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पुस्तक साहित्य के इतिहास का वास्तविक प्रारम्भ शुग थे। इनका सनिश्चित समय 877-777 ई. पूर्व है। काल में ब्राह्मण पुनरुत्थान से ही किया जाना चाहिये। इनके द्वारा उपदेशित द्वादशांग श्रत का प्रचार वास्तव में इस परम्परा के वर्तमान में उपलब्ध महावीर और बुद्ध के समय तक बराबर बना हुआ था। पुस्तक साहित्य का अधिकांश, जिसमें वैदिक संहिताएँ अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर 'निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र' (अपने अन्तिम रूप में), निरुक्त, अधिकांश उपनिषदें, (599-527) व्रात्य क्षत्रियों की बज्जि जाति के वैशाली श्र तियाँ, स्मति या धर्मशास्त्र, दार्शनिक सूत्र, गणतन्त्र (गणराज्य संघ) के अर्गत कुण्डग्राम के वाल्मीकि की रामायण, सौति का महाभारत (जो लिच्छवियों के ज्ञातक वंशी राजपुत्र थे। तीस वर्ष मूलतः दश-सहस्री थी, अब जैसी शत-सहस्री नहीं), की अवस्था में इस बालब्रम्हचारी ने गृह का परित्याग तथा विष्णु पुराण आदि प्राचीनतम पुराणग्रन्थ, करके बारह वर्ष पर्यन्त कठिन आत्मसाधना की । फलशुग काल और गुप्त काल के मध्य, अर्थात 3-2री शती स्वरूप कैवल्य की प्राप्ति करके अर्हत तीर्थकर के ई. पू. से लेकर 4-5वीं शती ईस्वी के बीच ही रचे गये रूप में तीस वर्ष (557-527 ई पू.) पर्यन्त देश-विदेश हैं । लौकिक काव्य नाटकादि, क्लेसिकल संस्कृत साहित्य में विहार करते हए 'सर्व सत्वानं हित सुखाय' तीर्थंकरों तथा ज्योतिष, गणित, वैद्यक आदि वैज्ञानिक साहित्य के द्ववाद शांग में निहित सिद्धान्तों का निरन्तर प्रचार अधिकतर गुप्त काल एवं गुप्तोत्तर काल की देन हैं। किया। उनके प्रधान गणधर इन्द्र भूति गौतम ने पूर्ववर्ती इस ब्राम्हण पुनरुत्थान एवं पुस्तक साहित्य प्रवर्तन तीर्थंकरों के गणधरों की भांति ही, अपने गुरु तीर्थके प्रमुख आद्य पुरस्कर्ता महर्षि पतञ्जलि, कामन्दक, कर महावीर के उपदेशों का सार द्वादशाङग श्रत वाल्मीकि, सौति, यास्क, वात्स्यायन, कात्यायन, ईश्वर के रूप में संकलित किया अर्थात् उसे बारह अङ्गों और कृष्ण, आदि विद्वान थे।
चौदह प्रकीर्णकों में विभाजित किया। प्रत्येक अंग
__ में भी कई उपविभाग हैं, विशेषकर बारहवें दृष्टिप्रवाह अस्तु, क्या आश्चर्य है कि उस समय के पूर्व
अंग के पाँच विभाग हैं:-जिनमें एक का नाम 'पूर्व' का भी प्रायः कोई उल्लेखनीय पुस्तक साहित्य विद्यमान
है । पूर्वो की संख्या 14 है। इस प्रकार द्वादशाङ्ग नहीं था। उनका धर्मशास्त्र या आगम जो द्ववादशाङग श्रुत कहलाता है, सर्वप्रथम अत्यन्त प्राचीन समय में
श्रत को बहुधा ग्यारह अङ्क-चौदह पूर्व' भी कहते हैं ।
बारहवें अंग का ही एक अन्य भेद 'प्रथमानुयोग' है सभ्य युग के उदय काल में ही-प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित किया गया था। उनके पश्चात
जिस पर समस्त जैन पुराण साहित्य आधारित है । ये एक के बाद एक अठारह तीर्थकरों ने उसी सत्य का
अंङग पूर्व विधिवत् 'वस्तुओं, अधिकारों' और 'प्राभृतों' प्रतिपादन किया। तदनन्तर, रामायण में वणित घटनाओं
में विभाजित हैं। यही भाषाबद्ध मूल जिनागम या और राम-रावणादि के समय में 20वें तीर्थकर
जैन धार्मिक साहित्य है। सर्वज्ञ वीतराग हितोपदेशी
जा मुनि सुवृतनाथ ने उसी उपदेश की प्रायः पूनरावत्ति की। गुणों से विशिष्ट तीर्थंकरों द्वारा उपदेशित और परम इतिहासकार इन घटनाओं का समय लगभग 2000 ज्ञानी-ध्यानी तपस्वी गणधरों द्वारा गुथित एवं संकलित ई. पू. अनुमान करते हैं। 21वें तीर्थकर नमिनाथ जिनागम या द्ववादशाङग श्र त में सम्पूर्ण मानवी आध्याथे और 22वें तीर्थकर अरिष्टनेमि थे जो नारायण त्मिक ज्ञान का सार समन्बित है । गौतमादि गणधरों कृष्ण के ताउजात भाई थे और महाभारत काल (अनु- के पश्चात् वह आगम ज्ञान या जैन थ त साहित्य गुरुमानतः 15वीं शती ई. पूर्व) में विद्यमान थे। 23 वें शिष्य परम्परा में मौखिक द्वार से प्रवाहित हुआ और तीर्थकर पार्श्वनाथ वाराणसी के उरगवंशी राजकुमार लगभग सात शताब्दियों तक मोखिक प्रवाह की इस
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