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इस निषेधात्मक विवेचन से सन्तुष्ट नहीं होते, वे निर्वाण आलय विज्ञान को अपरिवर्तनीय या कूटस्थ माना है।83 की अनिर्वचनीय एवं भावात्मक व्याख्या भी लेकिन आदरणीय बलदेव उपाध्याय उसे प्रवाहमान प्रस्तुत करते हैं । निर्वाण अचिन्त्य है क्योंकि तर्क से या परिवर्तनशील ही मानते हैं।4 (4) निर्वाणावस्था उसे जाना नहीं जा सकता लेकिन अचिन्त्य होते हुए भी सर्वज्ञता की अवस्था है। जैन विचारणा के अनुसार वह कुशल है, शाश्वत है, सुख रूप है, विमुक्तकाय है, उस अवस्था में केवल ज्ञान और केवल दर्शन है । असंग
और धर्माख्य है। इस प्रकार विज्ञानवादी मान्यता में ने महायान सूत्रालंकार में धर्मकाय को, जो कि निर्वाण निर्वाण की अभाव परक और भावपरक व्याख्याओं के की पर्यायवाची है, स्वाभाविक काय कहा है 135 जैन साथ-साथ उनकी अनिर्वचनीयता को भी स्वीकार किया विचारणा भी मोक्ष को स्वभाव दशा कहा जाता है। गया है वस्तुत: निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप के विकास स्वाभाविक काय और स्वभाव दशा अनेक अर्थों में अर्थका श्रेय विज्ञानवाद और शून्यवाद को ही है। लंका- साम्य रखते हैं। वतार सूत्र में निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप का सर्वोच्च विकास देखा जा सकता है। लंकावतार सूत्र के अनु- (4) शून्यवाद-बौद्ध दर्शन के माध्यमिक सम्प्रसार निर्वाण विचार की कोटियों से परे है लेकिन फिर दाय में निर्वाण के अनिवर्चनीय स्वरूप का सर्वाधिक भी विज्ञानवाद निर्वाण को इस आधार पर नित्य विकास हुआ है। जैन तथा अन्य दार्शनिकों ने शून्यता माना जा सकता है कि निर्वाण लाभ से ज्ञान उत्पन्न । का अभावात्मक अर्थ ग्रहण कर माध्यमिक निर्वाण को होता है।
अभावात्मक रूप में देखा है, लेकिन यह उस सम्प्रदाय
के दृष्टिकोण को समझने में सबसे बड़ी भ्रान्ति ही कही तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर विज्ञानवादी जा सकती है । माध्यमिक दृष्टि से निर्वाण अनिवर्चनीय निर्वाण का जैन विचारणा से निम्न अर्थों में साम्य है। है, चतुष्कोटि विनिमुक्त है, वही परमतत्व है। वह न (1) निर्वाण चेतना का अभाव नहीं हैं, वरन् विशुद्ध भाव है, न अभाव है। यदि वाणी से उसका निर्वचन चेतना की अवस्था है। (2) निर्वाण समस्त संकल्पों करना ही आवश्यक हो तो मात्र यह कहा जा सकता का क्षय है, वह चेतना की निर्विकल्पावस्था है। (3) है कि निर्वाण अप्रहाण, असम्प्राप्त अनुच्छेद अशाश्वत, निर्वाणावस्था में भी चैतन्य धारा सतत प्रवाहमान रहती अनिरुद्ध, अनुत्पन्न है । निर्वाण को भाव रूप इसलिए है (आत्मपरिणमीपन) यद्यपि डा. चन्द्रधर शर्मा ने नहीं माना जा सकता है कि भावात्मक वस्तु या तो
32. स एवानास्त्रवो धातुरचिन्त्यः कुशलो ध्र वः । -त्रिशिका 30 33. देखिये-A critical survey of Indian Philosophy-ty C. D. Sharma 34. बौद्ध दर्शन मीमांसा 35. महायान सूत्रालंकार ६।६० (महायान-शान्तिभिक्षु पृष्ठ ७३) 36. भावाभाव परामर्शक्षयो निर्वाणं उच्यते । -माध्यमिककारिका वृति पृष्ठ ५२४
[उद्धृत दी सेंट्रल फिलासफी आफ बुद्धीज्म (टी. आर. व्ही. मुर्ती) पृष्ठ २७४] 37. अप्रहीणम सम्प्राप्तमनुच्छिन्नमशाश्वतम् ।
अनिरूद्धमनुत्पन्नमेतन्निर्वाण मुच्यते ॥ -माध्यमिक कारिका वृति पृ. ५२१
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