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जैन धर्म का अस्तित्व गणपक्षपात के आधार पर ही रह में तथा हरिवंश कथाकोष में भी मिलता है। 'सेनगण' सकेगा, उदासीन भाव से नहीं। तब उन्होंने संघ अथवा नाम भी उत्तरकालीन ही प्रतीत होता है। यह दक्षिण गण स्थापित किये । गुहाओं से आनेवाले मुनियों को भारत के भट्टारकों में अधिक प्रचलित रहा है। 'नन्दि' और 'वीर' संज्ञा दी, अशोक वाटिका से आनेवालों को "देव" और "अपराजित" कहा, पञ्चस्तूप मूलसंघ के अन्तर्गत जो शाखाएँ प्रशाखाएं उपलब्ध से आनेवालों को" सेन या 'भद्र" नाम दिया, शाल्म- होती हैं, उन्हें हम निम्न प्रकार से विभाजित कर लिवृक्ष से आनेवालों को “गुणधर" या गुप्त बताया सकते हैं । तथा खण्डकेशर वृक्षों से आनेवालों को सिंह और चन्द्र कहकर पुकारा । इसी संदर्भ में इन्द्रनन्दि ने कुछ
1. अन्वय -कोण्डकुन्दान्वय, श्रीपुरान्वय, कित्त, . मतभेदों का भी उल्लेख किया है, जिससे पता चलता है
रान्वय, चन्द्रकवायन्वय, चित्रकूटान्वय
निगमान्वय आदि । कि इन्द्रनन्दि को भी संघभेद का स्पष्ट ज्ञान नहीं था । पर यह निश्चित है कि उस समय विशेषतः नन्दि । सेन ,
सन 2. बलि-इनसोगे या पनसोगे इंगलेश्वर एवं वाणद देव और सिंह गण ही प्रचलित थे । उन्होंने गोपु-
अलि आदि । च्छिक, श्वेताम्बर, द्रविड, यापनीय, और निपिच्छ को जैनाभास कहा है।
3. गच्छ-चित्रकूट, होत्तगे, तगरिक, होगरि, पारि
जात, मेषपाषाण, तित्रिणीक, सरस्वती, इनमें नन्दि संघ प्राचीनतम संघ प्रतीत होता है।
पुस्तक, वक्रगच्छ आदि । इस संघ की एक प्राकृत पट्टावली भी मिली है । ये कठोर तपस्वी हुआ करते थे । यापनीय और द्राविड़ 4. संघ-नावित्मूरसंघ, मयुरसंघ, किचूरसंघ, कोशलसंघ में भी नन्दिसंघ मिलता है। लगभग 14-15 वीं
नूर संघ, गनेश्वरसंघ, गौड़संघ, श्रीसंघ, शताब्दी में नन्दिसंघ और मूलसंघ एकार्थ वाची से हो
सिंहसंघ, परलूरसंघ आदि । गये । नन्दिसंघ का नाम “नन्दि" नामान्तधारी मुनियों से हुआ जान पड़ता है।
5. गण-बलात्कार, सूरस्थ, कालोन, उदार, योग
रिय, पुलागवृक्ष मूलगण, पंकुर, देवगण, सेनसंघ का नाम भी सेनान्त आचार्यों से हा
सेनागण, सूरस्थगण, क्राणूरगण आदि । होगा । जिनसेन एक संघ के प्रधान नायक कहे जा सकते हैं। उनके पूर्व संभव है उसे पञ्चस्तूपान्वय ये गण दक्षिण भारत में अधिक पाये जाते हैं, कहा जाता हो । जिनसेन ने अपने गुरू वीरसेन को उत्तर भारत में कम । उनमें प्रधानतः उल्लेखनीय हैंइसी अन्वय का लिखा है । इस अन्वय का उल्लेख कोण्डकुन्दान्वय, सरस्वतीपुस्तक गच्छ, सूरस्थगण, पहाड़पुर (बंगाल) के पाँचवी शताब्दी के शिलालेखों क्राणूरमण एव बलात्कारगण ।
34. श्रु तावतार, 96. 35. नीतिसार, 6-8; 36. चौधरी गुलाबचन्द्र-दिगम्बर जैन संघ के अतीत को झांकी,
आचार्य भिक्षु स्मृति ग्रन्थ, द्वितीय खण्ड, पृ. 295.
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