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________________ १. प्रथम निन्हव - ( जामालि); बहुरत सिद्धान्त : ३. तृतीय निन्हव- ( आषाढ़ आचार्य); अव्यक्त मत श्वेताविका नगरी में आषाढ़ नामक एक आचार्य थे । वे अकस्मात मरकर देव हुए और पुनः मृत शरीर में आकर उपदेश देने लगे। योग साधना समाप्त होने पर उन्होंने अपने शिष्यों से कहा- "मैंने असंयमी होते हुए भी आप लोगों से आज तक बन्दना कराई श्रमणो, मुझे क्षमा करना ।" इतना कहकर वे चले गये तब शिष्य कहने लगे- कौन साधु बन्दनीय है, कौन नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। अतः किसी की भी बन्दना नही करनी चाहिए। व्यवहार नय को न सम झने के कारण यह निन्हब पैदा हुआ । 18 ४. चतुर्थ निन्हव - (कौण्डिण्य ) ; सामुच्छेदक : कौण्डिण्य का शिष्य अश्वमित्र मिथला नगरी में २. द्वितीय निन्हव - (तिष्यगुप्त ) ; जीवप्रादेशिक अनुप्रवाद नामक पूर्व का अध्ययन कर रहा था । उसमें सिद्धांत एक स्थान पर प्रसंग आया कि वर्तमान कालीन नारक विच्छिन्न हो जायेगे द्वितीयादि समय के नारक भी विच्छिन्न हो जायेगे । अतः उसके मन में आया कि उत्पन्न होते हो जब जीव नष्ट हो जाता है तो कर्म का फल कब भोगता है। यह क्षणभंवाद पर्यायनय को न मानने के कारण उत्पन्न हुआ। इसे समुच्छेदक नाम दिया गया हैं । इसका अर्थ है --- जन्म होते ही अत्यन्त विनाश हो जाता हैं ५. पञ्चम निन्हव द्विक्रिया (गंग) धनगुप्त का शिष्य गंग एक बार शरदऋतु में उलुकातीर नामक नगर से आचार्य की वन्दना करने जामालि भ० महावीर का शिष्य था । श्रावस्ती में उसने अपने शिष्य से एक बार बिस्तर लगाने के लिये कहा। शिष्य ने कहा- विस्तर लग गये । जामालि ने जाकर जब देखा कि अभी बिस्तर लग रहा है तो उसे महावीर का कहा हुआ “कियमाणं कृत", ( किया जाने वाला कर दिया गया) वचन असत्य प्रतीत हुआ । तब उसने उस सिध्दांत के स्थान पर बरहुत सिद्धांत की स्थापना की जिसका तात्पर्य है कि कोई भी क्रिया एक समय में न होकर अनेक समय में होती है। मृदानयन आदि से घट का प्रारम्भ होता है पर घट तो अन्त में ही दिखाई देता है। यह ऋजु सूत्रमय का विषय है जिसे जामालि ने नहीं समझा।" तिष्यगुप्त वसु का शिष्य था। एक समय ऋषभपुर में आत्म प्रवाद पर चर्चा चल रही थी । प्रश्न था - क्या जीव के एक प्रदेश को जीव कह सकते हैं। भगवान महावीर ने उत्तर दिया- नहीं । सम्पूर्ण प्रदेश युक्त होने पर ही 'जीव' कहा जायगा तब तिष्यगुप्त ने कहा कि जिस प्रदेश के कारण वह जीव नहीं कहलायेगा। उसी चरम प्रदेश को जीव क्यों नहीं कहा जाता, यही उसका जीव प्रादेशिक मत है। एवंभूतनय न समझने के कारण ही उसने यह मत स्थापित किया ।" 16. विशेषावश्यक भाष्य गाया 2308-32. 17. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-2333-2355. 18. विशेषावश्यक भाष्य गाथा - 2356-2388. 19 विशेषावश्यक भाष्य, गाया -2389-2433. Jain Education International १०८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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