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को आश्वस्त करते हुए यही कहता है कि "जिसे प्राप्त ब्रह्म परमतत्व, स्वभाव (आत्मा की स्वभाव दशा) कर लेने पर पुनः संसार में आना नहीं होता, वही और आध्यात्म भी कहा जाता है । गीता की दृष्टि में मेरा परमधाम (स्वस्थान) है।" परमसिद्धि को प्राप्त मोक्ष निर्वाण है परमशान्ति का अधिस्थान है। । जैन हुए महात्माजन मेरे को प्राप्त होकर दुःखों के घर इस दार्शनिकों के समान गीता भी यह स्वीकार करती है कि अस्थिर पुर्नजन्म को प्राप्त नहीं होते हैं। ब्रह्मलोक मोक्ष सुखावस्था है। गीता के अनुसार मुक्तात्मा ब्रह्मभूत पर्यन्त समन जगत पुनरावृति युक्त है । लेकिन जो भी होकर अत्यन्त सुख (अनन्त सौख्य) का अनुभव करता मुझे प्राप्त कर लेता है उसका पुर्नजन्म नहीं होता। है1 । यद्यपि गीता एवं जैन दर्शन में मुक्तात्मा में जिस "मोक्ष के अनावृत्ति रूप लक्षण को बताने के साथ ही सुख की कल्पना की गई है वह न ऐन्द्रिय सुख है न वह मोक्ष के स्वरूप का निर्वचन करते हुए गीता कहती है मात्र दु:खाभाव रूप सुख है। वरन् वह अतीन्द्रिय "इस अव्यक्त से भी परे अन्य सनातन अव्यक्त तत्व हैं, ज्ञानगम्य अनश्वर सुख है। जो सभी प्राणियों में रहते हुए भी उनके नष्ट होने पर नष्ट नहीं होता है अर्थात् चेतना पर्यायों में जो अव्यक्त बौद्ध दर्शन में निर्वाण का स्वरूपहै उनसे भी परे उनका आधार भूत आत्मतत्व है। भगवान बुद्ध की दृष्टि में निर्वाण का स्वरूप क्या चेतना की अवस्थाएँ नश्वर है, लेकिन उनसे परे रहने है? यह प्रश्न प्रारम्भ से विवाद का विषय रहा है। वाला यह आत्मतत्व सनातन है जो प्राणियों में चेतना स्वयं बौद्ध दर्शन के आवन्तर सम्प्रदायों में भी निर्वाण (ज्ञान) पर्यायों के रूप में अभिव्यक्त होते हुए भी उन के स्वरूप को लेकर आत्यन्ति विरोध पाया जाता है। प्राणियों तथा उनकी चेतना पर्यायों (चेतन अवस्थाओं) आधुनिक विद्वानों ने भी इस सम्बन्ध में परस्पर विरोधी के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता है। उसी आत्मा निष्कर्ष निकाले हैं जो एक तुलनात्मक अर्ध्यता को को अक्षर और अव्यक्त कहा गया है, और उसे ही अधिक कठिनाई में डाल देते हैं। वस्तुतः इस कठिनाई परमगति भी कहते हैं वही परमधाम भी है वही मेरा का मूल कारण पालि निकाय में निर्वाण का विभिन्न परमात्म स्वरूप आत्मा का निज स्थान है, जिसे प्राप्त दृष्टियों से अलग-अलग प्रकार से विवेचन किया जाना कर लेने पर पुनः निवर्तन नहीं होता। उसे अक्षर है। आदरणीय श्री पुसें एयं प्रोफेसर नलिनाक्ष दत्त
15. (अ) यंप्राप्य न निर्वतन्ते तध्दाम परमं मम । -गीता ८।२१
(ब) यंगत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम। -गीता १५४६ (स) मामुपेत्य पुर्नजन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।
____ नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धि परमां गताः । -गीता ८।१५ 16. गीता-८।२०-२१ 17. अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्मुच्यते । -गीता ८।३ 18. शान्तिं निर्वाणपरमं । -गीता ६.१५ 19. सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शभत्यन्तं सुखमश्नुते । -गीता ६।२८ 20. सुखमात्यन्तिकं यताद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । -गीता ६।२१ 21. इनसाइक्लोपेडिया आफ इथिक्स एण्ड रिलीजन 22. आस्पेक्टस ऑफ महायान इन रिलेशन ट्रहीनयान
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