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________________ । वह दे न खाण खरचं न कि दुवै करहि दिनि कलह अति संगी भतीजी भुवा वहिणि भणिजी न ज्यावे रहे रूसो मोडि आपु ग्योतो जब आये । पाहूणो सगो आयो सुर्ण रहे छिप्पो मुख रखकर जिव जाय तिवहि नीसरै यों धनु संच्यो कृपण नर ॥" कृपण की पत्नी, जब नगर की दूसरी स्त्रियों को अच्छा खाते-पीते और अच्छे वस्त्र पहिनते तथा धर्म कर्म का साधन करते देखती तो अपने पति से भी वैसा ही करने को कहती । इस पर दोनों में कलह हो जाती थी। तब वह सोचती है कि मैंने पूर्व में ऐसा क्या पाप किया है जिससे मुझे ऐसे अत्यन्त कृष्ण पति का समागम मिला । क्या मैंने कभी कुदेव की पूजा की, सुगुरु साधुओं की निन्दा की, कभी झूठ बोला, दया न पाली, रात्रि में भोजन किया, या व्रतों की संख्या का अपलाप किया। मालूम नहीं मेरे किस पाप का उदय हुआ जिससे मुझे ऐसे कृपण पति के पाले पड़ना पड़ा, जो न खरचे, न खरचने दे, निरन्तर लड़ता ही रहता है । एक दिन पत्नी ने सुना कि गिरनार की यात्रा करने संघ जा रहा है । तब उसने रात्रि में हाथ जोड़ कर हँसते हुए पति से संघ यात्रा का उल्लेख किया और कहा कि सब लोग संघ के साथ गिरनार और शत्रुंजय की यात्रा के लिए जा रहे हैं । वहाँ नेमिजिनेन्द्र की वन्दना करेंगे, जिन्होंने राजमति को छोड़ दिया था । वे वन्दना - पूजाकर अपना जन्म सफल करेंगे, जिससे वे पशु और नरक गति में न जायेंगे, और नरक गति में न जायेंगे, किन्तु अमर पद प्राप्त करेंगे। अतः आप भी चलिए । इस बात को सुनकर कृपण के मस्तक में सिलवट पड़ गई, वह बोला कि क्या तू बावली हुई है, जो धन खरचने की तेरी बुद्धि हुई । मैंने धन चोरी से नहीं लिया और न पड़ा हुआ पाया, दिन रात नींद, भूख, प्यास की वेदना सही, बड़े दुःख से उसे प्राप्त किया है। अतः खरचने की बात अब मुंह से न निकालना । Jain Education International तब पत्नी बोली हे नाथ ! लक्ष्मी तो बिजली के । समान चंचला है । जिनके पास अटूट धन और नवनिधि थी, उनके साथ भी धन नहीं गया। जिन्होंने केवल संचय किया, उन्होंने उसे पाषाण बनाया, जिन्होंने धर्म कार्य में खर्च किया, उनका जीवन सफल हुआ । इसलिए अवसर नहीं चूकना चाहिए, नहीं मालूम किन पुण्य परिणामों से अनन्त धन मिल जाय । तब कृपण कहता है कि तू इसका भेद नहीं जानती । पैसे बिना आज कोई अपना नहीं है। धन के बिना राजा हरिश्चन्द्र ने अपनी पत्नी को बेचा था तव पत्नी कहती है कि तुमने दाता और दान की महत्ता नहीं समझी। देखो, संसार में राजा कर्ण और विक्रमादित्य से दानी राजा हो गये हैं, सूम का कोई नाम नहीं लेता, जो निस्पृह और सन्तोषी हैं वह निर्धन होकर भी सुखी है किन्तु जो धनवान होकर भी चाह दाह में जलता रहता है वह महादुखी है। मैं किसी की होड़ नहीं करती, पर पुण्य कार्य में धन का लगाना अच्छा ही है । जिसने केवल धन संचय किया, किन्तु स्व-पर के उपकार में नहीं लगाया वह चेतन होकर भी अचेतन जैसा है, जैसे उसे सर्प ने डस लिया हो। इतना सुनकर कृपण गुस्से से भर गया और उठ कर बाहर चला गया । तव रास्ते में उसे एक पुराना मित्र मिला। उसने कृपण से पूछा, मित्र ! आज तेरा मन म्लान क्यों है ? क्या तुम्हारा धन राजा ने छीन लिया, या घर में चोर आ गए, या घर में कोई पाहुना आ गया है, या पत्नी ने सरस भोजन बनाया है । किस कारण से तेरा मुख आज म्लान दीख रहा है । कृपण ने कहा - मित्र ! मुझे घर में पत्नी सताती है, यात्रा में जाने के लिए धन खरचने के लिए कहती है, जो मुझे नहीं माता, इसी कारण में दुर्बल हो रहा हूँ । रात-दिन भूख नहीं लगती । मित्र मेरा तो मरण आ गया है । तब मित्र ने कहा, हे कृपण ! सुन, तू मन में दुःख न कर । पापिनी को पीहर पठाय दे, जिससे तुझे कुछ सुख मिले। यह सुनकर कृपण को अति हर्ष हुआ । २५८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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