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__यही नहीं भारत के लगभग सभी प्रमुख धार्मिक 'कर्म' का अर्थ - ग्रंथों में कर्म सिद्धान्त की महत्ता तथा प्रकृति का यथा
मौलिक अर्थ की दृष्टि से तो कर्म का अर्थ बास्तव संभव उल्लेख मिलता है। गीता का मान्य सिद्धान्त है
में क्रिया से ही सम्बन्धित है। मन, वचन एवं काय के कि-प्राणी को कर्म का त्याग नहीं करना चाहिये,
द्वारा जीव जो कुछ करता है, वह सब क्रिया या कर्म किन्तु कर्म के फल का त्याग करना चाहिये । प्राणी का
है। मन, वचन और काय ये तीन उसके माध्यम हैं। अधिकार कर्म करने में ही है, फल में नहीं। महाभारत
इसे जीव कर्म या भाव कर्म कहते हैं, यहां तक कर्म की में भी आत्मा को बांधने वाली शक्ति को कर्म कहा
धारणा सभी को स्वीकार है । यह धारणा केवल संसारी है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी रामचरित मानस में
जीवों की क्रिया पर ही विचार करती है, अर्थात केवल कर्म को प्रधान कहा है
चेतन की क्रियाएं ही इसकी विषय वस्तु हैं, जड़ की कर्म प्रधान विश्व करि राखा।
क्रियाओं अथवा जड़ एवं चेतन की क्रियाओं में सम्बन्धों जो जस करहि सो तस फल चाखा ।। पर अन्य धारणाओं में विचार नहीं किया जाता, जैन
दर्शन इन दोनों के सम्बन्ध में भी गम्भीरता पूर्वक इस प्रकार भारतीय दर्शन में कर्म सिद्धान्त को
विचार करता है। इस कारण उसमें कर्म की व्याख्या प्रमुखता दी गई है। लगभग सभी दार्शनिकों ने कर्म
अधिक व्यापक एवं विस्तृत है। जैन दार्शनिक कर्म सिद्धान्त के विषय में अपने-अपने दृष्टिकोण से विचार
शब्द की भौतिक व्याख्या करते हैं। प्रकट कर इसे जीवन-दर्शन का प्रमुख आधार माना है।
परिभाषा एवं व्याख्याजैन कर्म दर्शन
श्री क्षु. जिनेन्द्र वर्णी के अनुसार- "भावकर्म से कर्म सिद्धान्त का जितना सविस्तार प्रभावित होकर कुछ सुक्ष्म जड़ पुदगल स्कन्ध जीव के विवेचन किया गया है, वह अन्य दर्शनों में कर्म सिद्धान्त प्रदेशों में प्रवेश पाते हैं और उसके साथ बंधते हैं, यह के विवेचन से कई गुना है । जैन बाङ्मय में इस संबंध बात केवल जैनागम ही बताता है। यह सूक्ष्म स्कन्ध में विपुल साहित्य भण्डार उपलब्ध है। प्राकृत भाषा अजीव कर्म या दव्य कर्म कहलाते हैं और रूप रसादि का जैन ग्रंथ "महाबन्ध", कर्म सिद्धान्त पर विश्व का धारक मूर्तीक होते हैं । जैसे कर्म, जीव करता है, वैसे सबसे वृहद ग्रंथ है, जिसमें चालीस हजार श्लोक हैं। ही स्वभाव को लेकर द्रव्य कर्म उसके साथ बंधते हैं इसके अतिरिक्त षट्खण्डागम, गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड, और कुछ काल पश्चात परिपक्व दशा को प्राप्त होकर लब्धिसार तथा क्षपणासार आदि कर्म सिद्धान्त विषयक उदय में आते हैं। उस समय इनके प्रभाव से जीव के वृहद ग्रंथ हैं । इस प्रकार जैन दर्शन में कर्म दर्शन को ज्ञानादि गण तिरोभूत हो जाते हैं। यही उनका फलविशेष महत्व दिया गया है, तथा उसकी सक्ष्म विवेचना दान कहा जाता है। सूक्ष्मता के कारण वे दृष्ट नहीं की गई है।
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कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।। मा कर्मफलहेतुर्भू: मा ते संगोऽस्तवकर्मणि ||--भगवद्गीता २१४७ "कर्मणा बध्यते जन्तुविद्ययातु विमुच्यते", महाभारत--शान्तिपर्व (२४०-७) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भा. १,-जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, पृ. २५
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