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है।" जाति विशेष को ही मोक्ष की प्राप्ति का अधिकार ज्ञान एवं कर्म का सवन्वय : है इस धारणा का खण्डन कर उन्होंने कहा कि धर्म के
इसके लिए महावीर ने ज्ञान और कर्म के समन्वय पथ का अनुशरण जन्म द्वारा निर्धारित न होकर उसके
पर बल दिया। मोक्ष प्राप्ति के लिए उन्होंने सम्यक भावनारूपी कर्म पर आश्रित होता है । जैसा क्रिया
दर्शन, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक चरित्र रूपी रत्नत्रय के कमें होगा, वैसा ही उसका भोग होगा। जीवात्मा स्वयं
प्रमाणबद्ध समन्वय पर बल दिया । अकेला ज्ञान, कर्म करता है और स्वयं ही फल भोगता है और स्वयं
अकेला दर्शन अथवा अकेला चरित्र ही मनुष्य को दु:ख ही विश्व में भ्रमण करता है । तथा स्वयं बन्धन से
मुक्ति को और नहीं ले जा सकता। इसके लिए ज्ञान, सदा के लिए मुक्त भी हो जाता है। जैसा कर्म होगा,
दर्शन और आचरण का समन्वय आवश्यक है। ज्ञान वैसा मिलेगा। जब तक पूर्व कर्मों का क्षय नहीं होता
हीन कर्म और कर्महीन ज्ञान दोनों ही व्यर्थ हैं । ज्ञान तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता।
सत्य का आचरण और आचरिक सत्य का ज्ञान दोनों
ही आवश्यक हैं। शुद्ध आत्मा ही परमात्मा :
समन्वयवादी दर्शन : ___मोक्ष प्राप्ति के लिए महावीर ने आत्मशुद्धि पर
महावीर का दर्शन अत्याधिक व्यापक है जिसमें बल दिया। "शुद्ध आत्मा ही परमात्मा की धारणा दे उन्होंने कहा कि ईश्वरत्व प्राप्त करने के साधनों पर
सो समन्वयवाद पर बल दिया गया है। अनेकान्त एवं स्याकिसी वर्ग या व्यक्ति विशेष का अधिकार नहीं है।
द्वाद दर्शन का सिद्धान्त जैन दर्शन की ऐसी मौलिक वह तो स्वयं में स्वतन्त्र, मुक्त, निर्लेप और निविकार उपलब्धि है जिसने दर्शन शास्त्र के जगत में ज्ञान एवं है । हर व्यक्ति चाहे वह किसी जाति, वर्ग, धर्म या
विकास के नए द्वार खोल दिए हैं, तथा विश्व भर के
चिन्तकों को नई दिशा दी है। लिंग का हो, मन की शुद्धता और आचरण की पवित्रता के बल पर उसे प्राप्त कर सकता है । इसके इस प्रकार तीर्थकर महावीर ने ऐसे मानवधर्म की लिए आवश्यक है कि वह अपने कषायों, क्रोध-मान- स्थापना की जिसने प्राणीमात्र की मुक्ति का द्वार खोल मोह-लोभ को त्याग दें । मनुष्य को मोक्ष प्राप्ति के दिया और एक ऐसे जीवन दर्शन की स्थापना की लिए अपनी तृष्णा से, वैर से, क्रोध से, मोह से, बिलास, जिसने मानव जगत को नई दिशा तो दी ही, साथ ही अहंकार एवं प्रमाद से मुक्ति प्राप्त करना आवश्यक मानव समाज में उच्चतम मानवीय मूल्यों की स्थापना है । इनसे मुक्ति प्राप्त आत्मा ही शुद्ध आत्मा है और की, जो कि तीर्थकर महावीर के मानवधर्म की महत्व वही परमात्मा है।
पूर्ण उपलब्धि है।
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