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मोक्षदशा का निषेधात्मक चित्रण प्रस्तुत करते हुए अर्थात् वह वाणी, विचार और बुद्धि का विषय नहीं है। लिखते है मोक्षदशा में न सुख है न दुःख है, न पीला किसी भी उपमा के द्वारा भी उसे नहीं समझाया ज है, न बाधा है, न जन्म है, न मरण है। न वहां सकता, है क्योंकि उसे कोई उपमा नहीं दी जा सकती, इन्द्रियां है, न उपसर्ग है, न मोह है, न व्यामोह है, न वह अनुपम है, अरूपी सत्ताधान है। उस अपद का निद्रा है; न वहा चिन्ता है, न आर्त और रौद्र विचार कोई पद नहीं है अर्थात् ऐसा कोई शब्द नहीं है जिसके ही, वहाँ तो धर्म (शुभ) और शुक्ल (प्रशस्त) विचारों द्वारा उसका निरूपण किया जा सके। उसके बारे का भी अभाव है12 | मोक्षावस्था तो सर्व संकल्पों का में केवल इतना ही कहा जा सकता है, वह अरूप, अरस अभाव है, वह बुद्धि और विचार का विषय नहीं है वह अवर्ण, अगंध और अस्पर्श है क्योंकि वह इन्द्रिय ग्राह्य पक्षातिक्रांत है। इस प्रकार मुक्तावस्था का निषेधात्मक नहीं है। विवेचन उसकी अनिर्वचनीयता को बताने के लिए है।
गीता में मोक्ष का स्वरूपमोक्ष का अनिर्वचनीय स्वरूप
गीता की समग्र साधना का लक्ष्य परमतत्व, ब्रह्म मोक्षतत्व का निषेधात्मक निर्वचन अनिवार्य रूप अक्षर पुरुष अथवा पुरुषोत्तम की प्राप्ति कहा जा सकता से हमें उसकी अनिर्वचनीयता की और ही ले जाता है। है। गीताकार प्रसंगान्तर से उसे ही मोक्ष निर्वाणपद, पारमार्थिक दृष्टि से विचार करते हए जैन दार्शनिकों ने अव्यय पद, परमपद, परमगति और परमधाम भी उसे अनिर्वचनीय ही माना है।
कहता है। जैन एवं बौद्ध विचारणा के समान गीता
कार की दृष्टि में भी संसार पुनरागमन या जन्म मरण आचारांग सूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है की प्रक्रिया से युक्त है जबकि मोक्ष पुनरागमन या समस्त स्वर वहां से लौट आते हैं, अर्थात् मुक्तात्मा जन्म मरण का अभाव है। गीता का साधक इसी ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की प्रवृति का विषय नहीं प्रेरणा को लेकर आगे बढ़ता है (जरामरणमोक्षाय है, वाणी उसका निर्वचन करने में कदापि समर्थ नहीं 7.29) और कहता है, "जिसको प्राप्त कर लेने पर है। वहां वाणी मूक हो जाती, तर्क की वहां तक पहुँच पुनः संसार में नहीं लौटना होता है उस परम पद की नहीं है, बुद्धि (मति) उसे ग्रहण करने में असमर्थ है, गवैषणा करना चाहिए'"1" | गीता का ईश्वर भी साधक
12. णवि दःखं णवि सुक्खं णवि पीडाणेवविज्जदे बाहा ।
णवि मरणं णवि जणणं तत्थेव य होई णिव्वाणं ।। णिव इंदिय उवसग्गा णिव मोहो विम्हियो ण णिद्दाय ।
ण य तिण्हा व छुहा तत्थेव हवदि णिव्वाणं ॥ --नियमसार १७८-१७६ 13. सब्वे सरा नियट्ठति, तक्क जत्थ न विज्जइ, मई तत्थ न गहिया ओए अप्पइट्ठाणस्स खयन्न
-उवम्प न विज्जए अरूवी सत्ता अपयस्स पयं नत्थि। -आचारांग १।५।६।१७१ तुलना कीजिएयतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह-तैत्तरीय शह
न चक्षुषा गृह्यते नाऽपि वाचा -मुण्डक ३।१।८ 14. ततः पदं तत्परिमागितव्य, यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः । --गीता १५।४
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