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वैशेषिक दर्शन के अनुसार अयस्कान्त मणि की द्योतक है। शंकराचार्य ने इसीलिये अपूर्व को कर्म की ओर सूई की स्वाभाविक गति, वृक्षों के भीतर रस का सूक्ष्मा उत्तरावस्था या फल की पूर्वावस्था माना है। नीचे से ऊपर की ओर चढ़ना, अग्नि की लपटों का
वेदान्त दर्शन के अनुसार कर्म से वासना उत्पन्न ऊपर की ओर उठना, वायु की तिरछी गति, मन तथा
होती है और वासना से संसार का उदय होता है । परमाणुओं की प्रथम परिस्पन्दात्मक क्रिया, ये सब
विज्ञान दीपिका में यह बतलाया गया है, कि जिस कार्य अदृष्ट द्वारा होते हैं ।
प्रकार घर में तथा क्षेत्र में स्थित अन्न का विनाश सांख्य दर्शन के मत में--क्लेश रूपी सलिल से विविध रूप से किया जा सकता है, किन्तु मुक्त अन्न का सिक्ता भूमि में कर्म बीज के अंकूर उत्पन्न होते हैं, विनाश पाचन द्वारा ही होता है, परन्तु प्रारब्ध कर्म का परन्तु तत्वज्ञान रूपी ग्रीष्म के कारण क्लेश जल के क्षय भोग के द्वारा ही होता है। सुख जाने पर ऊसर जमीन में क्या कभी कर्म-बीज
बौद्ध धर्म में भी, जो कि अनात्मवादी है कर्मों की उत्पन्न हो सकते हैं।
बिभिन्नता को ही प्राणियों में व्याप्त विविधता का योग दर्शन के अनुसार पातञ्जल योगसत्र में कारण माना है । अंगुतर निकाय में सम्राट मिलिन्द के क्लेश का मूल कर्माशय वासना को बतलाया है। यह
प्रश्नों के उत्तर में भिक्ष नागसेन कहते हैं?-"राजन ! कर्माशय इस लोक और परलोक में अनुभव में आता है।
कर्मों के नानात्व के कारण सभी मनुष्य समान नहीं
होते । भगवान ने भी कहा है कि मानवों का सद्भाव मीमांसा दर्शन के अनुसार--प्रत्येक कर्म में अपूर्व कर्मों के अनुसार है । सभी प्राणी कर्मों के उत्तराधिकारी (अदृष्ट) को उत्पन्न करने की शक्ति रहती है । कर्म से हैं। कर्मों के अनुसार ही योनियों में जाते हैं। अपना अपूर्व उत्पन्न होता है, और अपूर्व से फल उत्पन्न होता कर्म ही बन्धु है, आश्रय है. और वह जीव का उच्च है। अतः अपूर्व, कर्म तथा फल के बीच की अवस्था का और नीच रूप में विभाग करता है ।
2. मणिगमनं सूचभिसर्पण मित्य दृष्ट कारणम् । --वै. मू. ५।१:१५
वृक्षाभिसर्पणमित्यदृष्टकारणम् ।-वै. सू. ५।२।७ 3. क्लेशसलिलावसिक्तायां हि बुद्धि भूमौ कर्मवीजान्यंकुरं प्रसुवते ।
तत्वज्ञान निदाघणीतसकलक्लेशसलिलायां ऊषरायां कुतः कर्मवीजानामंकुर प्रसन । --तत्व कौमुदी सांख्य का० ६७
क्लेशमूलः कर्माशयः दृष्टादृष्टवेदनीयः । -योग सूत्र २।१२ 5. नचाप्यनुत्पाद्य किमपि अपूर्व कर्म विनश्यत् कालान्तरितं फलं दातुं शक्नोति ।
अतः कर्मणो वा सूक्ष्मा काचिदुत्तरावस्था फलस्य वा पूर्वावस्था अपूर्वनाभास्तीति तय॑ते । --शा. भा. ३।२।४० जैन कर्म सिद्धान्त और भारतीय दर्शन; पूर्वाक्त, पृ. ४० "महाराज कम्मानं नानाकरणेन मनुस्सा न सव्वे समका । भासितं एतं महाराज भगवता कम्मस्स कारणेन माणवसत्ता, कम्मदायादा कम्मयोनी, कम्मबन्धु कम्मपरिसरणा कम्म सत्ते विभजति यदिद होनप्पणीततायीति ।"
--अंगुत्तर निकाय
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