया हुआ है । रचना में मांगनेवालों को दान दिया गया, अनेक बाजे बजे, और लोगों ने असंख्य धन कम या। जब इस बात को
27 पद्य अकित हैं । रचना साधारण होते हुए भी
सुन्दर और प्रवाहयुक्त है, और सोलहवीं दाताब्दी के कृपण ने सुना तो अपने मन में बहुत पछताया । यदि
हिन्दी भाषा के विकास क्रम को प्रस्तुत करती है। इस मैं भी गया होता तो खूब ज्योनार खाता, व्यापार
कृति में कवि के निवास स्थान चम्पावती (चाकस) करता, और धन कमाकर लाता । पर हाय मैं कुछ भी
में संवत् 15:8 के लगभग घटित एक ऐतिहासिक नहीं कर सका। दैव योग से कृपण बीमार हो गया।
घटना के आँखों देखे दृश्य का चित्रण किया गया है उसका अन्त समय समझकर कुटम्बियों ने उसे सम
जिससे उसका ऐतिहासिक महत्व हो गया है। कवि ने झाया और दान-पुण्य करने की प्रेरणा की । तब कृषण
इस कृति की रचना संवत् 1578 के माघ महीने ने गुस्से से भरकर कहा कि मेरे जीने या मरने पर
शुक्ल पक्ष की दोइज के दिन पूरा किया था जैसा कि कौन मेरा धन ले सकता है। मैंने धन को बड़े यत्न से
उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है :रखा है। राजा, चोर, और आग से उसकी रक्षा की है । अब मैं मृत्यु के सम्मुख हूँ, अतः हे लक्ष्मी तू घेढ णंदण ठकरसी नाम, जिण पाय पंकय भसल । मेरे साथ चल, मैंने तेरे कारण अनेक दुःख सहे हैं। तेण पास यम कियउ सचो जवि । तब लक्ष्मी कपण से कहती है कि
पंदरासय अठहत्तर माह मास सिय पख दुय जवि ।
पढ़हि गुणहिं जे णारि-णर तह पूरिय मन आस । "लच्छि कहै रे कृपण झूठ हों कदे न बोलों,
इउं जाणे पिणु नित्त तुहु पढ़ि पंडित मल्लिदास ।।27 जु को चलण दुइ देइ गैलत्मागी तसु चालों। प्रथम चलण मुझ एहु देव-देहुरे ठविज्जे,
__ शाह इब्राहीम ने जब रणथम्भौर पर आक्रमण दूजे जात-पति? दाणु चउ संघहिं दिज्जै ।
किया, और उसका प्रबल सैन्यदल नगर में और उसके ये चलण दुवै त भंजिया ताहि विहणी क्यों चलौं,
आसपास के स्थानों में लूट-खसोट और मार-काट करने झखमारि जाय तू हौं रही वहडि न संगि थारे चलौं ।"
लगा, तब चम्पावती को छोड़कर अन्य नगरों के
जन संत्रस्त होकर इधर-उधर भागने लगे उन्हें देखकर मेरी दो बातें हैं, उनमें से प्रथम तो मैं देव मन्दिरों चम्पावती के निवासी जन भी घबड़ाने लगे, और में रहती है। दूसरे यात्रा, प्रतिष्ठा, दान और चतुर्विध उनमें से कितने ही जन भागने को उद्यत हुए । तब संघ के पोषणादि कार्य हैं। उनमें से तने एक भी नगर के प्रमुख पंडित मल्लिदास आदि सज्जनों ने नहीं किया। अतः मैं तुम्हारे साथ नहीं जा सकती। पार्श्व भवन में जाकर भगवान पार्श्वनाथ की मिलकर
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स्तुति की, और यह प्रार्थना की, कि भगवन् ! हमें चौथी कृति 'मेघमाला ब्रतकथा' है। इस कथा आपका ही सहारा है, हम सब लोगों की, इस विपत्ति की उपलब्धि भट्टारक हर्षकीर्ति अजमेर के शास्त्र से रक्षा हो । ऐसा कहने के पश्चात् भी लोगों को यह भंडार के एक गुटके पर से हुई है। यह कथा 115 विश्वास न था कि इस विपत्ति से हमारा संरक्षण हो कउवक और 211 श्लोकों के प्रमाण को लिए हुए है। जावेगा। किन्तु उसी समय जनता को यह स्वयं आभास इस ग्रन्थ की आदि अन्त प्रशस्ति में इस कथा के रचने होने लगा, कि घबड़ाओ नहीं, शान्त चित्त से रहो, में प्रेरक, तथा कथा कहां बनाई गई, वहां के राजा सब शान्ति हो जायेगी। और लोगों के देखते-देखते और कथा का रचना काल दिया हुआ है। ही वह भयंकर विपदा सहसा ढल गई । लोगों को अभय मिला, प्रजा में शान्ति होगई, चित्त में निर्भयता मेघमाला व्रत भाद्रपद मास की प्रथम प्रतिपदा से आई। यह दृश्य देख जनता पार्श्वनाथ की जय बोलने शुरू करे, उस दिन उपवास करे, और जिन पूजा लगी। जो लोग भय से भाग गये थे, वे अधिक दुःखी विधान तथा अभिषेक करे, सारा दिन धर्म ध्यान में हुये, किन्तु नगर में रहनेवाले जन सुखी रहे। यह व्यतीत करे । और पांच वर्ष पर्यन्त इस ब्रत का अनुकवि का आँखों देखा घटना वर्णन कवि के शब्दों में ष्ठान करे । पश्चात उसका उद्यापन करे, उद्यापन की इस प्रकार है :
शक्ति न हो तो दुने दिनों तक व्रत पाले। जिन लोगों
ने उस समय इस व्रत का पालन किया था, कवि ने जब सुलीय उ राणि संग्राम, रणथं मुवि दुग्ग गढु । उनका नाम भी प्रशस्ति में अंकित किया है । उससे जब इब्राहिम साहि कोपिउ, बलु बोली मोकलिउ। ज्ञात होता है कि उस समय चम्पावती में इस व्रत के बोलु कबल सबू तेण लोपिउ, जिवलग उग्झलि हाय सउं अनेक अनष्ठाता थे, जिन्होंने निष्ठा से ब्रत का पालन मेच्छ मूढ भय वज्जि, चंपावति बिणु देस सब,गणदहइ किया था। उस समय वहाँ राजा रामचन्द्र का राज्य
दिसभजि ॥21 था, और भट्टारक प्रभाचन्द्र वहाँ मौजूद थे।
तबहि कंपिउ सथल पुरलोउ, कोइ न कसु वर जिउ रहइ भाजि दहै दिसि जाण लगे, मिलिविकरी तब बीनती।
इस ग्रन्थ की आदि प्रशस्ति में बतलाया है कि पारसणाह स्वामी सु अगै, सवणा जोतिक केवलि ।
कि ढ़ाहड देश के मध्य में चम्पावती (जयपुर राज्य चितु न करै विसासु, कालि पंचमइ पास पहु, जुग
वर्तमान चारसू) नाम की एक नगरी है, जो उस समय लगउ तु आस ॥22॥
धन-धान्यादि से विभूषित थी और जिसके शासक राजा
रामचन्द्र थे । वहाँ भगवान पार्श्वनाथ का मन्दिर भी एम जं पि विकरि विथुई पुज्ज, मल्लिदास पंडित पमुह। बना हुआ था जिसमे तात्कालिक भट्टारक प्रभाचन्द्र स इह था समीपु चायउ, उच्चावंत न उच्चयउ। गौतम गणधर के समान बैठे थे और जो नगर हुवो जाणि सुरगिरि सवीयउ, इणविधि परतिउवारतिहु। निवासी भव्यजनों को धर्मामृत का पान करा रहे थे । पूरि वि हरी भणंति, जयवंतह हो पास पहु, जेण करी उनमें मल्लिदास नामक वणिक पुत्र ने कवि ठकुरसी से
सुख सांति ॥24॥
मेघमाला ब्रत कथा कहने की प्रेरणा की । उस समय कवि की तीसरी कृति 'जन चउबीसी' है, जिसमें चम्पावती नगरी में अन्य समाजों के साथ खंडेलवाल जैनियों के चौबीस तीर्थ करों का स्तवन किया गया जाति के अनेक घर थे जिनमें अजमेरा और पहाडया है । स्तवन सुन्दर है।
गौत्रादि के सज्जनों का निवास था, जो श्रावकोचित
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क्रियाओं का सदा अनुष्ठान करते रहते थे। वहाँ तोषक समझाया है । कवि ने लिखा है कि स्पर्शन इन्द्रिय नाम के एक विद्वान भी रहते थे । श्रावकजनों में उस प्रबल है, उसे वश में करना दुष्कर कार्य है किन्तु समय जीणा, ताल्ह, पारस, वाकुलीवाल, नेमिदास, जिन्होंने उसे वश में किया वे संसार में सुखी हएनाथसि और भूल्लण आदि श्रावकों ने मेघमाला ब्रत का पालन किया था । यहां हाथुव साह नाम के एक
वन तरुवर फल खातु फिर, पय पीवती सुछंद ।
परसण इन्द्रिय प्रेरियो, बह दुख सहई गयंद ।। महाजन भी रहते थे, उनके और भट्टारक प्रभाचन्द्र के उपदेश से कवि ने मेघमाला व्रत की विधि-विधान
कवि ने आगे पद्य में स्पर्शन इन्द्रिय की आसक्ति का उल्लेख करते हए संवत 1580 में प्रथम श्रावण
से होनेवाले दुःखों का वर्णन करने हुए लिखा है कि सुदी छठवीं के दिन उक्त कथा को पूर्ण किया था
कामातुर हाथी कागज की हथिनी के कारण गड्ढे में जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है :
पड़कर छुवा-तृषादि के घने दुःख सहता है, वह वहाँ से
भाग भी नहीं सकता। उसके दुःख का कौन कवि हाथुव साह महत्ति महंते, पहाचंद गुरुउवए संते।
वर्णन कर सकता है। कहाँ तो उसका सूछन्द वनभ्रमण, पणदह सइ जि असीते, आगल सावण मासि छट्ठिय वनों के उत्तम फल. और नदियों का निर्मल नीर, और
__मंगल ॥
कहाँ पराधीन हुए हाथी की प्राण घातक अंकुश की कवि की पांचवी कृति 'पंचेन्द्रिय की बेलि, है।
चोटें ? कवि ने स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र (कर्ण) इन पांचों इन्द्रियों के रूपक द्वारा जो शिक्षा या अनुभूति
'बहु दुख सहै गयंदो, तुम होय गई मति मंदो।
कागज के कुजर काजै, पडि खाडै स क्यों न भाजै॥ प्रदान की है । वह केवल सुन्दर ही नहीं है, किन्तु मानव जीवन को आदर्श बनाने के लिये पीयूषधारा
तिहि सहीय घणी तिथि भूखो, कवि कौन कहै तिस दूखो। है। कवि ने एक-एक इन्द्रिय के विषय में अच्छा विचार किया है और दृष्टान्तों द्वारा उसे पूष्ट किया
इस तरह स्पर्शन इन्द्रिय के कारण अनेक मानवों है। उस पर दृष्टि डालने से मानव जनों ने भी दुख भोगे हैं। रावण भी इसी कारण मृत्यु को से विरक्त होकर आत्मसाधना की ओर अग्रसर हो
प्राप्त हुआ, उसकी कथा प्रसिद्ध है । इसके वेग के कारण सकता है। कवि को अपनी इस कृति पर स्वाभिमान
मानव अन्धा हो जाता है; उसे हित-अहित का विवेक है। उसकी मान्यता है कि- 'करि वेलि सरस गुण
नहीं रहता । इसको वश में करने से लोक में यश और गाया चित चतुर मनुष समझाया' । कवि को अपनी
सुख मिलता है। सफलता पर दृढ़ विश्वास है। उसने स्पष्ट शब्दों में
रसना इन्द्रिय के वश हुआ मानव भी अपना लिख दिया है-'जिह्न मनु इन्द्रिय वसि कीया, तिह
संतुलन खो बैठता है, वह विवेक को ताक में रख देता हरत परत जग जीया' । जिस मानव ने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया है, उसने जगत को जीत लिया है।
है। रस के स्वाद में अनुरक्त हुआ अपने को भूलकर
स्वादु बन जाता है, जो अन्त में उसके मरण का कारण कवि ने प्रस्तुत वेलि में इन्द्रियों का विवेचन होता है। कवि ने मानव रूपी मछली के रूपक द्वारा जातियों के क्रम से किया है। प्रारम्भ में एक दोहे में इस सत्य की विशद व्यंजना की है। दोहे में रूपक की स्पर्शन इन्द्रिय का स्वरूप हाथी का उदाहरण देकर छटा देखते ही बनती है
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'केलि करता जनम जल, गाल्यो लोभ दिखालि ।। जब ऊग लो रवि विमलो, सरवर विकसइ लौ कमलो। मीन मूनिख संसार सरि, काढयो धीवर कालि ।। नीसर स्यों तव यह छोडे, रस लेस्यो आइ वहोडै ।।
चितवते ही गज आयौ, दिनकर उगवा न पायो । इस दोहे में जन्म को जल, मनुष्य को मछली, जल पेठो सखर पीयौ, नीसरत कमल खड लीयो । संसार को सरिता और काल को धीवर के रूप में देखना
गहि सूडि पावतल चंप्यो, अलिमास्रो धर हरि कंप्यौ। कितना सार्थक है। कवि ने आगे लिखा है
इह गंध विषम छै भारी, मनि देख हव्यो न विचारी ॥
'सो काढ़यो धीवर काल, तिण गाल्यो लोभ दिखाले।
घ्राण इन्द्रिय की शक्ति बड़ी प्रबल है। वह दूर से मथ नीर गहीर पईठो, दिठि जाय नहीं जहां दीठो ॥ ही छिपी हुई वस्तु का पता लगा लेती है। बिल्ली को इह रसना रसको घाल्यो, घलि आइ सवइ दुख साल्यो। दूध का पता जल्दी लग जाता है और भोरे को कमल इह रसना रस के नाई, नर मुस बाप गुरु भाई॥
का, चींटी को मिठाई का । सुरभित सुवास मिलने पर घर फेडइ वा पांडै वांटा, नित करइ कपट घण घाटा। हम प्रमदित होते हैं और बीभत्स गंध मिलने पर नाकमूख झूठ सांच नहि बोल, घर छोडि दिसावर डोल।।
मुह सिकोड़ लेते हैं और उससे दूर भागने का यत्न कल ऊँच नीच नहि लेखइ, मूरख माहि भलि लेखइ। करते हैं। जिस तरह गंध लोलुपी भ्रमर कमल की यह रस के लीये नर, कुण-कुण करम न कीये ॥ पराग का रस लेता हआ, उसमें इतना आसक्त हो जाता रसना रस विषय बिकारी, वसि होय न औगुण वागारौ। है कि कमल की कली से निकलना भूल जाता है। जिह इह विषय वसि कीयौ, तिहि मुनिख जनम फल दितास्त में का
दिनास्त में कमल कली सम्पूट हो गई । और रस की लीयौ ॥"
खुमारी में बेसुध हुआ भ्रमर अनेक रंगीन कल्पना
करता है--रातभर खूब रस पिऊँगा, जब प्रातःकाल इस पद्य में कवि ने रसना की आसक्ति से होने
सूर्योदय होगा, कमल कलियां विकसित होंगी. मैं उससे वाले परिणाम का दिग्दर्शन कराया है। रसना के जाल
निकल जाऊँगा । इसी विचार मुद्रा में एक हाथी सरोमें पड़कर लोग घर की पूंजी और प्रतिष्टा को धूलि
वर में जल पीने आया, और जल पीकर कमल को में मिला देते हैं और छल-कपट का सहारा लिये भले
उखाड़ लिया, और पग तले दाबकर उसे खा गया। मानुष इधर-उधर भटकते फिरते हैं। स्वाद के साम्राज्य
वेचारा भौंरा अपने प्राणों से हाथ धो बैठा । अस्तु भौंरे में कुल परम्परा और सत्य को ताक में रखकर दिसावरों
के मरण को दृष्टि में रखते हुए गंध का लोभ और में डोलते फिरते हैं । यह कितना चुभता हआ व्यंग है,
आसक्ति का परित्याग करना चाहिये । जिसमें कोई कांटा और चुभन नहीं है परन्तु बह हृदय को उद्वेलित कर देता है। अन्त में कवि ने वह भावना आँखों का काम देखना है । यह जीव नेत्रों द्वारा रूप व्यक्त की है कि जिसने रस विषय पर विजय प्राप्त देखने का आदी है। जब यह रूप-सौन्दर्य के अवलोकन करली, उसी का जीवन सफल है
में आसक्त हो जाता है, तब अपना आपा खो बैठता है।
आज संसार में रूपासक्ति के कारण कितना व्यभिचार "भ्रमर पइट्ठो कमल दिनि, घ्राण गन्धि रस रूढ । हो रहा है। पतंग ज्योति रूप को देखकर अपने प्राण
रेण पडया सो संकुच्यो, नीसर सक्यो न मूढ ॥ निछावर कर देता है, उसके अंग-प्रत्यंग विदग्ध हो उठते सोनीसर सवयो न मूढी, अति घ्राण गंधि रस गूढी। हैं। उसी तरह पुरुष भी नारी के अप्रतिम सौन्दर्य को मनचिते रयणि सवायौ, रस लेस्यों आज अघायो। निरखकर रूपासक्त हो अपना सर्वस्व खोकर प्राणों से
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भी हाथ धोने बैठता है। कवि ठकूरसी ने रूपक के सहारे ठीक ही कहा है--यह नाद. सुणंतो सांपो, बिल छोड़ इस तथ्य को प्राणवान बना दिया है-'दिठि देख तके नीसरची आपो'-उसी तरह यह मानव भी हिरण की पर गोरी' वाक्य में कितनी सरल व्यंजना की है। तरह मधुर नाद के वशवी होकर अपने प्राणों का परिइतना ही नहीं किन्तु कवि ने अहिल्या और तिलोत्तमा त्याग कर देता है। का उदाहरण देकर अपने कथन को पुष्ट किया है। इन
वेग पवन मन सारिसौ, वनवासै लय भीतु । पाँचों ही इन्द्रियों का स्वामी मन है, वह इन्द्रियों का सबल है, वही इनका प्रेरक है। यदि उसे वश मे कर
__वधिक बाण मार्यो हिरण, कांनि सुणतो गीतु ॥
धणु खेचि वधिक सर हणियो, रस वीधो बाण न गिणियो। लिया जाय तो इन्द्रियों की विषयों में प्रवृत्ति ही न हो
और वे निर्दोष बनी रहें; क्योंकि मन ही उन्हें कामासक्त इह नाद सुणतो सांपो, बिल छोड़ि नीसर्यो आपो॥" बनाता है । अतएव कवि ने ठीक ही कहा है - 'लोयणे
इस तरह कवि ने इस रचना में पांचों इन्द्रियों के दोस को नाहीं, मन प्ररे देखन जांहीं।' अतः विवेकी विषयासक्त पाँच प्रतीकों द्वारा मानव को उद्बोधित मनीषियों का कर्तव्य है कि वे मन को वश में करने का करते हए पांचों इन्द्रियों को बस में करने का निर्देश प्रयत्न करें। उससे सुख मिलता है
किया है । जो मानव इन पाँचों इन्द्रियों को वश में कर
लेता है, वह उभयलोक में सुख पाता है किन्तु जो इनके नेह अचागल तेलतसु, वानी वचन सुरंग । वशवती होकर इन्द्रियों में विषयासक्त रहता है, वह रूप ज्योति पर तिय दिखे, पडइति पुरुष पतंग ।। जल्दी अपनी जीवन लीला से हाथ धो बैठता है--
पडइति पुरुष पतंगो, दुख दीवै दहै ति अंगो । पडि होइ तहां जीवि पाखै, दिठि खंचि न मूरख राखै । अलि, गज, मीन, पतंग, मृग, एके के दुख दीद्ध । दिठि देख करै नर चोरी, दिठि देख तके पर गोरी।। जायत भौ-भौ दुख सहै, जिहि वसि पंच न कीद्ध ।। दिठि देख कर नर पायो, दिठि दीढा बधइ सतायो। दिठि देखि अहिल्या इंदो, तनु विकल गई मति मंदो ।
कवि की इस कृति का रचना काल संवत् 1585, दिठि देखि तिलोत्तम भूल्यो, तप तपो विधाता इल्यो। कातिक सुदी त्रयोदशी है। ए लोयण लंपट कूठा, वरज्या नहिं होय अपूठा ।
संवत पंदरे से पंचासे तेरिस सूद कार्तिक मासे । ज्यों वरजं त्यों रस वाया, रंग देखे आपण भाया ।।
जिहिमन इन्द्रिय वसि कीया, तिह हरत परत जग जीया।। लोयणे दोस को नाहीं, मन प्रेरै देखन जाही। जो नयण हु ते वसि राखै, सो हरत परत सुख वाखै ।।
कवि की छठवीं कृति नेमीसुर की वेलि है जिसमें
जैनियों के 22वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ और श्रोत्र इन्द्रिय का विषय शब्द की मधुरता, को. राजल का जीवन-परिचय अंकित किया गया है। रचना मलता, और प्रियता पर प्राण निछावर करना जीव का शिक्षाप्रद है। कवि ने इसमें रचना काल नहीं दिया। स्वभाव है। सगीत की स्वणिम लहरी मानव को अपनी
और आकृष्ट करती है। के की का रव बादलों की घटा कवि की सातवीं कृति 'चिन्तामणि जयमाल' है। फोड़कर सागर लहरा देता है। कूरंग वधिक का गीत यह 11 पद्यों की जयमाल है जिसमें पार्श्वनाथ के सुनकर प्राण घातक तीर से व्यथित हो प्राणों को छोड़ स्तवन रूप में मानव को संयमित जीवन व्यतीत देता है। सर्प भी नाद से मंत्रमुग्ध हो बिल से निकल- करने के लिये प्रेरित किया गया है, क्योंकि असंयम कर मनुष्य के आधीन हो जाता है, इसलिये कवि ने दुर्गणों की खान है। संयम के प्रभाव से ही शूली से
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सिंहासन और सप से फूलों की माला बन गई थी। इससे संयम की महत्ता स्पष्ट है । रचना संक्षिप्त होते हए भी रोचक है । अन्तिम पद्य निन्न प्रकार है
कवि की प्रायः सभी रचनाएँ पुरानी हिन्दी की है, उनमें अपभ्रंश भाषा के पुट के अतिरिक्त देशी भाषा के शब्दों की बहुलता है। इनका प्रकाशन व इन पर शोध कार्य होना चाहिये।
धत्ता- इय वर जयमाला गुणहँ विसाला,
घेल्ह सुतन ठाकुर कहए। जो णरु सुणि सिक्खवइ, दिण-दिण अंक्खइ, सो सुहुमण वंछि उलहए ॥
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महापंडित टोडरमल
डा. गौतम के शब्दों में "जैन हिन्दी गद्यकारों में टोडरमलजी का स्थान बहुत ऊंचा है। उन्होंने टीकाओं और स्वतन्त्र ग्रन्थों के रूप में दोनों प्रकार से गद्य-निर्माण का विराट उद्योग किया । टोडरमलजी की रचनाओं के सूक्ष्मानुशीलन से पता चलता है कि वे आध्यात्म और जैन धर्म के ही बेत्ता न थे, अपितु व्याकरण, दर्शन, साहित्य और सिद्धान्त के ज्ञाता थे । भाषा पर भी इनका अच्छा अधिकार था । "
ईसवी की अठारहवीं शती के अन्तिम दिनों में राजस्थान का गुलाबी नगर जयपुर जैनियों की काशी बन रहा था । आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी की
अगाव विद्वता और प्रतिभा से प्रभावित होकर संपूर्ण भारतवर्ष के विभिन्न प्रान्तों में संचालित तत्वगोष्ठियों और आध्यात्मिक मण्डलियों में चर्चित गूढ़तम शंका यें समाधानार्थ जयपुर भेजी जाती थीं और जयपुर से पंडितजी द्वारा समाधान पाकर तत्व- जिज्ञासु समाज अपने को कृतार्थ मानता था । साधर्मी भाई ब्र. रायमल ने अपनी "जीवन पत्रिका" में तत्कालीन जयपुर की धार्मिक स्थिति का वर्णन इस प्रकार किया है
० डा० हुकमचन्द भारिल्ल
" तहाँ निरन्तर हजारों पुरुष स्त्री देवलोक की सी नांई चैत्याले आय महापुण्य उपारजे, दीर्घकाल का संच्या पाप ताका क्षय करें । सो पचास भाई पूजा करने वारे पाईए, सौ पचास भाषा शास्त्र बांचने वारे पाईए, दस बीस संस्कृत बांचने वारे पाईए, सौ पचास जनें चरचा करने वारे पाईए और नित्यान का सभा के शास्त्र बांचने का व्याख्यान विषे पांच से सात सं पुरुष तीन से चारि से स्त्रीजन, सब मिली हजार बारा से पुरुष स्त्री शास्त्र का श्रवण करें बीस तीस वायां शास्त्राभ्यास करें, देश देश का प्रश्न इहाँ आवे तिनका समाधान होय उहां पहुंचे, इत्यादि अद्भुत महिमा चतुर्थकालवत या नम्र विषै जिनधर्म की प्रवति पाईए है । "2
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हिन्दी गद्य का विकास : डा० प्रेमप्रकाश गौतम, अनुसंधान प्रकाशन, आचार्य नगर कानपुर, पृ० 2. पंडित टोडरमल, व्यक्तित्व और कृतृत्व, परिशिष्ट 1, प्रकाशक : पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-4
बापूनगर, जयपुर ।
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यद्यपि सरस्वती माँ के वरद पूत्र का जीवन से-अधिक उपस्थिति के लिए उनके नाम का प्रयोग आध्यात्मिक साधनाओं से ओतप्रोत है, तथापि साहित्यिक आकर्षण के रूप में किया जाता था। गृहस्थ होने पर व सामाजिक क्षेत्र में भी उनका प्रदेय कम नहीं है। भी उनकी वृत्ति साधूता की प्रतीक थी। आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी उन दार्शनिक साहित्यकारों एवं क्रान्तिकारियों में से हैं जिन्होंने आध्यात्मिक
पंडितजी के पिता का नाम जोगीदासजी एवं माता क्षेत्र में आई हई विकृतियों का सार्थक व समर्थ खण्डन
का नाम रम्भादेवी था। वे जाति से खण्डेलवाल थे और ही नहीं किया. वरन् उन्हें जड़ से उखाड़ फेंका । उन्होंने
गोत्र था गोदीका, जिसे भौंसा व बड़जात्या भी कहते तत्कालीन प्रचलित साहित्य भाषा ब्रज में दार्शनिक
हैं। उनके वंशज ढोलाका भी कहलाते थे। वे विवाहित
थे पर उनकी पत्नि व ससुराल पक्षवालों का कहीं विषयों का विवेचक ऐसा गद्य प्रस्तुत किया जो उनके
कोई उल्लेख नहीं मिलता । उनके दो पुत्र थे-हरीचन्द्र पूर्व विरल है।
और गमानीराम । गुमानीराम भी उनके समान उच्च पंडितजी का समय ईस्वी का अठारहवीं सदी का कोटि के विद्वान और प्रभावक आध्यात्मिक प्रवक्ता मध्यकाल है। वह संक्रान्तिकालीन युग था। उस समय थे। उनके पास बड़े-बड़े विद्वान भी तत्व का रहस्य राजनीति में अस्थिरता सम्प्रदायों में तनाव, साहित्य समझने आते थे। पंडित देवीदास गोधा ने "सिद्धान्तसार में शृगार, धर्म के क्षेत्र में रूढ़िवाद, आर्थिक जीवन में संग्रह टीको प्रशस्ति" में इसका स्पष्ट उल्लेख किया विषमता एवं सामाजिक जीवन में आडंबर, ये सब है। पंडित टोडरमल जी की मृत्यु के उपरान्त वे पंडितजी अपनी चरम सीमा पर थे। उन सब से पडितजी को संघर्ष द्वारा संचालित धार्मिक क्रान्ति के सूत्रधार रहे । उनके करना था जो उन्होंने डटकर किया और प्राणों की नाम से एक पंथ भी चला जो 'गुमान पंथ' के नाम से बाजी लगाकर किया।
जाना जाता है।
पंडित टोडरमलजी गम्भीर प्रकृति के आध्यात्मिक पंडित टोडरमलजी की सामान्य शिक्षा जयपुर की महापुरुष थे । वे स्वभाव से सरल, संसार से उदास, धुन एक आध्यात्मिक (तेरापथ) शैली में हुई, जिसका बाद के धनी, निराभिमानी, विवेकी अध्ययनशील, प्रतिभावान में उन्होंने सफल संचलन भी किया। उनके पूर्व बादा बाह्याडंबर विरोधी, दृढ़ श्रद्धावी, क्रान्तिकारी, सिद्धान्तों बंशीधर जी उक्त शैली के संचालक थे । पंडित टोडरकी कीमत पर कभी न झुकनेवाले, आत्मानुभवी, मलजी गूढ तत्वों के तो स्वयंबद्ध ज्ञाता थे । 'लब्धिसार' लोकप्रिय प्रवचनकार, सिद्धान्त ग्रन्थों के सफल टीकाकार व "क्षपणासार" की संदृष्टियाँ आरम्भ करते हुए वे एवं परोपकारी महामानव थे।
लिखते हैं "शास्त्रविषलिख्या नाहीं और बतावने वाला
मिल्या नाहीं'। ..वे विनम्र दृढ़श्रद्धानी विद्वान एवं सरल स्वभावी थे। वे प्रामाणिक महापुरुष थे । तत्कालीन आध्यात्मिक संस्कृत, प्राकृत, और हिन्दी के अतिरिक्त उन्हें समाज में तत्वज्ञान संबंधी प्रकरणों में उनके कथन प्रमाण कन्नड़ भाषा का भी ज्ञान था। मूल रथों को वे कन्नड़ के तौर पर प्रस्तुत किए जाते थे। वे लोकप्रिय आध्या- लिपि में पढ़-लिख सकते थे । कन्नड़ भाषा और लिपि त्मिक प्रवक्ता थे। धार्मिक उत्सवों में जनता को अधिक का ज्ञान एवं अभ्यास भी उन्होंने स्वयं किया । वे कन्नड़
3. इन्द्रध्वज विधान महोत्सव पत्रिका ।
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भाषा के प्रथों पर व्याख्यान करते थे एवं उन्हें कन्नड़ प्राणदण्ड ही नहीं दिया बल्कि गंदगी में गड़वा दिप लिपि में लिख भी लेते थे। ब्र. रायमल ने लिखा है- था। यह भी कहा जाता है कि उन्हें हाथी के पैर के
र नीचे कुचलवा कर मारा गया था। "दक्षिण देश सं पांच सात और ग्रन्थ ताड़पत्रांविषे । कर्णाटी लिपि में लिख्या इहाँ पधारे हैं, ताक टोडरमलजी पंडित टोडरमलजी आध्यात्मिक साधक थे । उन्होंने बाँचे है । वाका यथार्थ व्याख्यान कर है, वा कर्णाटी जैन दर्शन और सिद्धान्तों का गहन अध्ययन ही नहीं लिपि में लिखते हैं।
किया अपितु उसे तत्कालीन जनभाषा में लिखा भी है।
उसमें उनका मुख्य उद्देश्य अपने दार्शनिक चिन्तन को . परम्परागत मान्यतानुसार उनकी आयु कुल 27
जन साधारण तक पहुंचाना था। पंडितजी ने प्राचीन वर्ष कही जाती रही, परन्तु उनकी साहित्यिक साधना,
' जैन ग्रथों की विस्तृत, गहन परन्तु सुबोध भाषा-टीकाएँ ज्ञान व प्राप्त उल्लेखों को देखते हुए मेरा यह निश्चित
लिखीं। इन भाषा-टीकाओं में कई विषयों पर बहुत मत है कि वे 47 वर्ष तक अवश्य जीवित रहे । इस
ही मौलिक विचार मिलते जो उनके स्वतंत्र चिन्तन के सम्बन्ध में साधर्मी भाई ब्र. रायमल द्वारा लिखित चार्चा
परिणाम थे। बाद में इन्हीं विचारों के आधार पर संग्रह ग्रन्थ की अलीगंज (एटा उ. प्र.) में प्राप्त हस्त
उन्होंने कतिपय मौलिक ग्रन्थों की रचना भी की। लिखित प्रति के पृष्ठ 173 का निम्नलिखित उल्लेख
उनमें से सात तो टीकाग्रन्थ हैं और पांच मौलिक विशेष दृष्टव्य है --
रचनाएँ । उनकी रचनाओं को दो भागों में बाँटा जा ____"बहरि बारा हजार त्रिलोकसारजी की टीका का।
सकता है :बारा हजार मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ उनके शास्त्रों के
(1) मौलिक रचनाएँ (2) व्याख्यात्मक रचनाएं। अनुस्वरि और आत्मानुशासनजी की टीका हजार तीन
मौलिक रचनाएँ गद्य और पद्य दोनों रूपों में हैं। यां तीनां ग्रन्थों की टीका भी टोडरमलजी सैंतालीस. गद्य रचनाएँ चार शैलियों में मिलती हैं :बस की आयु पूर्ण करि परलोक विषं गमन की।" .
(क) वर्णनात्मक शैली, (ख) पत्रात्मक शैली उनकी मृत्यु तिथि विक्रम संवत् 1823-24 के
(ग) यन्त्र रचनात्मक (चार्ट) शैली, (घ) विवेचनात्मक लगभग निश्चित है, अत: उनका जन्म विक्रम सवत् शैली। 1776-77 में होना चाहिए।
___ वर्णनात्मक शैली में समीसरण आदि का सरल - पंडित वखतराम शाह के अनुसार कुछ मतांध भाषा में सीधा वर्णन है । पंडितजी के पास जिज्ञासु लोगों द्वारा लगाये गए शिवपिण्डी के उखाड़ने के आरोप लोग दूर-दूर से अपनी शंकाएँ भेजते थे, उसके समाधान के सदर्भ में राजा द्वारा सभी श्रावकों को कैद कर में वह जो कुछ लिखते थे, वह लेखन पत्रात्मक शैली के लिया गया था और तेरापंथियों के गुरु महान धर्मात्मा, अन्तर्गत आता है। इसमें तर्क और अनुभूति का सुन्दर महापुरुष पडित टोडरमलजी को मृत्यु दण्ड दिया गया समन्वय है । इन पत्रों में एक पत्र बहुत महत्वपूर्ण है। था । दुष्टों के मड़काने में आकर राजा ने उन्हें मात्र सोलह पृष्ठीय यह पत्र ‘रहस्यपूर्ण चिट्ठी' के नाम से
4. बुद्धि विलास : बखतराम साह, छन्दं 1303, 13041 5. (क) वीरवाणी : टोडरमल अंक पृ० 285, 286 । (ख) हिन्दी साहित्य. द्वितीय खण्ड, १० 500 । ।
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आती हैं।
प्रसिद्ध है। यंत्र रचनात्मक शैली में चार्टी द्वारा विषय एक का अध्ययन दूसरे के अध्ययन में सहायक जानकर को स्पष्ट किया है। अर्थ संदृष्टि अधिकार इसी प्रकार उन्होंने उक्त चारों टीकाओं को मिलाकर एक कर की रचना है। विवेचनात्मक शैली में सैद्धान्तिक विषयों दिया तथा उसका नाम "सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका" रख को प्रश्नोत्तर पद्धति में विस्तृत विवेचन कर के युक्ति दिया। व उदाहरणों से स्पष्ट किया है। मोक्षमार्ग प्रकाशक इसी श्रेणी में आता है।
__ 'सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका' विवेचनात्मक गद्यशैली में
लिखी गई है। प्रारम्भ में इकहत्तर पृष्ठ की पीठिका है। पद्यात्मक रचनाएँ दो रूपों में उपलब्ध हैं : आज नवीन शैली में सम्पादित ग्रन्थों की भूमिका का (1) भक्ति परक, (2) प्रशस्ति परक । बड़ा महत्व माना जाता है। शैली के क्षेत्र में दो सौ
बीस वर्ष पूर्व लिखी गई सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका की पीठिका भक्तिपरक रचनाओं में गोम्मटसार पूजा एवं ग्रन्थों
आधुनिक भूमिका का आरंभिक रूप है. उसमें हलकाके आदि, मध्य और अन्त में मंगलाचरण के रूप में
पन कहीं भी देखने को नहीं मिलता है। इसके पढ़ने से प्राप्त फुटकर पद्यात्मक रचनाएं हैं। ग्रन्थों के अन्त में
ग्रंथ का पूरा हार्द खुल जाता है एवं इस ग्रन्थ के पढ़ने लिखी गई परिचयात्मक प्रशस्तियाँ प्रशस्तिपरक श्रेणी में
में आनेवाली पाठक की समस्त कठिनाइयाँ दूर हो
जाती हैं । हिन्दी आत्मकथा साहित्य में जो महत्व . पंडित टोडरमलजी की व्याख्यात्मक टीकाएँ दो महाकवि बनारसीदास के अर्द्ध कथानक को प्राप्त है, रूपों में पाई जाती हैं :
वही महत्व हिन्दी भूमिका साहित्य में 'सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका'
की पीठिका का है। 1. संस्कृत प्रन्थों की टीकाएँ। 2. प्राकृत ग्रन्थों की टीकाएँ।
मोक्षमार्ग प्रकाशक पंडित टोडरमलजी का एक संस्कृत ग्रन्थों की टीकाएं आत्मानुशासन भाषा
महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ का आधार कोई एक टीका और पुरुषार्थ सिद्धयुपाय भाषा टीका है । प्राकृत
ग्रन्थ न होकर सम्पूर्ण जैन साहित्य है । यह सम्पूर्ण ग्रन्थों में गौम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड,
जैन साहित्य को अपने में समेट लेने का एक सार्थक लब्धिसार-क्षपणासार और त्रिलोकसार हैं, जिनकी
प्रयत्न था, पर खेद है कि यह ग्रन्थराज पूर्ण न हो सका, भाषा-टीकाएँ उन्होंने लिखी हैं।
अन्यथा यह कहने में संकोच न होता कि यदि सम्पूर्ण
जैन बाङ्गमय कहीं एक जगह सरल, सुबोध और जनगोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड भाषा में देखना हो तो मोक्षमार्ग प्रकाशक को देख लब्धिसार और क्षपणसार की भाषा-टीकाएँ पंडित लीजिए। अपूर्ण होने पर भी यह अपनी अपूर्वता के टोडरमलजी ने अलग-अलग बनाई थीं, परन्तु उन चारों लिए प्रसिद्ध है । यह एक अत्यन्त लोकप्रिय ग्रन्थ है
मों को परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित एवं परस्पर जिसके कई संस्करण निकल चुके हैं एवं खड़ी बोली में
6. (क) बाबू ज्ञानचन्दजी जैन लाहौर, (वि० सं० 1954)।
(ड) सस्ती ग्रन्थमाला, दिल्ली (ख) जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई (सन् 1911)।
(च) वही। (ग) बाबू पन्नालालजी चौधरी, वाराणसी (वी. नि० सं० 2451)। (छ). वही। (घ) अनन्त कीर्ति ग्रन्थमाला, बम्बई (वी०नि० सं० 2463)। (ज) वही ।
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इसके अनुवाद भी कई बार प्रकाशित हो चुके हैं। यह पर जिस विषय को उठाया गया है उसके सम्बन्ध में उर्दू में भी छप चुका है। मराठी और गुजराती में उठनेवाली प्रत्येक शंका का समाधान प्रस्तुत करने का इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। अभी तक सब सफल प्रयास किया गया है। प्रतिपादन शैली में मनोकुल मिलाकर इसकी 51200 प्रतियां छप चुकी हैं। वैज्ञानिकता एवं मौलिकता पाई जाती है। प्रथम शंका इसके अतिरिक्त भारतवर्ष के दिगम्बर जैन मन्दिरों के के समाधान में द्वितीय शंका की उत्थानिका निहित शास्त्र भण्डारों में इस ग्रन्थराज की हजारों हस्तलिखित रहती हैं । ग्रन्थ को पढ़ते समय पाठक के हृदय में जो प्रतियाँ पाई जाती हैं । समूचे समाज में यह स्वाध्याय प्रश्न उपस्थित होता है उसे हम अगली पंक्ति में लिखा
और प्रवचन का लोकप्रिय ग्रन्थ है। आज भी पंडित पाते हैं। ग्रन्थ पढ़ते समय पाठक को आगे पढ़ने की टोडरमलजी दिगम्बर जैन समाज में सर्वाधिक पढ़े जाने- उत्सुकता बराबर बनी रहती है। वाले विद्वान हैं। मोक्षमार्ग प्रकाशक की मूल प्रति भी। उपलब्ध है। एवं उसके फोटोप्रिंट करा लिए गए हैं,
वाक्य रचना संक्षिप्त और विषय प्रतिपादन शैली जो जयपुर", बम्बई, दिल्ली और सोनमढ़ में
ताकिक एवं गम्भीर है। व्यर्थ का विस्तार उसमें नहीं सुरक्षित हैं। इस पर स्वतंत्र प्रवचनात्मक व्याख्याएँ
है पर विस्तार के संकोच में कोई विषय अस्पष्ट नहीं भी मिलती हैं।
रहा है। लेखक विषय का यथोचित विवेचन करता
हुआ आगे बढ़ने के लिए सर्वत्र ही आतुर रहा है । जहाँ । यह ग्रन्थ विवेचनात्मक गद्यशैली में लिखा गया कहीं भी विषय का विस्तार हुआ है वहाँ उत्तरोत्तर है। प्रश्नोत्तरों द्वारा विषय को बहुत गहराई से स्पष्ट नवीनता आती गई है। वह विषय विस्तार सांगोपांग किया गया है। इसका प्रतिपाद्य एक गम्भीर विषय है. विषय विवेचना की प्रेरणा से ही
7. (क) अ० भा० दिगम्बर जैन संघ, मथुरा (वी. नि० सं० 2005)। ... (ख) श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (वी० नि० सं० 2023)।
(वि० सं.. 2026)।
(वि० सं० 2030)। 8. दाताराम चेरिटेबिल ट्रस्ट, दरीबाकलां, दिल्ली (वि० सं० 2027) । 9. (क) श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़
(ख) महावीर ब्रहमचर्याश्रम, कारंजा।। . श्री दिगम्बर जैन मन्दिर, दीवान भदीचन्दजी, घीवालों का रास्ता, जयपुर । 11. वही, जयपुर। 12. श्री दिगम्बर जैन सीमंधर जिनालय, जवेरी बाजार, बम्बई ।
श्री दिगम्बर जैन मुमुक्ष मण्डल, श्री दिगम्बर जैन मन्दिर, धर्मपुरा, देहली। 14. श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़
आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी द्वारा किए गये प्रवचन, मोक्षमार्ग प्रकाशक की किरण नाम से दो भागों में श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़ से हिन्दी व गुजराती भाषा में कई बार प्रकाशित हो चुके हैं ।
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को उन्होंने छुआ उसमें "क्यों" का प्रश्नवाचक समाप्त हो गया है। शैली ऐसी अद्भुत है कि एक अपरिचित विषय भी सहज हृदयंगम हो जाता है ।
पंडितजी का सबसे बड़ा प्रदेय यह है कि उन्होंने संस्कृत, प्राकृत में निवन्ध आध्यात्मिक तत्वज्ञान को माया गद्य के माध्यम से व्यक्त किया और तत्व विवेचन में एक नई दृष्टि दी । यह नवीनता उनकी क्रान्तिकारी दृष्टि में है ।
टीकाकार होते हुए भी पंडितजी ने गद्यशैली का निर्माण किया है। डॉ. गौतम ने उन्हें गद्य निर्माता स्वीकार किया है 119 उनकी शैली दृष्टान्तयुक्त प्रश्नो तरमयी तथा सुगम है। वे ऐसी शैली अपनाते हैं जो न तो एकदम शास्त्रीय है और न आध्यात्मिक सिद्धियों और चमत्कारों से बोझिल उनकी इस शैली का सर्वोत्तम निर्वाह मोक्षमार्ग प्रकाशक में है। तत्कालीन स्थिति में गद्य को आध्यात्मिक चिन्तन का माध्यम बनाना बहुत सूझबूझ और श्रम का कार्य था । उनकी शैली में उनके चिंतक का चरित्र और तर्क का स्वभाव स्पष्ट अकता है। एक आध्यात्मिक लेखक होते हुए भी उनकी गद्यशैली में व्यक्तित्व का प्रक्षेप उनकी मौलिक विशेषता है ।
।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पंडित टोडरमल केवल न टीकाकार थे बल्कि आध्यात्म के मौलिक विचारक
भी थे। उनका यह चिन्तन समाज को तत्कालीन परि स्थितियों और बढ़ते हुए आध्यात्मिक शिथिलाचार के सन्दर्भ में एकदम सटीक है।
लोकभाषा काव्यशैली में 'रामचरित मानस' लिखकर महाकवि तुलसीदास ने जो काम किया, वही काम उनके दो सौ वर्ष बाद गद्य में जिन आध्यात्म को लेकर पंडित टोडरमलजी ने किया।
जगत के सभी भौतिक द्वन्द्वों से दूर रहनेवाले निरन्तर आत्मसाधना व साहित्य-साधनारत इस महामानव को जीवन की मध्यवय में ही माम्प्रदायिक विद्व ेश का शिकार होकर जीवन से हाथ धोना पड़ा ।
इनके व्यक्तित्व और कतृत्व के सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिए लेखक के शोध प्रबन्ध " पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कसूरव" का अध्ययन करना चाहिये । इनकी भाषा का नमूना इस प्रकार है :
16. प्रकाशक पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-4, बापूनगर, जयपुर-41 17. मोक्षमार्ग प्रक. नक, पृष्ठ-313 ।
"ता बहर कहा कहिए" जैसे रागादि मिटावने का श्रद्धान होय सो ही सम्यग्दर्शन है । बहुरि जैसे रागादि मिटवाने का जानना होय सोही सम्मयज्ञान है। बहुरि जैसे रागादि मिटे सो ही सम्यक्वारित्र है। ऐसा ही मोक्षमार्ग मानना योग्य है 118
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वैज्ञानिक सन्दर्भो में जैन धर्म
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सप्तम व
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"अणुरणोयान महतोमहीयान्"
यदि आप जल-स्कंध को तोड़ने का प्रयत्न करेंगे
तो जल, जल नहीं रहेगा । जल-स्कंध हाइड्रोजन और (इस धरा पर जो सूक्ष्म-से-सूक्ष्म वस्तु हमें दृष्टि
ऑक्सीजन के परमाणुओं से मिलकर बना है, यह गोचर होती है उससे भी और अधिक सूक्ष्म वस्तुओं का
परमाणु पृथक् हो जावेंगे। अस्तित्व है और जो बड़े-से-बड़ा भूखण्ड दृष्टिगोचर होता है उससे भी और अधिक बड़े भूखण्ड मौजूद हैं ।) तत्वार्थ अधिगम सूत्र के अध्याय 5 का 11वां सूत्र
' प्रो0 जी0 आर0 जैन है "नाणोः" जिसका अर्थ है कि अणु से छोटी और कोई वस्तु नहीं है और आगे चलकर सूत्र 27 में कहा अब हम हाइड्रोजन के परमाणु का विशेष वर्णन गया है "भेदादणः" जिसका अर्थ है कि जड़ वस्तुओं के करते हैं। परमाणु, चाहे वह किसी भी पदार्थ का हो, अनन्तवें भाग को अगु कहते हैं । उसका और विखण्डन पत्थर की गेंद की तरह ठोस नहीं है, वह अन्दर से नहीं हो सकता । जिसे हम साइन्स की भाषा में एटम खोखला है। परमाणु के केन्द्र में एक बीज है जिसे कहते हैं वह जैन दर्शन का अरणु नहीं है, परन्तु हम नाभि (न्युक्लीयस) कहते हैं और उसके चारों ओर आपको पहले आधुनिक एटम का ही वृत्तान्त सुनाते हैं- पर्याप्त दूरी पर ऋण-विद्युत (इलेक्ट्रोन) के कण ठीक
परमाणु और लोक ( ATOM AND THE UNIVERCE )
__ यदि हम जल की एक बूंद लें और उसके खण्ड उसी प्रकार चक्कर काटते रहते हैं जिस प्रकार सूर्य के करते चले जायें तो सबसे अन्तिम छोटे से छोटा खण्ड चारों ओर नियत परिधियों में ग्रह चक्कर लगाते हैं जिसमें जल के सभी गुण विद्यमान हों उस छोटे जल- अथवा जिस प्रकार भगवान कृष्ण की रासलीला में कण को जल स्कंध कहते हैं । तीस ग्राम जल में इन गोपियाँ कृष्ण के चारों ओर चक्कर लगाया करती थीं। स्कंधों की संख्या इतनी अधिक है कि यदि संसार के यह परमारण संसार के प्रत्येक पदार्थ में असीम संख्या में समस्त प्राणी-स्त्री पुरुष, बाल और वृद्ध-उन स्कंधों को व्याप्त हैं; उदाहरणस्वरूप समुद्र के जल की एक बूंद गिनना प्रारम्भ करदें और रात-दिन गिनते ही रहें और में स्वर्ण के 50 अरब परमाणु पाये जाते हैं। यह बात बहुत जल्दी-जल्दी 1 से किड में 5 की गति से गिनते रहें सुनकर तुम तुरन्त बाल्टी लेकर बम्बई की ओर न दौड़ तो स्कंधों की पूरी संख्या को गिनने में 40 लाख वर्ष पड़ना, क्योंकि परमारणु बहुत ही सूक्ष्म वस्तु है। समुद्र लगेंगे । इससे स्कंधों की सूक्ष्मता का भी आभास मिलता के 60 टन जल में से यदि सोने के सभी परमाणु
एकत्रित करने में आप सफल भी हो गये तो, तब भी
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उन परमाणुओं का तौल चौथाई रत्ती भी न बैठेगा । परमाणु की सूक्ष्मता का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि हाइड्रोजन के 20 करोड़ परमाणु यदि एक पंक्ति में रख दिये जायें तो पंक्ति की लम्बाई केवल 1 इंच होगी और 40 हजार शंख परमातुओं का तौल केवल 1 खसखस के दाने के बराबर होगा । इतना छोटा होने पर भी यह अन्दर से पोला है । जितने स्थान में परमाणु की नाभि स्थित है उससे 1 लाख गुना दूरी पर इलेक्ट्रोन चक्कर लगा रहे हैं। यूं समझिये कि जैसे एक 30 फीट व्यास के गोले के केन्द्र में एक आलपिन की नोक रखी हो । ठीक उसी प्रकार परमाणु के मध्य में उसकी नाभि स्थित है । नाभि ऐसे पदार्थ से बनी है जिसके 1 घन सेंटीमीटर की तौल 24 करोड़ टन है जबकि 1 घन सेंटीमीटर सोने की तौल केवल डेढ़ तोला ही होती है । परमाणुओं के अन्दर की पोल को देखकर ही एक वैज्ञानिक ने कहा था कि "मनुष्य का शरीर जिन परमाणुओं से बना है उन परमाणुओं की अन्दर की पोल को यदि समाप्त कर दिया जाय और सब इलेक्ट्रोन प्रोटोन एक स्थान पर एकत्रित कर लिये जायें तो मनुष्य का शरीर केवल इतना सा रह जायेगा कि नंगी आँख से तो नहीं किन्तु शायद सूक्ष्मदर्शी लेंस से दिखाई दे जाय ।" सोचिये तो सही, इस खोखलेपन पर भी यह भोला मनुष्य अपने रूप और शक्ति के अहंकार में चूर है ।
जब परमाणुओं के बीच की पोल निकल जाती है और केवल नाभियाँ ही एक स्थान पर एकत्रित हो जाती हैं तो उस भारी पदार्थ की उत्पत्ति होती है जो लुब्धक ( सीरियस) तारे के प्रकाशहीन साथी तारे में पाया जाता है और जो प्लैटिनम ने 2000 गुना अधिक भारी है, इसे 'न्युक्लियर मैटर' कहते हैं और भारतीय भाषा में 'वज्र' कह सकते हैं। इस प्रकाशहीन तारे का व्यास सूर्य के व्यास का 30 वां भाग है किन्तु इसकी तौल सूर्य की तौल का तीन-चौथाई है। हिसाब लगाने से पता चलता है कि जिस पदार्थ का यह बना हुआ है
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यदि आप उसका इतना बड़ा टुकड़ा तोड़ लें जो आपकी जाकट की जेब में समा जाय तो उसका वजन 1 टन से भी अधिक होगा ।
जो धनुष भगवान राम ने तोड़ा था, बाल्मीकि रामायण के अनुसार वह दधीचि ऋषि की वज्रमयी हड्डियों का बना हुआ था और केवल 10 फीट लम्बा था । सम्भवत: इसी कारण वह इतना भारी था कि रावण जैसे महायोद्वा भी उसे हिला न सके ।
परमाणु की नाभि के चारों ओर चक्कर काटने वाले इलेक्ट्रोन 1 इंच लम्बाई में 50 खरब समा जाते. हैं और 8 करोड़ शंख इलेक्ट्रोनों की तौल केवल पोस्त के दाने के बराबर होती है । यह इलेक्ट्रोन 1300 मील प्रति सेकंड की गति से घूमते रहते हैं, जबकि बन्दूक की गोली 1 सेकिड में आधा मील ही जाती है ।
परमाणुओं की नाभि में न केवल प्रोटोन ही पाये जाते हैं अपितु वहां न्यूट्रोन नाम का एक और कण भी होता है | न्यूट्रोन नाम के कण, उदासीन कण होने के कारण, परमाणुओं के वक्ष को भेदने में बड़े कुशल होते हैं। इनके सम्बन्ध में बिहारी की यह उक्ति ठीक बैठती है कि 'देखन में छोटे लगें, करें घाव गम्भीर ।' कई-कई फीट मोटे शीशे की चादरों के पार निकल जाने की इनमें क्षमता है, जिन्हें एक्स किरण भी नहीं पार कर पातीं । इन्हीं न्यूट्रोन कणों की सहायता से एटम बम का विस्फोट होता है। जिस वायु से हम सांस लेते हैं उसमें भी न्यूट्रोन विद्यमान हैं। वायु के 1 अरब परमाणुओं में केवल 5 न्यूट्रोन कण हैं । यदि मनुष्य के शरीर में यूरेनियम ( वह धातु जिसका एटम बम बनता है) होता तो सांस के साथ जानेवाले यह न्यूट्रोन हमारे शरीर का उसी प्रकार विस्फोट कर देते, जैसे एटम बम में होता है । परमपिता परमात्मा की लीला देखिये कि उसने मनुष्य का शरीर बनाने में उस मिट्टी का प्रयोग किया है जिसमें लोहा, तांबा आदि धातुएं तो थीं, किन्तु यूरेनियम नहीं था ।
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भिन्न-भिन्न तत्वों के परमाणु 92 प्रकार के हैं । ये 1 मन भारी पानी पृथक किया जाता है। निरा भारी सब प्रोटोन, न्यूट्रोन और इलेक्ट्रोन की भिन्न-भिन्न पानी विष है । उसके पीने से मनुष्य मर जाता है । संख्याओं से मिलकर बने हैं । अर्थात् इनमें कोई मौलिक किन्तु जिस प्रकार मनुष्य कुचला, संखिया आदि विष अन्तर नहीं है। दीवाली के त्यौहार पर बिकनेवाले अत्यन्त अल्प मात्रा में ताकत के लिये व्यवहार करते हैं खांड के खिलौनों के समान कोई बन्दर दिखता है और उसी प्रकार प्रकृति ने भारी जल जैसे विष को अल्प कोई रानी; किन्तु वे हैं सब एक ही खांड के बने हुये। मात्रा में साधारण जल में मिला दिया है---उन अभागे रानी के खिलौने को गलाकर बन्दर बनाया जा सकता है। व्यक्तियों के लिये जो जीवन पर्यन्त निर्धनता अपने भाग्य
में लिखाकर लाये हैं। यही कारण है असाधारण परिहाइड्रोजन परमाणु के केन्द्र में 1 प्रोटोन है और
स्थितियों में मनुष्य इस मारी जल की चन्द बूंदों के उसके चारों ओर एक ही इलेक्ट्रोन घूमता है । हीलियम
सहारे कई-कई दिन भूखे काट देते हैं। विधि का विधान गैस के परमाणु के केन्द्र में 2 प्रोटोन और 2 न्यूट्रोन हैं
विलक्षण है। और 2 इलेक्ट्रोन बाहर की परिधि मे घूमते हैं । लीथियम के केन्द्र में 3 प्रोटोन और 4 न्यूट्रोन हैं और उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि सोना, 3 इलेक्ट्रोन बाहर की परिधि में घूमते हैं । इसी प्रकार चाँदी, लोहा आदि जो भिन्न-भिन्न पदार्थ इस धरा पर यह संख्या बढ़ती चली गई है । तांबे के परमाणु में 29, दृष्टिगोचर हो रहे हैं, इन सबका निर्माण एक ही प्रकार चांदी में 47, सोने में 79, पार में 80 और सबसे की ईट-चूने से हुआ है । उनका नाम है-प्रोटोन, न्यूट्रोन भारी परमाणु रेनियम में 92 प्रोटोन होते हैं। और इलेक्ट्रोन ।
प्रोटोन और न्यूट्रोन की तौल लगभग बराबर है। पुद्गल-संसार की रचना में दो द्रव्यों का प्रमुख हल्के हाइड्रोजन के परमाणु केन्द्र में केवल 1 प्रोटोन है, भाग है-पहला जीव (चेतन) या आत्मा और दूसरे को उस परमाणु की तौल 1 है। भारी हाइड्रोजन के परमाणु प्रकृति (जड़) या अचेतन कहा जाता है । जैनाचार्यों ने की तौल 2 है, उसके केन्द्र में 1 प्रोटोन और 1 न्यूट्रोन प्रकृति (जड़) को पुद्गल के नाम से पुकारा है और हैं। हीलियम के परमाणु की तौल 4 है इसलिये उसमें पुद्गल शब्द की व्याख्या उसके नाम के अनुरूप ही 2 प्रोटोन और 2 न्यूट्रोन हैं । तांबे के परमाणु की तौल . उन्होंने की है 'पूरयन्ति गलयन्ति इति पुद्गलाः' अर्थात् 65 है अतएव उसमें 29 प्रोटोन और 36 स्ट्रोन हैं। पुद्गल उसे कहते हैं जिसमें पूरण और गलन क्रियाओं पारे के परमाणु की तौल 200 है और उसमें 80 के द्वारा नई पर्यायों का प्रादुर्भाव होता है । विज्ञान की प्रोटोन और 120 न्यूट्रोन हैं। और यूरेनियम के परमाणु
भाषा में इसे फ्यूजन और फिशन या इन्टीग्रेशन और की तौल 238 है और उसके परमाणु केन्द्र में 92 डिसइन्टीग्रेशन कहते हैं । एटम बम को फिशन बम और प्रोटोन और 146 न्यूट्रोन हैं ।
हाइड्रोजन बम को फ्यूजन बम इसी कारण कहा गया
है। एटम बम में एटम के ट्रकड़े-टुकड़े हो जाते हैं और जिस भारी हाइड्रोजन का अभी उल्लेख किया है तब शक्ति उत्पन्न होती है और हाइड्रोजन बम में एटम उससे 'भारी जल' का निर्माण हुआ है जिस प्रकार
परस्पर मिलते हैं तब उसमें शक्ति का प्रादुर्भाव हल्के हाइड्रोजन से नित्यप्रति व्यवहार में आनेवाले जल
होता है। का निर्माण हुआ है। यह भारी पानी प्रकृति ने हल्के पानी में ही मिला रखा है-6 सेर पानी में केवल 20 'तत्वार्थ सूत्र' के पंचम अध्याय सूत्र नं0 33 में बंद । लगभग 13000 टन पानी में से विद्युत द्वारा कहा गया है-'ग्निग्धरुक्षत्वाबंध:' अर्थात् स्निग्ध और
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• रुक्षत्व गुणों के कारण एटम एक सूत्र में बँधा रहता है । पूज्यपाद स्वामी ने 'सर्वार्थसिद्धि' टीका में एक स्थान पर लिखा है 'स्निग्धरुक्ष गुणनिमित्तो विद्युत्' अर्थात् बादलों में स्निग्ध और रुक्ष गुणों के कारण विद्युत की उत्पत्ति होती है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि स्निग्ध का अर्थ चिकना और रुक्ष का अर्थ खुरदरा नहीं है । ये दोनों शब्द वास्तव में विशेष टेक्निकल अर्थों में प्रयोग किये गये हैं । जिस तरह एक अनपढ़ मोटर ड्रायवर बैटरी के एक तार को ठंडा और दूसरे तार को गरम कहता है ( यद्यपि उनमें से कोई तार न ठंडा होता है और न गरम) और जिन्हें विज्ञान की भाषा में पोजिटिव व निगेटिव कहते हैं, ठीक उसी तरह जैन धर्म में स्निग्ध और रुक्ष शब्दों का प्रयोग किया गया है । डा० बी. एन. सील ने अपनी कैम्ब्रिज से प्रकाशित पुस्तक 'पोजि टिव साइन्सिज ऑफ एनशियन्ट हिन्दूज' में स्पष्ट लिखा है कि जैनाचार्यों को यह बात मालुम थी कि भिन्न-भिन्न वस्तुओं को आपस में रगड़ने से पोजिटिव और नेगेटिव बिजली उत्पन्न की जा सकती है । इन सब बातों के समक्ष, इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता कि स्निग्ध का अर्थ पोजिटिव और रुक्ष का अर्थ निगेटिव विद्युत् है । एटम की रचना का जो वैज्ञानिक स्वरूप हमने ऊपर खींचा है उससे स्पष्ट है कि संसार के सभी परमाणु, चाहे वह किसी भी पदार्थ के हों, प्रोटोन ( स्निग्ध कण ) और न्यूट्रोन ( उदासीन कण ) भिन्न-भिन्न संख्याओं में इनके मिलने से बने हैं। इस बात से 'स्निग्धरुक्षात्वाद्बंध : ' सूत्र की प्रामाणिकता सम्पूर्ण रूप से सिद्ध हो जाती है । जब स्निग्ध अथवा रुक्ष कणों की संख्या बढ़ानी पड़ती है तो उसे 'पूरण' क्रिया कहते हैं और जब घटानी पड़ती है तब उसे 'गलन' क्रिया कहते हैं । अतः इसमें कोई सन्देह नहीं कि आजकल के वैज्ञानिक विश्लेषण के ठीक अनुकूल जैनाचार्यों ने इस विलक्षण 'पुद्गल' शब्द का प्रयोग अपने ग्रन्थों में बहुत वर्षों पहले किया था।
जिसे हम गलन क्रिया कहते हैं यूरेनियम और रेडियम नाम के पदार्थों में स्वतः ही स्वाभाविक रूप से होती रहती है और नये पदार्थों का जन्म होता है । यूरेनियम की एक डली में अल्फा, बीटा, गामा किरणें अबाध गति से निरन्तर निकलती रहती हैं और लगभग 2 अरब वर्षों में यूरेनियम की आधी डली रेडियम में परिवर्तित हो जाती है। यही गलन की प्रतिक्रिया रेडियम में भी रात-दिन हुआ करती है । रेडियम की एक डली का आधा भाग लगभग 6 हजार वर्षों में सीसे ( लैड) में परिवर्तित हो जाता है ।
वैज्ञानिकों ने इसी प्रक्रिया को कृत्रिम रूप से प्रयोगशालाओं में उत्पन्न किया है । इस क्रिया में अतिशीघ्रगामी न्यूट्रोन कणों को गोली के रूप में प्रयोग किया जाता है । इन गोलियों से जब किसी परमार पर प्रहार किया जाता है तब उस परमातु का हृदय विदीर्ण हो जाता है । परमाणु का रूपान्तर हो जाता है। इस प्रकार से वैज्ञानिकों ने नाइड्रोजन को ऑक्सीजन में, सोडियम को मॅग्नेशियम में, मैग्नेशियम को एल्यूमीनियम में, एल्यूमीनियम को सिलीकन में, सिलीकन को फास. फोरस में, बैरीलियम को कार्बन में बदल कर दिखा दिया है । इससे पुद्गल शब्द की व्याख्या पूर्ण रूप से सत्य सिद्ध होती है । सबसे आश्चर्यजनक घटना पारे को सोने में परिवर्तित करने की है । पारे का अणु भार 200 है और प्रोटोन का भार 1 है । जब गरे के परमाणु पर प्रोटोन का आघात होता है तो पूरण क्रिया के द्वारा 201 भार का परमाणु बना जाता है। अब इस परमाणु पर न्यूट्रोन की गोली द्वारा प्रहार किया जाता है तो उसमें से गलित होकर एक अल्फा कण बाहर निकल आता है। अल्फा कण का भार 4 है। 201 में से 4 कम हुये तो 197 भार का परमाणु रह जाता है | सोने का अस्तु भार 197 है । दूसरे शब्दों में पूरण और गलन की प्रतिक्रियाओं के द्वारा पारे का परमाणु सोना बन गया । ( सोना बनाने की यह विधि बहुत महंगी पड़ती
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है)। यहां पर हमें याद आता है कि नवीं शताब्दी में नालन्दा ( बिहार ) विश्वविद्यालय के एक विद्यार्थी नागार्जुन ने यह घोषणा की थी कि मैं पारे का सोना बनाकर दुनियां की दरिद्रता को दूर कर दूंगा । उसकी भविष्यवाणी तो पूरी हो गई, किन्तु दरिद्रता का विनाश अभी बहुत दूर है ।
विगत 10 वर्षों से परमाणु की एक और तस्वीर विज्ञान जगत में उभर रही है, जिसे परमाणु का क्वार्क मॉडल कहा जा रहा है। इस क्वार्क की अमेरिका और अन्य देशों में हर तरफ बड़ी खोज हो रही है वायु मण्डल की ऊँचाइयों में और समुद्र की गहराइयों में; किन्तु लाखों आदमियों के अथक प्रयास के बावजूद अभी तक यह मिला नहीं है । किन्हीं सैद्धान्तिक कारणों से वैज्ञानिक इस बात से सहमत नहीं हैं कि प्रोटोन, न्यूट्रोन, इलेक्ट्रोन अस्तु के मूलभूत तत्व हैं। उनके विचार में यह तीनों किसी ऐसे पदार्थ के संयोग से बने हैं जिसे उनने वार्क का नाम दिया है । आगे-पीछे जब इस क्वार्क की खोज हो जायेगी तो यही क्वार्क जैनों का पुद्गल होगा । कितनी विलक्षण बात है कि वैज्ञानिकों ने क्वार्क को षट्कोणी माना है और जैनों ने अपने पुद्गल परमाणु को 'गोमट्टसार' में षट्कोणी कहा है। हमें अपने पूर्व आचार्यों के इस ज्ञान पर गर्व है। उन्होंने अज से हजारों वर्ष पूर्व यह बात बतलाई थी कि ताप, प्रकाश और विद्युत जो शक्ति के रूप हैं, पुद्गल का स्थूल सूक्ष्म रूप है । यही बात आगे चलकर सन् 1905 में संसार के महान वैज्ञानिक आइन्सटाइन ने बताई। उन्होंने इतना बतलाया कि 3000 टन पत्थर के कोयले को जलाने से जितनी उष्मा उत्पन्न होती है, यदि उसे एकत्रित करके तौलना सम्भव हो तो उसका तौल 1 ग्राम होगा । परमाणु की कहानी यहां समाप्त होती है ।
जैन मान्यता के अनुसार यह लोक छः द्रव्वों का समुदाय है, अर्थात् यह ब्रह्माण्ड छः पदार्थों से बना है - - जीव, अजीव (मैटर एण्ड एनर्जी), धर्म (मीडियम
ऑफ मोशन) वह माध्यम जिसमें होकर प्रकाश की लहरें एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचती हैं, अधर्म ( मीडियम ऑफ रेस्ट) यानी फील्ड ऑफ फोर्स, आकाश और काल (टाइम) | जैन ग्रंथों में जहां-जहां धर्म द्रव्य का उल्लेख आया है वहां धर्म शब्द का एक विशेष पारिभाषिक अर्थ में प्रयोग किया गया है। यहां धर्म का अर्थ न तो कर्त्तव्य है और न उसका अभिप्राय सत्य, अहिंसा आदि सत्कार्यों से है । 'धर्म' शब्द का अर्थ है एक अदृश्य, अरूपी (नोन मटीरियल) माध्यम जिसमें होकर जीवादि भिन्न-भिन्न प्रकार के पदार्थ एवं ऊर्जा गति करते हैं । यदि हमारे और तारों के बोच में यह माध्यम नहीं होता तो वहाँ से आनेवाला प्रकाश, जो लहरों के रूप में धर्म द्रव्य के माध्यम से हम तक पहुँचता है, वह नहीं आ सकता था और ये सब तारे अदृश्य हो जाते ।
यह माध्यम विश्व के कोने-कोने में और परमाणु के भीतर भरा पड़ा है । यह द्रव्य नहीं होता तो ब्रह्माण्ड में कहीं भी गति नजर नहीं आती । यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है कि किसी भी वस्तु के स्थायित्व के लिये उसकी शक्ति अविचल रहनी चाहिये । यदि उसकी शक्ति शनैः शनैः नष्ट होती जाय या बिखरती जाय तो कालान्तर में उस वस्तु का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। इस ब्रह्माण्ड को कुछ लोग तो ऐसा मानते हैं कि इसका निर्माण आज से कुछ अरब वर्ष पहले किसी निश्चित तिथि पर हुआ। दूसरी मान्यता यह है कि यह ब्रह्माण्ड अनादि काल से ऐसा ही चला आ रहा है और ऐसा ही चलता रहेगा। आइन्सटाइन का विश्व सम्बन्धी बेलन (सिलिण्डर ) सिद्धान्त में इसी प्रकार की मान्यता है । इस सिद्धान्त के अनुसार यह ब्रह्माण्ड तीन दिशाओं ( लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई) में सिलिंडर की तरह सीमित है किन्तु सीमा की दिशा में अनन्त है । दूसरे शब्दों में हमारा ब्रह्माण्ड अनन्त काल से एक सीमित पिण्ड की भांति विद्यमान है ।
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वैसे तो अगर हम यह सोचने लगे कि ये आसमान और लोक अनादि काल तक स्थायी बना रहता है। कितना ऊंचा होगा, तो उसकी सीमा की कोई कल्पना यदि विश्व की शक्ति शनैः शनैः अनन्त आकाश में फैल नहीं की जा सकती। हमारा मन कभी यह मानने को जाती तो एक दिन इस लोक का अस्तित्व ही मिट तैयार नहीं होगा कि कोई ऐसा स्थान भी है जिसके आगे जाता । इसी स्थायित्व को कायम रखने के लिये आकाश नहीं है। जैन शास्त्रों में भी विश्व को अनादि आइन्सटाइन ने कर्वेचर ऑफ स्पेस की कल्पना की। अनन्त बताया है और उसके दो विभाग कर दिये हैं- इस मान्यता के अनुसार आकाश के जिस भाग में जितना एक का नाम 'लोक' रखा है. जिसमें सूर्य, चन्द्रमा अधिक पुद्गल द्रव्य (मैटर) बिद्यमान रहता है उस स्थान तारे आदि सभी पदार्थ गभित हैं और इसका आयतन पर आकाश उतना ही अधिक गोल हो जाता है। इस 343 घनरज्जू है। आइन्सटाइन ने भी लोक का कारण ब्रह्माण्ड की सीमायें गोलाईदार हैं । शक्ति जब आयतन घन-मीलों में दिया है। एक मील लम्बा, एक ब्रह्माण्ड की गोल सीमाओं से टकराती है तब उसका मील चौडा और एक मील ऊंचे आकाश खण्ड को एक परावर्तन हो जाता है और वह ब्रह्माण्ड से बाहर नहीं घनमील कहते हैं। इसी प्रकार एक रज्जु लम्बी, एक निकल पाती । इस प्रकार ब्रह्माण्ड की शक्ति अक्षुण्ण रज्जु चौड़ी और एक रज्जु ऊचे आकाश खण्ड को एक बनी रहती है और इस तरह वह अनन्त काल तक घनरज्जु कहते हैं आइन्सटाइन ने ब्रह्माण्ड का आयतन चलती रहती है।। 1037x1063 घनमील वताया है अर्थात् 1037 लिवकर उसके आगे 63 बिन्दु लगाने से जो संख्या
पुद्गल की विद्यमानता से आकाश का गोल हो बनेगी (कुल अंकों की संख्या 67) उतने घनमील विश्व
जतन धनमोल विश्व जाना एक ऐसे लोहे की गोली है जिसे निगलना आसान का आयतन है। इसको 343 के साथ समीकरण करने
नहीं। आइन्सटाइन ने इस ब्रह्माण्ड को अनन्त काल पर एक रज्जु 15 हजार शंख मील के बराबर तक स्थायी रूप देने के लिये ऐसी अनूठी कल्पना की। होता है।
दूसरी ओर जैनाचार्यों ने इस मसले को यू कहकर ।।
हल कर दिया कि जिस माध्यम में होकर वस्तुओं, ब्रह्माण्ड के दूसरे भाग को 'अलोक' कहा गया है। जीवों और शक्ति का गमन होता है, लोक से परे वह लोक से परे सीमा के बन्धनों से रहित यह अलोकाकाश हैं ही नहीं। यह बड़ी युत्तिसंगत और बुद्धिगम्य बात है। लोक को चारों ओर से घेरे हये है। यहां आकाश के जिस प्रकार जल के अभाव में कोई मछली तालाब की सिवाय जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल किसी सीमा से बाहर नहीं जा सकती, उसी प्रकार लोक से द्रव्य का अस्तित्व नहीं है।
अलोक में शक्ति का गमन ईथर के अभाव के कारण नहीं
हो सकता । जैन शास्त्रों का धर्म द्रव्य मैटर या ईथर लोक और अलोक के बीच की सीमा का निर्धारण के अभाव के कारण नहीं हो सकता। जैन शास्त्रों का करनेवाला धर्म द्रव्य अर्थात 'ईथर' है। चूकि लोक धर्म दृध्य मैटर या एनर्जी नहीं है, किन्त साइन्सवाले की सीमा से परे ईथर का अभाव है इस कारण लोक ईथर को एक सूक्ष्म पोद्गलिक माध्यम मानते आ में विद्यमान कोई भी जीव या पदार्थ अपने सूक्ष्म-से- रहे हैं और अनेकानेक प्रयोगों द्वारा उसके पौद्गलिक सक्ष्म रूप में अर्थात एनर्जी के रूप में भी लोक की अस्तित्व को सिद्ध करने की चेष्टा कर रहे हैं, किन्तु सोमा से बाहर नहीं जा सकता । इसका अनिवार्य वे आज तक इस दिशा में सफल नहीं हो पाये हैं। परिणाम यह होता है कि विश्व के समस्त पदार्थ और हमारी दृष्टि से इसका एकमात्र कारण यह है कि ईथर उसकी सम्पूर्ण शक्ति लोक के बाहर नहीं बिखर सकती अरूपी पदार्थ है । कहीं तो वैज्ञानिकों ने ईथर को हवा
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से भी पतला माना है और कहीं स्टील से भी अधिक की आयु 4 अरब 60 करोड़ वर्ष निश्चित होती है। मजबूत । ऐसे परस्पर विरोधी गुण वैज्ञानिकों का ईथर सृष्टि की आयु से अभिप्राय यह है कि आज जिस रूप में पाये जाते हैं और चूंकि प्रयोगों के द्वारा वे उसके में हम सृष्टि को देख रहे हैं वह रूप लगभग साढ़े चार अस्तित्व को सिद्ध नहीं कर सके हैं इसलिये आवश्यकता- अरब वर्ष पुराना है । नुसार वे कभी उसके अस्तित्व को स्वीकार कर लेते हैं और कभी इन्कार । वास्तविकता यही है जो जैनागम
सृष्टि की उत्पत्ति किस प्रकार हुई ? विज्ञान के में बतलाई गई है कि ईथर एक अरूपी द्रव्य है जो क्षेत्र में इस सम्बन्ध में मुख्य दो सिद्धान्त हैं-(1) ब्रह्माण्ड के प्रत्येक कण में समाया हआ है और जिसमें महान आकस्मिक विस्फोट का सिद्धान्त, और (2) सतत से होकर जीव और पुदगल का गमन होता है। यह उत्पत्ति का सिद्धान्त । ईथर द्रव्य प्रेरणात्मक नहीं है, यानी किसी जीव या
महान आकस्मिक विस्फोट का सिद्धान्त जिसे सन पुद्गल को चलने की प्रेरणा नहीं करता वरन् स्वयं
1922 में रूसी वैज्ञानिक डा० फैडमैन ने जन्म दिया, चलनेवाले जीव या पुदगल की गति में सहायक
हिन्दुओं की कल्पना से मेल खाता है । जिसके अनुसार जाता है, जैसे ऐंजिन के चलने में रेल की पटरी (लाइनें)
ब्रह्माण्ड का जन्म हिरण्य गर्भ (सोने का अण्डा) से सहायक हैं । इस द्रव्य के बिना किसी द्रव्य की गति
हुआ। सोना धातुओं में सब से भारी है । दूसरे शब्दों सम्भव नहीं है।
में यह कहा जा सकता है कि जिस पदार्थ से विश्व की अब हम पाठकों को विश्व की उत्पत्ति के सम्बन्ध रचना हुई है वह बहत भारी था। उसका घनत्व सब में कुछ बातें बताते हैं-हिन्दओं के संकल्प मन्त्र के से अधिक था । बढ़ते-बढ़ते यही अण्डा विश्वरूप हो अनुसार इस पृथ्वी का जन्म आज से 1 अरब 97 करोड गया । 29 लाख 49 हजार 76 वर्ष पूर्व हुआ । संकल्प मंत्र
अमेरिका के प्रोफेसर चन्द्रशेखर ने गणित के आधार इस प्रकार है-ओऽम् तत्सत् ब्रह्मणे द्विताये पराद्ध,
पर बतलाया है कि विश्व रचना के प्रारम्भ में पदार्थ श्री श्वेत वाराह कल्पे, वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टा
का घनत्व लगभग 160 टन प्रति घन इंच था। जबकि विंशतितमे युगे, कलियुगे, कलि प्रथम चरणे इत्यादि ।'
1 घन इंच सोने का तोल केवल 5 छटांक होता है। (संकल्प मन्त्र में से सृष्टि सम्वत् की यह संख्या दूसरे शब्दों में वह पदार्थ अत्यन्त भारी था। किस प्रकार निकलती है, लेख का कलेवर बढ़ जाने के भय से हम यहाँ बतलाना उचित नहीं समझते ।)
आजकल के वैज्ञानिक इस प्रश्न पर दो समुदायों
में बँटे हुये हैं-एक वह जिनका मत है कि यह ब्रह्माण्ड कुछ समय पूर्व साइन्स की भी यही धारणा थी अनादिकाल से अपरिवर्तित रूप में चला आ रहा है और कि पृथ्वी का जन्म लगभग 2 अरब वर्ष पूर्व हुआ, किन्तु दूसरा वह जो यह विश्वास करते हैं कि आज से अब यह मान्यता बदल गई है। एक मान्यता ऐसी है अनुमानतः 10 या 20 अरब वर्ष पूर्व एक महान कि पृथ्वी के प्रशान्त महासागर से चन्द्रमा का जन्म आकस्मिक विस्फोट के द्वारा इस विश्व का जन्म हुआ। हुआ। अमृत-मंथन की कथा में इसी बात का संकेत हाइड्रोजन गैस का एक बहुत बड़ा धधकता हुआ बबूला मिलता है। जब चन्द्रमा पृथ्वी से पृथक् हुआ तो उसकी अकस्मात फट गया और उसका सारा पदार्थ चारों गति भिन्न थी और यह गति अब घट गई है और जिस दिशाओं में दूर-दूर तक छिटक पड़ा और आज भी वह रेट से यह घट रही है उसका हिसाब लगाने से सृष्टि पदार्थ हम से दूर जाता हुआ दिखाई दे रहा है ।
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ब्रह्माण्ड की सीमा पर जो क्वैसर नाम के तारक पिंडों इस समय इनमें से कोई सा भी सिद्धान्त सम्पूर्ण रूप से की खोज हुई है जो सूर्य से भी 10 करोड़ गुना अधिक वस्तु स्थिति का वर्णन नहीं करता।" चमकीले हैं, हम से इतनी तेजी से दूर भागे जा रहे हैं कि इनसे आकस्मिक विस्फोट के सिद्धान्त की पुष्टि
इस सम्बन्ध में हम संसार के महान वैज्ञानिक होती है भागने की गति 70.000 से 150.000 मील प्रो० आइन्सटाइन का सिद्धान्त ऊपर वर्णन कर चुके हैं, प्रति सेकिंड)। किन्तु भागने की यह क्रिया एक दिन जिसके अनुसार यह संसार अनादि अनन्त सिद्ध समाप्त हो जायेगी और यह सारा पदार्थ पूनः पीछे होता है। की ओर गिरकर एक स्थान पर एकत्रित हो जायेगा विश्व की उत्पत्ति के सम्बन्ध में लेख का निष्कर्ष और विस्फोट की पुनरावृत्ति होगी। इस सम्पूर्ण क्रिया यह निकलता है कि महान आकस्मिक विस्फोट सिद्धान्त में 80 अरब वर्ष लगेंगे क्षौर इस प्रकार के विस्फोट के अ
के अनुसार इस ब्रह्माण्ड का प्रारम्भ एक ऐसे विस्फोट अनन्त काल तक होते रहेंगे । जैनाआर्यों ने इसे परिणमन के रूप में हुआ, जैसा आतिशबाजी के अनार में होता की क्रिया कहा है । इसमें षटगुणी हानि वृद्धि हाती है। अनार का विस्फोट तो केवल एक ही दिशा में रहती है।
होता है। यह विस्फोट सब दिशाओं में हआ और जिस
प्रकार विस्फोट के पदार्थ पुनः उसी बिन्दु की ओर गिर - दूसरा प्रमुख सिद्धान्त सतत् उत्पत्ति का सिद्धान्त है जिस अपारवतनशील अवस्था का सिद्धान्त भी कहा
पड़ते हैं. इस विस्फोट में भी ऐसा ही होगा । सारा
ब्रह्माण्ड पुन: अण्डे के रूप में संकुचित हो जायेगा । पुन: जाता है । इसके अनुसार यह ब्रह्माण्ड एक घास के
विस्फोट होगा और इस प्रकार की पुनरावृत्ति होती खेत के समान है जहाँ पुराने घास क तिनके मरते रहते
रहेगी। इस सिद्धान्त के अनुसार भी ब्रह्माण्ड की हैं और उसके स्थान पर नये तिनके जन्म लेते रहते है।
उत्पत्ति शून्य में से नहीं हुई। पदार्थ का रूप चाहे जो परिणाम यह होता है कि घास के खेत की आकृति सदा
रहा हो, इसका अस्तित्व अनादि अनन्त है। एक-सी बनी रहती है। यह सिद्धान्त जैन धर्म के 'ह सिद्धान्त से अधिक मेल खाता है । जिसके अनुसार इस दूसरा सिद्धान्त सतत उत्पत्ति का है। इसकी तो
जगत का न तो कोई निमाण करनेवाला है और न यह मान्यता है ही कि ब्रह्माण्ड रूपी चमन अनादि काल .. किती काल विशेष में इसका जन्म हुआ। यह अनादि से ऐसा ही चला आ रहा है और चलता रहेगा। इस
का। से एसा ही चला आ रहा है और अनन्त काल सिद्धान्त को आइन्सटाइन का आशीर्वाद भी प्राप्त है । तक ऐसा ही चलता रहगा । हमारी मान्यता गीता को अतएव जगत उत्पत्ति के सम्बन्ध में जैनाचार्यों का उस मान्यता के अनुकूल है, जिसमें कहा गया है - सिद्धान्त सोलहों आने पूरा उतरता है। "न कर्तृत्व न कर्माणि, न लोकस्य सृजति प्रभु ।" इस लेख की समाप्ति हम यह कहकर कर रहे हैं
एम० आई० टी० (अमरीका) के डा० फिलिप कि 343 घन रज्जु इस लोक में इलेक्ट्रोन, प्रोटीन ओर नोरीसन इस सम्बन्ध म कहते हैं-"ज्योतिषियों ने न्यूट्रोन आदि मूलभूत कणों की संख्या 107 से लेकर जो अब तक परीक्षण किये हैं उनके आधार पर यह 10° तक है, अर्थात् 1 का अंक लिखकर 73 या 75 निर्णय नहीं किया जा सकता कि खगोल उत्पत्ति के बिन्दु लगाने से यह संख्या बनेगी। भिन्न-भिन्न सिद्धान्तों में से कौनसा सिद्धान्त सही है।
अणुरणोयान महतोमहीयान
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ভীন Uিনি-বিনি bi ga saJIU
menter
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वर्तमान वैज्ञानिक आधारों पर हुई खोजों के विज्ञान पर प्रकाशित हो चुके हैं । ये लेख सतही संदर्भ में अभिनव अवधि में अनेक लेख जैन गणित एवं अथवा साहित्यिक नहीं हैं, किन्तु एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण
1. (a) Datta B. B., The Jaina School of Mathematics, Bull. Cal. Maths. Soc., 21
(1929) pp. 115-145. (a) Datta B. B., Mathematics of Nemicandra, The Jaina Antiquary, Arrah, 1, no.
