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________________ "संगीत मंडल" मी एक है। इस ग्रंथ की रचना सं. से शिक्षा-दीक्षा आदि देकर साधक की रुचि के अनुसार 1490 के आस-पास हुई है। इसकी हस्त-लिखित प्रति । उसमें उसे प्रवीण करा दिया जाता है। किसी भी कार्य मिलती है। ग्रंथ अभी तक अप्रकाशित है। की पूर्ति के लिये मुख्य दो साधन होते हैं । प्रथम आंत रिक तथा दूसरा वाह्य । वाह्म साधन आंतरिक का "संगीत दीपक, संगीत रत्नवाली, संगीत पिंगल" पूरक है। इसलिये ग्रंथों का प्रकाशन शिक्षा-दीक्षा जितने भी कार्य किये या कराये जाते हैं, आंतरिक मावों की - इन तीनों ग्रंथों का उल्लेख जैन ग्रन्थावली में जागृति विशेष के लिये ही होते हैं। वह जागृत अवस्था मिलता है। परन्तु इनके विषय में अभी तक नाम के चाहे भौतिक वस्तु की प्राप्ति के लिये हो अथवा आध्यासिवाय विशेष जानकारी नहीं मिलती। त्मिक निःश्रेय मार्ग को प्राप्त करने के लिये हो; यह तो साधक के मानसिक विचारों और उसके पक्ष पर नाट्य ही आधारित है। ऋषि-मुनियों ने जो मार्ग दर्शन हमें कराया उनका एकमात्र लक्ष्य निश्रेय मार्ग अर्थात अपयो यं स्वभावो लोकस्य सुख दुःख समन्वित:। । वर्ग मार्ग का ही विशेष लक्ष्य रहा है। परंतु भौतिक सोआंगाद्यभिनयो येतो, नाट्यमित्यभिधीयते।। या अर्थ की ओर जिनका लक्ष्य रहा, उन्होंने इसका उपयोग अर्थ प्राप्ति के लिये ही किया। इससे इन दुःखी, शोकार्त, श्रांत एवं तपस्वी व्यक्तियों को कलाओं में स्वाभाविक गुण और शक्ति का ह्रास होने विश्रांत देने के लिये नाट्य की सृष्टि की गयी। सुख लगा है क्योंकि लक्ष्य, लोक रुचि की ओर होने से लोक दुःख से युक्त लोक स्वभाव ही आंगिक, वाचिक इत्यादि रुचि अनुसार रंजकता लाने के लिये इन रागों, मुद्राओं अभिनवों से युक्त होने के कारण नाट्य कहलाता है। और नाट्य कलाओं में परिवर्तन करना पड़ता है। इससे नाट्य मुद्रायें और चित्रकला-प्राणियों के लिये एक वहां की वस्तुकला वास्तविकता से हटकर अपने स्वरूप विशेष स्वाभाविकता रही है, जिसके आधार पर ही को खो बैठती है। यह अपने मानसिक, वाचिक और कायिक भावों का दूसरों पर प्रभाव डालता है। नाट्यकला, मुद्राकला "नाटय वर्षण".. . और संगीत कला ये तीनों कला आपस में इस तरह मिली हुई हैं कि जिस प्रकार सूर्य से ताप या प्रकाश अलग . . , कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र सूरि के दो शिष्यों कवि नहीं किया जा सकता। मानब के अंत:स्थल में जन कहारयल विरुद्धधारक रामचन्द्र सूरि और उनके गुरु भावावेश की जागृति होती है। तदनुकूल उसकी मान माई गुणचन्द्र गणि ने मिलकर "नाट्यदर्पण" की रचना सिक, वाचिक तथा कायिक चेष्टायें स्वतः स्वाभाविक वि. सं. 1200 के आस-पास की है। (नेचुरल) प्रकट होने लगती हैं । ये तीनों कलायें सीखनी नाट्यदर्पण में चार विवेक हैं जिनमें सब मिलकर नहीं पड़तीं। वह (मानव) जन्म से ही साथ लेकर 207 पद्य हैं। जन्मता है और मरणोपरांत भी पुनर्जन्म के समय उसके साथ बनी रहती हैं। लोक आकर्षण के लिये मानसिक प्रथम विवेक "नाट्यदर्पण" में नाटक संबंधी सब प्रवत्ति न होने पर भी वैसा भाव दिखाना जब कभी बातों का निरूपण किया गया है। इसमें 1 नाटक 2 आवश्यक होता है और उसका निराकरण करना भी प्रकरण, 3 नाटिका, 4 प्रकरणी, 5 व्यायोग, 6 समवआवश्यक होता है ऐसी अवस्था में उसमें विशेष रूप कार, 7 भाण, 8 प्रहसन, 9 डिम, 10-उत्तस्रास्ति '. गह। १७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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