________________
सम्यक ज्ञान
अप्पा अप्पम्मि रओ, सम्माइट्ठी हवेइ फुड जीवो। जाणइ तं सण्णाणं, चरदिह चारित्तमग्गु त्ति ॥
आत्मा में लीन आत्मा ही सम्यग्दष्टि होता है । जो आत्मा को यथार्थ रूप से जानता है वही सम्यग्ज्ञान है, और उसमें स्थित रहना ही सम्यक् चारित्र है।
सम्यक चारित्र
णिच्छयणयस्य एवं, अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सूरदो। सो होदि ह सूचरित्तो, जोई सोलइ णिव्वाणं ॥
निश्चयनय के अभिप्रायानुसार आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिये तन्मय होना ही (निश्चय) सम्यक चारित्र है। ऐसे चारित्रशील योगी को ही निर्वाण की प्राप्ति होती है।
ज्ञान
जाणं णरस्स सारो णाणुज्जावस्स णत्थि पणिद्यादो।
ज्ञान मनुष्य का सार है ज्ञान के प्रकाश को कोई नष्ट नहीं कर सकता।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org