ii (1935) pp. 25-44. (#) Singh A. N., Mathematics of Dhavala - I, Satkhandagama, book iv, edited
by Dr. H. L. Jain and others, Amaraoti, 1942. pp, v- xxi. (a) Singh, A. N., History of Mathematics in India from Jaina Sources, The Jaina
Antiqary, 15, no. ii, (1949), pp. 46-53; and 16, no. ii (1950), pp. 54-69. The
Central Jaina Oriental Library, Arrah. (6) Jain, L. C., Tiloapannatti ka Ganita, Reprinted from introduction to Jambu
Divapannatli Samgaho, Jivaraj Granthamala. Sholapur, 1958, pp. 1-109. (*) Jain L. C., On the Jaina School of Mathematics, Babu Chotelal Jaina Smriti
Grantha, Calcutta, 1967, pp. 265-292. (*) Jain, L. F., Set Theory in Jaina School of Mathematics, I. J. H. S. vol, 8,
no. 1, 1973, pp 1-27. (a) Jain, L. C., The Kinematic Motion of astral real and counter Bodies in Trilok
asara, I. J. H. S., vol. II, no. 1, 1976, pp. 58-74. () Das, S. R., The Jaina Calendar, The Jaina Antiquary, Arrah, vol. 3, no. ii, sep.
1973, pp. 31-36
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अपनाकर प्रस्तुत किये गये हैं। वलोदी ने श्रीधर टीकाकार भास्कर प्रथम की टीका में पूर्ववर्ती प्राकृत तथा महावीराचार्य पर विशेष शोध लेख लिखे हैं। ग्रथों की आर्याओं और गाथाओं को खोजा है । अग्रवाल सिकदार के लेखों में जहाँ दर्शन और विज्ञान को यथा- का शोध प्रबन्ध विस्तृत रूप में जैन गणित और ज्योतिष योग्य मर्यादाओं तक विस्तृत कर नवीनता प्रखर उठी की जानकारी देता है। इस प्रकार अब तक जो कार्य है, वहाँ महेन्द्र कुमार एवं जैन के लेखों में इतिहास, हो चूका है वह नई शोध दिशाओं की ओर इंगित गणित एवं विज्ञान के विभिन्न पहलुओं को संयुक्त क्षेत्रों करता है तथा विभिन्न विद्या के केन्द्रों में जैन गणितकी खोज प्रस्तुत की गयी है। दत्त और सिंह ने विज्ञान में शोध हेतु यथोचित प्रबन्ध कराने की ओर बुनियादी कार्य किया है गणित इतिहास का, तथा गुप्ता प्रेरणा देता है। ध्यान रहे कि यह सब शोध मुख्यत: ने गणित इतिहास की अज्ञात गहराइयों में पहंच की है। ऐसे स्थानों में हआ है जहाँ जैन नथ केन्द्र नहीं हैं अत: ये लिश्क एवं शर्मा ने जैन ज्योतिष के गणितानुयोग पर अनेक ग्रंथों के अभाव में हुए हैं। गोम्मटसार दि ग्रयों कार्य किया है तथा सरस्वती ने प्राकृत ग्रंथों के गणित की वृहद् टीकाओं की सामग्री में पंडित टोडरमल द्वारा पर अभिव्यंजना की है। शुक्ला ने आर्यभट्ट प्रथम के बड़ा अंशदान है और उक्त प्रायः 3000 पृष्ठों की
(घ) Shastri, N. C., Bhartiya Jyotisa ka Posaka Jaina Jyotisa. Varni Abhinan
dana Grantha, Saugor, 1962, pp. (च) Sikdara, J.C., Jaina Atomic Theory, I. J. H. S., 5.2 (1970), pp. 197-218. (0) Shukla, K. S. Hindu Mathematics in the seventh century as found in Bhaskara
I's commentary on Aryabhatiya (iv), Ganita, vo'. 23, Dec, 1972, no. 2, ____pp. 41-50. (a) Gupta. R. C., Circumference of the Jambudvipa in Jaina Cosmography, vol. 10,
no. 1. 1975, 38-46. (1) Volodarsky, A. I., Articles on Sridhara and Mahavira, Fiziko matematicheskie
nauki V stranakh vostoka 1 (1966) and 2 (1969). Ci. also a special chapter on India, History of Mathematics from the earliest Times to the Beginning of
the 19th Century, vol. I, edited by A. P. Yushkevich (Moscow 1970-1972). (T) Lishk S. S., and Sharma S. D., The Evolution of Measures in Jain Astronomy,
Tirthankar, vol 1, nos. 7-12, Jul.-Dec. 1975. pp. 83-92. (8) Jain, L. C., Aryabhata the Astronomer and Yativrsabha, the Cosmographer,
ibid, pp. 102-106. (ड) प्रमुख शोध प्रबन्धों में मुकुट बिहारी अग्रवाल द्वारा प्रस्तुत, "गणित एवं ज्योतिष के विकास में
जैनाचार्यों का योगदान" आगरा विश्वविद्यालय, 1972 है, तथा लिश्क, सज्जनसिंह द्वारा जैन ज्योतिष-बेदांगोत्तर एवं हेलेनयुगपूर्व, नामक शोध प्रबन्ध पंजाब विश्वविद्यालय में अक्टूबर '76 में प्रस्तुत होने जा रहा है। महावीरराज गेलड़ा द्वारा भी रसायन विज्ञान में शोध अग्रसर है।
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सामग्री शोध छात्रों हेतु शीघ्र ही छपाना अब अति इतिहास सम्बन्धी गणित ज्योतिष एवं कर्मगणित आवश्यक प्रतीत हो रहा है।
सिद्धान्त की शोधजैन लौकिक गणित एवं ज्योतिष को (व्यावहा- इस लेख में हम मुख्यतः लोकोत्तर गणित-विज्ञान रिक) गणित रूप में महावीराचार्य, श्रीधराचार्य तथा
शोध का विवरण प्रस्तुत करेंगे । लोकोत्तर गणितादि के राजादित्य ठक्कर फेरू ने विकसित किया । ज्योतिष के
प्रमाण यूनान, भारत और चीन में बेबिलनीय स्रोत के गणित को विकसित करने में प्रमुख रूप से कालकाचार्य, कुछ अंश लेकर प्रकट हुए हैं, जिनमें रवानी लाने का हरिभद्र, चन्द्रलेख, महेन्द्र सूरी, लब्धचन्द्र गणि के
श्रेय वर्द्धमान महावीरकालीन मुनि मंडल को है अंशदान भी उल्लेखनीय हैं।
जिनके अंशदान पश्चिम और पूर्व के उच्च मस्तिप्कों के
लिए प्रेरणा एवं कौतूहल की वस्तु बन गये । यह उपरोक्त लौकिक रूप लोकोत्तर गणित-ज्योतिष से निश्चत है कि महावीर पूर्व परम्पराओं की अभिलेखभिन्न रूप से विकसित हुआ प्रतीत होता है। विशेषकर बद्ध सामग्री मिश्र, चीन, बेबिलिन, सुमेरु आदि स्थलों कर्म-सिद्धान्त सम्बन्धी गणित को विकसित करने के पर जिस रूप में उपलब्ध है वह भारत में सिन्धु हड़प्पा लिए तिलोय पण्णत्ती' जैसे ग्रंथों में आधार निर्मित के अज्ञात रूप में दिखाई देती है, किन्तु उन सभी में किया गया है। षटखंडागम के प्रथम पाँच खंडों में वह शक्ति नहीं थी कि वे विश्व की महावीरकालीन भूमिका डाली गयी है तथा महाबन्ध ग्रंथों में बन्ध जागति की ज्योति में नये गणित का उदभव कर सकें। तत्त्व का निरूपण राशि सिद्धान्त के आश्रय से किया इसी हेतु इतिहास का यह पक्ष उभारना श्रेयस्कर गया है। पुनः कसाय पाहह' में उपशम और क्षपणा के होगा कि कर्म सिद्धान्त का निर्माण करने में जिस गणित गणितीय रूप का निखार है। इन ग्रथों के सार विद्या की आवश्यकता हुई वह लोकोपकारी प्रवत्ति को रूप एवं टीका रूप ग्रथों में तथा इतर श्वेताम्वर लेकर हुई तथा उसे उन्नत करने में विश्व के प्रत्येक कार्यादि ग्रंथों में गणित विज्ञान की सामग्री इतिहास भाग में विभिन्न गणित की शाखाएँ प्रस्फुटित होती चली तथा प्रयोग एवं विश्लेषण शोध कार्य हेतु अद्वितीय है। गयीं। अलौकिक प्रेरणा का स्रोत भारत, यूनान तथा
2. गोम्मटसार, लब्धिसार एवं क्षपणासार, (वृ. तीन टीकाओं सहित), गांधी हरिभाई देवकरण ग्रंथमाला,
कलकत्ता, 1919। इनमें पं टोडरमल कृतं सम्यक़ज्ञान चन्द्रिका टीका है जिसमें अर्थ संदृष्टि अधिकार
अलग से दिये गये हैं। 3. देखिये, नेमिचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्योतिष, ज्ञानपीठ, वाराणसी, 1970 पृ. 125-160 । 4. तिलोय पण्णत्ती भाग 1 (1943), तथा भाग 2 (1952), शोलापुर । 5. षट्खण्डागम, (धवल टीका स.) भाग 1-16, डा. हीरालाल आदि, (अमरावती विदिशा 1939
1959) 6. महाबंध, भाग 1-7, ज्ञानपीठ-काशी (पं. सु. चं. दिवाकर एवं पं. फू. चं. सिद्धान्तशास्त्री द्वारा
सम्पादित), 1947-:958 7. कसायपाहुड-सूत्र और चूणि अनुवादादि, पं. हीरालाल सि. शा. कलकत्ता-1955 ।
माथ ही, कसाय पाहुड (जयधवल टीका), मथुरा 1944 आदि । 8. देखिये, B. L. Vander Waerden, Science Awakening, Holland. 19451
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रूपों का
कृ
चीन रहा, किन्तु अहिंसा और सत्य के चित्रण जिस रूप में वर्द्धमानकालीन भारत में हुआ, तथा उनकी विचारधारा में हुआ वह अन्यत्र उपलब्ध महाहे நிய
केके गणित इतिहासकार भले ही ऐसे स्रोत की उपस्थिति की परिकल्पना बेबिलन में क्यों न करें किन्तु गणितीय विधियों में आमूल-मूल परिवर्तन प्राकृत थों में ही - न्यायायिक समन्वय लिए, पर्याप्त रूप में आवश्यकीय कारणों से हुआ दृष्टिगत होता है । कर्मास में ही अनादि अनन्त विषयक द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव राशियाँ, उनके अल्प- बहुत्व, उनका आदि सलगा गणन, उनका वैश्लेषिक अध्ययन
विकिया गया है। सर्वाधिक रहस्य उस इतिहास काम क्रांतिकारी सिस्टम सिद्धान्त के तथ्यों को कर्मो के सामयिक विलक्षण परिवर्तनों में प्रकट करता है ।
क
जहाँ इटली में जीनो (460 ई. पू.) के अनंतकाणा विभाज्यता सम्बन्धी तर्क विस्मय और कौतूहल उत्पन्न का करते हैं तथा यूनानियों को अनन्त की गणना से
कर
10
भयभीत करते हैं, " तथा जहाँ चीन में 'हुई शिह' (पांचवी से सहसम्बद्ध प्रतीत होते हैं वहाँ प्राकृत ग्रंथों में वे सिद्धान्त रूप से उपचारित
सदी ६ पू.) के असद्भास ई.
11
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किये जाकर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की प्ररूपणा
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2
का आधार बनते हैं । (घवल पु. 3 एवं 4 ) । कणाद से प्रायः 200 वर्ष पूर्व जहाँ उमास्वाति ने पुद्गल परमाणु और उसके अविभागी प्रतिच्छेद (शक्ति- अंशों) की चर्चा की है वहाँ उसी आधार पर सीमित क्षेत्र में अनन्त-विभाज्यता का खण्डन करने वाले जीनों के तर्क और मोशिंग (370 ई. पू.) की बिन्दु परिभाषा सहसम्बन्धित प्रतीत होते हैं । 13 अविभागी समय सम्बन्धी प्रकरण जीनों के अंतिम दो तर्कों का विषय बनते हैं। प्राकृत ग्रंथों में अनेक प्रकार के अविभागी प्रतिच्छेद यथार्थ अनन्तों के इतिहास का निर्माण करते हैं तथा अनेक प्रकार के द्रव्यात्मक, भावात्मक, कालात्मक एवं क्षेत्रात्मक अनन्तों के अल्प- बहुत्व को देकर इतिहास में अमरत्व प्रदान करते हैं। (ये प्रकरण धवल पु. 3 तथा 4 में तथा महाबन्ध ग्रन्थों में विशेष रूप से निर्वचनीत किये गये है।)
अनन्तों के अल्पबहुत्व के प्रकरण यूरोप में पुनः गैलिलियो (1564-1642) की एक-एक संवाद चर्चाओं में प्रकट होते हैं 14 तथा जार्ज केण्टर (18451958) के जीवन भर के अथक अटूट, दुस्साहसपूर्ण प्रयासों में जन्म लेते हैं 15 तथा वृक्ष रूप में पल्लवित होते हैं। उसके फलस्वरूप प्रायः 25 वर्ष से प्रस्फुटित हुए सिस्टम सायवनॅटिक सिद्धान्त हैं जिन्हें कर्म सिद्धान्त
देखिये, महावीराचार्य - गणित सार संग्रह - प्रस्तावना, शोलापुर 1963 ।
10. T. Heath, Greek History of Mathematics, vol. I (1921) pp. 275 et seq.
11. Needham J. and Ling W., Science and Civilization in China, vol. 1, Cambridge, p. 144 (1954), vol. 3. (1959).
12. देखिए Ray, P. History of Chemistry in Ancient and Medieval India, Calcutta, 1956,
pp. 46, 291, et seq.
19:15 देखिये, नीधम, भाग 1, पृ. 155 | धवला पुस्तक 3 तथा 4 भी देखिए । आज का गणित अपरिभाषित बिन्दु को लेकर व्यवहार करता है।
14. Bell E. T., Development of Mathematics, 1945, p. 273.
15. Fraenkel A. A., Abstract Set Theory, 1953, introduction.
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2. संख्याएँ लिखने तथा व्यक्त करने में दसााँ
आदि पद्धतियों का प्रयोग
का गणित, नवीन सामग्री अपने राशि सिद्धान्त पर आधारित कर दे सकेगी। 16 (देखिये लब्धिसार एवं क्षपणासार-वहदटीकाएँ।) जहां जार्ज केन्टर को कोई ऐसी आवश्यकता का कोई आधार नहीं था वहाँ प्राकृत ग्रंथों के इस गणित को कर्म-सिद्धान्त प्रतिपादित करने की कठोर आवश्यकता का विशाल एवं गहन आधार था । परिणामों की अतीब निर्मलता का उद्देश्य जगत इतिहास की उपेक्षा करने में अपने नामों को छिपाकर अमर हो गया । प्रायः प्रत्येक घटना में सांतता, अनुमान और अभिबिन्दुता प्रस्थापित कर समाधान कर लिया जाता है। किन्तु असीम गहराइयों और अनन्त ऊचाइयों में पहुंच करने हेतु नबीन गणितीय उपकरणों का आविष्कार करना होता है-वह आज की आधुनिक ज्यामिति और बीजगणित जिनका सहसम्बन्ध प्राकृत ग्रंथों के क्षेत्रों और बीजों से करने परने पर इतिहास के पृष्ठ स्वणिम किए जा सकते हैं।
3. ह्रासित गुण्य राशियों के लिखने में स्थानार्हा
पद्धति का प्रयोग (अ. सं.) ___4. सलागा गणन का उपयोग (धवल, पु. 3-4) 5. एक-एक, एक-बहु तथा बहु-बहु संवाद विधि
का प्रयोग (धवल, पु.-3) 6. विरलन-देय गुणन तथा वर्गन संवर्गन विधियों
का प्रयोग (धवल एवं तिलोयपण्णत्ती)
7. क्षेत्र प्रयोग विधि तथा काल प्रयोग विधि का
उपयोग (धवल, पु. 3)
8. वर्गादि स्थानों में खण्डित, भाजित, वरलित,
अपह्रत, प्रमाण, कारण, निरुक्ति एवं विकल्प विधियों का प्रयोग । धवल, पु. 3, पृ. 40, आदि)
_स्पष्ट है कि वर्द्धमान युग में एक नवीन पथ की ओर मोड़ देने के लिए, सर्वदष्टियों से आदर्श को तौलने के लिये, भारत तथा विदेशों में भी प्रचलित लौकिक गणितों को साधन रूप में अवश्य चुना गया होगा । उसमें नवीन प्रसाधन अपने साध्यों के आधार पर आविष्कृत किये गये होंगे और युगान्तर में उनका प्रचलन पुन:-पुनः हारमोनीय भावों में देश-देशान्तरों में होता चल गया होगा । अभिलेखबद्ध सामग्री से प्रतीत होता है कि नवीन पद्धतियों का उपयोग सम्भवतः निम्नरूप में विकसित हुआ होगा :--
9. धाराओं द्वारा अनेक अनन्तात्मक एवं असंख्या
त्मक तथा संख्येय राशियों के पद एवं पदस्थानों का निरूपण।” (त्रिलोकसार, प्र. अध्याय )
10. सूच्यंगुल जगश्रेणि, अंतर्मुहूर्त, पल्य, सागर,
अविभागी प्रतिच्छेद, प्रदेश, समय आदि इकाइयों एवं संख्या तथा उपमा मानों के निरूपण और तीनों लोक के खंडों द्वारा विभिन्न राशियों के निरूपण ।
1. विविध प्रतीकत्व का विकास (देखिए ति. प.
एवं अ. सं.)
16. Kalman R. E., Falb, P. L. and Arbib M. A.. Topics in Mathematical System
Theory, T M H, Bombay, 1969. 17. आचार्य नेमिचंद्र सि. च., "त्रिलोकसार" माधवचंद्र भैविद्य कृत टीका, बम्बई, 1920 ।
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11. 109800 गगन खंडों के कोणीय माप तथा
योजन के दूरीय मापद्वारा ज्योतिष बिम्बों का स्थिर एवं गतिशील प्रमाणों का निर्धारण | 18 12. ज्योतिष बिम्बों का युग्मीय विधि से सम्मुख प्रस्थापन कर गतिशील घटनाओं के आकलन | कुंतल - दीर्घवृत्तीय बिम्बगमनशीलता एक क्षेत्रीय सिद्धान्त ।"
का
उपरोक्त आविष्कारों को ठोक तिथियाँ निर्धारण करना कठिन है, किन्तु स्मृति मंद होने के फलस्वरूप उनका उत्तरोत्तर अभिलेखन वर्द्धमान के बाद की प्रक्रिया अवश्य प्रतीत होती है, जिसका श्रृंखलाबद्ध प्रस्फुटन आज का विशालतम वैज्ञानिक गणितीय साहित्य रूप में दर्शनीय है । उपरोक्त सामग्री का अंतिम ऐतिहासिक रूप पंडित टोडरमल कृत गोम्मटसारादि की वृहद टीकाओं में दृष्टव्य है । 30 इसमें उन्होंने ॠण प्रतीक के लिए पाँच चिन्हों का प्रयोग बतलाया है । शून्य का विभिन्न अर्थों में प्रतीकबद्ध उपयोग है । उसमें सलगा गणन के भी प्रयोग हैं जिनमें फलन के फलन के प्रतीक की अवधारणा को विकसित करने की ओर असफलता मिली प्रतीत होती है । यदि वे प्रयास इस ओर बढ़ते और भारतीय गणित विद्वानों का झुकाव इस ओर अधिक होता, तो कुछ शताब्दियों पूर्व ही आज का युग उपस्थित होता और यह श्रेय भारत को यथोचित मिलता। इसमें प्रयुक्त हुए कुछ प्रतीक गिरनार एव अशोक काल से पूर्व के शिलालेख कालीन प्रतीन होते हैं । अशोक के पूर्व के बड़ली ग्राम ( अजमेर) तथा नेपाल की तराई के
18. देखिये 1 ( ख ) ।
19. वही ।
20. देखिये 2
21. देखिये 1 (फ) ।
22. नीधम, भाग 1, पृ. 150 – 151 आदि ।
प्रिपाबा नामक स्थान में उपलब्ध सामग्री में जो 'ई' का चिन्ह है, उससे ऋण ( रिण अथवा रि) के लिए प्रयुक्त चिन्हों का संबंध संभवतः स्थापित किया जा सकता है । 21 (देखिये, ओझा रचित भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ. 2, 47, 1959 दिल्ली) ।
जहाँ अरस्तू (384 ई. पू. से 322 ई. पू.) आत्माओं की श्रद्धि के सिद्धान्त का प्ररूपण करते हैं, वहाँ चीन में ऐसा ही सिद्धान्त शुइनत्जू ( 298 ई. पू. - 238 ई. पू., Hsun Tzu या Hsun Chhing) द्वारा प्ररूपित किया गया है, और यही भारत में जीवों के मार्गणा स्थानादि रूप में निरूपित है । ( नीधम, भाग 1, पृ. 155 ) । चीन से लेकर यूनान तक ऐसी अवधारणाओं का युगपत् प्रकट होना इतिहास की समस्या है। इसी प्रकार चन्द्रमा के बढ़ने घटने के कारण समुद्रों के नीचे की पाताल वायु का फैलना ( ति प भाग 1, 4-2403, शोलापुर, 1943 ), चीन और यूनान में क्रमश: लू शिह चुन विउ (चौथी से तीसरी शताब्दी ई. पू. ) और अरस्तू द्वारा चन्द्रमा की कलादि के कारण समुद्री रीढ़हीन जन्तुओं के फैलने आदि की चर्चा से समन्वय रखता प्रतीत होता है । इन तथ्यों के हजारों मील दूर फैलनेवाला स्रोत कहाँ था यह इतिहास की समस्या है 122
भारत से एक और पिथेगोरस ओर दूसरी ओर कन्फ्यूशन (छठी सदी 50 ) द्वारा पश्चिम और पूर्व में नवीन प्रतिभा का नेतृत्व संचालन एक अद्भुत क्रांति को प्रकट करता है । पिथेगोरस सम्बन्धी अनेक किंव
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दंतियाँ उनके अहिंसा पथ और गणितादि के विलक्षण चीन तथा मिस्र देशों के कलन से श्रेष्ठ है। चीन में ज्ञान को बतलाती हैं। लोक में जीवसंख्या की अचलता सलगागणन (ई. पू. 4थी शताब्दी में), भारत में प्रायः के आधार पर जनता को हिंसा तथा मांसाहार की ओर 6वीं सदी अथवा कतिपय ग्रथों (षट खण्डागमादि) में से मोड़कर शाकाहारी तथा हरियाली रहित भोजन ई. पश्चात् 2री सदी में उपलब्ध हैं । जहाँ चीन में की ओर प्रवृत्त करने का प्रयत्न पिथेगोरस की निजी वर्ग और घनमल ई. प प्रथम सदी में दृष्टिगत हैं वहाँ प्रतिभा का द्योतक है (E. T. Bell, Magic of षट्खण्डागम में सीमित क्षेत्र में स्थिति प्रदेश बिन्दुओं की Numbers, 1946, pp. 87, 88, 91,92)। संख्या का बारहवाँ वर्गमूल निकालने का उल्लेख है यदि कोई साधारण स्रोत यूनान और चीन के मध्य और जिसके तुल्य मान क्षेत्र, काल, भाव में प्रदत्त हैं । रहा, तो ऐसे प्रकरण चीन में कन्फ्यूशस या ताओ काल चीन में ज्यामितीय सामग्री ई. पू. तृतीय सदी में उपलब्ध में दृष्टिगत होना चाहिए। नीधम के अनुसार बौद्ध धर्म है, वहीं तिलोयपण्णत्ती में पांचवी सदी तथा इतर ग्रंथों का चीन में प्रथम प्रवेश ई. पश्चात् 65 में हुआ जिसके में ई. पू. भी दृष्टिगत है। जहां चीन में प्राय: 1000 वर्ष प्रायः 100 वर्ष पश्चात् प्रथम सूत्रों का चीनी भाषा में पूर्व बीजगणित तथा ज्यामिति की मूलभूत तादात्म्य लोयांग में अनुवाद प्रारम्भ हआ । (नीघम, भाग 1, प्रकट है वहां धवल (9वीं सदी) तथा अलख्वारिज्नी पृ. 112)। मिस्र देश की जागृति का काल भी प्रायः (9 वीं सदी) में दृष्टव्य है। चीन में कूट स्थिति के यही है, जबकि सायटिक युग (663-525 ई.) में वहाँ प्रयोग भी प्राकृत ग्रंथों में उपलब्ध हैं। इसी प्रकार अहिंसक कूफू कालीन प्राचीन परम्पराओं का अकस्मात अनि त विश्लेषण सुन त्जू (4थी सदी) तथा प्राकृत अनुसरण प्रारम्भ हआ था और नरसिंह (Sphinx) ग्रंथों में दृष्टिगत है। प्रतीक पुनः पूजा की वस्तु बन गया था। सम्भवतः यही आकर्षण पिथेगोरस के पूर्व देश भ्रमण का कारण बना
लोकोत्तर गणित विज्ञान में ज्योतिष बिम्बों की होगा ।
संख्या का निर्धारण, उनकी गमनशीलता, सुमेरु से दुरी,
चित्रातल से ऊचाई, बिम्बों के आकार, तथा माप, अविभागी पुद्गल परमाणु के आधार पर परिभाषित आदि विविध प्रकार की सामग्री विकसित की गयी। विन्द्र के प्रयोग में वीरसेन द्वारा कतिपय नवीन विधियों इन प्राचीन तत्वों को हजारों वर्षों से अपरिवर्तित का उपयोग प्रकट हुआ है। इनमें से निश्शेषण विधि रखा गया (ति.प.,प. 16-17) । यनान से ये विधियाँ विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। इसके द्वारा शंकु के अत्यंत भिन्न हैं । समच्छिन्नक का घनफल निकाला गया है । इससे का मान निकालने के ऐसे सूत्र का उपयोग किया गया है कर्म सिद्धान्त के गणित का इतिहास विगत 25 जो चीन में त्सु शुग-चिह्न (प्रायः पाँचवी सदी वर्ष के विश्व विज्ञान में प्रोद्भूत गणितीय सिस्टम Tsu Chhung-Chih) द्वारा प्रयुक्त हुआ है। जैन सिद्धान्त से प्रारम्भ हुआ है। नियंत्रण योग्यता तथा नथों-धवल-में राशि सिद्धान्त में प्रयुक्त भिन्न कलन परिणाम योग्यता के आकलन गणितीय रूप में विश्व के
23. Salem Hossan, The Sphinx, Its History in the Light of Recent Excavations, Cairo,
pp. 219-221, (1949). 24. देखिये 1 (ख)।
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इतिहास में केवल कर्म सिद्धांत में ही निहित हैं। इसमें से फलित ज्योतिष आदि का विकास स्वाभाविक है ।25
महत्त्व तब सिद्ध होता है, जब कि वह आधुनिक सिद्धान्तों की समस्याओं को हल करने में योगदान देकर नवीन फलित को निकालने का पथ-प्रदर्शन कर सके ।
विज्ञान-विकास सम्बन्धी शोध दिशा :
कर्म सिद्धान्त में सन्निहित तत्त्वों में निम्नलिखित प्रमुख धारणाओं का सन्निवेष है :
1. अनन्तों या अनन्त राशियों का पूर्णांकों पर
आधारित, धारा ज्ञान से उपधारित, अल्पबहत्वादि अनेक राशि सम्बन्धी सिद्धान्त 128
जिस प्रकार आज के विज्ञान का आधार राशिसिद्धान्त है, उसी प्रकार कर्म विज्ञान का आधारभूत गणित राशि-सैद्धान्तिक है। सिकदार द्वारा परमाणु सिद्धान्त पर विस्तृत शोध प्रबन्ध तथा अनेक शोध लेख प्रस्तुत किये गये हैं जिनमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण लिया गया है। वास्तव में कर्म सिद्धान्त का एक आधार परमाण सिद्धान्त है। कर्म सिद्धान्त एक-स्त्री तथा संगत सिद्धान्त के रूप में अनेक उपधारणाओं (Postulates) तथा परिकल्पनाओं (Hypothesis) का आधार लेकर निर्मित किया गया। यह प्रिसपिल थ्योरी के रूप में विकसित हआ न कि कन्सट्रक्टिव थ्योरी के रूप में 126
2. समय की अविभाज्यता के आधार पर महत्तम
एवं लघुत्तम प्रवेग की अवधारणा, जिससे काल और क्षेत्र के क्वांटम का प्रादुर्भाव 120
3. पुद्गल परमाणु की अविभाज्यता तथा उनकी
राशि की यथार्थ गणात्मक उपधारणा। यह राशि जीव राशि से अनन्त गुनी है।
4. पुद्गल परमाणु का अनन्त पुद्गल परमाणुओं
के साथ एक ही प्रदेश में अवगाहन ।
अभी तक जो विज्ञान सम्बन्धी अध्ययन जी. आर. जैन, एवं कोल जे. एफ. आदि द्वारा हुए हैं उनसे स्थिति आशाजनक तो प्रतीत होती है । घटनाओं का इस प्रकार का आंशिक समाधान ही किसी सिद्धान्त को संगत सिद्ध नहीं कर सकता है। अपितु सिद्धान्त का
5. द्रव्यों तथा उनके गुण पर्यायों का एक-दूसरे के
गुण पर्यायों में अन्योन्याभाव एवं अत्यन्ता
25. ज्योतिष सम्बन्धी चीन में उपलब्ध सामग्री हेतु देखिये, 11, भाग 3 । मिश्र, यूनान तथा बेबिलन आदि
में प्राप्त सामग्री हेतु देखिये Neugebauer, O., The Exact Sciences in Antiquity, Providence. 1957 । कर्म सिद्धान्त में फलित ज्योतिष संवाद के रूप में स्वभावतः उपस्थित हो जाता है।
आय, व्यय, पुण्य, पाप आदि भावों का सत्त्व, आस्रव निर्जरा से सम्बन्ध अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। 26. इन सिद्धान्तों का विवेचन डा. आइन्स्टाईन ने The London Times, Nov. 28, 1919 में
दिया था। 27. Jain, G. R., Cosmology, Old and New, Lucknow 1942, Kohl, J. F., Physikalische
und Biologische Weltbild der Indischen Jaina Sekte, Aligang, 1956. 28. धाराओं से सम्बन्धित एक लेख शीघ्र प्रकाशित होने वाला है -Jain, L.C., Divergent Seque
nces Locating Transfinite Sets in Trilokasara (I.J. H. S. Calcutta) 29. देखिये Jain, L. C., Mathematical Foundations of Jaina Karma System, Bhagwan
Mahavira and his relevance in modern times, Bikaner, 1976, pp. 132-150.
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भावादि । इसे द्रव्य स्वातन्त्र्य भी कहते हैं जो केवल जिनागम में ही उपलब्ध है, अन्यत्र नहीं।
11. योग और मोह रूपी अध्यवसाय (input
functions) विचरण से गुण स्थानों (control stations) सम्बन्धी परिणाम (output functions)। इनका चित्रण सिस्टम सिद्धान्त का एक अंग है।
6. स्पर्श गुण के अविभागी प्रतिच्छेदों (ऊर्जा स्तरों)
के निश्चित आधार पर पुद्गल परमाणुओं का बन्ध ।
7. समयों के बीतने की अतीत-अनागत दिशा
अथवा क्रमबद्ध पर्यायों से सह सम्बन्ध । यह Causality का सिद्धान्त है जिसका उपयोग सिस्टम सिद्धान्त में हुआ है ।।
12. आस्रव (input values) तथा उदयादि
निर्जरा (output values) युक्ति से सत्त्व (State) का ज्ञान । इसका चित्रण सिस्टम
सिद्धान्त का दूसरा अंग है। 13. कर्म सिद्धान्त में मिस्टम सिद्धान्त की अपेक्षा
बन्धादि तत्त्वों का समावेश । इस प्रकार कर्म सिद्धान्त एकसूत्री संगत सिद्धान्त से सिस्टम सिद्धान्त में अनेक सुझाव तथा उन्नयन हेतु नवीन पथ का अनुसरण ।32
8. उपादान शक्तियों के सिवाय पुद्गल का अन्य
द्रव्यों से उदासीन अनुग्रह (सहकारिता) से गमन, परिणमन, अवगाहन तथा स्थिरता होना।
9. पुद्गल में वर्ण, रस, गंध, स्पर्श विशेष गुणों के
सिवाय सामान्य गुणों (प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, अनन्त गुणी हा निवृद्धि, आदि) का होना ।
14. ज्योतिष सिद्धान्त में एकसूत्री सिद्धान्त (जो
तिलोय पण्णत्ती प्रभूति ग्रन्थों में उपलब्ध है) द्वारा गणितीय गमनशीलता के नवीन नियमों की व्युत्पत्ति । कुन्तल-दीर्घवृत्तीय ज्योतिष बिम्बगमन द्वारा पंचांग सम्बन्धी समस्त जानकारी का आनयन 133
10. केवल जीव तथा पुद्गल में क्रियावती एवं भाव
वती शक्ति का अस्तित्व । (द्रव्यों के देशान्तर प्राप्ति हेतु प्रदेशों के हलन-चलनरूप परिरपन्द को किया कहते हैं। उनमें होनेवाले अविरल प्रवाह रूप परिणमन को भाव कहते हैं ।)
15. आधुनिकतम बीजगणितीय एवं ज्यामितीय
ज्ञान के उपयोग से कर्म सिद्धान्त की यथार्थ गहराइयों में पहुँच की पूर्ण संभावना ।
30. देखिये, वही। 31. देखिये, Jain L. C., The Jaina Theory of Ultimate Particles, paper read at the
univerity of Indore on 8-4-1976. 32. देखिये, 291 33. देखिये 1 (ख, ।।
rer at afgå. Jain L. C.. On Spiro elliptic orbit of the Sun in Tiloyapanna
paper read at the Univerity of Saugar. 34.
इस विषय पर विस्तृत लेख System Theory in Jaina School of Mathematics प्रायः समाप्ति पर है।
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जहाँ तक प्रत्यक्ष दर्शन और ज्ञान का प्रश्न है, क्षण वस्तु है। इससे भी विलक्षण तथ्य है सुकमबद्धी उनकी सम्भाव्यता का प्राकृत ग्रंथों में आधुनिक काल साध्य (well-ordering theorem) गभित प्रक्रिया के लिए निषेध है। तब मति और श्रुत से परोक्ष का अस्तित्व, “कि सर्वधारा में 1, 2, 3, से प्रारस्भ दर्शन और ज्ञान का प्रकरण सम्मुख आता है। पुद्गल करते हए, समस्त संख्येय, असंख्येय तथा अनन्त राशियाँ द्रव्य विषयक दर्शन ज्ञान की उपलब्धि श्रत के सिवाय पार करते हए केवल ज्ञान राशि तक पहंचना।" इस मति से होती है। गति का आकार संदेशवाहक, साध्य को सिद्ध करने का आश्वासन जार्ज केण्टर ने पुदगलक क्रियाएँ हैं। संदेश बाहन काल पर आधारित दिया था। किन्तु यह साध्य अब कथंचित सिद्ध किया होने से सापेक्षता सिद्धान्त की आवश्यकता स्पष्ट है। जा सकता है। सापेक्षता सिद्धान्त में जब महत्तम प्रवेग की उपधारणा
अनन्तों के अल्प-बहुत्व स्थापित करने में केण्टर की जाती है, तो भौतिक विज्ञान के प्रारंभिक आधुनिक
और डेडिकेंड की ज्यामितीय विधियों में स्पष्ट अन्तर प्रयोगों की पुष्टि होती है। साथ ही अल्पतम क्रिया
है। जहाँ आज सरलरेखा अथवा व्यवहार काल की (action) के क्वाण्टम की उपधारणा से क्वांटम
अतीत-अनागत दिशायें किन्हीं भी दो बिन्दुओं के याँत्रिकी का आधार बनता है, जिसमें अनिश्चिति के
अन्तराल में अगण्य (non-denumerable) राशि की अनुबन्ध भी प्रयुक्त होते हैं । 35 आधुनिक सापेक्षता सिद्धान्त में जहाँ एक ओर महत्तम प्रवेग को उपधारित
मान्यता है, वहाँ प्राकृत ग्रंथों में बिन्दुओं की राशि की किया गया है, वहाँ उसे अल्पतम प्रवेग तथा अविभागी
सीमित (असंख्येय अथवा संख्येय) संख्या की मान्यता समय से अछता रखा गया है। क्वाण्टम यांत्रिकी में
है। 39 असंख्यात कालाणओं से लोकाकाश-द्रव्य की पदगल की दंतमय (तरंगात्मक एवं कणिकात्मक) अखडता पूणरूपण सम्माता ह। दशाओं तथा गति और स्थिति के सम्बन्ध में समाधान
इसी प्रकार कर्म-सिद्धान्त विषयक अनेक तथ्यों को नहीं मिलता है क्योंकि यह कन्स्ट्रक्टिव थ्योरी है, आधुनिक तथ्यों की तलना में रखते हए नवीन अंशदान सापेक्षता सिद्धान्त की भाँति प्रिंसीपल थ्योरी नहीं है।
का प्रयास करना होगा । ज्यामिति की अपेक्षा सिस्टम इन समस्याओं का समाधान जैन समय तथा मंद तम । तथा कर्म सिद्धान्त में बीजगणितीय दृष्टि विकसित की प्रवेग की अवधारणाएँ करता प्रतीत होता है ।
गयी है जो घटना-चक्र की जानकारी अत्यंत सहज ढंग
से देती है। इस आधार पर बीजगणितीय अध्ययन का प्राकृत ग्रंथों में अतीत काल समय राशि से अनागत
शोध-क्षेत्र लाभदायक सिद्ध होता प्रतीत होता है।" काल राशि अनन्तगुणी बतलाना गणित की एक विल
35. देखिये, 291 36. देखिये, वही। 37. देखिये, z lot, W. L., The Role of the Axiom of Choice in the Development of the
Abstract Theory of Sets, Library of Congress, Mic 57-2164, Columbia University
Thsis (1957) 38. देखिए 1 (इ)। 39. देखिये, Kalman, R. E. Introduction to the Algebriac Theory of Linear Dynamical
Systems, Lecture notes, vol. II, Springer Verlag, 1969.
