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________________ बनाया था। इस आम ने बप्पभट्रि सूरि का शिष्यत्व बीच में स्थित था। उस पर एक वि० सं० 1165 ग्रहण किया और गोपगिरि पर एक सौ एक हाथ लम्बा (सन 1108 ई.) का शिलालेख भी मिला था, जिसमें मन्दिर बनवाया जिसमें वर्धमान महावीर की विशाल केवल वर्ष ही पढ़ा जाता था। श्री कनिंघम ने अनुमान प्रतिमा स्थापित की गई । बप्पभट्टिचरित तथा प्रभावक यह किया था कि यह मन्दिर सन् 1108 ई० में निर्मित चरित से भी इस अनुश्रुति की पुष्टि होती है । "आम" हुआ था । यह कथन ठीक ज्ञात नहीं होता । यह वही यदि यशोवर्मन का राजकुमार है तब उसका समय जैन मन्दिर था जो सन 750 ई. के आसपास आम 750 ई० माना जाएगा। गोपाचलगढ़ पर जैन मन्दिर ने बनवाया था। वि० सं० 1165 का शिलालेख निर्माण का यह प्रथम उल्लेख है। आम द्वारा निर्मित जीर्णोद्धार से सम्बन्धित होगा। वि० सं० 1165 में जैन मन्दिर बहुत समय तक अस्तित्व में रहा । संभवतः कोई नवीन जैन मन्दिर गोपाचलगढ पर निर्मित नहीं उसे तेरहवीं शताब्दी में कभी तोड़ दिया गया था। यह दुआ था. न हो सकता था। दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि इस मन्दिर में उत्कीर्ण मूर्तियां अत्यन्त पुष्ट मूर्तिशिल्प का उदाहरण कन्नौज के प्रतीहार राजा परम वैष्णव थे । रामदेव थीं। अभी हाल ही में सिन्धिया पब्लिक स्कूल के तथा भोजदेव ने गोपाचलगढ़ को अपनी दूसरी इतिहास के प्राध्यापक श्री आर्थर ह्य ज को गढ़ पर राजधानी बनाया था। चतुर्भुज मन्दिर के शिलालेख गंगोलाताल के कचरे में एक मूर्तिखण्ड प्राप्त हुआ तथा अन्य शिलालेखों से यह ज्ञात होता है कि रामदेव है। भारतीय मूर्तिकला के अवशेष की यह अप्रतिम प्रतीहार ने गोपाचलगढ़ पर स्वामि कार्तिकेय का उपलब्धि है और आठवीं शताब्दी के पश्चात् की नहीं मन्दिर बनवाया था और आनन्दपूर (गुजरात) के है। उस समय ग्वालियर के आसपास अन्य जैन बाइल्लभद्र को "मर्यादाधूर्य" (सीमाओं का रक्षक) नियुक्त मन्दिरों का भी निर्माण हुआ था । लेखक के संग्रह में किया था । वि० सं० 932 (सन् 875 ई०) के शिलाजो जैन चौखम्भा है वह उसे मुरार नदी के पास एक लेख से ज्ञात होता है कि इस बाइल्लभट्ट का पुत्र अल्ल बंगले में प्राप्त हुआ था। वह भी आठवीं शताब्दी की गढ़ का कोट्रपाल था और उसने अपने पिता की स्मति कृति ज्ञात होता है। तेली के मन्दिर के प्रांगण में अनेक में बाइल्लभट्ट स्वामिन् विष्णु का मन्दिर बनवाया था। जैन मूर्तियां रख दी गई हैं। उनमें से अनेक आठवीं परन्तु इसका यह आशय कदापि नहीं है कि प्रतीहारों और नौवीं शताब्दी की ज्ञात होती हैं । गूजरीमहल के समय में जैन धर्म के अनुयायियों पर कोई प्रतिबंध संग्रहालम में भी आठवीं और नौवीं शताब्दियों की लगाया गया था। भारत का राजतन्त्र समस्त प्रजाअनेक जैन मूर्तियां हैं, परन्तु उनके उपलब्ध होने के धर्मों के पोषण की नीति अपनाता था । स्थलों का पता नहीं चलता। उनमें से अनेक ग्वालियर गढ़ अथवा ग्वालियर नगर से प्राप्त हुई होंगी। जिस समय कन्नौज के प्रतीहारों का प्रताप सूर्य पूर्ण बापभट्रि सूरि उपदेश से आम ने जो विशाल जैन मन्दिर प्रभामय होकर अस्ताचलगामी हो रहा था, उसी समय बनवाया था, उसके अवशेष मेजर जनरल कनिंघम ने चम्बल की उपत्यिका में एक नवीन असिजीवी वर्ग भी देखे थे । वह सासबहू मन्दिर तथा हथिया पौर के संगटित हो रहा था। स्थानीय कच्छपान्वय वर्ग को 4. आर्कोलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, भाग 2, पृ० 363 । 5. द्विवेदी, ग्वालियर राज्य के अभिलेख, क्र० 8 तथा 415 ३२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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