________________
कार्तक. 11 रामृता तथा 12 वीथी - इस प्रकार बारह प्रकार के रूपक बताये गये हैं। पांच अवस्थाओं और पांच संधियों का भी उल्लेख है ।
द्वितीय विवेक " प्रकरणाद्यकादशनिर्णय" में प्रकरण से लेकर बोथी तक के 11 रूपकों का वर्णन है । इसमें वृत्ति, रस, भाव और अभिनय का विवेचन है ।
तृतीय विवेक "वृत्तिरस भावाभिनय विचार" में चार वृत्तियों, नव रसों, नव स्थायी भावों, तैंतीस व्यभिचारी भावों, रस आदि आठ अनुभावों और अभिनवों का निरूपण है ।
आचार्य रामचन्द्र सूरि और गुण चन्द्र गणि ने अपने नाट्यदर्पण पर स्वोषज्ञ विवृत्ति की रचना की चतुर्थं विवेक "सर्वरूपक साधारण लक्षण निर्णय" है । इसमें रूपकों के उदाहरण 55 ग्रन्थों से दिये गये में सभी रूपकों के लक्षण बताये गये हैं । हैं । स्वरचित कृतियों से भी उदाहरण लिये हैं । इसमें उपरूपकों के स्वरूप का आलेख किया गया है।
आचार्य रामचन्द्र सूरि समर्थ आशुकवि के रूप में प्रसिद्ध थे; गुण-दोपो के बड़े परीक्षक थे । इन्होंने नाटक आदि अनेक ग्रंथों की रचना की । गुरु हेमचन्द्रचार्य ने जिन नाटक आदि ग्रन्थों पर नहीं लिखा था उन विषयों पर इन्होंने अपनी लेखनी चलाई। ये प्रबंध शतकर्ता भी माने गये हैं। प्रबंध शतक ग्रन्थ अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है । ऐसे समय कवि की अकाल मृत्यु सं. 1230 के आस-पास राजा अजयपाल के निमित्त हुई । ऐसी सूचना प्रबंध से मिलती है। इनके गुरुभाई गुणचन्द्र सूरि भी समर्थ विद्वान थे । उन्होंने "सवृत्तिक द्रव्यालंकार" आचार्य रामचन्द्र सूरि के साथ रचना की है।
आचार्य रामचन्द्र सूरि ने जो ग्रन्थ लिखे हैं, उनमें वर्तमान समय में निम्नलिखित ग्रन्थ उपलब्ध हैं :
(1) कौमुदीमियाणंद ( प्रकरण ), ( 2 ) नलविलास (नाटक), (3) निर्भय, (4) मल्लिकामकरंद ( प्रकरण ), ( 5 ) यादवाभ्युदय (नाटक), (6) रघुविलास (नाटक), ( 7 ) राघवाभ्युदय (नाटक), (8) रोहिणी मृगांक ( प्रकरण ), ( 9 ) बनमाला ( नाटिका ), ( 10 )
सत्य -
हरिश्चन्द्र (नाटक). (11) सुघाकलश ( कोष), (12) आदिदेवस्तवन, (13) कुमार विहारशतके, ( 14 ) जिनत्तेत्र, (15) नेमिस्त्व, ( 16 ) मनसुब्रस्त्व, ( 17 ) दुविलास ( 18 ) सिद्ध हेमचन्द्र, शब्दानुशासन, लघुन्यास, ( 19 ) सोलह साधारण जिनस्त्व, (20) प्रसाद्धात्रि शिकर ( 21 ) युगादिद्वात्रिशिका (22) व्यतिरेकद्वात्रिंशिका, (23) प्रबंघशत - यह ग्रंथि अभी तक अप्राप्त है ।
"आचार्य दर्पणवृत्ति"
Jain Education International
धनंजय के " दशरूपक" ग्रंथों को आदर्श रूप में रखकर यह विवृत्ति लिखी गयी । बिवृत्तिकार ने कहीं-कहीं घनंजय के मत से भिन्न मत भी प्रदर्शित किया है। भरत के नाट्य में पूर्वापर विरोष है, ऐसा भी उल्लेख किया है । अपने गुरु आचार्य हेमचन्द्राचार्य के "काव्यानुशासन" में भी कहीं-कहीं भिन्न मत का भी निरूपण मिलता है । इस दृष्टि से यह कृति विशेष तौर से अध्ययन करने योग्य है । नाट्यदर्पण स्वपोत विवृत्ति के साथ गायकवाडा ओरियेन्टल सीरीज में दो भागों में छपा है। इस ग्रन्थ का के. एच. त्रिवेदिकृत आलोचनात्मक अध्ययन लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ है ।
"प्रबंध शतक"
आचार्य हेमचन्द्र सूरि के शिष्यत्व आचार्य रामचन्द्र सूरि ने 'नाट्यदर्पण" के अतिरिक्त नाट्यशास्त्र विषयक "प्रबंध शतक" नामक ग्रंथ की भी रचना की थी जो अप्राप्य है ।
१७६
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org