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प्रत्येक प्राणी को सर्वाधिक प्रिय उसका जीवन है। | करनेवाले विभिन्न पक्ष क्या हैं ? इस प्रसंग पर वह जीना चाहता है, और मुख्यतः जीने के ही लिये | दार्शनिकों, और वैज्ञानिकों के विचारों के आधार पर या यथासंभव सुखी जीवन जीने के हो लिये अपने | निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि मनुष्य के जीवन के विविध उपक्रम करता है। कोई भी जीव आचरण को प्रभावित करनेवाला सर्वप्रमुख तत्व है, अनायास ही मरना नहीं चाहता । यही कारण है कि उसका आहार । मनुष्य का आहार, उसको बुद्धि, महापुरुषों और धर्मावतारों ने सभी को जीने के अधि- | विचार शक्ति, शारीरिक संरचना, व्यवहार और कार का समर्थन किया है। सभी महापुरुष हिंसा के संस्कारों पर अत्याधिक प्रभाव डालता है। यही कारण विरोधी रहे हैं, या यों भी कह सकते हैं कि ससार ने है कि दर्शनिकों ने इस पर तीब्र चितन और वैज्ञानिकों या मानव जाति ने उन्हीं को महापुरुष या धर्मावतार के ने गहन अनुसंधान किये हैं। उन्होंने मनुष्य के आहार रूप में मान्य किया है जिन्होंने हिंसा के कुचक्र से । को दो भागों में बांटा है-शाकाहार और दूसरा
शाकाहार
वैज्ञानिक एवं चिकित्साशास्त्रीय
हटिकोण
डा० पदमचन्द्र जैन
निकलकर सभी जीवों के जीने के समान अधिकार का | माँसाहार । दार्शनिक और वैज्ञानिक दोनों दृष्टियों से समर्थन किया है, सुख और शान्ति का अहिंसक मार्ग | प्रथम प्रकार के आहार "शाकाहार" को मनुष्य का बताया है। सम्भवत: कोई भी धर्म या दर्शन ऐसा प्राकृतिक आहार माना जाता है, और मांसाहार को नहीं है, जिसमें जीव-हत्या या जीव भक्षण को उचित | अप्राकृतिक । इस प्रकार शाकाहार ही श्रेष्ठ आहार माना हो। सभी ने मनुष्य द्वारा हिसा को अप्राकृतिक माना गया है, इसकी श्रेष्ठता पर विचार करने के लिये माना है और प्राकृतिक रूप से जीने और दूसरों को जीने | इसके विभिन्न पक्षों पर विचार करना आवश्यक है - देने के लिये और उत्तम आचरण के लिये उपदेश दिये हैं ।
प्राकृतिक पक्ष जहाँ उत्तम आचरण की चर्चा आती है वहाँ हमारा प्राकृतिक दृष्टि से शाकाहार का पक्ष अत्याधिक ध्यान इस प्रसंग पर जाता है कि आचरण को निर्मित | सबल है । इसका सबसे बड़ा प्रमाण मनुप्य की शारी
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रिक संरचना है। उसके मुह, दाँतों, हाथ की उंगलियों फोड़ डालो। हे अग्नि ! मांस भक्षण करनेवालों को एवं नाखूनों की बनावट के आधार पर प्रसिद्ध शरीर- अपने मुंह में रख लो।" अथर्ववेद, मनु स्मति और रचना शास्त्री एवं वैज्ञानिक उसे प्रण-कुशाचारी महाभारत में भी इसी प्रकार की धारणा व्यक्त की गई पशुओं की भाँति वनस्पत्याहारी अथवा शाकाहारी है। जैनागमों में कहा है-"किसी भी प्राणी का घात प्राणियों में गिनते हैं, माँसाहारी प्राणियों में नहीं। करना स्वयं अपना घात करना है। भोजन जिह्वा के लारेन्स, किंग्सफोर्ड, कुवियर, पॉशेट, वैशन, लिनियस स्वाद के लिये नहीं खाया जाता-शरीर की रक्षा के एवं लंकास्टर आदि अनेकों पाश्चात्य विशेषज्ञों का लिये खाया जाता है। मांस-भक्षण, मद्यपान, पशुमत है कि मात्र शाकाहार ही मनुष्य की प्रकृति पक्षियों का शिकार, चोरी, द्य त क्रीड़ा (जुआ खेलना) और उसकी शारीरिक संरचना के सर्वथा अनुकूल है। और व्यभिचार भारी पाप हैं जो मनुष्य की दुर्गति डा० अलेक्जेंडर हेग के अनुसार भेड़िया, चीता, सिंह करते हैं।" भगवान बुद्ध ने लंकावतार सूत्र में कहा आदि मांसाहारी पशुओं का पचनतंत्र मांसाहार को है--''माँसाहारी दूसरों के प्राणों को बलपूर्वक लेने के पचाकर विषाक्त द्रव्यों को शरीर से निष्कासित करने कारण डाकू समान हैं। जो व्यक्ति लोभवश दूसरों के को क्षमता रखता है, जबकि मनुष्य का पाचनतंत्र वसा प्राण हरते हैं तथा माँस के उत्पादन में धनादिक से योग नहीं कर सकता, न वह उस प्रकार मांस भोजन को देते हैं वे पापी हैं, दुष्ट हैं, घोर नरक में जाकर महाउपयुक्त रस-रक्त आदि सप्त धातुओं में भली प्रकार दुःख उठाते हैं। मैं मानता हूँ कि जो व्यक्ति दूसरे परिवर्तित कर सकता है। प्रो. लारेन्स ने मांसाहार के प्राणियों का मांस खाता है वह वास्तव में अपने पुत्र समर्थकों के इस तर्क का कि मांसाहारियों में शारीरिक का मांस खाता है।" बल और साहस अधिक होता है, खन्डन करते हुए कहा है कि -शाकाहार के साथ शारीरिक दौर्बल्य एवं ईसा मसीह ने कहा है-"देखो मैंने पृथ्वी पर सब कायरता का उतना ही कम सम्बन्ध है, जितना कि प्रकार की जड़ी-बूटियाँ तथा उनके बीज दिये हैं। साथ माँसाहार के साथ शारीरिक बल और साहस का। ही, तरह-तरह के फलों से लदे पेड़-पौधे भी दिये हैं वस्तुत: शाकाहारी की अपेक्षा माँसाहारी में सहनशक्ति, तथा उनके बीज भी। इन सब शाकाहारी पदार्थों को शौर्य और साहस कहीं अधिक कम होता है। पशु जगत खाओ। वे तुम्हारे लिये मांस से अधिक लाभप्रद हैं। तुम में हाथी, दरियाई घोड़ा, घोड़ा, ऊंट, गेंडा, बैल, महिष मेरे निकट सदैव एक पवित्र आत्मा बने रहोगे, यदि तुम आदि शुद्ध शाकाहारी जीव विश्व के विभिन्न मांसाहारी किसी का भी माँस न खाओ।" पैगम्बर मोहम्मद ने जीवों की अपेक्षा अत्यधिक शक्तिशाली, साहसी, भी कुरान शरीफ में कहा है--"किसी भी प्रकार का स्फूर्तियुक्त एवं दीर्घजीवी होते हैं ।
माँस ईश्वर को नहीं पहुँचता, न किमी का रत, ही।
परन्तु जितनी कुछ दया पालोगे वही अल्लाताला को दार्शनिक पक्ष
कबूल होगी।" हजरत अली ने और भी सशक्त
रूप से कहा है कि - "हे इन्सान । पशु पक्षियों की दार्शनिक दृष्टि से तो शाकाहार का पक्ष और भी
कब तु अपने पेट में मत बना।" गुरु नानक देव ने प्रबल है, विश्व के लगभग सभी दार्शनिकों एवं
कहा हैमहापुरुषों ने शाकाहार का प्रबल समर्थन किया है। यही नहीं उसे जीवन में अपनाया भी है। ऋग्वेद में कहा "जे रक्त लगे कापड़े, जामे होवे पलित्त । है -- "हे मित्र ! जो पशु का मांस खाते हैं, उनका सिर जो रस पीवे मानुषा, तिन क्यों निर्मल चित्त ।।"
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सूफी सन्त अबुल अली ने एक प्रसंग में लिखा है - " कसाई को छुरी चलाते देख बकरी ने कहा- हरी घास खाने पर मुझे यह सजा मिल रही है, तब मेरा माँस खानेवाले कसाई का क्या हाल होगा ।" कबीरदास कहते हैं
माँस अहारी मानवा, परतछ राक्षम अंग । तिनकी संगत मत करो, परत भजन में भंग ॥ जोरि कर जिबह करें, कहत करें हलाल । जब दफ्तर देखेगा दई, तब होगा कौन हवाल ॥
प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात, चाणक्य, जरयुक्त, पाइथागोरस, अफलातून (प्लेटो ), तिरककुरल, स्वामी दयानन्द सरस्वती स्वामी विवेकानन्द आदि ने शाकाहार का प्रबल समर्थन किया है । सम्राट अकबर ने तो बड़े ही कड़े शब्दों में कहा है- मेरे लिये कितने सुख की बात होती यदि मेरा शरीर इतना बड़ा होता कि माँसाहारी लोग केवल मेरे शरीर को ही खाकर सन्तुष्ट हो जाते, ताकि वे फिर दूसरों को मारकर न खाते । " विश्व के सभी प्रमुख साहित्यकारों, वैज्ञानिकों, विचारकों ने भी इस पक्ष में अपने सशक्त मत व्यक्त किये हैं । टालस्टाय ने कहा है- "माँस खाने से पाशविक प्रवृत्तियाँ बढ़ती हैं, काम उत्तेजित होता है, व्यभिचार करने और मदिरा पीने की इच्छा होती है । इन सब बातों के प्रमाण सच्चे शुद्ध और सदाचारी नवयुवक हैं । विशेषकर स्त्रियाँ और जवान लड़कियाँ हैं जो इस बात को साफ-साफ कहती हैं कि माँस खाने के बाद काम की उत्तेजना और अन्य पाशविक प्रवृतियाँ आप ही आप प्रबल हो जाती हैं। माँस खाकर सदाचारी बनना असंभव है ।" चार्ल्स डारविन ने लिखा है - "प्राचीन काल में मनुष्य भारी संख्या में शाकाहारी ही थे । (Descent of Man, P. 156 ) और मैं विस्मित हूँ कि ऐसे असाधारण मजदूर मेरे देखने में कभी नहीं आए. जैसे कि चिली की खानों में काम करते हैं । वे बड़े दृढ़, बलवान हैं और वे सब शाकाहारी हैं । इनके अतिरिक्त
अलवर्ट आईंस्टीन, हमवोल्ट, ई. एल. प्रेट, मि. होरेस ग्रीले, प्रो. जोहेनरे, ए. ई. वेरिस, रवीन्द्रनाथ टैगोर, जार्ज बर्नाड शा, काका कालेलकर आदि अनेक विद्वानों ने भी शाकाहार का प्रबल समर्थन किया है ।
बीसवीं सदी में अहिंसक वैचारिक क्रान्ति के उन्नायक महानतम दार्शनिक राजनीतिज्ञ एवं सन्त महात्मा गांधी तो न केवल इसके प्रबल समर्थक ही थे, वरन् इसके प्रचारक भी थे। शाकाहार उनके गांधीवादी जीवन-दर्शन का प्रमुख अंग है। उन्होंने लिखा --- "डॉक्टर किंग्सफोर्ड और हेग ने माँस की खुराक से शरीर पर होनेवाले बुरे असर को बहुत ही स्पष्ट रूप से बतलाया है । इन दोनों ने यह बात साबित कर दी है कि दाल खाने से जो एसिड पैदा होता है, बही एसिड माँस खाने से बनता या पैदा होता है । माँस खाने से दांतों को हानि पहुँचती है, संधिवात हो जाता है । यहीं तक बस नहीं, इसके खाने से मनुष्यों में क्रोध उत्पन्न होता है । हमारी आरोग्यता की व्याख्या के अनुसार क्रोधी मनुष्य निरोग नहीं कहा जा सकता । केवल माँस-भोजियों के भोजन पर विचार करने की जरूरत नहीं, उनकी दशा ऐसी अधम है कि उसका स्वालकर हम माँस खाना कभी पसन्द नहीं कर सकते । माँसाहारी कभी निरोग नहीं कहे जा सकते ।"
सामाजिक पक्ष
सामाजिक दृष्टि से यदि हम मानवीय आहार का मूल्यांकन करें तो भी शाकाहार का पक्ष अत्याधिक प्रबल है । असामाजिक तथा आपराधिक तत्वों के सम्बन्ध में किये गए विभिन्न सामाजिक अनुधानों से जो तथ्य सामने आए हैं, उनसे स्पष्ट है कि युद्ध, कलह, रक्तपात, हिंसा एवं अन्य भीषण अपराध माँसाहारियों में ही अधिक पाए जाते हैं। माँसाहार और मद्यपान का भी घनिष्ट सम्बन्ध है । सामान्यतः माँसाहारी मद्यपान की ओर प्रेरित होते हैं । इन दोनों के संयोग से यौन इच्छाएँ उग्र होने के कारण ये लोग यौन अपराधों में
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संलग्न होते हैं। इससे यौन विकार उत्पन्न होते हैं तथा कारण करोडों व्यक्तियों को जो कषि एवं उनसे सम्बद्ध समाज में अव्यवस्था एवं कलह को प्रोत्साहन मिलता रोजगारों में लगे हैं तथा करोड़ों जीवों को जो दुग्ध है। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि मांसाहार क्रोध एवं उत्पादन या कृषि उत्पादन में लगे हैं, को जीविका यौन इच्छाओं को प्रोत्साहित करता है। ये दोनों ही प्रदान करता है। प्रवत्तियाँ मानव को असामाजिक कार्यों के लिये प्रेरित करती हैं । मांसाहार के लिये निरीह पशुओं का वध
वैज्ञानिक दृष्टिकोण किया जाने के कारण मांसाहारियों में प्रेम, दया और मानवीय आहार के सम्बन्ध में अनेकों वैज्ञानिक अहिंसा की भावना लुप्त होती जाती है, इसके कारण अनुसंधान हुए हैं । इन अनुसंधानों से यह तथ्य स्पष्टतः क्र. रता, अदया एवं हिंसा की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन रूप से उजागर हुए हैं कि शाकाहारी व्यक्ति अधिक मिलता है । यही नहीं, इसके कारण अनेकों पशु-पक्षियों दीर्घजीवी, सुदृढ एवं स्वस्थ होते हैं जबकि माँसाहार की जातियाँ सर्वथा समाप्त होती जा रही हैं। इस अनेक दोषों का कारक है। अजरवेजान (सोवियत रूस) प्रकार सामाजिक दष्टि से भी शाकाहार अत्यधिक के 168 वर्षीय शिराली मिसालिनोव ने मांसाहार उपयुक्त आहार है, इससे आदर्श समाज की स्थापना में और मदिरा दोनों को ग्रहण न करने को अपने दीर्घ सहायता मिलती है।
और चुस्त जीवन का रहस्य बताया है।
आर्थिक पक्ष
वैज्ञानिक अनुसंधानों के अनुसार स्वस्थ एवं पुष्ट आर्थिक दृष्टि से शाकाहार माँसाहार की तुलना
शरीर निर्माण के लिये निम्नलिखित तत्वों की पूर्ति
आहार में आवश्यक मानी गयी हैमें सस्ता, सुलभ, सहज एवं प्रचुर होता है। यह रचनात्मक उत्पादन का परिणाम होने से प्राकृतिक है। ।। प्रकृति प्रत्येक समय समयानुकूल अन्न, फल तथा मब्जियां आदि उत्पादन प्रदान करती है। आज मनुष्य पैदा कर शरीर की क्षतिपूर्ति करती है।
यह शारीरिक विकास, उत्साह, शक्ति और स्फूर्ति जाति का एक बहुत बड़ा भाग कृषि उत्पादन में लगा है। इनके परिश्रम तथा प्रकृति के आशीर्वाद से प्राकृतिक 2. फैट (चिकनाई)उत्पादनों में जितनी विविधताएँ उपलब्ध हैं, वह
यह शरीर में शक्ति और गरमी पैदा करती है। मांसाहार के लिये कल्पना की ही बात है। यही कारण है कि सम्भवतः विश्व में शायद ही कोई मानव ऐसा 3. खनिज लवण - हो जो मात्र मांसाहार पर ही जीवित रहता हो और ये हड्डियों को मजबूत बनाते हैं तथा भोजन प्राकृतिक भोजन अन्न, फल, वनस्पतियों, सब्जियों आदि शक्ति को अच्छा रखते हैं। को ग्रहण करता हो जबकि विश्व में करोड़ों ऐसे लोग हैं जो पूर्णत: शाकाहार पर ही जीवित हैं और किसी 4. कार्बोहाइड्रेट्सभी दष्टि से माँसाहारियों के समक्ष हीन नहीं हैं वरन
ये शरीर में शक्ति और गरमी पैदा करते हैं। कई दृष्टियों से उनसे उन्नत हैं।
5. जल (नमी)-- शाकाहार न केवल मूल्य की दृष्टि से सस्ता तथा यह शरीर की सफाई कर गन्दे पवार्थों यथा. उपलब्धता की दृष्टि से सहज व सुलभ ही है वरन् इसके पसीना, मल-मूत्र आदि, को शरीर के बाहर निकालने
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तथा भोजन के पाचन एवं खून के दौरे में मदद देता है 6. घी तथा शरीर के तापक्रम को समान रखता है।
7. दूध
60 ,, 8. मांस
28 , 6. कैलशियम
9. मछली यह हडिडयों और दांतों को मजबूत बनाने, शरीर का रंग निखारने, बालों को घने तथा मजबत बनाने
विभिन्न देशों के सन्दर्भ में वहां के निवासियों के का कार्य करता है।
लिये दैनिक रूप से आवश्यक विभिन्न पौष्टिक तत्वों
के सन्दर्भ में किये गए अनुसंधान के आधार पर जो 7. लोहा
तथ्य प्रकाश में आए हैं, और इस आधार पर प्रत्येक यह खून के प्रत्येक तन्तु तक आक्सीजन पहुँचाने व्यक्ति के लिये जो सन्तुलित आहार सुझाये गये हैं तथा खुन की लाली बढ़ाने एवं बनाए रखने का काम उनसे भी यह बात स्पष्टतः प्रमाणित हुई है कि शाकाकरता है।
हार में ये सभी पौष्टिक तत्व पर्याप्त एवं प्रचुर मात्रा
में उपलब्ध हैं। इण्डियन काउन्सिल ऑफ मेडीकल 8. विटामिन
रिसर्च द्वारा सन 1968 में भारतवासियों के लिये ये शरीर को स्वस्थ तथा रोगमुक्त रखते हैं ।
आवश्यक सन्तुलित भोजन की जो तालिकाएँ (देखिये 9. कैलोरी--
तालिका क्रमांक 3) प्रकाशित की गई हैं उनसे भी
यह स्पष्टतः प्रमाणित है कि शाकाहार ही सन्तुलित यह शरीर में शक्ति व गरमीनापने का पैमाना है अर्थात शरीर में उत्पन्न गरमी और शक्ति मापने की
भोजन उपलब्ध कराने को पर्याप्त रूप से सक्षम माप है।
आहार है। विभिन्न खाद्य पदार्थों में पाए जानेवाले उपरोक्त
चिकित्सा शास्त्रीय दृष्टिकोण तत्त्वों की मात्रा के आधार पर यह तथ्य सुनिश्चित रूप
वैज्ञानिकों एवं चिकित्सा शास्त्रियों ने आहार के से कहा जा सकता है कि अनाज व वनस्पतियों में पर्याप्त सम्बन्ध में किये गये विभिन्न अनुसंधानों में संतुलित मात्रा में पोषक तत्व उपलब्ध होते हैं, (देखिये तालिका आहार तथा विभिन्न आहारों में उपलब्ध पोषक तत्वों क्रमांक 4) न केवल यही वरन वहत सी वनस्पतियों में के संबंध में पर्याप्त अनुसंधान किये हैं। उनसे जहाँ इनकी मात्रा मांसाहारी वस्तुओं की अपेक्षा काफी आहारों के गुणात्मक पक्ष पर प्रकाश पड़ा है, वहाँ गत अधिक है, जैसा कि निम्न तालिका से स्पष्ट है:
शताब्दी में चिकित्सा शास्त्रियों ने विभिन्न आहारों द्वारा
मानवीय शरीर पर पड़नेवाले कुप्रभावों पर भी तालिका क्रमांक 1
पर्याप्त मात्रा में शोध-कार्य किये हैं, इन अनुसंधानों से पोषक अंशों की मात्रा जो नये तथ्य प्रकाश में आये हैं वे माँसाहारियों के 1. बादाम
91 प्रतिशत लिये चौंका देनेवाले एवं गम्भीर चेतावनी स्वरूप हैं। 2. चना, मटर
अनेकों चिकित्सा शास्त्रियों के मतानुसार माँसाहार 3. चावल
गठिया, कैन्सर, पक्षाघात, राजयक्षमा, मगी, रक्ताम्ल, 4. गेंहूँ
कुष्ट आदि कितने ही भयानक रोगों को प्रोत्साहित 5. जी . ... 84 , करता है । विगत में हुए अनुसंधानों से मांसाहारियों
वस्तु
०००००
87 87 86
, , ,
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का यह तर्क कि माँसाहार माँस तथा शक्ति की वृद्धि होती है, भी खण्डित हुआ । चिकित्सा विज्ञान के अनुसार माँसाहार माँस तथा चर्बी बढ़ाकर मोटापे में वृद्धि अवश्य करता है, परन्तु शक्ति या स्फूर्ति में नहीं । माँसाहार से स्फूर्ति या ओज प्रकट नहीं होता, यही कारण है कि घायल, बीमार, अशक्त, गर्भिणी अथवा प्रसूता को माँसाहार निषिद्ध रहता है और उसे दूध, फलों का रस तथा हल्का शाकाहारी भोजन दिया जाता है ।
चिकित्सा शास्त्रीय अनुसंधानों में प्रत्येक आहार की सूक्ष्मतम बारीकियों की जाँच कर जो तथ्य प्रकाश में आए हैं उनसे यह स्पष्ट है कि विभिन्न वस्तुऐं मानव शरीर के लिये अत्यधिक मानवीय आहार की चर्चा करते समय विभिन्न हारी वस्तुओं के इस पक्ष पर भी विचार आवश्यक है ।
अण्डे
माँसाहारी घातक हैं । माँसा - करना
आजकल कुछ लोग अण्डों को निर्जीव बताकर उसे शाकाहार के अन्तर्गत बताकर शाकाहारियों को उनके उपयोग का तर्क देने लगे हैं, या यों कहें कि कुछ शाकाहारी अण्डों के उपयोग को उपरोक्त तर्क से सिद्ध कर दूसरों को भी अण्डे खाने की सलाह देने लगे हैं और इस प्रकार इधर कुछ वर्षों में अण्डों का प्रयोग बढ़ा है, परन्तु वास्तविक रूप से यह तर्क निरर्थक है । माँस और हड्डी न होने के आधार पर अण्डे के तरल को शाकाहार कहना मूर्खता ही है । यह कहनेवाले यह जानकर भी कि - प्रत्येक जीव की उत्पत्ति तरल पदार्थ से ही होती है, इस प्रकार का तर्क देते हैं, यह दुर्भाग्यपूर्ण है । विगत अनुसंधानों ने यह सिद्ध किया है कि अण्डे की जरदी अण्डे का बड़ा खतरनाक भाग है। इसमें कोलेस्ट्रोल नामक भयानक विष एक चिकना एलकोहल होता है, जो जिगर में पहुंचकर जमा होता है और हृदय से रक्त ले जानेवाली नाड़ियों में रुकावट पैदा
1
करता है, इसके कारण दिल की बीमारी हाई ब्लड प्रेशर, गुर्दे की बीमारी, पित्त की थैली बीमारी में पथरी और जोड़ों में दर्द हो जाता 1
कृषि विभाग, फ्लोरिडा (अमेरिका) ने अपने हैल्थ बुलैटिन (अक्टूबर 1967 ) में प्रकाशित शोध प्रतिवेदन ( रिसर्च रिपोर्ट) में कहा है कि 18 माह के परीक्षण के बाद 30 प्रतिशत अण्डों में डी. डी. टी. नामक विष पाया गया ।" डा. जे. एम. विलकिंस ने लिखा है - " अण्डे की सफेदजरदी मुख्यतया अलवुमिन ही है, जो कि प्रोटीन की एक किस्म ही है। शरीर अलबुमिन को नष्ट तत्व के रूप में बाहर निकालता है। अण्डे का पीला भाग कोलेस्टरोल नामक पदार्थ अपने अन्दर रखता है जो कि एक प्रकार की चिपचिपी शराब है जो यकृत और खून की रंगों में जमा हो जाता है और खून की धमनियों (रगों) में जमा हो जाता है तथा खून की धमनियों (रगों) में जख्म और कड़ापन पैदा कर देता है ।" डा. इ. व. मैककोलम ने जब बन्दरों को अण्डों पर ही रखा तो उनमें सड़ानेवाले कीटाणु अधिक होने लगे और वे सुस्त हो गए, उनके पेशाब की मात्रा कम और रंग गहरा हो गया । जब
उन्हें दूध व अंगूर की शर्करा दी गई तो मानसिक व शारीरिक दोनों परिवर्तन उनमें पुनः लौट आए और बे ठीक हो गए। उन्होंने अपने अनुसंधान के आधार पर यह परिणाम निकाला कि अण्डों में चुने की कमी होती हैं। और उनमें शर्करा भी नहीं होती है । अतः अण्डों में आंत के अन्दर सड़ाने की रुझान होती है बनिस्बत कि हाजमा दुरुस्त करने की। वे विषाक्त तत्वों को शरीर में पैदा कर देते हैं और सुस्ती लाते हैं ।
इंगलैण्ड के डा. राबर्ट ग्राम का लिखना है किमुर्गी के बच्चे में बहुत-सी बीमारियाँ होती हैं उन बीमारियों को विशेषतया टी. बी., पेचिश आदि के कीटाणुओं को अपने साथ लाते हैं और इनको खानेवालों में पैदा कर देते हैं ।" डा. इ. वी. मैक्कलिम ने
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लिखा है - " अण्डों में कैलशियम की कमी और कार्बोहाइड्रेट्स का बिल्कुल अभाव होता है, इस कारण से बड़ी आँतों में जाकर सड़ान मारते हैं।" डा. गोविन्दराज का कहना है कि " अण्डों में नाइट्रोजन, फास्फोरिक एसिड और चर्बी की अधिक मात्रा होती है, इस कारण ये शरीर में तेजावी माद्दा पैदा करते हैं और मनुष्य को रोगी बनाते हैं। इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त चिकित्सकों द्वारा किये गए अनुसंधानों के आधार पर यह बात स्पष्टतः प्रमाणित हो गई है कि अण्डे मनुष्य के लिये उपयुक्त आहार नहीं हैं ।
माँस एवं मछलियाँ
माँस के प्रभावों की चर्चा करते हुए हार्वर्ड स्कूल ऑफ अमेरिका के डा. ए. वाचमैन और डा. डी. एस. वर्मस्टीन' ने लिखा है - "माँसाहारी लोगों का पेशाब प्रायः तेजाबयुक्त होता है। इस कारण शरीर के रक्त का तेजाव और क्षार का अनुपात ठीक रखने के लिये हड्डियों में से क्षार के नमक खून में मिलते हैं, और इसके विपरीत शाकाहारियों का पेशाब क्षारवाला होता है । इसलिये उनकी हड्डियों का क्षार खून में नहीं जाता और हड्डियाँ मजबूत रहती हैं। उनकी राय में जिन व्यक्तियों की हड्डियाँ कमजोर हों उनको विशेष तौर पर अधिक फल, सब्जियों के प्रोटीन और दूध का सेवन करना चाहिये, माँस एक दम छोड़ देना चाहिये ।"
लन्दन के डाक्टर एलेक्जेण्डर हेग के वैज्ञानिक परीक्षण के अनुसार मछली और माँस में यूरिक एसिड विष होता है । यह विष जब खून में मिलता हैं तव दिल की बीमारी, टी. बी. जिगर की खराबी, श्वांस रोग, खून की कमी, गठिया, हिस्टीरिया, सुस्ती, अजीर्ण
1. लेंसेंट 1968 बोल्युम पृष्ठ 958
( साइन्स न्यूज : दिल्ली विज्ञान संघ से उद्धृत)
और तरह-तरह के दर्द पैदा कर देता अपने अनुसंधान के आधार पर इस तालिका प्रस्तुत की है-
खाद्य पदार्थ का नाम
तालिका क्रमांक 2
मछली व माँस में यूरिक एसिड विष
मछली
भेड़, बकरी
बछड़ा
सूअर
चूजा
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गाय
गाय की भुनी वोटी
गाय का जिगर
माँस का शोरबा...
1" डा. हेग ने सन्दर्भ में निम्न
प्रति पौंड यूरिक एसिड विष की मात्रा
5 ग्रेन
6
8
8
11
17
9
9
14
19
50 11
21
यह यूरिक एसिड विष जव रक्त में मिलता है तब हार्ट डिजीज, टी. बी, सांस रोग, जिगर की बीमारी हिस्टीरिया, खून की कमी, गठिया, अजीर्ण, अधिक नींद आना, तरह-तरह के दर्द, इनफ्लुएंजा जैसे अनेक प्रकार के बुखार आदि सैकड़ों रोग पैदा होते 1
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मुर्गे का मांस -
पशु चिकित्सा सेवाओं के संघीय निर्देशक डा. एस. बुरासिंहम ने अनुसंधान के आधार पर यह प्रमाणित किया है कि मुर्गे खाने से पुरुषों का पौरुष ख़तरे में पड़ सकता है। मुर्गों में वजन बढ़ानेवाले हार्मोन्स होने के कारण इसके खाने से पुरुषों में स्त्रीयोचित गुणों का
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विकास हो सकता है। जो पुरुष मुग की दुकानों में निष्कर्ष काम करते हैं और मुर्गे की गर्दन खाते हैं उनके स्तनों इस प्रकार जहाँ प्राकृतिक दार्शनिक, सामाजिक में वृद्धि के लक्षण पाए गए हैं।
एवं आर्थिक दृष्टिकोण से शाकाहार ही उचित एवं
आवश्यक मानवीय आहार है वहाँ वैज्ञानिक एवं विभिन्न रोगों सम्बन्धी अनुसंधान
चिकित्साशास्त्रीय दृष्टिकोण से भी शाकाहार ही विभिन्न रोगों के सम्बन्ध में किये गए अनुसंधानों सर्वाधिक उपयुक्त आहार है । शाकाहार जहाँ पूर्णाहार : में भी अधिकतर रोगों का कारण मांसाहार पाया गया होने के साथ-साथ पोषक, सुलभ, स्फूर्ति एवं शक्ति है। डा. आर. जे. विलियम्स एवं राबर्टग्रांस के अनुसार है वहाँ माँसाहार में मोटापा बढ़ाने के अतिरिक्त अन्य . अण्डे की सफेदी में एवीमान नामक भयानक तत्व कोई विशेष गुण नहीं हैं। उल्टे मांसाहार के कारण, पशु- - एक्जीमा उत्पन्न करता है । जिन जानवरों को अण्डे की पक्षियों के शरीर में पाये जानेवाले अनेक रोगाणु सफेदी खिलाई गई उन्हें लकवा मार गया और चमड़ी मानव शरीर में प्रवेश कर अनेकों विकार उत्पन्न करते. सूझ गई। डा. रोबर्ट ग्रांस व प्रो. इरविंग डेविडसन के हैं । यही कारण है कि चिकित्सा शास्त्रीयों के अनुसार-"एक अण्डे में लगभग 4 ग्रेन कोलेस्टरोल नवीनतम अनुसंधानों के आधार पर पश्चिमी देशों में की मात्रा पाई जाती है । इसकी अधिक मात्रा दिल जो विशेषकर माँसाहारी क्षेत्र हैं, वहाँ शाकाहार का की बीमारी, हाईव्लड प्रेशर, गुर्दो के रोग, पित्त की प्रबल प्रचार हो रहा है व मांसाहार के प्रति जनथैली में पथरी आदि रोगों को पैदा करते हैं। न्यूअर सामान्य को आगाह किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में कॉलेज आफ न्यूट्रिशन के डा. इ. वी. मेल्कालम के भारत जैसे देश में जहाँ की बड़ी संख्या शाकाहारी है, अनुसार अण्डों में कोर्बोहाइड्रेट्स बिल्कुल नहीं होते और पश्चिम के अन्धानुकरण के कारण माँसाहार का बढ़ता कैलशियम भी बहुत कम होता है, अतः इससे पेट में प्रयोगचिन्तनीय है, ऐसी दशा में आवश्यक है कि सड़न पैदा होती है। डा. रॉबर्ट ग्रांस ने कहा है कि लोगों को उनके आहार के सम्बन्ध में अधिकतम ज्ञान मुगियों में बहुत सी बीमारियां होती हैं, अण्डे उन दिया जाये ताकि वह उचित-अनुचित का निर्णय कर बीमारियों को विशेषतया टी.बी. एवं पेचिश आदि को सकें, इसी उद्देश्य से इस लेख में संक्षिप्त में पाठकों को अपने साथ ले जाते हैं और इनको खानेवालों में पैदा उनके उचित आहार के बारे में तर्कसंगत जानकारी करते है।
देने का प्रयास किया गया है।
२६८
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तालिका क्रमांक 3
- संतुलित भोजन (इण्डियन काउन्सिल आफ मेडीकल रिसर्च द्वारा 1968 में प्रस्तावित)
(अ) वयस्क पुरुष का सन्तुलित भोजन खाद्य पदार्थों का नाम बैठकर काम करनेवाले साधारण काम करनेवाले अधिक परिश्रम करने
के लिए (ग्राम में) के लिये (ग्राम में) वाले के लिये (ग्राम में) अनाज
400
475 दालें
70 टूटे पत्ते वाले साग 100
125 अन्य साग
75
100 जड़ीली तरकारियां
75 100
100 30
30 200
200 चिकनाई व तेल
35 40
50 चीनी व गुड़ मूगफली
650
80
80 125
75
फल
30
200
55
50*
* अगर मूगफली न खाना चाहे तो उसके स्थान पर 30 ग्राम चिकनाई व तेल बढ़ा सकते हैं।
(ब) वयस्क स्त्री का सन्तुलित भोजन खाद्य पदार्थ बैठकर काम साधारण काम अधिक परिश्रम अतिरिक्त भोजन । का नाम करनेवाली से लिये करनेवाली के लिये करने वाली के लिये गर्भावस्था, धात्रावस्था (ग्राम में) (ग्राम में)
(ग्राम में) (ग्राम में) (ग्राम में)
अनाज
350
100
दालें
300
60 125
.70 125
हरे पत्ते वाले साग अन्य सब्जीयां जड़ीली तरकारियां
475
70 125 100 100
50
75
फल
30
30
30
30
35
15
200 200
200 चिकनाई व तेल
40 चीनी व गुड़
30 30
20 मूंगफली
40+ * अगर 40 ग्राम मूगफली न खाना चाहें तो उसके स्थान पर 25 ग्राम चिकनाई या तेल ले सकते हैं।
40
२९६
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(स) किशोरावस्था वाले लड़के व लड़कियों का सन्तुलित भोजन
-
-
खाद्य पदार्थ का नाम
___13 से 15 वर्ष
(ग्राम में)
लड़के
17 से 18 वर्ष
(ग्राम में)
. लड़की 13 से 18 वर्ष
(ग्राम में)
अनाज
430 70
दालें
350
70 150
100
हरे पत्ते वाले साग अन्य साग जड़ीली तरकारियां फल
450
70 100
75 100
30 250 45
75 75
30 250
75
30
250
चिकनाई व तेल चीनी व गुड़ मूगफली
35 30
50
+ अगर मूगफली न खाना चाहें तो उसके स्थान पर 30 ग्राम चिकनाई व तेल ले सकते हैं।
(द) बच्चों के लिमे सन्तुलित भोजन
स्कूल जाने के पूर्व आयु के बच्चे । 1 से 3 वर्ष 4 से 6 वर्ष (ग्राम में) (ग्राम में)
स्कूल जाने वाले बच्चे 7 से 9 वर्ष 10 से 12 वर्ष (ग्राम में) (ग्राम में)
150 .50
200 60
अनाज दालें हरे पत्ते वाले साग अन्य साग और जड़ोले साग फल
250 70 75
320
70 100
50
___30
75
50
50
50
300 20
250
250
25
250
30 50
चिकनाई व तेल . गुड़ व चीनी
35
30
40
50.
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तालिका क्रमांक-4
शाकाहार एवं मांसाहार के पौष्टिक तत्वों को तुलनात्मक तालिका
(अ) शाकाहारी खाद्य
प्रोटीन
पानी कैलोरी
वसा (स्नेह)
खनिज कार्वो- कैलशियम लोहा लवण हाइड्रेट्स (मि. ग्रा.)
गेहूं का आटा मकई चावल
2.8 1.5 0.9 3.6 3.4 3.6 2.1
69:
4 66.2 774 56.6 60.3 57-2 59.7
352 343 349 334 350 333
346
14
12:2 14.9 12.6 10.4 10.9 15-2 12.4 9 .9 112 12.0 8 .1 13.7
2:3
62.5
358
उड़द अरहर मसूर भुना मटर भुना चना लोविया वड़ा सोयावीन मेथी वादाम काजू भुनी मूगफली पिस्ता अखरोट मक्खन
12.1 17 11. 1 3 .6
8.5 0.6 24.0
1.3 24.0 14 22.3 25.1 0.7 22.9 22.5 5.2 24.6 0.6 43:2 19.5 26.2 58 28.8 58.9 21:
2 469 31.5 39.8 19.8 53.5 15. 5 64.5
--- 80.8 -- 1000 24.1 25.1 14.6 312 3800
372
0.04 11.5
0.01 2.1 0.01 28 0.148.5 0-20 9.8 0.14 8.8 0-13 20 0.03 5.
0 0.07 8.9 0.07 3.8 0.24 11.
5 0.16 14.1 0:23 3.5 0.05
5.0 005 0.3 0.14 13:7 0.10 4:8
2.2 3: 2 4.6 3.0 2.8
58.
9 55.7 20.9 44.1 10.5 22.3 19:3 16.2 110
5-2
327 432 333 655 596 661 626
2.3
28
5.9 __4.0
5.6 ____4.5
687
घी
पनीर
4: 2 6 .3 3.1 20.5 68 510
-- -- 2140-3 5.8 30.6 1441
0.79 065 1.37
खोया
730 900 348 420 347
सप्रेटा दूध पावडर
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(ब) मांसाहारी खाद्य
प्रोटीन
पानी
कैलोरी
वसा खनिज कार्वो- कैलशियम लोहा (स्नेह) लवण हाईड्रेट्स (मि. ग्रा.)
मुर्गी का अण्डा बतख का अण्डा कलेजी(भेड़) बकरी का गोश्त सूअर का गोश्त गाय का गोश्त मछली
133 13.3 13.5 13.7 19:
3 7 .5 18.5 13.3 18.
7 4 .4 22.6 . 26 22.6 0.6
1.0 -- 100.7 1.5 1.3 1.3
0.06 0.07 0.01 0.15 0.03
21 30 6.3 2.5 2.3 0. 8
73.7 710 70.4 71.5 77.4 73.4 78.4
173 180 150 194 114 114 91
1.0
0.01
0.1 0.8
0.01
३०२
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________________
-
--
ग्वालियर
और जैन धर्म
(विविध सन्दर्भ)
- -
अEG. रवा
Jalludininternational
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________________
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गोपाचल का एक विस्मृत महाकवि - रइधू
भारतीय वाङ्गमय के उन्नयन में जिन वरेण्य साहित्यकारों ने अथक परिश्रम एवं अनवरत साधना करके अपना उल्लेख्य योगदान किया है, उनमें महाकवि रइधू अपना प्रमुख स्थान रखते हैं । उनका अवतरण एक ऐसे समय में हुआ था जब राजनीतिक विषमताओं एवं युद्ध - विषिकाओं से जन-जीवन जर्जर हो रहा था, तलवारों और भालों की निरन्तर बौछारों से शान्ति मी शान्ति की खोज कर रही थी, तब रघु ने जनमानस की वेदना का अनुभव किया और एक लोकनायक कवि के रूप में अपनी अमृतस्रोतस्विनी को प्रवाहित किया । उनकी रचनाओं का विषय- वैविध्य, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी भाषाओं पर असाधारण पाण्डित्य, इतिहास एवं संस्कृति का तलस्पर्शी ज्ञान, समाज एवं राष्ट्र को साहित्य, संगीत, कला एवं राष्ट्र धर्म के प्रति जागरूक करने की क्षमता अन्यत्र दुर्लभ है।
महाकवि का निवास-स्थल
धू के जन्मस्थान एवं जन्मतिथि विषयक स्पष्ट उल्लेख अभी तक प्रकाश में नहीं आ सके । किन्तु इस तथ्य के प्रचुर प्रमाण उपलब्ध हैं कि कवि की साहित्य
साधना का प्रमुख स्थल गोपाचल (ग्वालियर) दुर्ग था । उसने गोपाचल की महिमा का गान बड़े ही श्रद्धासमन्वित भाव से विस्तारपूर्वक किया है। उसके साहित्य में सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रसंगों में कई ऐसे वर्णन एवं शब्दावलियाँ प्राप्त हैं, जिनसे यही सिद्ध होता है कि उक्त कवि गोपाचल का निवासी था ।"
डा० राजाराम जैन
काल-निर्णय
महाकवि का जन्म कब एवं किस वर्ष हुआ, यह जानकारी भी अभी तक अप्राप्त है, किन्तु कवि ने अपनी एक रचना 'सुक्कोसलचरिउ' की अन्त्य - प्रशस्ति में उसका रचना समाप्ति काल वि० सं० 1496 दिया है' तथा उसमें अपनी पूर्ववर्ती कई रचनाओं के उल्लेख किये हैं एवं उन्हीं उल्लिखित रचनाओं की प्रशस्तियों में भी अपनी पूर्व - पूर्व- रचित रचनाओं के उल्लेख किये हैं, जिनकी संख्या 18 है। इससे विदित होता है कि कवि वि० सं० 1496 के पूर्व ही एक विशाल साहित्य का प्रणयन कर चुका था, क्योंकि वि० सं० 1496 के बाद ही उसकी मात्र पाँच रचनाएँ ही प्राप्त 1 पूर्वोक्त 18 ग्रंथों के परिमाण को देखते हुए तथा उनके प्रथम गुरु गुणकीत्ति भट्टारक वि० सं० 1455 के
1.
- साहित्य का आलोचन स्मक परिशीलन (डा० राजाराम जैन) पृ० 44-45 । 2. सुक्कोसल चरिउ 4/23/1-3
३०५
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________________
आसपास) के समय को देखने से यह विदित होता है कि कवि का जन्मकाल वि० सं० 1440 के आसपास होना चाहिए । इसी प्रकार कवि ने अपनी रचनाओं में गोपाचल नरेश कीर्तिसिंह तोमर एवं भट्टारक शुभचन्द्र ( माथुरगच्छ पुष्करगणीय) के उल्लेख विस्तार के साथ किए हैं, जिनका कि समय वि० सं० है । इन उल्लेखों तथा अन्य तथ्यों से यह स्पष्ट विदित होता है कि कवि उक्त समय तक साहित्य साधना करता रहा और इस प्रकार उसका कुल जीवनकाल अनुमानत: वि० सं० 1440 से 1536 के मध्य तक प्रतीत होता है ।
1536 के आसपास
वंश-परम्परा
- साहित्य की प्रशस्तियों में मधुकरी वृत्ति से उनकी पारिवारिक परम्परा का परिचय मिल जाता है । उसके अनुसार कवि के पितामह का नाम संधाधिप देवराज तथा पिता का नाम हरिसिंह था और माता का नाम था विजयश्री । रइधू तीन भाई थे - बाहोल, माहणसिंह एवं रइधू । रइधू की पत्नी का नाम सावित्री था तथा पुत्र का नाम उदयराज । कवि ने उदयराज के जन्म के दिन ही अपनी 'हरिवंशचरित' नामक रचना समाप्त की थी ।
साहित्य साधना
महाकवि रद्द की साहित्य साधना गम्भीर विशाल एवं अद्भुत रही है। उन्होंने अपने जीवनकाल में तेईस से भी अधिक ग्रन्थों की रचना की, जिनकी भाषा प्राकृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी है । कई ग्रन्थों में अपने आश्रयदाताओं के प्रति आशीर्वचन सूचक संस्कृत श्लोकों की भी उन्होंने रचना की है । इन्हें देखकर प्रतीत होता है कि वे संस्कृत के भी अधिकारी विद्वान्
3.
4.
थे । भारतीय वाङ्गमय के इतिहास में इतने विशाल साहित्य का प्रणेता एवं प्रायः सभी प्रमुख प्राच्यभाषाओं का जानकार अन्य दूसरा कवि ज्ञात नहीं होता । रइधू विरचित साहित्य की वर्गीकृत सूची निम्न प्रकार है :--
(क) चरित साहित्य
(1) हरिवंशचरिउ ( 14 सन्धियाँ एवं 302 कडव तथा 14 संस्कृत श्लोक ); (2) बलहद्दचरिउ ( 11 सं०, 240 कडवक एवं 11 सं० श्लोक ) (3) महेसरचरिउ (13 सं०, 304 कडवक एवं 12 सं० श्लोक ), ( 4 ) जसहचरिउ (4 सं०, 104 कडवक 4 सं ० श्लोक ) ; ( 5 ) सम्मइचरिउ ( 10 सं०, 246 कडवक एवं 10 सं० श्लोक ); ( 6 ) तिसट्टमहापुराणपुरिसआयारगुणालंकारु ( 50 सन्धियाँ, 1357 कवक); (7) सिरिसिरिवालचरिउ ( 10 सं०; 202 कडवक एवं 10 सं० श्लोक ) ; ( 8 ) संतिणाहचरिउ (सचित्र, अपूर्ण, मात्र आठ सन्धियाँ ही प्राप्त हैं); (9) पासणाहचरिउ (7 सं. 137 कडवक 7 सं. श्लोक) (10) जिमंधरचरिउ ( 13 सं०, 301 कडवक तथा 13 सं० श्लोक ); ( 11 ) सुक्कोसलचरिउ (4 सं०, 74 कड़वक एवं 4 सं० श्लोक ) ; ( 12 ) घण्णकुमारचरिउ (4 सं०, 74 कडवक एवं 4 सं० श्लोक ) ;
(ख) आचार एवं सिद्धान्त साहित्य
( 13 ) सावयचरिउ ( 6 सं० 125 कडवक); ( 14 ) पुण्णा सवकहा ( 13 सं०, 250 कडवक), (15) सम्मत्तगुणणिहाणकव्व ( 4 सं०, 104 कडवक), ( 16 ) अप्पसंवाहकव्व ( 3 सं० 58, कडवक ), ( 17 ) सिद्धन्तत्थसार ( प्राकृत भाषा निवद्ध - 13 अंक एवं 850 गाथाएँ); ( 19 ) वित्तसार ( प्राकृत भाषा निबद्ध, 6 अंक, एवं 850 गाथाएं ) ;
विशेष के लिए देखिए रइधू सा० का आ० परि० पृ० 116-120 वही, पृ० 35-40
३०६
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________________
(ग) अध्यात्म एवं अन्य साहित्य
जिनमें समकालीन राजा, नगरसेठ, पूर्ववर्ती एवं (20) सोलहकारण जयमाला (27 पद्य);
समकालीन साहित्य एवं साहित्यकार तथा अन्य
राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों पर (21) दहलक्खणजयमाला (11 पद्य); (22) बारा
सुन्दर प्रकाश डाला है। इन प्रशस्तियों में गोपाचल भावना (हिन्दी, 37 पद्य) ।।
के मध्यकालीन इतिहास एवं संस्कृति की प्रचर अन्य ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। उक्त ग्रन्थों में से क्रमांक प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध होती है। 8 एवं 9 के ग्रन्थ सचित्र हैं और मध्यकालीन चित्रकला
राजाओं में कवि ने समकालीन तोमरवंशी राजा के अद्भुत उदाहरण हैं । उपर्युक्त समस्त साहित्य
डूंगर सिंह, कीतिसिंह एवं प्रतापरुद्र चौहान के उल्लेख अद्यावधि अप्रकाशित है।
करते हुए उनका विस्तृत परिचय एवं कार्यकलापों का
सुन्दर वर्णन किया है। कवि के अनुसार उक्त तीनों रइधू-साहित्य को विशेषताएँ प्रशस्तियाँ
राजा शूरवीर एवं पराक्रमी होने के साथ-साथ सर्व धर्म रइधु-साहित्य की सर्वप्रथम विशेषता उसकी समन्वयी एवं साहित्य तथा कला-रसिक थे। गोपाचल विस्तृत प्रशस्तियाँ हैं । कवि ने अपने प्रायः प्रत्येक ग्रन्थ दुर्ग में डूंगरसिंह एवं कीतिसिंह ने राज्य की ओर से के आदि एवं अन्त में विस्तृत प्रशस्तियाँ अंकित की हैं, श्रेष्ठ मूर्तिकला के विशेषज्ञों को निमन्त्रित कर लगातार
पिसाबsamARRIISTRविदिमिरमालाराममायाकारयामजस्वाला उसमयागावरुदावालटाकारितोरिकवि मारियासराव बालस्वारागिरिबबानिकायबायोमबाहामा माणतिबदडवर पालामामाHिETराजबिपिछ कक्षा
जसहरचरिउ (मौसमावाद प्रति); सन्दर्भ- राजा यशोधर अपने मनोरंजन ग्रह में
5. सचित्र ग्रन्थों के परिचय की जानकारी हेतु हमारे द्वारा लिखित विस्तृत निबन्धों के लिए देखिए-जैन
सिद्धान्त भास्कर (आरा) 25/2/62-69 (सचित्र जसहरचरिउ के लिए) अनुसन्धान-पत्रिका (जन०. मार्च) 1973) प्रवेशांक पृ० 50-57, (सचित्र पासणाहचरित्र के लिए) तथा र इधू सा० का आ० परि०
पृष्ठ 551-552 (सचित्र सतिणाह चरिउ के लिए)। 6. रइधू सा० का आ० परि० पृ० 95-116
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33 वर्षों तक जैनमूर्तियों का निर्माण कराया था। longer and smaller size. On the south rart जनरल कनिंघम ने उक्त मूर्तिकला से प्रभावित होकर of it is a large size which may be about 40 लिखा है
feet in height. These figures are perfectly
naked without even a rag to cover the The (Jaina) Rock Sculptures of parts of generation. Adiva is for from Gwalior are unique in Northern India as being
being a mean place on the contarary, it is well for their number as for their gigantic
extremely pleasant. The greatee fault size.
consists in the idol figures all about it. I
directed these idols to be destroyed." प्रस्तुत प्रसंग में सुप्रसिद्ध इतिहासकार श्री हेमचन्द्र राय का निम्नकथन भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं :
रइधू के अनुसार प्रतापरुद्र चौहान चन्द्रवाडपट्टन
का राजा था, जिसने अपने पराक्रम से मुस्लिम ___He (Dungar Singh) was a great patron
आक्रान्ताओं के छनके छुड़ा दिये थे और अपना राज्य of the Jaina faith and held the Jainas in high esteem. During his eventful reign, the work
विस्तार किया था । उसके राज्य में सभी धर्मों के of carving Jaina images on the rocks of the लोग सौमनस्य एवं सौहार्दपूर्वक निवास करते थे। Fort of Gwalior was taken in hand; it was राज्य की समृद्धि अटूट थी । प्रतापरुद्र के एक अमात्य brought to completion during the reigm of कुन्थूदास ने चन्द्रवाडपट्टन में हीरे, मोती, माणिक्य his successor Raja Karni Singh (or Kirti आदि की कई सन्दर जैनमतियाँ बनवाकर बडे ही Singh). All around the base of the Fort,
___ समारोह के साथ उनकी प्रतिष्ठा कराई थी।
.. the magnificent Statues of the Jaina pontiffs antiquity gaze from their tall niches like mighty Guardians of the great Fort and its
रइधू-साहित्य की प्रशस्तियों के अनुसार गोपाचल surrounding landscape. Babur was much एवं चन्द्रवाडपट्टन में साहित्यका का सम्मान राज्य annoyed by these rock-sculptures as to issue के सर्वश्रेष्ठ सम्मानों में श्रेष्ठतम माना जाता था। orders for their destruction in 1557 A. D. रइधू ने जब गोपाचल में 'सम्म सगुणणिहाणक ब्व' नामक
अपना काव्यग्रन्थ समाप्त किया था, तब कवि को उक्त सम्राट बाबर के मूर्ति तोड़नेवाले उक्त आदेश का
ग्रन्थ के साथ ही ऐरावत के सदृश सुन्दर हाथी पर जनरल कनिधम ने अंग्रेजी अनुवाद इस प्रकार किया है.-8
विराजमान कराकर नगर भर में घुम या गया था ।10
..They have hewn the solid rock of इसी प्रकार चन्द्रवाडपट्टन में जब कवि ने this Adiva and sculptured out of it idols of 'पुण्णसवकहा' नामक ग्रन्थ की समाप्ति की, तब
Murry's Northern India. Pages 381-2 8. Murry's Northern India. Pages 3819. पुण्णासव कहा 15/6/-11. 10. सम्मत्त गुण० 1/5/6-10.
३०८
h
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अगले ही दिन उसे हाथी पर बैठाकर नगर परिक्रमा साधन सम्पन्न होने के कारण ये नवीन-नवीन प्रतिभाओं कराकर उसका राजकीय सम्मान किया गया था।" की खोजकर उन्हें एकत्रित करते थे तथा बत्ति आदि
देकर उन्हें साहित्य के क्षेत्र में प्रशिक्षित करते थे । यही उक्त घटनाओं से यह विदित होता है कि गोपाचल कारण है कि गोपाचल में वि० सं० 1440 से 1540 एवं चन्द्र वाडपट्टन की राज्य परम्पराएं आदर्श थी और तक लगभग 100 वर्षों में जितना साहित्यिक कार्य सचमुच ही रइधु द्वारा उल्लिखित उक्त तीनों राजा हुआ है, उतना शायद ही अन्यत्र हआ हो। इन सौ सम्राट अशोक एवं राजर्षि कुमारपाल की कोटि में वर्षों में आक्रान्ताओं द्वारा पिछले वर्षों में साहित्य की आते हैं।
जो होलियाँ जलाई गई थीं, तथा मूत्तियों का विध्वस
किया गया था, उसकी पूर्ति का अथक प्रयास किया भट्टारक
गया। रइधू-साहित्य की प्रशस्तियों में कई भट्टारकों के उल्लेख मिलते हैं। इन भट्टारकों ने गोपाचल में सदैव रइधु-प्रशस्तियों में उल्लिखित भट्टारकों को दो ही साहित्यिक एवं सांस्कृतिक वातावरण उत्पन्न कर वर्गों में विभक्त कर सकते हैं -- (1) रइध-पर्व-भट्टारक स्वस्थ-समाज के निर्माण में अमूल्य योगदान किया है। एव (2) र इघु-समकालीन भट्टारक । पूर्ववर्ती ब्रज एवं बुन्देली का जो भी साहित्य निर्मित हुआ, उसके भट्टारकों में देवसेनगणि, विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन लिये मूल प्रेरणा इन भट्टारकों से मिली । धार्मिक एवं सहस्त्रकीति तथा समकालीन भट्टारकों में गुणकीति साधना के साथ-साथ इनमें संगठन की प्रवृत्ति भी यग:कत्ति पाल्ह ब्रम्ह, खेमचन्द्र एवं कुमारसेन के अदभूत थी। राजाओं एवं नगरसेठों को प्रभावित कर नामोल्लेख मिलते हैं। ये सभी भटटारक काष्ठासंघ उनसे आर्थिक सहायता लेने में भी ये पट थे । अत: माथुरगच्छ एवं पुष्करगण शाखा से सम्बन्ध रखते हैं।
TARAण्मासमक्षा समानारामनार
पकार पनि
जसहरचरिउ; सन्दर्भ-राजा यशोधर अपने प्रमुख मत्रियों से गम्भीर विचार विमर्श कर रहे हैं।
जसहरचरिउ, मौजमावाद, जयपुर प्रति
11. पुण्णासवकहा 13/12/3.
३०६
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इन सभी भट्टारकों ने साहित्य एवं कला के क्षेत्र में कांचीसंधे माथुरान्वयो पुस्करगण भट्टारक श्री गणकीति महत्वपूर्ण कार्य किये ।।
देव त पदे यत्यःकीर्तिदेवा प्रतिष्ठाचार्य श्री पंडित रधु
तेपं आमाए अग्रोतवंशे मोद्गल गोत्रासा ।। धुरात्मा भट्टारक शुभकीति ने अपने गुरु भट्टारक कमल तस्य पुत्रः साधु भोपा तस्या भार्या नाल्ही ।। पुत्र प्रथम कीति के आदेश से सुवर्णगिरि (आधुनिक सोनागिरि, साधु क्षेमसी द्वितीय साधु महाराजा तृतीय असराज झाँसी) पर एक भट्टारकीय पट्ट की स्थापना कर चतुर्थ धनपाल पञ्चम साघु पाल्का । साधु क्षेमसी स्वयं ही उसका कार्य संचालन किया था तथा उसे भार्या नोरादेवी पुत्र ज्येष्ठ पुत्र भधायि पति कौल..।। प्राच्यविद्या का प्रमुख केन्द्र बनाया था। वहां के विशाल भ-भार्या च ज्येष्ठस्त्री सरसूतीपूत्र मल्लिदास द्वितीय शास्त्र भण्डारों में आज भी महत्वपूर्ण सामग्री अपने भार्या साध्वीसरा पुत्र चन्द्रपाल क्षेमसीपुत्र द्वितीया साधु प्रकाशन की राह देख रही है तथा कई ऐतिहासिक श्री भोजराजा भार्या देवस्यपत्र पूर्णपाल । एतेषां गुत्थियों को सुलझाने के लिए उत्कण्ठित है।
मध्येश्री ।। त्यादि जिनसंघाधिपति 'काला' सदा
प्रणमति । भट्टारक कमलकीति के एक अन्यतम शिष्य मण्डलाचार्य श्री रत्नकीति ने वि० सं० 1516 में उक्त लेख में रेखांकित पद विचारणीय हैं। यह बडवानी (बावनगजा-पश्चिम निमाड़) स्थित 84 फीट तो सर्वविदित ही है कि गोपाचल (ग्वालियर) में वि० ऊँची आदिनाथ तीर्थ कर की मूर्ति के आसपास एक सं० 1497 में तोमरवंशी राजा इंगरसिंह का राज्य वसति का जीर्णोद्वार कराया था । ३ ये उल्लेख वस्तुत: था। उनके समय में गोपाचल काष्ठासंघ माथुरान्वय बड़े ही महत्वपूर्ण हैं और मध्यप्रदेश के पुरातत्व की एवं पुष्करगणीय भट्टारकों का गढ़ था। उनमें भट्टारक सद्धि के लिए अमूल्य निधि हैं।
गुणकीर्ति के शिष्य यश.कीति तथा उनके शिष्य महाकवि
रइधु ने डूंगर सिंह के आग्रह से उनके दुर्ग में रहकर गोपाचल दर्ग में स्थित 57 फीट ऊंची आदिनाथ ही साहित्य साधना की थी। महाकवि के बालसखा एवं की मूर्ति पर भी एक लेख अंकित है । स्व. श्री
डूगरसिंह के अमात्य कमलसिंह ने दुर्ग में 57 फीट राजेन्द्रलाल हाड़ा ने कठोर परिश्रम कर उसका अध्ययन ऊँची आदिनाथ की मूर्ति का निर्माण कराया था, किया था, किन्तु महाकवि रइधू कृत सम्मतगुण- जिसकी प्रतिष्ठा डूगरसिंह की सहायता से कमलसिंह गिहाणकव्व की आद्यप्रशस्ति का अध्ययन एवं मूति ने रइध द्वारा कराई थी। लेख से उसकी तुलना करने से श्री हाड़ा का अध्ययन पर्याप्त भ्रमपूर्ण सिद्ध होता है। उनके पठनानुसार मति
उक्त वक्तव्य के रेखांकित पदों की, मूर्तिलेख के लेख निम्न प्रकार है
रेखांकित पदों से तुलना करने पर संगति ठीक ही
बैठ जाती है। उक्त संगति का मूलाधार रइधु कृत श्री आदिनाथायनमः । संवत् 1497 वर्षे वैशाष 'सम्मत्तगुणणिहाणकव्व' ही है, जिसे रइधू ने कमलसिंह
7 के पुनर्वसुनक्ष ने श्री ‘गोपाचल दुर्गे' के आश्रय में रहकर उसके स्वाध्याय हेतु तैयार किया महाराजाधिराज श्री डुग..." संवर्तमानो श्री था तथा उसने उसकी प्रशस्ति में कमलसिंह का वंशवृक्ष,
12. विशेष के लिए देखिए रइधू, साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन पृ० 69-83. 13. दे० बड़वानी भित्तिलेख.
३१०
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डूंगर सिंह का विस्तृत वर्णन एवं गोपाचल की राजनैतिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों का सुन्दर चित्र खींचा है। मूर्तिलेख में अंकित सामग्री निम्न प्रशस्ति में दृष्टव्य है : ·---
गोपाचल डुंगरराय रज्जि । सिव ऊसइणा विहिय कज्जि || तहि णिव सम्मानें तोसियंगु । बुहँ बिहिउ जं णिच्य संगु ॥ करुणावल्ली वण-धवल- कंदु | सिरिअरवाल-कुल- कुमुय चंदु ॥ सिरि भोषाणामें हुवउ साहु | संपत्त जेण धम्में जिलाहु || तहु णाल्हाही णामेण भज्ज । अइसावहाण सा पुण्णकज्ज || तहुणंदण चारि गुणोह वास । ससिणिह जसभर पूरिय दिसास ॥
मसीहु पसिद्धउ महि गरिछु । महराजु महामइ तहु कणिट्टु | असराज दुहिय जण आसकर । पाल्हा कुल-कमल- वियास सुरु || एहु गरुवउ जो खेमसीहु । वर्णियउ एच्छ भवभमण वीहु || तहु णिउरादे भामिणि उत्त । गुरु देव सच्छ-पय-कमल- भत्त || तहि उवरि उवण्ण विणिणपुत्त । विष्णाण - कला-गुण-से णि जुत्त ॥ पढ़मउ संघाविउ कमलसीहु । जो पलु महीयल सिवसमीहु || णामेण सरासइ तहु कलत्त । वीई जि ससिपिय पाय भत्त ॥ चउविह दाणें पीणिय सुपत्त । अणि विरइय जिणणाहजत्त ॥
तहुणदणु णामें मल्लिदासु । सो संपत्तउ सुहगइ णिवासु ॥ संघाहिव कमलहु लहुउ भाउ । णामेण पसिद्धउ भोयराउ || तहु भामिणि देवइ णाम उत्त । विहु पुतहि सा सोहइ सउत्त || णामेण भणिउ गुरु चंदसेणु । पुणु पुण्णपालु लहुवउ अरेणु ॥
घत्ता
इय परियण जुत्तउ एच्छणिरु । कमलसीहु संघाहिव चिरणंदउ ||
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एच्छु पसणु मणु णिय । दुहिय जण आइ
11
सम्मत ० 4/35
इस प्रकार महाकवि रइधू के 'सम्मतगुणणिहाणकन्य' की प्रशस्ति को सम्मुख रखकर उक्त मूर्तिलेख के अशुद्ध पढ़े गये पाठों को सरलता से शुद्ध किया जा सकता है ।
गोपाचल के भष्ठिजन
रइधू ने अपनी प्रशस्तियों में प्रसंगवश कई नगर श्रेष्ठियों की विस्तृत चर्चा की है। इनमें से कुछ श्र ेष्ठिजन रइथू की कवित्वशक्ति से अत्यन्त प्रभावित होकर उन्हें अपना गुरु मानकर चलते थे तथा वे निरन्तर ही अपने स्वाध्याय हेतु उनसे काव्यग्रन्थ लिखने का आग्रहभरा निवेदन किया करते थे । यहाँ दो-एक उदाहरण प्रस्तुत कर यह दर्शाने का प्रयास किया जायगा कि मध्यकालीन नगर श्रेष्ठिजन ऐश्वर्य और भोगों के बीच रहते हुए भी कितने साहित्य रसिक एवं साहित्यकारों को मुकुटमणि के समान समझते थे । कवि रइधू के एक भक्त थे - कमलसिंह संघवी, जो तोमर राजा डूंगरसिंह
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के अमात्य थे तथा ऐश्वर्य में किसी भी राजा से कम न काव्यरूपी एक भी सून्दर मणि नहीं है। उसके बिना थे । वे कवि से कहते हैं "हे कविवर, शयनासन, हाथी, मेरा सारा ऐश्वर्य फीका-फीका लगता है। हे काव्यरूपी धोडे, ध्वजा, छत्र, चमर, सुन्दर-सुन्दर रानियाँ, रथ, रत्नों के रत्नाकर, तुम तो मेरे स्नेही बालमित्र हो, सेना, सोना-चाँदी, धन-धान्य, भवन, सम्पत्ति, कोष, तुम्हीं हमारे सच्चे पुण्य-सहायक हो । मेरे मन की इच्छा नगर, देश, ग्राम, बन्धु-बान्धव, सुन्दर सन्तान, पुत्र, को पूर्ण करनेवाले हो । इस नगर में बहुत से विद्वज्जन भाई, आदि सभी मुझे उपलब्ध हैं। सौभाग्य से किसी रहते हैं, किन्तु मुझे आप जैसा कोई भी अन्य सुकवि भी प्रकार की भौतिक-सामग्री की मुझे कमी नहीं, किन्तु नहीं दिखता । अत: हे कविश्रेष्ठ, मैं अपने हृदय की इतना सब होने पर भी एक वस्तु का अभाव मुझे गाँठ खोलकर आपसे सच-सच कह रहा है कि आप मेरे निरन्तर खटकता रहता है, और वह यह कि मेरे पास निमित्त एक काव्य की रचना कर मुझ पर अपनी महती
मोगराया डायनास्वाद मलनसावकलाटावडामाशयमानता भावानीगादासर मिला किमडानियावासादायक जनावरामवासना कवनपद्धामायावती तोपिदासान।
RE
বঙ্গালোচনা সমাজের এই
राविकमा साश्रया सरकारालकाला
जबामालामालवाSIS
रईधूकृत पासणाह चरिउ प्रतिलिपि काल-वि० स० १४९३ सन्दर्भ-राजा अरविन्द अपने मन्त्री वायभूति से उसके भाई कमठ के चरित्र के विषय में पछ रहा है
तथा कमठ को तत्काल ही देश निर्वासन की सलाह कर रहा है।
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कृपा कीजिए 14 कवि रइधू ने कमलसिंह की यह बिना धागे से रत्नों की माला कोई गूंथ सकता है ? मार्मिक-प्रार्थना स्वीकार कर उसके निमित्त 'सम्मतगुण- बिना बुद्धि के इस विशाल काव्य की रचना करने में मैं णिहाणकव्व' नामक एक काव्य-ग्रन्थ की रचना करदी। कैसे पार पा सकूँगा ?"
महाकवि का एक दूसरा भक्त था हरिसिंह साहू । उक्त प्रकार से उत्तर देकर कवि ने साहू की बात उसकी तीव्र इच्छा थी कि उसका नाम चन्द्र विमान में ___ को सम्भवतः टाल देना चाहा, किन्तु साहू बड़ा चतुर लिखा जाय । अतः वह कवि से निवेदन करता है-"हें था। अतः ऐसे अवसर पर उसने वणिक्बूद्धि से कार्य मित्र, मुझ पर अनुरागी बनकर मेरी विनती सुन लीजिए किया । उसने कवि को अपनी पूर्व-मैत्री का स्मरण एवं मेरे द्वारा इच्छित 'बलभद्र चरित' नामक रचना दिलाते हए कहा: "कविवर, आप तो निर्दोष काव्य लिखकर मेरा नाम चन्द्र-विमान में अंकित करा रचना में धुरन्धर हैं, शास्त्रार्थ आदि में निपूण हैं, आपके दीजिए।' हरिसिंह की यह प्रार्थना सुनकर कवि ने कई श्री मुख में तो सरस्वती का वास है। आप काव्यकारणों से अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए तथा प्रणयन में पूर्ण समर्थ हैं, अत: इच्छित-ग्रन्थ की रचना 'बलभद्र चरित' की विशालता का अनुभव करते हुए अवश्य ही करने की कृपा कीजिए।"18 अन्ततः कवि ने उत्तर दिया :
उक्त ग्रन्थ की रचना करदी।
घणएण भरइ को उवहि-तोउ ।
रइधू-साहित्य में वणित गोपाचल को फणि-सिरमणि पयडइ विणोउ। पंचाणण-मुहि को खिवइ हत्थु ।
रइधू-साहित्य में गोपाचल का बड़ा ही समृद्ध विणु सुत्ने महि को रयइ बत्थु ।
वर्णन मिलता है। कवि ने उसकी उपमा स्वर्गपुरी,
इन्द्रपुरी, एवं कुबेरपुरी से दी है, किन्तु प्रतीत होता है विणु-बुद्धिए तहँ कव्वहं पसारु ।
कि उसे इस तुलना से भी सन्तोष नहीं है, क्योंकि एक विरएप्पिणु गच्छमि केम पारु ।
सन्त कहाकवि की दृष्टि में ज्ञान एवं गुरू ही सर्वोपरि होते
हैं, भौतिक समृद्धि तो उनके समक्ष नगण्य है । अतः वह बलभद्र० 1/4/1.4
गोपाचल को 'नगरों का गुरू' अथवा 'पण्डित' घोषित अर्थात्-“हे भाई, बलभद्र-चरित का लिखना करता है । वह कहता है:सरल कार्य नहीं। उसके लिखने के लिए महान् साधना, क्षमता एवं दाक्ति की आवश्यकता है। आप ही बताइये
महिवीढ़ि पहाणउँ णं गिरिराणउँ । कि भला घड़े में समस्त समुद्र-जल को कोई भर सकता
सुरहँ वि मणि विभउ जणिउँ । है? साँप के सिर से मणि को कोई ले सकता है ?
कउसीसह. मंडिउ णं इहु । प्रज्ज्वलित पंचाग्नि में कोई अपना हाथ डाल सकता है ?
पंडिउ गोवायलु णामें भणिउँ ।
14. सम्मतगुण 1/15/1-6. 15. बलहद्दचरिउ 1/4/6-12, 16. बलहद्द० 1/5/5-6.
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पास० 1 / 2/15-16
अर्थात् "पृथ्वी-मण्डल में प्रधान, गिरिराज (सुमेरु) के समान विशाल, देवताओं के मन में भी विस्मय उत्पन्न करनेवाला, भवन शिखरों से मण्डित तथा पृथ्वी- मण्डल के श्रेष्ठ पण्डित के समान गोपाचल नामक एक नगर कहा गया है ।"
सुहनन्छ जरावर ण बुहयण जुहु णं
सत्यत्यहिं सोहिउ
जणमणु ।
मोहिउ णं वरणयरहँ एहु गुरु ॥
yungpoffint
पण
दि सिमि तिलकराजवि
स
आतार यम्बरछ पियवाला सामुदि
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वियोग किया
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विधानपरि
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रयणावरु । इंदउरु ||
प
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चाणक मासि
विश
विसर
सवातवरणा परिवार
भारसडिमा
बही 1 / 3/17-18
अर्थात् "सुख-समृद्धि एवं यश के लिए यह गोपाचल रत्नाकर के समान आकर था, बुधजनों के समूहों से युक्त वह नगर मानों इन्द्रपुरी ही था शास्त्रार्थी से । सुशोभित तथा जन-मन को आकर्षित करनेवाले सर्व श्रेष्ठ नगरों का मानों यह गुरू ही था ।"
३१४
वहाँ के सामाजिक जीवन का भी वह सुन्दर वर्णन करता है । कवि के अनुसार वहाँ के आबाल-वृद्ध, नरनारी दुर्व्यसनों से कोसों दूर थे । प्रातःकालीन क्रियाओं से निवृत्त होकर वहां की नारियाँ सुन्दर वस्त्र धारणकर
म
पावरजसामानादिर
मनोकलदिय
स्त हरिया
सिवनादिननयमि
महाकवि रईकृत अपभ्रंश का एक अधावधि अरकाशित दुर्लभ प्रत्व, "निलट्ठ महापुराणपुरिस आवशदगुणालंकारु" के अन्तिम पृष्ठ को फोटो कापी
ज
ratori
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पवित्र मन से प्रभाती-गीत गाती हुई जब देवालयों की
जिह मइमत्तु गइंदु णि रंकुसु । ओर जाती थीं, तब नगर का सारा वातावरण सात्विक
जं भावइ तं बोलइ जिह सिसु ॥ एवं धर्म-महिमापूर्ण हो जाता था। कुलवधुएं सत्पात्रों
जायंधु वि जह मग्गु ण जाणइ । को भोजन कराए बिना भोजन नहीं करती थीं, तथा
चउदिसु धाणमाणु दुहू माणइ ।। दीन-दुखी एवं अनाथों के प्रति वे निरन्तर दयालू रहती
तिहि राणउ लज्जा मेल्लिवि । थीं।17
जं रुच्चइ तं चवइ उवेल्लिवि ।। ___ एक ओर जहाँ रइधू-वर्णित महिलाएं इतनी उदार
वही02/5/8-11 थीं, वहीं दूसरी ओर धर्म-विरुद्ध कार्यों का घोर विरोध करनेवाली, सत्साहसी एवं वीरांगनाएँ भी वहाँ थीं।
अर्थात् "जिस प्रकार मदोन्मत्त हाथी निरंकुश हो कवि ने अपने 'सिरिसिरि-वालकहा' नामक ग्रन्थ में जाता है, उसी प्रकार हमारा पिता भी निरंकुश हो गया उज्जयिनी की राजकुमारी मयणासुन्दरी का उल्लेख है । अज्ञानी बच्चों के समान ही जो मन में आता है, करते हुए बताया है कि राजा प्रभूपाल ने किस प्रकार सो बोलता है। जिस प्रकार जन्मान्ध व्यक्ति मार्ग नहीं मयणासुन्दरी की कला-विद्याओं की कुशलता से प्रसन्न जानता और चारों दिशाओं में दौड़ता हुआ दुःख-भाजक होकर उसे स्वयं ही अपने योग्य वर के चुनाव कर लेने बनता है, ठीक उसी प्रकार यह भी मान-मर्यादा छोड़का आदेश दिया ।18 किन्तु मयणासुन्दरी इसे भारतीय- कर जो मन में आता है, वही करता है और बोलता परम्परा के विपरीत होने के कारण आपत्तिजनक मान- है।" इसके बाद वह अपने पिता को निर्भीकता के साथ कर उसका घोर विरोध करती है । कवि ने इस प्रसग उत्तर देती हुई कहती है :की चर्चा पर्याप्त विस्तार के साथ की है। प्रतीत होता है कि मयणासुन्दरी के माध्यम से कवि ने वहाँ के
भो ताय-ताय-पइँ णिरु अजुत्तु । नारी वर्ग के प्रति अपनी हार्दिक श्रद्धांजलियाँ अर्पित की
जंपियउ ण मुणियउ जिणहु सुत्तु ।। वर-कुलि उवण्ण जा कण्ण होइ ।
सालज्ज ण मेल्लइ एच्छ लोय ॥ उक्त प्रसग के अनुसार पिता के विवाह सम्बन्धी
वादाववाउ नउ जुत्तु ताउ । प्रस्ताव सुनकर मयणासुन्दरी विचार करती है :
तहँ पुणु तुअ अवखवमि णिसुणि राउ।
विह-लोय-विरुद्धउ एहु कम्मु । कुलमग्गु ण याणइ अलियभासि ।
जं सुव सइंवरु णिण्हइ सुछम्मु॥ नियगेह आणइ अवजसह-रसिरा ॥
पइँ मण इच्छइ किज्जइ विवाहु । सिरिवाल0 2/4/8
तो लोय सुहिल्लउ इय पवाहु ॥ अर्थात् यह (मेरा पिता) कुल-परम्पराओं को
वही० 2/6/5 जानता नहीं, वह असत्यभाषी है और अब अपने घर में अर्थात् “हे पिताजी, आपने जिनागम-सूत्रों के अपयशों को ला रहा है।
विरुद्ध ही मुझे अपने आप पति के चुनाव कर लेने का 17. सम्मत्तगुण. 1/4. 18. सिरिवाल. 2/4/5.
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दम
आदेश दिया है । किन्तु जो कन्याएं कुलीन होती हैं, वे
परमण गहणायर वयणियभायरु । कभी भी ऐसा निर्लज्जता का कार्य नहीं कर सकतीं। हे
जिणपयपयरुह णबिय सिरु ।। पिताजी, इस विषय में मैं वाद-विवाद नहीं करना चाहती । इसलिए, मेरी प्रार्थना ध्यानपूर्वक सुनें ।
पास० 7/11 आपका यह कार्य लोक-विरुद्ध होगा कि आपकी कन्या
____ अर्थात् “सम्पूर्ण देश उपद्रवों से रहित रहे, नरेश स्वयंवर करके अपने पति का निर्वाचन करे । अतः
प्रजा का पालन करता हुआ आनन्दित रहे । जिन-शासन मुझसे कहे बिना ही आपकी इच्छा जहाँ हो, वहीं पर
फले-फूले । निर्दोष मुनिगण विषय-वासना से दूर रहकर मेरा विवाह कर दें......
