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________________ इन सभी भट्टारकों ने साहित्य एवं कला के क्षेत्र में कांचीसंधे माथुरान्वयो पुस्करगण भट्टारक श्री गणकीति महत्वपूर्ण कार्य किये ।। देव त पदे यत्यःकीर्तिदेवा प्रतिष्ठाचार्य श्री पंडित रधु तेपं आमाए अग्रोतवंशे मोद्गल गोत्रासा ।। धुरात्मा भट्टारक शुभकीति ने अपने गुरु भट्टारक कमल तस्य पुत्रः साधु भोपा तस्या भार्या नाल्ही ।। पुत्र प्रथम कीति के आदेश से सुवर्णगिरि (आधुनिक सोनागिरि, साधु क्षेमसी द्वितीय साधु महाराजा तृतीय असराज झाँसी) पर एक भट्टारकीय पट्ट की स्थापना कर चतुर्थ धनपाल पञ्चम साघु पाल्का । साधु क्षेमसी स्वयं ही उसका कार्य संचालन किया था तथा उसे भार्या नोरादेवी पुत्र ज्येष्ठ पुत्र भधायि पति कौल..।। प्राच्यविद्या का प्रमुख केन्द्र बनाया था। वहां के विशाल भ-भार्या च ज्येष्ठस्त्री सरसूतीपूत्र मल्लिदास द्वितीय शास्त्र भण्डारों में आज भी महत्वपूर्ण सामग्री अपने भार्या साध्वीसरा पुत्र चन्द्रपाल क्षेमसीपुत्र द्वितीया साधु प्रकाशन की राह देख रही है तथा कई ऐतिहासिक श्री भोजराजा भार्या देवस्यपत्र पूर्णपाल । एतेषां गुत्थियों को सुलझाने के लिए उत्कण्ठित है। मध्येश्री ।। त्यादि जिनसंघाधिपति 'काला' सदा प्रणमति । भट्टारक कमलकीति के एक अन्यतम शिष्य मण्डलाचार्य श्री रत्नकीति ने वि० सं० 1516 में उक्त लेख में रेखांकित पद विचारणीय हैं। यह बडवानी (बावनगजा-पश्चिम निमाड़) स्थित 84 फीट तो सर्वविदित ही है कि गोपाचल (ग्वालियर) में वि० ऊँची आदिनाथ तीर्थ कर की मूर्ति के आसपास एक सं० 1497 में तोमरवंशी राजा इंगरसिंह का राज्य वसति का जीर्णोद्वार कराया था । ३ ये उल्लेख वस्तुत: था। उनके समय में गोपाचल काष्ठासंघ माथुरान्वय बड़े ही महत्वपूर्ण हैं और मध्यप्रदेश के पुरातत्व की एवं पुष्करगणीय भट्टारकों का गढ़ था। उनमें भट्टारक सद्धि के लिए अमूल्य निधि हैं। गुणकीर्ति के शिष्य यश.कीति तथा उनके शिष्य महाकवि रइधु ने डूंगर सिंह के आग्रह से उनके दुर्ग में रहकर गोपाचल दर्ग में स्थित 57 फीट ऊंची आदिनाथ ही साहित्य साधना की थी। महाकवि के बालसखा एवं की मूर्ति पर भी एक लेख अंकित है । स्व. श्री डूगरसिंह के अमात्य कमलसिंह ने दुर्ग में 57 फीट राजेन्द्रलाल हाड़ा ने कठोर परिश्रम कर उसका अध्ययन ऊँची आदिनाथ की मूर्ति का निर्माण कराया था, किया था, किन्तु महाकवि रइधू कृत सम्मतगुण- जिसकी प्रतिष्ठा डूगरसिंह की सहायता से कमलसिंह गिहाणकव्व की आद्यप्रशस्ति का अध्ययन एवं मूति ने रइध द्वारा कराई थी। लेख से उसकी तुलना करने से श्री हाड़ा का अध्ययन पर्याप्त भ्रमपूर्ण सिद्ध होता है। उनके पठनानुसार मति उक्त वक्तव्य के रेखांकित पदों की, मूर्तिलेख के लेख निम्न प्रकार है रेखांकित पदों से तुलना करने पर संगति ठीक ही बैठ जाती है। उक्त संगति का मूलाधार रइधु कृत श्री आदिनाथायनमः । संवत् 1497 वर्षे वैशाष 'सम्मत्तगुणणिहाणकव्व' ही है, जिसे रइधू ने कमलसिंह 7 के पुनर्वसुनक्ष ने श्री ‘गोपाचल दुर्गे' के आश्रय में रहकर उसके स्वाध्याय हेतु तैयार किया महाराजाधिराज श्री डुग..." संवर्तमानो श्री था तथा उसने उसकी प्रशस्ति में कमलसिंह का वंशवृक्ष, 12. विशेष के लिए देखिए रइधू, साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन पृ० 69-83. 13. दे० बड़वानी भित्तिलेख. ३१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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