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वर्तमान युग में श्रमा
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O उपाध्याय मुनि श्री विद्यानन्द जो
उज्जवल श्रमण परम्परा
श्रमण संस्कृति की उज्ज्वल परम्परा ने शील, संयम; तप और शौच को चारित्र में परिवर्तित कर मानव-जीवन को युगों-युगों से विभूतिमय किया है । आचार और विचार के क्षेत्र में युगान्तरकारी परिवर्तन उपस्थित किए हैं। मानव को मानव समझने का विवेक जन-मानस में अंकुरित किया है और अखिल मंगलमय अहिंसामूलक विश्व मंत्री का सन्देश दिया है । समयसमय पर आनेवाले दुरन्त उपसर्गों को पार कर आज भी वह अपने अर्ध धरातल पर अवस्थित है और काल प्रभाव से प्रभावित न होते हुए काल-दोषों को निरस्त करने में ही संलग्न है । आज जबकि विश्व में काले, गोरे तथा परस्पर भिन्न जाति सत्ताक मानवों में एकदूसरे को समाप्त करने की स्पर्धा लगी हुई है, जिज्ञासु वृत्ति से सीमातिक्रमण किये जा रहे हैं, मानव को परि त्राण देने का पाथेय केवल उदर श्रमण संस्कृति में हैं । क्षमा और अहिंसा के मणि पीठ से भगवती जिनवाणी
पुकार-पुकार कर कहती है । "खम्मामि सव्वजीवान् सव्वे जीवा खमन्तु मे" मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ और सारे जीव मुझे क्षमा करें । सम्पूर्ण भूगोल और खगोल पर एकाधिपत्य चाहने वालों को "परिग्रहपरिमाण के सूक्त श्रमण संस्कृति ने ही दिए हैं। जहां शरीर भी परिग्रह है वहाँ संग्रह वृत्ति के लिए स्थान कहाँ ? ऐसी उदार, करुणावतार तीर्थं करवाणी का प्रसार कर्ता निर्मल मन, काय, वचन दिखलाता, जन को मोक्ष द्वार । सम्यक्त्व - शिला पर लिखे यहाँ दर्शन ज्ञान चारित्र - लेख, सम्पूर्ण विश्व को अभयदान देते जिनवाणी के प्रदेश | इसकी कल्प वृक्ष छाया में स्थित होकर मानव धर्म ने अपना सर्वस्व प्राप्त किया है ।
श्रमण-संस्कृति का मानव-जाति पर उपचार :
इस संस्कृति ने मानव को भक्ति मार्ग दिया, मुक्ति पथ के रत्न-सोपानों की रचना की और विश्वबन्धुत्व के भाव दिये । इसमें आश्रय में पल कर मनुष्य
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