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जैन धर्म और संगीत
भगवान महावीर ने संसार को अनादि-अनंत कहा उसका काल कितना लंबा है, यह साधारण मानव के है। संसार का न आदि है और न अंत । इसलिये जैन बुद्धिग्राह्य के बाहर की बात है। वर्तमान में मानव, दर्शनकारों ने कहा है कि संसार के उत्थान और पतन जिनकी बुद्धि सीमित है और अनुप्रेक्षा से रहित है, का क्रम चलता रहता है । इसी उत्थान और पतन की उपरोक्त तथ्य को मानने को आज भी तैयार नहीं हैं अवस्था में तीर्थंकरों का जन्म होता है और वे इस परन्तु जो नवीन वस्तुओं को पुन: प्रकाशित करना क्रमानुसार अनन्त हो गये हैं और होते रहेंगे । जितने चाहते हैं वे तथ्यों को कभी भी अस्वीकार नहीं करते। भी पूर्वकाल में तीर्थकर हो गये हैं उन्होंने अपना प्रवचन उनका कहना है कि भूतकाल में जो शक्ति उत्पन्न हई राग 'मालकोश' में ही दिया और भविष्य में होने वाले है उनका नाश कभी नहीं हुआ है। वे इसी आकाश
प्रदेश में विद्यमान हैं क्योंकि यदि हम वस्तुओं का
विनाश मान लेते हैं तो वस्तुओं का अभाव हो जाता गुलाबचन्द्र जैन
है । वस्तुओं के ही अभाव होने पर उत्पत्ति के आधार
का अभाव होता है जो युक्ति संगत नहीं है। जिस प्रकार भी 'मालकोश' की ध्वनि में ही देवेंगे । संगीत के विषय वायु अस्थिर रहती है उसी तरह प्रत्येक परमाणु भी की उत्पत्ति का निश्चय करना बालचेष्टा ही है। इतना स्थिर नहीं रहते वे निरंतर गमनागमन कार्य करते अवश्य है कि रागों में उत्थान और पतन समयानुकूल, रहते हैं । वायु को जिस प्रकार एकत्रित कर उसमें प्रकृति के परिवर्तनानुसार होता ही रहता है। इसी शक्ति पैदा की जाती है उसी प्रकार परमाणु को भी
संग्रहीत कर उससे मनचाहा काम लिया जाता है । देकर उसमें उलझने लगते हैं और ध्वनि की वास्तविक प्रत्येक परमाणु में रूप, रंग, गंध, स्पर्श एवं शब्द आदि तरंगों और उसके क्रिया एवं शक्ति से हम वंचित हो गुण एक दूसरे से भिन्न और अभिन्न रहते हैं। इसलिये जाते हैं। जैन दर्शन में रागों का कितना महत्व है और उनके संग्रहीत करने में इस बात का ध्यान रखना पड़ता
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