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तथा उदाहरणभाग का नाम विवेक है । इसमें आठ
विद्यात्रयीचणमचुम्बितकाव्यतन्द्र अध्याय हैं। प्रथम में काव्य के उद्देश्य, हेतु आदि, द्वितीय कस्तं न वेद सुकृती किल रामचन्द्रम् ।। में रस, तृतीय में दोष, चतुर्थ में गुण, पञ्चम में शब्दा
रामचन्द्र 'प्रबन्धशतकर्ता' के रूप में प्रसिद्ध हैं। लङ्कार, षष्ठ में अर्थालङ्कार, सप्तम में नायक-नायिका
इनकी 39 कृतियों का पता चलता है, जिनमें नाट्यदर्पण, के गुण और प्रकार तथा अष्टम में दृश्य और श्रव्य
नलविलासनाटक, निर्भयभीमव्यायोग, सत्यहरिश्चन्द्र काव्य के भेदोपभेदों तथा लक्षणों का निरूपण हुआ है।
' नाटक, कुमारविहारशतक, कौमुदीमित्राणन्द आदि काव्यानुशासन के अतिरिक्त इनके ग्रन्थ सिद्धम- अमुख ह।
रामचन्द्र और गूणचन्द्र ने नाटयदर्पण की रचना मन, द्वयाश्रय महाकाव्य, सप्तसन्धान महाकाव्य, की है। नाट्यदर्पण चार विवेकों में विभक्त है। इसमें विषष्टिशलाकापुरुषचरित, प्रमाणमीमांसा आदि हैं। कारिकाएँ हैं और उन पर ग्रन्थकारों की विवति है।
इसमें दशरूपकों के अतिरिक्त दो संङ्कीर्ण भेदों-नाटिका हेमचन्द्र के शिष्यों में रामचन्द्र और गणचन्द्र प्रति- और प्रकरणी का भी निरूपण हुआ है। भा सम्पन्न विद्वान् थे । रामचन्द्र के जीवन का अन्त दुःखमय था, क्योंकि ये अन्धे हो गये थे । जर्यासह
ग्रन्थकारों ने अनेक स्थलों पर दशरूपककार के सिद्धराज ने रामचन्द्र को 'कविकटारमल्ल' उपाधि से
मत का खण्डन किया है। अलकृत किया था। रामचन्द्र-न्याय, व्याकरण और
दशरूपककार के अनुसार नाटक का नायक धीरोनाहित्य में निष्णात थे। उन्होंने रघुविलास की प्रस्ताबना
दात्त होना चाहिए,, किन्तु नाट्यदर्पण के आचार्यों के में अपने को 'विद्यात्रयीचण' कहा है
अनुसार धीरललित भी नाटक का नायक हो सकता है।'
'पञ्चप्रबन्धमिषपञ्चमुखानकेन विद्वन्मनःसदसि नृत्यति यस्य कीतिः ।
दशरूपककार अमात्य को धीरप्रशान्त नायक मानते हैं। रामचन्द्र और गुणचन्द्र अमात्य को धीरोदात्त
2. नाट्यदर्पण (दिल्ली विश्वविद्यालय का संस्करण) की प्रस्तावना, पृ. 16 3. 'अभिगम्य गुणयुक्तो धीरोदात्तः प्रतापवान् । ___ कीतिकामो महोत्साहस्त्रय्यास्त्राता महीपतिः ॥'.
दशरूपक (चौ. सं.) 3/22-23 4. 'ये तु नाटकस्य नेतारं धीरोदात्तमेव प्रतिजानते, न ते मुनिनयाध्यवगाहिनः । नाटकेषु धीरललितादीनामपि ___नायकना दर्शनात कविसमयबाह्याश्च । नाट्यदर्पण 1/7 की विवृति । 5. अथ प्रकरणे वृत्तमुत्पाद्य लोकसंश्रयम् ।
अमात्यविप्रवणिजामेकं कुर्याच्च नायकम् ॥ धीरप्रशान्तं सापायं धर्मकामार्थतत्परम् । दशरूपक 3139-40
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