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ने अहिसक समाज की रचना की और अपने को करते है और अपने एकांगी एकान्त ज्ञान को सत्य व्यसनों से मुक्त किया । व्रत-रहित-गन्तव्य मान से ठहराते हैं, उसी प्रकार मोक्ष मार्ग के त्रिरत्न-सत्य को अजान मानव को ब्रत-निष्ट किया तथा इन्द्रियों की विभक्त कर एक दूसरे से निरपेक्षता रखनेवाले सामादासता से मुक्त किया । इसी के नेतृत्व में मनुष्य जिकों ने सर्वोदयी तीर्थ के तीन मणिसोपानों का आदर्शो के ऊँचे मार्गों का आरोही बना और इसी के अलग-अलग अपहरण कर लिया है। आचार्य मार्ग से चलकर उसने कैवल्य प्राप्त किया।
भावात्मक विभिन्नता के दुष्परिणाम न धौधामिर्कविना
यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो इस अपहरण ऐसी निर्दोष संस्कृति में आज जान बूझकर विकारों।
काण्ड से समाज में गिरावट ही आई है । एक के पास का प्रवेश कराया जा रहा है । जहाँ श्रमण श्रमणी कर्म के संवर करने का दिव्यारग रह गया है तो और श्रावक श्राविका (चतुःसंघ) मिलकर धर्म के इस ।
निर्जरा का अमोधास्त्र नहीं है तो दूसरे के पास निर्जरा महारथ को खीचते थे, वहीं आज ये पृथक-पृथक मात्र रहकर 'संवर' का अभाव हो गया है। परिणाम होकर 'महारथ' को गति देने में असमर्थ हो गये हैं। स्वरूप विसंवाद और शिथिलाचार का प्रवेश हो गया अंग अंगी के समान धर्म और धार्मिक का नित्य संबन्ध
है। समाज अपने संगठन की शक्ति को खोता जा रहा है। न धर्मों धार्मिकैविना यह अव्यभिचारी सूत्र हैं।
है। 'नागेन्द्रा अपि बध्यवन्ते संहतैस्तणसंचयः' तिनकों तीन रत्नों की माला
की रस्सी बनाकर उससे गजराज को बांध लिया जाता
है । किन्तु यदि तिनका-तिनका पृथक कर दिया जाए मोक्ष मार्ग का निरूपण करते हुए सम्यग्दर्शन-ज्ञान तो स्पष्ट है कि उसमें गजेन्द्रबन्धन का सामर्थ्य नहीं चारित्राणि मोक्ष-मार्ग: कहा गया है। "मोक्षमार्ग" पद है। सम्यक्तवानुपूविक दर्शन-ज्ञान-चारित्र को एक बंटी एकवचनान्त है और सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्राणी' बहु हुई रस्सी के रूप में देखनेवाला ही उससे परम पुरुषार्थ वचन है। मोक्ष मार्ग में 'त्रितयमिदं व्याग्रियते' ये तीनों की उपलब्धि कर सकता है। इस समन्वित दृष्टि कोण साधन है। इनमें से किसी एक अंग को लेकर प्रवर्त- को चतुःसंघ की भावात्मक एकता से ही प्राप्त किया मान होनेवाले सम्यकत्व की अखिलता को जानकर जा सकता है। आहार देनेवाला और उसे ग्रहण करने उसके खण्ड से चिपके हुए है। समाज का पण्डित वर्ग वाला तथा आहारशास्त्र की व्यवस्था देनेवाला सम्यक्तव परिच्छिन्न ज्ञान को लिए घूमता है। श्रावक (श्रावक-श्रमण और पण्डित) तीनों यदि संघ प्रेम से समदर्शन से सन्तुष्ट है, और त्यागी चारित्र मात्र में कर्तव्य-नियोजित हों तो आचारशैथिल्य आ ही नहीं अपने श्रामण्य को कृतार्थ समझते हैं । एक सूत्र में पाएगा। अपना हाथ अपने मुह में विषाक्त कवल नहीं पिरोने पर जो माला निर्माण की जाती है, उसी की देता। किन्तु अपने हाथ और मुंह जो शरीर के अंग एक-एक मणि को विकीर्ण करने में माला का गुम्फ नहीं हैं तथा अगी के लिए कर्त्तव्य समर्पित हैं यदि अपना आ पाता । सम्यकत्व से विशिष्ट दर्शन ज्ञान और 'गांगी' भाव भूल जाएंगे तो विषकवल देना हाथ के चारित्र की यह माला ही अपने अत्रुटित जाप्य से मोक्ष लिए और उसे उदरसात् करना मुह के लिए कठिन सिद्धि दे सकती है । इसे एकैकश: विभक्त करनेवाले नहीं होगा। 'एकोदराः पृथग्ग्रीवा अन्योन्यफलभक्षिण: तो 'अन्धगजन्याय' के अनुगामी हैं। जैसे 'अन्धगजन्याय- त एव निधनं यान्ति' यह एक कथा है जिसमें बताया वादी परस्पर अपने 'गज' सम्बन्धी ज्ञान पर विवाद गया है कि एक पशु के पेट तो एक था, किन्तु मुख दो
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