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में उत्पन्न ये दोनों भाई कुशल निमित्तवेत्ता थे। इन भद्रबाह संहिता आदि ग्रन्थों की रचना तथा नैमित्तिक दोनों भाइयों में भद्रबाह ने जैन दीक्षा ले ली पर बराह होने का कतई उल्लेख नहीं । अत: छेद सूत्रकार भद्रबाह मिहिर ने स्वधर्म परित्याग नहीं किया । बराहमिहिर तथा नियक्तिकार भद्रबाह दोनों का व्यक्तित्व निश्चित के पुत्र के सन्दर्भ में भद्रबाहु का निमित्तज्ञान बराह- ही पृथक पृथक रहा होगा। बराहमिहिर ने अपनी मिहिर की अपेक्षा प्रबल निकलफलतः बराहमिहिर पंच सिद्धांतिका शक संवत 427 (ई. 505) में जैनों से द्वेष करने लगे। इस द्वषभाव के परिणाम समाप्त की थी। अतः तृतीय भद्रबाहु का भी यही समय स्वरूप बराहमिहिर कालकवलित होने पर व्यन्तर निश्चित किया जा सकता है। जाति के देव हए और जैनों पर घनघोर उपसर्ग करने लगे। इन उपसर्गों को दूर करने के लिए भद्रबाहु ने
प्रश्न है, बराहमिहिर के भ्राता भद्रबाहु ने प्रस्तुत उपसग्गहरस्तोत्र लिखा । प्रबन्धकोष में इससे भिन्न भद्रबाहु संहिता की रचना की या नहीं ? हमें ऐसा अन्य कथा का उल्लेख है । तदनुसार बराहमिहिर और
लगता है कि बराहमिहिर की वृहत्संहिता के समकक्ष भद्रबाहु दोनों ने जैन मुनिब्रत ग्रहण किए । इनमें भद्र
में कोई अन्य जन संहिता रखने की दृष्टि से किसी बाहु चतुर्दश पूर्वज्ञान के धारी थे । जिन्होंने नियुक्तियों
दिगम्बर जैन लेखक ने श्रु तकेवली भद्रबाहु को सर्वा- . तथा भद्रबाहसंहिता जैसे ग्रन्थों की रचना की। परन्तु
धिक श्रेष्ठ एवं उपयोगी आचार्य समझ और उन्हीं के स्वभाव से उद्धत होने के कारण आचार्य बराहमिहिर
के नाम पर एक सहिना ग्रन्थ की रचना कर दी। को जैन मुनि दीक्षा त्यागकर पूनः व्राह्मणब्रत धारण
वृहत्संहिता का विशाल सांस्कृतिक कोष, विषद निरूपण करना पड़ा। इसी के पश्चात उन्होंने वृहत्संहिता लिखी
उदात्त कवित्व शक्ति, सूक्ष्म निरीक्षण और अगाध
विद्वता आदि जैसी विशेषताएँ भद्रबाह संहिता में यहा यह उल्लेखनीय है कि प्रबन्धकोष के पूर्ववर्ती अन्य किसी ग्रन्थ में भद्रबाहु को भद्रबाह संहिताकार अथवा
दिखाई नहीं देतीं। अतः यह निश्चित है कि भद्रबाहु बराहमिहिर का सहोदर नहीं बताया गया। प्रबन्धकोषा०
संहिताकार ने ही वृहत्संहिता का आधार लिया होगा। में भी इसी से मिलती जुलती घटनाका उल्लेख मिलता
"भद्रबाहुवनो यथा" आदि शब्दों से भी यही बात स्पष्ट होती है । भद्रबाहु संहिता में छन्दोभंग, ब्याकरण दोष,
पूर्वापर विरोध, वस्तु वर्णन शैथिल्य', क्रमबद्धता का परम्प र बराहमिहिर के सहोदर भद्रबाह अभाव, प्रभावहीन निरूपण इत्यादि अनेक अक्षम्य दोष ने ही उपयुक्त नियुक्तियों की रचना की है । जिन भी उक्त कथन की पुष्टि करते हैं। ग्रन्थों में श्र तकेवली भद्रबाहु का चरित्र चित्रण मिलता है। उनमें द्वादशवर्षीय दुष्काल, नेपला, प्रयाण, महाप्राण स्व. पं. जुगलकिशोर मुख्तार, डॉ. गोपाणी का ध्यान का आराधन, स्थूलभद्र की शिक्षा छेद सूत्रों की अनुसरण करते हुए भद्रबाह संहिता को इधर-उधर का रचना आदि का वर्णन तो मिलता है परन्तु बराह- बेढ़ेगा संग्रह मानते हैं जिसे 16-17 वीं शती में संकमिहिर का भाई होना, नियुक्तियों, उपसग्गहरस्तोत्र तथा लित किया गया था। यह ठीक नहीं क्योंकि 16-17 वीं
10. प्रबन्धकोश-सं. मुनि जिनविजय सिंघी जैन सीरिज. 1.2 11. भद्रबाहु संहिता, सं.-ए. एस. गोपाणी, पुष्पिका, पृ. 70 12. वही, प्राक्कथन, प. 3-4
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