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कदाचित् सर्वप्रथम जाति थी, तथापि यह भी स्पष्ट है कि महावीर और बुद्ध के समय तक लिखने का प्रचार अत्यन्त विग्न रहा था। कम-से-कम जहाँ तक धर्म शास्त्रों या धार्मिक साहित्य का सम्बन्ध है, भारत के प्राचीन ऋषि मुनि और आचार्य अपनी स्मृति पर ही अधिक निर्भर रहते थे और लिखने के झंझट में पड़ना पसन्द नहीं करते थे । श्रुति, स्मृति, आगम आदि शब्द बहुत पीछे आकर धर्मिक साहित्य के अङ्गक विशेषों के लिये रूड़ हुए, प्रारम्भ में यह सब प्रायः पर्यायवाची थे जो परम्परा से स्मृति में सुरक्षित रहता आया है, मौखिक द्वार से उपदेशा जाता रहा है और कानों से जिसे सुनते चले आये हैं वही स्मृति, आगम या श्रुति रूप धर्मशास्त्र था महावीर और बुद्ध के पश्चात् भी शताब्दियों पर्यन्त भारतवर्ष में पर्मोपदेश, मौलिक शिक्षण-प्रशिक्षण तथा व्यक्तिगत एवं राजनैतिक लोकव्यवहार भी मौखिक शाब्दिक ही रहता रहा। लिखने या लिखित वस्तुओं का सहारा बहुत कम लिया जाता था। यदि ऐसा न होता तो पाद, महावीर, वुद्ध आदि के उपदेश तुरन्त ही अथवा थोड़े समय उपरान्त ही लिपिबद्ध कर लिये जाते यह कार्य उक्त धर्मोपदेष्टाओं के चार-पाँच सौ वर्ष पश्चात् ही आरम्भ हुआ। तीसरीदूसरी शती ई. पूर्व से भारतवर्ष में लिखने का प्रचार, अनेक कारणों से, पर्याप्त द्रुत वेग से बढ़ा । उसी के फलस्वरूप भारत के पुस्तक साहित्य का वास्तविक प्रणयन प्रारम्भ हुआ जैनों ओर बौद्धों के पुस्तक साहित्य निर्माण का इतिहास दूसरी पहली शती इस्वी पूर्व से आगे नहीं जाता और ब्राम्हण परम्परा के विषय में भी वह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि वे इस सम्बन्ध में जैनों और बौद्धों से कुछ बहुत आगे रहे हैं । अन्तर इतना ही है कि जैनी लोग अपने साहित्यिक इतिहास के विषय में बहुत सावधान, ईमान दार और यथार्थवक्ता रहे हैं, बौद्धों का साहित्यिक । इतिहास भी सिंहली, चीनी, तिब्बती, वर्मी आदि भारतेतर साधनों के आधार पर बहुत कुछ ठीक ठीक निर्माण हो चुका है । किन्तु वैदिक परम्परा के अनु-
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याथियों का सात्विक इतिहास अभी तक पर्याप्त अस्पष्ट एव विवादग्रस्त बना हुआ है वह अधिकांशतः अनुमानों, कल्पनाओं, धारणाओं और मनमानी मान्यताओं पर आधारित है। आचार्य शंकर और महाकवि कालिदास जैसे पर्याप्त परवर्ती व्यक्तियों की तिथियों के सम्बन्ध में भी अभी तक एकमत नहीं हो पाया है। विभिन्न विद्वानों के बीच इन विषयों में दो-चार वर्षो या दो-चार दशकों के नहीं वरन् शताब्दियों का, और कभी-कभी सहस्राब्दियों का मतभेद पाया जाता है। इसके अतिरिक्त, उत्तरोत्तर सम्मिलित किये जाते रहे क्षेत्रकों, संवर्धनों, परिवर्धनों आदि के कारण ईस्वी सन् की प्रथम सहस्राब्दि में रने गये ग्रन्थों के भी वर्तमान में उपलब्ध संस्करण बहुत ही कम ऐसे हैं जो निश्चयपूर्वक मूल रचनाओं की यथावत् प्रतिलिपि कहे जा सकें ।
अतएव, जहाँ हम तीर्थंकर पार्श्व और महावीर के सम्बन्ध में, महावीर की शिष्य प्रम्परा में होनेवाले गुरुओं के सम्बन्ध में जैन साहित्य प्रणयन के प्रा रंभिक इतिहास के सम्बन्ध में प्राचीन जैनाचार्यो एवं ग्रन्थकारों और उनका कृतियों के सम्बन्ध में प्राय: निश्चयपूर्वक यह कह सकते हैं कि अमुक व्यक्ति, रचना या घटना की तिथि यह है उसका पूर्वापर यह है, इत्यादि, और इसी प्रकार जहाँ हम यह भी प्रायः निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि पालि त्रिपिटक सर्वप्रथम ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी के मध्य के लगभग सिंहल देश में संकलित एवं लिपिबद्ध हुए और भारत बौद्धों के पुस्तक साहित्य का इतिहास कुषाण काल (2री शती ई.) में महाकवि अश्वघोष और दार्शनिक नागार्जुन के साथ प्रारम्भ हुआ, ब्राह्मण परम्परा के ग्रन्थकारों और धार्मिक अथवा लौकिक ग्रन्थों के सम्बन्ध में वैसी कोई बात निश्चयपूर्वक कहना नितान्त कठिन है। तथापि, जिन विशेषज्ञ विद्वानों ने इस सम्बन्ध में वैज्ञानिक पद्धति से विधिवत् अनुसंधान किया है, उनका यह प्रायः निश्चित मत है कि वर्तमान हिन्दू परम्परा के
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