SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 320
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 11. 109800 गगन खंडों के कोणीय माप तथा योजन के दूरीय मापद्वारा ज्योतिष बिम्बों का स्थिर एवं गतिशील प्रमाणों का निर्धारण | 18 12. ज्योतिष बिम्बों का युग्मीय विधि से सम्मुख प्रस्थापन कर गतिशील घटनाओं के आकलन | कुंतल - दीर्घवृत्तीय बिम्बगमनशीलता एक क्षेत्रीय सिद्धान्त ।" का उपरोक्त आविष्कारों को ठोक तिथियाँ निर्धारण करना कठिन है, किन्तु स्मृति मंद होने के फलस्वरूप उनका उत्तरोत्तर अभिलेखन वर्द्धमान के बाद की प्रक्रिया अवश्य प्रतीत होती है, जिसका श्रृंखलाबद्ध प्रस्फुटन आज का विशालतम वैज्ञानिक गणितीय साहित्य रूप में दर्शनीय है । उपरोक्त सामग्री का अंतिम ऐतिहासिक रूप पंडित टोडरमल कृत गोम्मटसारादि की वृहद टीकाओं में दृष्टव्य है । 30 इसमें उन्होंने ॠण प्रतीक के लिए पाँच चिन्हों का प्रयोग बतलाया है । शून्य का विभिन्न अर्थों में प्रतीकबद्ध उपयोग है । उसमें सलगा गणन के भी प्रयोग हैं जिनमें फलन के फलन के प्रतीक की अवधारणा को विकसित करने की ओर असफलता मिली प्रतीत होती है । यदि वे प्रयास इस ओर बढ़ते और भारतीय गणित विद्वानों का झुकाव इस ओर अधिक होता, तो कुछ शताब्दियों पूर्व ही आज का युग उपस्थित होता और यह श्रेय भारत को यथोचित मिलता। इसमें प्रयुक्त हुए कुछ प्रतीक गिरनार एव अशोक काल से पूर्व के शिलालेख कालीन प्रतीन होते हैं । अशोक के पूर्व के बड़ली ग्राम ( अजमेर) तथा नेपाल की तराई के 18. देखिये 1 ( ख ) । 19. वही । 20. देखिये 2 21. देखिये 1 (फ) । 22. नीधम, भाग 1, पृ. 150 – 151 आदि । Jain Education International प्रिपाबा नामक स्थान में उपलब्ध सामग्री में जो 'ई' का चिन्ह है, उससे ऋण ( रिण अथवा रि) के लिए प्रयुक्त चिन्हों का संबंध संभवतः स्थापित किया जा सकता है । 21 (देखिये, ओझा रचित भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ. 2, 47, 1959 दिल्ली) । जहाँ अरस्तू (384 ई. पू. से 322 ई. पू.) आत्माओं की श्रद्धि के सिद्धान्त का प्ररूपण करते हैं, वहाँ चीन में ऐसा ही सिद्धान्त शुइनत्जू ( 298 ई. पू. - 238 ई. पू., Hsun Tzu या Hsun Chhing) द्वारा प्ररूपित किया गया है, और यही भारत में जीवों के मार्गणा स्थानादि रूप में निरूपित है । ( नीधम, भाग 1, पृ. 155 ) । चीन से लेकर यूनान तक ऐसी अवधारणाओं का युगपत् प्रकट होना इतिहास की समस्या है। इसी प्रकार चन्द्रमा के बढ़ने घटने के कारण समुद्रों के नीचे की पाताल वायु का फैलना ( ति प भाग 1, 4-2403, शोलापुर, 1943 ), चीन और यूनान में क्रमश: लू शिह चुन विउ (चौथी से तीसरी शताब्दी ई. पू. ) और अरस्तू द्वारा चन्द्रमा की कलादि के कारण समुद्री रीढ़हीन जन्तुओं के फैलने आदि की चर्चा से समन्वय रखता प्रतीत होता है । इन तथ्यों के हजारों मील दूर फैलनेवाला स्रोत कहाँ था यह इतिहास की समस्या है 122 भारत से एक और पिथेगोरस ओर दूसरी ओर कन्फ्यूशन (छठी सदी 50 ) द्वारा पश्चिम और पूर्व में नवीन प्रतिभा का नेतृत्व संचालन एक अद्भुत क्रांति को प्रकट करता है । पिथेगोरस सम्बन्धी अनेक किंव २८६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy