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कवियों ने अनेक पदों की रचना की । रत्नकीर्ति के नीच नहीं है। कर्मों के कारण ही उसे ऊँच व नीच की पदों की संख्या 38 है तथा कुमुदचन्द्र के भी इतने संज्ञा दी जाती है तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि नामों ही पद होंगे । रत्नकीति का एक पद देखिये---
से सम्बोधित किया जाता है। आत्मा तो राजा है वह
शूद्र कैसे हो सकती है। सखी री नेमि न जानी पीर । बहोत दिवाजे आये मेरे घरि, संग लेई हलधर वीर। ऊँच नीच नवि अध हुयि, कर्म कलंक तणो कीतु सोई । नेमि सुख निरखि हरषी मनसू', अब तो होई मन धीर। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य न शूद्र, अधा राजा नवि होय शूद्र । तामे पसूय पुकार सुनी करि, गयो गिरिवर के तीर । चन्दवदनी पोकारती डारती, मण्डन हार उर चीर। इनके पश्चात् एक के बाद एक भट्टारक होते रत्नकीरती प्रभु भये वैरागी, राजुल चित्त कियो धीर। गये । अजमेर, नागोर, आमेर, जयपूर, डूंगरपुर,
गालिया कोट, कारंजा, उदयपुर आदि स्थानों में कुमुदचन्द्र के पदों में अध्यात्म, विरह और भक्ति उनकी गादियाँ स्थापित हुई तथा वहीं से वे बिहार तीनों का सामंजस्य है। 'मैं तो नर भव वारि गया यों' करके जन-जन में साहित्य के प्रति रुचि पैदा किया पद यदि अध्यात्मपरक है तो 'सखी री अब तो रहयो करते, अपने शिष्यों को साहित्य निर्माण की ओर प्रोत्सानहिं जात, विरहपरक पद हैं । इन दोनों सन्तों ने हित किया करते रहते । व्र. जिनदास, ब्रह्मराय मल्ल, हिन्दी साहित्य में जो पद साहित्य लिखने की परम्परा बख्तराम शाह, लक्ष्मीराम चांदवाड़ा जैसे विद्वान् इन्हीं डाली वह भविष्य में होनेवाले कवियों के लिये वरदान भट्टारकों के शिष्य थे जिन्होंने साहित्यिक विकास की सिद्ध हुई।
ओर विशेष ध्यान दिया और देश के साहित्यिक
पक्ष को मजबूत किया। इन भट्टारकों ने संस्कृत भाषा 16वीं 17वीं शताब्दी में एक और प्रभावशाली
को अपना कर देश में उसे उच्च स्थान दिया तथा अपने भट्टारक हुए जिनका नाम भ. शुभचन्द्र है। भ. शुभ
काव्यों के माध्यम से उसे जन-सामान्य में लोक-प्रिय चन्द्र शास्त्रों के पूर्ण मर्मज्ञ थे। उन्हें षटभाषा कवि
बनाया गया। एक ओर संस्कृत तथा दूसरी ओर हिन्दी चक्रवर्ती कहा जाता था । इन्होंने जो साहित्य सेवा अपने
राजस्थानी दोनों ही भाषाओं को अपनाकर इन्होंने जीवन में की वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखने
साहित्य क्षेत्र में उदार वातावरण को स्थान दिया। योग्य है। इन्होंने संस्कृत में 40 रचनाएँ तथा हिन्दी
वास्तव में 500 वर्षों तक इन भट्टारकों ने देश में 7 रचनाओं को निबद्ध करके भारतीय साहित्य की
का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से जो विकास अभूतपूर्व सेवा की। इनकी सभी हिन्दी कृतियाँ लघु
किया वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है । हैं किन्तु भाव व शैली की दृष्टि से उत्तम हैं "तत्व
लेकिन अभी तक इनकी सेवाओं का जितना मूल्यांकन
ही सार दहा, इनकी सुन्दर कृति है । इसमें दोहे व होना चाहिए था उतना नहीं हो सका है और उसकी चौपाई हैं । रचना छोटी होने पर भी अत्यधिक महत्व
व महती आवश्यकता है। पूर्ण हैं । एक स्थान पर आत्मा का वर्णन करते हुए कवि ने कहा कि किसी की भी आत्मा उच्च अथवा
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