आनन्दित रहें। जो श्रावकगण जीव-अजीव आदि पदार्थों
का श्रवण करते हैं, बे पापरहित होकर आनन्द से रहें।" भरत वाक्य रइधु-साहित्य की यह विशेषता है कि उसके प्रायः
दूसरों के गुण ग्रहण करनेवाले, व्रत एवं नियमों सभी ग्रन्थों में विस्तृत भरत-वाक्य भी उपलब्ध होते
का आचरण करनेवाले, मात्सर्य-मद से रहित एवं शास्त्र हैं । उनके मूल में कवि के अन्तस् का उज्ज्वल रूप ही
में प्रवीण पण्डितगण चिरकाल तक आनन्द करें एवं
सभी जन जिनेन्द्र के चरण-कमलों में नत-मस्तक रहैं।" प्रतिभाषित होता है। कवि-हृदय लोकमंगल की कामना से ओतप्रोत है । उसकी अभिलाषा है कि राजा कल्याण- रडध-साहित्य में प्रयक्त आधनिक भारतीय भाषाओं के मित्र बने, प्रजा उसे अपना पिता समझे, राजा भी उसे
शब्द अपनी सन्तति के समान स्नेह करे । समस्त आधियाँ एवं व्याधियाँ नष्ट हों। ऋतुएँ समयानुसार सुफल दें।
महाकवि रइधू यद्यपि मूलत: अपभ्रंश कवि हैं सर्वत्र सुख-सन्तोष एवं शान्ति का साम्राज्य हो । कवि
किन्तु उनके साहित्य में ऐसी शब्दावलियाँ भी प्रयुक्त हैं कहता है :
जो आधुनिक भारतीय भाषाओं की शब्दावलियों से ,
समकक्षता रखती हैं । उदाहरणस्वरूप यहाँ कुछ शब्दों णिखद्दउ णिवसउ सयलुदेसु ।
को प्रस्तुत किया जाता है :पयपालउ णंदउ पुणु णरेसु ॥
टोपी (जसहर० 1/5/7), ढोर (अप्प० 1/4/2), जिणसासणु णंदउ दोसमुक्कु ।
चोजु (आश्चर्य, सुक्को० 1/6/3), साला-साली (अप्प० मुणिगण णंदउ तहिं विसय-चुक्कु॥
3/4/2), रसोइ (सुक्को० 4/5) गड्डी = गाड़ी, (घण्ण गंदहु सावययण गलियपाव । 2/7), गाली (अप्प० 1/8), जंगल (अप्प० 2/3/1), जेणिसुणहिँ जीवाजीव भाव ॥ पोटली (धण्ण. 2/6/4), वुक्कड=बकरा-धण्ण णंदउ महि णिरसिय असुहुकम्मु । 2/7/5), थट्ट =भीड़ सम्मइ० 1/17/4-खट्ट जो जीवदयावरु परमधम्मु ॥
=खाट-धण्ण० 2/14/8-सुत्त-सूतना=सोना,
धण्ण० 3/15/3), पटवारी (धण्ण० 4/20/5), पत्ता
वक्कल=बकला- छिलका-सुक्को० 2/5/12),
ढिल्ल= ढीला-अप्प० 1/12/6), पुराना (अप्प० मच्छरमयहीणउँ सत्थपवीणउँ । 1/19/3), झूठे झगड़े (अप्प० 1/20/5), अंगोछा पंडिययणु णंदउ सुचिरु ॥ =धोती, (सम्मत्त० 5/10/13) मुग्गदालि=मूंग
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की दाल (हरिवंश० 4/7/8), पौड़ा गन्ना, (पास० दीप को प्रज्ज्वलित कर माँ भारती के श्रीचरणों को 6/1/6) लइगउ=लेगया (अप्प० 3-8-10) मामा आलोकित किया है । उसने विविध आक्रमणों से जर्जर मामा (हरिबंस० 4/8/6), कप्पड़= कपड़ा (अप्प० मालवभूमि के गिरते गौरव को अपनी समर्थ-लेखनी से 1/12/5), पैज =प्रतिज्ञा, (पृण्ण० 3/4/7), कुकुर उन्नतकर उसके पद को पुनः प्रतिष्ठित किया है तथा पुण्णा० (12/25/11) खाजा (पुण्णा० 1/10/5) अन्धकार में विलीन होते हुए उसके कई ऐतिहासिक अंथउ = सूर्यास्त पूर्व का भोजन, (पुण्णा० 12/3/4) तथ्यों को अपनी प्रशस्तियों के माध्यम से प्रकाशित चुल्लू (पुण्णा० 1/14/7), साँकल (पुण्णा० 1/3/4), किया है। निःस्सन्देह ही रइधू-साहित्य मालव प्रदेश का मोल (पुण्णा 5/1/10), देहली (पुण्णा० 8/2/8), गला ही नहीं समग्र भारतीय-वाङ्गमय का भी एक स्वर्णिम (पुष्णा० 13/4/12), तलवर=कोतवाल, (पुग्णा० अध्याय है। उसने शिक्षा जगत् का महान् उपकार किया 9/7/10) आदि ऐसे शब्द हैं, जो आज भी बुन्देली, है। अतः गोपाचल के इस वरेण्य कवि के अप्रकाशित बघेली, ब्रज, भोजपूरी, अवधी एवं पंजाबी में प्रयुक्त साहित्य को प्रकाशदान देने से ही म०प्र० उसके ऋणों होते हैं।
से उऋण हो सकेगा और इसी प्रकार रइधू के प्रति
रचनात्मक समर्थ श्रद्धांजलियाँ भी समर्पित की जा रइधू साहित्य का महत्व
सकेंगी। इस प्रकार महाकवि रइधू ने विविध भाषाओं एवं साहित्यिक-शैलियों में एक विशाल साहित्य रूपी भास्कर
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ग्वालियर एवं उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में स्थित
= जैल सास्कृतिक 6.
डा० वी. वी० लाल
भारत की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक जैन ग्वालियर उत्तरी मध्यप्रदेश के प्राचीनतम क्षेत्रों में संस्कति, जिसे श्रमण संस्कृति भी कहा जाता है, की से एक है । ग्वालियर के निकट पवाया नाम के ग्राम व्यापकता उसकी एक प्रमुख विशेषता रही है। यों तो को वेदों में पद्मावती नामक ऐतिहासिक नगरी मानने सम्पूर्ण भारतवर्ष में जैन संस्कृति के प्रतीक स्वरूप
में अनेकों इतिहासकार एकमत हैं। यहाँ प्राप्त प्राचीन अनेकों तीर्थ, मन्दिर, मूर्तियां आदि अनेक प्रकार के पुरातत्वीय सामग्री से यह तथ्य बहुत कुछ पुष्ट होता
है। मुरैना जिले में सिहोनिया, दतिया जिले में स्वर्णास्मारक उपलब्ध होते हैं, परन्तु उत्तर भारत और
गिरी, शिवपुरी जिले के नरवर, गुना जिले में चंदेरी, मध्य भारत के बीच का क्षेत्र इस दृष्टि से और भी
तुमैन और झरकोन जैगर (बजरंग गढ़) तथा ग्वालियर अधिक सम्पन्न क्षेत्र है । ग्वालियर के निकटवर्ती क्षेत्र
के अमरौल व दुर्ग आदि स्थल भी प्राचीन ऐतिहासिक जैन पुरातत्व के वैभव से भरे पड़े हैं, विभिन्न अंचलों
महत्व व पुरातत्विक सम्पदा की दृष्टि से सम्पन्न क्षेत्र में यगयगीन जैन संस्कृति के अनेकों प्रतीकात्मक स्मारक हैं। इन सभी क्षेत्रों में जो कुछ भी प्राचीनतम पूरातत्विक उपलब्ध हैं। इसका एक प्रमुख कारण सम्भवतः यह अवशेष
अवशेष एवं अन्य सामग्री उपवब्ध हई है उसका बड़ा
अन्य मामी ure भी है कि विभिन्न जैन तीर्थ करों व साधुओं ने देश भर भाग जैन संस्कृति से सम्बन्धित है। इस प्रकार में पैदल विहार कर अपने धर्म का प्रचार किया और ग्वालियर और उसका निकटवर्ती सम्पूर्ण क्षेत्र जैन लोगों को अहिंसात्मक जीवन पद्धति अपनाने का उपदेश पुरातत्व की दृष्टि से अत्यधिक सम्पन्न क्षेत्र है तथापि दिया। जो क्षेत्र तीर्थ करों के विहार में प्रमुख रहे उनमें जैन संस्कृति के कुछ प्रमुखतम केन्द्रों के रूप में कुछ बिहार, उत्तरप्रदेश और उत्तरी मध्यप्रदेश के क्षेत्र क्षेत्रों का ऐतिहासिक दृष्टि से बड़ा ही महत्व है। प्रमुख हैं।
यहाँ ऐसे ही कुछ प्रमुख स्थलों की चर्चा की गई है।
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सिद्धक्षेत्र स्वर्णागिरी
दतिया स्टेशन से तीन मील की दूरी पर स्थित स्वर्णागिरी ( सौनागिरी ) धार्मिक दृष्टि से सिद्धक्षेत्र माना जाता है । जिस ग्राम में यह क्षेत्र स्थित है वह सनावल कहलाता है, जो "श्रमणाचल" का अपभ्रंश रूप प्रतीत होता है, जिसका तात्पर्य श्रमण संस्कृति के प्रमुख अंचल से है । जिससे प्रतीत होता है कि यह क्षेत्र श्रमण दिगम्बर जैन साधुओं की प्राचीनतम तपोभूमि रही है ।
वर्तमान में यहाँ एक पहाड़ी बनी है जिस पर कुल 77 मन्दिर बने हुए हैं । नीचे के निकटवर्ती भू-भाग में भी सोलह भव्य मन्दिर बने हैं। इन सारे मन्दिरों में पहाड़ी के शीर्षस्थ स्थान पर बने तीर्थं कर चन्द्रप्रभू के मन्दिर का विशेष महत्व है। पहाड़ी की सर्वोच्च शिला पर उत्कीर्ण तीर्थकर चन्द्रप्रभू की प्रतिमा के चारों ओर भव्य मन्दिर बना है, जिसमें बाद में समय समय पर अन्य अनेकों तीर्थ कर प्रतिमाएँ भी विराजमान की गई हैं।
तीर्थंकर चन्द्रप्रभू की प्रतिमा यहाँ की प्राचीनतम एवं इस मन्दिर की मूल नायक प्रतिमा है । जैन शास्त्रों के उल्लेख के अनुसार इस स्थल पर तीर्थंकर चन्द्रप्रभू स्वामी का समवशरण विहार करते समय ठहरा था, और उन्होंने काफी समय तक यहाँ उपदेश दिये थे । इस कारण इस स्थान का अत्याधिक धार्मिक महत्व है। इस घटना के प्रतीक स्वरूप ही यहाँ तीर्थंकर चन्द्रप्रभू की यह प्रतिमा उत्कीर्ण की गई यह मनोज्ञ प्रतिमा खड़गासन मुद्रा में है जिसकी ऊँचाई साढ़े सात फीट है। प्रतिमा के नीचे के भाग में उत्कीर्ण हिन्दी लेख में जो कि किसी प्राचीन लेख के आधार पर लिखा गया है, इस प्रतिमा और मन्दिर को सम्वत् 335 वि. में निर्मित दर्शाया है। इस लेख के अनुसार श्री श्रवणसेन कनकसेन ने इस मन्दिर का निर्माण सं. 335. वि. मे
定
करवाया तथा सं. 1883 में पुनः मथुरा के सेठ लक्ष्मीचन्द्रजी द्वारा इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया
गया । इस जीर्णोद्वार के समय मूल शिलालेख चरणों के नीचे होने से दब गया पर सेठ लक्ष्मीचन्द्र जी ने इसका अनुवाद कराकर लगा दिया जिसे अविश्वसनीय मानने का कोई कारण नहीं है ।
जैन ग्रन्थों के उल्लेखों के अनुसार यह पर्वत जैन साधुओं की प्रमुख साधना स्थली रहा है, व लगभग साढ़े पाँच करोड़ साधुओं ने इसे अपनी सिद्धभूमि होने का गौरव प्रदान किया है । साधुओं के संघ के विहार के सम्बन्ध में उल्लेखनीय प्राचीनतम घटना सन् 258 ई. के लगगभ की बताई जाती है जब कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में महाकाल पड़ने पर जैन साधू संघ का एक अंश चलकर यहाँ आकर ठहरा। उन्होंने वहां जो अपना शिलालेख लगवाया वह अभी तक उपलब्ध है । सम्राट अशोक के शासन काल में एक उपशासक कुमारपाल की यहाँ नियुक्ति किये जाने का भी उल्लेख मिलता है। कुछ विद्वानों के मतानुसार अपने प्रारंभिक काल में जब सम्राट अशोक का झुकाव जैन धर्म की ओर था, उन दिनों सम्राट अशोक ने भी इस स्थान की बन्दना की थी ।
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पहाड़ से मोक्ष को प्राप्त साढ़े पाँच करोड़ मुनियों में सर्वाधिक प्रामाणिक ऐतिहासिक उल्लेख मुनि नंगअनंग कुमार का उपलब्ध होता है । इनके स्मारक के रूप में तीर्थ कर चन्द्रप्रभू के मन्दिर के निकट ही इनके चरण प्रतिष्ठापित हैं। पहाड़ी पर बने अन्य मन्दिर भी अत्याधिक भव्य है तथा उनमें विराजमान प्रतिमाओं में
से अनेकों काफी प्राचीन हैं। व्यवस्थापन समिति द्वारा एक मन्दिर के वरामदों में पुरातत्व संग्रहालय के रूप में एक बीधिका बना दी गई है। इसमें भी सन् 300 ई. तक की अनेकों प्राचीन जैन प्रतिमायें खण्डित रूप में उपलब्ध हैं । इनके साथ ही समवशरण आदि के कुछ अवशेष भी इस संग्रहालय में हैं। पहाड़ी पर प्राकृतिक रूप से बने एक कुण्ड का आकार नारियल जैसा होने से
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वह नारियल कुण्ड, तथा एक विशाल शिला ठोकने पर पांच करोड़ साधूओं की सिद्ध स्थली होने के कारण जैन आवाज करने के कारण बजनी शिला के नाम से जानी संस्कृति का यह प्राचीन केन्द ऐतिहासिक दष्टि से जाती हैं। नीचे के मन्दिरों में भट्टारक हरेन्द्रभूषण जी महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ धार्मिक दृष्टि से भी अत्याधिक का मन्दिर प्राचीन भी काफी है।
महत्वपूर्ण सिद्ध क्षेत्र (तीर्थ) माना जाता है। विगत कुछ समय पूर्व बने बाहुबली स्वामी का सिहोनियामन्दिर, मानसाम्भ तथा कुछ अन्य मन्दिर भी भव्य हैं। मुरैना जिले में स्थित सिंहोनिया नामक नगरी इस तीर्थ कर चन्द्रप्रभू के समवशरण की विश्राम स्थली तथा क्षेत्र की प्राचीनतम ऐतिहासिक नगरियों में प्रमुख है।
चैत्रनाथ की प्रतिमाएं सिंहोनिया (जिला मुरैना) (श्री हरिहर निवास जी द्विवेदी के सौजन्य से)
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प्राचीन ग्रन्थों में नाग सम्राटों की राजधानी क्रान्तिपूरी प्राचीनतम नगरों में से एक है। अनेकों इतिहासकारों इसी नगरी का ऐतिहासिक नाम है। यहाँ स्थित माता के अनुसार भारतीय वेदों में वणित पदमावती नामक के मन्दिर के चारों ओर तथा निकटवर्ती अन्य मन्दिरों ऐतिहासिक नगरी यही पवाया है। यहाँ अत्याधिक में पहली से पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य पुरातत्विक प्राचीन पुरातत्विक सम्पदा उपलब्ध है। उपलब्ध अवशेष भरे पड़े हैं, इनमें अनेकों जैन धर्म से सम्बन्धित अवशेषों में से कुछेक इस क्षेत्र में जैन संस्कृति के हैं, अभी तक इन पर पर्याप्त शोध के अभाव में इनके प्रचुरतापूर्ण प्रसार की साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं । यहाँ बारे में बहुत से तथ्य अज्ञात हैं। यहीं ग्वालियर के उपलब्ध प्राचीन अवशेषों पर अभी पर्याप्त शोध की तोमर राजा वीरमदेव के समय में बना विशाल एवं आवश्यकता है । यहाँ प्राप्त मूर्तियों में एक मूर्ति विचित्र भव्य चैत्रनाथ मूर्ति समूह अभी भी सुरक्षित है। इसमें प्रकार की उपलब्ध हुई है जिसमें एक व्यक्ति अपने सिर चैत्रनाथ को जैन मूर्ति पर वि. सं. 1467 (सन् के ऊपर एक ध्यानस्थ नग्न आकृति की प्रतिमा को 1410 ई.) का एक शिलालेख अंकित है ।।
विराजमान किये हुए है। यह प्रतिमा जैन प्रतिमा प्रतीत
होती है, जो अब तक उपलब्ध प्रतिमाओं की तुलना में दूबकुण्ड (श्योपुर)
विचित्रताएँ लिये हुए एवं अनूठी है । इसके अतिरिक्त मुरैना जिले में ही श्योपुर तहसील में स्थित दुव- कुछ अन्य प्रातमाए आ
कुछ अन्य प्रतिमाएं आदि भी उपलब्ध हैं। कुण्ड नामक स्थान भी जैन संस्कृति का प्राचीन केन्द्र
अमरौल तथा सोहजनारहा है । यहाँ भी कई प्राचीन जैन मूर्तियों के अवशेष प्राप्त होते हैं। यहाँ प्राप्त वि. सं. 1145 (सन
ग्वालियर जिले में ही ग्वालियर के दक्षिण पूर्व में 1088 ई.) के विक्रमसिंह के शिलालेख से प्रतीत होता
स्थित अन्य ग्राम अमरोल में भी अनेकों उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र के कच्छपघात राजाओं का प्रश्रय भी
प्रतिमाएँ उपलब्ध हुई हैं। इनमें पूर्व मध्यकाल की जैन सूरियों को प्राप्त हुआ था। शान्तिषेण सूरि और
पार्श्वनाथ और आदिनाथ की प्रतिमा का सूक्ष्मता के उनके शिष्य विजयकीति द्वारा एक प्रशस्ति लिखी गई
साथ प्रतिरूपण हुआ है जिसमें तीर्थ कर के चारों ओर थी। यहाँ के जैन मन्दिर के शिलालेख वि. सं. 1152
यक्षों की वामन आकृतियाँ पद्म पीठों पर सुखासन-मुद्रा (सन् 1095 ई.) से ज्ञात होता है कि यहाँ काष्ठा संघ
में बैठी हुई दर्शायी गयी हैं। पद्मपीठ कमलपत्रावली के महाचार्यवर्य श्री देवसेन के पादुका चिन्ह की पूजा
द्वारा भव्य रूप से अलंकृत हैं।
होती थी।
पवाया (पद्मावती)
ग्वालियरग्वालियर जिले में डबरा के निकट स्थित पवाया ग्वालियर नगर स्वयं भी जैन संस्कृति के प्राचीननामक ग्राम ऐतिहासिक दृष्टि से इस सारे क्षेत्र में स्थित तम केन्द्रों में से एक है । यहाँ जैन संस्कृति से सम्बन्धित 1. आर्को. सर्वे.रि. भाग 2, पृ. 396। 2. ग्वालियर राज्य अभिलेख, क्र. 54। 3. ग्वालियर राज्य अभिलेख, क्र. 58 । 4. जैनकला एवं स्थापत्य, खण्ड 1, भारतीय ज्ञानपीठ, भाग 4, वास्तु स्मारक एवं मूर्तिकला (600 से
1000 ई.। अध्याय 16, मध्य भारत कृष्णदेव । पृ. 177-781
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(सुहजना से प्राप्त प्राचीन जैन प्रतिमा) (श्री हरिहर निवासजी द्विवेदी के सौजन्य से)
प्रमाण आठवीं शती तक के प्राचीन उपलब्ध होते हैं। कच्छपघात राजाओं के काल में यहाँ जैन ग्यारहवीं शती में ग्वालियर दुर्ग (गोपाचल गढ़) के संस्कृति का प्रसार अवश्य ही कुछ कम हुआ था परन्तु ऊपर एक जैन मन्दिर उपलब्ध होने के पर्याप्त प्रमाण चौदहवीं-पन्द्रहवीं शती में तोमर राजाओं के काल में उपलब्ध हैं । दुर्ग के अतिरिक्त ग्वालियर नगर ग्वालियर में जैन संस्कृति का व्यापक एवं अभूतपूर्व के निकटवर्ती क्षेत्रों में भी अनेकों प्राचीन प्रतिमाएं प्रचार हुआ। तोमर काल में ग्वालियर में जैन धर्मावव अवशेष उपलब्ध होते हैं। इनमें तिघरा बांध के पास लम्बी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते थे। इस काल में स्थित सौजना (सुहजना) ग्राम में प्राप्त प्राचीन जैन अनेकों जैन मन्दिरों का निर्माण हुआ, जो आज उपप्रतिमाएँ उल्लेखनीय हैं।
लब्ध नहीं हैं। ग्वालियर दुर्ग के चारों ओर निर्मित
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गुहा मन्दिर और विशाल तीर्थ कर प्रतिमा समूह भारतीय पुरातत्व की अद्वितीय उपलब्धि हैं । बाबर के शासन काल में खण्डित ये जैन प्रतिमाएँ आज भी आकर्षक एवं मनोज्ञ स्वरूप लिये हैं तथा इनका अत्यधिक ऐतिहासिक एवं पुरातत्विक महत्व है । उरवाई द्वार पर स्थित आदिनाथ की प्रतिमा इस सम्पूर्ण मध्य भारतीय क्षेत्र में स्थित विशालतम प्रतिमा है तथा एक पत्थर की बावड़ी पर स्थित गुहा मन्दिर एवं विशाल मूर्तियों का समूह देश में अद्वितीय है । इतनी विशाल प्रतिमाएँ इतनी बड़ी संख्या में एक स्थान पर एक साथ कहीं नहीं मिलतीं ।
ग्वालियर में बने जैन मन्दिरों में भी अनेकों प्राचीन एवं भव्य मन्दिर हैं, जिनमें प्राचीन प्रतिमाएँ एवं साहित्य उपलब्ध है । इस प्रकार ग्वालियर नगर स्वयं भी जैन संस्कृति का एक प्रमुख केन्द्र रहा है तथा उसके सांस्कृतिक विकास में जैनों की महत्वपूर्ण भूमिका रही
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नरवर
शिवपुरी जिले में शिवपुरी से 40 किलोमीटर उत्तर-पूर्व स्थित नरवर नगर नल और दमयन्ती के काल में नल द्वारा बसाया गया नगर माना जाता है । प्राचीन उल्लेखों में इसे नलपुर कहा गया गया है । यहाँ अनेक जैन मन्दिरों और मूर्तियों का निर्माण हुआ । इन मन्दिरों और मूर्तियों के उपयोग में आए श्वेत पाषाण पर यहाँ इतना अच्छा पालिश किया गया कि वह संगमरमर-सा दिखता है । नरवर के यज्वपाल, गोपाल देव और आसल्ल देव नामक राजाओं ने कला के विकास में व्यापक योग दिया। तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी में नरवर और इसके आसपास जैन धर्म का
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बहुत प्रसार हुआ । वि. सं. 1314 से 1324 के मूर्तिलेखों युक्त सैकड़ों जैन मूर्तियाँ नरवर में प्राप्त हुई हैं । जज्ववेल राजाओं के अधिकांश शिलालेखों के प्रशस्तिकार जैन मुनि हैं । यहाँ के बड़े जैन मन्दिर में वि. सं. 1475 ( सन् 1418 ई.) का एक ताम्रपत्र भी उपलब्ध है जिसमें महाराजाधिराज वीरमेन्द्र तथा उनके मंत्री साधु कुशराज का उल्लेख है । नरवर के जैन मन्दिरों में जैन साहित्यकारों की अनेकों प्राचीन रचनाएँ व धर्मग्रन्थ भी उपलब्ध होते हैं जो इस क्षेत्र में जैन संस्कृति के विकास के अध्ययन की दृष्टि से महत्व - पूर्ण हैं ।
चन्देरी ( गुना )
गुना जिले में चन्देरी और तुमैन जैन कला के महत्वपूर्ण केन्द्र थे । चन्देरी में अनेकों प्राचीन एवं विशाल जैन मन्दिर स्थित हैं । चन्देरी और उसके समीपवर्ती क्षेत्र में इस काल की पाषाण मूर्तियाँ बहुत बड़ी संख्या में प्राप्त हुई हैं । उनमें तीर्थंकरों और देवियों के अतिरिक्त अन्य मूर्तियाँ भी हैं, जिनमें बहुत-सी अभिलिखित हैं । लगभग 1400 ई. में चन्देरी पट्ट की स्थापना हुई। श्री भट्टारक देवेन्द्र कीर्ति और उनके उत्तराधिकारियों ने उस क्षेत्र में जैन धर्म के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी । विदिशा जिले का सिरोंज, चन्देरी के भट्टारकों के कार्यक्षेत्र में आता था । इन मन्दिरों में बहुत-सा प्राचीन साहित्य एवं अभिलेख भी उपलब्ध है ।
उपलब्ध प्रचुर सामग्री के संरक्षण एवं शोध की आवश्यकता
इस प्रकार ग्वालियर और उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में जैन संस्कृति का व्यापक प्रचार-प्रसार रहा है, और
5. जैन कला एवं स्थापत्य, खण्ड 1, भाग 6, भारतीय ज्ञानपीठ; वास्तु स्मारक एवं मूर्तिकला ( 1300 से 1800 ई.) अध्याय 27 - मध्य भारत, पृष्ट 356 1
6. जैन कला एवं स्थापत्य, खण्ड 2, अध्याय 27, मध्य भारत पृष्ठ 356 भारतीय ज्ञानपीठ ।
भाग 6, वास्तु स्मारक एवं मूर्तिकला ( 1300 से 1800 ई.)
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इसकी पुष्टि हेतु प्रचुर मात्रा में पर्याप्त ऐतिहासिक में जैन संस्कृति, पुरातत्व एवं प्राचीन साहित्य से सामग्री भी उपलब्ध है, परन्तु यह बड़े ही खेद का सम्बन्धित इतना विशाल भण्डार उपलब्ध है कि उसके प्रसंग है कि जैन संस्कृति के पोषकों ने जहाँ सैकड़ों वर्षों संग्रह से एक राष्ट्रीय स्तर का विशाल संग्रहालय निर्मित तक अपनी इस प्राचीन सांस्कृतिक सम्पदा का संरक्षण एवं किया जा सकता है। साथ ही उसके सम्बन्ध में शोधसम्वर्द्धन किया वहाँ वे अब इस पर अधिक ध्यान नहीं कार्य को प्रोत्साहित करने के लिये एक नियमित शोध दे रहे हैं। आज प्राचीन सम्पदा के संरक्षण एवं उसके संस्थान चलाया जा सकता है। महावीर निर्वाण संग्रहीकरण की नितान्त आवश्यकता है जिसकी पूर्ति महोत्सव के 2500वें वर्ष में इस दिशा में रुचि रखने
ही की जाना चाहिये । साथ ही इस दिशा में वाले कुछ लोग आगे आएँ तो इस क्षेत्र की प्राचीन पर्याप्त शोध की भी आवश्यकता है ताकि इस संस्कृति संस्कृति को उजागर करने की दिशा में महत्वपूर्ण एव क्षेत्र के प्राचीन एवं गौरवमयी पक्ष को उजागर सहयोग तथा भारतीय संस्कृति के विशाल ज्ञान भण्डार किया जा सके । ग्वालियर और इसके निकटवर्ती क्षेत्र को महत्वपूर्ण योगदान प्रदान कर सकते हैं।
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- गोपादौ देवपत्तने
वि० सं० 1469 (सन् 1412 ई० ) में कुन्दकुन्दाचार्य के प्रवचनसार की आचार्य अमृत चन्दकृत "तत्वदीपिका " टीका की एक प्रतिलिपि वीरमेन्द्रदेव के राज्यकाल में ग्वालियर में की गई थी। इसके प्रतिलिपि काल और प्रतिलिपि स्थल के विषय में उसमें निम्न लिखित पंक्तियां प्राप्त होती हैं -
विक्रमादित्य राज्येऽस्मिश्चतुर्दपरेशते । नवषष्ठ्या युते किंनु गोपाद्री देवपत्तने ॥
वीरमेन्द्रदेव ग्वालियर के तोमर राजा (सन् 14021423 ई० ) थे और टीका के प्रतिलिपिकार ने उनके गढ़ गोपाद्रि को "देवपत्तन" कहा है । कुछ जैन तीर्थमालाओं में भी ग्वालियर का उल्लेख प्रसिद्ध जैन तीर्थ के रूप में किया गया है ।"
इन उल्लेखों से ऐसा ज्ञात होता है कि कभी ग्वालियर की गणना प्रसिद्ध जैन तीर्थों में की जाती थी और जैन धर्मावलम्बियों के लिए वह "देवपत्तन" था ।
1.
गढ़ गवालेर वावन गज प्रतिभा
बन्दु ऋषभ रंगरोली जी ॥ 14
बाबन गज प्रतिमा गढ़ गुवालेरि सदा सोभती ॥33॥
ग्वालियर की वह महिमा अब नहीं रही है । वह महिमा किस प्रकार उपलब्ध हुई थी और वह फिर किस प्रकार नष्ट हो गई इसके इतिहास की खोज अभी तक सम्यक् रूप से नहीं की गई है, यद्यपि इस कार्य को सम्पन्न करने के लिये बहुत अधिक सामग्री अभी भी उपलब्ध है । इस विषय से सम्बद्ध इतने अधिक शिलालेख, मूर्तिखण्ड तथा साहित्यिक उल्लेख प्राप्त होते हैं कि उनकी ओर अब तक समर्थ विद्वानों का ध्यान आकर्षित होना चाहिये था । उस सामग्री के आधार पर न केवल उत्तरी मध्यप्रदेश में जैन धर्म के विकास का इतिहास सुपुष्ट रूप से लिखा जा सकता है, वरन् उस प्रदेश के मध्ययुग का राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास भी प्रामाणिक रूप से जाना जा सकता है ।
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तोमरों के इतिहास की सामग्री की खोज करते समय मुझे ऐसा ज्ञात हुआ कि अब तक हम जिस सामग्री को इतिहास - निर्माण का प्रमुख आधार मान कर चले हैं, वह बहुत प्रामाणिक नहीं है। इस क्रम में यह धारणा भी पुष्ट हुई है कि समकालीन जैन साहित्य
* हरिहरनिवास द्विवेदी
॥
सौभाग्य विजय तीर्थमाला, पृ० 98 ।
- तीर्थमाला, पृ० 111।
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में ऐसी ऐतिह्य सामग्री प्राप्त होती है जिसके आधार सम्यक् रूप से नहीं किया है, वरन्, इन क्षेत्रों के पर मध्ययुग के इतिहास की खोई हुई कड़ियों को जोड़ा राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास से परिचय प्राप्त जा सकता है और कुछ बहुत बड़ी भूलों को सुधारा करने के लिए ही जैन स्रोतों का अध्ययन किया है। जा सकता है। यहाँ एक उदाहरण ही पर्याप्त है। उसी आनुषंगिक अध्ययन के क्रम में जैन धर्म के विकास लगभग चार शताब्दियों से भारतीय इतिहास में यह की कुछ रूपरेखा भी सामने आई है। दिल्ली में जैन बात निर्विवाद मानी जाती है कि पृथ्वीराज चौहान धर्म के विकास की गाथा यहां असम्बद्ध है, यहां केवल दिल्ली का राजा था, और यह राज्य उसे उसके पूर्वज ग्वालियर क्षेत्र में जैन धर्म के विकास की उपलब्ध विग्रहराज चतुर्थ से दाय में मिला था; अर्थात्, विग्रहराज सामग्री पर किंचित प्रकाश डालना अभीष्ट है। चतुर्थ ने कभी सन् 1151 ई० में तोमरों से दिल्ली जीत ली थी। यद्यपि ईसवी चौदहवीं और पन्द्रहवीं जैन धर्म के विकास का इतिहास अत्यन्त प्राचीन शताब्दी के कुछ जैन मुनि भी इस भ्रम से अभिभूत थे, है । परन्तु ग्वालियर क्षेत्र में उसके विकास का इतिहास तथापि, समकालीन जैन रचनाएं यह निर्विवाद रूप से बहुत प्राचीन नहीं है, अथवा यह कहना उचित होगा कि सिद्ध करती हैं कि चौहानों ने तोमरों से दिल्ली कभी ईसवी सातवीं-आठवीं शताब्दी के पूर्व के इस क्षेत्र के नहीं जीती थी और पथ्वीराज चौहान का दिल्ली से जैन धर्म के विकास के इतिहास की सामग्री की अभी कभी कोई सम्बन्ध नहीं रहा था। उसका राज्य खोज नहीं की जा सकी है। . शाकम्भरी प्रदेश तक सीमित था और उसकी राजधानी सदा अजमेर ही रही । यदि ये जैन ग्रन्थ उस समय सब से प्राचीन अनुश्रु ति पद्मावती की प्राप्त उपलब्ध हो जाते जब भारत का इतिहास लिखे जाने होती है। ईसवी प्रथम शताब्दी के आसपास मथुरा, का प्रारम्भिक प्रयास किया जा रहा था, तब हमारी कान्तिपुरी, पद्मावती और विदिशा में नाग राजाओं अनेक पीढ़ियां दिल्ली का अशुद्ध इतिहास पढ़ने से बच का राज्य था। उनमें से कुछ को निर्विवाद रूप से जातीं। अब वह अशुद्धि हमारे मस्तिष्क पटल पर इतनी सम्राट् कहा जा सकता है। इन चारों नगरों में गहरी खचित हो गई है कि उसे मिटाने में भी बहुत कान्तिपुरी और पद्मावती ग्वालियर क्षेत्र में हैं। समय लग सकता है।
पदमावती वर्तमान समय में पवाया नामक छोटे-से ग्राम
के रूप में विद्यमान है और कान्तिपुरी के स्थान पर ग्वालियर प्रदेश के मध्ययुगीन इतिहास ग्रन्थों में कुतवार नामक ग्राम है । जिस समय ये दोनों स्थान हतनी भयंकर भलें तो नहीं थीं, फिर भी कुछ थीं महानगरों के रूप में बसे हुए थे उस समय गोपाद्रि अवश्य । समकालीन जैन ग्रन्थ, जैन मूर्तिलेख आदि से गोपों अर्थात् गोपालों की भूमि था और उसका विशेष न केवल उन भलों को सधारा जा सकता है, वरन जो महत्व नहीं था। तथ्य अब तक अज्ञात ही हैं उन पर विषद प्रकाश डाला जा सकता है। तात्पर्य यह है कि ग्वालियर क्षेत्र में जैन दुर्भाग्य से पद्मावती (पवाया) तथा कान्तिपरी धर्म के विकास के इतिहास का अध्ययन न केवल जैन (कुतवार) का अभी तक विस्तृत पुरातात्विक अन्वेषण धर्म के अनुयायियों के लिए उपयोगी एवं स्फूर्तिदायक नहीं हुआ है। इन स्थानों पर उत्खनन करने पर ऐसी है, वरन भारत के राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास प्राचीन सामग्री प्राप्त होगी जिससे यहां जैन धर्म की को भी ठोस धरातल प्रदान करता है। मैंने ग्वालियर स्थिति पर प्रकाश पड़ेगा। आज जैसी स्थिति है उसमें या दिल्ली क्षेत्र में जैन धर्म के विकास का अध्ययन केवल अनुश्र ति से काम चलाना पडेगा।
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जैनियों की चौरासी उपजातियों में एक "पद्मावती है वह जैनों द्वारा भी पूजित हो सकती है, परन्तु पुरवाल" भी है। इसी उपजाति में पन्द्रहवीं शताब्दी निश्चयात्मक रूप से उसे जैन प्रतिमा नहीं कहा जा में रइधू नामक जैन कवि हुआ था । वह अपने आपको सकता । उस युग के सभी व्यापारी यक्ष पूजा करते "पोमावइ-कुल-कमल-दिवायह" लिखता है । पद्मावती थे। कुबेर को भी वे यक्ष ही मानते थे । यही कारण पुरवाल अपना उद्गम ब्राह्मणों से बतलाते हैं और है कि प्राचीन राजमार्गों पर बसे नगरों में यक्षों की अपने आपको पूज्यपाद देवनन्दी की सन्तान कहते हैं। मूर्तियां बहुत मिलती हैं । वे उस समय के सार्थवाहों जैन जातियों के आधुनिक विवेचकों को पद्मावती के आराध्य देवता थे। उन सार्थवाहों में अधिकांश जैन पुरवाल उपजाति के ब्राह्मण-प्रसूत होने में घोर आपत्ति होते थे। है। परन्तु, इतिहास पद्मावती पुरवालों में प्रचलित अनुश्रुति का समर्थन करता है। जिसे वे “पूज्यपाद इसके आगे लगभग पांच-छह शताब्दियों तक देवनन्दी" कहते हैं वह पद्मावती का नाग सम्राट् चम्बल और सिन्धु के बीच के प्रदेश के सन्दर्भ में जैन देवनन्दी है । वह जन्म से ब्राह्मण था। उसकी मुद्राएं धर्म के विकास या अस्तित्व का कोई प्रमाण हमें नहीं अत्यधिक संख्या में पद्मावती में प्राप्त होती हैं जिन मिल सका है । यहाँ पर उल्लेखनीय है कि इसी बीच पर "चक्र" का लांछन मिलता है और "श्री देवनागस्य" गोपाचलगढ़ पर कुछ हलचल होने लगी थी। वहां या “महाराज देवेन्द्र" श्रु तिवाक्य प्राप्त होते हैं। किसी रूप में कुछ वस्ती बस गई थी। सन् 520 ई० देवनाग का अनुमानित समय पहली ईसवी शताब्दी में अर्थात्, मिहिरकुल हूण के राज्य के पन्द्रहवें वर्ष में है । पद्मावती पुरवालों में प्रचलित अनुश्रु ति तथा मातृचेट ने गोपागिरि पर सूर्य का मन्दिर बनवाया था, पद्मावती के देवनाग का इतिहास एक-दूसरे के पूरक यह तथ्य शिलालेख की साक्ष्य से सिद्ध है। मातृचेट के हैं । ज्ञात यह होता है कि देवनन्दी अथवा उसके किसी शिलालेख में गोपाद्रि का वर्णन संक्षिप्त रूप में दिया पुत्र ने जैन धर्म ग्रहण कर लिया था और उसकी संतति गया है-“गोप नाम का भूधर जिस पर विभिन्न धातुएं अपने आपको पद्मावती पुरवाल जैन कहने लगी। प्राप्त होती हैं ।'' इन धातुओं को प्राप्त करने के लिए जैन मुनि और जैन व्यापारी कभी एक स्थल पर बंध- मानव श्रम आवश्यक रहा होगा, और आसपास मानव कर नहीं रहते । ये पद्मावती पुरवाल समस्त भारत निवास हो गया होगा । कुछ साधु-सन्त भी वहां रहने में फैल गए, तथापि वे न तो पूज्यपाद देवनन्दी को भूले लगे होंगे, परन्तु वे सिद्ध योगी थे। और न अपनी धात्री पदमावती को ही भूल सके।
गोपाचलगढ़ और उसके आस-पास जैन धर्म के ___ पद्मावती में अभी तक कोई प्राचीन जैन मूर्ति विकास के क्रम में यशोवर्मन के राजकुमार आम का नहीं खोजी जा सकती है। उसका कारण यही है कि नाम उल्लेखनीय है। प्रबन्धकोश के अनुसार, गोपालगिरि उस स्थल पर अभी कोई विस्तृत उत्खनन हुआ ही दुर्ग-नगर कान्यकुब्ज देश में था और उसे कन्नौज के नहीं है। वहां पर जो माणिमद्र यक्ष की प्रतिमा मिली प्रतापी राजा यशोवर्मन के पूत्र आम ने अपनी राजधानी
2. द्विवेदी, मध्यभारत का इतिहास, भाग 1, पृ. 471 ।
3. द्विवेदी, ग्वालियर राज्य के अभिलेख क्र. 6161
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बनाया था। इस आम ने बप्पभट्रि सूरि का शिष्यत्व बीच में स्थित था। उस पर एक वि० सं० 1165 ग्रहण किया और गोपगिरि पर एक सौ एक हाथ लम्बा (सन 1108 ई.) का शिलालेख भी मिला था, जिसमें मन्दिर बनवाया जिसमें वर्धमान महावीर की विशाल केवल वर्ष ही पढ़ा जाता था। श्री कनिंघम ने अनुमान प्रतिमा स्थापित की गई । बप्पभट्टिचरित तथा प्रभावक यह किया था कि यह मन्दिर सन् 1108 ई० में निर्मित चरित से भी इस अनुश्रुति की पुष्टि होती है । "आम" हुआ था । यह कथन ठीक ज्ञात नहीं होता । यह वही यदि यशोवर्मन का राजकुमार है तब उसका समय जैन मन्दिर था जो सन 750 ई. के आसपास आम 750 ई० माना जाएगा। गोपाचलगढ़ पर जैन मन्दिर ने बनवाया था। वि० सं० 1165 का शिलालेख निर्माण का यह प्रथम उल्लेख है। आम द्वारा निर्मित जीर्णोद्धार से सम्बन्धित होगा। वि० सं० 1165 में जैन मन्दिर बहुत समय तक अस्तित्व में रहा । संभवतः कोई नवीन जैन मन्दिर गोपाचलगढ पर निर्मित नहीं उसे तेरहवीं शताब्दी में कभी तोड़ दिया गया था। यह दुआ था. न हो सकता था। दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि इस मन्दिर में उत्कीर्ण मूर्तियां अत्यन्त पुष्ट मूर्तिशिल्प का उदाहरण कन्नौज के प्रतीहार राजा परम वैष्णव थे । रामदेव थीं। अभी हाल ही में सिन्धिया पब्लिक स्कूल के तथा भोजदेव ने गोपाचलगढ़ को अपनी दूसरी इतिहास के प्राध्यापक श्री आर्थर ह्य ज को गढ़ पर राजधानी बनाया था। चतुर्भुज मन्दिर के शिलालेख गंगोलाताल के कचरे में एक मूर्तिखण्ड प्राप्त हुआ तथा अन्य शिलालेखों से यह ज्ञात होता है कि रामदेव है। भारतीय मूर्तिकला के अवशेष की यह अप्रतिम प्रतीहार ने गोपाचलगढ़ पर स्वामि कार्तिकेय का उपलब्धि है और आठवीं शताब्दी के पश्चात् की नहीं मन्दिर बनवाया था और आनन्दपूर (गुजरात) के है। उस समय ग्वालियर के आसपास अन्य जैन बाइल्लभद्र को "मर्यादाधूर्य" (सीमाओं का रक्षक) नियुक्त मन्दिरों का भी निर्माण हुआ था । लेखक के संग्रह में किया था । वि० सं० 932 (सन् 875 ई०) के शिलाजो जैन चौखम्भा है वह उसे मुरार नदी के पास एक लेख से ज्ञात होता है कि इस बाइल्लभट्ट का पुत्र अल्ल बंगले में प्राप्त हुआ था। वह भी आठवीं शताब्दी की गढ़ का कोट्रपाल था और उसने अपने पिता की स्मति कृति ज्ञात होता है। तेली के मन्दिर के प्रांगण में अनेक में बाइल्लभट्ट स्वामिन् विष्णु का मन्दिर बनवाया था। जैन मूर्तियां रख दी गई हैं। उनमें से अनेक आठवीं परन्तु इसका यह आशय कदापि नहीं है कि प्रतीहारों और नौवीं शताब्दी की ज्ञात होती हैं । गूजरीमहल के समय में जैन धर्म के अनुयायियों पर कोई प्रतिबंध संग्रहालम में भी आठवीं और नौवीं शताब्दियों की लगाया गया था। भारत का राजतन्त्र समस्त प्रजाअनेक जैन मूर्तियां हैं, परन्तु उनके उपलब्ध होने के धर्मों के पोषण की नीति अपनाता था । स्थलों का पता नहीं चलता। उनमें से अनेक ग्वालियर गढ़ अथवा ग्वालियर नगर से प्राप्त हुई होंगी। जिस समय कन्नौज के प्रतीहारों का प्रताप सूर्य पूर्ण बापभट्रि सूरि उपदेश से आम ने जो विशाल जैन मन्दिर प्रभामय होकर अस्ताचलगामी हो रहा था, उसी समय बनवाया था, उसके अवशेष मेजर जनरल कनिंघम ने चम्बल की उपत्यिका में एक नवीन असिजीवी वर्ग भी देखे थे । वह सासबहू मन्दिर तथा हथिया पौर के संगटित हो रहा था। स्थानीय कच्छपान्वय वर्ग को
4. आर्कोलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, भाग 2, पृ० 363 । 5. द्विवेदी, ग्वालियर राज्य के अभिलेख, क्र० 8 तथा 415
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पराजित कर उसने कच्छपघात विरुद धारण किया । इसी वंश में परम प्रतापी वज्रदामन् कच्छपघात हुआ जिसने नगाड़े बजाते हुए कन्नौज के राजा को पराजित कर उससे गोपाद्रिगढ़ जीत लिया । इस वज्रदामन कच्छपघात के राज्यकाल की एक जैन प्रतिमा सुहानिया
प्राप्त हुई है जिस पर वि. सं. 1034 (सन् 977 ई.) का मूर्तिलेख है और महाराजाधिराज वज्रदामन के राज्यकाल का उल्लेख है ।" ज्ञात यह होता है कि इस नवोदित कच्छपघात शक्ति के पीछे जैन मुनियों का मस्तिष्क कार्य कर रहा था । श्योपुर जिले के दुबकुण्ड नामक स्थान पर वि. सं. 1145 ( सन् 1088 ई.) के विक्रमसिंह के शिलालेख से यह ज्ञात होता है कि विक्रमसिंह के पिता अर्जुन कच्छपघात ने राजपाल प्रतीहार को मार डाला था ।" यह अर्जुन विद्याधर चन्देल का मित्र था । विक्रमसिंह के शिलालेख के रचयिता हैं शान्तिषेण के शिष्य विजयकीर्ति । वज्रदामन के समय के जैन मूर्तिलेख तथा विक्रम सिंह के दुबकुण्ड के शिलालेख के बीच 110 वर्ष का अन्तर है । ज्ञात यह होता है कि इस बीच उत्तरी ग्वालियर क्षेत्र में दिगम्बर जैन सम्प्रदाय पर्याप्त प्रभावशाली हो गया था । सासबहू के मन्दिर (बड़े) अर्थात् पद्मनाभ विष्णु के मन्दिर के विस्तृत शिलालेख का रचयिता यद्यपि गोविन्द का पुत्र मणिकण्ठ है, तथापि वह दिगम्बर यशोदेव द्वारा लिखित है ।" यह स्पष्ट है कि ग्वालियर के कच्छपघातों की राजसभा में दिगम्बर जैन मुनियों का पर्याप्त सम्मान था । वि. सं. 1152 (सन् 1095 ई.) के दुबकुण्ड के जैन मन्दिर के
वही क्र. 61 ।
शिलालेख' से यह भी ज्ञात होता है कि उस मन्दिर में महाचार्यवर्य देवसेन की पादुका का पूजन होता था । महाचार्य देवसेन ने इस क्षेत्र में धर्म की प्रतिष्ठा बहुत अधिक बढ़ाई थी ।
सबसे विचित्र शिलालेख मधुसूदन कच्छपघात के शिव मन्दिर का है । वि. सं. 1161 (सन् 1104 ई.) के शिव मन्दिर के इस शिलालेख के रचयिता निर्ग्रन्थनाथ यशोदेव हैं । 10 उस समय भी ग्वालियर में हिन्दू और जैनों में पूर्ण सौहार्द्र था ।
परन्तु परम वैष्णव और शैव कच्छपघातों के राज्यकाल में कभी-कभी उनके राज्याधिकारी जैनियों को संकट उत्पन्न कर देते थे । कच्छपघात मूलदेव (भुवनैकमल्ल) के राज्यकाल में कुछ राज्याधिकारियों ने गोपाचलगढ़ पर स्थित वर्धमान महावीर के मन्दिर पूजा-अर्चा के लिए जैनियों का अबाध प्रवेश बन्द कर दिया । मलधारी गच्छ के श्री अभयदेव सूरि ग्वालियर पधारे और उन्होंने भुवनैकमल्ल को उपदेश दिया । राजा ने पुनः समस्त जैनियों को वर्धमान के मन्दिर में पूजा-अर्चा की अनुमति दे दी ।
6. द्विवेदी, ग्वालियर राज्य के अभिलेख क्र. 20 । 7. वही, क्र. 54 ।
8. द्विवेदी, ग्वालियर राज्य के अभिलेख, क्र. 55 तथा 56 ।
9. वही, क्र. 58
10.
कच्छपघातों के पश्चात् ग्वालियरगढ़ पुनः प्रतीहारों के अधिकार में आया । हमें कोई ऐसा साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जिससे यह ज्ञात सके कि ग्वालियर के इन प्रतीहारों के समय में जैन धर्म की इस क्षेत्र में स्थिति थी। परन्तु यह सुनिश्चित है कि उन्होंने जैन धर्म को उत्सन्न करने का कोई कार्य नहीं किया ।
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अन्तःसलिला के समान जैन मुनि अपना प्रचार करते रहे । परन्तु इस क्षेत्र का गुलाम सुल्तानों द्वारा विजित किया जाना सभी भारतमूलीय धर्म साधनाओं के लिए घातक सिद्ध हुआ था । इल्तुतमिश ने आम के प्रसिद्ध महावीर मन्दिर को भी ध्वस्त कर डाला और उसे मस्जिद बना दिया ।
इसी बीच जैन धर्म नरवर में विकास कर रहा था। जैन धर्म की नरवर में वास्तविक उन्नति जज्जपेल्ल वंश के समय में हुई है । चाहडदेव से गणपतिदेव (सन् 1247-1298 ई.) तक यह राजवंश नरवर पर राज्य करता रहा; उन राजाओं के राज्यकाल में नरवर में जैन धर्म का बहुत अधिक विकास हुआ । वि. सं. 1314 ( सन् 1257 ई.) से वि. सं. 1324
(सन् 1267 ई.) के बीच निर्मित सैकड़ों जैन मूर्तियाँ नरवर में प्राप्त हुई हैं" नरवर के इन राजाओं के शिलालेखों के अधिकांश पाठ जैन साधुओं द्वारा विरचित हैं ।
इसी बीच कभी स्वर्णगिरि क्षेत्र में भी जैनपट्ट स्थापित हो गया था । रइधू ने सम्मइचरित में स्वर्णगिरि के काष्ठासंघ के भट्टारकों की वंश परम्परा दी है । उसमें दुबकुण्डवाले देवसेन को प्रथम भट्टारक बतलाया है । सन् 1411 ई. के पूर्व इस पट्ट पर देवसेन, विमल सेन, धर्मसेन तथा सहस्रकीर्ति पट्टासीन हो चुके थे । अगले भट्टारक गुणकीर्ति (सन् 14111429 ई.) ने अपना पट्ट ग्वालियर में स्थानान्तरित कर लिया था और यहीं से स्वर्णगिरि तथा नरवर के जैन संघों का नियंत्रण होने लगा था ।
चम्बल के किनारे स्थित ऐसाह के छोटे-से तोमर जागीरदार वीरसिंहदेव ने सन् 1394 ई. में गोपाचलगढ़
पर अधिकार कर लिया था और दिल्ली के सुल्तान नासिरुद्दीन को पराजित कर अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी ।" इस घटना के पूर्व ग्वालियर क्षेत्र में जैन धर्म के विकास के कुछ बिखरे हुए प्रमाण ही उपलब्ध हुए हैं। इस क्षेत्र में सन् 1400 ई. के पूर्व का न तो कोई जैन ग्रन्थ ही उपलब्ध हुआ है और न जैन मुनियों एवं श्रावकों की गतिविधियों की कोई जानकारी ही प्राप्त हुई है । कुछ मूर्तियों एवं शिलालेखों से यह ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में जब-जब किसी स्थानीय शक्ति ने तुर्क सुल्तानों के वर्चस्व से सम्पूर्ण या आंशिक त्राण प्राप्त किया तभी भारतमूलीय धर्मों के अनुयायियों ने अपने आराधना स्थलों का निर्माण या पुनर्निर्माण प्रारंभ कर दिया । यह भी सुनिश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हिन्दू तथा जैन धर्मों के अनुयायी, दोनों बिना
किसी झगड़े के साथ-साथ अपने मार्ग अपनाते रहे ! परन्तु मूर्तियों और मन्दिरों का निर्माण मात्र धार्मिक चिन्तन के स्वरूप पर प्रकाश डालने के लिए पर्याप्त नहीं है । इन मूर्तियों को प्रश्रय देनेवाले मन्दिर सांस्कृतिक प्रवृत्तियों के प्रश्रय के प्रमुख स्थल होते थे । दुर्भाग्य से जो — कुछ अवशिष्ट है वह उस धर्म साधना का बाह्य रूप ही है, उसकी आत्मा हमें उपलब्ध नहीं हो सकी है । उस समय के समस्त मन्दिर तथा उनमें विरचित साहित्य कालगति अथवा मानव द्वारा नष्ट कर दिए गए और वे प्रमाण अनुपलब्ध हो गए जिनसे उस युग के चिन्तन के स्वरूप को जाना जा सकता । परन्तु यह मानना भूल होगी कि उस समय के इस क्षेत्र के जैन साहित्य का अब अस्तित्व है ही नहीं । स्वर्णगिरि, नरवर, ग्वालियर, मगरौनी, झांसी आदि के जैन मन्दिरों के ज्ञान भण्डारों में हजारों ग्रन्थ अभी भी सुरक्षित हैं, जिनकी प्रति वर्ष धूपदीप देकर
11, नरवर और शिवपुरी क्षेत्र में वि. सं. 1206 ( 1149 ई.) से ही जैन मूर्तियाँ प्राप्त होने लगती हैं । देखिये, द्विवेदी, ग्वालियर राज्य के अभिलेख क्र. 72, 73, 74, 76, 77 तथा 84 ।
12. द्विवेदी, तोमरों का इतिहास, द्वितीय भाग, पृ. 28-29 |
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पूजा की जाती है, दुर्भाग्य से उन्हें कोई पढ़ता नहीं है, केवल नयचन्द्र की साक्षी के आधार पर यह न उनकी सूचियां बनी हैं। जिस दिन यह कार्य सम्पन्न मानना कठिन है कि शाङ्गधर जयसिंह सूरि से शास्त्रार्थ हो सकेगा, इस क्षेत्र के जैन धर्म के विकास के इतिहास में पराजित हुए थे, परन्तु यह सुनिश्चित है कि तोमरको सजीव रूप दिया जा सकेगा।
राजसभा सूरिजी की ज्ञान गरिमा से बहुत अधिक
प्रभावित हुई और ग्वालियर में जैन धर्म के अद्वितीय सन् 1394 ई. में ग्वालियर के तोमर राज्य की विकास का सूत्रपात हुआ। स्थापना के साथ ही इस क्षेत्र के इतिहास पटल पर से अन्धकार का पर्दा हट जाता है । राजनीतिक एवं वीरसिंहदेव के पश्चात् उनके युवराज उद्धरणदेव सांस्कृतिक इतिहास के साथ-साथ जैनधर्म के विकास (सन 1400-1402 ई.) राजा बने। उनके छोटे-से का इतिहास भी अत्यंत सजीव रूप से प्रत्यक्ष होने राज्यकाल की कोई घटना ज्ञात नहीं हो सकी है। जैन लगता है। जैन मूर्तियों के शिलालेख और जैन मुनियों धर्म के विकास के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण उद्धरणदेव एवं जैन पण्डितों की रचनाएँ बहुत विस्तृत और अत्रुट के युवराज वीरमदेव (सन् 1402 ---1423 ई.) का जानकारी प्रस्तुत करती हैं । उनके आधार पर ग्वालियर राज्यकाल है । क्षेत्र का और साथ ही जैन धर्म के विकास का इतिहास बहुत विस्तार के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है। वीरमदेव स्वयं अम्बिकादेवी और शिव के भक्त थे।
साथ ही वे जैन धर्म को भी प्रश्रय देते थे। उनका ग्वालियर के तोमर राज्य के संस्थापक वीरसिंहदेव प्रधान मंत्री कुशराज जैन था । (सन् 1375-1400 ई.) शिव और शक्ति के उपासक थे। वि. सं. 1439 (सन् 1382 ई.) में उन्होंने वीर- वीरम तोमर के समय में ग्वालियर में जैन धर्म का सिंहावलोक नामक वैद्यक ग्रन्थ की रचना की थी। वे प्रभाव अपने विशिष्ट रूप में दिखाई देता है। देश के ज्योतिष, धर्मशास्त्र एवं वेदों के प्रकाण्ड पण्डित थे। अन्य भागों में उस समय हिन्दू और जैन आपस में उनके द्वारा दुर्गामक्ति तरंगिणी की भी रचना की गई पर्याप्त भेदभाव मानने लगे थे और दो नटखट भाइयों थी। परन्तु साथ ही वे जैन धर्म के प्रति भी अनूदार के समान दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुनहीं थे। उनके समय में श्रीकृष्णगच्छ के प्रसिद्ध आचार्य यायी भी आपस में झगड़ते थे। परन्तु यह मनमुटाव श्री जयसिंह सूरि ग्वालियर आए थे। वीरसिंहदेव के केवल ऊपरी था। वह जो हो, वीरमदेव के समय में सभापण्डित शाई गधर तथा जयसिंह सूरि के बीच ग्वालियर में कुछ और प्रकार का दृश्य दिखाई देता है। शास्त्रार्थ भी हुआ था। उस शास्त्रार्थ का विवरण यहाँ का राजा शिव-शक्ति का अनन्य उपासक और मंत्री जयसिंह सूरि के शिष्य नयचन्द्र सूरि ने अपने हम्मीर अत्यन्त धर्मपरायण जैन था । परन्तु दोनों के निजी धर्म महाकाव्य में दिया है । नयचन्द्र सूरि ने लिखा है, एक-दूसरे के पूरक दिखाई देते हैं । उस समय ग्वालियर "सूरियों के इस चक्र के क्रम में, जिनके चरित विस्मय के जैन पट्ट के भट्टारक थे गुणकीति ( सन् 1411के आवास थे, श्री जयसिंह सूरि हुए, जो विद्वानों में 1429 ई.) । भट्टारक गुणकीर्ति ने जैन काव्य यशोधर चूडामणि थे, उनके द्वारा सारंग को वादविवाद में चरित लिखाया अजंन कवि पदमनाथ कायस्थ से । यद्यपि पराजित किया गया। यह सारंग उन कवियों में श्रेष्ठ उसी समय वीरमदेव की राजसभा में नयचन्द्र सरि जैसे था जो षड्भाषा में कविता कर सकते थे, तथा वह महाकवि भी थे, तथापि उन्होंने जैन चरित न लिखकर प्रामाणिकों (न्याय शास्त्रियों) में अग्रणी था।" हम्मीर महाकाव्य तथा रम्मा मंजरी लिखे, अर्थात जैन
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सरि का कार्य करता है वैष्णव कायस्थ और राज- वीरमदेव की राजसभा के एक रत्न नयचन्द्र सूरि नीति का उपदेश देते हैं जैन सरि। वीरमदेव के मंत्री का उल्लेख किया जा चुका है। श्रीकृष्णगच्छ के कुशराज जैन ने ग्वालियर क्षेत्र में जैन धर्म के विकास नयचन्द्र पर काष्ठा संघ के भट्टारक गुणकीर्ति का के लिए बहत कार्य किया था। इस कार्य में उसे राजा कितना प्रभाव था, यह ज्ञात नहीं है। यह अवश्य ने भी पूरा सहयोग दिया था। वि. सं. 1367 (सन् कहा जा सकता है कि ग्वालियर के तोमरों के राष्ट्र1410 ई.) में सुहानियां में वीरमदेव ने अम्बिकादेवी कवि नयचन्द्र सरि ने अपने राजा की राजसभा में ऐसा के मन्दिर का पुननिर्माण किया और उसी वर्ष पास में वातावरण उत्पन्न कर दिया था जिसके कारण जैनेतर ही चैत्रनाथ की विशाल जिन मूर्ति की प्रतिष्ठा की नागरिकों में जैन मुनि बहत आदरास्पद बन गये। आगे गई।
एक शताब्दी तक ग्वालियर में जैन धर्म की जो उन्नति
हुई उसमें नयचन्द्र सूरि का बहुत हाथ था। कुशराज ने स्वयं ग्वालियर में चन्द्रप्रभु का विशाल मन्दिर बनवाया और उसकी प्रतिष्ठा का उत्सव बहुत उस समय इस प्रदेश के हिन्द तथा जैन, सभी तुर्को समारोह के साथ किया। उसी समय उसने पद्मनाथ के अत्याचार से पीड़ित थे। उस समय शासक और से यशोधर चरित काव्य लिखने का आग्रह किया था। शासित वर्ग में विद्वेष की खाई बहत बढ़ गई थी । पद्मनाथ कायस्थ को इस रचना के लिए भटटारक शासित वर्ग ने यद्यपि बहुसंख्यक था, तथापि वह अपनी यशःकीर्ति का आशीर्वाद प्राप्त हुआ था और कुशराज जीवन-पद्धति को अपनाने के लिए स्वतंत्र नहीं था। इन जैन द्वारा प्रश्रय मिला था।
परिस्थितियों में जो भी वीर किसी तुर्क सुल्तान से युद्ध
करने का साहस करता था, उसे तत्कालीन बहुसंख्यक कुशराज का एक ताम्रपत्र भी प्राप्त हुआ है। यह समाज राष्ट्रीय वीर के रूप में सम्मान देता था । वि. सं. 1375 (सन् 1418 ई.) में उत्कीर्ण किया नयचन्द्र सूरि मे राष्ट्र की इस भावना का समादर गया था। इसके लेख से ज्ञात होता है कि कुशराज किया। हिन्दू-जैन विवाद से बहुत ऊपर उठकर उसने इस यंत्र की पूजा प्रतिदिन किया करता था ।
अपने युग की आकांक्षाओं और आवश्यकताओं को
समझा । ब्राह्मण और जैन सम्प्रदायों के वन्दनीय वीरमदेव के राज्य काल में संभवतः भट्टारक
देवताओं की द्विअर्थक वंदना के मंगल-श्लोक लिखकर गुणकीति की प्रेरणा से आचार्य अमृतचन्द्रकृत प्रवचन
उसने अपने हम्मीर महाकाव्य का उद्देश्य स्पष्ट करते सार की तत्वदीपिका टीका की गई। अमरकीति के
हुए लिखा-14 षटकर्मोपदेश की उस समय ग्वालियर में प्रतिलिपि की गई थी। इस प्रकार वीरमदेव के समय से इस क्षेत्र में न
ल में मान्धाता, सीतापति राम और कंक केवल जैन मन्दिरों एवं मूर्तियों का निर्माण पुनः प्रारंभ (युधिष्ठिर) आदि पृथ्वी पर कितने राजा नहीं हो गए, हुआ, वरन् प्राचीन जैन ग्रन्थों का अवगाहन भी पर उन सब में अपने सत्वगुण के कारण, हम्मीर देव प्रारंभ हुआ।
अद्वितीय और स्तवन योग्य पुरुष हैं । इस सात्विक वृत्ति
13. तोमरों का इतिहास, द्वितीय भाग, पृ. 50 । 14. हम्मीर महाकाव्य क्र.8,9 तथा 10।
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वाले पुरुष ने विधर्मी शक (अलाउद्दीन) को अपनी पुत्री ... अपनी विद्वत्ता और राष्ट्र प्रेम के कारण नयचन्द्र तथा अपने शरण में आए विधर्मी व्यक्तियों (माहि- सूरि ने तत्कालीन तोमर राजा, उसकी "सामाजिक मसाहि) तक को न देने के लिए राजलक्ष्मी, सुखविलास संसद" तथा अन्य नागरिकों को बहुत अधिक प्रभावित और अपने जीवन तक को तृणवत् समझकर उसका किया था। इस प्रभाव का उपयोग भट्टारक यशःकीर्ति, त्याग कर दिया।
जैन श्रेष्ठ और श्रावकों ने ग्वालियर में जैन धर्म को
प्रतिष्ठित करने में बहुत बुद्धिमतापूर्वक किया। "इसलिए राजन्यजन के मन को पवित्र करने की इच्छा से मैं उस वीर के उक्त गुणों के गौरव से प्रेरित वीरमदेव तोमर के राज्यकाल में ही कालपी के होकर उसका थोड़ा-सा चरित वर्णन करता हूँ।" सुल्तान ग्वालियर के तोमर राज्य को घेर रहे थे और
उसे हड़प जाना चाहते थे। कालपी के सुल्तानों का नयचन्द्र सूरि ने वीरमदेव तोमर के समक्ष हम्मीर- राज्य ग्वालियर के पास भाण्डेर तक फैल गया था। देव का आदर्श रखा था । अपने आत्मसम्मान की रक्षा सन 1435 ई. में ग्वालियर के तोमर राजा डूंगरेन्द्रसिंह के लिए तथा शरणागत का प्रतिपालन करने के लिए, ने कालपी के सुल्तान मुबारकशाह को भाण्डेर पर पूर्णतः भले ही वह किसी धर्म का अनुयायी हो, युद्ध में प्राण पराजित कर दिया। इस युद्ध में डूगरेन्द्रसिंह को बहुत देना श्रेयस्कर है। महाकवि के इस उद्बोध ने उस युग अधिक धन भी मिला था और प्रतिष्ठा भी । इस के अनेक राजन्यजन के मनों को पवित्र किया था और विजय के उपलक्ष्य में ग्वालियर में बहत बड़े समारोह वे अपनी जीवन-पद्धति की रक्षा के लिए युद्धरत मनाए गए । महाराज इंगरेन्द्रसिंह ने अपने राजकवि
विष्णुदास से पांडव चरितु (महाभारत) की रचना
कराई। उधर स्थानीय जैन समाज ने भी इस उत्सव नयचन्द्र सूरि की दूसरी रचना रंभामंजरी है। में पर्ण योगदान दिया। साह खेतसिंह के पुत्र कमलसिह रम्भामंजरी में सूत्रधार ने व्यक्त किया है कि "ग्रीष्म ।
ने ग्यारह हाथ ऊँची जैन प्रतिमा का निर्माण कराया ऋतु की विश्वनाथ यात्रा के लिए एकत्रित भद्रजनों का और विजय की इस शभ वेला में, महाराज डूगरेन्द्रसिंह प्रबन्ध-नाट्य द्वारा मनोरंजन किया जाए।" नयचन्द्र
द्र से इसके प्रतिष्ठोत्सव के लिए आज्ञा मांगी। राजा ने को ज्ञात था कि जिस समाज के लिए वह नाटक लिख
स्वीकृति देते हए कहा, "आप इस धार्मिक कार्य को रहा है, उसमें अधिकांश विश्वनाथ का भक्त है, अतएव सम्पन्न कीजिए। मझसे आप जो मांगेंगे सो दूंगा।" उसने उसके अभिनीत किए जाने के लिए विश्वनाथ यात्रा का समय ही सुनिश्चित किया। रंभामंजरी के इसी प्रतिष्ठोत्सव समारोह के अवसर पर प्रसिद्ध मंगल श्लोक में विष्णु के वराह रूप की वंदना की गई जैन कवि पण्डित रइधू ने अपनी प्रथम रचना सम्मतहै । जैन मुनि द्वारा यह मंगल श्लोक साभिप्राय लिखा गुण-निहान प्रस्तुत की। गया था और वह नयचन्द्र सूरि की महान राष्ट्रीय भावना का द्योतक है। पंक में फंसी विश्वा-पृथ्वी को दंष्ट्राग्र सन् 1435 ई. की इस घटना ने ग्वालियर के पर उठाकर उद्धार करनेवाली शक्ति की तत्कालीन इतिहास को बहत अधिक प्रभावित किया। अगले 40 भारत को परम आवश्यकता थी।15
वर्षों में दिल्ली, हिसार, चन्दवार आदि स्थलों से अनेक
हुए थे।
15. यह स्मरणीय है कि वराहावतार को ग्वालियर के तोमरों ने अपना राजचिह्न बनाया था।
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(एक पत्थर की बावड़ी, पर स्थित, गुहा मन्दिर; जैन मूर्ति समूह )
जैन व्यापारी ग्वालियर आते रहे । उनमें से अनेक यहाँ बस गए और लगभग सभी ने गोपाचल के किसी न-किसी कोने में गुहामन्दिर बनवाए तथा जैन ग्रन्थों की रचना की प्रेरणा दी और अनेक प्राचीन जैन ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ कराई। इन समस्त कार्यों के पीछे भट्टारक यशः कीर्ति की प्रेरणा थी ।
रघू के ग्रन्थों से तथा इस समम के उपलब्ध लगभग 40 मूर्तिलेखों से डूंगरेन्द्रसिंह और कीर्तिसिंह के समय में ग्वालियर में हुए जैन धर्म के विकास का बहुत स्पष्ट और विस्तृत इतिहास लिखा जा सकता है। दर्जनों संबाधिपतियों, तथा सैकड़ों श्रावकों का पूर्ण विवरण सजीव रूप में ज्ञात हो जाता है। किसने क्या कराया,
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इसका भी पूरा विवरण प्राप्त हो जाता है । वह समस्त विवरण यहाँ देने से प्रसंग बहुत बढ़ जाएगा। यहाँ एकदो उदाहरण देना ही पर्याप्त है ।
रघू ने "सम्मइजिन चरिउ" में हिसार निवासी एक अग्रवाल जैन व्यापारी का बहुत विस्तृत विवरण दिया है । साहु नरपति का पुत्र बील्हा फीरोजशाह तुगलक द्वारा सम्मानित व्यापारी था । उसी के वंश में संघाधिपति सहजपाल हुआ, जिसने गिरनार की यात्रा का संघ चलाया था और उसका समस्त व्यय भार वहन किया था । सहजपाल का पुत्र साहु सहदेव भी संघाधिपति था । उसका छोटा भाई तोसड़ था । तोसड़ का पुत्र खेल्हा था । भट्टारक यशःकीर्ति का आशीर्वाद
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प्राप्त करने के लिए खेल्हा ने गोपाचल पर चन्द्रप्रभु की उसने गोपाचलगढ़ पर युगादिनाथ की प्रतिमा का विशाल मूर्ति का निर्माण कराया। उसने ही रइधू से निर्माण कराया। इस मूर्ति के लेख में ग्वालियर के "सम्मईजिनचरिउ" ग्रन्थ की रचना कराई।
महाराज कीर्तिसिंह देव को "हिन्दू-सुरत्राण' कहा गया - रइधू ने मेघेश्वर चरित तथा पार्श्वनाथ चरित में एक और व्यापारी-परिवार का उल्लेख किया है। यह इसी समय एक और साहु पद्मसिंह के दर्शन होते परिवार दिल्ली से आकर ग्वालियर में बस गया था। हैं। इन्होंने अपनी "चंचला लक्ष्मी" का सदुपयोग साह खेऊ दिल्ली से ग्वालियर आकर यहाँ नगर सेठ करने के लिए 24 जिनालय बनवाए, पुष्पदन्त के बन गए। खेऊ द्वीपान्तरों से वस्त्र और रत्न मँगा- आदिपुराण की प्रतिलिपि कराई तथा एक लाख ग्रन्थ कर व्यापार करते थे। उसने गोपाचलगढ पर विशाल प्रतिलिपि कराकर भट्टारक यशःकीति को भेंट किए। जिन मूर्ति बनबाई । इस मूर्ति के लेख से ज्ञात होता है
कछ जैन साध्वियों ने भी अनेक गृहामन्दिर बनवाकि उसके प्रतिष्ठाचार्य रइध ही थे। खेऊ के पूत्र .
