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माना जाय तो उससे साध्य (अनुमेय) का ज्ञान नहीं हो उन्होंने 'भवतु वाऽयमों लैंगिकी प्रतिपत्तिरनुमानम्, सकता, क्योंकि लिंगपरामर्श का अर्थ लिंगज्ञान है और इति ।'30 अर्थात लिंगी का ज्ञान अनुमान है' कहकर लिंगज्ञान केवल लिंग-माधन सम्बन्धी अज्ञान को ही साध्यज्ञान को अनुमान मान लिया है । जब उनसे कहा दूर करने में समर्थ है, साध्य के अज्ञान को नहीं । यथार्थ गया कि साध्यज्ञान को अनुमान मानने पर फल का में लिंग में होनेवाले व्याप्तिविशिष्ट तथा पक्षधर्मता के अभाव हो जायेगा. तो वे उत्तर देते हैं कि 'नहीं, हान, ज्ञान को परामर्श कहा गया है.--'व्याप्तिविशिष्ट पक्ष- उपादान और उपेक्षा बुद्धियाँ उसका फल है। उद्योतधर्मता ज्ञानं परामर्शः' । अतः लिंगपरामर्श इतना ही कर यहाँ एक महत्त्वपूर्ण बात और कहते हैं। वह यह ज्ञान करा सकता है कि धूमादि लिंग अग्नि आदि साध्यों कि सभी प्रमाण अपने विषय के प्रति भावसाधन हैंके सहचारी हैं और वे पर्वत आदि (पक्ष) में हैं । और 'प्रमितिः प्रमाणम, अर्थात् प्रमिति ही प्रमाण है और इस तरह लिंगपरामर्श मात्र लिंग सम्बन्धी अज्ञान का विषयान्तर के प्रति करणसाधन हैं--'प्रमीयतेऽनेनेति' निराकरण करता है एवं लिंग के वैशिष्ठ्य को प्रकट अर्थात् जिसके द्वारा अर्थ (वस्तु प्रमित (सुज्ञात) हो उसे करता है, अनुमेय (साध्य) सम्बन्धी अज्ञान का निरास प्रमाण कहते हैं । इस प्रकार वे अनुमान की उक्त कर उसका ज्ञान कराने में वह असमर्थ है। अतएवं साध्यज्ञानरूप परिभाषा भावसाधन में स्वीकार करते लिंगपरामर्श अनुमान की सामग्री तो हो सकता है, पर हैं। धर्मभूषण ने इसी तथ्य का ऊपर उद्घाटन किया स्वयं अनुमान नहीं । अनुमान का अर्थ है अनुमेय तथा साध्यज्ञान ही अनुमान है, इसका समर्थन किया है। सम्बन्धी अज्ञान की निवृत्तिपूर्वक अनुमेयार्थ का ज्ञान । इसलिए साध्यसम्बन्धी अज्ञान की निवृत्तिरूप अनु- इस तरह जैन दर्शन में अनुमान की परिभाषा का मिति में साधकतम करण तो साक्षात् साध्यज्ञान ही हो मूल स्वामी समन्तभद्र की 'सधर्मणव साध्यस्य साधासकता है । अतः साध्यज्ञान ही अनुमान है, लिंगपरामर्श दविरोधतः' (आप्तमी : १०६) इस कारिका में निहित नहीं। यहाँ धर्मभूषण इतना और स्पष्ट करते हैं कि है और उसका विकसित रूप सिद्धसेन के न्यायावतार जिस प्रकार धारणा नामक अनुभव स्मृति में, तात्कालिक (का. ५) से आरम्भ होकर अकलंक देव के उपयुक्त अनुभव और स्मृति दोनों प्रत्यभिज्ञान में तथा साध्य एवं लघीयस्त्रय (का. १२) और न्यायविनिश्चय (द्वि. भा. साधन विषयक स्मरण, प्रत्यभिज्ञान और अनुभव तर्क में
२११) गत दोनों परिभाषाओं में परिसमाप्त है । लघी. कारण माने जाते हैं, उसी प्रकार व्याप्तिस्मरण आदि यस्त्रय की अनुमान परिभाषा तो इतनी व्यवस्थित, युक्त सहित लिंगज्ञान (लिंगपरामर्श) अनुमान की उत्पत्ति में और पूर्ण है कि उसमें किसी भी प्रकार के सुधार, कारण है।
संशोधन, परिवर्तन या परिष्कार की भी गजायश नहीं
है। अनुमान का प्रयोजक तत्त्व क्या है और स्वरूप यहाँ ज्ञातव्य है कि लिंगपरामर्श को अनुमान की
क्या है, ये दोनों उसमें समाविष्ट हैं। परिभाषा मानने में जो आपत्ति धर्मभूषण ने प्रदर्शित की है वह उद्योतकर के भी ध्यान में रही जान पड़ती अक्षपाद गौतम की 'तत्पर्वकमतमानम्',32 प्रशस्तहै अथवा उनके समक्ष भी उठायी गयी है। अतएव पाद की 'लिंगदर्शनात संजायमानं लैंगिकम'33 और
29. धारणाख्योऽनुभवः स्मृतौ हेतुः । ... तद्वल्लिगज्ञानं व्याप्ति स्मर गादिसह कृतमनुमानोत्वत्ती निवन्धनभित्येत्सुसंगतमेव ।-न्या दी. पृ. ६६,६७ । 30. न्याय वा. ११११३, पृ. २८ २६। 31. वही १।१।३, पृ. २६ । 32. न्याय सू. १॥ १।५। 33. प्रश. भाष्य पृ. ६६ ।
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