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महावीर स्तवन प्राकृतएस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोइ घाइ कम्ममलं । पणमामि वडढमाणं तित्थं-धम्मस्सकत्तारं। वीर विसाल णयणं रत्त प्पल कोमलस्समप्पायं । तिविहेण पणमिऊण सील गुणाणं णिसामेह । तिलोए सव्वजीवाणंहिदं धम्मोवदेसिणं । वडढमाणं महावीरं वंदित्ता सव्ववेदिणं ।। णमिऊण जिणवीरं अणंत वर णाणंदसण सहावं
-कुन्दकुन्दाचार्य • अनुवाद--- 1. सुर, असुर और मनुष्यों के इन्द्रों (राजाओं) से वन्दनीय, घातिया कर्म रूपी मल को धोकर नष्ट कर दिया जिन ने, और जो धर्म रूपी तीर्थ के कर्ता हैं, उन श्री वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार करता हूँ। . (बाह्य में) जिनके विशाल नेत्र हैं। और चरण लाल कमल जैसे कोमल हैं, (अन्तरंग में) जो केवल ज्ञान रूपी विशाल नेत्रों के धारक हैं, और जिनकी रागद्वेष रहित कोमल वाणी रागद्वेष को दूर करनेवाली है, शील गुणों की प्राप्त्यर्थ उन श्री वीर प्रभू को, मन-वच-काय से प्रणाम करता है।
तीन लोकों के समस्त जीवों का हित करनेवाले धर्मोपदेशक सर्वज्ञ वर्द्धमान महावीर की वन्दना करता हूँ।
___ अनन्त और उत्कृष्ट ज्ञान-दर्शन स्वभाव से युक्त महावीर जिनेन्द्र को नमस्कार हो । संस्कृतत्वया नाथ जगतसुप्तं महामोह निशागतम् । ज्ञान भास्कर विम्वेन बोधितं पूरुतेजसा ।।
नमस्ते वीतरागाय सर्वज्ञाय महात्मने । याताय दुर्गमं कुलं संसारोदन्वतः परम् ॥ : भवता सार्थवाहेन भव्य चेतन वाणिजाः । यास्यन्ति वितनुस्थानं दोष चारैरलुष्टिताः।।
प्रवर्तितस्त्वया पन्था विमलः सिद्धगामिनाम् । कर्मजालं च निर्दग्धं ज्वलित ध्यानवन्हिना। निर्बन्धूनामनाथानां दुःखाग्नि परिवर्तिनाम् । बन्धु थश्च जगतां जातोऽसि परमोदयः ।। कथं कुर्यात्तव स्तोत्रं यस्यान्तपरिवर्जिताः । उपमान निमुक्ता गुणः केवलिगोचराः॥ -रविषणाचार्यः अनुवाद
हे वीरनाथ ! महामहि रूपी निशा के मध्य सोये पड़े इस संसार को आपने अपने अमित तेजपूर्ण ज्ञान सूर्य द्वारा जगाया है।
हे भगवान ! आप वीतराग हो, सर्वज्ञ हो, महात्मा हो, और संसार रूपी सागर के दुर्गम अंतिम तट पर पहुंच गए हो, अतः आषको नमस्कार हो। आप ऐसे उत्तम सार्थवाह हो कि भव्य जीव रूपी अनेक व्यापारी आपके नेतृत्व में आपके साथ निर्वाणधाम को प्राप्त होंगे, और राह में दोष रूपी लुटेरे उन्हें नहीं लूट सकेंगे।
आपने मोक्षाभिलाषियों को निर्मल मोक्ष का मार्ग दिखाया है, और ध्यान रूपी अग्नि से कर्मों के समूह को भस्म कर दिया है।
जिनका कोई बन्धु नहीं है, जिनका कोई नाथ नहीं, उन दुःखरूपी अग्नि में जलते हुए संसारी जीवों के आप ही वन्धु हो, आप ही नाथ हो, और आप ही उन्हें परम अभ्युदय प्राप्त करानेवाले हो।
हे भगवन् ! हम आपके गुणों का स्तवन कैसे कर पावें, जवकि वे अनन्त हैं, उपमा रहित हैं, और केवल ज्ञानियों के विषय हैं।
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