कर उनके मूर्तिलेखों पर अपने नाम अंकित करा दिए । कमलसिंह भी ग्वालियर में ही रहे । उनके द्वारा आदिनाथ की ग्यारह हाथ ऊँची प्रतिमा बनवाई गई । चालीस वर्षों के समय में ग्वालियर में जैन धर्म के रइधू ने कमलसिंह के पुत्र हेमराज का भी उल्लेख किया विकास के लिए जो कुछ हुआ था, उसमें डूं गरेन्द्रसिंह है। हेमराज का व्यापार ग्वालियर जोर दिल्ली, दोनों और कीर्तिसिंह की उदार धार्मिक नीति तो प्रधान स्थलों पर चलता था। हेमहाज संघाधिपति भी बना। थी ही, तथापि इसका प्रमुख श्रेय भट्टारक गुणभद्र के
(उखाई द्वार स्थित खण्डित जैन प्रतिमाएं)
16. द्विवेदी, ग्वालियर राज्यके अभिलेख, क्र. 293 ।
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छोटे भाई और शिष्य भट्टारक यश:कीर्ति को है। मानसिंह के राज्यकाल तक तोमरों का ग्वालियर उन्हीं की प्रेरणा से उत्तरी भारत के समृद्ध जैन व्यापारी जैन धर्मानुयायियों के लिए "देवपत्तन" बना रहा । ग्वालियर की ओर आकर्षित हए और उन्होंने गढ़ और सन् 1523 ई. में मानसिंह का राजकुमार विक्रमादित्य नगर, दोनों को जैनतीर्थ का स्वरूप दे दिया । भट्टारक (सन् 1516--1523 ई.) इब्राहीम लोदी द्वारा परायशःकीति की प्रेरणा से ही पण्डित र इध ने अनेक जैन जित हुआ और उसे गोपाचलगढ़ छोड़ देना पड़ा । उसके ग्रन्थ लिखे । तथापि भट्टारक यशःकीर्ति का बहुत ।
उपरान्त "गोपाद्री देवपत्तने" में क्या होता रहा, यह महत्वपूर्ण कार्य प्राचीन जैन साहित्य का पुनरुद्धार था। हमारा यहाँ वर्ण्य विषय नहीं है । हम एक बात कह सकते आज स्वयंभू और पुष्पदन्त जैसे महाकवियों की रचना हैं, उसके उपरान्त जैन सम्प्रदाय के अनुयायी भी यह उपलब्ध न होती, यदि ग्वालियर के जैन मठ में भटारक भूल गए कि देश के इस भाग में उनके धर्म के विकास, यश:कीति उनकी प्रतिलिपियाँ कराकर न रखते । जिस प्रचार और प्रसार के लिए क्या-क्या किया गया था, प्रकार ईसवी ग्यारहवीं शताब्दी में गुजरात में हेमचन्द्रा- कैसी महान् विभूतियों ने कितने उच्च प्रतिमान स्थापित चार्य ने जैन धर्म के विकास के लिए बहमखी प्रयास किये थे ? भट्टारकगण गुणकीर्ति और यशःकीर्ति के किया था, वैसा ही प्रयास महामुनि यशःकीति ने । गौरवशाली कृत्यों का आज किसे स्मरण है ? रइधू ग्वालियर में किया था।
मात्र जैन-कथा लेखक के रूप में प्रख्यात है, उसने - नीतिमिद (मन 1459-1480 परत "तीर्थेशोवृषभेश्वरो गणनुतो गौरीश्वरो शंकरो" लिखग्वालियर पर कल्याण मल्ल (सन् 1480-1486 ई.)
_कर ऋषभदेव और शंकर की एकरूपता प्रतिपादित कर का राज्य हुआ। उस समय तक भट्टारक यशःकीर्ति की
धार्मिक सहिष्णुता का भी मार्ग प्रशस्त किया था, यह
कितनों को ज्ञात है? कुशराज जैन तथा श्री तोडर मृत्यु हो चुकी थी । उसी समय दक्षिण के कुन्दकुन्दान्वय
क्षेमशाह जैसे प्रधान मंत्रियों ने, साहु खेल्हा, खेड, सरस्वतीगच्छ का पट्ट भी ग्वालियर में स्थापित हो गया था। उस पट्ट पर भटारक शुभचन्द्र देव
कमलसिंह आदि ने जैन धर्म और ग्वालियर की समृद्धि आसीन थे।
के लिए क्या-क्या किया था ये सब तथ्य पूर्णतः मानसिंह तोमर (सन् 1486-1516 ई.) के
भुलाये जा चुके हैं। कुछ पत्थर बोलना चाहते हैं,
इनकी यशोगाथा वे शताब्दियों से अपने हृदय-पटलों राज्यकाल में भी ग्वालियर में जैन धर्म की पूर्ण प्रतिष्ठा
पर अंकित किए पड़े हैं, परन्तु उन्हें कोई सुनना नहीं रही। उसका प्रधान मत्री खेमशाह जैन था। उसने
चाहता। वास्तव में सन् 1523 ई. में ग्वालियर का भी संघाधिपति या सिंघई या विरुद लिया था। उनके
अन्तिम स्वतंत्र राजा विक्रमादित्य ही पराजित नहीं समय में काष्ठासंघ के पट्ट पर भट्टारक विजयसेन
हुआ था, उसके प्रदेश की उसके पूर्व की अनेक पीढ़ियों आसीन थे। कुछ नवीन जैन मन्दिर भी बने थे।
द्वारा किए गए सांस्कृतिक जागरण के कारणभूत सिरीमल के पुत्र चतरू ने वि. सं. 1469 (सन्
महापुरुषों की यशोगाथा भी भुला दी गई। विजेताओं 1512 ई.) में नेमीश्वरगीत लिखा था । इसमें
की विजयवाहिनियों के घोर दु'दुभिनाद में उनकी वाणी तत्कालीन जैन समाज के विषय में उसने लिखा है
तिरोहित होमई और उन सेनाओं के प्रयाण से उडी धुल एक सोवन की लंका जिसी, तोवर राउ सबल बलवीर में वह गौरवशाली अतीत दब गया। पराजय की यह भूयबल आपुनु साहस धीर, मानसिह जग जानिए । अनिवार्य नियति है। उस देवपत्तन के इतिहास-निर्माण ताके राज सूखी सब लोग, राज समान करहि दिन भोग की ओर सक्षम और समर्थ व्यक्ति आकर्षित हों, यह जैन धर्म बहुविधि चलै, श्रावग दिन जु करें षटकर्म॥ मंगल कामना है।
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ग्वालियर
सांस्कृतिक विकास
जैन धर्म
-रवीन्द्र मालव
भारत के हृदय-स्थल पर स्थित देश के इस भाग का इतिहास अत्याधिक प्राचीन है। यद्यपि विभिन्न इतिहासकारों ने समय-समय पर प्रकाशित अपने ऐतिहासिक लेखों एवं पुस्तकों में इस क्षेत्र की प्राचीनता के सम्बन्ध में लिखा है तथापि यहाँ के इतिहास के सम्बन्ध में पर्याप्त शोध न होने के कारण अनेकों ऐतिहासिक तथ्य प्रकाश में नहीं आ पाये हैं। इसी कारण अनेकों स्थानों पर इसके अभाव में इतिहासकारों एवं लेखकों को कल्पनाशक्ति का सहारा लेने को विवश होना पड़ा है।
यों तो सारे भारत में ही इतिहास विषय पर पर्याप्त शोध-कार्य नहीं हआ है और न ही विशेष लिखा ही गया है, परन्तु ग्वालियर के सम्बन्ध में यह बात विशेष रूप से कही जा सकती है। यही कारण है कि यहाँ के प्राचीन इतिहास का अधिकांश भाग अन्धकारमय है। सच पूछा जाये तो इसका प्रमुख कारण हमारी संस्कृति ही रही। प्रारम्भ में इस देश में इतिहास लिखने की परम्परा नहीं थी। शासकगण अपना अधिकतर समय
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राज्य का क्षेत्र बढ़ाने, अपनी विचारधारा का प्रचार करने आदि में व्यतीत करते थे । तथापि सभी के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता । अनेकों राजाओं ने इन सबके अतिरिक्त कला एवं साहित्य के विकास तथा स्थापत्य पर भी ध्यान दिया। अधिकतर निर्माण-कार्य मंदिरों और महलों के ही रूप में कराये गये। आगे चलकर शिलालेख खुदवाने की परम्परा भी पाई जाती है। लेकिन जहाँ तक लेखन का प्रश्न है प्राचीन समय में धार्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त बहुत कम ही लिखा गया । यदि थोड़ा-बहुत लिखा भी गया है तो वह राजाओं की प्रशंसा आदि के सम्बन्ध में है। हाँ विदेशों से आये विभिन्न दूतों द्वारा लिखा गया वर्णन अवश्य अनेकों ऐतिहासिक तथ्यों को प्रकाशित करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन समय में इतिहास लिखने की परम्परा नहीं थी । अन्य जो कुछ लिखा भी गया, वह सुरक्षित नहीं है। हाँ शिलालेख और धर्मग्रन्थ अवश्य थोड़ा-बहुत प्रकाश डालते हैं।
अनेकों प्राचीन ऐतिहासिक नगरों पद्मावती तथा सिहोनियां आदि से मिलकर बना यह भाग भारत के इतिहास में अपना अत्याधिक महत्व रखता है, परन्तु इसके सम्बन्ध में भी यही दशा है । यहाँ के बहुत से ऐतिहासिक तथ्य और ग्रन्थ नष्ट हो गए हैं और जो हैं भी उन पर पर्याप्त शोध न होने के कारण कुछ सीमित जानकारी के सहारे तथा अन्य स्थानों पर कल्पना शक्ति के ही सहारे आगे बढ़ना पड़ता है । फिर भी प्राचीन ग्रन्थों आदि से इस क्षेत्र के ऐतिहासिक दृष्टि से धनवान होने के उदाहरण मिलते हैं। अनेकों प्राचीन ग्रन्थों में पद्मावती, सिहोनिया, गोपाद्री, गोपागिरी और गोपाचल आदि शब्दों का उल्लेख मिलता है ।
प्रमाण सूर्यकुण्ड पर स्थित हूण और मिहिरकुल के एक शिलालेख द्वारा प्राप्त होता है। जिसका काल लग भग 515 ई. माना जात है। इस काल के बारे में विशेष विवरण नहीं मिलता। इस कारण जैनों की स्थिति के बारे में कुछ निश्चित मत व्यक्त नहीं किये जा सकते। पर इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस नगर निर्माण के काल से ही पान-पान: जैन धर्मावलम्बी इस नगर में आकर बसने लगे थे।
इस समय ग्वालियर पर तोरमन और उसके पुत्र मिहिरकुल का आधिपत्य था । इनका शासन काल बड़ा दुखदायी रहा। सन् 533 ई. में यशोवर्मन द्वारा पराजित किये जाने पर वह काश्मीर भाग गया पर स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ । यशोवर्मन और उसके पुत्र नागवर्मन ने सन् 550 ई. तक यहां राज्य किया। इस प्रकार इन 80 वर्षों में राज्य की दशा बड़ी ही अस्थिर रही। इसके पश्चात् हर्ष के सम्राट होने पर उसने ग्वालियर पर भी कब्जा कर उसे अपने राज्य में मिला लिया। इसके राज्य में शान्ति रही, यद्यपि वह स्वयं बौद्ध मतावलम्बी था परन्तु वह धर्मान्ध नहीं था । अतः इसने सभी वर्गों को समान रूप से प्रगति के अवसर प्रदान किये । इसके कारण उसके काल में यहाँ जैन पर्याप्त मात्रा में थे और इस क्षेत्र में तभी से क्रियाशील हो उठे थे। वे धर्म प्रचार और साधना के अतिरिक्त अब संगठन, तथा मंदिरों के निर्माण पर भी ध्यान देने लगे थे ।
प्रसिद्ध चीनी यात्री हुएनसांग इन्हीं के राज्यकाल में भारत आया था। उसने अपनी पुस्तक में एक स्थान पर जैन साधुओं की चर्चा करते हुए लिखा है-“निर्व्रन्थ साधू अपने शरीर को नग्न रखते हैं और
वैसे इस दुर्ग के सम्बन्ध में सर्वप्रथम ऐतिहासिक बालों को नोच डालते हैं । उनकी प्रधानता सारे देश में
1.
आ. स. ई. रिपोर्ट, भाग 2, पृष्ठ 339, तथा भाग 20, पृष्ठ 107 1
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थी, बल्कि भारत के बाहर भी वे फैले हुए थे।" सन् शती में गोपाचल क्षेत्र में जैन धर्म का क्रमबद्ध 648 में हर्ष की मृत्यु हो गई और पुनः एक बार इस विकास प्रारम्भ हो गया था। कन्नौज के प्रतापी यशोक्षेत्र में अराजकता जैसी स्थित निर्मित हो गई। वर्मन के पुत्र आम ने गोपाचल गढ़ को सन् 750 ई. में
अपनी राजधानी बनाया था। आम ने वप्पभट्ट सूरि ग्वालियर के दो शैलोत्कीर्ण शिल्पांकन भी
का शिष्यत्व ग्रहण किया था। जैन प्रबन्धों के अनुसार इसी काल के अंत की ही रचनाएँ प्रतीत होती।
आम नामक नरेश ने जो नौ वीं शताब्दी में कन्नौज और हैं। इनमें से एक प्रतिमा में तीर्थ कर को कायोत्सर्ग ।
ग्वालियर पर शासन करता था कन्नौज में एक मन्दिर मुद्रा में तथा दूसरी को पद्मासनस्थ ध्यानमुद्रा में
का निर्माण कराया था, जो 100 हाथ ऊँचा था और अंकित किया गया है। पद्मासन-मूद्राबाले तीर्थकर के।
जिसमें उसने तीर्थकर महावीर की स्वर्ण प्रतिमा पार्श्व में अंकित सेवक पूर्ण विकसित कमल पुष्पों पर स्थापित करायी थी। उसने ग्वालियर में 23 हाथ खड़े हुए हैं। इन कमल पुष्पों को बौने (वामन) लोगों ऊँची महावीर की प्रतिमा स्थापित की थी। यह भी ने थाम रखा है, जो स्वयं मोटे कमलनाल जैसे दिखाई
कहा जाता है कि उसने मथुरा, अनहिल वाड़, मोढ़ेरा देते हैं। ऐसा ही लम्बी तालयुक्त कमल पुष्पों पर
आदि में भी जैन मन्दिरों का निर्माण कराया था। खड़े यक्षों का अंकन मथुरा संग्रहालय की (बी 6 तथा जैन परम्पराओं में उल्लिखित नरेश आम प्रतिहार नागबी 7 क्रमांकित) दो सुन्दर मूर्तियों में भी पाया जाता भटट द्वितीय (मत्यु 883 ई.) रहे होंगे, जो जैन धर्म के है। खड़गासन तीर्थ कर-प्रतिमा के मूर्तन की तुलना प्रति अपनी आस्था के लिये प्रसिद्ध रहे हैं। इस जैन राजगिरि की वैभार पहाड़ी स्थित दो खड्गासन प्रति
परम्परा की सत्यता इन स्थानों से प्राप्त मध्यकालीन माओं के मूर्तन से की जा सकती है । ग्वालियर की जैन अवशेषों द्वारा प्रमाणित होती है । इन दोनों तीर्थ कर प्रतिमाओं में गृप्त-शैली का अनुकरण किया गया है। सेवक अलंकृत टोपी जैसे मुकट तथा ग्वालियर के किले में अंबिका यक्षी और गोमेद गले में एकावली धारण किये हुए हैं। तीर्थ करों का यक्ष की शैलोत्कीर्ण सपरिकर प्रतिमाएँ उपलब्ध हैं। परिकर परवर्ती गुप्तकालीन प्रतिमाओं की भाँति ललितासन में बैठी अंबिका के पावं में, उनकी सेबिकाएँ सुसज्जित न होकर यहाँ भी सादा रहा ।'
हैं। इन प्रतिमाओं का निर्माणकाल लगभग आठवीं
शताब्दी निर्धारित किया जाता है। ये प्रतिमाएँ आठवीं शती के सम्बन्ध में उपलब्ध ऐतिहासिक भारी आकार और रचना सौष्ठव के लिये विशेष प्रमाणों से से इस बात की पुष्टि होती है कि आठवीं उल्लेखनीय हैं, तथा कुषाण एवं गुप्तकालीन पांचिक
2. ट्रेवेल्स आफ हुएनसांग, पृष्ठ 2241 3. जैन कला एवं स्थापत्य, खण्ड 1; भाग 3 (वास्तु स्मारक एवं मूर्तिकला) (300 से 600 ई.), अध्याय
12 (मध्यभारत)-डा. उमाकान्त प्रेमानन्द शाह । 4. प्रबन्ध कोष, पृष्ठ 27; प्रभावक चरित, पृष्ठ 99 । 5. मजूमदार (आर. सी.) तथा पुसालकर (ए. डी.) सम्पादक-एज आफ इम्पीरियल कन्नोज, 1955,
बम्बई, पृष्ठ 2891 6. वन (क्लास) जिन इमेजेज आफ देवगढ़, 1969, लीडन, चित्र 18-18 A |
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एवं हारीति प्रतिमाओं के समनुरूप हैं। अंबिका यक्षी की प्रतिष्ठा कर उसे वहां स्थापित कराया। इससे की मुखाकृति अण्डाकार है, नेत्र अद्ध निमीलित लगता है कि भोजदेव के काल में जैन धर्मावलंबियों की हैं, केश सज्जा घम्मिल्ल आकार का है, कसे हुए गोल अच्छी दशा थी। इन्होंने 10 वी. शताब्दी तक शासन स्तन हैं, ग्रीवा और कुक्षी पर त्रिवलियाँ हैं, उदर भरा किया। दसवीं शताब्दी में पुनः वरजुमन कछवाहा के हुआ तथा नितम्ब चौड़े हैं । यक्ष की प्रतिमा स्थलकाय नेतृत्व में राजपूतों ने इस क्षेत्र तथा दुर्ग पर अपना
और लम्बी-चौड़ी है। उसकी तोंद मटके जैसी है। शासन स्थापित किया। ग्वालियर के किले में तीन स्वतन्त्र जैन प्रतिमाएं भी विद्यमान हैं जो लगभग उसी काल की हैं। इनमें से वर्तमान सास-बहू के मन्दिरों का भी निर्माण इसी एक प्रतिमा कायोत्सर्ग मद्रा में आदिनाथ का अंकन है काल में हमा। इस मन्दिर के लम्बे शिलालेख का पाठ जिसके चारों ओर पदमासन मुद्रा में तेईस तीर्थ कर दिगम्बर यशोदेव द्वारा रचित है। इससे प्रकट होता है अंकित हैं। इस प्रकार यह प्रतिमा एक चतुर्विंशति-पट कि महीपाल कच्छपघात के समय में भी ग्वालियर में के रूप में है। दूसरी प्रतिमा में नन्दीश्वर द्वीप सहित जैन सम्प्रदाय की पूर्ण प्रतिष्ठा थी। ऐसा माना जाता तीर्थ कर आदिनाथ अंकित हैं। तीसरी प्रतिमा कायो• है कि 105 फुट लम्बा, 75 फुट चौड़ा और 100 सर्ग मुद्रा में पार्श्वनाथ की है। उनके शीर्ष पर नागफण फुट ऊँचा यह मन्दिर महीपाल नामक राजपूत शासक का छत्र अंकित है तथा सून्दर अद्ध मानवाकृति नागों द्वारा नन्दीश्वर द्वीप अष्टानिका के व्रत के उपलक्ष में द्वारा तीर्थकर का जलाभिषेक करते दिखाया गया है। जिनमान्दर क
है। जिनमन्दिर के रूप में वनवाया गया। यही कारण है नागों के सिर पर लहरिया केश सज्जा है। इस कि उसमें देव-देवांगनाओं की नृत्य तथा अन्य मुद्राओं प्रकार आठवीं-नवीं शताब्दी में ग्वालियर में जैन धर्म में मूर्तियाँ खुदी हैं । इसकी प्रतिष्ठा में पद्मनाम का काफी प्रभाव था और इसी कारण जैन शिल्पांकन क्षुल्लक आदि ने भी भाग लिया था। यह लगभग की दिशा में भी इस काल में बहुत कार्य हुआ।
सन् 1036 में बनकर पूर्ण हुआ। इसके द्वारों, छत
और दीवारों की खुदाई दर्शनीय है। यह सास-बह के कन्नौज के परिहार राजा भोजदेव ने भी कुछ समय मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। वर्तमान में कुछ इतिके लिये इस दुर्ग पर अपना शासन स्थापित किया हासकारों ने इसका प्राचीन नाम सहस्त्रबाहु का मन्दिर जिसका प्रमाण हमें किले के नीचे सागर ताल पर स्थित बताते हुये इसे विष्णु मन्दिर भी कहा है। सन 875 तथा सन 876 के चतुर्भुज मन्दिर के शिलालेखों से प्राप्त होता है। इनके शासन काल में भारत सरकार द्वारा सन् 1869 में ग्वालियर भी श्री वच्चदान नामक जैन साघ द्वारा सं. 1034 दुर्ग में कुछ ऐतिहासिक महत्व के स्थलों के उत्खनन् के (सन् 977) में बैशाख वदी पंचमी के दिन जैन मूर्ति अवसर पर प्राप्त, एक ताम्र चैत्य तथा चार तीर्थ करों
7. जैन कला एवं स्थापत्य, खण्ड 1, भारतीय ज्ञानपीठ, भाग 4, वास्तु स्मारक एवं मूर्तिकला (600 से
1000 ई.) अध्याय 16, मध्यभारत, कृष्णदेव, पृष्ठ 177-78 । 8. मेईस्तर (माइकेल डब्ल्यू); आम, अम्रोल एण्ड जैनिज्म इन ग्वालियर फोर्ट, जर्नल आफ दि ओरियन्टल
इन्स्टीट्यूट, बड़ौदा, 22; 354-58। 9. ग्वालियर का अतीत, पृष्ठ 141
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की ताम्र प्रतिमाएँ प्रस्तुत की गई हैं। ये चैत्य एवं तीर्थंकर प्रतिमाएँ 10-11 वीं सदी के लगभग किसी समय की प्रतीत होती हैं 1120
नन्दीश्वर -
कला की दृष्टि से इनमें ताम्रचैत्य, प्रमुखतः उल्लेखनीय है । यह नीचे वर्गाकारों तथा ऊपर पिरामिड के आकार का बना है। 1 फीट 6.75 इंच ऊँचे इस नन्दीश्वर चैत्य के वर्गाकारी आधार का क्षेत्रफल 6.25 वर्गइंच है। नीचे के भाग में तीन वर्गाकार मंजिलें हैं, तीसरे वर्ग के ऊपर पिरामिड आकार का आमालक युक्त गुम्बद बना है । प्रत्येक वर्ग के चारों कोने पर स्तम्भ बने हैं। इन वर्गाकारी मंजिलों की ऊँचाई नीचे से ऊपर की ओर क्रमशः कम है । इन वर्गों में चौबीस तीर्थ करों के चित्र हैं, सबसे नीचेवाले (तल) वर्ग में प्रत्येक और खड्गासन मुद्रा में तीन-तीन तीर्थकर इस प्रकार कुल बारह तीर्थंकर मुद्राएँ बनी हैं । इसके ऊपरवाले (मध्य) वर्ग पर प्रत्येक ओर पद्मासन (सम्प्रयँक) मुद्रा में दो-दो तीर्थ कर इस प्रकार आठ तीर्थंकर मुद्राएँ बनी हैं। यह वर्ग ऊँचाई में तल वर्ग की अपेक्षा कम ऊँचा है । इसके भी ऊपर सबसे कम ऊँचाई वाले तीसरे वर्ग में प्रत्येक ओर एक-एक इस प्रकार कुल चार तीर्थ कर मुद्राएँ अंकित हैं । इनमें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की मुद्रा सभी से अलग प्रकार की होने के कारण आसानी से पहचानी जा सकती है । इसमें शीर्ष के ऊपर पंचफणी सर्प अंकित है । प्रत्येक तीर्थंकर मुद्रा के वक्ष पर प्रतीक स्वरूप श्रीवत्स अंकित है ।
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यह प्रतिमा जैन कास्मोलॉजी के अनुसार वर्णित द्वीपों में से एक द्वीप नन्दीश्वर द्वीप की प्रतीक स्वरूप है । इस द्वीप में 52 देवों एवं पवित्रात्माओं द्वारा जिन (तीर्थंकर) पूजा की जाने का जैन शास्त्रों में वर्णन प्राप्त होता है । तदनुसार यह द्वीप मन्दिरों, सभागृहों; नाट्यगृहों; सज्जित मंचों, सुन्दर स्तूपों, मूर्तियों एवं प्रतिमाओं, पवित्र चैत्य वृक्ष, इन्द्रध्वज तथा कमलयुक्त झील आदि से युक्त है। इन सभी मन्दिरों में अर्हत एवं जिन से सम्बन्धित पवित्र दिनों पर आठ दिवसीय पर्व मनाए जाते हैं । जैन धर्मावलम्बी इस वर्णन के अनुसार वर्ष में तीन बार आषाढ़, कार्तिक तथा फाल्गुन माहों में अष्टमी से पूर्णिमा तक आठ दिवसीय अष्टानिका पर्व मनाकर इस अवसर पर व्रत एवं पूजा आदि कते हैं ।
चैत्य पर अंकित शब्द क्षतिग्रस्त हो गए हैं। तल मंजिल पर एक ओर "....हीं ना . दा... धी" शब्द पढ़े गये हैं, इनके आधार पर कई पुरातत्व वेत्ताओं ने इसे 4-5वीं शती में निर्मित माना है, तथापि यह चैत्य 9 10वीं शती के लगभग या इससे पूर्व का अवश्य है ।
छठवें तीर्थंकर पद्मप्रभ -
अन्य चार जिन प्रतिमाओं में एक छठवें तीर्थंकर पद्मप्रभ की है जिसकी ऊँचाई आधार सहित साढ़े पाँच इंच, तथा बिना आधार के साढ़े तीन इंच है । पद्मासन (सम्प्रयंक) अवस्था में बैठी इस मुद्रा के पृष्ठ भाग में नालन्दा कांस्य की शैली के चँवर बने हैं। आधार के
"Jaina Images & Places of first class Importence", T. N. Ramachandran. (Presidential adress during the All India Jaina Sasana Conference 194; Held on the occasion of the 2500th Anniversary of the first Preaching of lord Mahavir Swami; Calcutta) Publisher-Hony. Secy. Vira Sasana Sangha, 82 Lower Chitpur Road, Calcutta.
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रूप में बने आसन के.मध्य पदमासन के नीचे सामने जीर्ण-शीर्ण अवस्था में स्थित 35 फुट लम्बे तथा 15 की ओर तीर्थ कर पद्मप्रभ का लांछन कमल व प्रतिमा फुट चौड़े खंडहर कमरे के संबंध में किये गये शोधके शीर्ष पर ऊष्णिस एवं घुघराले बाल दृष्टव्य हैं। कार्य के आधार पर उसे जैनियों के 23वें तीर्थकर
पार्श्वनाथ का मन्दिर माना है, और इसका निर्माणदूसरी प्रमुख प्रतिमा आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ की
कार्य सन् 1108 ई. के लगभग सम्पन्न होना माना है। है । कुल साढ़े दस इंच ऊँची इस प्रतिमा में तीर्थ कर
उसके पूर्ण सर्वेक्षण, आसपास किये गये खुदाई के कार्य मुद्रा मात्र ही साढ़े पांच इंच ऊँचाई की है। सम्प्रयक
और स्तम्भों के आधार पर उसका क्षेत्र पीछे 50 फुट में भद्रासन अवस्था में बैठी मुद्रा की इस जिन प्रतिमा के
और होना बताया है। उसके अनुसार यह मन्दिर पृष्ठ भाग में नालन्दा जैसी उन्नत कला दर्शनीय है।
लगभग 69 फीट लम्बे तथा 15 फीट चौड़े क्षेत्र में प्रतिमा के पृष्ठ भाग में प्रभामण्डल कलात्मक स्वरूप लिये।
फैला था। हुए है । प्रतीक स्वरूप तीर्थकर चन्द्रप्रभ का लांछन अर्द्धचन्द्र तथा वक्ष के मध्य श्रीवत्स का चिन्ह अंकित
इसके निर्माण का समय (सन् 1108 ई.) इस बात है। इनकी शैली के आधार पर सुनिश्चित रूप से इनका की साक्षी देता है कि यह मन्दिर कछवाहों के शासन काल निर्माण काल 10-11वीं शती कहा जा सकता है। में ही निर्मित किया गया। इससे इस बात पर प्रकाश
कच्छपघात बज्रदामन ने भी जैन सम्प्रदाय को पड़ता है कि इनके शासन काल में भी जैन अच्छी प्रश्रय दिया था। वि. सं. 1034 (सन 977 ई.) में अवस्था में थे। विस्तृत ऐतिहासिक विवरण के अभाव वज्रदामन के राज्यकाल में ग्वालियर में जैन मतियों में यह कहना अत्यंत कठिन है कि किस राजा ने दुर्ग पर की स्थापना की गई थी।
इस मन्दिर का निर्माण करवाया अथवा निर्माण हेतु
स्वीकृति प्रदान की। इससे भी यह प्रतीत होता है कि इसके इस प्रकार यह निश्चित है कि 11वीं शताब्दी में भी शताब्दियों पूर्व से जैन इस क्षेत्र में अपना अस्तित्व एक जिन मन्दिर तथा कुछ जैन मूर्तियाँ गोपाचगलढ़ पर रखते थे और शनैः-शनैः वे इतने प्रभावशाली हो गये निश्चय ही स्थित थीं। कच्छपघात मूलदेव (भुवनैकमल्ल) कि वे शासक एवं शासन को भी प्रभावित कर मन्दिर के राज्य में राज्याधिकारियों ने इस मन्दिर में जैन भक्तों निर्माण करा सके । का निर्वाध प्रवेश बन्द कर दिया था । मलधारी गच्छ के
, इस काल के ग्वालियर के निकटवर्ती क्षेत्रों में भी जैन श्री अभयदेव सूरि के आग्रह पर महावीर स्वामी के
मूर्तियों व शिलालेखों का निर्माण हुआ। दूबकुण्ड (श्योपुर) इस मन्दिर के द्वार समस्त जैन जनता के लिये उन्मुक्त
के वि. सं. 1145 (सन् 1088 ई.) के विक्रमसिंह के कर दिये गए थे।
शिलालेख से ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र के कच्छपघात सन 1844 ई. में जनरल कनिंघम ने ग्वालियर भी जैन सरियों को प्रश्रय देते थे। शान्तिषेण सरि और दुर्ग पर स्थित सास-बह के मन्दिरों के निकट अत्यन्त उनके शिष्य विजयकीर्ति द्वारा वह प्रशस्ति लिखी गयी
11. ग्वालियर राज्य अभिलेख, क्र. 20 । 12. संगीतोपनिषत्सार, गायकवाड़ ओरियन्टल सीरिज, प्रस्तावना, पृष्ठ 7 ।
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थी।दवकण्ड के जैन मन्दिर के वि. सं. 1152 (सन किले से निकलकर मुसलमानों से युद्ध किया। युद्ध के 1095 ई.) के शिलालेख से ज्ञात होता है कि वहाँ लिये राजा को जाते देख रानियों ने कहाकाष्ठासंघ के महाचार्यवर्य श्री देवसेन के पादूका चिन्ह की पूजा होती थी। नरवर में भी वि. सं. 1314
____ "पहले हमें जु जौहर पारी, (सन् 1257 ई.) से 1324 (सन् 1267 ई.) के तब तुम जूझो कन्थ सम्हारी' मूर्तिलेखों से युक्त सैकड़ों मूर्तियाँ नरवर में प्राप्त हुई हैं।
यह कहकर 70 रानियां किले में आग में कूदकर जो कुछ भी ज्ञान उपलब्ध है उसके आधार पर यह बलिदान हो गई। आज भी इस जौहर की स्मृति में कहा जा सकता है कि यहाँ जैन धर्मावलंबियों के परिबार जौहरताल का नाम विख्यात है। उरवाई दरबाजे मात्र निवास ही नहीं करते थे वरन यहाँ जैनियों पर इस घटना का उल्लेख करनेवाला शिलालेख के संघ भी संचालित थे जिनमें संघाधिपति तथा अन्वय सन् 1805 ई. तक पाया गया है। इस युद्ध में राजा हुआ करते थे। इतना ही नहीं वे नियमित विद्यापीठ का भी अपने 15 साथियों के साथ काम आए तब कहीं भी संचालन करते थे। 15वीं शताब्दी में बनी मूर्तियों मुसलमान इस किले पर कदम रख पाये। इसके बाद से प्राप्त जानकारी से ये तथ्य पुनः परीक्षित होते हैं। सन् 1318 ई0 तक यह दुर्ग मुसलमानों के अधिकार में
रहा। उन्होंने इसे राजकीय कैदखाने के रूप में प्रयोग सन् 1122 ई. में परिहारों ने इस वंश के अन्तिम
किया। इस प्रकार ग्वालियर का यह प्रदेश 166 वर्षों राजा तेजकरण को निकाल दिया और स्वतः राजा बन
तक लूट-खसोट और अत्याचार से आतंकित रहा। बैठे थे। परिहार वंश के कल 7 राआओं ने इस दर्ग पर राज्य किया। इस बीच में एक बार सन् 1196 ई. पर कभी किसी का शासन स्थायी नहीं रहा । जब में कुतुबुद्दीन ने ग्वालियर पर आक्रमण कर दुर्ग पर तैमूर लंग ने भारत के अन्दर ऊधम मचाया तो मुस्लिम अपना अधिकार स्थापित किया परन्तु उनके हाथों में सत्ता डांवाडोल हो गई और वीरसिंह तंवर, जो कि यह दुर्ग अधिक न रह सका और 16 वर्ष बाद सन् सन् 1375 ई में मुस्लिमों की ओर से किलेदार नियुक्त
12 में परिहारों ने पुनः दुर्ग को वापस ले लिया हआ था, ने अवसर पाकर दुश्मनों को परस्पर लड़ाक और सन 1232 तक अपने अधिकार में रखा । सन् बडी चतुराई के साथ इस किले पर अपना अधिकार कर 1232 में अल्तमश ने तत्कालीन परिहार शासक सारंग लिया। इसने सम्भवतः सन् 1380 ई. में अपना राज्य देव पर भारी फौज सहित आक्रमण किया और 11 स्थापित किया। यह बड़ा पराक्रमी और विवेकी तथा मास तक दुर्ग को घेरे रहा । अन्त में सारंगदेव ने स्वयं राजनीति में दक्ष शासक था।
13. ग्वालियर राज्य के अभिलेख, क. 241 14: वही, क्र. 58। 15. जात. श्रीवीरसिंहः सकलरि पुकुलवातनिर्धातपातो,
वंशे श्रीतोमराणां निजविमलयशोख्यातदिक्चक्रवालः । दानाने विवेक भवति समता येन साकं नपाणां, के शामेषा कवीनां प्रभवति घिषणा वर्णने तद्गुणानां ।।
-यशोधरचरित प्रशस्ति
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इसके पश्चात् इसका पुत्र उद्धरणदेव अपने पिता की गद्दी पर बैठा । 16 शासन प्राप्ति के बाद यह कुल दो वर्ष ही जीवित रहा। इसके काल के संबंध में विशेष विवरण प्राप्त नहीं है । सन् 1402 ई. के लगभग उद्धरणदेव का पुत्र वीरमदेव गद्दी पर बैठा ।" यह बड़ा पराक्रमी था। इसके काल में मल्लू इकबाल खाँ ने इस पर आक्रमण किया परन्तु वह वीरमदेव को हराने में असफल रहा । इसके दरबार में कुशराज नाम का विश्वासपात्र महामात्य था । यह जैसवाल जैन कुल में उत्पन्न हुआ था, इसके पिता का नाम जैनपाल और माँ का नाम लोणा देवी था । यह राजनीति में बड़ा ही दक्ष और पराक्रमी था । 18 यह सदा जैनेन्द्र की सेवा में रत रहता था । यह अपनी भार्या रल्हो और लक्ष्मणश्री तथा पुत्र कल्याणमल्ल और उसकी भार्या जयत म्हिदे
18. वंशेऽभूज्जैसवाले विमलगुणभूलणः साधुरत्नं,
इत्यादि परिवार के कल्याण के लिये उस यंत्र की पूजा करता था । इसकी एक तीसरी भार्या कौशीरा थी ।
इसने भ. विजय कीर्ति के उपदेश से ग्वालियर में चन्द्रप्रभु का एक विशाल मन्दिर बनवाया था और भारी धूमधाम से उसका प्रतिष्ठोत्सव समारोह आयोजित किया । इस अवसर पर जोनार (सामूहिक भोज) भी आयोजित की गई । चन्द्रप्रभु का यह मन्दिर ही बाद में शेख मोहम्मद गौस का निवास स्थान बना जिसे आजम हुमायूँ ने भ्रष्ट कर दिया था । इस घटना का विस्तृत उल्लेख आगे उपलब्ध है ।
16. ईश्वर चूडारत्नं विनिहत करघातवृत्त संहातः । चन्द्र इव दुग्धसिंधोस्तस्मादुद्धरणभूपतिर्जनितः ॥ 17 तत्पुत्रो वीरमेन्द्रः सकलवसुमती पाल चूड़ामणिर्यः ।
प्रख्यातः सर्वलोके सकलबुधकलानन्दकारी विशेषात् । तस्मिन् भूपालरत्ने निखिलनिधिगृहे गोपदुर्गे प्रसिद्धि,
भु' जाने प्राज्यराज्यं विगतरिपुमयं सुप्रजः सेव्यमानः ॥ - यशोधरचरित प्रशस्ति
राजा का विश्वासपात्र महामात्य जैन होने के कारण वीरमदेव के शासन काल में जैन धर्मावलंबियों को विकास का अच्छा अवसर मिला । कुशराज ने
साधुश्री जैनपालो भवदुदितयास्तत्सुतो दानशीलः । जैनेन्द्रः राघनेसु प्रमुदित हृदयः सेवकः सद्गुरूणां, लोणाख्या सत्यशीलाऽजनि विमलमतिर्जनपालस्य भार्या जातः षट्तनयास्तयोः सकृतिनोः श्रीहंसराजोभवत्, तेषामाद्यतमस्ततस्तदनुजः सौराजनामाऽजनि । रैराजोभवराजकः समजनि प्रख्यातकीर्तिमहासाधुश्री कुशराजकस्तदनु च श्री क्षेमराजो लघुः ||6|| जाताः श्रीकुशराज एव सकलक्ष्मापालचूडामणेः, श्रीमत्तोमर-वीरमस्य विदितो विश्वासपात्रं महान् । मंत्री मंत्रविचक्षणः क्षणमयः क्षीणारिपक्षः क्षणात् । क्षेणीमीक्षणरक्षणमति जैनेन्द्र पूजारतः ॥7॥
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- यशोधरचरित प्रशस्ति
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- यशोधरचरित प्रशस्ति
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दरबार के ही एक अन्य कायस्थ विद्वान पदमनाम से साथ समर्पित की थी जिसे पंडित रामचन्द्र ने लिखा भ. गुणकीर्ति के आदेशानुसार "यशोधर चरित्र" (दया था। यह प्रति आमेर के भण्डार में सुरक्षित है । सुन्दर विधान) नामक काव्य की रचना करवाई। इसके शासनकाल की संवत् 1460, 1468, 1469
वीरमदेव के पश्चात् उसका पुत्र गणपतिदेव गद्दी और 1479 की लिखी हई चार ग्रन्थलिपि पर बैठा । उसका राज्यकाल अत्य रहा, जिसका विवरण प्रशस्तियां अभी भी उपलब्ध हैं। सं. 1460 में गोपा- उपलब्ध नहीं है । चल में साह वरदेव के चैत्यालय में भ. हेमकीर्ति के शिष्य मनि धर्मचन्द ने माघ वदी दशमी के दिन
__सन् 1424 में गणपतिदेव के पुत्र डूंगरसिंह तंवर "सम्यकत्व कौमुदी" की प्रति आत्मपठनार्थ लिपिबद्ध
गद्दी पर आसीन हुए। यह बड़े ही वीर और पराक्रमी की। सं. 1468 में आषाढ वदी 2, शक्रवार के दिन
शासक थे। उसने शासन सँभालते ही अपनी सेना संगकाष्ठा संघ, माथुरान्वय के आचार्य श्री भावसेन, सहस्त्र
ठित कर मालवे की राजधानी मांडू पर आक्रमण कर कीति और भ. गुणकीति की आम्नाय में साहू मरूदेव
वहाँ के राजा हुशंगशाह को परास्त किया। संभवत:
इसी विजय में इनके हाथ कोहिनुर नामक विश्वप्रसिद्ध की पुत्री देवसरि ने 'पंचास्तिकाय" टीका की प्रतिलिपि लिपिबद्ध कराई थी। जो इस समय कारंजा के
हीरा लगा। इस प्रकार उसने अपने राज्य की सीमा
और बढ़ाकर अपनी स्थिति और सुदृढ़ कर ली। इसके शास्त्र भण्डार में उपलब्ध है।
काल में राज्य में सभी प्रकार की सुख शांति थी। संवत् 1469 में आचार्य अमृतचन्द कृत प्रवचन इससे निकटवर्ती राज्यों के शासकों की ललचाई दृष्टि सार्थी की "तत्बदीपिका" टीका लिखी गई। सन 1479 सदैव इसके राज्य पर लगी रहती थी और यदा-कदा में आषाढ़ सुदी 5 बुधवार के दिन गढ़ोत्पुर के नेमिनाथ ग्वालियर पर आक्रमण होते रहते थे । राजा डूगरसिंह चेत्यालय में जौतुका स्त्री सरो ने अपने ज्ञानवर्णी कर्णों ने सभी का डटकर मुकाबला किया और सभी में के क्षयार्थ "षटकर्मोपदेश" की एक प्रति लिखकर जैत विजयी रहे । विभिन्न लेखकों ने इसकी वीरता का वर्णन श्री की शिष्या विमलमति को पूजा विधान महोत्सव के करते हुए लिखा है कि "वह अनेक राजाओं द्वारा पूजित
19. सम्वत् 1460 शाके 1325 षष्ठाब्दयोर्मध्ये विरोधी नाम संवत्सरे प्रवर्तत गोपाचल दुर्गस्थाने राजा
वीरमदेव राज्य प्रवर्तमाने साह वरदेव चैत्यालये भ. श्री हेमकीतिदेव तत्शिष्य मुनि धर्मचन्द्रण आत्मपठनार्थ पुस्तकं लिखितं माघ वदि 10 भौमदिने ।
-तेरापंथी मन्दिर जयपुर, शास्त्र भण्डार
20 संवत्सरेस्मिन विक्रमादित्य गताब्द 1468 वर्ष आषाढ़ वदि 2 शुक्र दिने श्री गोपाचले राजा वीरमेदेव
विजय राज्य प्रवर्तमाने श्री काष्ठासंघे माथूरान्वये पुष्कर गण आचार्य श्री भावसनदेवा: तत्पट्टे श्री सहस्त्रकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भट्टारक श्री गुणकीर्तिदेवास्तेषामाम्नाये संघई महाराजवधू साधु मरदेव पूत्री देवसिरी तथा इदं पंवास्तिकायसार ग्रंथ लिखापितम ।
-कारंजा भण्डार, जयपुर
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तया सम्मानित था। और शत्रुओं का मान मर्दन करने चारों ओर जैन प्रतिमाओं के खुदवाने का कार्य प्रारम्भ में दक्ष था 12" युद्ध-स्थल में उसके समान कोई वीर कर दिया। इन अभिलेखों में जैनाचार्य देवसेन, योद्धा नहीं था। नरवर गढ़ में स्थित विजय स्तम्भ यशकीति, जयकीति, आदि भट्टारकों का भी उल्लेख (जैत स्तम्भ) अभी भी इसकी साक्षी दे रहा है। मिलता है। इस कार्य पर करोड़ों रुपये व्यय हुए
तथा कुल 33 वर्ष का समय लगा। डू'गरसिंह अपने परन्त इन सब विजय अभियानों में व्यस्त रहते हुए जीवनकाल में इसे पूरा नहीं करा सका। तब उसक भी उसका ध्यान विद्वानों, धार्मिक समारोहों और
प्रिय पुत्र कीर्तिसिंह ने उसे पूरा कराया। निर्माणों की ओर भी गया। इसने जैन धर्म के सिद्धांतों को अपने जीवन में अपनाया । जैन धर्म से उसका अनुराग डूंगरसिंह के राज्य में अन्य निर्माण और मूति प्रतिष्ठा मात्र ही नहीं था किन्तु उस पर उसकी परम आस्था थी। वे जैन धर्म के प्रबल पोषक थे। वह जैन विद्वानों
मूर्ति निर्माण के अतिरिक्त राजा डूंगरसिंह के समय एवं संतों को बड़े ही आदर की दष्टि से देखता था। में ग्वालियर के जैन धर्मानुयायी श्रावकों ने ग्रन्थ निर्माण
__और मूर्ति प्रतिष्ठा का भी कार्य सम्पन्न कराया। सन् इसके राज्यकाल में ही ग्वालियर गढ़ की चट्टानों 1429 में म. गुणकीर्ति के शिष्य भ. यशकीर्ति ने आत्म में जैन प्रतिमाओं के उत्खनन के कार्य का प्रारम्भ हुआ। पठनार्थ, "सुकुमाल चरित".3 और कवि श्रीधर की सन् 1440 ई. के तीन शिलालेख इस बात के सूचक हैं "संस्कृत भविष्य दत पंचमी" कथा की प्रतियाँ लिखकि इनके आश्रय में अनेक जैन धर्मावलम्बियों ने दुर्ग के वाई थीं। इसके अतिरिक्त उन्होंने हरिवंश पुराण,
21. श्री तोमरानुर्काशखामणित्वं, यः प्रापभूपालशताचितांघ्रिः।। श्री राजमानो हतशत्रुमानः ।, श्री डूंगरेदोऽत्र, नराधिपोस्ति ।।
समयसार लिपि प्र० सेनगण भण्डार, कारंजा ................ भुपबल पराणु, समरंगणि अण्णु ण तहु समाणु । णिरुवम अविरल गुण मणि णिकेउ, .............. । साहणसमुदु जयसिरिणिवासु, जस ऊयरि पउरियदहदिसासु । जस करवाल णिहाएं अरि-कवाल, तोडि वि धल्लिउ णं कमलणालु । दुपिच्छ मिच्छ रणरंगु मल्लु, अरियणकामिणिमण दिण्ण सल्लु ।
.. सम्मतत्तगुणनिधान प्रशस्ति 23. -सवत् 1468 वर्ष अश्वणि वदि 13 सोमदिने गोपाचलदुर्गे राजा डूंगरसिंहथेव देवविजयराज्य
प्रवर्तमाने श्री काष्ठासंघे माथुरान्चये आचार्य श्री भावसेन देवास्तत्पट्टे श्री सहस्त्रकीति देवास्तत्पट्टे श्री गुणकीर्ति देवास्तशिष्येन श्री यशः कीतिदेवन निजज्ञानावरणी कर्म क्षयार्थ इदं सुकमाल चरित
लिखापितं । कीयस्थ याजनापुत्र थलू लेखनीयं । ...... जयपुर भण्डार । 24. संवत् 1486 वर्ष आषाढ़ वदि 9 गुरुदिने गोपाचलदुर्गे राजा डूंगरसिंह राज्य प्रवर्तमाने श्री काष्ठासंघ
माथुरान्वये पुष्करगणे आचार्य श्री सहस्त्रकीर्ति देवास्तत्पट्टे आचार्य गुणकीर्ति देवास्तच्छिष्य यश:कीति देवास्तेन निजज्ञानावरणी कर्म क्षयार्थ इदं भविष्यदत्त पंचमी कथा लिखापितं ..... नया मंदिर धर्मपुरा दिल्ली
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रात्रि भोजन कथा, रविवार व्रत कथा, चन्द्रनाथ चरित्र चरिउ प्रशस्ति में मेघश्वर चरित, त्रिषष्ठि महापुराण, आदि 23 ग्रन्थ भी लिखे थे। ये सं. 1486 तक रहे। सिद्धचक्रविधि, बलहद चरिउ, सुदर्शन चरित और धन्य
कुमार चरित नामक ग्रन्थों का भी उल्लेख है। संभवतः __ सम्वत् 1492 से पूर्व अग्रवाल वंशज साहू खेमसिंह
ये सभी ग्रन्थ कवि रईघु ने सं. 1492 और 1496 के के पुत्र साह कमलसिंह ने 11 हाथ ऊँची आदिनाथ की
काल में लिखे हैं। इनमें एक और ग्रन्थ “आत्म संबोध एक विशाल मूर्ति का निर्माण कराया। इसके प्रतिष्ठोत्सव
काव्य" की 29 पत्रात्मक जीर्ण प्रति भी उपलब्ध हई में राजा डूंगरसिंहजी ने शासन से पूरा सहयोग प्रदान
है। जो संवत् 1448 की लिखी हई है। रईधू के काल किया और ताम्बूल आदि से उसका सम्मान किया।25
में ग्वालियर में जैन धर्म एवं संस्कृति अत्यधिक सम्पन्न संवत् 1492 में साहू कमलसिंह ने कवि रईघू से अवस्था में थी। डूंगरेन्द्रसिंह और कीर्तिसिंह के काल में "सम्मत गूण निधान" नामक ग्रन्थ की रचना करवाई गढ़ के नीचे नगर में बहुत से जैन मन्दिर बने थे। जो भाद्रपाद मास के पूर्णिमा के दिन समाप्त हुई । इस रईधू ने लिखा है कि-"नगर जैन मन्दिरों से विभूषित ग्रन्थ की रचना करने में कवि को 3 मास का समय था और श्रावक दान-पूजा में निरत रहते थे ।"....... लगा। इसके बाद कवि रईधु ने "नेमिनाथ चरित्र". ... "नैमिनाथ, चन्द्रप्रभु और वर्तमान के जैन "पार्श्वनाथ चरित्र" तथा "बलभद्र चरित्र" (रामायण) मन्दिर थे और उनके पास बिहार भी बने थे।" स्वयं नामक ग्रन्थों की रचना की। सं. 1496 में रचे गये रईघु ऐसे ही बिहार में रहता था। अलवर और "सुकौशल चरित्र" नामक ग्रन्थों में इन ग्रन्थों की चौरासी मथुरा के जैन मन्दिरों में ग्वालियर के तौमरों रचना का उल्लेख किया गया है । ये जाति के के उल्लेख युक्त प्रतिमाएँ इन्हीं जैन मन्दिरों की हैं। पदमावती पुरवाल थे। इनके पिता का नाम हरिसिंह इससे प्रतीत होता है कि कविवर रईघू दीर्घजीवी रहे सिंगी था।
होंगे। उपलब्ध ग्रन्थों से उनका रचनाकाल सं. 1448 से बलहद्द चरिउ में केवल हरिवंश पुराण (नेमि जन '
जन सं. 15 25 तक का उपलब्ध होता है। चरिउ) के रचे जाने का भी उल्लेख मिलता है। हरिवंश सं. 1497 में "परमात्म प्रकाश" ग्रन्थ की सटीक पुराण में त्रिषष्ठिशलाका चरित (महापुराण), मेघे- प्रति की रचना की गई। इसी वर्ष पांडु पुराण भी श्वर चरित्र, यशोधर चरित्र, वत्तसार और जीवंधर अपम्रश भाषा में लिखा गया। सं. 1506 में धनपाल नामक 6 अन्य ग्रन्थों का भी उल्लेख किया गया है। की "भविष्यदत्त पंचमी कथा" तथा सं. 1510 में ये सभी सं. 1496 से पूर्व के रचे गये हैं। सम्मईजिन “समय सार" नामक ग्रन्थों की प्रतिलिपि की गई।
25. -जो देवाहिदेव तित्थंकरु, आइणाहु तित्थोय सुहंकरु ।
तह पडिमा दुग्ग-णिण्णासणि, जामिच्छत-गिरिद-सरासणि,
जामहिरो-सोय दुह-णासणि 26. संवत 1448 वर्षे फाल्गुण वदि 1 गुरौ दिने म्वावग लष्मण कम्मक्षय विनाशार्थ लिखितं । "- यह
आमेर भण्डार जयपुर में अभी भी सुरक्षित है । 27. यह अभी भी जयपुर के ठोलियों के मन्दिर के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है। 28. यह अभी भी कारंजा के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है ।
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उनके अतिरिक्त ज्ञानार्णव, चन्द्रप्रभू चरित्र तथा परिमाल यह जैन धर्म में अत्याधिक आस्था रखता था । कवि आगरा द्वारा श्रीपाल चरित्र आदि लिखे गये। सं. इसने अपने पिता द्वारा अधरे छोड़े गये मूर्तियों के 1497 और सं. 1510 में प्रतिष्ठापित मूर्तियों के लेख उत्खनन के कार्य को पूरा कराया। इसका काल सं. उपलब्ध हैं ।
1522 से 1531 तक मिलता है। इस काल में अनेकों
नई मूर्तियां भी प्रतिष्ठित हुई, जिनमें अकित लेखों में शाह टोडरमल जी, दोल जी काशलीवाल भी उनके
कीर्तिसिंह का उल्लेख मिलता है। उदाहरणार्थ-बाबा काल में ही मारवाड़ से ग्वालियर आये थे। उस समय
की बाबड़ी के दाहिनी ओर बनी पार्श्वनाथ की मूर्ति तोमर व कछवाय जैन मत पालते थे। उन्होंने पहाड़ी
पर लिखे अभिलेख में महाराजा कीर्तिसिंह का विवरण पर गुफा व जैन मन्दिर के निर्माण भी कराये।
दिया है। इस खड़गासन मुर्ति के निकट ही नौ अन्य वे जैनधर्म से बड़ा प्रभावित थे । तत्कालीन मूर्तियाँ भी खुदी हैं जिनमें कुछ पदमासन भी हैं। इनके भ. गुणकीति के प्रति इसके हदय में असीम श्रद्धा थी। मुख खंडित कर दिये गये हैं। उनके उपदेशामत से इसने जैन धर्म स्वीकार किया।
___इन मूर्तियों का निर्माण मूर्तिकला के क्षेत्र में इस इस काल में गुणकीर्ति उनके शिष्यों तथा प्रशिष्यों का
प्रदेश के कारीगरों का अभिनव प्रयास था जिसके भी जैन धर्म एवं जैन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में
अन्तर्गत वि. सं. 1530 तक के 33 वर्ष के थोड़े समय सर्वाधिक योगदान रहा । इसके काल में अनेकों मूर्तियों
में ही दुर्ग की ये बेडोल और मूक चट्ट ने विशालता, का निर्माण हआ तथा प्रतिष्ठायें करवाई गई। इसके
वीतरागिता, शान्ति, एवं तपस्या की भाव व्यंजना से काल में प्रजा सुखी तथा समृद्ध थी। इसने कुल 30 वर्ष
मुखरित हो उठीं। गढ़ के चारों ओर खदी हुई इन तक ग्वालियर पर शासन किया।
विशाल मूर्तियों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि इन इसके पश्चात कीतिसिंह या कीर्तिपाल गट्टी पर बैठा। मूतियों के निर्माणकर्ता अपनी श्रद्धा और भक्ति के
अनुकल विशाल प्रतिमाओं का निर्माण करना अथवा यह डूंगरसिंह का पुत्र था। यह अपने पिता के समान
कराना चाहते होंगे । अतः इससे प्रेरित होकर उत्कीही गुणज्ञ, बलवान और राजनीति में चतुर था । यह
र्णकों ने निर्मापक की निर्मल भावनाओं को साकार रूप पराक्रमी होने के साथ-साथ दयालु, सहृदय और प्रजा वत्सल भी था। इसने लगभग सन 1424 में शासन
प्रदान करने के उद्देश्य से उस विशालता में सौन्दर्य का भार ग्रहण किया।
और समावेश कर कला की अपूर्व कृतियों का निर्माण
किया। प्रतिमाओं के ये समह दुर्ग के विभिन्न अंचलों इसने अपने राज्य को और भी बढ़ाया। इसके में बने हैं जो गुहा मन्दिरों के नाम से जाने जाते हैं । समय के दो लेख 1468 और 1473 ई. के मिले हैं। ये असंख्य छोटे-बड़े मन्दिर संख्या और आकार की दष्टि इसकी मृत्यु सन् 1479 में हुई थी अत: इसका से उत्तर भारत में अद्वितीय हैं । मूर्तिकला और मन्दिर राज्यकाल 1479 तक माना जाता है।
स्थापत्य दोनों में अद्भुत सामंजस्य स्थापित है। सबसे
29. देखो जनरल एशियाटिक सोसाइटी, भाग 31,प. 423 गोपाचल दुर्गे तोमरवंशे राजा श्री गणपति देवास्त
पुत्रों महाराजाधिराज श्री डूंगरसिंह राज्ये (प्रतिष्ठितं) चौरासी मथुरा की मूलनायक मूर्ति का लेख ।
कवि रईधू-श्रीपाल चरित्र 31. समयसार लिपि, प्र० शास्त्र भन्डार, कारंजा।
30.
३४%
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प्रमुख विशेषता यह है कि इनका निर्माण राजाओं ने वास्तव में यह 57 फुट ऊँची है । इसकी चरण चौकी नहीं वरन् तत्कालीन जैन व्यापारियों व अन्य पर सं. 1497 लिखा है। वर्तमान में इसके नीचे का श्रावकों ने करवाया। अनेक जैन महिलाओं ने भी इसके कुछ भाग मिट्टी में दब गया है। यह चरणों के पास निर्माण के लिये दान दिये थे। इस कार्य में हजारों 9 फूट चौड़ी है। यहीं 22 नम्बर की नेमिनाथ के शिल्पकारों ने भाग लिया, जिनके कुशल हाथों ने पदमासन मूर्ति है। जो 30 फुट ऊँची है। नेमिनाथ की लगभग डेढ़ मील लम्बे गोपाचल दुर्ग को उत्कीर्ण करने इतनी विशाल मूर्ति शायद ही अन्यत्र कहीं हो । योग्य कोई कोना शेष नहीं छोडा। इन सारी प्रतिमाओं को 5 समूहों में विभाजित किया जा सकता है।
(2) दक्षिण पश्चिम सम हः -- यह खंभा ताल के
नीचे उरबाई द्वार की बाहर की शिला पर है। इसमें (1) उरबाही सम हः-उरबाई द्वार पर कुल 22 5 मूतियाँ हैं। 1 नम्बर के प्रतिमा समूह में एक स्त्री, जैन मूर्तियाँ हैं। इनमें से 6 मुर्तियों पर सं. 1497 पुरुष तथा बालक की मूर्तियाँ हैं । 2 नम्बर में एक 8 (सन् 1440 ई.) से सं. 1510 (सन् 1453 ई.) फूट लम्बी लेटी हई स्त्री की प्रतिमा है जो 8 फुट लम्बी के अभिलेख खदे हैं । इनमें 20 नम्बर की आदिनाथ की है। इस पर ओष किया हआ है। प्रारम्भ में कुछ लोग मति सबसे विशाल है। बाबर ने अपने "बाबरनामा' इसे बुद्ध भगवान की मूर्ति बताते थे। परन्तु विशेष में इसकी ऊँचाई 20 गज अनुमान की थी। परन्तु शोध करने के पश्चात इतिहासकार इसी निष्कर्ष पर
(ग्वालियर दुर्ग पर उत्थित पदमासस मुद्रा में विशाल जैन प्रतिमा)
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एक पत्थर की बावड़ी पर स्थित गुहा मन्दिर में उत्खनित विशाल जैन प्रतिमाओं के समूह का एक दृष्टि ) इस समूह में लगभग 20 प्रतिमायें 20 से 30 फुट तक की ऊँचाई की और लगभग इतनी ही 8 से 15 फुट तक की ऊँचाई लिये हुये हैं । इसमें आदिनाथ, नेमिनाथ, पद्मप्रभु, चन्द्रप्रभु, संभवनाथ, कुन्तनाथ, और महावीर आदि की मूर्तियाँ हैं । इनमें कुछ एक मूर्तियों पर 1525 से 1530 तक के अभिलेख खुदे हुये हैं ।
पहुँचे कि ये जैन मूर्तियां हैं। संभवतया यह त्रिशला माता तथा महावीर की मूर्ति है। कला की दृष्टि से इन मूर्तियों का विशेष महत्व नहीं है ।
( 3 ) उत्तर पश्चिम समूह :इसमें आदिनाथ की एक महत्त्वपूर्ण मूर्ति बनी है जिस पर सं. 1527 का अभिलेख अकित है। यह विशेष कलात्मक नहीं है ।
(4) उत्तर पूर्व समूह :- इसमें भी छोटी-छोटी मूर्तियाँ हैं और उन पर भी कोई लेख न होने से एतिहासिक दृष्टि से अधिक महत्व नहीं रखती हैं । कला की दृष्टि से भी उनका कोई विशेष महत्व नहीं है ।
(5) दक्षिण पूर्व समूह :- इस समूह की मूर्तियाँ कला की दृष्टि से अत्याधिक महत्त्वपूर्ण हैं । ये मूर्तियाँ फूलबाग के दरवाजे से निकलते ही लगभग आधे मील के क्षेत्र में खुदी हुई दिखाई देती हैं । अन्य मूर्तियों की अपेक्षा कुछ बाद में बनने के कारण ये अभ्यस्त हाथों द्वारा निर्मित होने के कारण इनमें अंगों के अनुपात और सौष्ठव में कहीं न्यूनता नहीं दिखाई देती । इनमें कला का रूप निखर उठा 1
इन समूहों में तीर्थ करों के अतिरिक्त अंबिका, यक्ष, यक्षिणी तथा विभिन्न प्रतीक भी उत्कीर्ण किये गए हैं। इनके अतिरिक्त तेली की लाट के पास तथा गूजरी महल संग्रहालय में रखी प्रतिमायें भी अधिकतर इनकी सम कालीन प्रतीत होती हैं। इससे प्रतीत होता है उपरोक्त समूहों के अतिरिक्त अन्य प्रतिमाओं का भी निर्माण हुआ था ।
ग्रन्थ निर्माण मूर्ति प्रतिष्ठायें :
इनके शासनकाल में ही कुशा साह जी जैसवाल वंशज ने गोपाचल पहाड़ी के बाहरी तरफ कुछ गुफाओं में मूर्तियाँ खुदवाई तथा मन्दिर बनवाकर प्रतिष्ठायें
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करवाई जिसमें करोड़ों रुपये व्यय हुये । एक अन्य अग्र- सं. 1521 में "ज्ञानार्णव" नामक ग्रन्थ की एक वाल वंशज गोयल गोत्री खल्हा नामक जैन सज्जन ने प्रतिलिपि लिपिबद्ध की गई। भ. गुणभद्र ने भी भी गोपाचल के बाहरी ओर गुफा मन्दिर बनवाकर ग्वालियर निवासी जैन श्रावकों की प्रेरणा से अनेकों आचार्य महीचन्दजी महाराज द्वारा प्रतिष्ठा करवाई। कथाओं की रचना की। इसमें भी करोड़ों रुपये व्यय हये । सं. 1515 में बाबड़ी की ओर गोलालारे वंशज कमूद चन्द्र ने पार्श्वनाथ की
___ कीतिसिंह की मृत्यु के पश्चात् उनके पुत्र कल्याण
मल (मल्लसिह) ने शासन की बागडोर संभाली। मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई जिसमें सिंहकीति नामक
इन्होंने सं. 1481 ई. से 1486 ई. तक ही शासन भट्टारक ने भी भाग लिया।
किया। इनके समय में कोई उल्लेखनीय घटना नहीं सं. 1521 में ग्वालियर के जैसवाल कूल भूषण
हुई। संभवत अपने शासनकाल के 7 वर्षों में इन्होंने
कीर्तिसिंह के उन कार्यों को, जो अधूरे थे, पूर्ण किया। उल्हा साहू के नेष्ठ पुत्र साहू पदमसिंह ने अपनी चंचल लक्ष्मी का उपयोग करने के लिये 24 जिनालयों का
इनका काल बहत शान्तिपूर्वक बीता। इनके काल का
सं. 1552 का केवल एक ही मूर्तिलेख उपलब्ध है।" निर्माण करवाया तथा एक लाख ग्रन्थ लिखवाकर मेंट किये । इनके राज्यकाल में जैन साहित्य रचना का
_सन् 1486 ई. में कल्याणमल की मृत्यु के पश्चात् भी कार्य हुआ। कविवर रईघू ने इनके राज्य काल
उनका पुत्र मानसिंह गद्दी पर बैठा । यह राजा, बड़ा में "सम्यक्त्व कौमुदी" तथा "श्रावकाचार" की रचना
प्रतापी, संगीत प्रेमी और कला प्रेमी था और जिस की।
किसी प्रकार से अपने पूर्वजों द्वारा संरक्षित एवं संवर्धित
राज्य को स्वतंत्र रखने में समर्थ हो तुका था । उपरोक्त मन्दिरों में से कुछेक समाप्त हो गये हैं इसे अपने शासनकाल में अनेकों बार बहलोल लोदी और कुछ का जीर्णोद्धार होकर नये मन्दिर बन गये हैं और उसकी मत्यू पर उसके पूत्र सिकन्दर लोदी से जो अभी भी ग्वालियर में अपने परिवर्तित रूप में स्थित लोहा लेना पड़ा। इसने संगीत और कला को अपना हैं। साहित्य का अधिकतर भाग नष्ट हो गया है, बहत । सरक्षण प्रदान किया। इसके काल में यहाँ एक संगीत कम ही शेष है। .
