________________
मथुरा नगरी और जैन कला
शिलापट्ट पर लोणशोधिका नाम की वैश्या की पुत्री मथुरा एक कलानगरी के रूप में प्राचीन भारत
वसु द्वारा अरहत देवकुल को दान देने का उल्लेख है । में अनेक शताब्दियों तक विख्यात रही है। कुषाण
इस पट्ट पर एक स्तूप व सोपानयुक्त तोरण और और गुप्तकाल में कलावंतों ने इस नगरी को देवालयों,
प्रदक्षिणापथ बहुत ही कलात्मक ढ़ग से चित्रित किया अर्हत आयतनों, स्तप और मतियों से सुशोभित किया। गया ह । कुषाणकाल
गया है। कुषाणकालीन पार्श्वनाथ की मूर्ति, जो मथुरा यहाँ की शिल्प शालाओं में बनाई हुई लाल रंग संग्रहालय में सुरक्षित है, एक उत्कृष्ट कुषाणकालीन की प्रस्तर मूर्तियाँ सारनाथ, बौधगया आदि शिल्पकला का नमूना मानी जाती है । महावीरजी की स्थानों पर भेजी जाती थीं । मथुरा में कंकाली जन्मकथा से संबन्धित हरिण-गमेशी की मूर्तियाँ भी टीला नामक एक प्राचीन स्थान है । ऐसा अनुमान
मिली हैं। गए तीन साल से कंकाली टीले पर पुन: लगाया जाता है कि इस टीले के स्थान पर ईसा पूर्व उत्खनन कार्य हो रहा है। इसके फलस्वरूप यहाँ एक द्वितीय शताब्दी में एक जैन बस्ती रही होगी। वर्तमान अतीव सुन्दर पक्की ईटों की बनी कूषाणकालीन शताब्दी के आरम्भ में यहाँ पर खदाई करने पर पुष्करिणी मिली है । इसमें एक खंडित प्रतिमा जो कुषाणकालीन आयागपट्ट मिला, जिस पर अष्टमंगल लेखांकित है, प्राप्त हुई है। एक विशेष उल्लेखनीय सहित मध्यवर्ती जिन प्रतिमा उत्कीर्ण है । दूसरे एक लेख की उपलब्धि, जो इस पूष्करिणी से हुई है, उसमें
आयागपट्र पर मंगल चिन्ह सहित मध्यवर्ती जिन प्रतिमा (मथुरा से प्राप्त) दूसरी शताब्दी
www.jainelibrary.org
For Private & Personal Use Only
Jain Education International