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एक अन्य देवसेन ने भावसंग्रह में भी श्वेताम्बर संघ की उत्पत्ति इसी प्रकार बतायी है। थोड़ा-सा जो भी अन्तर है, वह यह है कि यहाँ शान्ति नामक आचार्य सौराष्ट्र देशीय बलभी नगर अपने शिष्यों सहित पहुंचे पर वहाँ भी दुष्काल का प्रकोप हो गया । फलतः साधुवर्ग यथेच्छ भोजनदि करने लगा । दुष्काल समाप्त हो जाने पर शान्ति आचार्य ने उनसे इस वृत्ति को छोड़ने के लिए कहा पर उसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया । तब आचार्य ने उन्हें बहुत समझाया। उनकी बात पर किसी शिष्य को क्रोध आयों और उसने गुरू को अपने दीर्घ दण्ड से सिर पर प्रहार कर उन्हें स्वर्ग लोक पहुंचाया और स्वयं संघ का नेता बन गया । उसी ने सवस्त्र मुक्ति का उपदेश दिया और श्वेताम्बर संघ की स्थापना की ।
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मट्टारक रत्ननन्दि का एक भद्रबाहुचरित्र मिलता है, जिसमें उन्होंने कुछ परिवर्तन के साथ इस घटना का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि दुर्भिक्ष पड़ने पर भद्रबाहु ससंघ दक्षिण गये । पर रामल्य, स्थूलाचार्य आदि मुनि उज्जयिनी में ही रह गये। कालान्तर में संघ में व्याप्त शिथिलाचार्य को छोड़ने के लिए जब स्थूलाचार्य ने मार डाला। उन शिथिलाचारी साधुओं से ही बाद में अर्थ फलक और श्वेताम्बर संघ की स्थापना हुई ।
इन कथानकों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भद्रबाहु की परम्परा दिगम्बर सम्प्रदाय से और स्थूलभद्र की परंपरा श्वेताम्बर सम्प्रदाय से जुड़ी हुई है। यह श्वेताम्बर सम्प्रदाय अर्धफलक संघ का ही विकसित रूप है।
अर्धफलक सम्प्रदाय का यह रूप मथुरा कंकाली टीले से प्राप्त शिलापट्ट में अंकित एक जैन साधु की
2 भावसग्रह-गा 53 - 70,
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प्रतिकृति में दिखाई देता है । वहाँ एक साधु 'कण्ह' बायें हाथ से वस्त्रखण्ड के मध्य भाग को पकड़कर नग्नता को छिपाने का यत्न कर रहा है। हरिभद्र के सम्बोप्रकरण से भी श्वेताम्बर सम्प्रदाय के इस पूर्व
रूप पर प्रकाश पड़ता है। कुछ समय बाद उसी वस्त्र को कमर में धागे से बध दिया जाने लगा । यह रूप मथुरा में प्राप्त एक आयागपट्ट पर उटंकित रूप से मिलता-जुलता है। इस विकास का समय प्रथम शब्तादि के आस पास माना जा सकता है।
ऊपर के कथानकों से यह भी स्पष्ट है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के बीच विभेदक रेखा खींचने का उत्तरदायित्व वस्त्र की अस्वीकृति और स्वीकृति पर है। उत्तराध्ययन में केशी और गौतम के बीच हुए संवाद का उल्लेख है। केशी पार्श्वनाथ परम्परा के अनुयायी है और गौतम महावीर परम्परा के पा नाथ ने सन्तस्तर (सान्तरोतर ) का उपदेश दिया और महावीर ने अचेलकता का। इन दोनों शब्दों के अर्थ की ओर हमारा ध्यान श्री० पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री
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आकर्षित किया है। उन्होंने लिखा है कि उत्तराध्ययन की टीकाओं में सान्तनेत्तर का अर्थ महामूल्यवान् और अपरिमित वस्त्र ( सान्त र प्रमाण और वर्म में विशिष्ट तथा उत्तर-प्रधान) किया गया है और उसी के अनुरूप अचेल का अर्थ वस्त्रभाव के स्थान में क्रमश: कुत्सितचेल, अल्पचेल और अमूल्यचेल मिलता है । किन्तु आचारंग सूत्र 209 में आये 'संतरुसर' शब्द का अर्थ दृष्टव्य है। वहाँ कहा गया है कि तीन वस्त्रधारी साधु का कर्तव्य है कि वह जब शीत ऋतु व्यतीत हो जाय जाय और श्रीष्म ऋतु आ जाये और वस्त्र यदि जीणं न हुए हों तो कहीं रख दे अथवा सान्तरोत्तर हो जाये । शीलांक ने सान्तरोत्तर का अर्थ किया है— सान्तर है उत्तर ओढ़ना जिसका अर्थात्, जो आवश्यकता होने पर
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