विद्यालय भी था। सुप्रसिद्ध गायक तानसेन ने इसी
32. विज्जुल चंचलु लच्छीसहाउ, आलोइबिहुउ जिणधम्ममाउ।
जिण गंथु लिहावउ लक्वु एकु, सावय लक्खा हारीति रिक्खु । मुणि भोजन भुंजाविय सहासु, चउवीस जिणालउ कि उ सुमासु - जैन ग्रन्थ प्रशस्ति, जैन ग्रन्थ प्रशसित
सं०, पृ० 144 बाराबंकी शास्त्र भंडार. । 33. यह ग्रन्थ जैन सिद्धान्त भवन आरा में उपलब्ध है। 34. जैन लेख संग्रह -पूर्णचन्द्र नाहर भाग 2 । 35. ___ एक सोबनकी लंका जिसि, तो वरू राउ सबल वरवीर। भुयबल आयु जु साहस धीर, मानसिंह
जग जानिये । ताके राज सुखी लोग, राज समान करहिं दिनभोग । जैनधर्म बहुविधि चलें, श्रावगदिन जु करें षट् कर्म ।
-नमीश्यवर गीत
३५१
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विद्यालय में संगीत शिक्षा ग्रहण की थी। इसके द्वारा उक्त शिलालेख से प्रकट होता है कि मानसिंह के बनवाया गया महल मान मन्दिर (चित्र महल) हिन्दू काल में भी कुछ जैन प्रतिमाएं उत्कीर्ण की गई थीं। स्थापन्य कला का अदभुत नमूना है । बाबर ने भी इस उक्त प्रतिमा की स्थापना सरस्वती गच्छ के भद्रारकों ने महल की कारीगरी की प्रशंसा की है । इसके अतिरिक्त कराई थी। इसने मृगनयनी गूजरी के लिये गूजरो महल बनवाया । द्य पद गीतों का आविष्कार भी सर्वप्रथम महाराजा
भट्टारक मणिचन्द्र देव के पश्चात् जो मुनि हए मानसिंह द्वारा ही हआ। इन्होंने "मान कुतुहल" के ।
उनका नाम उक्त शिलालेख में नहीं पढ़ा जा सका, तथापि नाम से एक संगीत ग्रन्थ की रचना की। परन्तु इन
उन्हें भट्टारक के स्थान पर मुनि कहने से प्रकट होता है सबके बावजूद इसके शासनकाल में इसके द्वारा किसी
कि मूलसंघ की इस शाखा का मूल पट्ट ग्वालियर के
बादर कहीं स्थापित हो गया था। 37 प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार को प्रश्रय नहीं दिया जाने से, इस समय तक उपलब्ध अपभ्रंश की रचनाओं की
प्राचीन साहित्य के अभाव में यह कहना कठिन है परम्परा समाप्त हो गई जिसके कारण आज अन्य अनेकों
कि महाराजा डूगरसिंह एवं कीर्तिसिंह के राज्यकाल तथ्य अँधेरे के गर्त में डूब गये हैं।
में समादृत जैन साधुओं एवं भट्टारकों के प्रति उनका
व्यवहार कैसा था तथापि इस बात की संभावना कम - महाराजा मानसिंह के काल का सन् 1495 ई. का
ही है कि संगीत, भवन निर्माण, कला को संरक्षण देनेएक शिलालेख अवश्य ग्वालियर गढ़ की एक जैन प्रतिमा की चरण चौकी पर मिला था, जिससे इस प्रदेश की
वाले तथा युद्धों में व्यस्त महाराजा धार्मिक विवेचन के जैन धर्म की तत्कालीन स्थिति पर प्रकाश पड़ता है।
लिये समय दे सके होंगे। साहित्यिक प्रमाणों के अभाव ' उसकी प्रथम तीन पंक्तियाँ महत्त्वपूर्ण हैं। ...
में इनके काल के संबंध में कोई शोध-कार्य नहीं हो पाया
है । फिर भी एक-दो उल्लेख मिलते हैं जिनके अनुसार श्रीमद गोपाचलगढ़
महाराजाधिराज सन् 1501 में चैत्र सुदी 10 सोमवार के दिन कामठासंघ श्री मल्लसिंहदेव विजयराज्ये प्रवर्तमाने । संवत 1552 नंदिगच्छ विद्यागण के भट्टारक सोमकीर्त और भ. वर्षे ज्येष्ठ सुदि 9 सोमवासरे श्री मूलसंघे वलत्करगणे विजयकीति के शिष्य व्रह्यकाला द्वारा गोपाचल दुर्ग में
सरस्वतीगच्छे । कुदकुदाचार्यान्विये । भ. श्री पद्म- आत्म पठनार्थ अमर कीति के "षट्कर्मोपदेश' की प्रति नन्दिदेव तत् पट्टालंकार श्री शुभचन्द्र देव । तत्पट्ट लिखवाए जाने का उल्लेख मिलता है । इसके अतिभ. मणिचन्द्र देव । तत्पट्टे पं. मुनि ...' गणि कचर रिक्त सन् 1512 में गोपाचल में श्रावक सिरीमल के देव तदन्वये बारह श्रेणी वंशे सालम भार्या व ..... पूत्र चतरू ने 44 पद्यों के "नेमीश्वर गीत""की रचना
36. ग्वालियर राज्य के अभिलेख, क० 341, पूर्णचन्द्र नाहर, जैन अभिलेख-भाग 2, क्र० 1429 । 37. ग्वालियर के तोमर-हरिहर निवास द्विवेदी, प्र० 1। .8. अथ नपति विक्रमादित्य संवत् 1558 वर्ष चैत्र सुदी 10 सोमवासरे अश्लेखा नक्षत्रे गोपाचलगढ़ दुग
महाराजाधिराज श्री मानसिंह राज्ये प्रवर्तमाने श्री काष्ठासंघे नंदिगच्छे विद्यागणे भ० श्री सोमकीर्ति देवास्तत्पटे भ. श्री विजयसेन देवास्तत शिष्य ब्रह्मकाला इद षट्कर्मोपदेशशास्त्र लिखाप्ये आत्मपटना।
-प्रशस्ति सं० आमेर पृ० 173
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की। इसमें जैनियों के 23 वें तीर्थ कर नेमिनाथ का इन पंक्तियों के लेखक ने सन् 1669 में प्रकाशित जीवन-परिचय अंकित है।30
ग्वालियर जैन डायरेक्टरी में अपने एक लेख "अतीत की
ओर एक दृष्टि' में इतिहासकारों का ध्यान इस ओर उधर सिकंदर लोदी की मृत्यु के पश्चात् इब्राहीम
आकर्षित किया था, और बड़ी प्रसन्नता का विषय है लोदी ने शासन सँभालते ही अपने पूर्वजों की महत्त्वा
कि सन् 1976 में प्रकाशित श्री हरिहर निवास जी कांक्षा को साकार करने के उद्देश्य से ग्वालियर दुर्ग पर
द्विवेदी की पुस्तक "ग्वालियर के तौमर" में इस सम्बन्ध पुनः आक्रमण कर दिया। इसी बीच सन् 1519 ई. में।
में उपलब्ध ऐतिहासिक प्रमाण एवं तथ्य उजागर हुए महाराजा मानसिंह की मृत्यु हो गई और तलवारों की
- हैं। इस सम्बन्ध में खड्गराय की पुस्तक “गोपाचल
है। छाया में उनके पुत्र विक्रमादित्य गद्दी पर बैठे। उनके
आख्यान" में वणित सूत्र पर्याप्त प्रकाश डालता है :नेतृत्व में राजपूत जी तोड़कर लड़े पर अपने से अनुपात में कई गुनी लोदियों की सेना पर विजय न पा सके और जो विधिना विधि आपन कर, सोई होई न टारी टरै । लोदियों के सेनापति हमायूसे सन्धि करना पड़ी। वे देखो विधना को संजोग, जनमें कहूँ कहूँ रहैं लोग । अब शमसाबाद के एक जागीरदार मात्र रह गए और पूरव गाजीपुर को ठाऊ, कुमरगढ़ा ताको रहि नाऊ । उन्हें लोदियों की ओर से पानीपत में बाबर के विरुद्ध मोहम्मद गौस जहां ते आई,रहे ग्वालियर में सुख पाइ॥ युद्ध करने भेजा गया। इस बीच तँवर वंश के एक दूसरे तेजस्वी राजकुमार रामसिंह तोमर ने ग्वालियर
विधिना विधि ऐसे छई, सोई भई जु आई। दुर्ग पर आक्रमण कर किले के अफगान अधिकारी चन्द्रप्रभू के थोहरें, रहे गौस सुख पाई ॥" तातार खां को परास्त कर दुर्ग पर अपने झण्डे गाड दिये।
इस बीच तातार खां दुर्ग में ही छिपा रहा और
जैसे ही बाबर दिल्ली का मम्राट बना, तातार खां ने ___ लगभग इसी काल में सन् 1523 ई. के आसपास उसे गुप्त संदेश भेजकर उससे सहायता प्राप्त की और कभी शेख मोहम्मद गौस नामक फक्कड़ साधू गाजीपुर मोहम्मद गौस साहब की कृपा से ख्वाजा रहीम और (मूलनाम कुमारगढ़) से ग्वालियर आ बसे । वे आकर शेख गोरन के नेतृत्व में विशाल सेना से दुर्ग पर आक्रचन्द्रप्रभू के मन्दिर में ठहरे । यह चन्द्रप्रभू का मन्दिर मण कर, उसे अपने आधिपत्य में ले लिया और महाराजा वही विशाल जैन मन्दिर था जिसे वीरमदेव तोमर के रामसिंह तोमर मेवाड़ की ओर भाग गये। इस प्रकार मंत्री कुशराज ने बनवाया था। यह मन्दिर आजम सन् 1559 में दुर्ग पुनः मुगलों के हाथ में चला गया । हुमायू के आक्रमण के समय (सन् 1518-23) क्षति- उधर विक्रमादित्य पानीपत युद्ध में वीरगति पा गये । ग्रस्त कर दिया गया था। शेख गौस ने इसी में अपनी इसी के साथ ही तोमर वंश का सूर्य सदा के लिये अस्त खानकाह बनाई और आज वहीं उसका मजार बना है। हो गया । इसके साथ-साथ ही धार्मिक, साहित्यिक एवं
39. यह ग्रन्थ अभी आमेर भण्डार में सुरक्षित है।
संवत पन्द्रह से छे गमें, गुनहत्तरि ताऊपर भने
भादों वदि पंचमीवार, सोम नषित रेवती सार ।। 40. ग्वालियर के तोमर-हरिहरनिवास द्विवेदी पृ० 63 । 41. पूर्वोक्त, पृ० 203-4।
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कलात्मक गतिविधियां समाप्त हो गई। विक्रमादित्य उरवा बुरा स्थान नहीं है। यह बन्द स्थान है। का परिबार अब हुमायू' के अधीन हो गया। उसकी मूर्तियां ही इस स्थान का सबसे बड़ा देष है । मैंने उनके सदभावना पाने के उद्देश्य से उन्होंने तँवरों द्वारा मांडू नष्ट करने का आदेश दे दिया। . के सुल्तानों पर प्राप्त विजय की निशानी रत्नों का सरताज (कोहिनूर) नामक विश्वप्रसिद्ध हीरा हुमायू
उरवा से निकलकर हम पुनः किले में प्रविष्ट हुए। को भेंट कर दिया।
हमने सुल्तानी पुल की खिड़की से सैर की। यह
काफिरों के समय से अभी तक बन्द रही होगी। हम लोग मुगलों का पूर्ण अधिकार हो जाने के बाद जब सायंकाल की नमाज के समय रहीमदाद के वगीचे बादशाह बाबर स्वयं ग्वालियर आया तब इस दुर्ग का में पहुंचे। वहीं ठहर कर हम सो गए। हम लोगों ने अवलोकन करते समय सन् 1527 में उसकी दृष्टि इस बगीचे से प्रस्थान करके ग्वालियर के मन्दिरों की दुर्ग पर स्थित जैन मूर्तियों पर भी पड़ी।
सैर की। कुछ मन्दिरों में दो-दो और कुछ में तीन-तीन
मंजिलें थीं। प्रत्येक मंजिल प्राचीन प्रथानुसार नीचीबाबर ने "बाबरनामा" में अपनी ग्वालियर यात्रा
नीची थीं। उनके पत्थर के स्तम्भ के नीचे की चौकी पर (28 सितम्बर 1528 ई.) का वर्णन करते हुए
पत्थर की मूर्तियां रखी थीं । कुछ मन्दिर मदरसों के लिखा है:-42
समान थे। उनमें दालान तथा ऊचे गुम्बज एवं मदरसों इस बाहरी दीवार के नीचे तथा बाहर एक बहत बडी के कमरों के समान कमरे थे। प्रत्येक कमरे के ऊपर झील है। यह (कभी-कभी) इतनी सूख जाती है कि पत्थ
पत्थर के तराशे हए सकरे गूम्बज थे। नीचे की कोठरियों झील नही रह पाती। इसमें से आव दुन्द जल संग्रह) में चट्टान से तराशी हुई मूर्तियां थीं, ज्ञात होता है कि में जल जाता है। उरवा के भीतर दो अन्य झीलें हैं। ये आजन हुमायू' के घेरे के समय अपूज्य और भष्ट कर किले के निवासी इनके जल को सबसे अधिक उत्तम दिये गए थे; और फिर बावर के वंशजों के अधिकारियों समझते हैं।
ने इन्हें तुड़वा दिया।
उरवा के तीन ओर ठोस चट्टानें हैं। इनका रंग एक जनश्रुति के अनुसार कहा जाता है कि एक वयाना की ठोस चट्टानों के समान नहीं है, अपितु रात्रि को वह और उसके सैनिक इतने विशाल आकार फीका-फीका है। इन दिशाओं में लोगों ने पत्थर की दिगम्बर जैन मतियों को देखकर चकित एवं भयकी मूर्तियां कटवा रखी हैं। वे छोटी-बड़ी सभी प्रकार भीत हो गये । उसके क्रोध की सीमा न रही। वह जैन की हैं। एक बहुत बड़ी मूर्ति, जो कि दक्षिण की ओर धर्म से इतना क्र द्ध हुआ कि अगले दिवस ही उसने है, सम्भवतः 20 कारी ऊंची होगी। यह मूर्तियां पूर्णतः अपनी सेना को दुर्ग पर स्थित सभी मूर्तियों को समल नग्न हैं और गुप्त अंग भी ढके हुए नहीं हैं। उरवा की रूप से नष्ट कर देने का आदेश प्रदान किया परन्तु यह इन दोनों बड़ी झीलों के चारों ओर 20-30 कूए भी कोई आसान कार्य नहीं था अतः मुगल सैनिक प्रतिखुदे हैं । इनके जल से तरकारियां, फूल तथा वृक्ष माओं को समूल रूप से नष्ट न कर सके, उन्हें खण्डित लगाए जाते हैं।
कर गये। और इस प्रकार कुशल कारीगरों की 33
42. ग्वालियर के तोमर-श्री हरिहर निवास द्विवेदी, पृ० 358
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वर्षों के कठिन परिश्रम से बनी मतियों के सौन्दर्य को चन्द्रप्रभू के मन्दिर में जहाँ शेख की खानकाह थी उन्हें कुछ ही दिवसों में नष्ट कर दिया गया । क्र र बाबर ने दफना दिया गया; और वहीं उतका मकबरा वना इस कृत्य का अपनी आत्मकथा (बाबरनामा) में बड़े दिया गया । गौरव के साथ उल्लेख किया है। इस प्रकार यदि सच पछा जाये तो इस सारी घटना में जैन ही उसके सर्वा
उसके बाद लगभग 200 वर्षों तक ग्वालियर पर धिक कोपभाजन रहे। इस थोड़े काल में उसने दुर्ग पर
मुगलों का ही अधिकार रहा। इस कार्यकाल में दुर्ग का स्थित इन मूर्तियों को ध्वस्त करने के अतिरिक्त नगरों
प्रयोग केवल बंदी गृह के रूप में ही किया गया मुगल
शासकों द्वारा अनेकों ऐसे शहजादे, जागीरदार, बड़े में स्थित मन्दिरों को भी ध्वस्त किया, जहाँ उनको यह संभव न दिखा वहाँ मतियों और वेदियों को ही नष्ट
सरदार तथा अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति जिन्हें जनता के समक्ष कर अपनी सन्तुष्टि कर ली।
मृत्यु दण्ड देना अहितकर प्रतीत होता था, इस दुर्ग में
लाये जाने लगे। यहां उन्हें या तो मन्द जहर दे दिया परन्तु बाबर भी अधिक काल तक इस दुर्ग को
जाता था या ऐसी यातनायें दी जाती थीं जिनसे वह उपभोग न कर सका और सन् 1540 में यह दुर्ग
पागल होकर स्वयं प्राणान्त कर लेते थे। इस तरह मुगलों के हाथ से निकलकर शेरशाह सूरी के हाथों में
विभिन्न क्षेत्रों से लाये गये राज विद्रोही हाथी पोल से आ गया। उन्होंने इसे राजधानी के रूप में प्रयोग
चढ़ाकर किले में लाये जाते थे और फिर वे संसार के किया। और यहां से बे शेष राज्य पर शासन करते ।
दर्शन करने के लिये कभी नहीं लौटते थे। रहे। सन् 1559 ई. में अकबर ने सरी वंश को
अकबर की मृत्यु के बाद जब जहांगीर दिल्ली के नष्टकर ग्वालियर को अपने अधिकार में ले लिया।
तख्त पर बैठा तब यह दुर्ग उसके अधिकार में आ गया।
उसने लिखा है कि तख्त पर बैठने के अवसर पर उसने इस बीच शेख मोहम्मद गौम ग्वालियर में महत्त्व
मुगल साम्राज्य के समस्त कैदियों को बन्दीगृह से मुक्त पूर्ण व्यक्ति बने रहे । ग्वालियर दुर्ग पर मुगल राजाओं
करने की आज्ञा दी। उस समय ग्वालियर दुर्ग से 7 हजार का अधिकार कराने और हर संकट के समय उन्हें मार्ग
कैदी छोड़े गये। उनमें कई लोगों की आय 40 वर्ष के दर्शन व सहायता प्रदान कर अनके राज्य को स्थायी
लगभग थी। परन्तु बाद में बादशाह जहांगीर ने भी बनाने में शेख गौस ने प्रमुख भूमिका का निर्वाह किया।
इस दुर्ग को बन्दीगृह के रूप में ही प्रयोग किया। इस कारण विभिन्न मुगल शासकों बाबर, हुमायू और अकबर की नजर में वे सदैव सम्मानीय व्यक्ति बने रहे। जहांगीर के ही शासनकाल में एक बार भट्रारक ब्रजग्वालियर दुर्ग पर नियुक्त मुगल अधिकारी भी उनसे भूषण के शिष्य पदमावती पुरवाल वंशज, टापू निवासी अत्याधिक प्रभावित रहे । हिजरी सन् 970 (सोमवार श्री ब्रह्मगुलाल जी मुनि होने के बाद भ्रमण करते हये 10 मई 1563 ई.) को आगरा में शेख मोहम्मद गौस।
थे। सन् 1618 ई. में इन्होंने यहां पर "त्रेपन क्रिया"
43. ग्वालियर के तोमर, हरिहर निवास द्विवेदी पृ. 209 । 44. अगरचन्द नाहटा--- मध्य प्रदेश के कवि 'ब्रह्मगुलाल"
मध्यभारत सदेश, 31 दिसम्बर 1955
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नामक ग्रन्थ की रचना की। इसमें श्रावकों की त्रेपन कदा अवसर प्राप्त होने पर जैन धर्मावलम्बी अपनी धार्मिक क्रियाओं का सरल व सुन्दर भाषा में वर्णन किया गया गतिविधियों को संचालित करते रहे। दौलतगंज में बना है। इसके अन्त में वे लिखते हैं कि
हुआ पार्श्वनाथ मन्दिर लगभग इसी काल में निर्मित हुआ।
इसके अतिरिक्त अन्य किसी मन्दिर आदि के निर्माण के ए त्रेपन विधि करहु क्रिया भव पाप समूहन चूरे हो।
संबंध में कोई विवरण प्राप्त नहीं है। सोरह से सठि समच्छर कातिक तीज अन्धियारी हो। भट्टारक जगभूषण चेला ब्रह्मगुलाल विचारी हो ।।
इधर 18वीं शताब्दि के उत्तराद्ध के प्रारंभ से ही ब्रह्मगुलाल विचारि बनाई गढ़ गोपाचल थाने ।
मरठे लोग अत्याधिक शक्तिशाली हो उठे और दिल्ली छत्रपति चहु चक विराजे साहे सलेम मुग लाने ।। 1 ।।
तक हमले करने लगे। बाजीराव पेशवा ने राणोजी
सिन्धिया को मालवा राज्य की कमान सौंप दी। उन्होंने जहांगीर के बाद औरंगजेव उसका उत्तराधिकारी
उत्तर भारत में राज्य विस्तार करने का अभियान प्रारंम बना। उसने भी इस दुर्ग को बन्दीगृह के रूप में प्रयोग
कर दिया। और ग्वालियर को इसका केन्द्र बनाया। किया। अपने भाई मुराद को उसने इसी दुर्ग में बन्दी
राणोजी की मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र जयप्पा और बनाया था। दारा के पुत्र सुलेमान शिकोः को भी इसी
माधोजी ने उनका कार्यभार संभाला। इसी बीच स्न दुर्ग में कैद रखा गया । अपने पुत्र सुलतान मुहम्मद को
1761 में पानीपत में युद्ध विभीषिका प्रज्वलित हो उठी भी औरंगजेब ने यहीं कैद रखा । मुराद को फांसी भी
और भारत भर में विभिन्न पक्षों के वीरों की तलवारें इसी दुर्ग में दी गई । इन सब कारणों से ग्वालियर का
खिंच गई । माधव जी इसमें घायल हो गये । इस बीच किला मृत्यु का द्वार कहा जाने लगा।
भरतपूर के जाटों ने लोकेन्द्र सिंह के चाचा के नेतत्व में इस प्रकार दो शताद्वियों के इस काल में ग्वालियर 3
दुर्ग पर अधिकार कर लिया। उधर उत्तर भारत का दुर्ग बन्दी पर के रूप में ही प्रयुक्त होता रहा। नगर
और भी तमाम भाग मराठों के हाथ से निकल चुका था। क्षेत्र तथा उसके विकास के ऊपर कोई ध्यान नहीं दिया
पर शीघ्र ही पानीपत से लौटकर मराठा बीरों ने गया और बादशाह के द्वारा नियुक्त नुमायन्दे ही राज्य
महादजी के नेतृत्व में पुनः उत्तर भारत में विजय अभियान की देखभाल करते रहे। इस काल में जैनियों की दशा
प्रारंभ कर दिया और ग्वालियर दुर्ग को अपने
अधिकार में ले लिया। इन्होंने इसे फौजी केन्द्र के रूप में के वारे में कुछ भी लेख आदि नहीं मिलते हैं। संभवत: इस काल में शासन की विरोधी नीति के कारण जैनियों प्रयोग करने के उद्देश्य से ग्वालियर दुर्ग के दक्षिण में 1 की क्या, भारतीय मूलों के सभी धर्मों की दशा अच्छी
लाख सैनिकों की बड़ी फौजी छावनी का कैम्प लगाया
और इसे लश्कर नाम दिया । पात्र बनने के उद्देश्य से या तो स्वयं-मुसलमान हो गये
युद्ध के इस वातावरण के मध्य भी धर्मिक गतिया जबरदस्ती मुसलमान धर्म में दीक्षित कर दिये गये।
विधियाँ यदाकदा संचालित होती रहीं । सन् 1768 के शासकों द्वारा धार्मिक स्वतंत्रता का खुलकर हनन किया
लगभग सेठ मथुरादास लक्ष्मीचन्द्र जी अग्रवाल द्वारा गया। इस प्रकार राष्ट्रीय संरक्षण समाप्त होना और
लश्कर क्षेत्र में अत्यन्त भव्य एवं कलात्मक श्री दिगम्बर धर्म पालन पर प्रतिबंध ही इसके मूल कारण रहे।
जैन बड़ा मन्दिर पुरानी सहेली का निर्माण कराया गया। तथापि इतने सबके बाबजुद भी जैन धर्मावलंबियों इस काल में ही एक अन्य भव्य एवं कलात्मक मन्दिर की गतिविधियाँ पूर्णत: समाप्त न की जा सकीं। यदा- श्री दिगम्बर जैन मन्दिर चम्पाबाग का निर्माण कार्य
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सम्पन्न हआ। ये दोनों मन्दिर वर्तमान में ग्वालियर में दूर स्थित बानोड़ी नामक ग्राम में इनका देहान्त उपलब्ध जैन मन्दिरों में कलात्मक दृष्टि से अद्वितीय हैं। हो गया।
इन दिनों ग्वालियर में महादजी का अधिकार था। इनके कोई पुत्र न था अतः इनकी मृत्यु के पश्चात् उन्होंने उज्जैन को अपनी राजधानी के रूप में प्रयोग तुकोजीराव के 14 वर्षीय पुत्र आनंदराव इनके उत्तराकिया। यह बड़े प्रतापी शासक थे । इनका सारा जीवन धिकारी बनाये गये और उनका नाम दौलतराव रखा युद्धों में बीता । जिसमें इन्होंने उत्तर में एक बड़े भाग पर गया। कार्यमार सँभालने के एक वर्ष बाद ही इन्हें अधिकार कर लिया और यह कलकत्ते के समान एक निजाम से युद्ध करना पड़ा जिसमें ये विजयी हये और महत्वपूर्ण स्थान बन गया । दिल्ली के शासक भी इसके इन्हें करोड़ों रुपयों का लाभ हआ। इसके बाद ये अन्य आश्रय को उत्सुक रहते थे। वारेन हेस्टिग्ज इस बढ़ती राजाओं के सहयोग से कार्य चलाते रहे। किन्त इन्हीं शक्ति को सहन न कर सका और 3 अगस्त दिनों उत्तर भारत में फिर से अशान्ति फैल गई । अतः सन् 1760 को आधी रात के समय किले की पश्चिमी महाराजा दौलतराव पुना से उत्तर भारत की ओर आये। दीवार से चढ़-कर उसने अपनी फौजों को दुर्ग में रास्ते में इन्होंने इन्दौर के होल्कर राजा को परास्त कर प्रविष्ट करा दिया। दुर्ग का यह भाग अभी भी फिरंगी उनके राज्य को खूब लूटा । परन्तु अन्त में आपको अंग्रेजों पहाड़ी के नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रकार दुर्ग अंग्रेजों के से युद्ध करना पड़ा। इस लड़ाई में दक्षिण भारत में हाथ में चला गया। 13 अक्टूबर सन् 1781 को पुनः स्थित अहमदनगर, और अशीदगढ़ के बड़े-बड़े किले इनके एक संधि में यह दुर्ग राणा लोकेन्द्र सिंह को मिला। हाथ से निकल गये । इधर उत्तर भारत में भी लार्ड लेक
ने धावा बोल दिया। जिसमें दिल्ली, अलीगढ़, मथुरा लगभग इसी काल में ग्वालियर नगर में "जती जी
और आगरा के इलाके इनके हाथ से जाते रहे । सन् के मन्दिर" के नाम से जाने वाले मन्दिर का निर्माण
1802 में ग्वालियर दुर्ग भी इनके हाथ से चला गया। हुआ। इससे प्रतीत होता है कि अशान्ति के इस वाता
इनके अधिकांश सैनिक युद्ध में काम आ चुके थे। और वरण में भी मन्दिरों आदि का निर्माण कार्य होता रहता
कोई रास्ता न देखकर इन्हें सन् 1805 में मजबूरी में था ।
अंग्रेजों से सन्धि करनी पड़ी जिसमें इन्हें ग्वालियर और सन 1783 में सिन्धिया शासकों ने अंग्रेजों की आसपास का क्षेत्र वापिस कर दिया गया। सन् 1812 मदद प्राप्त कर एक पहरेदार की सहायता से इस दुर्ग में में इन्होंने अपने पिताजी द्वारा स्थापित फौजी कैम्पवाले पुनः प्रवेश किया। राणा को मालूम पड़ते ही उसने मैदान लश्कर पर पुनः छावनी डाली। सन् 1812 में गुलामी से बचने के लिये आत्महत्या कर ली। इस बीच यहां नगर बसाकर इसी को ग्वालियर राज्य की महादजी ने लश्कर नामक फौजी छावनी के पास एक राजधानी बनाया तथा इसका नाम लश्कर ही रखा। बाड़ा कचहरी भी स्थापित की। जिसमें वे युद्धों से अवकाश निकालकर प्रशासन एवं न्याय का कार्य
कहा जाता है कि इसी फौजी छावनी में एक जैन
ओवरसियर भी कार्य करते थे। जब मुरार में छावनी देखते थे।
स्थापित की गई तो वे वहाँ रहने लगे । इनकी मां बड़ी वे दक्षिण के राज्य को भी इसी राज्य में मिलाकर धार्मिक प्रवृत्ति की थीं तथा नित्यप्रति दर्शन करने के एक बड़ा हिन्दू राज्य स्थापित करना चाहते थे। इसी पश्चात् ही अन्न ग्रहण करती थीं । मुरार में मन्दिर न बीच 12 फरवरी सन 1794 ई. को पुना से 2 कोस होने के कारण उन्हें बड़ी परेशानी होती थी और दर्शन
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करने के लिये उन्हें बड़ागांव जाना पड़ता था। अतः ही सन 1857 में भारत के राष्ट्रभक्त वीरों द्वारा उन्होंने अपने पुत्र से मुरार में एक मन्दिर स्थापित स्वतन्त्रता संग्राम छेड़ दिया गया। महाराजा अंग्रेजों के करने को कहा । पुत्र ने अपनी मां की सुविधा की दृष्टि परमभक्त थे । अतः इस अवसर को अंग्रेजों को प्रसन्न से मुरार में एक कमरे के अन्दर मूर्ति प्रतिष्ठा कराकर करने के लिये उपयुक्त समय मानकर उन्होंने अपनी मन्दिर की स्थापना की। जो आज अपने बड़े रूप में भक्ति भावना का पूर्ण परिचय देने का संकल्प किया। बना हुआ है। लश्कर में कसेरा ओली में स्थित राजा परिणाम यह हुआ कि 28 मई को स्वतन्त्रता प्रेमी जी का चैत्यालय भी इसी काल का बना हुआ है। सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। उधर महाराजा अंग्रेजों की इस प्रकार इस काल में महाराजा दौलतराव
सुरक्षा का प्रबंध करने में जी जान लगाकर जुट गये । अंग्रेजों के सहयोग से राज्य कार्य चलाते रहे। सन्
परन्तु समूह एक शक्ति होती है। 14 जून 1857 की
रात्रि को कन्टिन्जेन्ट फौज ने भी राष्ट्रप्रेमियों के समर्थन 1827 में इनका स्वर्गवास हो गया। इनके पश्चात उनकी प्रिय पत्नी ने एक 11 वर्षीय नाबालिग लड़के
में विद्रोह कर दिया। अनेकों अंग्रेज अफसर मौत के घाट
उतार दिये गये । महाराजा ने अपनी भक्ति का परिचय को गोद लिया और उसका नाम जनकोजीराव रखा।
देते हुये शेष सभी जीवित अंग्रेज पुरुषों को महिलाओं व उनके युवा होने तक महारानी ने ही राज्य संचालन का कार्य किया । युवा होने पर उन्होंने स्वयं शासन का
बच्चों सहित आगरा पहुंचा दिया। दिनांक 28 मई सन भार संभाल लिया इनके काल में कोई विशेष घटना
1858 ई. को नाना पेशवा, तात्या टोपे और महारानी
लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में स्वातंत्र्य वीरों की सेना राष्टधटित नहीं हई। दिनांक 7 फरवरी 1843 ई. को
द्रोहियों को खुदती हई ग्वालियर की छाती पर चढ़ आई अल्पायु में ही इनका स्वर्गवास हो गया।
और 1 जून से भयंकर रूप में युद्ध शुरू कर दिया। नया बाजार लश्कर में स्थित दिगम्बर जैन मन्दिर
ग्वालियर के सारे राष्ट्रप्रेमी स्वातन्त्र वीरों ने उनका और ग्वालियर नगर में स्थित गोकुलचन्द्र का मन्दिर साथ दिया जिससे भयभीत होकर जियाजीराव युद्धइन्हीं के काल में निर्मित हुये थे ।
स्थल से भाग खड़े हये और अंग्रेजों की शरण में आगरा महाराजा जनकोजीराव के कैलाशवासी होने पर आ पहुंचे । महारानी ताराबाई ने उनका पुत्र न होने के कारण एक 8
इधर स्वातंत्र वीरों ने सभी शासकीय केन्द्रों पर वर्षीय बालक को गोद लिया । उनका नाम जीवाजीराव
कब्जा कर लिया और ग्वालियर पर अपने झंडे गाड़ सिंधिया रखा गया। महाराजा की नावालिगी में कौन
दिये । गोरखी में स्थित शासकीय खजाने को लट लिया प्रवन्ध करे इस विषय को लेकर सरदारों में खूब झगडे
गया। इस समय अमरचन्द्र वांठिया नामक एक जैन हये । अंग्रेजों ने मौके का फायदा उठाकर सन् 1845 में
धर्मावलंबी महाराजा के खजांची थे । लूट के समय वे एक 6 सदस्यीय कौंसिल आफ रिजेन्सी कायम कर दी।
वहीं मौजूद थे। उन्होंने स्वातंत्र्य वीरों का कोई प्रति9 वर्ष तक राज्य का सारा प्रबंध इसी कौंसिल ने किया।
कार नहीं किया। उन्होंने खुलकर लूट की और सारा इस कौंसिल के शासनकाल में सन् 1848 में लश्कर में
खजाना लूट लिया। वीर पुत्रों का संरक्षण पा ग्वालिदानाओली में जैसवाल पंचायत द्वारा मन्दिर का निर्माण
यर की भूमि निहाल हो उठी। कार्य सम्पन्न हुआ।
1854 में महाराजा के वालिग होने पर वे स्वयं परन्तु दूसरी ओर सर ह्य रोज ने वीरों से अनपात अंग्रेजों के मार्गदर्शन में कार्य करने लगे। 3 वर्ष पश्चात् में कई गुनी सेना लाकर उन्हें चारों ओर से घेर लिया।
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दिनांक 18 जून को भयंकर युद्ध हुआ। जिसमें अनेकों रहे और अंग्रेज यदा-कदा उन्हें खुश रखने के लिये वीरों सहित वीरांगना लक्ष्मीबाई भी शहीद हुई । अव- सम्मानित करते रहे । सर पाकर अंग्रेज पुनः सत्तारूढ़ हो गये । शान्ति स्थापित होने पर महाराजा जयाजीराव सिन्धिया भी ग्वालियर
इनके काल में अशान्तिपूर्ण वातावरण होते हुये भी वापिस लौट आये। ग्वालियर आने के पश्चात् उन्होंने
अनेकों मन्दिर आदि के निर्माण कार्य संपन्न हुये । सन् 1864 स्वातंत्र्य प्रेमी निवासियों को दण्ड देने का अभियान चालू
के लगभग रामकूई पर नसियां जी के मन्दिर की स्थाकिया। जिसका सर्वप्रथम शिकार ग्वालियर राज्य के
पना हुई। लगभग 1 वर्ष बाद ही छत्री बाजार स्थित कोषाध्यक्ष ओसवाल जैनवंशी श्री अमरचन्द्र वांठिया
मन्दिर का निर्माण हुआ । ग्वालियर में खच्चाराम मुह
ल्ला में स्थित मन्दिर भी इसी काल का बना हआ है। बनाये गये और उन्हें महारानी लक्ष्मीबाई आदि से मिल
सन 1878 में मामा के बाजार में भी एक जैन मन्दिर कर शासकीय खजाने की लूट करवाने के आरोप में।
का निर्माण कार्य संपन्न कराया गया । मृत्यु दण्ड देने का आदेश दिया । भविष्य में अन्य नगरवासी कभी इस प्रकार का क़त्य न कर सकें अतः उन्हें सन 1885 के लगभग महाराजा को जलोधर रोग भयभीत करने के उद्देश्य से अमरचन्द्र वाठिया को हो गया जिसकी पीडा से परेशान होकर वे दिल बहलाने सराफा बाजार में स्थित एक विशाल नीम के वृक्ष पर के उद्देश्य से यात्रा पर भी गये परन्तु दिनांक 20 जून लटकाकर फांसी दी गई। शहीद का मृत शरीर 1886 के दिन बड़े कष्टपूर्वक उनका प्राणांत हो गया। 3 दिवस तक नीम पर ही टॅगा रखा गया। जिससे अन्य नगरवासी भविष्य में कभी इस प्रकार का कार्य
इनकी मृत्यु के समय इनके पुत्र माधवराव केवल करने का साहस न करें। यह वृक्ष अभी भी खुनी नीम दस वर्ष के ही थे। परन्तु परम्परा के अनुसार पिता की के नाम से प्रसिद्ध है।
मृत्यु के पश्चत् उनका ही राज्याभिषेक कर दिया गया।
अवयस्कता के काल में अंग्रेजों द्वारा नियुक्त एक कौंसिल बाद में महाराजा जयाजीराव सिन्धिया के इन द्वारा सरदारों और अधिकारियों के सहयोग से राज्य भक्तिपूर्ण कृत्यों से प्रसन्न होकर दिनांक 30 नवम्बर कार्य का संचालन किया गया। को आगरा में एक समारोह आयोजित कर गवर्नर जनरल लार्ड कैनिंग ने पुराने ग्वालियर राज्य में तीन लाख
सन 1888 में मामा के बाजार में एक दिगम्बर रुपये का राज्य और शामिल कर उन्हें पूनः औपचारिक तथा सन् 1893 में सराफा बाजार में एक श्वेताम्बर जैन रूप से राज्यभार सौंपते हए अंग्रेजों की भक्ति के लिए मन्दिरों का निर्माण करवाया गया। इनमें सराफा बाजार उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और साथ ही महाराजा के श्वेताम्बर मन्दिर अत्यन्त भव्य एवं कलात्मक है। और बकाया लाखों रुपये की रकम भी छोड़ दी।
. दिनांक 15 दिसम्बर 1894 के दिन इस क्षेत्र के उन्हें अनेकों उत्कृष्ट पदवियों से विभूषित कर ब्रिटिश
गवर्नर जनरल ने एक समारोह में 30 हजार वर्ग मील सेना का आनरेरी जनरल नियुक्त किया । परन्तु दुर्ग पर
में फैले 32 लाख की आबादी और डेढ़ करोड़ की आयअभी भी अंगेजों का ही आधिपत्य रहा । महाराजा
वाले तत्कालीन ग्वालियर के शासन का कार्यभार माधवद्वारा अनेकों बार याचना करने पर सन् 1886 में
राव सिंधिया को सौंप दिया । पुन: यह दुर्ग सिन्धिया राजवंश को प्रदान कर दिया गया । महाराजा अपने सारे राज्यकाल में अंग्रेजों को अंग्रेजों का संरक्षण होने के कारण ये सारे शासनप्रसन्न करने व स्वामिभक्ति का परिचय देने में ही लगे काल में युद्ध आदि के भय से निश्चिन्त रहे । अत: प्रजा
और बकाया लाखा ९१
कर ब्रिटिश
जनरल ने एक समारोह माय
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के लाभ के कार्यों में अपना काफी समय दिया । इनके काल में क्षेत्र के सर्वांगीण विकास की ओर काफी ध्यान दिया गया। आपने सभी धर्मों को प्रगति का समुचित अवसर दिया । वे स्वयं सभी धर्मों के विशेष उत्सवों में भाग लेते थे ।
इनके शासनकाल में अनेकों जैन मन्दिरों का निर्माण कार्य संपन्न हुआ । सन् 1903 में मामा के बाजार में एक और जैन मन्दिर का निर्माण कराया गया, जो बड़ा मन्दिर मामा के बाजार के नाम से जाना जाता है ।
माधवराव सिंधिया के काल में राज्य में अनेकों विकास कार्यक्रम संचालित हुए। इस बीच सम्पूर्ण देश में कांग्रेस और महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वाधीनता आन्दोलन की लहर ने देशी राज्यों में भी जन जागृति को प्रोत्साहित किया | ग्वालियर भी इससे अछूता न रहा । गांधीजी के विचारों में अहिंसा की प्रधानता ने जैनों को सर्वाधिक कियत किया। ग्वालियर में 1917 ई. में श्री श्यामलाल पाण्डवीय ने ग्वालियर राज्य में "गस्प पत्रिका" के नाम से सर्वप्रथम समाचार-पत्र प्रकाशित कर पत्रकारिता के माध्यम से राजनीति में प्रवेश किया। अपने उग्र विचारों के कारण वे कई बार दण्डित हुए व
जेलयात्रा भी की। 30 अप्रैल 1938 को विदिशा के प्रसिद्ध अभिभाषक श्री तख्तमल जैन के सद्प्रयत्नों से ग्वालियर में सार्वजनिक सभा की स्थापना हुई जो बाद में ग्वालियर स्टेट कांग्रेस में परिवर्तित हो गई। इसी क्रम में समाजवादी विचारधारा के श्री भीकमचन्द जैन ने भी राजनीतिक एवं जन-जागरण आन्दोलनों में एवं गतिविधियों में सक्रिय एवं उल्लेखनीय भाग लिया। इनके अतिरिक्त अन्य कई जैन धर्मावलंबियों ने भी ग्वालियर के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक विकास में गतिशील योगदान दिया।
इस प्रकार ग्वालियर के सांस्कृतिक विकास में जैनों अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह को है। ग्वालियर के इतिहास, साहित्य एवं पुरातत्व का एक बड़ा भाग जैनों से प्रभावित रहा है । आज इस सम्बन्ध में जो भी साहित्यादि प्रमाण उपलब्ध हैं, उनकी रक्षा में भी जैनों ने अत्याधिक महत्वपूर्ण योग दिया है, उनके इस गुण के कारण सुरक्षित साधनों ने ही आज ग्वालियर के इति हास के उपलब्ध ज्ञान को उजागर किया है, तथापि आज भी इसके बहुत से पक्ष लुप्त हैं, जिन्हें उजागर करने को पर्याप्त शोध की आवश्यकता है ।
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विविधा
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समीक्षा एवं समालोचना
श्री 2900वां भगवान महावीर निर्वाण महोत्सब वर्ष
में प्रकाशित जैन साहित्य
तीर्थंकर महावीर के 2500वें निर्वाण महोत्सव वर्ष के अवसर पर आयोजित विभिन्न कार्यक्रमों की श्रृंखला में साहित्य प्रकाशन के क्षेत्र में किया गया कार्य सर्वाधिक उल्लेखनीय एवं महत्वपूर्ण है। इस क्रम में विभिन्न संस्थाओं तथा प्रकाशकों द्वारा अनेकों प्राचीन एवं दुर्लभ कृतियों का प्रकाशन, उन पर टीकाएँ तथा आलोचनात्मक एवं शोधपूर्ण सामग्री के साथ-साथ विविध अध्ययनपूर्ण, सामयिक एवं ज्ञानबर्द्धक ग्रन्थों, संग्रहों एवं पुस्तकों का प्रकाशन किया गया है। ऐसी दशा में यह आवश्यक ही है कि इन प्रकाशनों पर विभिन्न दृष्टिकोण सामने आएं, जिससे उत्कृष्ट श्रेणी के उच्चस्तरीय साहित्य के प्रकाशन को बल मिले; साथ ही अधिकाधिक प्रबुद्ध पाठकों को इसके सम्बन्ध में पर्याप्त विवरण प्राप्त हो सके। इस उद्देश्य से यहाँ कुछ चुनी हुई पुस्तकों की समीक्षा प्रस्तुत की जा रही है ।
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अंग सुत्ताणि (तीन खण्ड)
और विवागसूयं (विपाक) का संग्रह है। इसमें भी कति
पय उपलब्ध ताडपत्रीय एवं कर्गलीय हस्तप्रतियों के सम्पादक-मुनि श्री नथमल, वाचना प्रमुख
आधार पर पाठ-संशोधनों के साथ अवशिष्ट अंग-ग्रन्थों आचार्य तलसी, प्रकाशक-जैन विश्वभारती, लाडनूं को प्रस्तुत किया गया है। (राजस्थान), मूल्य-प्रथम खण्ड-पिच्यासी रुपयाद्वितीय खण्ड-नब्बे रुपये, ततीय खण्ड-अस्सी रुपया। सम्पूर्ण ग्रन्थ आगम साहित्य के प्रकाशन की दिशा में
एक महत्वपूर्ण देन है । ग्रन्थ का सम्पादन उच्च कोटि का आचार्य श्री तुलसीजी के निर्देशन में मुनिश्री नथमल
है, बन्ध सम्पादक और प्रकाशन संस्था के आगम और द्वारा सम्पादित यह ग्रन्थ आगम साहित्य के प्रकाशन में
साहित्य प्रकाशन के निदेशक श्रीचन्द्र रामपुरिया ने महत्वपूर्ण कड़ी कहा जा सकता है। ग्रन्थ के सम्पादन
ग्रन्थ को सुन्दर बनाने में काफी परिश्रम किया है। ग्रन्थ में मुनिश्री दुलहराजजी ने सहयोगी तथा सुदर्शनजी,
का मुद्रण एवं बाइण्डिंग भी उत्तम कोटि का है। श्री मधुकरजी व हीरालालजी ने पाठ संशोधन के महत्वपूर्ण
जयचन्द्रलालजी सूरजमलजी गोरी परिवार (सरदारदायित्व का निर्वाह किया है।
शहर) तथा श्री रामलाल हंसराज गोलछा, (विराटश्री 2500वां भगवान महावीर निर्वाण महोत्सब ।
नगर, भोपाल) ने ग्रन्थ के प्रकाशन हेतु साधन उपलब्ध वर्ष के अवसर पर जैन विश्व भारती द्वारा प्रथम ग्रन्थमाला के रूप में प्रकाशित इस ग्रन्थ में ग्यारह अंग ग्रन्थों
विषय और भाषा के पूर्व ऐतिहासिक क्रम को के मूल संशोधित पाठों को तीन खण्डों में प्रकाशित किया
ध्यान में रखते हुए अस्पष्ट तथा संदिग्ध पाठों को चूणियों गया है।
एवं वृत्तियों के आलोक में निर्धारित कर उनके पाठ प्रथम खण्ड में प्रथम चार अंगों आयारो (आचार),
संशोधन मावधानी पूर्वक प्रस्तुत किये गए हैं । आगम
मति मनिश्री नथमलजी एवं आगम साहित्य के लिये सूयगडो (सूत्रकृत , ठाडं (स्थान) एवं समवायों (समवाय)
समर्पित व्यक्तित्व श्रीचन्द्र रामपूरिया एवं उस दल के का संग्रह है। इनमें से आचारांग एवं सूत्रकृतांग में
साधू-साध्वियों के अथक परिश्रम से जैन विद्या को प्रयुक्त आदर्शों में चूणि एवं वृत्ति के सन्दर्भ में पाठों को
इस ग्रन्थ में नवीन उपलब्धियाँ हई हैं। इसके लिये उनके तुलनात्मक एवं गम्भीर समीक्षा के पश्चात,
साहित्य जगत आभारी रहेगा। "ठार्ड" में कुछ हस्त प्रतियों के आधार पर तथा 'समवायांग" में तीन प्राचीन आदर्श प्रतियों एवं वत्ति के आधार पर तैयार किया गया है।
श्रमण महावीर द्वितीय खण्ड में पाँचवा अंग "भगवई"(भगवती सूत्र) प्रकाशित किया गया है, जिसे ताड़पत्र एवं कर्ग- लेखक-मुनिश्री नथमल । सम्पादक-मुनिश्री लीय सात हस्तप्रतियों तथा आगमोदय-समिति द्वारा दूलहराज प्रबन्ध सम्पादक - श्रीचन्द्र रामपुरिया । प्रकाशित किया गया है।
प्रकाशक-जैन विश्वभारती लाउनू (राजस्थान)।
मूल्य-सोलह रुपया। . तृतीय खण्ड में छह अंगनायाधम्मकहाओ (ज्ञाताधर्म कथा), उवासगढसाओ (उपासक दशा), अंतगड़द- प्रस्तुत ग्रन्थ श्रमण महावीर के सम्बन्ध में उपलब्ध साओ (अन्तकृतदशा),पण्डावागरणाई (प्रश्न व्याकरण), प्राचीनतम प्रमाणों के आधार पर भगवान महाबीर के
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जीवनदर्शन सम्बन्धी शोध-ग्रन्थ है। लेखक मूनि नथमल- पहलुओं को छुआ है। उनकी रचनाएं कहीं-कहीं हृदय जी ने अद्धमागधी आगम ग्रन्थों एवं उनके टीका ग्रन्थों को स्पर्श कर लेती हैं और मानवता की रस वर्षा करती में उपलब्ध, चर्चित एतं अचचित प्रायः सभी सन्दमों में हैं। निश्चय ही श्री शशिजी का यह काव्य संग्रह श्रेष्ठ इस ग्रन्थ का संयोजन करने का प्रयास किया है। उन्मुक्त एव अनूठी कृति है। विचारक अमर मुनि के शब्दों में "यह भगवान महावीर का प्रथम मानवीय चित्रण है ।" अन्धकार में छिपे अनेक स्त्रोतों का यह विवेचन आह्लादक ही नहीं है, वरन्
"खराद"अनेक नए तथ्यों को उद्घाटित भी करता है।
रचियता -- कल्याण कुमार जैन "शशि" । प्रकाशक भाषा शैली की दृष्टि से प्रस्तुत ग्रन्थ इतना सुन्दर "
-बाबू आनन्द कुमार जैन संस्थान, रामपुर । मूल्य बन पड़ा है कि, ऐसा प्रतीत होता है, मानो वर्तमान
तीन रुपया। अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय रूपरेखा महावीरकालीन हो। ऐसे प्रसंगों में असंग्रह का वातायन, अभय का आलोकन प्रस्तुत पुस्तक में कवि ने अपनी सशक्त काव्यशक्ति आदिवासियों के बीच प्रगति के संकेत, नारी का बन्ध का परिचय देकर मुक्तकों के माध्यम से मानवजीवन विमोचन, सेवा, जातिवाद, जनभाषा, जनता के लिये, के विभिन्न पक्षों को कसौटी पर कसा है। "शशि" जी सहअस्तित्व, समन्वय की दिशा का उद्घाटन, सर्वजन- का प्रस्तुत संग्रह पाठकों को दृढ़तापूर्वक कार्य करने की हिताय-सर्वजन सुखाय आदि प्रकरण पठनीय एवं विचार- प्रेरणा प्रदान करने में मिश्चित ही पूर्ण रूप से सफल णीय हैं । तीर्थकर की माता के सत्रह स्वप्नों (पृ. हुआ है। सं० 2-3) का विचार अति नवीन है।
चरित्र, इतिहास, संस्कृत, भूगोल, दर्शन, आचार सिद्धान्त एवं आध्यात्म का अद्भुत संयोजन एवं पडित चैनसुखदास न्यायतीर्थ स्मृति ग्रन्थ .
औपन्यासिक शैली में प्रस्तुत यह चरित्र ग्रन्थ सभी क्षेत्रों में समादर प्राप्त करेगा, ऐसी आशा है।
प्रबन्ध सम्पादक श्री ज्ञानचन्द्र बिन्दूका । सम्पादक-सर्वश्री पं. मिलापचन्द्र शास्त्री, डा. कमल चन्द्र
सोगाणी डा. कस्तूरचन्द्र कासलीवाल । प्रकाशककलम
साहित्य शोध, विभाग, श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र
श्री महावीरजी प्रबन्ध कारिणी समिति, सवाई मानसिंह रचियता-कल्याण कुमार जैन 'शशि"। प्रकाशक हाईवे, जयपुर। मूल्य-चालीस रुपया। -बाबू आनन्द कुमार जैन संस्थान, रामपुर। मूल्यतीन रुपया।
श्री महावीरजी, जैन दर्शन के मनीषी प्रकांड विद्धान
पंडित चैनसुखदासजी की साधना-स्थली रही है। उनकी "कलम" आशुकवि श्री कल्याण कुमार जैन "शशि" स्मति में क्षेत्र के साहित्य शोध विभोग द्वारा स्मृति ग्रन्थ का कार्य संग्रह है। कलमकार ने अपनी सशक्त कलम प्रकाशित कर उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की है। जैन से सर्वथा मौलिक रचना को जन्म दे, जीवन के विभिन्न विद्या का यह सुन्दर सन्दर्भ ग्रन्य विषय-सामग्री की
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दृष्टि से चार खण्डों में विभक्त किया गया है। प्रथम तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन के निर्माण में इन खण्ड में पंडितजी के प्रति भावभीनी श्रद्धांजलियाँ तथा महापुरुषों की भूमिका पर प्रकाश डालनेवाली हिन्दी तथा उनके जीवन, व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर बत्तीस की यह प्रथम पुस्तक है । विभिन्न विषयों पर लेख तथा संस्मरण संग्रहित किए गये है जो पंडितजीके बहुमुखी व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालते हैं। द्वितीय खण्ड में धर्म और दर्शन से
जैन दर्शन की रूपरेखा सम्बन्धित विभिन्न विषयों पर चौदह लेख, ततीय खण्ड में साहित्य एवं संस्कृति से सम्बन्धित उन्नीस लेखों तथा
लेखक-एस. गोपालन । भाषान्तर-गुणाकर चतुर्थ खण्ड में इतिहास एवं पुरातत्व से सम्बन्धित विषयों
मुले, । प्रकाशक-वाईलो ईस्टर्न लिमिटेड, नई दिल्ली। पर तेरह लेखों का संग्रह है। द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ मल्य-सोलह रुपया। खण्डों में प्रकाशित लेखों में अधिकतर सामग्री शोधपूर्ण है, जिनके द्वारा जैन वाङ्गमय के कई अज्ञात एवं लुप्त पक्षों पूस्तक श्री एस. गोपालन की मल अंग्रेजी पुस्तक को उजागर किया-गया है। कई शोधपत्र अत्यन्त उच्च- Outlines of Jainism का हिन्दी अनुवाद है। यद्यपि कोटि के हैं। सम्पादन व मूद्रण पर पर्याप्त परिश्रम पुस्तक में सक्षिप्त में हो, जन परम्परा के उद्गम से अधुकिया गया है, जिसने ग्रन्थ को और भी सुन्दर बना नातम् विकास का सर्वतोमुखी परिचयात्मक अध्ययन दिया है।
प्रस्तुत किया गया है, तथापि पुस्तक में जैन सिद्धान्तों के सभी आवश्यक तत्वों का समावेश है । जैन ज्ञानमीमांसा, मनोविज्ञान, तत्व मीमांसा तथा नीतिशास्त्र के बारे में
लेखक ने अत्यन्त कुशलतापूर्वक विषय विवेचन किया है। चौबीस तीर्थकर
पुस्तक का भाषान्तर भी उत्तम है । जैन दर्शन के विद्यालेखक -डा. गोकुलचन्द्र जैन । आशीर्वचन- थियों के लिये सरल भाषा तथा संक्षिप्ताकार में उपलब्ध आचार्य श्री तुलसी। प्रकाशक-पराग प्रकाशन, विश्वास यह अत्यन्त उपयोगी पुस्तक है। नगर, शाहदरा, दिल्ली 32, मूल्य-छह रुपया।
पाकेट बुक आकार में प्रकाशित प्रस्तुत पुस्तक में
जैन सिद्धान्त भास्कर जनसामान्य के अध्ययन की दृष्टि से सरल भाषा तथा आकर्षक शैली मैं चौबीसों जैन तीर्थंकरों का सजीव चरित्र
(जुलाई 1975 भाग----28-1 किरण (The Jain चित्रण प्रस्तुत किया गया है । प्रारम्भ में "आओ तीर्थ - Antiquary), जैन पुरातत्व सम्बन्धी षण्मासिक पत्र । कर-बनें" शीर्षक से लेखक ने तीर्थ कर बनने की योग्यता
प्रकाशक-श्री देव कुमार जैन ओरिएन्टल रिसर्च इन्सका सशक्त विश्लेषण किया है, तत्पश्चात क्रमशः चौबीसों टीटयट एवं जैन सिद्धान्त
टीट्यूट एवं जैन सिद्धान्त भवन, आरा (बिहार) । मूल्यतीर्थकरों का वर्णन है। विवादास्पद तत्वों के सन्दर्भ एक प्रति-दस रुपया, वार्षिक-बीस रुपया। में लेखक ने अनेकान्तिक चिन्तन के आधार पर अनाग्रही दृष्टिकोण को अभिव्यक्त किया है । यद्यपि-कूछेक तीर्थ- प्रस्तुत षण्मासिक पत्रिका जैन पुरातत्व सम्बन्धी करों के बारे में अत्यन्त संक्षिप्त विवरण दिया है, तथापि अद्वितीय शोध पत्रिका है । जूलाई अंक में "प्राकृत जैन वह माननीय है। चौबीसों तीर्थ करों के जीवनचरित्र स्रोतों का भक्ति एवं दर्शनमलक विश्लेषण: गौतम गणधर
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कृत ईसा से छः सदी पूर्व का दि. जैन ग्रन्थ, अपभ्रश चन्द्र, अगरचन्द्र नाहटा, भंवरलाल नाहटा तथा ज्योति का अद्यावधि प्रकाशित दुर्लभ ग्रन्थ "तिसट्टमहापुराण- प्रसादजी जैन के सात मौलिक, एवं शोधपूर्ण निबन्ध पुरिसआयारगुणालंकार"; महान आचार्य वप्पभद्रसूरि प्रकाशित किये गए हैं। का गौडेश्वर धर्मपाल, बौद्धाचार्य न कुजर और कवि वाक्पतिराज पर प्रभाव, जैन कर्म सिद्धान्त और भारतीय दर्शन, शीर्षकों से सर्वश्री डा. केदारनाथ
पंडित टोडरमल: व्यक्तित्व और कर्तत्व ब्रह्मचारी, एस. सी. दिवाकर, डा. राजाराम जैन, अगरचन्द्र नाहटा' एवं प्रो. उदयचन्द्र जैन के शोधपत्र
लेखक-डा. हुकमचन्द्र भारिल्ल, प्रकाशक-4 प्रकाशित किये गए हैं। सभी शोधपत्र मौलिक तथा
टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-4 बापूनगर, जयपुर 4 पुरातत्वीय अध्ययन एवं शोध की दृष्टि से उच्चस्तरीय
मूल्य-सात रुपया। हैं। पुस्तिका जैन पुरातत्व में शोधकार्य के दुष्कर कार्य की पूर्ति की दिशा में विशेष महत्व की है।
इन्दौर विश्वविद्यालय द्वारा पी-एच. डी. के लिए स्वीकृत यह शोध-प्रबन्ध आचार्यकल्प पंडित प्रवर टोडरमल के जीवन, व्यक्तित्व और उनके सामाजिक, धार्मिक
व साहत्यिक कार्यों का प्रामाणिक विवेचन कर उनका जनरल आफ पूरनचन्द्र नाहर
मूल्यांकन प्रस्तुत करता है। पुस्तक की विषय-सामग्री-सात इन्स्टीट्यूट आफ जैनोलाजी
अध्यायों में विभाजित है। प्रथम अध्याय में पूर्व धार्मिक (नवम्बर 75 एवं अप्रैल 76 अक)
व सामाजिक विचारधाराएँ और परिस्थितियाँ, द्वितीय
अध्याय में आचार्य प्रवर का जीवनवृत, तृतीय अध्याय सम्पादक-के. सी. ललवानी। प्रकाशक-पूरनचन्द्र
में आचार्य प्रवर की रचनाएं और उनका वर्गीकरण तथा नाहर इन्स्टीट्यूट आफ जैनोलाजी, कुमारसिंह हाल, 46
रचनाओं का परिचयात्मक अनुशीलन, चतुर्थ अध्याय में इडियन मिरर स्ट्रीट, कलकत्ता 13 । मूल्य-प्रति अंक
वर्ण्य-विषय और दार्शनिक विचार तथा विविध विचार, दो रुपया, बार्षिक-पांच रुपया।
पंचम अध्याय में गद्य शैली, षष्टम में भाषा तथा स्व. पूरनचन्द्रजी नाहर की स्मृति में स्थापित सप्तम में उपसंहारः उपलब्धियां और मूल्यांकन शीर्षकों इन्स्टीट्यूट आफ जैनोलाजी द्वारा जैन विद्या पर शोध- से पडितजी के व्यक्तित्व और कर्तत्व का शोधपर्ण कार्य को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से प्रकाशित यह विवेचन किया गया है। पंडितजी के सम्बन्ध में नवीन पत्रिका शोध-पत्रिकाओं की शृखला में एक महत्वपूर्ण सन्दों में प्रामाणिक विवरण उपलब्ध करानेवाला यह कड़ी है। पत्रिका का नवम्बर 75 अंक पूरनचन्द्र नाहर शोध प्रबन्ध भाषा एवं शैली की उत्कृष्टता के कारण शताब्दी अंक है जिसमें नाहरजी की सेवाओं के प्रति अति सुन्दर बन पड़ा है। श्रद्धांजलियों एवं संस्मरणों के अतिरिक्त मुनिश्री सुशील कुमार व सर्वश्री ए. एन. उपाध्ये तथा भागचन्द्रजी के मौलिक एवं शोधपूर्ण निबन्ध प्रकाशित किये गए हैं।
तीर्थ कर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ अप्रैल 76 अंक में सर्वश्री के. सी. ललवानी, पूरनपन्द्र नाहर, डी. पी. घोष, पी. वी. पंडित, मुनिश्री रूप- लेखक - डा. हुकमचन्द्र भारिल्ल । प्रकाशक-पं.
