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2. संख्याएँ लिखने तथा व्यक्त करने में दसााँ
आदि पद्धतियों का प्रयोग
का गणित, नवीन सामग्री अपने राशि सिद्धान्त पर आधारित कर दे सकेगी। 16 (देखिये लब्धिसार एवं क्षपणासार-वहदटीकाएँ।) जहां जार्ज केन्टर को कोई ऐसी आवश्यकता का कोई आधार नहीं था वहाँ प्राकृत ग्रंथों के इस गणित को कर्म-सिद्धान्त प्रतिपादित करने की कठोर आवश्यकता का विशाल एवं गहन आधार था । परिणामों की अतीब निर्मलता का उद्देश्य जगत इतिहास की उपेक्षा करने में अपने नामों को छिपाकर अमर हो गया । प्रायः प्रत्येक घटना में सांतता, अनुमान और अभिबिन्दुता प्रस्थापित कर समाधान कर लिया जाता है। किन्तु असीम गहराइयों और अनन्त ऊचाइयों में पहुंच करने हेतु नबीन गणितीय उपकरणों का आविष्कार करना होता है-वह आज की आधुनिक ज्यामिति और बीजगणित जिनका सहसम्बन्ध प्राकृत ग्रंथों के क्षेत्रों और बीजों से करने परने पर इतिहास के पृष्ठ स्वणिम किए जा सकते हैं।
3. ह्रासित गुण्य राशियों के लिखने में स्थानार्हा
पद्धति का प्रयोग (अ. सं.) ___4. सलागा गणन का उपयोग (धवल, पु. 3-4) 5. एक-एक, एक-बहु तथा बहु-बहु संवाद विधि
का प्रयोग (धवल, पु.-3) 6. विरलन-देय गुणन तथा वर्गन संवर्गन विधियों
का प्रयोग (धवल एवं तिलोयपण्णत्ती)
7. क्षेत्र प्रयोग विधि तथा काल प्रयोग विधि का
उपयोग (धवल, पु. 3)
8. वर्गादि स्थानों में खण्डित, भाजित, वरलित,
अपह्रत, प्रमाण, कारण, निरुक्ति एवं विकल्प विधियों का प्रयोग । धवल, पु. 3, पृ. 40, आदि)
_स्पष्ट है कि वर्द्धमान युग में एक नवीन पथ की ओर मोड़ देने के लिए, सर्वदष्टियों से आदर्श को तौलने के लिये, भारत तथा विदेशों में भी प्रचलित लौकिक गणितों को साधन रूप में अवश्य चुना गया होगा । उसमें नवीन प्रसाधन अपने साध्यों के आधार पर आविष्कृत किये गये होंगे और युगान्तर में उनका प्रचलन पुन:-पुनः हारमोनीय भावों में देश-देशान्तरों में होता चल गया होगा । अभिलेखबद्ध सामग्री से प्रतीत होता है कि नवीन पद्धतियों का उपयोग सम्भवतः निम्नरूप में विकसित हुआ होगा :--
9. धाराओं द्वारा अनेक अनन्तात्मक एवं असंख्या
त्मक तथा संख्येय राशियों के पद एवं पदस्थानों का निरूपण।” (त्रिलोकसार, प्र. अध्याय )
10. सूच्यंगुल जगश्रेणि, अंतर्मुहूर्त, पल्य, सागर,
अविभागी प्रतिच्छेद, प्रदेश, समय आदि इकाइयों एवं संख्या तथा उपमा मानों के निरूपण और तीनों लोक के खंडों द्वारा विभिन्न राशियों के निरूपण ।
1. विविध प्रतीकत्व का विकास (देखिए ति. प.
एवं अ. सं.)
16. Kalman R. E., Falb, P. L. and Arbib M. A.. Topics in Mathematical System
Theory, T M H, Bombay, 1969. 17. आचार्य नेमिचंद्र सि. च., "त्रिलोकसार" माधवचंद्र भैविद्य कृत टीका, बम्बई, 1920 ।
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