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में ऐसी ऐतिह्य सामग्री प्राप्त होती है जिसके आधार सम्यक् रूप से नहीं किया है, वरन्, इन क्षेत्रों के पर मध्ययुग के इतिहास की खोई हुई कड़ियों को जोड़ा राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास से परिचय प्राप्त जा सकता है और कुछ बहुत बड़ी भूलों को सुधारा करने के लिए ही जैन स्रोतों का अध्ययन किया है। जा सकता है। यहाँ एक उदाहरण ही पर्याप्त है। उसी आनुषंगिक अध्ययन के क्रम में जैन धर्म के विकास लगभग चार शताब्दियों से भारतीय इतिहास में यह की कुछ रूपरेखा भी सामने आई है। दिल्ली में जैन बात निर्विवाद मानी जाती है कि पृथ्वीराज चौहान धर्म के विकास की गाथा यहां असम्बद्ध है, यहां केवल दिल्ली का राजा था, और यह राज्य उसे उसके पूर्वज ग्वालियर क्षेत्र में जैन धर्म के विकास की उपलब्ध विग्रहराज चतुर्थ से दाय में मिला था; अर्थात्, विग्रहराज सामग्री पर किंचित प्रकाश डालना अभीष्ट है। चतुर्थ ने कभी सन् 1151 ई० में तोमरों से दिल्ली जीत ली थी। यद्यपि ईसवी चौदहवीं और पन्द्रहवीं जैन धर्म के विकास का इतिहास अत्यन्त प्राचीन शताब्दी के कुछ जैन मुनि भी इस भ्रम से अभिभूत थे, है । परन्तु ग्वालियर क्षेत्र में उसके विकास का इतिहास तथापि, समकालीन जैन रचनाएं यह निर्विवाद रूप से बहुत प्राचीन नहीं है, अथवा यह कहना उचित होगा कि सिद्ध करती हैं कि चौहानों ने तोमरों से दिल्ली कभी ईसवी सातवीं-आठवीं शताब्दी के पूर्व के इस क्षेत्र के नहीं जीती थी और पथ्वीराज चौहान का दिल्ली से जैन धर्म के विकास के इतिहास की सामग्री की अभी कभी कोई सम्बन्ध नहीं रहा था। उसका राज्य खोज नहीं की जा सकी है। . शाकम्भरी प्रदेश तक सीमित था और उसकी राजधानी सदा अजमेर ही रही । यदि ये जैन ग्रन्थ उस समय सब से प्राचीन अनुश्रु ति पद्मावती की प्राप्त उपलब्ध हो जाते जब भारत का इतिहास लिखे जाने होती है। ईसवी प्रथम शताब्दी के आसपास मथुरा, का प्रारम्भिक प्रयास किया जा रहा था, तब हमारी कान्तिपुरी, पद्मावती और विदिशा में नाग राजाओं अनेक पीढ़ियां दिल्ली का अशुद्ध इतिहास पढ़ने से बच का राज्य था। उनमें से कुछ को निर्विवाद रूप से जातीं। अब वह अशुद्धि हमारे मस्तिष्क पटल पर इतनी सम्राट् कहा जा सकता है। इन चारों नगरों में गहरी खचित हो गई है कि उसे मिटाने में भी बहुत कान्तिपुरी और पद्मावती ग्वालियर क्षेत्र में हैं। समय लग सकता है।
पदमावती वर्तमान समय में पवाया नामक छोटे-से ग्राम
के रूप में विद्यमान है और कान्तिपुरी के स्थान पर ग्वालियर प्रदेश के मध्ययुगीन इतिहास ग्रन्थों में कुतवार नामक ग्राम है । जिस समय ये दोनों स्थान हतनी भयंकर भलें तो नहीं थीं, फिर भी कुछ थीं महानगरों के रूप में बसे हुए थे उस समय गोपाद्रि अवश्य । समकालीन जैन ग्रन्थ, जैन मूर्तिलेख आदि से गोपों अर्थात् गोपालों की भूमि था और उसका विशेष न केवल उन भलों को सधारा जा सकता है, वरन जो महत्व नहीं था। तथ्य अब तक अज्ञात ही हैं उन पर विषद प्रकाश डाला जा सकता है। तात्पर्य यह है कि ग्वालियर क्षेत्र में जैन दुर्भाग्य से पद्मावती (पवाया) तथा कान्तिपरी धर्म के विकास के इतिहास का अध्ययन न केवल जैन (कुतवार) का अभी तक विस्तृत पुरातात्विक अन्वेषण धर्म के अनुयायियों के लिए उपयोगी एवं स्फूर्तिदायक नहीं हुआ है। इन स्थानों पर उत्खनन करने पर ऐसी है, वरन भारत के राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास प्राचीन सामग्री प्राप्त होगी जिससे यहां जैन धर्म की को भी ठोस धरातल प्रदान करता है। मैंने ग्वालियर स्थिति पर प्रकाश पड़ेगा। आज जैसी स्थिति है उसमें या दिल्ली क्षेत्र में जैन धर्म के विकास का अध्ययन केवल अनुश्र ति से काम चलाना पडेगा।
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