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टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-४, वापूनगर, जयपुर। दशवकालिक अति प्रचलित और अति व्यवहृत मूल्य-पु. सं.--पांच रुपया; पाकेट बुक-दो रुपया। आगम ग्रन्थ है। इसके दस अध्ययन हैं । विकाल में रचा
जाने के कारण इसका नाम दसर्वकालिक रखा गया। प्रस्तुत पुस्तक में विद्वान लेखक डा. हुकुमचन्द्र ग्रन्थ के कर्ता श्रतकेवली शय्यंभव, रचनाकाल वीर संवत भारिल्ल ने तीर्थ कर महावीर के जीवन और सिद्धान्तों 72 के आसपास, तथा रचना स्थली "चम्पा" है। ग्रन्थ का संक्षिप्त किन्तु प्रामाणिक विवेचन प्रस्तुत किया है। के सम्पादक-विवेचक मुनि नथमलजी ने ग्रन्थ के दो खण्डों में विभक्त इस कृति के प्रथम खण्ड में बालक
सम्पादन एवं विवेचन में कड़ा परिश्रम कर इसे और वर्तमान से भगवान महावीर के केवलज्ञानी होने तक उपयोगी एवं माननीय बना दिया है। आगम ग्रन्थों के से जीवन की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत की गई है। प्रकाशन की श्रृंखला में यह ग्रन्थ एक महत्वपूर्ण द्वितीय खण्ड में उनके द्वारा प्रवर्तित सर्वोदय तीर्थ का करीबी. वर्णन है जिसमें उनके द्वारा प्रतिपादित मुक्ति मार्ग का सक्षिप्त विवेचन किया गया है। सम्यग्दर्शन के अन्तर्गत सप्त तत्व देवशास्त्र-गुरु, भेद-विज्ञान और आत्मानुभूति का मार्मिक चित्रण है, तो सम्यक ज्ञान के अन्तर्गत दशवकालिक और उत्तराध्ययन अनेकान्त, स्याद्वाद और प्रमाण नय का ताकिक विवेचन है। सम्यक चरित्र की भी प्रामाणिक विवेचना
सम्पादक एवं अनुवादक - मुनि नवनमल, रहकी गई है। अन्त में उपसंहार शीर्षक से भगवान योगी-मुनि मीठालाल, एनि दुलहराज, वाचना प्रमुखमहावीर के सिद्धान्तों का आधुनिक सन्दर्भो में विवेचन आचार्य श्री तलसी । प्रकाशक-जैन विश्वभारती. किया गया है।
लाडनू (राजस्थान) । मूल्य-पन्द्रह रुपया।
ग्रन्थ के प्रस्तुत संस्करण में जैन आचार-गोचर
और दार्शनिक विचारधारा के प्रतिनिधि दो महत्वपूर्ण दसवें आलियं
आगम ग्रन्थों "दशवकालिक" और "उत्तराध्ययन" कर
हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया है। जैन परम्परा में लेखक-मुनिश्री नथमल, वाचना-आचार्य श्री उनका अध्ययन, वाचन और मनन बहुलता से होता तुलसी । प्रकाशक-जैन विश्व भारती, लाडनू है। दशवकालिक में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य (राजस्थान) । मूल्य-पिच्यासी रुपया।
और अपरिग्रह आदि धर्म तत्वों और आचार-विचार
का विस्तृत एवं सूक्ष्म विवेचन है तथा उत्तराध्ययन श्री जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी महासभा, कलकत्ता के में वैराग्यपूर्ण कथा प्रसंगों के द्वारा धार्मिक जीवन द्वारा प्रकाशित पूर्वोक्त संस्करण की समाप्ति के बाद जैन का अति प्रभावशाली चित्राकन तथा तात्विक विचारों विश्वभारती ने दूसरे संस्करण के रूप में इस ग्रन्थ का का हृदय-ग्राही संग्रह किया है। पुस्तक का अनुवाद पुनः प्रकाशन किया है। ग्रन्थ में, मूलपाठ के साथ भाषा व शैली की दृष्टि से मूलता लिये हए है। संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद और टिप्पणी का प्रकाशन कर इसे प्रथम संस्करण की अपेक्षा अधिक प्रामाणिक __आगम ग्रन्थों के प्रकाशन की श्रृंखला में मूल सूत्रों एवं सर्वाङ्गीण बनाने का प्रयास किया गया है। दशवकालिक और उत्तराध्ययन के प्रस्तुत हिन्दी संस्करण
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उन व्यक्तियों के लिये जो हिन्दी के माध्यम से आगामी
भगवान महावीर स्मृति ग्रन्थ का अनुशीलन करना चाहते हैं, एक नयी उपलब्धि होने से उनके लिये नितान्त उपयोगी सिद्ध होगी।
प्रधान सम्पादक-डा. ज्योतिप्रसाद जैन । प्रकाशकश्री महावीर निर्वाण समिति, उत्तरप्रदेश । प्राप्ति स्थान-श्री अजीत प्रसाद जैन, उपसचिव, श्री महावीर निर्वाण समिति, उत्तर प्रदेश, पारस सदन,
आर्यनगर, लखनऊ--226,004 । मूल्य-पचास भगवान महावीर आधुनिक सन्दर्भ में रुपया ।
श्री महावीर निर्वाण समिति, उत्तरप्रदेश द्वारा सम्पादक-डा. नरेन्द्र भानावत, प्राध्यापक, हिन्दी
प्रकाशित "भगवान महावीर स्मृति ग्रन्थ' में विविध विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर, सह सम्पादक
विषयों पर देश के सुप्रसिद्ध विद्वानों के लेखों को सुनियोडा. शान्ता भानावत । प्रकाशक-श्री अखिल भारत
जित ढंग से संकलित कर विषय-सामग्री को सात खण्डों वर्षीय साधुमार्गी जैन संघ, समता भवन रामपुरिया में विभाजित किया गया है। जिनमें क्रमश: महावीर सड़क, बीकानेर। प्रख वितरक-मोतीलाल वनारसीदास, वचनामत. महावीर स्तवन, महावीरः यगः जीवन और बंग्लो रोड, जवाहर नगर, दिल्ली-7। मल्य-चालीस
देन, जैन धर्म, दर्शन और संस्कृति, शाकाहार, उत्तररुपया।
प्रदेश और जैनधर्म, तथा श्री महावीर निर्वाण समिति,
उत्तरप्रदेश शीर्षकों के अन्तर्गत विविध सामग्री संकलित पुस्तक में विभिन्न विषयों पर राष्ट्रीय ख्याति
की गई है। ग्रन्थ में अस्सी के लगभग निबन्धों, लेखों प्राप्त अधिकारिक विद्वानों के पचास लेखों, शोधपत्रों
तथा शोध-पत्रों का संग्रह है। अनेकों लेख शोधपूर्ण एवं एवं निबन्धों का संग्रह है। पुस्तक की सामग्री नौ खण्डों
उच्चस्तरीय होने से ग्रन्थ विविध विषयों पर एक उत्तम में विभाजित की गई है। प्रथम खण्ड में जीवन, व्यक्ति
संकलन प्रस्तुत करता है। त्व और विचार, द्वितीय खण्ड में सामाजिक सन्दर्भ, ततीय खण्ड में आर्थिक सन्दर्भ, चतुर्थे खण्ड में राजनीतिक सन्दर्भ. पंचम खण्ड में दार्शनिक सन्दर्भ, षष्टम खण्ड में वैज्ञानिक सन्दर्भ, सप्तम खण्ड में भरत बाहुबलि महाकाव्यम मनोवैज्ञानिक सन्दर्भ, अष्टम खण्ड में सांस्कृतिक सन्दर्भ, एवं नवम् खण्ड में परिचर्चा शीर्षकों के अन्तर्गत प्रस्तुति-मुनिश्री नथमल। आशीर्वचन-आचार्य उच्चकोटि के लेखों एवं निबन्धों द्वारा अनेकों नवीन श्री तुलसी । अवारक-मुनि दुलहराज । प्रकाशकविषयों को छुआ गया है, जिससे नवीन सन्दर्भो में जैन विश्वभारती-लाउनू (राजस्थान) । मूल्य-तीस तीर्थकर महावीर के सिद्धांतों पर चिन्तन को बल मिला रुपया। है। पुस्तक शोधाथियों एवं पाठकों के लिए नितान्त
__ श्री पुण्य कुशलमणि द्वारा वि. सं. 1641 से उपयोगी है।
1659 के मध्य विरचित संस्कृत महाकाव्य की दो उपलब्ध हस्तप्रतियों के आधार पर मुनिश्री नथमल द्वारा उसका पाठ संशोधन तथा त्रुटित श्लोक खण्डों की
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पूर्ति सम्पन्न होकर मुनिश्री दुलहराजजी ने इसका सर्वप्रथम सम्पादन तथा अनुवाद कर यह अद्यावधि अप्रकाशित महाकाव्य, मूलानुगामी हिन्दी अनुवाद के साथ इस ग्रन्थ के रूप में प्रकाशन किया गया है ।
प्रस्तुत महाकाव्य में अठारह सर्ग एवं 535 श्लोक हैं । प्रत्येक सर्ग के प्रारम्भ में सम्पादक ने प्रतिपाद्य विषय, श्लोक परिमाण, सलक्षण छन्दनाम, तथा सर्ग संक्षेप देकर अध्येताओं की सुविधा के लिये सर्गानुकूल भाव-भूमिका प्रस्तुत की है। प्रस्तुत महाकाव्य में प्रथम तीर्थ कर आदिनाथ के दो पुत्रों भरत- बाहुबलि के जीवन के एक पक्ष - युद्ध से सम्बन्धित प्रसंग का काव्यात्मक वर्णन है । भरत बाहुबलि का जीवन बड़ा ही लोकप्रिय एवं आह्लादकारी रहा है और इस पर अनेकों कवियों द्वारा स्वतन्त्र रचनाएँ की गई हैं परन्तु पुण्य कुशलमणि जी का यह महाकाव्य इन पुस्तकों की श्रृंखला में अत्यधिक उच्च कोटि का माना जाता है । पुस्तक का अनुवाद भाषा एवं शैली की उत्कृष्टता के कारण मौलिक-सा प्रतीत होता है । ग्रन्थ के पूर्व, ग्रन्थ की विस्तृत प्रस्तावना में ग्रन्थ का साहित्यिक मूल्यांकन किया गया है। आवरण पृष्ठ पर श्रवणवेलगोला की बाहुबली की प्रतिमा के रेखाचित्र ने ग्रन्थ के बाह्य सौन्दर्य को दीप्तिमान कर दिया है।
महावीर श्री चित्रशतक
सम्पादक एवं लेखक - कमलकुमार जी शास्त्री "कुमुद,” ," कवि श्री फूलचन्द्रजी पुष्पेन्दु | प्रकाशकभोकमसेन रतनलाल जैन, 1286 बकोल पुरा, देहली 110,006 | मूल्य दस रुपया ।
पुस्तक तीर्थंकर महावीर के सम्बन्ध में अपने प्रकार का अनूठा प्रकाशन है। पुस्तक के प्रारम्भ में
भगवान महावीर के प्रति अनेकों राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त कवियों द्वारा अर्पित काव्यमयी श्रद्धांजलि सम्बन्धी कविताओं का संग्रह है । तत्पश्चात् भगवान महावीर के जीवन-दर्शन व संदेश सम्बन्धी दो निबन्ध तथा काव्यमयी जीवन चक्र ( हीयमान से वर्द्धमान) प्रस्तुत किया गया है । अन्त में भगवान महावीर चित्रशतक के अन्तर्गत सौ चित्रों तथा उनके काव्यमयी वर्णन के माध्यम से भगवान महावीर की पूर्व भवों से लेकर परिनिर्वाण तक की गाथा का सर्जीव चित्रण प्रस्तुत किया गया है । प्रस्तुत पुस्तक भगवान महावीर के बारे में सर्वोपयोगी शैली में जन-सामान्य को जानकारी देने की दिशा में उत्तम प्रयास है ।
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वचन दूतम्
रचयिता - पं. मुलचन्द्र शास्त्री । प्रकाशकसाहित्य शोध विभाग, श्री दि. जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी, महावीर भवन, सवाई मानसिंह हाईवे, जयपुर | मूल्य-पांच रुपया ।
प्रस्तुत काव्य संस्कृत के मन्दाक्रान्ता छन्द में लिखित मेघदूत एंव पाश्र्वायुदय - शैली में रचित दुतकाव्य है । इसमें मेघदूत के पद्यों के चतुर्थ पाद की समस्यापूर्ति के साथ राजुल की अन्तर्वेदना का मार्मिक चित्रण है । शताब्दियों के उपरान्त एतादृश परम्पराशील रचना देखकर ऐसा विश्वास होने लगा कि संस्कृत में सर्जनात्मक साहित्य की गति मन्द भले ही पड़ गई हो किन्तु अभी सर्वथा समाप्त नहीं हुई है। पुस्तक संस्कृत साहित्य की इस शताब्दी की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है ।
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वज्रङ्गावली-हनुमान
नहीं थीं और लगभग पन्द्रह सौ वर्षों से दिगम्बरों और
श्वेताम्बरों में अलगाव की दूःखद स्थिति चली आ रही सम्पादक-कमल कुमार जैन शास्त्री 'कुमुद," थी। प्रस्तुत ग्रन्थ दिल्ली में सर्वमान्यता के लिये आयोफल चन्द्र जैन 'पुष्पेन्दु' । प्रकाशक-भीकमसेन जित संगति में सम्मिलित सभी आम्नायों के साधुओं, रतनलाल जैन, 1286, वकीलपुरा, देहली 6 । विद्वानों, श्रावकों और सेवकों की सर्वमान्य उपलब्धि है। मूल्य-बो रूपया।
इसे सर्वप्रथम क्षुल्लक श्री जिनेन्द्र वर्णी ने दिगम्बर एवं
श्वेताम्बर परम्परा के आगम ग्रन्थों से कुछ सारभूत जैन रामायण "पदम पुराण" में हनुमानजी के
गाथाओं का संकलन कर सम्पादित किया। तत्पश्चात सन्दर्भ में वर्णित स्थलों के आधार पर रचित यह खण्ड
सन्त कानजी स्वामी, दलसुख माई मालवणिया आदि ने काव्य कविवर श्री ब्रह्मराय रचित "हनुमान चरित"
उसका संशोधन कर उसे “जिण धम्भ" नाम दिया। का संशोधित स्वरूप है। जैन रामायण के सन्दर्भ में
उसका भी डा. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, उपाध्याय वज्राङ गवली हनुमान का सुन्दर चरित्र-चित्रण प्रस्तुत
मुनिश्री विद्यानन्दजी, मुनिश्री सुशील कुमार जी प्रभृति करनेवाली यह अपने प्रकार की अनूठी पुस्तक है।
सन्तों एवं मुनियों के सानिध्य में वाचनकर उसे अन्त में "समण सुत्ताणि" नाम दिया।
समण सुत्त (श्रमण सूत्रम्)
ग्रन्थ की विषय-सामग्री को ज्योतिर्मय, मोक्षमार्ग
तत्वदर्शन, एव स्याद्वाद नामक चार खण्डों और चवाअनुवाद-पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री, मुनिश्री लीस प्रकरणों में विभक्त किया गया है। इसका मूलानथमलजी, संस्कृत छाया परिशोधन-पं, बेचरदासजी नुगामी-हिन्दी अनुवाद पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री, दोशी। प्रकाशक-सर्व सेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी तथा मुनि श्री नथमलजी महाराज एवं संस्कृत वाराणसी, । मूल्य-पेपर बंक-बस रुपया, सजिल्द- छाया परिशोधन पं. बेचरदासजी दोषी, अहमदाबाद बारह रुपया।
द्वारा सम्पन्न हुआ है। सर्व सेवा संघ वाराणसी के संचा
लक श्री कृष्णराज मेहता ने इस कार्य के संयोजन एवं ___ सर्वोदयी सन्त आचार्य विनोबा भावे की मूल प्रेरणा
प्रकाशन में प्रशंसनीय एवं चिरस्मरणीय कार्य किया से भगवान महावीर के पच्चीस सौवें निर्वाण महोत्सव
है। सर्वमान्य होने के कारण यह पुस्तक जैन दर्शन में के अवसर पर प्रकाशित यह ग्रन्थ समन्वय के प्रतीक के
रुचि रखनेवाले प्रबुद्ध पाठकों हेतु अभूतपूर्व एवं रूप में सर्व प्रमुख उपलब्धि मानी जाती है। इससे पूर्व
अद्वितीय उपलब्धि है । की तीन वाचनाएँ श्रमण सम्प्रदाय के एक वर्ग को मान्य
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ENGLISH
BHAGWAN MAHAVIRA AND HIS RELEVANCE IN MODERN TIMES
in logic and mataphysics obtained the titles of Upadhyaya, Nyaya Visharad and Nyayacharya.
Editor - Dr. Narendra Bhanawat & Dr. Prem Sagar Jain; Associate Editor - Dr V. P. Bhatt; Published by -- Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangha, Samta Bhawan, Rampuria Road, Bikaner (Rajasthan); Price- Twenty five Rupees.
The work is divided in three Chapters, viz (i) Valid Knowledge - Pramana, (ii) koowledge from particular standpoints Nayas, and (iii) Imposition, - Niksepa. It also discusses Vyaptigraha, induction or process of ascertaining a universal connection between the middle term and the major term.
The book is an embodiment of the great labour of the distinguished eminent scholares of almost all parts of India, deals with various subqects like Religion, Philosophy, Science, language and literature, etc. based on the teachings of Bhag. wan Mahavira. The book corporates twe- nty nine articles on different topics depict- ing Tirthankar Mahavira's thoughts and teachings, few of which have been taken from the proceedings of various Seminars.
This work presents the viewpoints of the Non - Jaina opponents also, viz, Baneld has, Naiyavikas, Sankhyas and it repudicates them in a very plain, simple and lucid way. It contains a literal english translation, notes and critical introduction. An index of sanskrit words with their english meaning is also added.
JAIN TARKA BHASA
LORD MAHAVIRA AND HIS TIMES
By - Dayananda Bhargava; Published by Motilal Banarsidas, Bunglow Road, Jawahar Nagar, Delhi 7; Price - Twenty Rupees.
By - Dr. Kailash Chandra Jain; Publisbed by - Motilal Banarsidas, Bunglow Road, Jawahar Nagar, Delhi 7; Price - Sixty Rupees.
The present book is a popular tratise of well known Jain Logician Sri Yasovijaya Gani who flourished in the 17th century, and who, on account of his vast erudition
The book deals with the history and culture of India during the age of Mahavira in the Sixth Century B. C. It discus.
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ses the antiquity of Jainism by ascertain ing the traditions of Jaina Scriptures with the recent archeological discussions and also describes the teachings of Lord Mahavira based on historical fact.
The subject matter of the book is divided into ten chapters. Chs. I & II deals with the origin of Jainism, its antiquity and long continuous history depicting the circumstances that gave birth to lord Mahavira. Chs. III & IV are devoted to the life of the great Lord and his teachings. Chs V to VIII describe the religious sects, political conditions and institutions, social organrisations and economic planning in Mahavira's time. Ch. IX brings out the special features of art and architecture and gives in detail the description of currency produced during the period. Ch. X describes the progress achieved in the literacy, technical and scientific fields The study is also documented with bibliography, general index & maps.
have beautifully sketched the ideal life of Lord Mahavira and brilliantly given expression to his noble teachings. This book, edited by Sri. Akshaya Kumar Jain, eminent journalist & writer of the nation, starts with the massage of H. H. Muni Sushil Kumar, President to World Fellowship of Religions, New Delhi and forwarded by Dr. Karan Singh, Minister of Health and Family Planning, Union of India. The book contains contribution of nine articles in all, from eminent scholars of the world, Mr. Hermann Jacobi, Bonn; Mr. Heinrich Zimmer, Germany; Mr. Max Weber; Mr. Paul Tuxen; Mr. J. N. Farquhar, Germany; Mr. A. C. Bouquet, Cambridge University; Mr. Rev. E. Os. bern Martin; Mr Edmund Buckley, U. S. A; and Mrs. N. R. Guseva, U. S. S. R.
Each article is thoroughly an original and documented piece of work with graphic narrations in a penetrating style. Altogether the book throws a new light on some of the important aspects of Jainism and could be regarded as a va.uable addition to existing literature on Indian Religions,
LORD MAHAVIRA IN THE EYES OF
FOREIGNERS
Edited by - Akshaya Kumar Jain; Published by - Meena Bharti., 1508 Wazir Nagar, New Delhi 110,003; Price - Fourty Rupees.
Employing the most authentic sources, the scholars have explored new fields in tracing the emergence of Jainism as a faith and have dealt in greater details with its multifarious aspects such as history and culture, language and literature,
This book, as its title denotes, includes scholary contributions by eminent scho- lars from various parts of the world, who
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religion and philosophy, art and architecture, customs and conventions, mythology and legend, reform and development.
The subject matter of the book is divided into five parts, viz - I Introduction, II. Epistemology, III. Psychology, IV. Metaphysics and V. Ethics.
OUTLINES OF JAINISM
TIRTHANKAR MAHAVIRA, LIFE AND
PHILOSOPHY
By - S. Gopalan, Centre of Advanced study in Philosophy, University of Madras; Published by - Wiley Eastern Limited, New Delhi; Price - Fourteen Rupees.
By - Vidwat Ratna, S. C. Diwaker, Sastri; Published by - Jain Mitra Mandal, Dharam pura, Delhi, Price - Ten Rupees.
This book is an introductory work on Jaip Philosophy with comprehensive coverage of the whole Jain tradition from its ancient beginings to the present day deve. lopments. The book is written in such a manner that it covers all the essentials in short and concise manner. The author; has made a sympathetic study of Jaina tenents; and his discussions about Jaina epistemology, psychology and metaphysics are thought provoking and testify to his scholarly approach to the subject.
The book presents in brief, the life of Tirthankar Mahavira and Jain Teachings. This book contents 18 Chapters. Most of them are new and written for this took particularly and few of them are esseys and lectures of the author which were published as "Glimpses of Jainism" A new chapter "Gems of Jinavani", has been written so that the seekers after truth can enjoy the wisdom, depth, beauty and sublimity of Jain teachers and seers at a glance.
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भगवान महावीर का पच्चीस सौं वा निर्वाण महोत्सव और ग्वालियर संभाग
UD PC
भगवान महावीर के निर्वाण की पच्चीसवीं शता- प्रारम्भ की गई जो ग्वालियर संभाग के नागरिकों के ब्दि पूर्ति के अवसर पर विश्वभर में "भगवान महावीर लिये एक अभूतपूर्व उपलब्धि है। "महापरिनिर्वाण महोत्सव वर्ष " का आयोजन किया गया। इस अवसर पर भगवान महावीर के उपदेशों आयोजन समितियों का गठन-संभाग के सभी के प्रचार तथा प्रसार तथा लोक-कल्याण के उद्देश्य से जिलों में तीन स्तरों पर इस वर्ष में विभिन्न कार्यक्रमों अनेकों मन्दिरों, कीति-स्तम्भों, स्मारकों एवं लोक- के आयोजनार्थ विभिन्न समितियों का गठन किया गया। कल्याणकारी संस्थानों के निर्माण, ग्रन्थ एवं अन्य साहि- प्रथमत: प्रत्येक जिले में जैन समाज के विभिन्न आम्नायों त्य प्रकाशन, बैद्धिक कार्यक्रम (प्रवचन, व्याख्यानमाला, की जिला समितियाँ गटित हुई। इन समितियों की परिचर्चा, गोष्ठी एवं सभा आयोजन आदि), धार्मिक तहसील, विकास खण्ड एवं ग्राम स्तर पर भी शाखाएँ समारोह आदि के आयोजन के अनेकों कार्य सम्पन्न हुए गठित की गई। द्वितीयत : सम्पूर्ण जैन समाज की अथवा प्रारम्भ किये गए। ग्वालियर संभाग के नागरिकों सम्मिलित जिला समितियां गठित की गई तथा ने भी इस पुनीत वर्ष में यथाशक्ति विविध समारोहों ततीयत: शासकीय स्तर पर प्रत्येक जिला मुख्यालय का आयोजन किया तथा अनेकों स्थाई निमार्ण कार्य पर जिलाध्यक्ष की अध्यक्षता में जन समितियाँ गठित एवं योजनाएँ प्रारम्भ की, जिनके द्वारा न केवल की गई। इन सभी समितियों ने अपने-अपने स्तर पर भगवान महावीर के उपदेशों का प्रचार-प्रसार संभव विभिन्न कार्य हाथ में लिये जिनके प्रयासों से ग्वालियर हुआ, वरन उनके मानव धर्म की भावना के अनुरूप संभाग में उल्लेखनीय कार्यक्रम समारोह एवं निर्माण अनेकों मानव हितैषी लोक-कल्याणकारी योजनाएँ भी आयोजित हुए।
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धर्माचार्यों का आगमन एवं मार्गदर्शन-समा- से तीन अन्य नवीन मन्दिरों का निर्माण हआ। भिण्ड रोह वर्ष की योजनाओं को अनेकों आचार्यों से प्रेरणा में मेहगांव, फूफ तथा गोरमी ग्रामों में; शिवपुरी जिले
मुनि श्री चन्दनमलजी व उनका संघ जिले के सिरसौद; गुना जिले के पिपरई तथा मुरेना जिले इस सम्पूर्ण वर्ष में ग्वालियर संभाग में विभिन्न स्थलों के सबलगढ नामक स्थानों पर भगवान महावी पर रहा व, वे, निर्वाण वर्ष के महत्व को प्रतिपादित मन्दिरों का निर्माण कार्य सम्पन्न हुआ। इसी क्रम में करते हए इस वर्ष में स्थायी महत्व के कार्यों के सचा- संभाग में स्थित अनेकों प्राचीन जैन मन्दिरों का विकास लन को निरन्तर प्रेरणा देते रहे। उन्होंने निरन्तर चार एवं जीर्णोद्वार भी कराया गया जिन पर लगभग डेढ़ चातुर्मास (1973-76) भी ग्वालियर में ही किये, तथा लाख रुपये व्यय किये गए। इनमें माधवगंज मन्दिर ग्वालियर में निर्वाण वर्ष के कार्यक्रमों को मार्गदर्शन लश्कर में पनिहार की प्राचीन एवं विशाल जिन प्रतिप्रदान किया। उनके अतिरिक्त निर्वाण वर्ष में दिगम्बर माओं की पुनस्र्थापना व वेदी निर्माण. बड़ा मन्दिर, आम्नाय के भी चार प्रमुख आचार्य श्री 108 मुनिश्री गस्त का ताजिया लश्कर में स्वर्णादि का कलात्मक सम्भव सागरजी महाराज, श्री 108 मुनिश्री वीर कार्य, नया बाजार मन्दिर लश्कर में शिखर निर्माण, सागरजी महाराज, श्री 108 मुनिश्री पुष्पदंत सागरजी चंपाबाग मन्दिर लश्कर में नवीन वेदी निर्माण, वासमहाराज तथा श्री 105 एलक सन्मत्त सागरजी पूज्य पंचायती मन्दिर ग्वालियर नगर में शिखर निर्माण महाराज अपने संघों सहित ग्वालियर पधारे और कुछ तथा मगरौनी (शिवपुरी), आरौन (गुना) एवं दिवसों ग्वालियर में रहकर धर्मप्रभावना की तथा अम्बाह (मुरेना) में मन्दिर निर्माण कार्य प्रमुख हैं। निर्वाण वर्ष के कार्यक्रमों को प्रेरणा एव मार्गदर्शन प्रदान किया।
तीर्थ कर महावीर कीति-स्तम्भ-देशभर में
तीर्थकर महावीर के उपदेशों के प्रचारार्थ स्थापित लोककल्याणकारी एवं निर्माण कार्य
तीर्थकर महावीर कीर्ति-स्तम्भों की श्रृंखला में ग्वालियर
संभाग में पन्द्रह स्थानों पर कीति-स्तम्भों की स्थापना - मंदिर निर्माण :- इस वर्ष में ग्वालियर संभाग
का निश्चय किया गया। ग्वालियर जिले में महावीर में बारह नए मन्दिरों का निर्माण हुआ जिसपर लग
उद्यान, हायकोर्ट रोड, लश्कर, ग्वालियर में; भिण्ड जिले भग 6.35 लाख रुपयों की लागत का अनुमान है। में भिण्ड नगर, मौ एवं मेंहगांव में; शिवपुरी जिले में इनमें लश्कर में श्री कन्हैयालालजी अग्रवाल द्वारा शिवपरी नगर व मगरौनी में: मरैना जिले में मुरैना प्रदत्त दान से श्री पार्श्वनाथ ट्रस्ट ग्वालियर द्वारा एवं श्योपर में; दतिया जिले में सिद्धक्षेत्र सौनागिरजी व लगभग 85 हजार रुपये की लागत से दानाओली में दतिया नगर में; गुना जिले में गुना नगर, अशोकनगर व निर्मित "अहिंसा भवन एवं जिन मन्दिर", भिण्ड जिले जा
आरोन में स्थापित होनेवाले कीति-स्तम्भों में से अधिकके मौ ग्राम के जैन समाज द्वारा लगभग डेढ़ लाख रुपयो तर का निर्माण कार्य लगभग पूर्ण भी हो चुका है व की लागत से एवं शिवपूरी में प्रमुखतः श्री नेमीचन्दजी शेष का शीघ्र ही पर्ण होने की आशा है। इनके निर्माण गोंदवालों द्वारा प्रदत्त दान से लगभग दो लाख रुपयों की
पर लगभग 5.25 लाख रुपयों के व्यय का अनुमान है। लागत से निर्मित जैन मन्दिर विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त लश्कर में श्री सत्यनारायण महावीर भवन- भगवान महावीर के उपदेशों के पहाडिया पर "जिन मन्दिर" दानाओली में "जैन भवन" प्रचारार्थ बहुउद्देशीय योजनाओं के क्रियान्वयन के उद्देश्य तथा डबरा मण्डी में वरैया पंचयाती मन्दिर" के नाम से केन्द्रीय समिति के निर्देश पर देश के प्रमुख केन्द्रों पर
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tapersusurprMURAT
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धर्मचक्र यात्रा
का
झलकियां
-धर्मचक्र के ग्वालियर आगमन पर आयोजित शोभा यात्रा का एक चित्र ।
+-इन्द्र के धर्मचक्र पर आरूढ़ श्री पारस कुमार गंगवाल को तिलक करते हुए जिलाध्यक्ष श्री रामकृष्ण गुप्त ।
-धर्मचक्र के ग्वालियर आगमन पर उसके स्वागत के अवसर पर भाषण करते हुए ग्वालियर के जिलाध्यक्ष श्री रामकृष्ण गुप्त । चक्र वाहन पर विराजित श्री मानिकचन्द गंगवाल तथा खड़े हुए वांये से दांये-धर्मचक्र प्रवाचक डा. प्रकाशचन्द्र जैन, मानिक चन्द्र जैन एडवो., मिश्रीलाल पाटनी।
-सोनगढ़ (गुजरात) से भारत यात्रा के दौरान ग्वालियर पधारे धर्मचक्र की शोभा यात्रा का एक चित्र ।
माता त्रिशलाकेसोरह
Jall
a tion
tergational
personal Use Only
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झलकियां
- केशलु चन समारोह
( वांये से दाये ) - श्री 105 क्षुल्लक धर्मसागर जी, श्री 108 मुनि संभव सागर जी, श्री 108 मुनि सुवर्ण सागर जी, व मुनि श्री चन्दनमल जी (प्रवचन करते हुए) ।
सजा - महावीर भवन निर्माण स्थल पर योजना का अवलोकन करते हुए प्रसिद्ध उद्योगपति श्री घनश्यामदासजी बिरला, उनकी वांयी ओर प्रसिद्ध उद्योग विशेषज्ञ श्री दुर्गाप्रसादजी मंडेलिया तथा वांयी ओर महावीर न्यास के उपाध्यक्ष श्री रामअवतार शर्मा ।
← (वायीं ओर) - श्री 108 मुनि संभव सागर जी धार्मिक प्रवचन करते हुए । ( दाहिनी ओर ) - प्रसिद्ध उद्योगपति श्री घनश्यामदास जी बिरला को महावीर भवन की योजना समझाते हुए महावीर न्यास के महामंत्री श्री मानिकचन्द्र गंगवाल ।
← (नीचे) - महावीर निर्वाण महोत्सव समारोह पर एक सभा को सम्बोधित करते हुए मध्यप्रदेश के मुख्य न्यायाधिपति न्यायमूर्ति श्री शिवदयाल जी ।
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"महावार भवन" के निर्माण का कार्यक्रम निश्चित किया सम्पत्ति के दान तथा जन सहयोग से "श्रीमती कस्तुरी गया था । इस सन्दर्भ में ग्वालियर में विशाल महावीर देवी जैन प्रसूति गृह" का निर्माण प्रारम्भ किया गया। भवन के निर्माण का निश्चय किया गया। इस हेतु वयोवृद्ध समाजसेवी श्री श्यामलाल जी पाण्डवीय ने म. प्र. शासन से 60 हजार वर्गफीट भूमि की मांग की इसका शिलान्यास किया। इसके भवन निर्माण का कार्य गई, जिस पर शासन द्वारा कम्पू प्रांगण में 30 हजार लगभग पूर्ण हो चुका है व शीघ्र इसका प्रारम्भ होने की वर्गफटी भूमि प्रदान कर दी गई है व शेष निकटवर्ती आशा है । इस पूरी योजना पर लगभग दो लाख रुपया भूमि की प्राप्ति के प्रयास जारी हैं। इस विशाल भवन व्यय होना अनुमानित है । इसके अतिरिक्त लश्कर में में एक आधुनिक आडिटोरियम, सभा, एवं गोष्ठी कक्ष, नयाबाजार स्थित जैन मन्दिर तथा शिवपुरी जिले के शोध संस्थान पुरातत्वीय संग्रहालय, आध्यात्मिक ग्रन्था- सिरसौद एवं रन्नोद ग्रामों में जैन औषधालय भवनों गार, पुस्तकालय एवं वाचनालय, साधु, सन्त एवं विद्वानों का निर्माण प्रारम्भ किया गया। के विश्राम कक्ष, वालोद्यान एवं पुष्पवाटिका होंगे। इस पूरी योजना पर लगभग 20 लाख रुपयों का व्यय अनु
. पुस्तकालय एवं वाचनालय-लोक सेवा, शैक्षमानित है । इसी क्रम में दतिया जिला मुख्यालय पर भी
णिक प्रसार एवं चरित्र निर्माण के उद्देश्य से संमाग में एक लाख रुपयों की लागत से महावीर भवन के निर्माण
अनेकों स्थानों पर पुस्तकालय एवं वाचनालय प्रारम्भ । की योजना है।
किये गए । लश्कर में श्री नया मन्दिर दानाओली श्री
चंपाबाग बीसपंथी पंचायती मन्दिर, जैन भवन दानाछात्रावास निर्माण एवं विकास-छात्रावासों के ओली, तथा श्री वीर जैन छात्रावास में; भिण्ड जिले में निर्माण एवं विकास की दृष्टि से भी इस वर्ष में महत्व- भिण्ड नगर तथा मौ, मेहगांव एवं अमायन ग्रामों में;
सम्पन्न हुए जिनपर लगभग डेढ़ लाख रुपयों शिवपुरी जिले में शिवपुरी नगर तथा सिरसौद एवं की लागत का अनुमान है। लश्कर स्थित “वीर जैन सुनारी ग्रामों में; गुना जिले में साढ़ौरा, आरोन एवं छात्रावास" में "डा० ओंकारप्रसाद दीवान स्मारक वामनखास ग्रामों में पुस्तकालयों एवं वाचनालयों का पुस्तकालय एवं वाचनालय भवन", "श्री श्यामलाल प्रारम्भ तथा कहीं-कहीं इस हेतु भवन निर्माण का भी पाण्डवीय स्टेडियम " तथा दस नये कमरों व विश्रांति प्रारम्भ किया गया। इन पर लगभग पौने तीन लाख गृह का निर्माण किया गया। शिवपुरी में श्री नेमीचन्द्र- रुपयों का व्यय अनुमानित है। जी गोंदवालों द्वारा तथा मौ ग्राम जिला भिण्ड में स्थानीय जैन समाज द्वारा जैन छात्रावासों का निर्माण महाविद्यालय विद्यालय एवं पाठशालाएँ -संभाग प्रारम्भ किया गया। इसी क्रम में भिण्ड नगर में भी एक
में शिक्षा प्रसार और चरित्र निर्माण के उद्देश्य से जैन छात्राव स के निर्माण की योजना हाथ में ली गई है।
अनेकों विद्यालयों एवं पाठशालाओं का निर्माण एवं
प्रारम्भ किया गया, जिन पर लगभग 5.4 लाख चिकित्सालय एवं प्रसूतिगृह-महापरिनिर्वाण रुपयों के व्यय का अनुमान है। मिण्ड नगर में 'श्रीमती वर्ष के अन्तर्गत विभिन्न स्थानों पर चिकित्सालयों एवं कुसुमबाई जैन कन्या महाविद्यालय" प्रारम्भ किया प्रसूतिगृहों का निर्माण किया गया। इन पर लगभग ढाई गया तथा इस हेतु भवन निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया लाख रु. की लागत का अनुमान है। इस क्रम में ग्वालियर गया। यहीं पूर्व से संचालित "जैन महाविद्यालय" में दो के उपनगर मुरार में शासन मे नि:शुल्क प्राप्त भूमि पर बड़े कमरों का निर्माण किया गया। इसके अतिरिक्त श्री सेठ दीपचन्दजी जैन मुरार द्वारा अपनी सम्पूर्ण भिण्ड जिले में मौ, अटेर, अमायन, परधना, गोहद, फूफ
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एवं गोरमी ग्रामों में पाठशालाएँ प्रारम्भ की गई । शिवपुरी जिले में शिवपुरी नगर तथा सिरसौद, मगरौंनी, पोहरी, एवं खनियाधाना में पाठशालाएँ प्रारम्भ की गई । गुना जिले में मुगावली, ईसागढ, राघोगढ़, अशोकनगर नामक कस्बों में विद्यालय प्रारम्भ किये गए। मरंना जिले में मुरैना नगर में विद्यालय भवन निर्माण तथा अम्बा, पोरसा, श्योपुर नामक कस्बों में पाठशालाएँ एवं विद्यालय प्रारम्भ किये गए। ग्वालियर जिले में लश्कर में पार्श्वनाथ जैन मन्दिर, दानाओली, डबरा तथा मगरौनी में पाठशालाएँ प्रारम्भ की गई। इनके अतिरिक्त श्री 13 पंथी दिगम्बर जैन मन्दिर माधवगंज लश्कर में तथा मुगावली ( गुना ) में शिवणकला प्रशि"क्षण विद्यालय प्रारम्भ किये गए ।
धर्मशाला एवं विश्रांति ग्रह - संभाग में अनेकों नवीन धर्मशालाओं एवं विश्रांति गृहों का निर्माण तथा विकास किया गया जिन पर लगभग 22.5 लाख रुपयों का व्यय अनुमानित है। इनमें ग्वालियर में दिगम्बर जैन धर्मशाला, चिक सन्तर मुरार में सवा लाख की लागत से विशाल हाल निर्माण शिवपुरी में श्री नेमीचन्द्र जी गोंदवालों द्वारा प्रदत्त दान एवं सहयोग से एक लाख रुपयों की लागत से नवीन धर्मशाला निर्माण, सिद्ध क्षेत्र श्री सौनागिरिजी में सवा बारह लाख रुपयों की लागत से एक नवीन धर्मशाला निर्माण तथा पुरानी धर्मशालाओं में नवनिर्माण एवं विकास, मुरैना, गुना एवं अशोकनगर में एक-एक लाख रुपये लागत की नवीन धर्मशालाओं के निर्माण की योजनाएँ प्रारम्भ की गई । इनके अतिरिक्त ग्वालियर उपनगर में बासपूज्य पंचायती मन्दिर धर्मशाला; भिण्ड जिले में फूफ, अमायन; शिवपुरी जिले में मगरौनी में; मुरैना जिले में श्योपुर नगर एवं अम्बाह में गुना जिले में थोवनजी व मुंगावली में; ग्वालियर जिले में अमरोल में तथा दतिया जिले में दतिया नगर में नवीन धर्मशाला निर्माण एवं पूर्व स्थित धर्मशालाओं का विकास किया गया ।
विभिन जैन सांस्कृतिक केन्द्रों के लिए सड़क निर्माण - निर्वाण महोत्सव वर्ष के अवसर पर प्रदेश शासन द्वारा सम्बन्धित विभागों को पुरातत्विक महत्व के जैन संस्कृति के केन्द्रों एवं दर्शनीय स्थल तक के लिए पक्की सड़कों के निर्माण के प्रयास किये गए जिनमें थोवनजी (गुना) एवं एक पत्थर की बावड़ी ( ग्वालियर दुर्ग ) प्रमुख हैं। इस हेतु योजनाएँ निर्मित एवं स्वीकृत भी की जा चुकी हैं परन्तु दुर्भाग्यवश अभी इनका क्रियान्वयन नहीं हो सका है ।
अन्य विविध लोक कल्याणकारी कार्य – भगवान महावीर के महापरिनिर्वाण के अवसर पर विविध प्रकार के अनेकों जनसेवी एवं लोक-कल्याणकारी कार्य भी सम्पादित किये गए। इन पर लगभग दो लाख रुपये व्यय किये गए । इनमें भिण्ड नगर, मौ फूफ (भिंड), शिवपुरी में कुआ निर्माण, अम्बाह (मुरैना), वामनधार, ईसागढ़, अशोकनगर - ( गुना) में प्याऊ निर्माण तथा अम्बाह (मुरैना), भिण्ड नगर, मौ एवं मेहगांव (भिण्ड ) में बालोद्यान एवं क्रीड़ांगन निर्माण की योजनाएँ प्रारम्भ की गई ।
धार्मिक उत्सव एवं समारोह
धार्मिक समारोह - भगवान महावीर के पच्चीस सौ वें निर्वाण महोत्सव वर्ष के अवसर पर अनेकों धार्मिक समारोह आयोजित किये गए। ग्वालियर संभाग में इस वर्ष में भिण्ड, शिवपुरी तथा पोरसा (मुरैना) में विशाल पंच कल्याणक समारोह आयोजित हुए, जिनपर लगभग 6.5 लाख रुपये व्यय किये गए। इनके अतिरिक्त विभिन्न मन्दिरों आदि में तेरह द्वीप मण्डल विधान, सिद्ध चक्क मण्डल विधान, पंचकल्याणक विधान, दस लक्षण विधान के पूजा समारोह, वरगोंड़ा यात्रा, रथयात्राएँ, निर्वाण लाडू महोत्सव, सामूहिक क्षमा वाणी समारोहों आदि के अनेकों आयोजन किए गए, जिनमें अनेकों धर्माचार्यों एवं विद्वानों के प्रवचन आयो
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जित हुए। भगवान महावीर के पाँचों कल्याण सम्बन्धी दिवसों पर एक-एक सप्ताह के कार्यक्रम आयोजित किये
गए ।
प्रदर्शनी - निर्वाण वर्ष में स्थान-स्थान पर भगवान महावीर के जीवन-दर्शन-देन के सम्बन्ध में जन सामान्य को जानकारी देने के उद्देश्य से ग्वालियर में दो प्रकार की प्रदर्शनियों के प्रदर्शन को संगठित किया गया नयामन्दिर, दानाओली की प्रबन्ध समिति के तत्वाधान में एक प्राचीन साहित्य एवं कला प्रदर्शनी संगठित की गई। इसमें प्राचीन जैन साहित्य, चित्र एवं हस्तशिल्प, विभिन्न जैन तीर्थों के चित्र, प्रमुख जैन ग्रन्थ एवं शास्त्रादि, संकलित किये गए हैं। इनमें स्वर्ण अक्षरी गुटके, चावल के एक दाने पर 35 अक्षरी णमोकार मंत्र; स्फटिक-मरारिपुखराज पन्ना - कसौटी पाषाण आदि की जिन प्रतिमाएं विशेष रूप से दर्शनीय हैं। जैन नवयुवक संघ, नया बाजार पंचायती मन्दिर द्वारा "भगवान महावीर पंच कल्याणक प्रदर्शनी" संगठित की गई। इसमें चित्रमय झांकियों के द्वारा वर्द्धमान महावीर के सम्पूर्ण जीवनदर्शन को सरल एवं सुबोध पोली में प्रदर्शित किया गया है। यह प्रदर्शनी देश के अनेकों भागों में लगाई गई जिसे लगभग ढाई लाख व्यक्तियों ने देखा ।
धर्मचक्र स्वागत समारोह - राष्ट्रीय एवं प्रान्तीय स्तर पर स्थापित समितियों द्वारा देशभर में धर्मचक्र का परिभ्रमण किया गया | ग्वालियर में भी दो धर्मचक्र पधारे। प्रथमतः मध्यप्रदेश की राज्य समिति द्वारा इन्दौर से प्रारम्भ धर्मचक्र ग्वालियर पधारा। इस धर्मचक्र ने, सारंगपुर, ब्यावरा, बीनागंज, कुंभराज, राघोगढ़, रूठयाई, गुना, आरोन, साठोरा, अशोकनगर, ऑडर, बहादरपुर मुंगावली, चन्देरी, खनियाधाना ईसागढ़, कोलारस, शिवपुरी, अर्थाखेड़ा, बजरंग गढ़, छोटो बामोर, मुहारी कलाँ, चमरूड, नंरवर, मगरौनी, पीरोठ, खतोरा, लुकवासा, शिवपुरी, डबरा, लश्कर, ग्वालियर, मुरार, गोहद, मौ, मेहगांव, गोरमी, भिण्ड, फूफ, अटेर, पोरसा
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अम्बाह बरे, मुरैना, बामोर, जीरा, सबलगढ़, श्योपुरकलाँ, दतिया, सोनागिरि, करैरा, भितरवार व कैलारस स्थानों पर भ्रमण किया। सभी स्थानों पर इसके स्वागत में समारोह आयोजित किये गए व विभिन्न बोलियों तथा गुप्तदान के रूप में 2,59,553 रुपये दानस्वरूप प्राप्त हुए।
तदुपरान्त सोनगढ़ से प्रारम्भ धर्मचक्र भी ग्वालियर पधारा । यह धर्मचक्र भी ग्वालियर संभाग में अनेकों स्थलों पर गया जहां इसके स्वागत में विशाल समारोहों तथा इसकी शोभा यात्राओं का आयोजन हुआ। इस अवसर पर आयोजित विभिन्न सभाओं में अनेकों विद्वानों के प्रवचन हुए। धर्मचक्र के रक्षक, वाहक, ध्वज रक्षक आदि की बोली में भी ग्वालियर संभाग के विभिन्न स्थानों से उल्लेखनीय दानराशि प्राप्त हुई ।
प्रवचन व्याख्यान, गोष्टी, सभा एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम समारोह वर्ष में संभाग में विभिन्न स्थानों पर अनेकों प्रवचनों, सभाओं आदि के आयोजन किये गए। ग्वालियर में पधारे (पूर्व वर्णित ) विभिन्न धर्माचायों ने अपनी दैनिक सभाओं में धार्मिक प्रवचन किये जिससे धर्म प्रभावना एवं जनजागरण का महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न हुआ। मुनिश्री चन्दनमलजी सम्पूर्ण वर्ष यहीं रहे, उनके प्रवचनों से प्रभावित होकर अनेकों हरिजनों एवं दलितों ने मांसाहार एवं मद्यपान त्याग के व्रत लिये एवं इन दोषों का सामूहिक त्याग किया ।
वर्ष के प्रारम्भ में आयोजित निर्वाण महोत्सव सप्ताह में वीर शिक्षा समिति व जैन नवयुवक संघ के सहयोग से वीर जैन छात्रावास में एक सप्ताह तक जैन मेला आयोजित किया गया। इस अवसर पर परिचर्चा, गोष्ठी, युवक सम्मेलन एवं वाद विवाद प्रतियोगिता आयोजित हुई। महावीर जयन्ती पर भी एक सप्ताह के कार्यक्रम आयोजत किये गए। इनमें समा बालप्रतियोगिताएं, खेलकूद एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रमुख थे। इसके अतिरिक्त वर्ष भर अनेकों अवसरों पर प्रवचन,
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व्याख्यान, गोष्ठी, सभा, वादविवाद-खेलकूद, एवं सांस्कृ- मक्खनलाल शास्त्री मुरेना, पं. ज्ञान चन्द वाणीभूषण तिक प्रतियोगिताएँ, नाटक, नृत्य नाटिका, धार्मिक विदिशा, पं. राजमल शास्त्री मोपाल, प्रो. आर. सी. संगीत सभाएं आदि आयोजित की गई। वर्ष समापन मेहता ग्वालियर, मुख्य न्यायाधिपति शिवदयाल के अवसर पर बीमपंथी चम्पाबाग धर्मशाला, नई सड़क श्रीवास्तव, न्यायमूर्ति सी. एम. लोड़ा, न्यायमूर्ति यू. एन. में जीवाजी विश्वविद्यालय द्वारा पांच दिवसीय व्याख्यान वाच्छावत, न्यायमूर्ति एस. आर. व्यास, पी. के. माला आयोजित की गई। साथ ही स्थानीय समिति द्वारा श्रीवास्तव ग्वालियर पं. अभयचन्द्र शास्त्री विदिशा, धार्मिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम एवं सामूहिक रथयात्रा मिश्रीलाल चोधरी गुना, श्रीमती मायादेवी चोरडिया आयोजित की गई।
ग्वालियर,प.धर्मचन्द्र शास्त्री सागर,पं.कपूरचन्द्र वरैया
ग्वालियर, सत्यन्घर कुमार सेठी उज्जैन, चन्दनमल बंद वर्षभर में स्थानों-स्थानों पर अनेकों व्याख्यानों, जिनमें
वित्त मंत्री राजस्थान, पं. हरिहर निवास द्विवेदी एडवो. परिचर्चाओं एवं गोष्ठियों एव सभाओं के आयोजन किये ग्वालियर
ग्वालियर, रमेशचन्द्र खांडेकर पूर्व सांसद ग्वालियर, चन्द्र गए जिनमें सर्वश्री मोहनलाल सुखाडिया, राज्यपाल मोहन नागोरी पत्रकार ग्वालियर, रवीन्द्र मालव ग्वातामिलनाडु, अगरचन्द नाहटा बीकानेर, डा० हुकुमचन्द लियर, श्रीमती सुशीला खाण्डेकर ग्वालियर, आतमदास, भारिल्ल जयपुर, पं० दयाचन्द शास्त्री सागर, मुख्यमत्री
पूर्व सांसद ग्वालियर डा. धर्मवीर ग्वालियर, राजेन्द्र श्री प्रकाश चन्द सेठी, लोकनिर्माण मंत्री गुलाबचन्द
सिंह, लोक निर्माण राज्य मंत्री, ग्वालियर, निर्मल कुमार तामोट भोपाल, गोरेलाल शुक्ल सदस्य म. प्र. राजस्व जैन एडवो., डा. वीरेन्द्र गंगवाल, ग्वालियर, आवि अनेक मंडल ऋषि कुमार पाण्डे सभागीय आयुक्त ग्वालियर, विद्वानों शिक्षाविदों एवं समाजसेवियों के व्याख्यान श्यामलाल पाण्डवीय भू.पू. उद्योग मंत्री ग्वालियर,
आयोजित हुए। श्रीमती ज्ञानवती सक्सेना जबलपुर, श्रीमती चन्द्रकला सहाय भू. प. उप शिक्षामंत्री ग्वालियर, ब्रिगेडियर पदम- भगवान महावीर के पच्चीस सौ वें निर्वाण महोत्सव श्री भवन चन्द्र पान्डे, श्रीमती रूपवती किरण जबलपुर, के अवसर पर वर्ष भर ग्वालियर संभाग के कोने-कोने एम. एन. देशपान्डे डायरेक्टर जनरल आकियालाजी- में महावीर स्वामी के सन्देशों एवं उपदेशों के प्रचारार्थ कल सर्वे आफ इण्डिया दिल्ली, डा. वी. वी. लाल इन्स- अनेकों कार्यक्रम आयोजित हए, साथ-ही-साथ इस टीटयट आफ । डवान्स स्टडीज, शिमला, पं. कैलाशचन्द्र उद्देश्य से स्थाई रूप से कार्य करने हेत विभिन्न संस्थाओं शास्त्री सिद्धान्ताचायं वाराणसी, पं० परसराम शास्त्री, एवं न्यासों का निर्माण तथा अनेकों जनसेवी एवं लोकइन्दौर, सरदारसिंह चोरड़िया ग्वालियर ब्र. शकुन्तला कल्याणकारी कार्यों का आयोजन एवं सम्पादन किया देवी ललितपुर, भारतभूषण त्यागी ग्वालियर, डा. के.
गया । ग्वालियर संभाग में इस सन्दर्भ में निर्मित ऐसी डी. वाजपेयी सागर, यशपाल जैन दिल्ली, हीरालाल विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन पर लगभग चालीस श्रीमाल ग्वालियर, पं. डा. लालबहादुर शास्त्री दिल्ली, लाख रुपयों का व्यय अनुमानित है। इस प्रकार भगवान गोविन्दनारायण टण्डन कुलपति जीवाजी विश्वविद्यालय महावीर का महापरिनिर्वाण महोत्सव ग्वालियर संभाग ग्वालियर, मिश्रीलाल गंगवाल इन्दौर, डॉ. महेन्द्र, के जन-सामान्य को वर्षों स्मत रहेगाव इस अवसर पर सागर प्रचंडिया अलीगढ़, देवकुमार सिंह कासलीवाल निर्मित विभिन्न स्मारक एवं लोक-कल्याण संस्थान आनेइन्दौर, बाबूलाल जैन जमादार बडोत (मेरठ), वाले यगों तक जन-सामान्य के प्रेरणा स्रोत बने पं. श्यामसुन्दर लाल शास्त्री फिरोजाबाद पं० और
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"महावीर भवन" शिलान्यास समारोह
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ऊपर (वांये ) - मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री प्रकाशचन्द्र जी सेठी को वैज लगाते हुए महावीर न्यास के मंत्री श्री मिश्रीलाल पाटनी । (ऊपर दांये ) - महावीर भवन के शिलान्यास के अवसर पर भूमि पूजन करते हुए मुख्यमंत्री श्री प्रकाशचन्द्र सेठी ।
मध्य में - महावीर न्यास के अध्यक्ष श्री सरदारसिंह चोरडिया, उपमंत्री श्री चन्द्रप्रभाष शेखर (वांये) तथा शिक्षामंत्री श्री अर्जुनसिंह (दाहिने) का स्वागत करते हुए ।
नीचे (वांये ) – मुख्यमंत्री श्री सेठी समारोह के अध्यक्ष वयोवृद्ध समाजसेवी श्री श्यामलाल पाण्डवीय भू. पू. उद्योग मंत्री का अभिनन्दन करते हुए। (दाहिने) महावीर भवन के शिलान्यास के अवसर पर आयोजित ain E समारोह में सभा को उदबोधित करते हुए मुख्य अतिथि श्री प्रकाशचन्द्र सेठी ।
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A
NRARANA
म. प्र. उच्च न्यायालय भवन के निकट स्थित “महावीर उद्यान"
में निर्मित "तीर्थकर महावीर कीर्ति स्तम्भ"
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भगवान महावीर महापरिनिर्वाण महोत्सव वर्ष की स्थाई उपलब्धि "श्री २५००वाँ भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव स्मारक न्यास"
ए0 PC
तीर्थकर महावीर के 2500वें निर्वाण महोत्सव उद्देश्यवर्ष के अन्तर्गत जहाँ राष्ट्रीय तथा अन्तराष्ट्रीय स्तर
न्यास के निम्नलिखित उद्देश्य होंगे: पर अनेकों कार्यक्रमों एवं समारोहों का आयोजन किया गया वहाँ विभिन्न स्तरों पर स्थायी प्रकृति के भी
(क) भगवान महावीर के 2500वें निर्वाण महोअनेकों कार्य सम्पन्न हए अथवा प्रारम्भ किये गए ।
त्सव को स्थाई रूप देने के लिये ग्वालियर ग्वालियर में भी जिला स्तर पर कार्यरत शासकीय
नगर के प्रमुख स्थान पर शासन द्वारा प्राप्त समिति तथा सामाजिक समितियों की परस्पर सहमति
भूमि पर महावीर भवन का निर्माण करना से भगवान महावीर के उपदेशों के प्रचार, प्रसार तथा
एवं उसके साथ पुस्तकालय का भी प्रावधान तत्सम्बन्धी स्थायी स्मारकों के निर्माण, विकास, संरक्षण
करना एवं उसमें महावीर की वाणी एवं उनके
उपदेशों को अंकित करना तथा महावीर तथा संचालन आदि के उद्देश्य से स्थायी रूप से कार्य करने के लिये "श्री 2500 वो भगवान महावीर निर्वाण
भवन का उनके सिद्धांतों के अनुरूप उसका
प्रयोग करना, सार्वजनिक उपयोग में लाना । महोत्सव स्मारक न्यास, ग्वालियर" का गठन किया गया तथा यह निश्चित किया गया कि यह न्यास निम्न (ख) भगवान महावीर के सिद्धांतों का प्रचार व उद्देश्यों की पूर्ति हेतु विभिन्न कार्य करेगा।
प्रसार करना तथा उनकी स्मृति में स्मारक,
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पुस्तकालय, वाचनालय, स्वाध्याय भवन, संग्र
पत्रिकायें, परचे, स्मारिकायें आदि का हालय, सभा भवन, बाल क्रीड़ा केन्द्र आदि
प्रकाशन । निर्मित करना।
(थ) समय-समय पर स्वयं या विभिन्न शैक्षणिक (ग) भगवान महावीर की स्मृति को स्थायी रूप देने
समाजसेवी संस्थाओं के सहयोग से भगवान हेतु पाषाण स्तम्भ, शिलालेख, अभिलेख, कीर्ति
महावीर एव उनके दर्शन से सम्बन्धित विषयों स्तम्म, आदि का निर्माण करना, जिन पर
पर वाद-विवाद, निबन्ध, लेख, कहानी, भगवान महावीर के जीवन से सम्बन्धित
चित्रकला पर प्रतियोगितायें आयोजित करना । घटनाओं का अंकन करना आदि ।
विजयी प्रतियोगियों को पुरस्कृत करना
आदि। (घ) पुरातत्व, कला एवं स्थापत्य का सचित्र प्रामा
णिक सर्वेक्षण करना तथा शास्त्रों से संकलित (द) भगवान महावीर के धार्मिक सिद्धान्तों एवं उपदेशों, सक्तियों का संग्रह विभिन्न भाषाओं
उपदेशों के प्रचार-प्रसार को रचनात्मक एवं में करना।
क्रियात्मक रूप देने हेतु उपरोक्त कार्यों से
मिलते-जुलते अन्य कार्य करना। (च) भारतीय दर्शन, जैन दर्शन एव प्राचीन भारतीय
सरकृति, समाज, कला व स्थापत्य आदि विषयों (प) सभी धर्मों में सहिष्णुता एवं सामंजस्य का पर शोध कार्य करनेवाले छात्रों को पदक,
वातावरण निर्माण करना एवं उसके लिये छात्रवृत्ति अथवा शोधवृत्ति प्रदान करना तथा
सर्वधर्म-सम्मेलन आदि का आयोजन करना इस प्रकार के अध्ययन को प्रोत्साहित करना ।
(फ) भगवान महावीर के सिद्धान्तों के अनुरूप (छ) भारतीय संस्कृति में भगवान महावीर एवं
जनसाधारण की आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, दर्शन का क्या योगदान है इस बाबत अंग्रेजी
नैतिक उन्नति के लिये तथा उसकी ज्ञान वृद्धि व भारतीय भाषाओं में अनुवादों, पुस्तिकाएँ
के कार्य करना, उनको प्रोत्साहित करना तथा प्रकाशित कर जनसाधारण में वितरण करना।
उक्त उद्देश्यों की पूर्ती हेतु संस्थायें स्थापित (ज)विश्वविद्यालय तथा अन्य शिक्षण संस्थाओं
करना तथा इन उद्देश्यों के हेतु चल रही अन्य तथा नगर में समय-समय पर विचारगोष्ठियों,
संस्थाओं, समितियों तथा संघों की सहायता भाषण मालाओं,सेमीनारों आदि का आयोजन
करना। करना जिनमें भगवान महावीर के विशेष
न्यास मण्डल हेतु दो प्रकार के सदस्य वर्ग रखे सिद्धान्त, अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांत आदि के
गए हैं। प्रथमतः सस्थाएँ एवं संस्थान, जो न्यूनतम सम्बन्ध में विचार-विमर्श करना और जीवाजी
ढाई हजार रुपया न्यास को प्रदान करें, तथा द्वितीयतः विश्वविद्यालय में जैनोलॉजी पर रिसर्च
व्यक्तिगत सदस्य जो न्यूनतम एक हजार रूपया न्यास अध्ययन हेतु पथक चेयर की स्थापना करना।
को प्रदान करें। न्यास को प्रारम्भिक सदस्य के रूप में (त) भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों प्रथम वर्ग के तेईस (23) तथा द्वितीय वर्ग के बासठ
तथा उपदेशों के प्रचार-प्रसार हेतु पत्र- (62) सदस्यों की स्वीकृति प्राप्त हुई। न्यास मण्डल
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की प्रथम बैठक में न्यास का विधान स्वीकृत कर प्रथम कार्यकारिणी निर्वाचित की गई जिसमें श्री सरदारसिंह चोरडिया अध्यक्ष सर्वश्री तेजमल हर्षावत, रामअवतार शर्मा तथा केशरीमल गंगवाल उपाध्यक्ष श्री मानिकचन्द्र गंगवाल एडवोकेट महामंत्री, सर्वश्री मानिकचन्द्र जैन, टीकमचन्द्र बापना तथा महेन्द्र कुमार जैन मंत्री तथा श्री गंगाधर सरावगी कोषाध्यक्ष तथा बाईस अन्य महानुभाव कार्यकारिणी के सदस्य मनोनीत किये गए। महावीर भवन
म्याम ने अपनी प्रारम्भिक गतिविधि के रूप में जहाँ निर्वाण वर्ष में ग्वालियर में आयोजित प्रमुख कार्यक्रमों में सक्रिय सहयोग दिया, वहाँ गालियर में स्थायी रूप से रचनात्मक गतिविधियों के संचालन हेतु "महावीर भवन" के रूप में एक ऐसे स्थायी एवं आधुनिक केन्द्र के निर्माण का निश्चय किया जिसमें एक विशाल सभाग्रह (आडीटोरियम) के अतिरिक्त शोध संस्थान, पुरातत्वीय संग्रहालय, कला वीथिका, अध्यात्मिक पुस्तकालय एवं वाचनालय, साधु-सन्तों तथा विद्वजनों के स्वाध्याय एवं विश्राम कक्ष की पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध हों। इसके निर्माण हेतु प्रसिद्ध वास्तुविद श्री लालपर एवं ऐसोशियेट्स आर्कटिक्टर एण्ड इन्जीनियर्स, नई दिल्ली से इसका डिजायन तथा एस्टीमेट तैयार कराया गया, जिसके अनुसार इस पर लगभग 20 लाख रुपया व्यय होने का अनुमान है। न्यास ने मध्यप्रदेश शासन से इस हेतु कम्पू मैदान में 300x200 फीट का भूखण्ड प्रदान करने की मांग की जिस पर शासन ने प्रारम्भिक रूप से 200 x 150 फीट का भूखण्ड लीज पर न्यास को प्रदान करने की स्वीकृति दे दी, शेष के लिये न्यास अभी भी प्रयासरत है ।
कम्पू मैदान स्थित इस भूखण्ड पर बुधवार, दिनांक 17 जुलाई 1974 को प्रातः दस बजे मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री माननीय प्रकाशचन्द्रजी सेठी द्वारा इस भवन की आधार शिला रखी गयी। इस अवसर
पर बयोवृद्ध समाजसेबी श्री श्यामलालजी पाण्डवीय (भू०पू० उद्योग मंत्री० म०मा०शासन) की अध्यक्षता में पदमा विद्यालय के सरस्वती भवन में उदघाटन समा रोह में पूज्य मुनि श्री चन्दनमल ने भी इस योजना को अपना आशीर्वाद दिया तथा न्यास अध्यक्ष श्री सरदारसिंहजी चोरडिया ने इस योजना का विस्तृत परिचय प्रस्तुत किया। इस अवसर पर शिलान्यास में प्रयुक्त कभी एवं तसली के विक्रय की बोली के रूप में न्यास को चालीस हजार रुपयों के दान के भी वचन प्राप्त हुए। इसके साथ ही इस योजना के हेतु मध्यप्रदेश शासन से पचास हजार रुपये तथा नगरपालिक निगम, ग्वालियर से एक लाख रुपयों का अनुदान भी स्वीकृत किया गया ।
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न्यास मण्डल के विशेष अनुरोध पर देश के प्रसिद्ध उद्योगपति माननीय घनश्यामदास जी बिरला ने निर्माण स्थल पर दि. 18 मार्च 1975 को उनके सम्मान मे आयोजित एक समारोह में भवन की योजना का अवलोकन किया तथा उस पर अपने सुझाव दिये । इस अवसर पर माननीय विरलाजी ने "महाबीर भवन" के निर्माण हेतु उदारतापूर्वक ढाई लाख रुपयों की धनराशि दानस्वरूप प्रदान करने की घोषणा की । इस प्रकार व्यास को आर्थिक साधन जुटाने की दिशा में पर्याप्त एवं प्रोत्साहक आश्वासन एवं सहयोग उपलब्ध हुआ जिससे इसके निर्माण कार्य को शीघ्र पूरा करने के प्रयास किये गए ।
स्थान के प्रसंग को लेकर दुर्भाग्यवश नगर के कुछ राजनीतिक तत्वों ने अपने विरोध के माध्यम से उसे राजनीतिक रूप देने का प्रयास किया, फलस्वरूप निर्माण कार्य स्थगित कर दिया गया । इससे योजना के प्रोत्साहकों को तीव्र वेदना हुई । न्यास मण्डल के अध्यक्ष श्री सरदारसिंह चोरडिया ने घोषणा की कि यदि नगर का एक भी व्यक्ति या वर्ग इसका विरोध करेगा तो न्यास, इस योजना को जो कि ग्वालियर के जनसामान्य के हितार्थ एक अभूतपूर्व उपलब्धि के रूप में
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क्रियान्वित किया जाना है, स्थगित कर देगा। जिसके चारों ओर भगवान महावीर के प्रमुख उपदेश परिणामस्वरूप यह योजना विमत में एक बड़े अन्तराल अंकित किये गए हैं। स्तम्भ के चारों ओर का उद्यान तक स्थगित रही, परन्तु यह प्रसन्नता की बात है कि विकसित किया जा रहा है. जिसके शीघ्र पूर्ण होने की अव इस प्रकार के संकेत मिले हैं कि ग्वालियर के सभी आशा है । ऐसी अपेक्षा है कि आगामी महावीर निर्वाण वों के नागरिक. इसके निर्माण में तीब्र रुचि रखते हैं, दिवस तक इस स्तम्भ का उद्घाटन भी सम्पन्न हो व इसी स्थान पर इसके निर्माण के लिये पूर्ण सहयोग सकेगा। देने को तत्पर हैं। ऐसी आशा की जाती है कि परिवर्तित परिवेश में शासकीय वाधाएँ भी शीघ्र ही भावो कायक्रम-न्यास के भ समाप्त हो जावेंगी।
रूप में प्रमुख, 'महावीर भवन" का निर्माण है,
जिसके आगामी वीर निर्वाण दिवस तक प्रारम्भ हो जाने । महावीर कीर्ति स्तम्भ- तीर्थ कर महावीर के की आशा है। इसके साथ ही उसमें संग्रहालय, पुस्त2500वें निर्माण महोत्सव वर्ष के अवसर पर कालय एवं शोध संस्थान की स्थापना का कार्य भी देशभर में स्थापित कीर्ति स्तम्भों के निर्माण की हाथ में लिया जावेगा। महावीर भवन की सम्पर्ण शृखला में न्यास ने ग्वालियर में एक भव्य "महावीर योजना के विकास के साथ ही आध्यात्मिक, शैक्षणिक कीर्ति स्तम्भ" की स्थापना का निश्चय किया। इस हेतु तथा बौद्धिक विकास की दिशा में ग्वालियर को इस न्यास के निवेदन पर नगरपालिक निगम ग्वालियर के महत्वपूर्ण संस्थान की बहमुखी सेवाएं उपलब्ध होंगी द्वारा मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय भवन के निकट स्थित जो ग्वालियर के विकास को नई दिशा देंगी। उद्यान में "महावीर कीर्ति स्तम्भ" व "महावीर उद्यान" के निर्माण की स्वीकृति प्रदान करना स्वीकार कर लिया। इस सारे पुनीत कार्य में अभी तक पर्याप्त जनतदनुरूप दिनांक 1375 सितम्बर 75 को नगरपालिक सहयोग प्राप्त हुआ है, जिसके लिये न्यास सौभाग्यनिगम, ग्वालियर के तत्कालीन प्रशासक श्री रामकृष्ण शाली है। और ऐमी अपेक्षा है कि भविष्य में भी उसे गुप्ता द्वारा उक्त कीति स्तम्भ की आधारशिला रखी ऐसा ही सक्रिय जनसहयोग प्राप्त होता रहेगा और गयी। श्वेत मंगमरमर से निर्मित तेईस फीट ऊंचा यह वह अपने उद्देश्यों की पूर्ति में सफल होकर ग्वालियर विशाल कीर्ति स्तम्भ अब पूर्णतः निर्मित हो चुका है, की बड़ी महत्वपूर्ण सेवा कर सकेगा।
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जीवाजी विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित श्री २५००वां, भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव, व्याख्यान माला
एक रिपोर्ताज
श्री 2500वां भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव करने के साथ-साथ जन-सामान्य को भी लाभप्रद ज्ञान के अवसर पर देशभर में आयोजित विभिन्न कार्यक्रमों उपलब्ध करायेगी। प्रथम दिवस के मुख्य वक्ता के रूप के क्रम में जीवाजी विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग, नई दिल्ली के व्याख्यानमाला ग्वालियर के बुद्धिजीवी जगत के लिये महानिदेशक श्री मधुसदन नरहरि देशपाण्डे ने "जैन अभूतपूर्व कार्यक्रम के रूप में वर्षों तक अविस्मरणीय पुरातत्व एवं कला" विषय पर वृहद एवं सारभित रहेगी. जिसमें निरन्तर पाँच दिवस तक विभिन्न विषयों व्याख्यान दिया तथा परातत्व एवं कला के सन्दर्भ में पर देश के मुर्धन्य विद्वानों ने अपने उच्चस्तरीय एवं जैनों के महत्वपर्ण योगदान पर भी अपने विचार प्रकट शोधपूर्ण व्याख्यानों से इस क्षेत्र के बुद्धिजीवियों के मध्य
किये । डॉ. देशपाण्डे ने अपने व्याख्यान के क्रम में ज्ञानगंगा प्रवाहित की।
सन्दर्भित पुरातत्वीय स्थलों एवं अवशेषों के स्लाइड्स जीवाजी विश्वविद्यालय के कलपति श्री गोविन्द का भी प्रदर्शन किया। सभापति डॉ. बजवासीलाल, नारायण टण्डन ने दिनांक 6 नवम्बर 1975 को वारष्ठ आचाय एवं अध्यक्ष, प्राचान भारतीय इतिहास, आयोजित उद्घाटन समारोह में व्याख्यानमाला का।
संस्कृति एवं पुरातत्व अध्ययनशाला, जीवाजी विश्वउद्घाटन करते हए अपेक्षा की कि यह व्याख्यानमाला विद्यालय ने अपने अध्यक्षीय भाषण में ग्वालियर और देश की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक जैन संस्कृति इसके निकटवर्ती क्षेत्रों में जैन पुरातत्व एवं कला के तथा देश की साहित्य सम्पदा के विशालतम भाग जैन विशाल भण्डार का शोधपूर्ण विवेचन प्रस्तुत करते हुए वाङ्गमय के अनेक लुप्त प्रसंगों को उजागर करेगी और इस दिशा में वृहद शोध-कार्य तथा इस सम्पदा के संरक्षण इस दिशा में कार्य करने के लिये शोधाथियों को आकर्षित की आवश्यकता प्रतिपादित की। .
