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________________ पवित्र मन से प्रभाती-गीत गाती हुई जब देवालयों की जिह मइमत्तु गइंदु णि रंकुसु । ओर जाती थीं, तब नगर का सारा वातावरण सात्विक जं भावइ तं बोलइ जिह सिसु ॥ एवं धर्म-महिमापूर्ण हो जाता था। कुलवधुएं सत्पात्रों जायंधु वि जह मग्गु ण जाणइ । को भोजन कराए बिना भोजन नहीं करती थीं, तथा चउदिसु धाणमाणु दुहू माणइ ।। दीन-दुखी एवं अनाथों के प्रति वे निरन्तर दयालू रहती तिहि राणउ लज्जा मेल्लिवि । थीं।17 जं रुच्चइ तं चवइ उवेल्लिवि ।। ___ एक ओर जहाँ रइधू-वर्णित महिलाएं इतनी उदार वही02/5/8-11 थीं, वहीं दूसरी ओर धर्म-विरुद्ध कार्यों का घोर विरोध करनेवाली, सत्साहसी एवं वीरांगनाएँ भी वहाँ थीं। अर्थात् "जिस प्रकार मदोन्मत्त हाथी निरंकुश हो कवि ने अपने 'सिरिसिरि-वालकहा' नामक ग्रन्थ में जाता है, उसी प्रकार हमारा पिता भी निरंकुश हो गया उज्जयिनी की राजकुमारी मयणासुन्दरी का उल्लेख है । अज्ञानी बच्चों के समान ही जो मन में आता है, करते हुए बताया है कि राजा प्रभूपाल ने किस प्रकार सो बोलता है। जिस प्रकार जन्मान्ध व्यक्ति मार्ग नहीं मयणासुन्दरी की कला-विद्याओं की कुशलता से प्रसन्न जानता और चारों दिशाओं में दौड़ता हुआ दुःख-भाजक होकर उसे स्वयं ही अपने योग्य वर के चुनाव कर लेने बनता है, ठीक उसी प्रकार यह भी मान-मर्यादा छोड़का आदेश दिया ।18 किन्तु मयणासुन्दरी इसे भारतीय- कर जो मन में आता है, वही करता है और बोलता परम्परा के विपरीत होने के कारण आपत्तिजनक मान- है।" इसके बाद वह अपने पिता को निर्भीकता के साथ कर उसका घोर विरोध करती है । कवि ने इस प्रसग उत्तर देती हुई कहती है :की चर्चा पर्याप्त विस्तार के साथ की है। प्रतीत होता है कि मयणासुन्दरी के माध्यम से कवि ने वहाँ के भो ताय-ताय-पइँ णिरु अजुत्तु । नारी वर्ग के प्रति अपनी हार्दिक श्रद्धांजलियाँ अर्पित की जंपियउ ण मुणियउ जिणहु सुत्तु ।। वर-कुलि उवण्ण जा कण्ण होइ । सालज्ज ण मेल्लइ एच्छ लोय ॥ उक्त प्रसग के अनुसार पिता के विवाह सम्बन्धी वादाववाउ नउ जुत्तु ताउ । प्रस्ताव सुनकर मयणासुन्दरी विचार करती है : तहँ पुणु तुअ अवखवमि णिसुणि राउ। विह-लोय-विरुद्धउ एहु कम्मु । कुलमग्गु ण याणइ अलियभासि । जं सुव सइंवरु णिण्हइ सुछम्मु॥ नियगेह आणइ अवजसह-रसिरा ॥ पइँ मण इच्छइ किज्जइ विवाहु । सिरिवाल0 2/4/8 तो लोय सुहिल्लउ इय पवाहु ॥ अर्थात् यह (मेरा पिता) कुल-परम्पराओं को वही० 2/6/5 जानता नहीं, वह असत्यभाषी है और अब अपने घर में अर्थात् “हे पिताजी, आपने जिनागम-सूत्रों के अपयशों को ला रहा है। विरुद्ध ही मुझे अपने आप पति के चुनाव कर लेने का 17. सम्मत्तगुण. 1/4. 18. सिरिवाल. 2/4/5. ३१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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