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प्रकार वृक्ष और बीज का सम्बन्ध सन्तति की दृष्टि से मुक्ति पर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार अनादि है, और पर्याय की अपेक्षा से वह सादि है. इसी जैन दर्शन में मोक्ष की धारणा का विकास, कर्म दर्शन प्रकार कर्मबन्धन सन्तान या उत्पत्ति की दृष्टि से अनादि के विकास पर ही आधारित है। और पर्याय की दृष्टि से सादि है। जैन दर्शन में कर्म
___ कर्म के भेद --- और आत्मा के सम्बन्ध में इस व्याख्या के कारण ही आगे चलकर उसे वैज्ञानिक रूप दिया है जिस कारण जैन दार्शनिकों ने कर्म की वृहद व्याख्या करते हुए वह अन्य दर्शनों से अलग है। जैन दर्शन कर्मबन्धन को कहा है कि--कर्म मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति, योग, अनादि और पर्याय की दृष्टि से सादि मानकर ही आगे मोड तथा क्रोधादि कषाय ये भाव जीव और अजीव के यह और व्याख्या करता है, कि--पर्याय की दृष्टि से मेद से दो-दो प्रकार के हैं। इस प्रकार कर्म को दो सादि होने के कारण पूर्व के कर्मबन्धनों को तोड़ा भी आधारों भौतिक तथा मानसिक के आधार पर दो भेद जा सकता है। कोई भी सम्बन्ध अनादि होने से अनन्त किये गए हैं--'द्रव्य कर्म' एवं 'भाव कर्म'। द्रव्य कर्म नहीं हो ज ते, विरोधी कारणों का समागत होने पर का अर्थ है जहां द्रव्य का आत्मा में प्रवेश हो गया हो अनादि सम्बन्ध टूट भी जाते है, जिस प्रकार बीज और अर्थात जहां रागद्वेषादि रूप भावों का निमित्त पाकर वृक्ष का सम्बन्ध अनादि होते हुए भी, पर्याय विशेष में जो कार्मण बर्गणारूप पुदगल परमाणु आत्मा के साथ सादि होता है, और पर्याय विशेष में किसी बीज विशेष बंध जाते हैं उन्हें द्रव्यकर्म कहते हैं । यह पौदगलिक हैं, के जल जाने पर, अर्थात विरोधी कारणों के समागम और इनके और भी भेद किये गए हैं। के कारण उसमें अंकुर उत्पन्न नहीं होता। इस विषय में आचार्य अकलंक देव तत्वार्थराज वातिक (२/७) में
भाव कर्म, आत्मा के चैतन्य परिणामात्मक हैं। ऐसा ही दृष्टांत देकर समझाया गया है कि जिस प्रकार
इनमें इच्छा तथा अनिच्छा जैसी मानसिक क्रियाओं का बीज के जल जाने पर अंकुर नहीं उत्पन्न होता, उसी
समावेश होता है। अर्थात ज्ञानरणादिरूप द्रव्य कर्म के प्रकार कर्मबीज़ के भस्म हो जाने पर भवांकुर उत्पन्न
निमित्त से होने वाले जीव के राग द्वेषादि रूप भावों नहीं होता।
को भावकम कहते हैं।
यही कारण है कि, जैन दार्शनिकों ने आत्मा के द्रव्य कम और भाव कर्म की पारस्परिक कार्यस्वभाव की सकारात्मक व्याख्या करते हुए उसे विशुद्ध कारण परम्परा अनादिकाल से चली आरही है। इन एवं अमीम क्षमताओं वाली कहा है। उनके अनुसार दोनों में नैतिक सम्बन्ध है। भावक्रम का निमित्त कर्म के दुष्ट प्रनाव के कारण वह अपने को सीमित द्रव्यकर्म है और द्रव्य कर्म का निमित्त भाबकर्म है। अनुभव करती है। कर्म के इस दुष्ट प्रभाव से आत्मा राग द्वषादिरूप भावों का निमित्त पाकर द्रव्यकर्म आत्मा को मुक्त करा पाने पर ही सदकर्मों की उत्पत्ति होती से बंधता है और द्रव्यकर्म के निमित्त से आत्मा में राग है, सदकर्मों से कर्मबन्ध टूटते हैं और कर्मबन्धों से पूर्ण द्वेषादि मावों की उत्पत्ति होती है ।
15. मिच्छत्त पुण दुवह जीबमजोब तहेव अण्णाण । अविरदि जोगो मोहो कोहादिया इमे भावा । समयसार ।
मूल । ८७ । प्र.-अहिंसा मन्दिर प्रकाशन, देहली 16. जैन कर्म सिद्धान्त और भारतीय दर्शन, पूर्वाक्त, पृ. 47
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