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द्वितीय सभा (दिनांक 7 नवम्बर 1975) के अतिथि दिल्ली ने 'वर्तमान युग में भगवान महावीर के उपदेशों वक्ता के रूप में स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी के की सार्थकता" विषय पर अपने सारगर्भित व्याख्यान प्राचार्य, जैन दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान प कैलाशचन्द्र में जैन दर्शन के वैज्ञानिक, व्यावहारिक, तथा समाजजी शास्त्री सिद्धान्ताचार्य ने "भगवान महावीर : जीवन शास्त्रीय पक्ष का सूक्ष्म विवेचन किया। सभापति न्यायमूर्ति और दर्शन" विषय पर अपने विचार प्रकट करते हुए श्री यू. एन. वाच्छावत ने भगवान महावीर के अहिंसा भगवान महावीर के पूर्व भवों की घटनाओं के तारतम्य दर्शन और विश्व शान्ति के सन्दर्भ में उसकी उपयोगिता में जैन दर्शन के विकास की विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत विषय पर विवेचनारमक विचार प्रकट किये। कर ताविक दृष्टि से उसका विवेचन किया तथा उसके महत्व पर प्रकाश डाला । सभापति बिरखा उद्योगों के
पंचम एवं अन्तिम सभा ( दिनांक 10 नवम्बर महा प्रबन्धक श्री सरदारसिंहजी चोरडिया ने तीर्थ कर 10
' 1975) के अतिथि बक्ता जैन साहित्य एवं इतिहास के महावीर और उनके दर्शन के मानवीय पक्ष का विवेचन मूद्धन्य एवं आधकारिक विद्वान श्री अगरचन्द्रजी प्रस्तुत किया।
नाहटा, बीकानेर ते "जैन साहित्य' विषय पर अपने
शोधपूर्ण एवं सारगभित व्याख्यान में भारतीय साहित्य तृतीय सभा (दिनांक 8 नवम्बर 1975) के अतिथि में जैन साहित्य के स्थान और उसके विकास एवं योगवक्ता श्री कृष्णदत्त वाजपेयी, प्राचार्य एवं अध्यक्ष, प्राचीन दान का सूक्ष्म विवेचन किया। सभा में विशेष रूप से भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग, सागर उपस्थित मुनि श्री चन्दनमलजी ने अपरिग्रह दर्शन विश्वविद्यालय, सागर ने अपने शोधपूर्ण एवं सारगभित की विवेचना की तथा सभापति श्री चन्दनमल वैद, व्याख्यान में "जैन मूर्तिशास्त्र' के दार्शनिक एवं वित्त मंत्री, राजस्थान शासन ने तीर्थकर महावीर और कलात्मक पक्ष की वृहद रूपरेखा प्रस्तुत कर इस सन्दर्भ उनकी सामाजिक क्रान्ति विषय पर अपने विचार में मध्यप्रदेश में जैन मूर्तिकला के योगदान पर भी प्रकट किये। विचार प्रकट किये। सभा के अध्यक्ष प्रसिद्ध साहित्यकार : श्री हरिहर निवास द्विवेदी ने तोमर शासनकाल में व्याख्यानमाला के संयोजक जीवाजी विश्वविद्यालय ज
ना माथिका महासभा एवं विद्या परिषद् के सदस्य श्री रवीन्द्र मालव कलाकारों के स्लाइड्स भी प्रदर्शित किये। साथ ही
मे अत्यधिक कुशलतापूर्वक सभाओं का संचालन किया, सन्तभित चित्रों के योगदान के सन्दर्भ में शोधपर्ण
तथा अतिथियों का परिचय प्रस्तुत किया। उप कुल
मचिव श्री घनश्याम गौतम ने विश्वविद्यालय की व्याख्यान दिया।
ओर से अतिथियों का स्वागत तथा आभार प्रदर्शन .... चतुर्थ सभा (दिनांक 9 नवम्बर 1975) के अतिथि किया। पाँच दिवस तक आयोजित इन सभाओं में वक्ता राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त साहित्यकार एवं पत्रकार नित्य प्रति लगभग एक हजार की संख्या में श्रोतागण श्री यशपाल जैन, मंत्री, सस्ता साहित्य मण्डल, नई उपस्थित हुए।"
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जीवाजी विश्वविद्यालयीन, महावीर महा परिनिर्वाण व्याख्यान माला
POLPOUNTRIE
४समीपारी
ऊपर (वांये से दांये)-व्याख्यान माला के प्रथम दिवस आयोजित उद्घाटन समारोह में (1) अतिथियों का स्वागत करते हुए व्याख्यान माला के संयोजक श्री रवीन्द्र मालव (2) उद्घाटन भाषण करते हुए कुलपति श्री गोबिन्द नारायण टण्डन (3) अतिथि वक्ता श्री एम. एम. देशपाण्डे द्वारा व्याख्यान, (4) सभापति श्री डा. वी. वी. लाल द्वारा अध्यक्षीय सम्बोधन, तथा (5) मंच का एक दृश्य ।
मध्य (वाँये से दांये)-द्वितीय सभा में (1) मुख्य वक्ता श्री पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री सिद्धान्ताचार्य तथा (2) सभापति श्री सरदारसिंह चोरड़िया का स्वागत करते हुए कुलपति श्री गोविन्द नारायण टण्डन (3) मंच का एक दृश्य । नीचे (वांये से दांये)-(1) तृतीय सभा के मुख्य वक्ता डा. के. डी. वाजपेयी, सागर व सभापति श्री हरिहर निवास द्विवेदी का स्वागत करते हुए कुलपति श्री गोविन्द नारायण टण्डन (2) मुख्य वक्ता डा. कृष्णदत्त वाजपेयी द्वारा व्याख्यान ।
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ऊपर (वांये से दांये)--चतुर्थ सभा में-कुलपति श्री गोविन्द नारायण टण्डन द्वारा-(1) मुख्य वक्ता श्री यशपाल जैन दिल्ली, (2) सभापति जस्टिस यू. एन. वाच्छावत का स्वागत, (3) मुख्य वक्ता श्री यशपाल जैन द्वारा व्याख्यान ।
मध्य (बांये से दांये)-(1) समापन समारोह के अवसर पर उप कुलसचिव श्री घनश्याम गौतम द्वारा मुख्य अतिथि श्री चन्दनमल वैद का स्वागत, (2) मुख्य वक्ता श्री अगरचन्द्र नाहटा, बीकानेर द्वारा व्याख्यान, (3) मुख्य अतिथि श्री चन्दनमल वैद द्वारा समापन भाषण । नीचे (वांये से दांये)-मुनि श्री चन्दनमल जी द्वारा आशीर्वाद, (2) श्री सरदारसिंह चोरडिया द्वारा स्वागत भाषण, (3) उप कुलसचिव श्री घनश्याम गौतम द्वारा आभार, तथा (4) उपस्थित दर्शक समूह की एक झलक ।
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लेखक परिचय
उपाध्याय श्री अमरमुनि जी
प्रतिष्ठित जैनाचार्य, आध्यात्मिक सन्त । प्रखरवक्ता एवं चिन्तक, भावनात्मक कवि । जैन धर्म एवं दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान । अनेकों भाषाओं के ज्ञाता। श्रमण संस्कृति के प्रचारक एवं तदर्थ समर्पित । अनेकों काव्य रचनाएं प्रकाशित । अनेकों पुस्तकों के रचयिता ।
आचार्य श्री तुलसी जी आध्यात्मिक सन्त एवं वक्ता । प्रतिष्टित, जैनाचार्य, अनुशास्ता, प्रखर चिन्तक । अणुव्रत धर्म के प्रचारक एवं इसके माध्यम से राष्ट्र एव मानव मात्र के कल्याणार्थ, नैतिक चरिय निर्माण के महान यज्ञ में संलग्न एवं तदर्थ समर्पित । अनेकों भाषाओ के ज्ञाता । जैन धर्म एवं दर्शन का विषद अध्ययन । अनेकों धर्म ग्रन्थों व पुस्तकों के रचयिता, सम्पादक, अनुवादक एवं प्रेरक । सन्तों की प्रतिष्टित परम्परा । संघ के सहयोगी सन्तों के प्रेरक । संघ के द्वारा जैन आगम ग्रन्थों के सम्पादन, अनुवाद, एव प्रकाशन का एतिहासिक कार्य ।
उपाध्याय मुनि विद्यानन्द जी
संत प्रबर, प्रखर अध्येता, चिन्तक, लेखक एवं वक्ता । श्रमण संस्कृति के समन्वयकारी उन्नायक, विश्वधर्म के प्रणेता । दक्षिण भारत के शडव ल (वेल ग्राम) में एक सम्पन्न परिवार में जन्म : दिनांक 22 अप्रैल 1922 ई० । श्री 108 मुनि शांत सागर विद्यालय शेडवाल में अध्ययन, तदुपरान्त वहीं आचार्य-प्रधनाचार्य । 1942 की जनक्रान्ति में कारावास यात्रा । तयोमूति श्री 108 आचार्य महाकोति महाराज में ब्रह्मचर्य दीक्षा, साधनारत रहकर पार्श्व कीति नाम से अल्लक अवस्था में दीक्षित, 25 जुलाई 63 को श्रद्धेय श्री 108 आचार्य देशभुषणजी महाराज की प्रेरणा से परम दिसम्बर मुनिवर्म में दीक्षित होकर मुनि विद्यानन्दजी महाराज के नाम से विभूषित । बद्रीनाथ व जोगीमठ जमे दुर्गमतम स्थानों सहित देश के सुदुर क्षेत्रों में दिगम्ब रत्व स्वरूप में पदयात्रा कर श्रमण संस्कृति का प्रसार किया। संस्कृत हिन्दी, कन्नड, मराठी, अंग्रेजी, तामिल, गुजराती भाषाओं एवं संगीत में निपूण । अनेको ग्रन्थों एवं पुस्तकों के रचयिता।
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मुनि श्री नथमल जी जैन धर्म और दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान, प्रखर विचारक, लेखक । अगुवन अनुशास्ता आचार्य श्री तुलसी के वरिष्ठ सहयोगी। हिन्दी,
नी, सस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश आदि अनेक भाषाओं के ज्ञाता । अनेकों दुर्लभ आगम ग्रन्थों का सम्पादन तथा संशोधन एवं पूर्ति कर उन्हे प्रकाशित किया। अनेकों शोधग्रन्थ, मौलिक ग्रन्थ, तथा टीकाएँ प्रकाशित सम्पर्क- आदर्श साहित्य संघ, चरू (राजस्थान) ।
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मुनि श्री चन्दनमल जी
प्रखर लेखक-कवि, अपभ्रंश एवं प्राकत के मूर्धन्य विद्वान, प्रभावशाली वक्ता । अणुब्रत अनुशास्ता आचार्य श्री तुलसी के वरिष्ठ सह. योगी । हिन्दी, अपभ्रश, प्राकृत, संस्कृत, अंग्रेजी भाषाओं के ज्ञाता । ग्वालियर के एक मध्यमवर्गीय प्रतिष्ठित परिवार में जन्म, किशोरावस्था में ही साधूत्व की दीक्षा ग्रहण की। अनेकों काव्य संकलन, प्राकत ग्रन्थ, मौलिक रचनाएँ, शोध-प्रवन्ध प्रकाशित ।
अगरचन्द नाहटा हिन्दी व राजस्थानी के प्रसिद्ध गवेषक विद्वान व लेखक; जैन धर्म, दर्शन, साहित्य एवं कला के विशेषज्ञ । जैनाचार्य श्री कृपाचन्द्र जी सुरी की शिष्यमंडली की प्रेरणा से जैन वाङ्गमय के अध्ययन को प्रेरित । राजस्थान के महान कवि श्री समाजसुन्दर पर सर्वप्रथम शोधकार्य से . शोध प्रवृतियों को प्रेरित । अपने बड़े भाई की स्मति में "अभय जैन ग्रंथालय' की स्थापना कर इसमें हजारों ज्ञात-अज्ञात कवियों व लेखकों की पैतालीस हजार मुद्रित व माठ हजार प्राचीन हस्तलिखित एवं दुर्लभ पुस्तकों का विषद संग्रह किया। अपने पिताश्री की स्मति में "श्री शंकरदान कला भवन" की स्थापना कर इसमें प्राचीन एव कलात्मक सामग्री का संग्रह किया। हजारों ज्ञात-अज्ञात कवियों व लेखकों के साहित्य का विषद अध्ययन व उन पर शोधकार्य कर लुप्त साहित्य को प्रकाशवान किया। प्राचीन साहित्य, इतिहास, कला, दर्शन व धर्मशास्त्र सम्बन्धी विषयों पर चार हजार से भी अधिक शोधपत्र, लेख व निबन्ध प्रकाशित । लिखित व सम्पादित 45 ग्रन्थ प्रकाशित एवं लगभग 20 यंत्रस्थ । अनेकों पत्रपत्रिकाओं का सम्पादन । अनेकों शोध छात्रों को मार्गदर्शन व सहयोग । सम्पर्क --नाहटों की गुवाड, बीकानेर (राजस्थान) ।
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डा. अमरनाथ पाण्डेय
एम. ए., डी. फिल. । अध्यक्ष-संस्कृत विभाग, काशी विद्यापीठ, वाराणसी। संस्कृत व हिन्दी, साहित्य के प्रखर विद्वान, प्रखर चिन्तक, सशक्त लेखक । संस्कृत साहित्य के अनेकों विषयों पर शोधकार्य । सैकड़ों शोधपत्र एवं निबन्ध तथा पुस्तकें प्रकाशित । "मार्ग दर्शन में अनेकों शोध छात्र डाक्टरेट की उपाधि से विभूषित, तथा अनेकों तदर्थ कार्यरत । सम्पर्क-60,अध्यापक निवास, काशी विद्यापीठ, वाराणसी।
उषा किरण जैन एम. ए., बी. एड., रि. स्का., । लेखिका, सामाजिक कार्यकर्ता, विदुषी। जन्म 20 दिसम्बर 1949 । अनेकों समाजसेवी संस्थाओं से सम्बद्ध । समाजसेवी एवं रचनात्मक कार्यों में तीव्र अभिरुचि । विभिन्न सामाजिक विषयों पर समय-समय पर अनेकों लेख एवं निबन्ध तथा शोधपत्र प्रकाशित । सम्पर्क-प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र, कुशलगढ़, वांसबाड़ा (राज.)।
श्रीचन्द्र जैन
एम. ए., एल-एल. बी.। हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार । जन्म-22 जनवरी 1910। चीफ सेक्रेटरी तथा जिलाधीश पदों पर कार्य, तदन्तर शिक्षाजगत में प्रवेश । रीवां, खरगौन, ग्वालियर, एवं जबलपूर में विभिन्न महाविद्यालयों में प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष पदों पर कार्य किया, अवकाश प्राप्ति के बाद से सन्दीपनि स्नातकोत्तर महाविद्यालय, उज्जैन में प्राचार्य एवं अध्यक्ष - हिन्दी विभाग, के रूप में कार्यरत । लगभग तीस पुस्तकें प्रकाशित । अनेकों रचनाएँ पुरस्कृत । लोक साहित्य में विशेष अभिरुचि । सम्पर्क-मोहन निवास, कोठी रोड, विश्वविद्यालय मार्ग, उज्जैन (म. प्र.) ।
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पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, सिद्धान्ताचार्य जैन धर्म व दर्शन के मूर्धन्य एवं अधिकारिक विद्वान, प्रबुद्ध चिन्तक एवं विचारक तथा ओजस्वी वक्ता। जन्म-कार्तिक शुक्ल द्वादशी, सवत् 1960, नहटौर जिला बिजनौर । श्री स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी में अध्ययन और सन् 1927 से उसी में अध्यापन । महाविद्यालय के अनेक वर्षों तक प्राचार्य रहे; वर्तमान में सेवानिवृत । प्रकाशित कृतियाँ-जैनधर्म, जैन साहित्य का इतिहास (3 भाग), भ. ऋषभदेव, नमस्कार मंत्र, न्याय कुमुदचन्द्र (प्रथम भाग) की प्रस्तावना, जैन न्याय, दक्षिण भारत में जैनधर्म । अनूदित तथा सम्पादित-उपासकाध्ययन, कुन्दकुन्द प्राभूत सग्रह, तत्वार्थ सूत्र, सत्प्ररूपणा सूत्र, स्वामी कीर्तिकेयानुप्रो, नयचक्र । सम्पादक-जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर तथा मूतिदेवी ग्रन्थमाला, भार. तीय ज्ञानपीठ; जैन सन्देश । भूतपूर्व अध्यक्ष, भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् । मंत्री-साहित्य विभाग, भा. दि. जैन संघ। सदस्य..- परामर्श समिति, भारतीय ज्ञानपीठ। सम्पर्क-स्याद्वाद महाविद्यालय, भदैनी, वाराणमी (उ. प्र)।
डा. कस्तूरचन्द्र कासलीवाल
एम. ए., पो-एच. डी., शास्त्री । प्रतिष्ठित साहित्यकार एव इतिहास कार; इतिहास रत्न एवं विद्यावारिधि की उपाधि द्वारा अलंकृत । गत 30 वर्षों से साहित्यिक जगत की सेवा में रत । अनेकों शोधपत्र, निबन्ध, लेख व लगभग 20 पुस्तकें प्रकाशित । प्रमुख कृतियाँ- राजस्थान के जैन संत, व्यक्तित्व एवं कृतित्व" (पुरस्कृत , महाकवि दौलतराय कासलीवालव्यक्तित्व एवं कृतित्व" (पुरस्कृत), राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रंथ सुची (5 भाग) का सम्पादन । निर्देशक-साहित्य शोध विभाग, श्री अतिशय क्षेत्र महावीरजी। जैन दर्शन तथा इतिहास के विभिन्न विषयों पर सतत् शोधकार्य में रत। सम्पर्क-साहित्य शोध विभाग, महावीर भवन, सवाई मानसिंह हाईवे, जयपूर ।
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डा. कैलाशचन्द्र जैन एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट. । प्रतिष्ठित इतिहासकार एवं पूरातत्व वेत्ता। जन्म-21 अप्रैल 1930 मरोठ (राजस्थान) । महाराजा महाविद्यालय, जयपुर; शासकीय महाविद्यालय, अजमेर; व राजऋषि कालेज, अलवर, में प्राध्यापक रहे । 1964 से, अध्यक्ष --- प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति विभाग, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन । सदस्य- इन्टरनेशनल कान्फ्रेन्स आफ ओरियन्ट लिस्टस, 1963, आल इण्डिया ओरिएन्टल कान्फ्रेन्स, इण्डियन हिस्ट्री कांग्रेस, इन्स्टीट्यूट आफ हिस्टोरिकल स्टडीज, एपीग्राफीकल सोसायटी आफ इण्डिया, न्युमिस्मैटिक सोसायटी आफ इण्डिया । प्रकाशनJainism in Rajasthan, Ancient cities and towns of Rajasthan, Malwa through the Ages, Lord Mahavira & his times, प्राचीन भारत में सामाजिक एवं आर्थिक संस्थाएं । लगभग 70 शोधपत्र प्रकाशित । गत बीस वर्ष से शोधकार्य में रत । 1966 में उल्लेखनीय शोधकार्य हेतु राजस्थान शासन द्वारा पुरस्कृत । सम्पर्क-मोहन निवास, देवास रोड, उज्जैन 456 001 ।
डा. कृष्णदत्त वाजपेयी
पी-एच. डी. । प्रसिद्ध इतिहामज्ञ एवं पुरातत्त्व वेत्ता। मथुरा, लखनऊ में क्यूरेटर सागर विश्वविद्यालय में टैगोर प्रोफेसर तथा अध्यक्ष-प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति विभाग । अध्यक्ष, न्यू मैस्मेटिक सोसायटी आफ इण्डिया। उपाध्यक्ष, एपीग्राफीकल सोसायटी आफ इण्डिया। भारतीय अभिलेख संस्था । नेलसन राइट इण्डिया मैडिल (भारतीय मुद्रा परिषद से सम्मानित); ऐशियेटिक सोसायटी, कलकत्ता से आर. पी. चन्दा मैडिल। बिड़ला म्यूजियम के अध्यक्ष । लगभग 26 पुस्तके प्रकाशित । 450 शोध प्रबन्धों के मार्गदर्शक । 28 शोध छात्रों को मार्गदर्शन में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त । त्रिपुरी, एरन व देवगढ़ में उत्खनन एवं पुरातत्वीय शोधकार्य । सम्पर्क-अध्यक्ष, प्राचीन भारतीय इतिहास एवं सस्कृति विभाग, सागर विश्वविद्यालय, सागर ।
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कल्याण कुमार जैन "शशि" प्रसिद्ध आशुकवि राजनीतिक एवं सामाजिक कार्यकर्ता। जन्म-- 8 मार्च 1918। सन 1930 में असहयोग आन्दोलन में जेलयात्रा। अनेकों बार सम्मानित । "पार्श्वनाथ पूजन" पर पुरस्कृत (1972)। देश के प्रमुख पत्रों तथा पत्रिकाओं में सैकड़ों काव्य रचनाएँ प्रकाशित । सम्पर्क-जैन फार्मेसी, बाजार नसरुल्ला खां, रामपुर (उ. प्र.) ।
गुलाबचन्द्र जैन
वी. ए., एल-एल. बी. । भारतीय संगीत, जैन धर्म-दर्शन व संस्कृति के अधिकारिक विद्वान, प्रखर बक्ता, प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ता। कुलपति, इन्दिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ (म. प्र.) : जन्म-22 जुलाई 1924। प्रसिद्ध जैन विद्वान स्व. मेघराज मुनोत के सुपुत्र । जैन धर्मशास्त्र, तथा कानून विषयों में विषद अध्ययन । संविधानिक विधि के विशेषज्ञ । जैन धर्म दर्शन व संस्कृति से सम्बन्धित विविध विषयों पर अनेको सम्मेलनों में व्याख्यान । अ. भा. श्वेताम्बर जैन एसोशियेसन के द्वारा जन 1976 में उप राष्ट्रपति द्वारा प्रदत्त म्वर्ण पदक से सम्मानित । पूर्व अध्यक्ष-शिक्षा समिति, जनपद सभा खैरागढ़ पूर्व मानसेवी सचिव ----- वीरेन्द्र को-आपरेटिव बैंक, पूर्व कोषाध्यक्ष एवं पूर्व सदस्य कार्यकारणी-इन्दिरा कला संगीत विश्वविद्यालय । सम्पर्क-कुलपति, इन्दिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ (म. प्र.)
गोविन्द नारायण टण्डन एम. ए. (अर्थशास्त्र) अर्थशास्त्र के प्रतिष्ठित विद्वान । जन्म20 मई 1916 । कुलपति-जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर । विक्टोरिया कालेज, ग्वालियर में अर्थशास्त्र विभाग में व्याख्याता (1939.43) एवं प्राध्यापक (1943-48) रहे । प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष, अर्थशास्त्र विभाग, महारानी लक्ष्मीबाई कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, ग्वालियर (1948-58)। प्राचार्य, शासकीय महाविद्यालय, गुना (1958-61)। प्राचार्य, शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, इन्दौर (1961-64)। कूलसचिव, इन्दौर विश्वविद्यालय, (1964.73)। विभिन्न विश्वविद्यालयों में अनेकों समितियों के सदस्य रहे । सम्पर्क-गांधी रोड, ग्वालियर ।
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जी. आर. जैन
एम. एस-सी. । भौतिकशास्त्री, जैन विज्ञान के अधिकारिक विद्वान, प्रखर चिन्तक, प्रतिष्ठित लेखक एवं समाजसेवी । जन्म -2 दिसम्बर 1902, श्रीनगर (गढ़वाल), उ. प्र. । डा. मेघनाथ शाह, एफ. आर. एस. और डा. नीला रत्नधर जैसे प्रखर वैज्ञानिकों के मार्गदर्शन में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शिक्षा। व्याख्याता-भौतिकशास्त्र (1926-28), मेरठ कालेज, मेरठ। विक्टोरिया कालेज, तथा माधव इन्जीनियरिंग कालेज, ग्वालियर में भौतिकशास्त्र विभाग के अध्यक्ष तथा प्राध्यापक रहे। जैन धर्म-दर्शन पर विशद अध्ययन । बाल्यावस्था से जैन जीवन-दर्शन में दीक्षित । सातवीं कक्षा में पांच सौ रुपये मासिक से अधिक ग्रहण करने का परिग्रह परिमाण व्रत लिया तथा उसका जीवन पर्यन्त पालन किया। पांच सौ रूपये से अधिक प्राप्त समस्त आय जीवनभर दान को । पूर्व अध्यक्ष, जैन एसोशियसन, वीर शिक्षा समिति, ग्वालियर । कर्तव्यप्रधान जीवन के दृढ़ संकल्पी । विज्ञान और दर्शनशास्त्र पर लगभग बारह पुस्तके प्रकाशित । महत्वपूर्ण प्रकाशन-कास्मोलाजी (ओल्ड एण्ड न्यु), प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी। सम्पर्क-विजय भवन ? 23/5 थापरनगर, मेरठ ।।
चन्दनमल वैद प्रसिद्ध लोकनेता एवं समाजसेवी। स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया । अनेकों समाजसेवी संस्थाओं तथा कांग्रेस संगटन में विभिन्न पदों पर रहे। राजस्थान शासन में विभिन्न विभागों का कुशलतापूर्वक दायित्व निर्वहन । मंत्री--- वित्त, स्वास्थ्य एवं परिवार नियोजन बिभाग | ओजस्वी वक्ता तथा प्रभावशाली लेखक । सम्पर्क-वित्त मंत्री, राजस्थान शासन, जयपुर ।
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ज्योति प्रसाद जैन
विद्यावारिधि - एम. ए., एल.एल. बी., पी-एच. डी., इतिहास रत्न । जैन इतिहास, संस्कृति और साहित्य के प्रौढ़ मनीषी एवं अधिकारिक विद्वान जन्म सन् 1912, मेरठ। अनेकों शैक्षणिक एवं समाजसेवी संस्थाओं से सम्बद्ध । अनेकों बार सम्मानित । इतिहासरत्न एवं विद्यावारिधि की उपाधियों से विभूषित सैकड़ों शोधपत्र एवं निबन्ध प्रकाशित । प्रमुख पुस्तकें - Jaina's Sources of Ancient India. Jainism, The oldest Religion, Religion & culture of the Jains, भारतीय इतिहास: एक दृष्टि, रुहेलखण्ड कुमायूँ और जैनधर्म, प्रकाशित जैन साहित्य, हस्तिनापुर, तीर्थकरों का सर्वोदय मार्ग, आदि । सम्पादक - Voice of Ahimsa | जैन सन्देश ( शोधांक), जैन सिद्धान्त भास्कर, आदि शोध पत्रिकाएँ । इन्स्टीट्यूट ऑफ प्राकृत एण्ड जेनोलोजी, वैशाली की काउन्सिल के सदस्य प्रधान संचालकअखिल विश्व जैन मिशन । सम्पर्क - ज्योति निकुंज, चारबाग, लखनऊ 2260011
टी. के. टुकोल
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एम ए एल एल. बी. न्यायमूर्ति उच्च न्यायालय, बंगलोर, । कर्नाटक पूर्व कुलपति बंगलौर विश्वविद्यालय प्रसिद्ध विधिवेत्ता, जैन धर्म एवं दर्शन के प्रखर विद्वान जन्म 8 मई 1908 र (बीजापुर) बम्बई विश्वविद्यालय में द्वितीय स्थान प्राप्तकर अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण की (1931) सहायक कालेज (पूना) । जिला प्राध्यापक, (अँग्रेजी साहित्य ) - फर्ग्यूसन कालेज न्यायालय बीजापुर में वकालत प्रारम्भ की ( 1934 ) । न्यायाधीश मनोनीत ही न्यायिक सेवा में (1938) देशी राज्यों के विलय के में विशेष अधिकारी सम्बन्ध में विधिक परामर्शदाता के रूप मनोनीत (1948-50 ) अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीशकोल्हापुर (1950) जिला एवं सत्र न्यायाधीश (1955) भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के अन्तर्गत विशेष न्यायाधीश एवं इलेक्शन ट्रिब्यूनल के सदस्य के पदों पर कार्य । अति. विवि सचिव (1957), विधि सचिव (1961) मैसूर मैसूर उच्चन्यायालय में न्यायमूर्ति मनोनीत । afaa कुलपति विश्वविद्यालय 19 972) लखपति भाई -- बंगलौर इन भाई इन्स्टीट्यूट ऑफ इन्डोलाजी में Sallekhna is not Suicide, विषय पर नीमान प्रकाशित पुस्तकें "Compend। ium of Jainism" ( Sardar Patel University ). Saying of Bhagwan Mahavira". सम्पर्क-कुबेर निवास, 115 एलीफेन्ट शेक रोड, जय नगर, बंगलौर, 560,0 11 1
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डा. दरवारी लाल कोटिया एम. ए., पी-एच. डी । दर्शन शास्त्र के प्रख्यात विद्वान, जैन दर्शन के प्रकाण्ड पण्डित, प्रख्यात आध्यात्मिक वक्ता। जैन धर्म व दर्शन पर शोधकार्य व तदर्थ मार्गदर्शन । लगभग दो सौ शोधपत्र व निबन्ध प्रकाशित । अनेकों पुस्तके प्रकाशित । सम्पर्क --चमेली कुटीर, 1/128 डुमराव कालौनी, अस्सी, वागणसी-51
डा. पदमचन्द्र जैन
एम. बी. बी. एम. । प्रबुद्ध लेखक, सेवाभावी चिकित्मक एवं सामाजिक कार्यकर्ता । मेडीकल कालेज, अजमेर में प्रथम श्रेणी में एम. बी. बी. एम. परीक्षा उत्तीर्ण की। चिकित्सा विज्ञ न, प्रमुखत : शाकाहार चिकित्सा शास्त्रीय पक्ष तथा भारतीय दर्शन के परिप्रेक्ष्य में विषय पर अनेकों लेख प्रकाशित । सम्पर्क -- मेडीकल आफीसर, पी. एच. सी., कुशलगढ़, जिला बांसवाड़ा, (राजस्थान)
परमानन्द जैन शास्त्री जैन दर्शन एवं साहित्य के प्रखर विद्वान । जन्म-श्रावण वदी चतुर्थी, सं. 1965 वि. । निदेशक, वीर सेवा मन्दिर, सरसावा और दिल्ली (1936-72) लगभग 325 महत्वपर्ण शोधपरक लेख प्रकाशित, जिनसे अनेक लुप्त माहित्यिक एवं ऐतिहासिक तथ्य प्रकाशित, तथा तत्सम्बन्धी अन्वेषित मामग्री संकलित । सम्पादक --अनेकान्त ( मासिक शोध पत्रिका)। लिखित एवं सम्पादित ग्रन्थ-मोक्षमार्ग प्रकाशक, सुख को एक झलक (प्रथम भाग), अनुभव प्रकाश, चिद्विलास जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह, जैन महिला शिक्षा संग्रह, प्राचीन जैन इतिहास (द्वितीय भाग), महावीर परम्परा और पश्चातवर्ती राजाओं का परिचय, हिन्दी जैन कवियों का इतिहास, आदि । अनुवाद --समाधितंत्र इष्टोपदेश, एकीभावस्त्रोत आदि । सम्पर्क-एफ 95, जवाहर पार्क, वेस्ट लक्ष्मीनगर दिल्ली 51 ।
डा. श्रीमतो पुष्पलता जैन
एम. ए. (हिन्दी, भाषा विज्ञान), पी.-एच. डी. । प्रबुद्ध साहित्यकार लेखिका एवं समालोचक । जन्म - 20 सितम्बर 1942, सागर । अनेकों समाजसेवी संस्थाओं से सम्बद्ध। हिन्दी में भाषा विज्ञान पर शोधकार्य पर डाक्टरेट की डिग्री से सम्मानित । लगभग तीस शोधपत्र एब निबन्ध प्रकाशित । प्रकाशित पुस्तके मध्यकालीन हिन्दी जैन साहित्य में रहस्य भावना । सम्पर्क-न्यू एक्सटेन्शन एरिया, सदर, नागपुर ।
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परिपूर्णानन्द वर्मा राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त लेखक एवं विचारक, प्रतिष्ठित समाजसेवी, ओजस्वी वक्ता । अनेकों साहित्यिक एव समाजसेवी संस्थाओं से सम्बद्ध | अध्यक्ष, आल इण्डिया क्राइम प्रिवेन्शन सोसायटी । पचास के लगभग पुस्तकें तथा पांच सौ के लगभग लेख व निबन्ध प्रकाशित । अनेकों पुरकृस्त । प्रमुख रचनाएँ-अपराध - अपराधी और अभियुक्त, तीन ऐतिहासिक नाटिकाएँ, ऐसा-वैसा, नारी रत्न, पतन की परिभाषा, प्राणदण्ड, वालरत्न, भारत की विभूतियाँ, मृत्युदण्ड की प्रथा और इतिहास, मेरा प्रणाम, रूप और रुपैया, प्रतीकशास्त्र, मरघट का मुर्दा, आत्महत्या और वासना के अपराध । सम्पर्क – 4 लक्ष्मीरतन बगला, कालपी रोड, कानपुर 12 ।
डा. वृजवासी लाल
एम. ए., पी-एच. डी. । प्रख्यात इतिहासकार एवं पुरातत्व वेत्ता | पूर्व निदेशक- आर्कियोलाजीकल सर्वे आफ इण्डिया, भारत शासन । पूर्व अध्यक्ष - प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति विभाग, जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर । वर्तमान में, निदेशक - पुरातत्व विभाग, इन्स्टीट्यूट आफ एडवान्स स्टडीज, शिमला | रामायणकालीन स्थलों के उत्खनन के महत्वपूर्ण कार्यों में संलग्न | ऐतिहासिक महत्व के अनेकों स्थलों के उत्खनन का निर्देशन कर भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के अनेकों लुप्त पक्ष उजागर किये। अनेकों शोधपत्र एवं निबन्ध प्रकाशित । सम्पर्क - निदेशक, प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति विभाग, इन्स्टीट्यूट आफ एडवान्स स्टडीज, राष्ट्रपति निवास, समर हिल, शिमला (हिमाचल प्रदेश) 171005 |
डा. भागचन्द्र जैन
एम. ए. (संस्कृत, पालि; प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व), साहित्याचार्य, साहित्य रत्न, पी-एच. डी. ( सीलोन ) । प्रसिद्ध इतिहासज्ञ, जैन साहित्य के प्रखर विद्वान । जन्म - 1 जनवरी 1939 बम्हौरी, छतरपुर (म. प्र. ) अनेक शैक्षणिक व समाजसेवी संस्थाओं से सम्बद्ध व उनमें विभिन्न पदों पर सेवारत । अध्यक्ष - पालि - प्राकृत विभाग एवं प्राध्यापक-पालि-प्राकृत त्रिभाग, न गपुर विश्वविद्यालय, नागपुर। प्रकाशित पुस्तकें - Jains in Buddhist Literature, बौद्ध संस्कृति का इतिहास, चतु शतकम् (संपा. अनु.) पातिलोवख (संपा. अनु.), पालिको संग्रहो (संपादन), जैन धर्म और संस्कृति, भ. महावीर और उनका चिन्तन, जैन संस्कृति का इतिहास, भारतीय संस्कृतीला वौद्ध धर्माचे योगदान ( मराठी ), लगभग अस्सी शोध निबन्ध प्रकाशित । सम्पादन - रत्नत्रय (मासिक) कोल्हापुर । सम्पर्क – न्यू एक्सटेन्शन एरिया, सदर, नागपुर ।
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डा. महावीर सरन जैन
एम.ए., डी. फिल., डी. लिट. । प्रसिद्ध साहित्यकार एवं समालोचक । अनेकों समाजसेवी व शैक्षणिक संस्थाओं से सम्बद्ध, अनेक अखिल भारतीय संस्थाओं के आजीवन सदस्य । स्नातकोत्तर हिन्दी एवं भाषा विज्ञान विभाग, जबलपुर विश्वविद्यालय में वरिष्ठतम प्रवाचक एवं प्रशासकीय विभागाध्यक्ष । चेयरमैन, स्नानकोतर हिन्दी सम्मिलित अध्यापन, डायरैक्टर -हिन्दी ब्रिज कोर्स प्रोजेक्ट । 4 उच्चस्तरीय ग्रन्थ एवं 60 से अधिक शोध निबन्ध प्रकाशित । निर्देशन में अनेक छात्रों को पी-एच. डी. व डी. लिट. की उपाधियाँ प्राप्त । "परिनिष्ठित् हिन्दी का ध्वनिग्रामिक अध्ययन" शीर्षक पुस्तक उत्तर प्रदेश शासन द्वारा पुरस्कृत । सम्पर्क-अध्यक्ष - हिन्दी व भाषा विज्ञान विभाग, जबलपूर विश्वविद्यालय, जबलपुर (म. प्र.) ।
मधुसूदन नरहरि देशपाण्डे प्रख्यात कलामर्मज्ञ, पुगतत्व वेत्ता एवं समीक्षक । महानिदेशक ----- भारतीय पुरातत्वीय सर्वेक्षण विभाग, भारत शासन । भारतीय पुरातत्व पब मस्कति के अनेक पक्षों पर शोधकार्य । पूर्व में ताम्रलिपि से लेकर दक्षिण भारत के अनेक स्थलों का पुरातत्वीय सर्वेक्षण । उत्तर भारत के अम्बखेड़ी, बड़गांव इत्यादि स्थलों का उत्खनन कर ताम्रपाषाण युगीन (सिंधु सभ्यता के अन्तिम कालीन अवशेषों का पुनर्जागरण । दक्खन के पीतल वीरा नामक स्थल का उन्न्वनन कर यक्ष परम्परा से सम्बन्धित नबीन आयामों की खोज की। अजन्ता गुफा के कला पक्ष पर शोध एवं समीक्षा। अनेकों शोधपत्र ब निबन्ध प्रकाशित । सम्पर्क-निदेशक, भारतीय पुरातत्वीय सर्वेक्षण विभाग, जनपथ नई दिल्ली।
यू. एन. बाच्छावत
एम. ए., एल-एल. बी. । कुशल वक्ता एवं लेखक, प्रख्यात विधि बेत्ता, न्यायमूर्ति, म. प्र. उच्च न्यायालय । म. प्र. उच्चन्यायालय की इन्दौर खण्डपीठ के वरिष्ठ एवं ख्यातिप्राप्त अभिभाषक रहे। भारतीय संविधान एवं निर्वाचन विधि के विशेषज्ञ । सन् 1974 में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय में न्यायाधीश पद पर नियुक्त । विधि के अतिरिक्त सामाजिक विज्ञानों में विशेष रुचि । सम्पर्क-गांधी मार्ग, ग्वालियर ।
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यशपाल जैन बी. ए., एल-एल. वी. । अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लेखक, पत्रकार, गांधीवादी विचारक । जन्म-सितम्बर 1912, अलीगढ़ (उ. प्र.)। प्रयाग विश्वविद्यालय से एल-एल. बी.। 1937 में वकालत का व्यवसाय छोड़कर पत्रकारिता जगत में प्रविष्ट । प्रसिद्ध साहित्यकार । सैकड़ों कहानियाँ व लेख प्रकाशित। लगभग एक सौ पुस्तकों के रचियता। सम्पादक "जीवन साहित्य" । पूर्व सम्पादक - “जीवन सुधा" "मधुकर" एवं "वीर" । मंत्री-सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली। अध्यक्षअ. भा. अणुवत समिति । हिन्दी भवन, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति एवं चित्रकला संगम, आदि संस्थाओं के संस्थापक सदस्य एवं पदाधिकारी । सदस्य का. का-अ. भा. 2500 वां भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव समिति । पंच महाव्रतधारी । लगभग 35 देशों की यात्रा की। सम्पर्क7/8 दरियागंज, दिल्ली 6 ।
डा. राजाराम जैन
एम. ए. (हिन्दी), पी-एच. डी., शास्त्राचार्य । हिन्दी-संस्कत व प्राकृत भाषाओं के अधिकारिक विद्वान, मूर्धन्य साहित्कार । सम्पादक---- ज्ञानोदय (1954--55)। प्राध्यापक, हिन्दी विभाग - राजकीय महाविद्यालय, शहडोल (1955-56) एवं राजकीय प्राकत शोध संस्थान (1956-61); संस्कन-प्राकृत विभाग, हा. दा. जैन कालेज, आरा, मगध विश्वविद्यालय (1961 से) । अनेकों शोधनिबन्ध, लेख व पुस्तके प्रकाशित । प्रकाशित प्रमुख पुम्नक . रईधू साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन (पुरस्कृत), 'वडमाण चरिउ', रइधू ग्रन्थावली (16 खण्डों में प्रकाश्य, 2 खण्ड प्रकाशित), वीर जिणंद चरिउ (रईधूकृत), प्राकून ग्रन्थ संग्रह, आरामसोहाकहा, श्रमण साहित्य में वर्णित विहार की कुछ जैन तीर्थभुमियां, संस्कृत प्राकत विषयक 5 शोध छात्रों को पी-एच. डी. हेतु निर्देशन। सम्पादक, "जैन सिद्धान्त भास्कर । "Jain Antiquary"। कीटक विश्वविद्यालय में आयोजित आल इण्डिया ओरिएन्टल कान्फ्रेन्स के 28वै अधिवेशन (1976) में "प्राकत एवं जैनिज्म विभाग" के अध्यक्ष । मगध विश्वविद्यालय द्वारा देवकुमार जैन ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट आरा के सन्मान्य निदेशक मनोनीत । अ. भा. शा. पुरस्कार (वडीत), वीर निर्वाण भारती पुरस्कार (दिल्ली) तथा वीर निर्वाण भारती स्वर्णपदक पुरस्कार प्राप्त । सम्पर्क-महाजन टोली नं 2, आरा (बिहार)।
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रवीन्द्र मालव डी.एम. ई., एम. ए.(समाजशास्त्र, राजनीति विज्ञान). एल-एल. वी., विशारद । सशक्त लेखक एवं पत्रकार ओजस्वी वत्ता, प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ता । जन्म-28 मई 1948 । किशोरावस्था से ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी । अनेकों प्रतिष्ठित ममाचार-पत्रों एवं संवाद समितियों के प्रतिनिधि व सम्पादक रहे। फ्री लाँसर । पूर्व मा. व्याख्याता-समाजशास्त्र विभाग - डॉ. भगवतसहाय स्मारक महाविद्यालय, ग्वालियर एवं शासकीय स्नातकोत्तर कन्या महाविद्यालय, ग्वालियर-6 । अभिभाषक ---- म. प्र. उच्च न्यायालय ग्वालियर । मदम्य महासभा, विद्या परिषद एवं मामाजिक विज्ञान संकाय (1972 से) जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर । जीवाजी विश्वविद्यालय की अनेकों समितियों के सदस्य । अनेकों स्मारिकाओं तथा जैन डाइरेक्टरी ग्वालियर, का सम्पादन । अनेकों शैक्षणिक तथा समाजसेवी संस्थाओं से सम्बद्ध । अध्यक्ष, भारती विविध कला संस्थान, उपाध्यक्ष -- फनकार (उर्दू साहित्य मंच), महामंत्री, रवीन्द्र शिक्षा समिति, सह मंत्री--वीर शिक्षा समिति एवं माधव पुस्तकालय ग्वालियर । प्रवन्ध न्याभी-श्यामलाल पाण्डवीय सूकृत सेवा न्याम, ग्वालियर । न्यामी एवं सदस्य का. का. श्री 2500 वां भगवान महावीर स्मारक न्यास, ग्वालियर । विश्व यूवक केन्द्र तथा गांधी शान्ति प्रतिष्ठान के संयुक्त तत्वावधान में "राष्ट्रीय युवा नीति' के निर्धारण हेतु आयोजित अ. भा. युवक मम्मेलन, दिल्ली (1977) में प्रतिनिधि । लगभग ग्यारह गोधपत्र व निवन्ध तथा डेढ़ सौ सामयिक लेख प्रकाशित । सम्पर्क-प्रेम शान्ति भवन, फालके बाजार, ग्वालियर 474,001 ।
आर. एन. मिश्र
एम. ए., पी-एच. डी.। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ एवं पुरातत्ववेत्ता । वनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति में एम. ए. (1957)। मागर विश्वविद्यालय से प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति तथा पुरातत्व विषय में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की (1968)। भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, राष्ट्रपति निवास, शिमला में डाहल और दक्षिण कोमल (म. प्र.) की मूर्तियों पर उच्च अध्ययन (मार्च 1973 से जून 1975)। 1959 से 1976 तक सागर विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर कक्षाओं में अध्यापन । अध्यक्ष तथा प्रवाचक,प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व अध्ययन मण्डल एवं उपाचार्य एवं विभागाध्यक्ष अध्ययन शाला-प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर । प्रकाशित पुस्तकें- “भरहुत" (म. प्र. हिन्दी ग्रन्थ अकादमी), "AncientArtist and Art Activity" (भा. उ. अ. सं.--शिमला)। प्रकाश्य पुस्तकें-भारतीय मूर्तिकला (मैकमिलन, भारत), Sculptures of Dahal & South Kosal (I. I. A. S., Simla), "Yaksha Cult and Icography (Motilal Banarsidas), लगभग चालीस शोधपत्र प्रकाशित. सम्पर्क--"ममता", बलवन्तनगर, गांधी मार्ग, ग्वालियर 51
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डा. लक्षमीनारायण दुवे एम. ए. (हिन्दी, इतिहास), पी-एच. डी., साहित्य रत्न । जन्म-1932 । साहित्यरत्न परीक्षा में श्रीधर स्वर्ण पदक मोहनलाल चौबे पदक द्वारा सम्मानित । अ. भा. कला-साहित्य-संस्कृति परिषद, मथुरा द्वारा 'साहित्य मार्तण्ड' की मानद उपाधि से विभूषित । सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग-सागर विश्वविद्यालय, सागर । अनेकों शोधपत्र (130), निबन्ध (1000) संग्रह एव सम्पादित पुस्तकें (27), पुस्तिकाएँ (3) व ग्रन्थ (5) प्रकाशित। निर्देशन में दो छात्र पी-एच. डी. उपाधि से विभूषित, सात छात्र पी-एच. डी. हेतु शोधकार्यरत । प्रमुख कृतियां-"नवीन तथा राष्ट्रीय काव्य" । "नवीन' विषयक शोध ग्रन्थ पर म. प्र. शासन द्वारा अ. भा. राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदत्त । सागर विश्वविद्यालय में, "प्रणामी सम्प्रदायः साहित्य तथा सिद्धान्त' विषय पर डी. लिट. हेतु पंजीकृत । सम्पर्क-स-44 गौरनगर, सागर विश्वविद्यालय, सागर 470,003 ।
डा. लक्षमीचन्द्र जैन ____ एम.एस-सी., डी. एच. वी., गणित के अधिकारिक विद्वान, कुशल लेखक एवं प्रखर वक्ता । जैन स्कूल ऑफ मैथमैटिक्स, एस्ट्रोनामी कास्मोलाजी एवं अन्य Exact Sciences में विशेषज्ञ । प्राध्यापक एव विभागाध्यक्ष-गणित विभाग, शासकीय स्नातकोतर महाविद्यालय खण्डव (म. प्र.) । एक सौ के लगभग शोधपत्र व निबन्ध प्रकाशित । सम्पर्कप्राध्यापक एव विभागाध्यक्ष, गणित विभाग, शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, खण्डवा (म. प्र.)।
सुमति बाई शहा
राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विदुषी, प्रतिष्ठित समाजसेवी एवं शिक्षाविद् । सम्पूर्ण जीवन जनसेवा तथा महिला शिक्षण एवं नारी जागरण को समर्पित । अध्यक्ष-श्राविका संस्थानगर (महिला विद्यापीठ), शोलापूर (महाराष्ट्र)। भारत शासन द्वारा "पद्मश्री' के अलंकरण से विभूषित । सम्पर्क-श्राविका संस्थानगर, वुधवार सोलापुर-2 (महाराष्ट्र)
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PROYAHOON
सरदारसिंह चोरडिया
प्रख्यात उद्योग विशेषज्ञ, प्रख्यात समाजसेवी एवं कुशल वक्ता। महाप्रबन्धक, बिरला उद्योग समूह ग्वालियर । कर्मठ समाज सेवी, क्षेत्रीय तथा प्रदेश की अनेकों समाजसेवी तथा औद्योगिक संस्थाओं से सम्बद्ध । ग्वालियर को अधिकांश प्रमुख समाजसेवी संस्थाओं व न्यासमण्डलों के प्रेरक, सरक्षक, उन्नायक एवं पदाधिकारी । सर्वधर्म मानव मन्दिरों के प्रेरक बसस्थापक । समन्वयवादी विचारधारा से ओतप्रोत, सर्वधर्म समभाव के हामी । अध्यक्ष, श्री 2500 वां भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव स्मारक न्यास तथा श्री 2.00 वां भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव समिति, ग्वालियर संभाग । सदस्य महासभा--जीवाजी विश्व
विद्यालय, ग्वालियर । सम्पर्क --बिरलानगर, ग्वालियर 474,004 । पं. सुमेरचन्द्र दिवाकर
शास्त्री, बी. ए; एल-ाल वी., न्यायतीर्थ, विद्वरत्न । जैन दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान, प्रखर लेखक व वक्ता । जन्म--8 अक्टूम्बर 190, सिवनी (म. प्र.)। 19 | में अमहयोग आन्दोलन में महात्मा गांधी के आव्हान पर अंग्रेजों द्वार' मचालित अंग्रेजी विद्यालय त्यागकर मरैना के जैन गुरुकुल में संस्कृत एव धर्म का अ ययन प्रारम्भ किया । म्य द्वाद महाविद्यालय, वाराणसी में न्यायती की उपाधि प्राप्त की। वैरिस्टर चम्पत गयजी की प्रेरणा मे हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में पुनः अध्ययन प्रारम्भ कर --वी. ए. एवालल. बी. की परीक्षा उत्तं ण की। आजन्म ब्रह्मचयं ब्रत धारणकर सम्पूर्ण जीवन समाज एव सस्कृति की सेवा को समर्पित । अ. भा. दि. जैन महासभा द्वारा "विद्वत्रन' की उपाधि से विभूषित, चरित्र नक्रवर्ती आचार्य शिगमणि 108 . योगीश्वर श्री शान्तिसागर जी महाराज द्वारा 'धर्म दिवाकर'' की पदवी प्रदत्त । भारत के मूडवी मठ के सवधाचोन दिगम्बर जैन प्रकृत अथ गज 'महाधवल' (महाबंध) को प्राप्त कर उसका सम्पादन किया। सम्पादक-कषाय पाहुड़ महावन्ध; पूर्व सम्पादक -- जैन गजट । टोकियो (जापान) में आयोजित सर्वधर्म सम्मेलन में जैनधर्म का प्रतिनिधित्व किया। अंग्रेजी व हिन्दी में अनेको मौलिक ग्रन्थों के रचयिता । प्रमुख रचनाएँ---जैनशासन, चरित्र चक्रवर्ती, महाश्रमण महाबीर, थमण - वेलगोला, सैद्धान्तिक चर्चा, चम्प पूरी सम्मेद शिखर, अध्यात्मिक ज्योति, तीर्थ कर Nudity of Jain Saints, Religion & Peace, Tirthankar Mahavir Life & Philosophy सम्पर्क ...दिवाकर सदन, सिवनी (म. प्र.)
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डा. सागरमल जैन . एम. ए., पी-एच. डी. । जैन दर्शन के प्रखर विद्वान, प्रबुद्ध लेखक । जीवाजी विश्वविद्यालय द्वारा दर्शनशास्त्र में जैन आचार दर्शन" विषय पर प्रस्तुत शोध प्रबन्ध पर डाक्टरेट की उपाधि से सम्मानित । अध्ययन के मुख्य विषय - जैन एवं वौद्ध दर्शन । प्राध्यापक एवं अध्यक्षदर्शनशास्त्र विभाग, हमीदिया कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, भोपाल। अनेकान्त की जीवन दृष्टि एवं विविध लेख प्रकाशित । अनेकों शोधपत्र प्रकाशित । सम्पर्क-प्राध्यापक एवं अध्यक्ष-दर्शनशास्त्र विभाग, हमीदिया कालेज, भोपाल ।
श्यामलाल पाण्डवीय वतन्त्रता सेनानी, लोकनेता, यशस्वी लेखक एवं पत्रकार, प्रख्यात समाजसेवी । जन्म-14 दिसम्बर 1896 मुरार (ग्वालियर)। 1917 में ग्वालियर राज्य में सर्वप्रथम, 'गल्प पत्रिका" नाम से मासिक पत्र का प्रकाशन किया। 23 वर्ष की अल्पायु में ही असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के कारण (1920 में ब्रिटिश भारत में) दण्डित । 1921 में पाक्षिक "समय" का प्रकाशन, जो बाद में साप्ताहिक हो गया। 1938 में अंग्रेजी साप्ताहिक State Herald का प्रकाशन किया। 1 दिसम्बर 1939 को उग्र भावनाओं के कारण बिना वारण्ट गिरफ्तारी, जेल यात्रा । सार्वजनिक सभा (ग्वालियर स्टेट कांग्रेस) के अध्यक्ष निर्वाचित (1940)। 1941 में जेल मुक्त। सदस्य, राज्य धारासमा (1944), सम्पादक -- गल्पपत्रिका, सा. समय, State Herald (w), नारद (पा.), मुनि, प्रणवीर, सा. प्रजापूकार, दै. हमारी आवाज । मध्यभारत निर्माण पर प्रथम मंत्रीमण्डल में संसदीय सचिव (1948)। द्वितीय मंत्रिमण्डल में मंत्री (1949) मनोनीत; तब से मध्यभारत विलयन (1956) तक विभिन्न महत्वपूर्ण विभागों में मंत्री व मंत्रीमण्डल के वरिष्ठ सदस्य रहे । अध्यक्ष, अ. भा. दिगम्बर जैन परिषद (1972)। अनेकों राष्ट्रीय, प्रान्तीय एवं स्थानीय संस्थाओं में विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर रहे। विभिन्न विषयों पर सैकड़ों लेख व लगभग दस पूस्तके प्रकाशित । सम्पर्क-प्रेम शान्ती भवन, फालके बाजार, ग्वालियर 474,00।।
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शान्तीलाल जैन "मधुकर"
वी. काम. । सशक्त कवि, लेखक एवं प्रतिष्ठित समाजसेवी । अनेकों समाजसेवी संस्थाओं से सम्बद्ध, समाजसेवी कार्यों में अग्रणी वस्त्र व्यवसायी। भावात्मक कविताओं के प्रणेता। देश की अनेकों प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लगभग डेड सौ काव्य रचनाएँ प्रकाशित । सम्पर्क8 वी., आर. जी. कर रोड़, श्याम बाजार, कलकत्ता 4 ।
डा. शिवकुमार नामदेव
एम. ए., पी-एच. डी. । जन्म -30 जून 1944, शहपुरा, मण्डला (म. प्र.)। जबलपुर विश्वविद्यालय से प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विषय में प्रथम श्रेणी में स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण । जबलपूर विश्वविद्यालय से "कलचुरी मूर्तिकला का समालोचनात्मक अध्ययन" विषय पर प्रस्तुत शोध ग्रन्थ पर डाक्टरेट की उपाधि से विभूषित । व्याख्याता-प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग, शासकीय महाविद्यालय डिन्डोरी (मण्डला)। श्रमण (बनारस), सन्मति सन्देश (दिल्ली), जैन प्रचारक (दिल्ली) सन्मति वाणी (इन्दौर), अनेकान्त (दिल्ली), मध्य प्रदेश सन्देश (भोपाल) आदि अनेकों पत्र पत्रिकाओं में जैन एवं जैनेतर विषयों पर सौ से भी अधिक शोधपत्र एवम् निबन्ध प्रकाशित । सम्पर्क-व्याख्याताप्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग, शासकीय महाविद्यालय, डिन्डोरी (मण्डला) म. प्र. ।
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हरिहर निवास द्विवेदी
प्रसिद्ध इतिहासकार, विधि विशेषज्ञ, साहित्यकार, पत्रकार । अभिभाषक - उच्चतम न्यायालय । इतिहास, पुरातत्व, हिन्दी साहित्य तथा विधि सम्बन्धी विषयों पर सौ अधिक शोध ग्रन्थ, मौलिक ग्रन्थ तथा टीकाएँ प्रकाशित । सैकड़ों शोधपत्र प्रकाशित । प्रसिद्ध पुस्तकें''मध्यभारत का इतिहास" (4 भाग), "दिल्ली के तोमर", "ग्वालियर के तोमर", "भारत की मूर्तिकला" "कीति स्तम्भ", "विपुरी", "तानसेन", "ग्वालियर राज्य के अभिलेख", ग्वालियर राज्य की मूर्तिकला", "मध्य देशी भाषा", एक लाख से अधिक मुद्रित पृष्ठों का हिन्दी एवं अंग्रेजी का विधि माहित्य । सम्पादन-'विक्रम स्मति ग्रन्थ", भारती (मासिक) सर्वोच्च न्यायालयीन निर्णय, मंगल प्रभात (साप्ताहिक), दैनिक नवप्रभात, जबलपुर ला जर्नल, म. प्र. राजस्व निर्णय, म. प्र. वीकली नोट्स । सम्पर्क--द्वारा ला जर्नल पब्लिकेशन्स, जयेन्द्रगज. ग्वालियर 474001
डा. हुकुमचन्द्र भारिल्ल
शास्त्री, न्यायतीर्थ साहित्य रत्न, एम. ए., पी-एच. डी.। जैन धर्मदर्शन के प्रकाण्ड विद्वान, प्रबुद्ध लेखक विचारक एवं ओजस्वी वक्ता । जन्म-बरोदास्वामी, झाँसी (उ. प्र.) आध्यात्मिक चिन्तक । तक संगत एवं अदभूत शैली के लोकप्रिय आध्यात्मिक प्रवक्ता । कुशल लेखक एवं उच्चकोटि के आध्यात्मिक निवन्धकार । अनेकों पुस्तकों के रचियता। सैकडों शोधपत्र एवम् निवन्ध प्रकाशित । अनेकों पुस्तकों का गुजराती, मराठी, व असमी में अनुवाद प्रकाशित । गत पांच वर्षो में आपके द्वारा रचित साढ़े चार लाख से भी अधिक पुस्तकें विक्रीत । पं. टोडरमल जी के साहित्य पर शोधकार्य में संलग्न । 'पं. टोडरमल व्यक्तित्व एवं कर्तत्व" नामक शोधप्रबन्ध पर इन्दौर विश्वविद्यालय से डाक्टरेट की उपाधि से विभुषित । संचालक---सम्प्रति पं. टोडरमल स्मारक ट्रस्ट जयपूर । कूल सचिव-श्री वीतराग विज्ञान विद्यापीठ । प्रमुख पुस्तके --- पं. टोडरमलव्यक्तित्व एवं कर्तत्व', 'भगवान महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ". "तीर्थ कर भगवान महावीर" सम्पर्क-पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए 4) वापू नगर, जयपुर-4 (राजस्थान)
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प्रतिवेदन
जीवाजी विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित “महावीर स्मृति ग्रंथ" में महावीर निर्वाण वर्ष में ग्वालियर में हए कार्यों का उल्लेख सामयिक, सराहनीय एवं अभिनन्दनीय है। इस वर्ष में सम्पन्न कार्यों एवं कार्यक्रमों में अनेकों महानुभावों का उल्लेखनीय सहयोग प्राप्त हुआ है। ग्वालियर में इस कार्य में समाजसेवा में अत्याधिक तत्पर श्री मिश्रीलाल जी पाटनी ने दिनांक 1-2-70 से कार्तिक वदी 30 सं. 2053 तक समिति के मंत्री रहकर सभी कार्यों में तन मन धन से पूर्ण सहयोग प्रदान किया। समिति के अध्यक्ष श्री वृधमल गंगवाल तथा कार्याध्यक्ष श्री मानिकचन्द्र जी गंगवाल रहे। समिति ने ग्वालियर संभाग के अनेक जिला एवं तहसीलों में भ्रमण कर 235 समितियां तथा कार्यसम्पादन में सहयोगार्थ उपसमितियां गठित की जिनमें 1200 के लगभग महानुभावों ने संलग्नता से तन मन धन से कार्य सम्पादन किया। ग्वालियर संभागीय समिति की अनुशंसा पर केन्द्रीय समिति के अध्यक्ष श्री साहू शान्तीप्रसाद जैन द्वारा ग्वालियर के कर्मठ कार्यकर्ताओं को स्वर्ण पदक व मानपत्र द्वारा सम्मानित किया गया।
इस महान अवसर पर लश्कर नगर में एक करोड़ रुपये के लगभग व्यय से अनेक धार्मिक कार्य हुए, ग्वालियर संभाग के अनेक नगरों में जैन समाज की ओर से जनता के लाभार्थ जैन औषधालय, वाचनालय, जैन धर्मशालाएं,प्याऊ, वालक्रीड़ालय, प्रसूतिगृह, पुष्पवाटिकाएं, महावीर कीर्ति स्तम्भ, नवीन जैन मंदिर निर्माण व प्राचीन मंदिरों का जीर्णोद्धार हआ। सुगनचन्द्र पाटनी माधवगंज की ओर से लश्कर में शिवणकला शिक्षालय भी प्रारम्भ किया। अनेक स्थानों पर नैतिक शिक्षालय, महाविद्यालय व छात्रावास स्थापित हए । जिलाध्यक्ष की अध्यक्षता में वनी अर्द्ध शासकीय समिति ने महावीर भवन हेतु भूमिप्राप्ति में सहयोग किया । महोत्सवों में शासन, जिलाध्यक्ष श्री आर. के. गुप्ता, निगम आयुक्ता अधिकारियों के सहयोग, जीवाजी विश्वविद्यालय द्वारा व्याख्यानमाला के आयोजन, व स्मृतिग्रन्थ के प्रकाशन में उपकूलपति श्री गोविन्द नारायण टण्डन व संयोजक श्री रवीन्द्र मालव के सहयोग हेतु समाज उनका आभारी है।
दिगम्बर जैन निर्ग्रन्थ मुनियों व संत चन्दन मुनिजी ने निरन्तर उपदेश व आशीर्वाद दिये व श्री सरदार सिंह चोरडिया ने तन मन धन से सहयोग देकर अत्याधिक परिश्रम के साथ प्रत्येक कार्य में सहयोग प्रदान किया। म. प्र. के भ्रमण हेतु आए धर्मचक्र में भी ग्वालियर सम्भाग से ढाई लाख रुपयों का प्रशंसनीय सहयोग दिया गया। केन्द्रीय कार्यालय को भी काफी धनराशि सहयोगार्थ भिजवाई। मिश्रीलाल पाटनी का कार्य-सहयोग प्रशंसनीय रहा।
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